(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “वह दीपशिखा सी शांत भाव…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 172 ☆
☆ वह दीपशिखा सी शांत भाव… ☆
शांति की तलाश में व्यक्ति कहाँ से कहाँ तक भटकता फिरता है; पर मिलती स्वयं को बदलने से है। ये तो अनुभव की बात है किंतु डिजिटल युग में मोटिवेशनल स्पीकर अपने शॉर्ट्स रील द्वारा एक मिनट से भी कम समय में आपको प्रमुख बिंदु समझा देते हैं। मुख्य बिंदु को ध्यान में रखकर जब कथानक हाव- भाव के साथ प्रस्तुत किया जाता है तो सचमुच बात आसानी से समझ में आने लगती है। वैसे भी संगत की रंगत देखना हो तो इन्हें फॉलो करें,कुछ ही दिनों में बदलाव देखने को मिलेगा।
नियंत्रित मन व कार्यों की निरंतरता से सब संभव हो जाता है। बस एक दिशा में पूर्ण मनोयोग से जुड़े रहिए, जब लक्ष्य स्पष्ट हो, श्रेष्ठ गुरु का मार्गदर्शन हो तो राहें सहज होने लगतीं हैं। उन्हीं विषयों पर फोकस करें जिस पर आप कार्य करने की इच्छा रखते हैं।इस युग में सब आसानी से मिल रहा है, बस एकाग्रता की लगन जिसने लगा ली समझो उसकी मुट्ठी में चाँद- सितारे आ गए। अब चाँद तारे तोड़कर लाना कोई कल्पना की बातें नहीं हैं, यहाँ तक हमारे वैज्ञानिक तो पहुँच ही चुके हैं बस आम लोगों का पहुँचना बाकी है।
जब सब कुछ आपके इशारों से हो रहा हो तो मन पर नियंत्रण बहुत जरूरी हो जाता है। भटकता हुआ इंसान न केवल स्वयं को बर्बादी की कगार पर ले जाता है वरन सबको ऐसे गड्ढे में ढकेलने की क्षमता रखता है जो कोई सोच भी नहीं सकता है। जीवन की आपाधापी में हम अधिकारों के प्रति ज्यादा ही सचेत होने लगे हैं, कर्तव्यों को न तो जानते हैं न ही जानने की कोशिश करते हैं। ये अनजाना पन कहीं महंगा न पड़ जाए इसलिए जागिए और जगाइए।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “सोता हुआ सागर जगा…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 171 ☆
☆ सोता हुआ सागर जगा… ☆
जिस परिवेश में हम रहते हैं उसका प्रभाव हमारे व्यक्तित्व में पड़ना स्वाभाविक है। जब मन क्रोध के वशीभूत हो उस समय कोई निर्णय न करके मन शांत होने का इंतजार करें इससे किसी भी प्रकार के विवाद की संभावना से बचा जा सकता है। हम जो सोचते हैं वही शब्दों के रूप में हमारी वाणी से व्यक्त होता है। जिसे धोखे से कह दिया या जबान फिसल गयी का नाम दे दिया जाता है।
जो विष को धारण करना जानता है वही शिवत्व को प्राप्त करता है, कंठ में विष रखकर भी लोक कल्याण का भाव कैसे रखें ये तो भोलेनाथ से सीखा जा सकता है। स्वयं भले हलाहल के साथ रहें परन्तु सबको अमृत दें। कहते हैं जो देंगे वही मिलेगा, सकारात्मक भाव के साथ अच्छा चिंतन शुभफलदायी होता है। सनातन धर्म के सारे पर्वों का उद्देश्य यही है।विश्व कल्याण की भावना के साथ असत्य पर सत्य की जीत, बुराई पर अच्छाई की जीत को दर्शाने हेतु हर वर्ष रावण का दहन किया जाता है, ताकि जनमानस तक ये संदेश जाए कि बुराई का अंत समय- समय पर करते रहना चाहिए जिससे उसकी जड़ें न फैलने पाएँ। जब – जब पाप बढ़ा है तब- तब सत्य रूपी राम ने उसका वध किया है। वैचारिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग न करते हुए सर्वे भवन्तु सुखिनः का भाव रखकर अपने कार्यों को करें। कभी मंदिरों में जाकर देखिए आरती के बाद धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो आदि के स्वर गुंजित होते हैं।
तो आइए हम सब भी अपने अंदर की बुराइयों को पहचान कर उन्हें दूर करें तभी इन त्योहारों को सच्चे अर्थ में जीवन से जोड़ा जा सकेगा और समस्त जगत एक सूत्र में बांधकर मानवता को गौरवान्वित करेगा।
(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी के स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल में आज प्रस्तुत है उनका एक विचारणीय व्यंग्य “थैंक यू मिस्टर स्टीव चैन”।)
शुक्रगुजार हैं हम आपके मि. स्टीव चैन. देश में कुपोषण के कारण मरने वाले बच्चों की संख्या में काफी सीमा तक कमी आई है तो उसका श्रेय आपके क्रिएशन और स्मार्ट फोन को जाता है. आपने यू-ट्यूब बनाया. मम्मियाँ हाथ में थमा देती हैं तो बच्चा खाना ठीक से खा लेता है. शुरू शुरू में तो मम्मा ‘लकड़ी की काठी, काठी पे घोड़ा’ लगा देती है, बाद में बालक स्वयं ‘धूम मचा ले धूम’ से होता हुआ ‘लव मी लव मी, किस मी किस मी’ तक पहुँच जाता है. वैरी इंटेलीजेंट बॉय. मम्मा को प्राउड फील होता है, अक्कल दाढ़ आने से पहले ही मोबाइल चलाना जो आ गया है. स्मार्ट फ़ोन के अविष्कार से पहले बढ़ते बच्चे दिनभर कंचे, गिल्ली-डंडा, पतंगबाज़ी के चक्कर में भोजन करना भूल जाते और कुपोषण का शिकार हो जाते थे. मम्मियों की राह अब आसान हो गई है. कन्फ्यूजिया जाते हैं आप – शिशु खाते खाते देख रहा है कि देखते देखते खा रहा है. जो भी हो खा तो रहा है. शिशुओं के पोषण के लिए आपने महत्वपूर्ण संसार रचा है स्टीव, आभार आपका.
