हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #188 ☆ व्यंग्य – कथा पुल के उद्घाटन की ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय व्यंग्य ‘कथा पुल के उद्घाटन की ’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 188 ☆

☆ व्यंग्य ☆ कथा पुल के उद्घाटन की

पुल उद्घाटन के लिए तैयार है। सबेरे से ही गहमागहमी है। पूरे पुल को फूलों की झालरों से सजाया गया है। सरकारी अमला पुलिस की बड़ी संख्या के साथ हाज़िर है। उद्घाटन मंत्री जी के कर-कमलों से होना है।

पुल का भूमि-पूजन चार पाँच साल पहले तब की सत्ताधारी और अब की विरोधी पार्टी ने किया था। तब पुल की लागत सात सौ करोड़ आँकी गयी थी, अब बढ़कर तेरह सौ करोड़ हो गयी। अब विरोधी पार्टी वाले वहाँ इकट्ठे होकर हल्ला मचा रहे हैं। उनका कहना है कि पुल की शुरुआत उन्होंने की थी, इसलिए उसका उद्घाटन उन्हीं के कर-कमलों से होना चाहिए। सत्ताधारी पार्टी का जवाब है कि उद्घाटन का अधिकार योजना को पूरा करने वालों का होता है, भूमि- पूजन करके भाग जाने वालों का नहीं। पुलिस हल्ला मचाने वालों से निपटने में लगी है।

मंत्री जी आ गये हैं और गहमागहमी बढ़ गयी है। बहुत से तमाशबीन इकट्ठा हो गये हैं। मीडिया वाले फोटोग्राफरों के साथ आ गये हैं। उनके बिना कोई कार्यक्रम संभव नहीं।
लेकिन उद्घाटन से ऐन पहले कुछ पेंच फँस गया है। बड़े इंजीनियर साहब ने पुल के बीच में, ऊपर, फीता काटने का इन्तज़ाम किया है, लेकिन मंत्री जी ने ऊपर चढ़ने से इनकार कर दिया है। आदेश हुआ है कि फीता नीचे ही बाँधा जाए और उद्घाटन नीचे ही हो। वजह यह कि मंत्री जी के साथ सौ दो-सौ समर्थक पुल के ऊपर जाएँगे। कई पुल उद्घाटन से पहले या उद्घाटन के कुछ ही दिन के बाद बैठ गये, इसलिए मंत्री जी ‘रिस्क’ नहीं लेना चाहते। उनका कहना है कि उन्हें अभी बहुत दिन तक जनता की सेवा करना है, उनका जीवन कीमती है, इसलिए वे पुल पर चढ़ने का जोखिम नहीं उठाएंगे। परिणामतः तालियों और जयजयकार के बीच नीचे ही उद्घाटन का कार्यक्रम संपन्न हो गया।

मंत्री जी के पास भीड़ में एक मसखरा घुस आया है। हँस कर मंत्री जी से कहता है, ‘मंत्री जी, कुतुब मीनार और लाल किला पाँच सौ साल से कैसे खड़े हैं? उन पर तो रोज हजारों लोग चढ़ते उतरते हैं। ‘ मंत्री जी कोई जवाब नहीं देते। एक पुलिस वाला मसखरे को पीछे ढकेल देता है।

मंत्री जी की खुशामद करने के इच्छुक एक अधिकारी कहते हैं, ‘सर,आपका डेसीज़न बिलकुल सही है। एब्सोल्यूटली राइट। वी शुड नॉट टेक अननेसेसरी रिस्क। ‘

