हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 168 ☆ “महासुख का राज रजाई” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर, विचारणीय एवं चिंतनीय  व्यंग्य – “महासुख का राज रजाई”)

☆ व्यंग्य # 168 ☆ “महासुख का राज रजाई” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

जाड़े का मौसम है, हर बात में ठंड…. हर याद में ठंड और हर बातचीत की भूमिका में ठंड की बातें और बातों – बातों में रजाई… वाह रजाई… हाय रजाई… महासुख का राज रजाई।

सबकी अपनी-अपनी ठंड है और ठंड दूर करने के लिए सबकी अलग अपने तरीके की रजाई होती है। संसार का मायाजाल मकड़ी के जाल की भांति है जो जीव इसमें एक बार फंस जाता है वह निकल नहीं पाता है ऐसी ही रजाई की माया है कंपकपाती ठंड में जो रजाई के महासुख में फंस गया वो गया काम से। ठंड सबको लगती है और ठंड का इलाज रजाई से बढ़िया और कुछ नहीं है रजाई में ठंड दूर करने के अलावा अतिरिक्त संभावनाएं छुपी रहती हैं रजाई में चिंतन-मनन होता है योजनाएं बनतीं हैं रजाई के अंदर फेसबुक घुस जाती है मोबाइल से बातें होतीं हैं जाड़े पर बहस होती है जाड़े की चर्चा से मोबाइल गर्म होता है रजाई सब सुनती है कई बड़े बड़े काम रजाई के अंदर हो जाते हैं रजाई की महिमा अपरंपार है दफ्तर में बड़े बाबू के पास जाओ तो रजाई ओढ़े कुकरते हुए शुरू में कूं कूं करता है फिर धीरे-धीरे बोल देता है जाड़ा इतना ज्यादा है कि पेन की स्याही बर्फ बन गई है जब पिघलेगी तब काम चालू होगा। इस प्रकार अधिकांश आफिस के लोग ठंड के बहाने सबको टरका देते हैं और कह देते हैं कि ठंड सबको लगती है आफिस की सब फाइलें ठंड में रजाई ओढ़ के सो रहीं हैं जबरदस्ती जगाओगे तो काम बिगड़ सकता है फिर आफिस के सब लोग रजाई के महत्व पर भाषण देने लगते हैं।

ठंड से मौत के सवाल पर मंत्री जी के मुंह में बर्फ जम जाती है रजाई में घुसे – घुसे कंबल बांटने के आदेश हो जाते हैं अलाव से प्रदूषण फैलता है लकड़ी काटना अपराध है कंबल खरीदने से फायदा है कमीशन भी बनता है। रजाई के अंदर से राजनीति करने में मजा है।

जब से हमने रजाई को आधार से जुड़वाया है तब से रजाई में खुसफुसाहट सी होने लगी है रजाई हमें पहचानने लगी है शुरू – शुरू में नू – नुकुर करती थी अब पहचान गई है आधार ही ऐसी चीज है जिसमें पहचान से लेकर सेवाओं तक में होने वाली धोखाधड़ी ये रजाई पहचानने लगती है। जाड़े में रज्जो की रजाई में रज्जाक घुसने में अब डरता है क्योंकि वो जान गया है कि सरकार ने आधार को हर सेवा से जोड़ने की कवायद कर ली है। पर गंगू रजाई की बात में कन्फ्यूज हो जाता है पूछने लगता है कि यदि रज्जो की रजाई चोरी हो जाएगी तो क्या आधार नंबर की मदद से मिल जाएगी ? इसका अभी सरकार के पास जबाब नहीं है क्योंकि सरकार का मानना है कि भुलावे की खुशी जीवन में कई दफा ज़्यादा मायने रखती है। गंगू की इस बात पर सभी को सहमत होना चाहिए कि यदि कोई इन्टरनेट बैंकिंग या डिजिटल पेमेंट से रजाई खरीदता है तो उसे जीएसटी में पूरी छूट मिलनी चाहिए। हालांकि गंगू ये बात मानता है कि एक देश एक कर प्रणाली (जीएसटी) ने देश का आर्थिक चेहरा बदलने की शुरुआत की है पर गुजरात के चुनाव ने सबको डरा दिया है जाड़े में चुनाव कराना ठीक नहीं है रजाई के दाम बढ़ने से वोट बंट जाने का खतरा बढ़ जाता है जयपुरी रजाई के दाम तो ऐसे बढ़ते हैं कि दाम पूछने में जाड़ा लगने लगता है। जैसे ही ठंड का मौसम आता है गंगू को अपने पुराने दिन याद आते हैं उसे उन दिनों की ज्यादा याद आती है जब पूस की कंपकपाती रात में खेत की मेढ़ में फटी रजाई के छेद से धुआंधार मंहगाई घुस जाती थी और दांत कटकटाने लगते थे भूखा कूकर ठंड से कूं… कूं करते हुए रजाई के चारों ओर रात भर घूमता था और रातें और लंबी हो जातीं थीं, पर पिछले साल से ठण्ड में कुछ राहत इसलिए मिली कि नोटबंदी के चक्कर में कोई बोरा भर नोट खेत में फेंक गया और गंगू ने बोरा भर नोट के साथ थोड़ी पुरानी रुई को मिलाकर नयी रजाई सिल ली थी नयी रजाई में नोटों की गर्मी भर गई थी जिससे जाड़े में राहत मिली थी इस रजाई से ठंड जरूर कम हुई थी पर अनजाना डर बढ़ गया था जो सोने में दिक्कत दे रहा था गंगू ने कहीं सुन लिया था कि नोटबंदी के बाद बंद हुए पुराने नोट पकडे़ जाने पर सजा का प्रावधान है। गंगू चिंतित रहता है कि भगवान की कृपा से पहली बार नोटभरी रजाई सिली और ठंड में राहत भी मिली पर ये साले चूहे बहुत बदमाशी करते हैं कभी रजाई को काट दिया तो नोट बाहर दिखने लगेंगे और रजाई जब्त हो जाएगी। खैर जो भी होगा देखा जाएगा अभी तो ये नयी रजाई ओढ़कर सोने में जितना मजा आ रहा है उतना मजा वित्तमंत्री को मंहगी जयपुरी रजाई ओढ़ने में नहीं आता होगा।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #173 ☆ व्यंग्य – बुलडोज़र-क्रान्ति ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित एक विचारणीय व्यंग्य  ‘बुलडोज़र-क्रान्ति ’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 173 ☆