कुपोषण की समस्या से निपटने में नूडल्स का भी बड़ा योगदान है. सट्टाकदेनी से गटक लेता है मम्मा का ‘द गुड बॉय’. सब्जी-रोटी चबाने का जमाना तो रहा नहीं. पेट जब निगल कर भरा जा सकता हो तो चबाने की मेहनत क्यों करना ? ये आपके यू ट्यूब, स्मार्ट फोन और नूडल्स के शानदार गठजोड़ का ही परिणाम है स्टीव कि आर्यावर्त में मोटे, थुलथुल, गोल मटोल, गब्दू बाल गोपाल की आबादी का ग्राफ ऊपर की ओर है. इत्ते गापुची-गापुची कि देखते ही गुदगुदी करने को मन मचल मचल उठता है. गिलिss-लिलिsss-गिलि…बेली में अंगुली गढ़ा दो तो मेमोरी फोम में बननेवाले की गड्ढ़े की तरहा गड्ढा बन कर बलून फिर नार्मल हो जाता है. कुपोषण से अतिपोषण तक की ये यात्रा शिशु वर्ग से शुरू होकर बेरियाटिक सर्जरी पर समाप्त होती है.
स्मार्ट फोन स्मार्ट मम्मी से भी ज्यादा स्मार्ट होता है. वो जानता है रोते बच्चे को चुप कराने की कला. स्मार्ट फोन आने से पहले बच्चे कैसे पाले जाएँ इसका तो उस समय की यशोदाओं को इल्म भी नहीं था. वे अपने कान्हाओं को थप्पड़ मार कर चुप कराया करतीं. जितना जोर से मारती दुलारे उतनी जोर से रोते, फिर जितना जोर से रोते उससे ज्यादा जोर से मार पड़ती. थप्पड़, मार और रोने का एक दुष्चक्र था स्टीव भिया जिसमें नंदबाबा भी हस्तक्षेप नहीं कर पाते थे. दुष्चक्र में कभी कभी झाडू या मोगरी की एंट्री भी हो जाती. फिर माँ थक कर रोने लगती, आँखों के तारे रोते रोते ही थक कर सो जाते. वैसे माँ को खाना जल्दी जल्दी खिलाने में आनंद भी नहीं आता था. दो घंटे तक झीकती रहती तब जाकर कान्हा का पेट भर पाता, भर पाता तो भर पाता नहीं तो नहीं भी भर पाता. इन दिनों मम्मी को एक दो बार ही बोलना होता है – ‘हरी-अप बेटू, ईट फ़ास्ट’, बाकी माहौल यू-ट्यूब संभाल लेता है. मम्मा इज आलसो इन हरी. वाट्सअप जो देखने होते हैं. नेचुरली, जितना अधिक स्क्रीन टाईम मम्मियाँ अपने बच्चों को देंगी उतना स्क्रीन टाईम वे अपने लिए भी निकाल सकेंगी. मोबाइल सनी के हाथ में हो तो बुक्का-फाड़ के रोना किस चिड़िया का नाम है ?
यू ट्यूब के फायदे केवल खाने-खिलाने तक सीमित नहीं हैं. इससे बच्चा ‘फिंगर एक्सरसाईज’ भी कर लेता है. उंगलियों की थकान जैसी मामूली चीज उसे अनवरत स्क्रॉल करने से रोक नहीं पाती. गेम वर्चुअल हो तो घरों की खिड़कियों के शीशे टूटने से बचे रहते हैं. यू ट्यूब से लेक्चर सुना जा सकता हो तो किताब क्यों पढ़ना ! और लिखना तो कतई नहीं. कागज़ बच जाता है, पेड़ कटने से बच जाता है, पर्यावरण बचा रहता है.
हंगर इंडेक्स में भारत को 111वें स्थान पर रखनेवाली रिपोर्ट सरासर गलत है. सच तो ये है कि जिन लोगों ने इसे बनाया है वे सोफे पर बेतरतीब लेटे, बर्गर निगलते, यू-ट्यूब चलाते हमारे होनहारों से कभी मिले ही नहीं. हम उनकी रिपोर्ट को गलत साबित कर पा रहे हैं तो सिर्फ तुम्हारी वजह से मि. स्टीव चैन – तुम्हारा शुक्रिया.
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य – “बैठे ठाले – ‘जीवन का प्रश्नपत्र’…”।)
☆ व्यंग्य – “बैठे ठाले – ‘जीवन का प्रश्नपत्र’…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
“कौन कौन आता है चौखट पर तेरी… एक बार अपनी मौत की अफवाह उड़ा के तो देख…!”