वे मंत्री जी के चेहरे की तरफ देख कर फिर कहते हैं, ‘सर,ये पाँच सौ साल से खड़ी इमारतें हमारे लिए प्राब्लम बनी हुई हैं। इनकी वजह से हमें बार बार शर्मिन्दा होना पड़ता है। सर, अगर हमारे पुल और सड़कें सौ साल तक चलेंगीं तो एम्प्लायमेंट जेनरेशन कैसे होगा और नयी पीढ़ी को काम कैसे मिलेगा? इसलिए मेरा तो सुझाव है, सर, कि इन पुरानी इमारतों को फौरन डिमॉलिश कर दिया जाए, उन पर फौरन बुलडोज़र चला दिया जाए। सर, इस मामले में आप कुछ कोशिश करें तो नेक्स्ट जेनरेशन आपकी बहुत थैंकफुल होगी।’    

मंत्री जी ने सहमति में सिर हिलाया।   

उद्घाटन के बाद पुल जनता के हितार्थ खुल गया है। अधिकारी ध्वनि-विस्तारक पर बार- बार घोषणा कर रहे हैं कि अब जनता आवे और पुल के इस्तेमाल का सुख पावे। लेकिन पुल पर सन्नाटा है। लोग दूर से टुकुर-टुकुर देख रहे हैं। कोई पुल पर पाँव नहीं धरता।

अधिकारियों में सुगबुगाहट फैल गयी—‘भरोसा नहीं है। दे डोन्ट बिलीव अस। ‘

एक अधिकारी ने पुलिस के अफसर से पूछा, ‘क्या हम पुल पर पुलिस फोर्स का मार्च करा सकते हैं? इट विल हैव अ गुड एफेक्ट। ‘

जवाब मिला, ‘नो सर,इट इज़ नॉट एडवाइज़ेबिल। फोर्स कदम मिला कर चलेगी तो पूरी फोर्स का वज़न एक साथ पुल पर पड़ेगा। इट इज़ रिस्की। ‘

अधिकारियों में फिर फुसफुसाहट है। फिर एक सीनियर अधिकारी एक युवा अधिकारी के कान में कोई मंत्र देता है और युवा अधिकारी अपना स्कूटर उठाकर निकल जाता है। बाद में पता चलता है कि उसका लक्ष्य वह चौराहा था जहाँ रोज़ मज़दूर मज़दूरी की तलाश में घंटों बैठे रहते थे। थोड़ी ही देर में वहाँ एक ट्रक में तीस चालीस मज़दूर आ गये, जिन्हें अधिकारियों ने पुल पर दौड़ा दिया। वे खुशी खुशी, बेफिक्र, पुल पर दौड़ गये। उनकी देखा-देखी कुछ और लोग अपनी हिचक को छोड़कर पुल पर चढ़ गये। फिर जनता की आवाजाही शुरू हो गयी।

इस तरह पुल पर लगा ग्रहण हटा और उसे जनता-जनार्दन के द्वारा अंगीकार किया गया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 144 ☆ चेतना की शक्ति… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “चेतना की शक्ति…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 144 ☆

☆ चेतना की शक्ति ☆

हमको अपनी अप लाइन को मजबूत रखना चाहिए। डाउन लाइन बदलती रहेगी क्योंकि उसके अंदर स्थायित्व का अभाव होता है। थोड़े से मानसिक दबाब को वो आत्मसम्मान का मुद्दा बनाकर कार्य छोड़ देते हैं, जबकि ऊपरी स्तर पर बैठे पदाधिकारी समस्याओं को चैलेंज मानकर उनका हल ढूढ़ते हैं।

चेतना के स्तर को बढ़ाने के लिए अच्छी संगत होनी चाहिए। संगत की रंगत तो जग जाहिर है। सत्संग से अच्छा वातावरण निर्मित होता है। वैचारिक रूप से समृद्ध व्यक्ति निरन्तर अपने कार्यों में जुटे रहते हैं। हमारे आसपास आपको बहुत से ऐसे लोग मिलेंगे जो सुखीराम का मंत्र अपनाते हुए जीवन व्यतीत करते जा रहे हैं। सुखीराम जी का मूलमंत्र यही था कि आराम से कार्य करो। अब समस्या ये थी कि काम कैसे हो…? जहाँ आराम मिला वहाँ आलस आ धमकता बस कार्य में बाधा आती जाती है।  एक व्यक्ति जो नियमित रूप से कुछ न कुछ करता रहेगा वो अवश्य ही मंजिल को पा लेगा लेकिन जो शुरुआत जोर – शोर से करेगा फिर राह बदल कर दूसरी दिशा में चल देगा वो कैसे विजेता बन सकता है।