☆ व्यंग्य ☆ बुलडोज़र-क्रान्ति

अरसे से शिकायत सुनते आये कि हमारे देश में न्याय व्यवस्था कच्छप गति से चलती है, कि न्याय के नाम पर तारीख पर तारीख मिलती है, कि दादा के लगाये मुकदमे का फैसला पोता ही सुन पाता है। न्यायालयों में ‘पेंडिंग’ लाखों मुकदमों की संख्या गाहे-बगाहे गिनायी जाती है।

लेकिन अब लगता है कि हमारे पुराने दर्द की दवा मिल गयी है। कुछ वैसा ही महसूस हो रहा है जैसा कभी जनता को पेनिसिलिन की खोज के समय हुआ होगा। अब न्याय की गाड़ी बुलेट ट्रेन की रफ्तार से चलेगी। ठीक भी है, जब देश में विकास छलाँगें ले रहा हो तो न्याय-व्यवस्था क्यों पीछे रहे? उसे भी वायु-वेग से दौड़ाने का नुस्खा प्राप्त हो गया है। इसीलिए उत्तर-प्रदेश के बाद कई राज्य-सरकारें इस तुरन्त फल देने वाली व्यवस्था को अपना रही हैं।

देश की न्याय व्यवस्था को रफ्तार देने वाले उपकरण का नाम बुलडोज़र है। अब बुलडोज़र देश के भारी-भरकम न्याय-तंत्र की जगह पर बैठेगा। मज़े की बात यह है कि बुलडोज़र हमारे समाज में कोई नयी चीज़ नहीं है। वह पचासों साल से मिट्टी या मकानों को खोदने या तोड़ने के छोटे-मोटे काम करता रहा है, लेकिन उसकी असली उपयोगिता हाल ही में ज़ाहिर हुई है। यानी ‘कँखरी लड़का, गाँव गुहार’ वाली बात हो गयी। न्याय-व्यवस्था का शर्तिया उपचार हमारे सामने था और हम उसे सुधारने के लिए सालों से मगजपच्ची करते रहे।

हम यह देखकर चमत्कृत हैं कि बुलडोज़र न्याय के मामले में सालों का काम कुछ घंटों में निपटाता है। आरोपी कहीं नारा लगाता है या पत्थर फेंकता है और उसकी गिरफ्तारी के  साथ बुलडोज़र उसके घर को ध्वस्त करने दौड़ पड़ता है। आरोपी को पहचानने, उसकी सफाई सुनने, उसकी सज़ा का निर्धारण— सब काम कुछ देर में एक ही कमरे में फटाफट हो जाता है, और फिर सज़ा मिलने में उतनी ही देर लगती है जितनी बुलडोज़र को गंतव्य तक पहुँचने में लगती है। इस तरह के न्याय को ‘कंगारू जस्टिस’ भी कहा जाता है क्योंकि इसमें न्याय सामान्य गति से चलने के बजाय कंगारू की तरह छलाँगें भरता है। मुग़लों, अंग्रेज़ों और रियासतों के ज़माने में ऐसी ही व्यवस्था लागू थी।

बुलडोज़र से टूटने वाले घर में आरोपी के अलावा और सदस्य भी रहते होंगे जिनमें बूढ़ों से लेकर महिलाएँ और बच्चे तक हो सकते हैं, लेकिन बुलडोज़र न्याय देने में कोई रू-रियायत नहीं बरतता। कुछ घंटों में सबके सर से छत ग़ायब हो जाती है और असीम, तारों-जड़ा आकाश नुमायाँ हो जाता है। ठंड या बारिश का मौसम हुआ तो स्थिति और भी दारुण हो सकती है। कोई एतराज़ करे तो मकान को अतिक्रमण बता दिया जाता है और एक-दो दिन पहले ज़ारी हुआ नोटिस भी प्रस्तुत कर दिया जाता है। दिलचस्प बात यह है कि अधिकारियों को अतिक्रमण का पता अचानक तभी चलता है जब आरोपी पर उपद्रव का आरोप लगता है। बुलडोज़र की इस धमाचौकड़ी को देखकर मेरा दोस्त मन्नू बहुत भयभीत है। कहीं भी बुलडोज़र देखकर वह आँख मूँदकर उसे प्रणाम करता है, कहता है, ‘ ये हमारे नये देवता हैं। इन्हें खुश रखना ज़रूरी है। जिस दिन ये नाराज़ हो जाएँगे उस दिन दिन में तारे दिख जाएँगे।’

उत्तर प्रदेश में एक व्यापारी के घर पर बुलडोज़र इसलिए चल गया क्योंकि अधिकारी महोदय ने व्यापारी से कुछ सामान ख़रीदा था और व्यापारी भुगतान माँग रहा था।

घर टूटने के बाद आरोपी के लिए अपनी फरियाद लेकर अदालत जाने का रास्ता खुला रहता है, लेकिन इसका मतलब अदालत और वकीलों पर कई हज़ार का खर्च और कई साल तक अदालतों के चक्कर लगाना होता है। यानी घर टूटने से टूटा व्यक्ति न्याय की चक्की में फँस कर और टूट जाता है।

देश में बहुत से लोग इस नयी न्याय- व्यवस्था से बहुत खुश हैं क्योंकि बुलडोज़र ‘उन’ पर चल रहा है, हम पर नहीं। जिस दिन हम पर चलने की नौबत आएगी उस दिन देखेंगे। 

परसाई जी की रचना ‘इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर’ में मातादीन कहते हैं, ‘पुलिस को यह अधिकार होना चाहिए कि अपराधी को पकड़ा और वहीं सज़ा दे दी। अदालत में जाने का झंझट नहीं।’

इसमें शक नहीं कि नयी व्यवस्था के पूरी तरह लागू होने से अरबों रुपयों की बचत होगी। सारी अदालतें गायब हो जाएँगीं और वकीलों को काला कोट उतारकर कोई दूसरा कोट पहनना पड़ेगा। अदालतों में कार्यरत लाखों कर्मचारियों की छुट्टी हो जाएगी। ग़रज़ यह कि नयी व्यवस्था हमारे हुक्मरानों के लिए ‘कम कीमत, बालानशीं’ साबित होने वाली है। पहले कंप्यूटर और मोबाइल ने बहुतों की नौकरियाँ और धंधे खाये, अब वही काम बुलडोज़र करेगा।