सोशल मीडिया और झूठ की दुनिया में अपवाह फैलाना आम बात है, समय बहुत तेजी से उछल कूद कर रहा किसी के पास समय नहीं है, बधाई और शोक संदेश जल्द से जल्द देने की प्रतिस्पर्धा चल रही है इन दिनों एक ही विभाग में काम करते थे कमल कुमार गुप्ता और कमल गुप्ता। एक उसी विभाग में एकाउंटेंट थे और दूसरे उस विभाग में स्टोनो तो थे ही, थोड़ा लिखने पढ़ने के शौक के कारण शहर के बहुत लोग उन्हें साहित्यकार के रूप में भी जानते थे। शहर में किसी को पता चला कि कमल नहीं रहे, चूंकि एक दिन पहले की खबर थी और शहर में किसी को कोई खबर नहीं थी इसलिए इस प्रतिस्पर्धा के दौर में बाजी मार लेने के भाव से उनके दोस्त ने बिना पता किए बुद्धिजीवियों के सोशल मीडिया के एक ग्रुप में लिख दिया, फलाने विभाग से सेवानिवृत्त हिन्दी के साहित्यकार श्री कमल कुमार गुप्ता जी का निधन परसों हो गया था और कल उनकी अंत्येष्टि भी हो गई। उनको विनम्र श्रद्धांजलि,ओम शान्ति शान्ति।
विनम्र श्रद्धांजलि देने में कहीं देर न हो जाए इसलिए लोगों ने फटाफट ग्रुप में लिखना चालू कर दिया……पहले ने तुरंत लिखा ‘यह दुखद व सदमा पहुंचाने वाली जानकारी है। श्रद्धांजलि’।
आजकल सोशल मीडिया के ग्रुपों का हाल लडैया जैसा हो गया है, शाम के बाद एक लडैया हुआ..हुआ.. करना जैसे चालू करता है सब लडैया हुआ। हुआ करने लगते हैं। इसीलिए दूसरे ने बिना देर किए लिख दिया “बेहद दुःखद समाचार, दिवंगत आत्मा को ईश्वर अपने चरणों में स्थान प्रदान करे।”
तीसरा क्यों चूकने वाला था बिना पता किए लिख डाला.. अरे।..बहुत ही तकलीफदेह समाचार है।
विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित है। (हालांकि ये सज्जन जीवन भर गुप्ता जी को गालियां देते रहे और गुप्ता जी की कविताओं की आलोचना करते रहे)
गुप्ता जी के आकाशवाणी के टरकाऊ मित्र ने लिखा -‘ यह तो हृदयविदारक और शोकसंतप्त करने वाली अत्यंत दुखद सूचना है। उनके जैसे सक्रिय और लोकप्रिय व्यक्तित्व के देहावसान की जानकारी अपेक्षाकृत विलम्ब से सार्वजनिक होने पर भी आश्चर्य है, अफ़सोस है। उनके साथ आकाशवाणी के अपने सेवाकाल यानी में निरंतर जीवंत सम्पर्क और संवाद होता रहता था। पिछले दिनों एक कार्यक्रम में उनसे एक-दो बार बहुत संक्षिप्त भेंट हुई थी और इत्मीनान से मिलने की उम्मीद बंधी थी। उनकी स्मृति को सादर नमन और अश्रुपूरित श्रद्धांजलि।
आकाशवाणी वाले की टिप्पणी पढ़कर एक कलाकार (जिनको रेडियो से कान्ट्रेक्ट नहीं मिल रहे थे) ने बिना देर किए लिखा – विडंबना है कि जिस व्यक्ति ने एक फेमस अंग्रेजी नाटक का हिंदी में रूपांतरण किया हो। जिस व्यक्ति की लिखी कविताओं को पढ़कर कितने ही लोग धुआंधार में कूद गए, जिनकी कविताओं को पढ़कर दहेज देने से बाप ने इंकार कर दिया था, उनका निधन परसों हो गया। कल उनकी अंत्येष्टि भी हो गई लेकिन शहर में किसी को सूचना तक नहीं हुई। फिर भी उनको विनम्र श्रद्धांजलि।
नाटक की बात पढ़कर एक नाटक के डायरेक्टर ने तुरंत लिखा – यह स्तब्ध कर देने वाली बात है। जिस शहर को हम जानते-पहचानते थे, वह ऐसा तो नहीं था। इसीलिए बार बार विनम्र श्रद्धांजलि।
विभाग के बड़े अधिकारी को जब पता चला कि ऐसा हो गया है तो उन्होंने खबर देने वाले से जरूर पूछा कि हमारे अंडर में दो गुप्ता थे दोनों का नाम कमल था। खबर देने वाले ने कहा – सर आप तो बहती गंगा में हाथ धो लो जो मरे होंगे उन पर आपकी श्रद्धांजलि लागू मानी जाएगी ,सो बड़े साहब ने ग्रुप में लिख दिया -मेरी जानकारी के अनुसार हमारे विभाग के डायरेक्टर जी की लोकसाहित्य पर केन्द्रित पुस्तक में भी स्वर्गीय गुप्ता जी ने महती योगदान किया था, बेचारे अच्छे आदमी थे काम में जरूर थोड़ा कमजोर थे पर ड्यूटी चोर नहीं थे, उनके जैसे लोगों की देश को बहुत ज़रूरत है, उनकी आत्मा की शान्ति के लिए मैं प्रार्थना करता हूं।ओम शान्ति शान्ति।
धड़ाधड़ इतनी सारी टिप्पणी देखकर एडमिन अचंभित हो गये, चूंकि एडमिन भी कवि हृदय थे तो उन्होंने विनम्र श्रद्धांजलि लिखकर एक कविता ठोंक दी।