Late और latest में केवल st का ही अंतर होता है किंतु एक देरी को दर्शाता है तो दूसरा नवीनता को दोनों परस्पर विरोधी अर्थ रखते हुए भी words में समानता रखते हैं अर्थात केवल सच्चे मन से कार्य करते रहें अवश्य ही सब कुछ मुट्ठी में होगा। प्राकृतिक परिवेश से जुड़े हुए लोग  आसानी से समस्याओं को हल करते जाते हैं, उनके साथ ब्रह्मांड की शक्ति जो जुड़ जाती है। यही कारण है कि हम प्रकृतिमयी वातावरण से जुड़कर प्रसन्न होते हैं।

अभी भी समय है चेत जाइये और कुछ न कुछ सार्थक करें, ठग बंधन से अच्छा ऐसा गठबंधन होना चाहिए जो शिखर पर स्थापित होने का दम खम रखता हो।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ आचरण की शुद्धता… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका व्यंग्य – “आचरण की शुद्धता।)  

? अभी अभी ⇒ आचरण की शुद्धता? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

आचरण की शुद्धता और चरित्र की पवित्रता ऐसे मानवीय मूल्य हैं, जिनकी अपेक्षा हम हर इंसान में करते हैं। हम स्वयं इस कसौटी पर कितने खरे उतरते हैं, शायद हमारे अलावा यह और कोई नहीं जानता।

हमारी बोलचाल, चाल ढाल, रहन सहन और हावभाव के अलावा बुद्धि के प्रयोग का भी इन मूल्यों पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। हमें अच्छे लोग आकर्षित करते हैं और बुरे लोग हमारी प्राथमिकता में नहीं आते। यानी हमारी अपेक्षा, पसंद और प्राथमिकता तो सर्वश्रेष्ठ की रहती है, लेकिन हमारा अपने खुद की स्थिति के बारे में हमारा आकलन हमारे अलावा कौन कर सकता है। ।

अपनी थाली में अधिक घी डालने से आपको कौन रोक सकता है। अगर आप ही परीक्षार्थी और आप ही परीक्षक हों, तो अंधा रेवड़ी आखिर किसको बांटेगा। एक सुनार सोने की शुद्धता को तो कसौटी पर परख सकता है, लेकिन उसमें खुद में कितनी खोट है, यह उसे कौन बताएगा।

शायद इसीलिए हमारी नैतिक मान्यताओं के मानदंड व्यवहारिक धरातल पर सही नहीं उतर पाते। हम व्यवहार में अच्छा दिखने की कोशिश तो जरूर करते हैं, लेकिन हमारे मन में खोट होता है। हमें दूसरों के दोष तो बहुत जल्दी नजर आ जाएंगे, लेकिन खुद के नहीं आते। झूठी तारीफ और प्रशंसा के धरातल पर जिस महल का निर्माण किया जाता है, उसकी बुनियाद बड़ी कमजोर नज़र आती है। ।

हम नैतिकता और आदर्श के महल तो खड़े कर लेते हैं, लेकिन उनमें वह गरिमा और दिव्यता नहीं होती, जो इस धरती को स्वर्ग बना दे। स्वार्थ, अहंकार और लोभ के मटेरियल से बना महल भले ही हमें भव्य नज़र आए, लेकिन अंदर से यह खोखला ही होता है।