एक पढ़ी-लिखी महिला ने हाल में फेसबुक पर लिखा कि अपनी प्रेमिका के 35 टुकड़े करने वाले आरोपी पर मुकदमा चलाने की बजाय उसका तत्काल एनकाउंटर कर दिया जाना चाहिए। यह नयी न्याय-व्यवस्था का एक और आयाम हो सकता है। वैसे भी हमारे देश में कई एनकाउंटर हो चुके हैं और कई पुलिस-अधिकारी ‘एनकाउंटर स्पेशलिस्ट’ के रूप में विख्यात हो चुके हैं। बुलडोज़र के साथ एनकाउंटर का सहयोग ‘मणि-कांचन योग’ हो सकता है। कुछ साल पहले हैदराबाद की एक महिला डॉक्टर की हत्या के आरोपियों को पुलिस ने तत्काल एनकाउंटर में निपटा दिया था। तब जनता ने संबंधित अधिकारियों-सिपाहियों पर खूब प्यार बरसाया था। बाद में पता चला कि संबंधित सभी पुलिसवाले हत्या के जुर्म में नप गये।

हम विश्वगुरु हैं, दुनिया को ज्ञान देते हैं। इसलिए ज़रूरी है कि बुलडोज़र के उपयोग का नया आयाम जो हमने खोजा है, उसकी जानकारी अन्य देशों को दें ताकि वे भी अपने यहाँ यह चमत्कारी, तुरत फल देने वाली न्याय-प्रणाली लागू कर सकें।

ताज़ा खबर यह है कि उत्तर प्रदेश के हमीरपुर में एक ससुर साहब ने दामाद को दहेज में कार की जगह बुलडोज़र दिया है ताकि आमदनी का पुख्ता ज़रिया बन सके। शायद उन्हें भरोसा होगा कि कोई और नहीं तो सरकार तो बुलडोज़र को किराये पर ले ही लेगी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 129 ☆ जान – पहचान ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “साध्य और साधन। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 129 ☆

☆ जान – पहचान ☆ 

कितनी बार कहा, मुझे आनन्द नहीं खुशी चाहिए। बस इसी खुशी के मोह में अधिकांश लोग घर में रहकर,आरामदायक स्थिति में ख्याली पुलाव पकाते रह जाते हैं। जब अपनी गलती अहसास होता है तो बोरिया बिस्तर समेट कर चल देते हैं। घर को त्यागना अर्थात आराम को छोड़ना; परिक्रमा का मार्ग जहाँ अहंकार का त्याग कर प्रकृति प्रदत्त दिव्य शक्तियों से जोड़ता है वहीं पैदल चलना आपको साहसी बनाने के साथ- साथ श्रेष्ठ चिंतक भी बनाता है। राह में जो मिले उसे स्वीकार करते हुए आगे बढ़ना, जगह- जगह का भोजन, पानी, लोग, संस्कृति सबको आत्मसात करते हुए लक्ष्य तक पहुँचने में जो समय लगता है, उसे व्यर्थ नहीं कहा जा सकता है। जब आप सीखने की चाहत को लेकर आगे बढ़ते हैं तो मंजिल पर पहुँचने की कोई जल्दी नहीं रहती। हर पल को जीना अपने आप में स्वयं को पहचानने जैसा होने लगता है। जिसने खुद को जाना उसने सारे जगत को जान लिया।

कहते हैं, आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ते हुए  विनम्रता से सब कुछ पाया जा सकता है। सत्संग, रंग, संग, कुसंग, प्रसंग, अंग, प्रत्यंग, जंग, भंग, उमंग, तरंग, बेढंग ये सब केवल तुकांत नहीं है, जीवन की शैली है, जिसे समझने हेतु पथ पर चलना ही पड़ता है।

जिसने सहजता के साथ आगे बढ़ने को अपना लिया वो देर- सवेर सही शिखर पर विराजित अवश्य होगा। स्वयं को समझने का सबसे बड़ा लाभ ये होता है कि जीतने हारने के बीच का फर्क मिट जाता है बस व्यक्ति समाज कल्याण में ही सर्वस्व लुटा देने की चाहत रखता है। सबको जोड़ते हुए आगे बढ़ते रहें, टीमवर्क का रिजल्ट आशानुरूप से भी अधिक होता है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 61 – जंगल में दंगल… भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय  व्यंग्य  “जंगल में दंगल …“।)   

☆ व्यंग्य # 62 – जंगल में दंगल – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

जंगल में राजा शेर की मर्जी से वाट्सएप ग्रुप तो शुरु हो गया पर कुछ दिन सिर्फ राज़ा की रिकार्डेड दहाड़ की ही एकमात्र पोस्ट आती रही जिस पर चहेते और उपकृत पशु वाह वाह करते रहे. कुछ कमेंट्स की बानगी देखिये: आवाज़ हो तो ऐसी, सुनते ही हो जाय सबकी  ऐसी तैसी. पर जब ये ज्यादा चला नहीं तो सदस्यों की अरुचि को देखते हुये राजा शेर ने फिर से बैठक बुलाई और ग्रुप  में सबका साथ सबका मनोरंजन के सिद्धांत पर सहभागिता की अपेक्षा की.

ग्रुप का थीम वाक्य चुनने की प्रक्रिया में “Fittest will survive” सिलेक्ट किया गया.

जो शिकार होने के लिये ही पैदा हुये थे, उन्होंने दबी ज़ुबान से विरोध किया तो शेर ने समझाया कि अगर फिटेस्ट शिकार हो तो उसकी जीवन रूपी बैटरी लंबी चलेगी. अनफिट होने पर शेर को भी भूखे मरना पड़ जाता है. जंगल प्राकृतिक नियमों से चलते हैं और यहां रिटायरमेंट प्लान नहीं होते.

“जब तक सांस तब तक आस” जैसी कहावत सिर्फ मानव जीवन में संभव है. यहां कोई मसीहा नहीं होता न ही कोई अवतरित किताब जो जीवन जीने के नियम कानून कायदे बनाये. जंगल वो दुनिया है जो पाप पुण्य से परे है. यहां भोजन के लिये हिंसा एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. जो शिकार बन गया वो स्वर्ग, नर्क और पुनर्जन्म की कल्पनाओं से परे अपनी कहानी उसी वक्त खत्म कर जाता है. न तो अस्थि विसर्जन, न पिंडदान, न ही तेरहवीं और न ही वार्षिक श्राद्ध.