एक सज्जन अपने लोगों के मरने का इंतजार करते रहते थे और जैसे ही किसी के मरने की खबर आयी अपनी पुरानी फाइल से कोई चीज निकालकर श्रद्धांजलि के साथ चिपका देते थे, अचानक उनको फाइल में एक पुराना ब्रोशर मिला जिसमें नाटक में कमल कुमार गुप्ता के नाम का जिक्र है। तुरंत श्रद्धांजलि के साथ ग्रुप में ब्रोशर की फोटोकापी ने ग्रुप में हड़कंप मचा दिया। कुछ लोगों ने सोचा वाकई ये आदमी जब इतना महान था तो इतने जल्दी क्यों मर गया इसीलिए ऐसे आदमी को झूठ-मूठ की श्रद्धांजलि लिख देने में अपना क्या जाता है सो कईयों ने जबरदस्ती ओम शान्ति और विनम्र श्रद्धांजलि लिख लिखकर पोस्ट की संख्या बढ़ा दी,रात हो गई,सब सो गए, किसी ने भी किसी गुप्ता को फोन नहीं किया न उनके घर गये।बात आई और गई…. बहुत दिन बीत गए।
मैं गुप्ता जी के तेरहवीं की सूचना के कार्ड का इंतजार करता रहा, फिर छै सात दिन बाद मैंने सोचा कि गुप्ता जी की श्रीमती जी को फोन करके उनकी तेरहवीं की तारीख पूंछ लूं , जैसे ही फोन लगाया और पूछा कि भाभी जी गुप्ता जी को क्या हो गया था ?
उन्होंने कहा -कुछ नहीं अभी तो वे कविता लिख रहे हैं मैं आपकी उनसे बात करातीं हूं।
मैं दंग रह गया था थोड़ा चक्कर जैसा जरूर आया फिर मैंने अपने आपको संभाल लिया,उधर से गुप्ता जी की आवाज आयी,बोले – मैं आप सब लोगों से बहुत नाराज हूं आप लोगों ने अभी तक शोकसभा आयोजित नहीं की, मैं इंतजार कर रहा था कि जिस दिन शोकसभा होगी, मैं भी छुपकर सबकी बातें सुनूंगा पर मेरी आखरी इच्छा का आप लोगों ने बिल्कुल ध्यान नहीं रखा….
मैंने फोन बंद कर दिया था, मुझे समझ आ गया था कि निधन दूसरे कमल का हुआ होगा और जल्दबाजी में इनके दोस्त ने इनको समझ लिया होगा। फिर बार बार साहित्यकार कमल कुमार गुप्ता का फोन बजता रहा, मैंने नहीं उठाया…
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “ओ चिंता की पहली रेखा…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 170 ☆
☆ ओ चिंता की पहली रेखा… ☆
बिना परिवर्तन के जीवन सुखद हो ही नहीं सकता है। जब व्यक्ति के स्वभाव में अन्तर आता है, तो उसकी झलक बोली में दिखायी देती है।
आज हम बात करेंगे, जनरेशन गैप की, जो हर बुजुर्ग को सुनना ही पड़ता है जैसे ही बच्चों के साथ तारतम्य न मिले तो वे कह देते आप क्या जानो या समय के साथ बदल जाइये अन्यथा अकेले रह जायेंगे।
क्या इतना बदलाव हमारी संस्कृति के अनुरूप है कि कल तक जो उँगली पकड़ कर चलता था आज वो एक नयी राह बना आपको ही चलना सिखा दे। खैर ये तो सदियों से चला आ रहा है, मानव भी तो जंगल के जीवन से उत्तरोत्तर उन्नति कर आज आकाशीय ग्रहों में बसेरा करने की योजना बना रहा है, परिवर्तन सत्य है, समय के अनुरूप स्वयं को बदलते रहें, ये मत भूलें हम सबसे ही समाज है जो देर सवेर ही सही भावी पीढ़ी को सौंपना होगा। अतः हँसते हुए विचारों का हस्तांतरण करें खुद भी सुखी रहें उनको भी सुखी रहने का आशीर्वाद देकर।
भले ही कम बोलें पर शब्द सार्थक हों जिससे किसी को ठेस न लगे, जिस तरह नेहिल शब्दों से अपनत्व का बोध होता है उसी तरह कटु शब्द विषैले तीर से भी घातक हो, सामने वाले को दुःखी कर देते हैं। लोगों की नजर में जो अपशब्द बोलता है, उसके लिए इज्जत कम हो जाती है। जो कुछ है वो वर्तमान है, कल न किसी ने देखा है न देखेगा जैसे ही कल में पहुँचते हैं वो आज बन जाता है। ये सब तर्क शक्ति के अनुसार तो सही है पर इतिहास गवाह है कि बिना अच्छी योजना कोई भी सफल नहीं हुआ, वर्तमान में जिसने भी श्रम किया उसे भविष्य ने पूजा व सराहा।
जितने लोग उतनी विचारधारा हो सकती है, सभी अपने – अपने अनुसार सही भी होते हैं परन्तु जिससे जन कल्याण हो वही कार्य करें जिससे मानव का जन्म सफल हो। ज्योतिषी अपनी खगोलीय गणना द्वारा हमारा भूत, वर्तमान व भविष्य सब कुछ बता देते हैं। ये भी एक बड़ा सत्य है दरसल भविष्य शब्द भाव से बना है जो भाव को जीते हैं ईश्वर उनका सदैव साथ देता है जिससे भविष्य दिनों दिन निखरता जाता है कर्म करते रहें बिना फल की लालसा क्योंकि वृक्ष भी फल समय आने पर ही देता है।