चरित्र और आदर्श के जितने नालंदा, गुरुकुल और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय आज हैं, उतने पहले कभी नहीं हुए। ज्ञान, विज्ञान, धर्म और अध्यात्म आज अपनी पराकाष्ठा पर है। इतने मठ, मंदिर, आश्रम, जगतगुरु, महामंडलेश्वर, समाज सुधारक और सोने में सुहागा, मोटिवेशनल स्पीकर्स। कितनी पारमार्थिक संस्थाएं, कितने एन जी ओ, रोटरी और लायंस और सबके पास पुण्य और परमार्थ का लाइसेंस। ।

और बेचारा आम आदमी वहीं का वहीं। उसके आदर्श आज भी राम, कृष्ण, बजरंग बली और भोलेनाथ हैं। उसका दुख शायद रुद्राक्ष से मिट जाए या किसी सिद्ध पुरुष की पर्ची से। महल और झोपड़ी, आदर्श और यथार्थ तो यही दर्शाते हैं कि हमारी कथनी और करनी में बहुत अंतर है।

आज कबीर हमारे लिए प्रासंगिक नहीं है, क्योंकि वह हमसे सवाल करता है, हमें खरी खोटी सुनाता है, हमें अपने अंदर झांकने के लिए मजबूर कर देता है। चादर में पांव अब नहीं समाते। हमें चादर बड़ी करनी ही पड़ती है। बड़ा मकान, बड़ी गाड़ी, आवश्यकता बढ़ी !

काजल की कोठरी में दाग तो लगेगा ही, कब तक मैली चादर का रोना रोते रहेंगे। ।

लोग खुद तो सुधरने को तैयार नहीं और हमें निंदक नियरे राखने की सलाह दे रहे हैं। हम ऐसे परामर्शदाताओं की घोर निंदा करते हैं। हम रजिस्टर्ड आय.एस.आई. मार्का दूध से धुले इंसान हैं, खोट कहीं आप में ही है।

आप सुधरे, जग सुधरा..!!

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ अंतिम चौराहा… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “किताब और कैलेण्डर”।)  

? अभी अभी ⇒ अंतिम चौराहा? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

चार दिल चार राहें जहां मिले उसे चौराहा कहते हैं।

मैं तो चला, जिधर चले रस्ता! मैं चलूं, वहां तक तो ठीक, लेकिन क्या कहीं रास्ता भी चलता है। कबीर के अनुसार, अगर चलती को गाड़ी कहा जा सकता है, तो रास्ता भी चल सकता है और जब रास्ता चलेगा तो वह भी घिस घिसकर रास्ते से, रस्ता हो जाएगा।

चौराहे को चौरस्ता भी कहते हैं। कहीं कहीं तो इसे चौमुहानी भी कहते हैं। रास्तों की तरह, गलियां भी होती हैं, ठाकुर शिवप्रसाद सिंह की गली, आगे मुड़ती है, और वहीं कहीं बंद गली का आखरी मकान धर्मवीर भारती का है।।

इंसान का क्या है, जिंदगी में कभी दोराहे पर खड़ा है तो कभी चौराहे पर। होने को तो खैर तिराहा भी होता है, लेकिन न जाने मेरे शहर के गांधी स्टेच्यू को लोग रीगल चौराहा क्यूं कहते हैं, जब कि यहां तो तीन ही रास्ते हैं। हां, यह भी सही है कि एक रास्ता स्वयं रीगल थिएटर भी था, लेकिन समय ने वह रास्ता भी बंद कर दिया।

थिएटर तो सारे बंद हुए, मैं अब फिल्म देखने कहां जाऊं।

जिस चौराहे से चार राहें निकलती हैं, उन्हें आप चौराहे की भुजा भी कह सकते हैं। हम तो जब भी श्रीनाथ जी के दर्शन के लिए नाथद्वारा जाते हैं, काकरौली, चारभुजा जी और एकलिंग जी होते हुए झीलों की नगरी उदयपुर अवश्य जाते हैं। जहां सहेलियों की बाड़ी हो, वहां तो भूल भुलैया होगी ही।