लोगों को, सॉरी पशु पक्षियों को ये बात अपील कर गई और फिर कुछ सदस्यों ने आगे बढ़कर अपना रोल निर्धारित कर लिये. सुबह की गुडमार्निंग कड़कनाथ उर्फ मुर्ग मुसल्लम करने लगे. संगीत से ग्रुप को सज़ाने का काम मिस कोयल कुमारी और मि. पपीहा निभाने लगे. गिद्ध और चील समुदाय अपनी तीक्ष्ण दृष्टि से दूसरे ग्रुप्स में चल रहे मैसेज को कॉपी पेस्ट करने लगे. कुत्तों ने पॉप संगीत के नाम पर भौंकना चाहा पर शेर की घुड़की से पीछे हट गये. इस तरह ये ग्रुप चलने लगा और जंगल की आवाज के शीर्षक का फायदा उठाते हुये सदस्यों की अभिव्यक्तियां भी सामने आने लगीं जिनका जवाब कभी एडमिन लोमड़ सिंह और कभी सरपरस्त राजा देने लगे जिसकी बानगी अगली किश्त में सामने आयेगी।

कहानी जारी रहेगी

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #171 ☆ व्यंग्य ☆ मुश्किल में मास्साब ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय व्यंग्य ‘मुश्किल में मास्साब’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 171 ☆

☆ व्यंग्य ☆ मुश्किल में मास्साब

भोपाल की खबर है कि एक स्कूल में शिक्षिका ने बारहवीं की छात्रा को थप्पड़ मार दिया और लड़की के घरवालों ने शिक्षिका के खिलाफ जुवेनाइल जस्टिस कानून के तहत शिकायत दर्ज़ करा दी। शिकायत का आधार यह कि थप्पड़ की मार से छात्रा की श्रवण-शक्ति प्रभावित हुई है। खबर के अनुसार जब शिक्षिका छात्राओं की डायरी चेक कर रही थीं तब लड़की च्यूइंग गम चबाती पायी गयी।

वह ज़माना गुज़र गया जब छात्र पिटाई को गुरु का प्रसाद मानते थे। चालीस पचास साल पहले पिटाई को लेकर शिक्षक के विरुद्ध शिकायत का भाव किसी अभिभावक के मन में नहीं आता था। अभिभावक यह मान कर चलता था कि शिक्षक हमेशा छात्र का हित सोचकर ही काम करेगा। छात्र भी हर सज़ा को सिर झुका कर स्वीकार कर लिया करता था। तब अंग्रेजी की कहावत ‘spare the rod, spoil the child’ पर भरोसा किया जाता था। अंग्रेजी के शब्दकोश में एक शब्द ‘whipping boy’ आता है जो उन लड़कों के लिए प्रयोग किया जाता था जो राजपुत्रों के साथ इसलिए स्कूल भेजे जाते थे कि राजपुत्रों के द्वारा कोई गलती किये जाने पर उनकी जगह इन लड़कों को पीटा जा सके। कारण यह कि राजपुत्रों को पढ़ाने वाले मास्टर जी उन पर हाथ नहीं उठा सकते थे।

छात्र-जीवन में पिटाई के नाना रूपों के दर्शन हुए। कुछ शिक्षक पीटने में आनन्द का अनुभव करते थे तो कुछ के चेहरे पर ऐसा कष्ट का भाव आता था जैसे सज़ा छात्र को नहीं, उन्हीं को मिल रही हो। हाई स्कूल में संस्कृत विषय वैकल्पिक था,जो कुछ ऊँची क्लास में लिया जा सकता था।  जब तक छात्र संस्कृत विषय नहीं ले लेता था तब तक हमारे संस्कृत के मास्टर साहब उस पर बड़ा प्यार बरसाते थे, लेकिन विषय ले लेने के बाद गलती होने पर तबियत से धुनाई करते थे। तब पिटाई छिपाकर नहीं होती थी। छात्र के द्वारा कोई गंभीर अपराध होने पर हेडमास्टर साहब प्रार्थना के बाद सबके सामने उसका अभिनंदन कर देते थे, ताकि अन्य छात्र सबक ले लें।

मेरे बचपन में ज़्यादातर लोगों के पास साइकिल भी नहीं होती थी। ज़्यादातर पैदल चलना ही होता था। कस्बा छोटा था, इसलिए छात्र कहीं भी अपने गुरु जी से टकरा जाता था। हमारे एक शिक्षक पांडे जी थे, जिनके बारे में मशहूर था कि सड़क पर मिल जाने पर वे वहीं छात्र से कठिन शब्दों के स्पेलिंग पूछने लगते थे। असंतुष्ट रहने पर तत्काल छात्र के कान भी ऐंठ दिये जाते थे। पांडे जी की कान ऐंठने की एक तकनीक मशहूर थी। कई बार वे कान में कंकर रखकर उसे मरोड़ते थे ताकि छात्र को आगे गलती करने की हिम्मत न हो। एक और अति वृद्ध मास्टर साहब थे जो क्रोधित होने पर छात्रों के साथ असंसदीय भाषा का प्रयोग करने लगते थे। उनके कुछ प्रिय जुमलों में एक ‘पाख़ाने का लोटा’ था। एक और था, लेकिन वह लिखने लायक नहीं है।

तब अभिभावकों को शिक्षकों पर भरोसा था। संतान को उनके भरोसे छोड़कर वे निश्चिंत रहते थे। शिक्षकों के दर्शन करने की ज़रूरत कम ही महसूस होती थी। अब सब कुछ व्यवसायिक हो गया है।  कई परिवारों में छात्रों को सिखाया जाता है कि पढ़ाना शिक्षक की ड्यूटी है, जिसके लिए उसे वेतन मिलता है। इसलिए उसे ज़्यादा तरजीह देने की ज़रूरत नहीं है। अभिभावक जो खर्च करता है उसका हिसाब माँगने का उसे अधिकार है। एक विज्ञापन में छात्रा को अपनी शिक्षिका से ‘गुड मॉर्निंग, टीचर’ कहते हुए देखा। यानी शिक्षिका को उसके पेशे के नाम से बुलाया जाता है, उसे ‘मैडम’ या ‘दीदी’ कहना ज़रूरी नहीं है। इस संबोधन से छात्र और शिक्षक के बीच फैली दूरी को समझा जा सकता है।

अब ऑनलाइन क्लासेज़,कोचिंग क्लासेज़ और विद्वानों के द्वारा लिखित हर विषय की कुंजियों की कृपा से स्कूलों और कॉलेजों में छात्रों की आवाजाही घट रही है। परिणामतः छात्र और शिक्षक एक दूसरे के लिए अजनबी हो रहे हैं।