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आपकी एक विचारणीय व्यंग्य ‘नेताजी की मुक्ति’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 214 ☆
☆ व्यंग्य – नेताजी की मुक्ति☆
नेताजी डेढ़ महीने से सख्त बीमार हैं। मरणासन्न हैं। अस्पताल वालों ने चार दिन पहले छुट्टी दे दी है। कहा कि अब कोई उम्मीद नहीं है, इसलिए घर में ही प्राण त्यागें। अस्पताल में मरेंगे तो चेले-चपाटी झूठा दुख दिखाने के चक्कर में अस्पताल में तोड़फोड़ करेंगे। लाखों का नुकसान होगा। इसलिए घर में ही आखिरी साँस लें। अस्पताल वालों की जान सलामत रहे।
घर में सब लोग नेताजी की रवानगी की प्रतीक्षा कर रहे हैं। चमचे चौबीस घंटे ड्यूटी कर रहे हैं। भीतर भीतर कसमसा भी रहे हैं कि इनसे निपटें तो किसी दूसरे ‘उगते सूरज’ की सेवा में लगें। अब इनसे क्या मिलने वाला है?
नेताजी के दो बेटे हैं। बड़ा एमैले होकर राज्य के भ्रष्टाचार विकास निगम का अध्यक्ष हो गया है। छोटे के टिकट के लिए नेताजी पसीना बहा रहे थे कि अचानक बीमार हो गये। सब मंसूबे धरे रह गये। बिना चौखट पर दस बार माथा टेके कौन काम करेगा?
अब सब सोच रहे हैं कि नेता जी आराम से विदा हो जाएँ तो अच्छा। चार दिन से धरे हैं लेकिन प्राण पता नहीं कहाँ अटके हैं। मित्रों की सलाह पर उन्हें जगह बदल बदल कर लिटाया जा रहा है क्योंकि ऐसी मान्यता है कि अपनी पसन्द की जगह पर प्राण आसानी से निकलते हैं।
इसीलिए बहुत से लोग अन्तिम समय में काशीवास करते हैं। लेकिन नेताजी के मामले में सब कोशिशें निष्फल हो रही हैं और मित्र-समर्थक समय व्यर्थ जाते देख खीझ में भुनभुना रहे हैं। एक कह रहे हैं, ‘इनका कोई काम टाइम से नहीं होता। हर जगह लेट होते हैं।’ दूसरे कहते हैं, ‘कम से कम वहाँ तो टाइम से पहुँच जाते।’
पार्टी के अध्यक्ष भी रोज एक चक्कर लगा जाते हैं। मामला लंबा खिंचते देख उनका भी मुँह बिगड़ता है। चौथे दिन उनका सब्र टूट गया। चेलों से भुनभुनाये, ‘अब यहीं अटके रहें क्या? और भी दस काम पड़े हैं।’
चौथे दिन उन्होंने वहाँ हाज़िर दो चार साथियों से गुपचुप सलाह ली। फिर एक विश्वासपात्र चेले को बुलाया और उसके कान में कुछ मंत्र फूँका। चेला धीरे-धीरे नेताजी के बिस्तर के पास गया और उनके कान के पास मुँह लाकर बोला, ‘टिकट मिल गया।’
नेताजी ने भक से आँखें खोल दीं। दोनों हाथ जोड़कर बुदबुदाये, ‘मेरा जीवन सार्थक हो गया। प्रभु को धन्यवाद। पार्टी को भी बहुत धन्यवाद।’
इतना बोलने के बाद उनकी आँखें मुँद गयीं। बहुत दिनों से छटपटा रही आत्मा अपने लिए निर्दिष्ट लोक को उड़ गयी।
अध्यक्ष जी का चेला बाहर निकला तो नेताजी के चेलों ने उसकी गर्दन पकड़ी, कहा, ‘तू झूठ क्यों बोला? अभी टिकट कहाँ मिला है?’
अध्यक्ष जी ने बीच-बचाव किया, बोले, ‘उनके मन की शान्ति के लिए बोल दिया तो क्या बुरा किया? अब ये आपसी विवाद छोड़ो और सब लोग सरजू भाई की आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना करो।’
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक व्यंग्य – भीड़ के चेहरे…)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 233 ☆
व्यंग्य – भीड़ के चेहरे…
मैं अखबार की हेड लाईन पढ़ रहा था, जिसमें भीड़ द्वारा की गई तोड़ फोड़ की खबर बोल्ड लैटर में छपी थी, मुझे उस खबर के भीतर एक अप्रकाशित चित्र दिखा, जिसमें बिलौटा भाग रहा था और चूहे उसे दौड़ा रहे थे. चित्र देखकर मैने बिलौटे से पूछा, ये क्या ? तुम्हें चूहे दौड़ा रहे हैं ! बिलौटे ने जबाब दिया यही तो भीड़तंत्र है. चूहे संख्या में ज्यादा हैं, इसलिये चलती उनकी है. मेरा तो केवल एक वोट है, दूसरा वोट मेरी बिल्लो रानी का है, वह भी वह मेरे कहे पर कभी नही देती. बल्कि मेरी और उसकी पसंद का आंकड़ा हमेशा छत्तीस का ही होता है. चूहो के पास संख्याबल है. इसलिये अब उनकी ही चलती है.