यह अंक चार हमें एक चौराहे पर लाकर खड़ा कर देता है जहां हमें जयपुर की बड़ी चौपड़ और छोटी चौपड़ याद आ जाती है। बही खाते वाले चोपड़ा जी कब फिल्मों में आ गए, और यश कमा गए कुछ पता ही नहीं चला।।

अगर आपसे पूछा जाए, आपके शहर में कितने चौराहे हैं, तो शायद आप गिन नहीं पाएं।इसीलिए इन चौराहों का नाम दे दिया जाता है। कहीं चौक तो कहीं चौराहा। हमने अगर एक चौराहे का नाम जेलरोड रख दिया तो दूसरे का चिमनबाग चौराहा। चिमनबाग तो आज चमन हो गया, लेकिन हमारे भाइयों ने उस चौराहे का नाम ही बदलकर चिकमंगलूर चौराहा कर दिया। वैसे भी किसी विकलांग को दिव्यांग बनने में कहां ज्यादा वक्त लगता है।

हमारे शहर के प्रमुख  चौराहों में अगर पलासिया चौराहा है तो गिटार चौराहा भी। जहां रोबोट लगा है, वह रोबोट चौराहा और जहां आज लेंटर्न होटल नहीं है, वहां भी लैंटर्न चौराहा है। सांवेर रोड पर अगर मरी माता चौराहा है तो रेडिसन होटल पर रेडिसन चौराहा। कुछ चौराहों पर भुजाएं जरा जरूरत से ज्यादा ही फड़फड़ाती हैं, रीजनल पार्क के आसपास तो इतनी राहें हैं कि राही, राह भी भटक जाए।।

इन सब चौराहों के बीच, पंचकुइया रोड पर एक अंतिम चौराहा भी है, क्योंकि वहां से आखरी रास्ता मुक्ति धाम की ओर ही जाता है। लेकिन यह जीव माया में नहीं उलझता ! वह जानता है , कोई ना संग मरे। बस थोड़ा श्मशान वैराग्य, शोक सभा और उठावने के बाद शाम को छप्पन दुकान।

क्या भरोसा कब जिंदगी की शाम आ जाए, कौन सा चौराहा हमारा अंतिम चौराहा हो जाए ! लेकिन हमने तो चौराहों को पार करना सीख लिया है। ट्रैफिक का सिपाही भले ही सीटी बजाता रहे, सिग्नल लाल लाल आंखें दिखलाता रहे, कोई मार्ग अवरोधक हमारी जिंदगी की गाड़ी को इतनी आसानी से नहीं रोक सकता।।

ऊपर भले ही चित्रगुप्त गणेश चोपड़ा भंडार खोले हमारे खाते बही की जांच करते रहें, हम स्वयंसेवक अपनी लाठी स्वयं साथ लेकर आएंगे। चित्रगुप्त के खातों की भी सरकार जांच करवा रही है। सब डिजिटल, ऑनलाइन और पारदर्शी हो रहा है। ईश्वर की मर्जी जैसा डायलॉग अब नहीं चलेगा।

जिसकी लाठी उसकी भैंस। यमराज को दूसरा वाहन तलाशना पड़ेगा। चित्रगुप्त को आईटी सेक्टर के लिए शिक्षित लोगों को ऊपर भी जॉब देने होंगे, और वह भी फाइव डे वीक और आकर्षक पैकेज के साथ।उसके बाद ही हमारी अंतिम चौराहे से रवानगी होगी। स्वर्ग में बर्थ नहीं, एक नया जॉब, एक नया चैलेंज।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ मुंह में पानी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मुंह में पानी।)  

? अभी अभी ⇒ मुंह में पानी? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

गर्मी का मौसम है, सबको प्यास लगती है, गला सबका सूखता है। मुंह में इधर पानी गया, उधर हमारी प्यास बुझी। पानी और प्यास का चोली दामन का रिश्ता है।