शिक्षक बदनीयत से या अकारण मारपीट करे तो शिकायत करना वाजिब है, फिर भी आदमी के जीवन में ज्ञान की अहमियत को देखते हुए शिक्षक और छात्र के बीच भरोसे का रिश्ता ज़रूरी है। स्कूलों में जिस तरह छोटे बच्चों को  टेबिल्स और वर्णाक्षर सिखा दिये जाते हैं, वह घर में संभव नहीं है।

मेरे प्रायमरी स्कूल में जब बीच में ‘ब्रेक’ होता था तब छात्र आँगन में बैठे शिक्षकों के चरण छूने को उमड़ते थे। स्कूल छोड़ने के बाद पता चला कि मेरे हेडमास्टर साहब हमारी वर्ण-व्यवस्था के हिसाब से नीची जाति में आते थे, लेकिन किसी अभिभावक ने इस पर विचार नहीं किया। वे अब नहीं हैं, लेकिनआज भी उनको याद करके मन श्रद्धा से भर जाता है। अब स्कूलों में मध्याह्न भोजन के वितरण में जातिवाद के प्रवेश की बातें पढ़कर मन विषाद से भारी हो जाता है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 128 ☆ साध्य और साधन ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “साध्य और साधन। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 128 ☆

☆ साध्य और साधन ☆ 

एक – एक कदम चलते रहने से कई कदम जुड़ने लगते हैं। स्वाभाविक है कि जब अच्छे उद्देश्य  को लेकर कोई यात्रा हो तो परिणाम सुखद होंगे।कहते हैं कि केवल किताबी ज्ञान से कुछ नहीं होगा जब तक धरातल पर उतरकर उसे जीवन की प्रयोगशाला में सिद्ध न किया जाए। सनातन धर्म में यही खूबी है कि सब कुछ वैज्ञानिकता की  कसौटी पर कसा जा चुका है, ये बात अलग है  कि पश्चिमी विज्ञान उसे आज मान्यता दे रहा है। हमारे यहाँ तो नदियों की पंचकोशी परिक्रमा का भी अनुष्ठान होता है। नर्मदा नदी की तो सम्पूर्ण परिक्रमा की जाती है। हरियाली से भरा परिवेश, जन – जीवन- जंगल- जमीन से जुड़कर जनमानस एक दूसरे का सहयोग करना सीख जाता है। नर्मदा किनारे बसे गाँवो के लोग अन्न क्षेत्र का निर्माण करते हैं। सामान्य परिवार भी किसी परिक्रमा वासी को भूखा नहीं रहने देते। आज के समय में जब लोग पाई- पाई का हिसाब रखते हैं तब भी कुछ स्थान ऐसे हैं जो खुले दिल से सम्मान करना और कराना जानते हैं।

यही तो यात्रियों और यात्राओं की खूबी है कि वो हर परिस्थिति, जलवायु में जीना जानते हैं। जो आनन्द पैदल चलने में है वो वाहन की सवारी में नहीं, लोग जब आपसे मिलने आते हों तो विशिष्टता का अहसास होता है और यही जीने की वजह बन जाता है। ऐसे में लक्ष्य को साधना सरल लगने लगता है। हाथों में हाथ लेकर  चलते हुए मन ये कहने लगता है अब मंजिल दूर नहीं।

सब कुछ सहजता से मिल सकता है बस नियत सच्ची होनी चाहिए। बिना योग्य हुए यदि मंजिल तक पहुँच भी गए तो भी वहाँ टिक नहीं सकते हैं। जब तक मनुष्य का सर्वांगीण विकास नहीं होगा तब तक  पाना- खोना चलता रहेगा। सबको साथ लेने की कला बहुत जरूरी होती है,जब तक मानव मन की समझ नहीं होगी तब तक साध्य असाध्य रोग की तरह पीछा करता रहेगा।

खैर चलते हुए लोग, उड़ते हुए पंछी, तैरती हुई मछली, हरा- भरा जंगल, कल- कल करती नदियाँ अच्छी लगतीं हैं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 181 ☆ व्यंग्य – रुपए का डालर में मेकओवर ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय  व्यंग्य – रुपए का डालर में मेकओवर।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 181 ☆  

? व्यंग्य – रुपए का डालर में मेकओवर ?

मेकओवर का बड़ा महत्व होता है। सोकर उठते ही मुंह धोकर कंघी कर लीजिए  कपड़े ठीक कीजीए, डियो स्प्रे कर लीजिए  फ्रेश महसूस होने लगता है। महिलाओं के लिए फ्रेशनेस का मेकओवर  थोडी लंबी प्रक्रिया  होती है, लिपस्टिक, पाउडर, परफ्यूम आवश्यक तत्व हैं। ब्यूटी पार्लर में लड़की का मेकओवर कर उसे दुल्हन बना दिया जाता है। एक से एक भी बिलकुल बदली बदली सी लगने लगती हैं। दुल्हन के स्वागत समारोह के बाद  बारी आती है ससुराल में बहू के मेकओवर की। सास, ननदे  उसे गृहणी में तब्दील करने में जुट जाती हैं। शनैः शनैः  गृहणी से पूरी तरह पत्नी में मेकओवर होते ही, पत्नी पति पर भारी पड़ने लगती है।

 हर मेकओवर की एक फीस होती है। ब्यूटी पार्लर वह फीस रुपयों में लेता है। पर कहीं त्याग, समर्पण, अपनेपन, रिश्ते की किश्तों में फीस अदा होती है।

एक राजनैतिक पार्टी से दूसरी में पदार्पण करते नेता जी गले का अंगोछा बदल कर नए राजनैतिक दल का मेक ओवर करते हैं। यहां गरज का सिद्धांत लागू होता है, यदि मेकओवर की जरूरत आने वाले की होती है तो उसे फीस अदा करनी होती है, और अगर ज्यादा आवश्यकता बुलाने वाले की है तो इसके लिए उन्हें मंत्री पद से लेकर अन्य कई तरह से फीस अदा की जाती है। नया मेकओवर होते ही नेता जी के सिद्धांत, व्यापक जन हित में एकदम से बदल जाते हैं। विपक्ष नेता जी के पुराने भाषण सुनाता रह जाता है पर नेता जी वह सब अनसुना कर विकास के पथ पर आगे बढ़ जाते हैं।