मैने खबर आगे पढ़ी लिखा था अनियंत्रित भीड़ ने ला एण्ड आर्डर की कोशिश करती पोलिस पर पथराव किया. मैने अपने आप से कहा, क्या जमाना आ गया है, एक वो परसाई के जमाने के इंस्पेक्टर मातादीन थे, जिन्होने चांद पर पहुंच कर महज अपने डंडे के बल पर पोलिस का दबदबा कायम कर लिया था और एक ये हमारे जमाने के इंस्पेक्टर हैं जो भरी रिवाल्वर कमर में बांधे खुद अपनी ही जान से हाथ धो रहे हैं. मुझे चिंता हो रही है, अब सैंया भये कोतवाल तो डर काहे का वाले मुहावरे का क्या होगा ?
तभी मुझे एक माँ अपने बच्चे को गोद में लिये दिखी, बच्चा अपनी तोतली जवान में बोला गग्गा ! पर जाने क्यो मुझे सुनाई दिया शेर ! मैं जान बचाकर पलटकर भागा,मुझे यूं अचानक भागता देख मेरे साथ और लोग भी भागने लगे,जल्दी ही हम भीड़ में तब्दील हो गये. भीड़ में शामिल हर शख्स का चेहरा गुम होने लगा. भीड़ का कोई चेहरा नही होता. वैसे भीड़ का चेहरा दिखता तो नही है पर होता जरूर है, अनियंत्रित भीड़ का चेहरा हिंसक होता है. हिंसक भीड़ की ताकत होती है अफवाह, ऐसी भीड़ बुद्धि हीन होती है. भीड़ के अस्त्र पत्थर होते हैं. इस तरह की भीड़ से बचने के लिये सेना को भी बख्तर बंद गाड़ियो की जरूरत होती है. इस भीड़ को सहज ही बरगला कर मतलबी अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं, भीड़ पथराव करके, नारे लगाकर, तोड़फोड़ करके या आग लगा कर, हिंसा करके, किसी ला आर्डर बनाने की कोशिश करते इंस्पेक्टर को मारकर,गुम जाती है,तितर बितर हो जाती है, फिर इस भीड़ को वीडीयो कैमरो के फुटेज में कितना भी ढ़ूंढ़ो कुछ खास मिलता नही है, सिवाय किसी आयोग की जांच रिपोर्ट के. तब इस भीड़ को लिंचिंग कह कर पल्ला झाड़ लिया जाता है. यह भीड़ गाय के कथित भक्तो को गाय से बड़ा बना देती है. ऐसी भीड़ के सामने पोलिस बेबस हो जाती है.
भीड़ एक और तरह की भी होती है. नेतृत्व की अनुयायी भीड़. यह भीड़ संवेदनशील होती है. इस भीड़ का चेहरा क्रियेटिव होता है.गांधी के दांडी मार्च वाली भीड़ ऐसी ही भीड़ थी. दरअसल ऐसी भीड़ ही लोकतंत्र होती है. ऐसी भीड़ में रचनात्मक ताकत होती है. जरूरत है कि अब देश की भीड़ को, भीड़ के दोनो चेहरो से परिचित करवाया जाये तभी माब लिंचिंग रुक सकती है. गग्गा शब्द की वही कोमल अनुभूति बने रह सके, गाय से डर न लगने लगे, तोतली जुवान में गग्गा बोलने पर, शेर सुनाई न देने लगे इसके लिये जरूरी है कि हम सुशिक्षित हो कि कोई हमें डिस्ट्रक्टिव भीड़ में बदल न सके.