 दुनिया की प्यास बुझाने वाले कुएं को भी हमने गर्मी में सूखते देखा है। प्यास कुएं को भी लगती है, उसका भी गला सूखता है। वहीं बारिश में यही कुआ मुंह तक लबालब भरा रहता है। जल है तो तृप्ति है, गर्मी है तो प्यास है। ।

होता है, अक्सर होता है ! प्यास नहीं, फिर भी हमारे मुंह में पानी आता है, जब कहीं असली घी की जलेबी बनाई जा रही हो। कभी किसी ऐसी नमकीन की दुकान के पास से गुजरकर देखें, जहां गर्मागर्म ताजी सेंव बन रही हो। खुशबू पहले नाक में प्रवेश करती है, और तुरंत पानी मुंह में आता है।

कहते हैं, हमारे शरीर में कई ग्रंथियां होती हैं, उनमें से एक ग्रंथि स्वाद की भी होती है। मुंह में पानी आना तो ठीक, लेकिन अगर मुंह से लार टपकने लगे, तो यह तो बहुत ही गलत है। लेकिन यह लार भी अनुभवजन्य है, महसूस की जा सकती है। फिर भी ताड़ने वाले ताड़ ही लेते हैं, जो कयामत की नजर रखते हैं। ।

लार टपकने की ग्रंथि को आप लालच की ग्रंथि भी कह सकते हैं। फिल्म जॉनी मेरा नाम में पद्मा खन्ना के डांस पर केवल प्रेमनाथ ने ही लार नहीं टपकाई थी। हमें तो भाई साहब, बहुत शर्म आई थी।

वैसे लार का क्या है, आजकल के बच्चे तो पिज़्जा, बर्गर और पास्ता देखकर ही लार टपकाना शुरू कर देते हैं।

लार टपकाने का एक और विकृत स्वरूप होता है, जिसे हवस कहते हैं। हमने लोगों को सिर्फ लार टपकाते ही नहीं, महिलाओं को इस तरह घूरते देखा है, मानो कुछ देर में उनकी आंखें ही टपक पड़ेंगी। ।

काश कोई ऐसा समर्थ योगी सन्यासी होता, जो इनको टपकाने के बजाय इनकी खराब नीयत को ही टपका देता। लेकिन आजकल के योगी इनको टपकाने के लिए खुद भी भाईगिरी पर उतर आते हैं और हमारे सनातन प्रेमी इनमें अपने आदर्श महामना चाणक्य के दर्शन करते हैं जिनका सिद्धान्त होता है, शठे शाठ्यम् समाचरेत्। इनका बाहुबलियों को टपकाना आजकल एनकाउंटर कहलाता है।

एक ग्रंथि भय की भी होती है। उसमें गला नहीं, मुंह सूखता है। रात को कोई डरावना सपना देखा, डर के मारे पसीना पसीना हो गए, घबराहट बेचैनी से मुंह सूख गया, हड़बड़ाहट में नींद खुल गई। गटागट पानी पीया, तब जाकर थोड़ा स्वस्थ हुए। ।

जैसे जैसे गर्मी बढ़ेगी, प्यास भी बढ़ेगी। फलों में रस होता है। संतरा, मौसंबी, तरबूज, खरबूजा, कच्ची कैरी का पना और फलों का राजा आम भी दस्तक दे ही रहा है। शरीर में तरावट बनी रहे।

मुंह में पानी का तो क्या है, कहीं बाजार में मस्तानी लस्सी का बोर्ड देखा, तो मुंह में पानी आया। लेकिन अगर लस्सी स्वादिष्ट नहीं निकली, तो सब मजा किरकिरा हो जाता है। क्या करें, रसना है ही ऐसी। जो इसका गुलाम हुआ, उसकी ऐसी की तैसी। ।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 205 ☆ व्यंग्य – मार्केटिंग स्ट्रेटीज… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय व्यंग्य – मार्केटिंग स्ट्रेटीज

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 205 ☆  

? व्यंग्य – मार्केटिंग स्ट्रेटीज… ?