स्कूल कालेज कोरे मन के  बच्चों का मेकओवर कर, उन्हें सुशिक्षित इंसान बनाने के लिए होते हैं। किंतु हुआ यह कि वे उन्हें बेरोजगार बना कर छोड़ देते, इसलिए शिक्षा में आमूल परिवर्तन किए जा रहे हैं , अब केवल डिग्री नौकरी के मेकओवर के लिए अपर्याप्त है। स्किल, योग्यता और गुणवत्ता से मेकओवर नौकरी के लिए जरूरी हो चुके हैं। अब स्टार्ट अप के मेकओवर से एंजल इन्वेस्टर आप के आइडिये के लिए करोड़ों इन्वेस्ट करने को तैयार हैं।

पिछले दिनों हमारा अमेरिका आना हुआ, टैक्सी से उतरते तक हम जैसे थे, थे। पर एयरपोर्ट में प्रवेश करते हुए अपनी ट्राली धकेलते हम जैसे ही बिजनेस क्लास के गेट की तरफ बढ़े, हमारा मेकओवर अपने आप कुछ प्रभावी हो गया लगा। क्योंकि हमसे टिकिट और पासपोर्ट मांगता वर्दी धारी गेट इंस्पेक्टर एकदम से अंग्रेजी में और बड़े अदब से बात करने लगा।

बोर्डिंग पास इश्यू करते हुए भी हमे थोड़ी अधिक तवज्जो मिली, हमारा चेक इन लगेज तक कुछ अधिक साफस्टीकेटेड तरीके से लगेज बेल्ट पर रखा गया। लाउंज में आराम से खाते पीते एन समय पर हैंड लगेज में एक छोटा सा लैपटाप बैग लेकर जैसे ही हम हवाई जहाज में अपनी फ्लैट बेड सीट की ओर बढ़े सुंदर सी एयर होस्टेस ने अतिरिक्त पोलाइट होकर हमारे कर कमलों से वह हल्का सा बैग भी लेकर ऊपर  डेक में रख दिया, हमे दिखा कि इकानामी क्लास में बड़ा सा सूटकेस भी एक पैसेंजर स्वयं ऊपर  रखने की कोशिश कर रहा था। बिजनेस क्लास में मेकओवर का ये कमाल देख हमें रुपयों की ताकत समझ आ रही थी।

जब अठारह घंटे के आराम दायक सफर के बाद  जान एफ केनेडी एयरपोर्ट पर हम बाहर निकले,  तब तक बिजनेस क्लास का यह मेकओवर मिट चुका था, क्योंकि ट्राली लेने के लिए भी हमें अपने एस बी आई कार्ड से  छै डालर अदा करने पड़े, रुपए के डालर में मेकओवर की फीस कटी हर डालर पर कोई 9 रुपए मात्र। हमारे मैथ्स में दक्ष दिमाग ने तुरंत भारतीय रुपयों में हिसाब लगाया लगभग पांच सौ रुपए मात्र ट्राली के उपयोग के लिए। हमें अपने प्यारे हिंदोस्तान के एयर पोर्ट याद आ गए कहीं से भी कोई भी ट्राली उठाओ कहीं भी बेतरतीब छोड़ दो एकदम फ्री।  एकबार तो सोचा कितना गरीब देश है ये अमरीका भला कोई ट्राली के उपयोग करने के भी रुपए लेता है ? वह भी इतने सारे,  पर जल्दी ही हमने टायलेट जाकर इन विचारों का परित्याग किया और अपने तन मन का क्विक मेकओवर कर लिया। जैकेट पहन सिटी बजाते रेस्ट रूम से निकलते हुए हम अमेरिकन मूड  में आ गए। तीखी ठंडी हवा ने हमारे चेहरे  को छुआ, मन तक मौसम का खुशनुमा मिजाज  दस्तक देने लगा। एयरपोर्ट के बाहर बेटा हमे लेने खड़ा था, हम हाथ हिलाते  उसकी तरफ  बढ़ गए।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

न्यूजर्सी , यू एस ए

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 60 – जंगल में दंगल… भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय  व्यंग्य  “जंगल में दंगल …“।)   

☆ व्यंग्य # 60 – जंगल में दंगल – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

एक बार जंगल से भटक कर शेर जो नरभक्षी होने को ही नॉन वेज़ेटेरियन होना मानता था, समीपस्थ नगर के एम्यूज़मेंट पार्क में पहुंच गया. उसे बहुत आश्चर्य हुआ जब वहां ईवनिंग वॉक के नाम पर घर से भागे उन्मुक्त मानवों ने उसका संज्ञान ही नहीं लिया. कारण सब अपने अपने मोबाईल में व्यस्त थे. नज़रे झुकाये पर मुस्कुराते जीव देखकर शेर सोच में पड़ गया. ऐसा क्या है इनके हाथों में जो उसके वज़ूद से बेखबर हैं ये लोग. शेर की इच्छा तो थी कि एक बार दहाड़कर इन मगन मनुओं को हकीकत से रूबरू करवा दे पर अपने जंगल के डेंटल सर्जन की हिदायत से मन मसोस कर खामोश होना पड़ा. दरअसल शिकार के काम आने वाली दंतपंक्ति की हाल ही में शार्पनिंग करवाई थी तो ज्यादा मुंह खोलना मना था. चुपचाप जंगल लौटकर शेर ने अपने दूत कौए को शहर भेजा, यह पता लगाने के लिये कि इन मनुष्यों के हाथ में ऐसा कौन सा यंत्र है जिससे ये दीन दुनिया से बेखबर हो गये हैं. संदेशवाहक वही सच्ची खबर लाता है जिसमें खुद नज़रअंदाज हो जाने का गुण हो तो कौए ने पार्क में बैठकर चुपचाप पता कर ही लिया और फिर जंगल के राज़ा जान गये कि ये वाट्सएप ग्रुप ही इस फसाद की जड़ है.

जंगलदूत अपने साथ सिर्फ खबर ही नहीं वाट्सएप का वायरस भी लेकर आ गया जो शेर को भी संक्रमित कर बैठा. अब शेर को भी लगने लगा कि उसकी इमेज़ सुधारने के लिये हिंसकता की नहीं बल्कि आपसी संवाद की जरूरत है. तो जंगल के राज़ा ने अपने दूत के माध्यम से जंगल के सारे जानवरों का वाट्स एप ग्रुप बनाने का संदेश दिया. शक्तिशाली का संदेश भी आदेश से कम नहीं होता पर बिल्ली मौसी ने अपने रिश्ते का फायदा उठाते हुये पूछ ही लिया कि इसमें हमें क्या फायदा.