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “खिसका धूप – छाँव का आँचल…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 168 ☆
☆ खिसका धूप – छाँव का आँचल… ☆
अगर परिवर्तन की इच्छा है, तो जीवन में आने वाले उतार – चढ़ावों से विचलित नहीं होना चाहिए, जो आज है, वो कल नहीं रहेगा ये सर्वमान्य सत्य है, इसलिए आपको जो भी दायित्व मिले उसे ऐसे निर्वाह करें जैसे ये आपका पहला व अन्तिम प्रोजेक्ट है। इसमें पूरी ताकत लगा दें क्योंकि बिना योग्यता को सिद्ध किये कोई आप पर भरोसा नहीं कर सकता।
इस संदर्भ में एक बात ध्यान देने योग्य है कि यदि सोच सच्ची है तो राह और राही दोनों आपको उम्मीद से बढ़कर सहयोग करेंगे। बस दिव्य शक्ति पर विश्वास होना जरूरी है क्योंकि यही विश्वास आपको मंजिल तक ले जाने में श्री कृष्ण की तरह सारथी बनकर, डगमगाने पर गीता का उपदेश देकर सम्बल बढ़ाते हुए विजयी बनाएगा।
आते-जाते हुए लोग विपक्षी दल की भूमिका निर्वाह करते हुए भले ही लोकतांत्रिक मूल्यों का हवाला दें किन्तु अच्छे कार्यों को करते हुए सत्ता पक्ष की तरह सशक्त दूरगामी निर्णय लेना चाहिए। जीवन कब करवट बदल ले इसे कोई नहीं बता सकता लेकिन जो सच्चे मन से परिश्रम करता है उसके लिए देव स्वयं धरती पर आकर नेकी का मार्ग प्रशस्त्र करते हैं। दूषित भावों से जोड़े गए पत्थर कभी मजबूत इमारत खड़ी नहीं कर पाते, जब तक बुनियाद के खम्बे निष्पक्ष नहीं होंगे तब तक दिवास्वप्न देखते रहिए, शेखचिल्ली बनकर सबका मनोरंजन करने का हुनर कोई आसान कार्य नहीं है।
अतः पूर्ण मनोयोग से अपने कार्यों को करें सफलता स्वागत के लिए तैयार है। भारतीय संस्कृति को आगे बढ़ाकर ही हम विश्व को नयी राह दिखायेंगे इसलिए निरन्तर प्रगति पथ पर अग्रसर रहें।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक व्यंग्य – चूं चूं की खोज…)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 231 ☆
व्यंग्य – चूं चूं की खोज…
हम अनुभवी बुद्धिजीवी हैं। ये और बात है कि खुद हमारे बच्चे भी हमारी बुद्धि से ज्यादा गूगल के ज्ञान पर पर भरोसा करते हैं। हमारी अपनी एक पुरानी अनुत्तरित समस्या है, जो हमें अपने स्वयं को पूर्ण ज्ञानी समझने से बरसों से रोके हुये हैं। हमारा यक्ष प्रश्न है, कक्षा आठ के हिन्दी के पाठ में पढ़े मुहावरे ” चूं चूं का मुरब्बा ” में, आखिर चूं चूं क्या है ? चूं चूं की खोज में हमने जीव विज्ञान की किताबें पढ़ी। जू के भ्रमण पर गये तो उत्सुकता से चूं चूं की खोज में दृष्टि दौड़ाई। फिर हमने सोचा कि जिस तरह आंवले का मुरब्बा होता है, हो सकता है चूं चूं भी किसी बिरले फल का नाम हो। तो वनस्पति शास्त्र की पुस्तकें खंगाल डाली बाग बगीचे जंगल घूमे। चूंकि चूं चूं का मुरब्बा हिन्दी मुहावरे में मिला था, और उससे कुछ कुछ व्यंग्य की बू आ रही थी सो हमने जोशी रचनावली, त्यागी समग्र और परसाई साहित्य में भी चूं चूं को ढूंढ़ने की कोशिश की, किन्तु हाथ लगे वही ढाक के तीन पात। चूं चूं का राज, राज ही बना हुआ है।
फिर हमारा विवाह हो गया। हर मुद्दे पर “मैं तो जानती थी कि यही होगा” कहने वाली हमें भी मिल गई। मुरब्बे बनाने में निपुण पत्नी से भी हमने चूं चूं के मुरब्बे की रहस्यमय रेसिपी के संदर्भ में पूछा। पत्नी ने बिना देर किये मुस्कराते हुए पूरी व्यंजन विधि ही बता दी। उसने कहा कि सबसे पहले चूं चूं को धोकर एक सार टुकड़ो में काटना होता है, स्वाद के अनुसार नमक लगाकर चांदनी रात में देर तक सुखाना पड़ता है। चीनी की एक तार चाशनी तैयार कर उसमें चांदनी में सूखे चूं चूं डाल कर उस पर काली मिर्च और जीरा पाउडर भुरक कर नीबू का रस मिला दें और अगली आठ रातों तक कांच के मर्तबान में आठ आठ घंटे चांदनी में रखना होता है, तब कहीं आठवें दिन चूंचूं का मुरब्बा खाने लायक तैयार हो पाता है। इस रेसिपी के इतने कांफिडेंट और आसानी से मिल जाने से मेरी नजर में पत्नी का कद बहुत बढ़ गया। मुझे भरोसा है कि वे सारे लोग पूरे के पूरे झूठे हैं जो सोचते हैं की चूं चूं का मुरब्बा वास्तविकता न होकर, सिर्फ एक मुहावरा है।