दूत तो दूत ही होता है तो कह दिया कि राजा ने अपने लंच टाइम के बाद बैठक बुलाई है तो सभी जानवर निडर होकर आयें. जिनकी नियति शिकार होने का उद्देश्य हो उन्हें चुनने की आजादी दिखावे के लिये पांच साल में सिर्फ एक बार ही मिलती है. तो सब राजा के गुफा रूपी दरबार में आए.

शेर ने जंगलवासियों की तरक्की और जमाने के साथ चलने के नाम पर जंगल के वाट्सएप ग्रुप बनाये जाने की घोषणा इस तरह की कि-

“हर शिकार को अपने शिकारी से सवाल करने का मौका दिया जा रहा है”.

सारे जानवरों को जंगल के नये कानून के अनुसार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी जा रही है. इस तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर निरीहता ने कुछ कहने की आज़ादी पायी और जंगल में भी वाट्सएप ग्रुप बन गया, बनना ही था, विरोध कौन और कोई क्यों करता, सब एक दूसरे के कंधे पर अपेक्षा का शाल डालकर चुप रहे और हुआ वही जो शेर की मरजी थी. अब ग्रुप के नाम पर बात आई तो लोमड़ सिंह ने  “सिंह गर्जना ” नाम सुझाया पर शेर राजा अपनी प्रजा की भावभंगिमा से समझ गये कि हर बार अपनी चलाने से बेहतर जनता को झुनझुना पकड़ाने की ट्रिक शासन की स्थिरता में मददगार होती है, तो उन्होंने जंगल के प्रति अपनी अटूट निष्ठा की घोषणा के साथ ग्रुप का नाम “जंगल की आवाज़” रखने का सुझाव दिया.जंगल के सारे शिकार और शिकारी रूपी जानवरों ने इस सुझाव को राजा की उदारता मानते हुये सहर्ष स्वीकार किया.

चूंकि राजा इस मलाईविहीन पद से विरक्त थे तो राजा की इच्छा का सम्मान करते हुये लोमड़ सिंह अपने आप ग्रुप के एडमिन बन गये.

कहानी जारी रहेगी

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 180 ☆ व्यंग्य – कुछ  कम एप्पल खाओ भाई आदम और ईव ! ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय  व्यंग्य – कुछ  कम एप्पल खाओ भाई आदम और ईव !)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 180 ☆  

? व्यंग्य – कुछ  कम एप्पल खाओ भाई आदम और ईव !  ?

उसने आदम को बनाया, उसके साथ के लिए सुन्दर सी ईव को बनाया।  एप्पल का पेड़  लगाया और उसकी रक्षा का काम आदम को सौंप दिया। आदम को ताकीद भी कर दी कि इस वृक्ष के फल तुम मत खाना।  दरअसल उसने एप्पल के फल गुरुत्वाकर्षण की खोज के लिए लगाए थे। और इसलिए भी कि बाद के समय में  कटे हुए एप्पल को ब्रांड बनाते हुए मंहगा मोबाईल लांच किया जा सके। और शायद इसलिए कि  चिकित्सा जगत को किंचित समझने वाले कथित साहित्यकार “एन  एप्पल ए डे कीप्स द  डाक्टर अवे “ टाइप की कहावतें गढ़ सकें, जो दूसरों को नसीहतें देने के काम आएं।  किन्तु नोटोरियस ईव  मनोहारी एप्पल खाने से खुद को रोक न सकी, इतना ही नहीं उसने आदम को भी एप्पल का स्वाद चखा दिया। 

तब से अब तक हर ईव  के सम्मुख हर आदम बेबस एप्पल खाये जा रहा है। कुछ सुसम्पन्न आदम एप्पल के साल दर साल बदलते मॉडल के आई फोन, नए नए स्लिम लेपटॉप, और कम्प्यूटर अपनी अपनी ईव को  रिझाने के लिए  ख़रीदे जा रहे  हैं। बाकी  के आदम और  ईव मजे में  चमकीली चिप्पी चिपके हुए विदेशी आयातित एप्पल खरीदकर खाये जा रहे हैं।  जो रियल एप्पल नहीं खा पा रहे वे  नीली फिल्मों से कल्पना के प्रतिबंधित वर्चुएल  एप्पल खाये जा  रहे हैं।  बच्चे को  जन्म देने के तमाम  दर्द भुगतते हुए भी ईव आबादी बढ़ाने में आदम का साथ दिये जा रही हैं। मजे लेकर एप्पल खाये जाने के आदम और ईव के इस  प्रकरण से उसकी बनाई दुनियां की आबादी इस रफ्तार से बढ़ रही है कि हम आठ अरब हो चुके हैं। कम से कम आबादी के मामले में जल्दी ही हम चीन से आगे निकलने वाले हैं।  

इसके बावजूद कि कोरोना जैसी महामारियां हुईं, भुखमरी, चक्रवाती तूफान, भयावह भूकंप, बाढ़, आगजनी जैसी विपदाएं होती ही रही।  आदम और ईव कथित ईगोइस्ट आदमी की नस्ल में  बदल  दंगे फसाद, कत्लेआम, आतंकवादी हत्याएं करने से रुक नहीं  रहे। रही सही कसर पूरी करने के लिए कई कई ‘आफ़ताब’ ढेरों  ‘श्रद्धाओं’ के टुकड़े टुकड़े, बोटी बोटी कर रहे हैं, फिर भी आदम और ईव का कुनबा दिन दूनी  रात चौगुनी गति से बढ़ा जा रहा है। अनवरत बढ़ा जा रहा है।  यूँ मुझे आठ अरब होने से कोई प्रॉब्लम नहीं है, जब सरकारों को कोई प्रॉब्लम नहीं  है, यूनाइटेड नेशंस को कोई समस्या नहीं है तो मुझे समस्या होनी भी नहीं चाहिए। वैसे भी जिन किन्हीं  संजय गांधियो को  इस बढ़ती आबादी से दिक्कत महसूस हुई उन्हें जनता ने नापसंद  किया है। फिर भी हिम्मत का काम हो रहा है जनसंख्या कानून की गुप चुप  चर्चा की सुगबुहाअट तो जब तब सुन पड़  रही है। अपनी तो दुआ है खूब आबादी बढ़े, क्योंकि आबादी वोट बैंक होती है और वोट से ही नेता बनते हैं, राजनीति चलती है।  मुझे दुःख केवल इस बात का है की कोई नया  कोलम्बस क्यों पैदा नहीं हो रहा जो एक दो और अमेरिका खोज निकाले। हो सके तो  महासागर ही पांच की जगह कम से कम सात ही हो जाएँ, हम तो कब से गए जा रहे हैं “सात समुन्दर पार से, गुड़ियों के बाजार से “ पर समुन्दर पांच के पांच ही हैं। महाद्वीप भी बस सात के सात हैं। 