किन्तु वही समस्या सत्त्र बादरायण की कथा की खोज सी, जटिल हो गई। पुरच्या तो तब बने जब हूं हूं मिले। पूं हूं कहां से लाई जाने ? देश विदेश भ्रमण, भाषा विभाषा, धर्म जातियों, शास्त्रों उपसास्त्रों के अध्ययन के बाद भी कहीं यूं का कुछ पता नहीं लगा। सुपर मार्केट है कामर्स अमेजन से लेकर अली बाबा एक्सप्रेस एक और मुगल से विकी पीडीया तक सर्च के बाद भी अब तक चूं हूं नहीं मिली तो नहीं ही मिली। नौकरी में अफसरों के आदेशों मातहतों की फाइलों को पढ़ा, उनके विश्वशेन द लाइन्स निहितार्थ समझे। नेता जी के इशारे समझे डाक्टरों की घसीटा हँडराइटिंग वाले पर्थों पर लिखी दवायें डिकोड कर ली पर इस चूं चूं को मैं नासमझ कभी समझ ही नहीं पाया।
मुझे तो लगने लगा है कि चूं चूं की प्रजाति ही डायनासोर सी विलुप्त हो चुकी है। या शायद जिस तरह इन दिनों उसूलों की घरेलू गौरख्या सियासत के जंगल में गुम हो रही है शायद उसी तरह चूं चूं भी एलियन्स शी समय की भेंट चढ़ चुकी है। हो सकता है कहीं कभी इतिहास में सत्ता का स्वाद चखते के लिए राजाओं, बादशाहों, शौकीन सियासतदानों ने पौरुष शक्ति बढ़ाने के लिये कही चूं चूं के मुरब्बे का इतना इस्तेमाल तो नहीं कर डाला कि हमारे लिये चूं चूं बच्ची ही नहीं। एक आशंका यह भी है कि कहीं लोकतंत्र से में जीत की अनिश्चितता से निजात पाने राजनैतिक पार्टियों ने अपनी बपौती मानकर चुनावों से पहले ही फ्री बिज के रूप में इतना मुरब्बा मुफ्त में तो नहीं बांट दिया कि चूं चूं सदा के लिये “लापता” हो गई। संसद, विधान सभा के भव्य भवनों के रोशनदानों, संग्रहालयों, धूल खाते बंद से पुस्तकालयों, हर कहीं मेरी चूं चूं की खोज जारी है। “यह दुनियां गजब की” है कब कहां चूं चूं मिल जाये क्या पता। “दिल है कि मानता ही नहीं” सोचता हूं एक इश्तिहार छपवा दूं, ओ चूं चूं तुम जहां कहीं भी चली आओ तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा। अथवा व्हाट्सअप पर यह संदेश ही डाल दिया जाये कि जिस किसी को चूं चूं मिले तो जरूर बताए, शायद “परिक्रमा” करते हुये कभी, यह मैसेज किसी चूं चूं तक पहुंच ही जाये। “यत्र तत्र सर्वत्र” खोज जारी है, शायद किसी दिन अचानक “जीप पर सवार चूं चूं ” हम तक वापस आ ही जाये “राग भोपाली” सुनने। यद्यपि मेरा दार्शनिक मन कहता है कि चूं हूं जरूर उस अदृश्य आत्मा का नाम होगा जिसकी आवाज पर नेता जनता के हित में दल बदल कर सत्ता में बने रहते हैं।
संभावना है कि चूं चूं यांत्रिक खटर पटर की तरह वह कराह है, जिससे उन्बील पुरै हाईस विरोधी मेंढ़कों ने एक पलड़े पर एकत्रित होकर चूं चूं के मुरम्बे सा कुछ तो भी बना तो दिया है। जिसके शैफ पटना, बैंगलोर, मुंबई में अपने कुकिंग क्लासेज चला रहे थे। बहरहाल आपको चूं चूं दिखें तो बताईयेगा।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका व्यंग्य – “हिंदी डे”।)
अभी अभी # 157 ⇒ हिंदी डे… श्री प्रदीप शर्मा
पिंकी ने स्कूल से घर आते ही अपनी माँ से प्रश्न किया, माॅम, ये हिंदी डे क्या होता है ! मेम् ने हिंदी डे पर हिंदी में ऐसे essay लिखने को कहा है !
बेटा, जैसे पैरेंट्स डे होता है, वैलेंटाइन्स डे होता है, वैसे ही हिंदी डे भी होता है। इस दिन हम सबको हैप्पी हिंदी डे विश करते हैं, एक दूसरे को बुके देते हैं, और हिंदी में गुड मॉर्निंग और गुड नाईट कहते हैं।।
मॉम, यह निबंध क्या होता है ? पता नहीं बेटा ! सुना सुना सा वर्ड लगता है। उनका यह वार्तालाप मंगला, यानी उनकी काम वाली बाई सुन रही थी ! वह तुरंत बोली, निबंध को ही एस्से कहते हैं, मैंने आठवीं क्लास में हिंदी दिवस पर निबंध भी लिखा था।
पिंकी एकाएक चहक उठी !
मॉम ! हिंदी में essay तो मंगला ही लिख देगी। इसको हिंदी भी अच्छी आती है ! मंगला को तुरंत कार्यमुक्त कर दिया गया। मंगला आज तुम्हारी छुट्टी। पिंकी के लिए हिंदी में, क्या कहते हैं उसे,
हाँ, हिंदी डे पर निबंध तुम ही लिख दो न ! तुम तो वैसे भी बड़ी फ़्लूएंट हिंदी बोलती हो, प्लीज़।।
मंगला ने अपना सारा ज्ञान, अनुभव और स्मरण-शक्ति बटोरकर हिंदी पर निबंध लिखना शुरू किया। उसे एक नई कॉपी और महँगी कलम भी उपलब्ध करा दी गई थी। मुसीबत और परिस्थिति की मारी मंगला को वैसे भी मज़बूरी में पढ़ाई छोड़नी पड़ी थी। लेकिन पढ़ाई में उसकी रुचि कम नहीं हुई थी। वह खाली समय में अखबार के अलावा गृहशोभा और मेरी सहेली के भी पन्ने पलट लिया करती थी।
और ” हिंदी दिवस ” पर मंगला ने बड़े मनोयोग से निबंध तैयार कर ही लिया। पिंकी और उसकी मॉम बहुत खुश हुई। पिंकी ने उस निबंध की सुंदर अक्षरों में नकल कर उसे असल बना स्कूल में प्रस्तुत कर दिया।।
पिंकी के हिंदी डे के essay को स्कूल में प्रथम पुरस्कार मिला और मंगला को भी पुरस्कार-स्वरूप सौ रुपए का एक कड़क नोट और एक दिन का काम से ऑफ..!!