हम जंगलो को काट काट कर नए नए महानगर जरूर बसाये जा रहे हैं पर उनका आसमान महज़  एक ही है।  सूरज बस एक ही है।  आठ अरब थके हारे आदम जात को सुनहरे सपनों वाली चैन की नींद में सुलाने, लोरी सुनाने के प्रतीक  दूर के  चंदामामा भी  सिर्फ एक ही हैं।  मुश्किल है कि इंसानो में बिलकुल एका नहीं है। मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना, अब आठ अरब भिन्न भिन्न दृष्टिकोण होंगे तो आखिर कैसे मैनेज होगी दुनियां।  इसलिए हे आदम और ईव  कृपया एप्पल खाना कम करो।  धरती पर आबादी का बोझा कम करो । 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

न्यूजर्सी , यू एस ए

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #170 ☆ व्यंग्य ☆ भगत जी का बखेड़ा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय व्यंग्य ‘भगत जी का बखेड़ा ’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 170 ☆

☆ व्यंग्य ☆ भगत जी का बखेड़ा

चुन्नू बाबू कॉलोनी के लखटकिया हैं। कॉलोनी के किसी रहवासी से कोई काम न सध रहा हो तो वह सीधे चुन्नू बाबू के घर का रुख करता है। मिस्त्री, प्लंबर, इलेक्ट्रीशियन, सफाई कर्मचारी— किसी की भी ज़रूरत हो, चुन्नू बाबू से संपर्क किया जा सकता है। उनके पास हर उपयोगी आदमी का मोबाइल नंबर रहता है।

चुन्नू बाबू को पूरी कॉलोनी की फिक्र रहती है। कॉलोनी में कुछ ऐसा न हो जिससे कॉलोनी की नाक कटे। कॉलोनी में बाहर के लोगों के आने-जाने पर उनकी नज़र रहती है। कॉलोनी के लोगों का स्टैंडर्ड उठाने के लिए उन्होंने सब घरों में कार रखना अनिवार्य कर दिया है, चाहे उसकी उपयोगिता हो या न हो। कार के लिए लोन दिलवाने में चुन्नू बाबू सदस्य की पूरी मदद करते हैं।

कॉलोनी के गेट पर नियुक्त सुरक्षा गार्ड भी चुन्नू बाबू के ही कंट्रोल में रहता है। वे ही सदस्यों से इकट्ठा करके उसकी तनख्वाह का भुगतान करते हैं। उसके काम के बारे में शिकायत चुन्नू बाबू के पास ही आती है और वे ही उससे जवाब तलब करते हैं।

चुन्नू बाबू बहुत गतिशील आदमी हैं। कॉलोनी के कल्याण और उसका स्तर उठाने के लिए वे नयी नयी योजनाएँ लाते रहते हैं। उसी सिलसिले में स्थानीय नेताओं को कॉलोनी में बुलाकर उनका अभिनंदन भी होता रहता है। पता नहीं कौन कब काम आ जाए।

नगर निगम में दौड़-भाग करके चुन्नू बाबू ने कॉलोनी का कचरा उठाने का इंतज़ाम कर लिया है। शुरू में एक अधेड़ आकर हाथगाड़ी में हर घर से कचरा ले लेता था, लेकिन वह थोड़ा चिड़चिड़ा था। घर के कचरे के अलावा अगर बगीचे के पौधे, पत्तियाँ वगैरः दी जाएँ तो चिड़-चिड़ करता था। कुछ दिन बाद वह देस चला गया और उसकी जगह एक युवक आ गया। छः फुट की हृष्ट-पुष्ट देह। स्वभाव से शान्त। कैसा भी कचरा हो, चुपचाप उठाकर ले जाता था।

कॉलोनी में भगत जी भी रहते थे। भगत जी सीधे-सरल स्वभाव वाले आदमी थे, दूसरे की पीड़ा में कातर होने वाले। नये सफाई वाले को देख कर वे उद्विग्न हो जाते थे। इतना लंबा, स्वस्थ युवक, फौज में जाता तो नाम करता। यहाँ कचरा उठाते उठाते कुछ दिन में खुद भी कचरा हो जाएगा। संक्रमित कचरे से धीरे-धीरे दस बीमारियाँ लग जाएँगीं। हाथ में दस्ताने भी नहीं पहनता।

एक दो बार रोक कर उन्होंने इस काम में आने की उसकी मजबूरियाँ समझीं। वही पुरानी कथा— अशिक्षित माँ-बाप, कमाई को शराब में उड़ा देने वाला पिता, तीन छोटे भाई बहन, घर का खराब वातावरण, अस्वास्थ्यकर परिवेश। यानी सनीचर के बैठने का पूरा इंतज़ाम।

बात सारे वक्त भगत जी के ज़ेहन में घुमड़ती रही। इस युवक को इस तरह अपने स्वार्थ के लिए जहन्नुम में झोंके रहना पाप से कम नहीं है।

उन्होंने अपने परिचित एक सिक्योरिटी एजेंसी वाले को फोन किया। वह लड़के को लेने के लिए राज़ी हो गया। भगत जी ने लड़के को बताया तो वह खुश हो गया। ऐसी मदद की उम्मीद उसे नहीं थी।

दो दिन बाद लड़का ग़ायब हो गया। भगत जी ने इस घटना के बारे में किसी को नहीं बताया। डर था कि लोग जानकर नाराज़ होंगे। दो-तीन दिन तक कचरा उठाने कोई नहीं आया। कॉलोनी वासियों की भवें चढ़ने लगीं। चुन्नू बाबू को पता चला तो वे भी परेशान हुए।

दौड़-भाग करके चुन्नू बाबू फिर एक आदमी को पकड़ लाये, लेकिन उन्होंने पता लगा लिया कि उनके सफाई-इंतज़ाम को ‘सैबोटाज’ करने वाला कौन था। नये आदमी को नियुक्त कराने के बाद वे भगत जी के पास पहुँचे, बोले, ‘आपके परोपकार का पता हमें चल गया। बड़ी मेहरबानी कर रहे हैं आप कॉलोनी वालों पर। इस बार तो मैंने इंतज़ाम कर दिया, लेकिन फिर आपने ऐसा किया तो आगे कचरे का इंतज़ाम आप ही कीजिएगा।’

भगत जी उनकी बात सुनकर, अपराधी जैसे, उनका मुँह देखते रह गये।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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