पुस्तक मेला चल रहा था । तीन बड़े व्यंग्यकारों की नई किताबों का विमोचन होने को था, प्रकाशक एक ही था इसलिए विमोचन समारोह अलग अलग दिनों में रखे गए । पहले वरिष्ठ व्यंग्यकार की पुस्तक लोकार्पित हुई, मंच पर लगे बैनर पर उनकी फोटो के नीचे लिखा हुआ था “देश के सर्व श्रेष्ठ व्यंग्यकार“। दूसरे दिन जब दूसरे व्यंग्य लेखक की किताब का विमोचन हुआ तो बैनर पर लिखा था “विश्वस्तरीय श्रेष्ठ व्यंग्यकार“। जब तीसरे व्यंग्यकार की पुस्तक विमोचन होना थी तो प्रकाशक ने समारोह के पोस्टर पर लिखवाया, मेले में विमोचित “सर्वश्रेष्ठ किताब“।

एक पाठक तीनो ही कार्यक्रमों में उपस्थित रहा और तीनों किताबे खरीद कर पढ़ चुका था, जब अगली बार वह प्रकाशक से मिला तो उसने कहा तीनों ही किताबों में नया कुछ नहीं मिला वही पुरानी रचनाएं अलट पलट कर नई किताबें छाप दी है आपने। प्रकाशक मुस्करा कर बोला मार्केटिंग स्ट्रेटीज

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ अभी अभी ⇒ व्यंग्य देखो, व्यंग्य की धार देखो… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “व्यंग्य देखो, व्यंग्य की धार देखो।)  

? अभी अभी ⇒ व्यंग्य देखो, व्यंग्य की धार देखो? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

व्यंग्य कोई बच्चों का खेल नहीं ! बच्चों के हँसने खेलने के दिन होते हैं, उन्हें व्यंग्य जैसी धारदार वस्तुओं से दूर रखना चाहिए। हमने बचपन में बहुत तेल देखा है और तेल की धार भी देखी है।

तब हमारे पंसारी के पास तेल भी दो तरह के होते थे। एक मिट्टी का तेल, जिसे बाद में घासलेट यानी केरोसिन कहा जाने लगा और दूसरा मूंगफली का तेल, जिसे हम मीठा तेल कहते थे। हमारा पंसारी एक सिंधी था, जिसे हम साईं कहते थे। उसके पास तेल के दो कनस्तर होते थे, एक मिट्टी के तेल का और एक मीठे तेल का। दोनों में ही तेल निकालने का एक यंत्र लगा रहता था, जो तेल को कनस्तर से हमारी लाई गई कांच की बोतल में, साइफन विधि से, पहुंचाता था। हम बड़े ध्यान से तेल और तेल की धार को देखते रहते थे।

बॉटल भरने के पहले ही धार रुक जाती थी। जितना पैसा, उतनी बड़ी धार। कभी नकद, कभी उधार। ।

आज मिट्टी के तेल की यह हालत है कि वह बाजार से गधे के सिर के सींग की तरह गायब है। जिस चीज का अभाव होता है, अथवा जो वस्तु महंगी होती है, उस पर तो सॉलिड व्यंग्य लिखा जा सकता है। प्याज और टमाटर इस विषय में बड़े नसीब वाले हैं। थोड़ा भाव बढ़ा, तो बाजार से गायब ! और उनके इतने भाव बढ़ जाते हैं कि उन पर व्यंग्य पर व्यंग्य और अधबीच पर अधबीच लिखे जाने लगते हैं। लेकिन जो मिट्टी का तेल काला बाजार में भी उपलब्ध नहीं, उस पर धारदार तो छोड़िए, बूंद बराबर भी व्यंग्य नहीं।

चलिए, मिट्टी के तेल को मारिए गोली, खाने के तेल को ही ले लीजिए। सरसों, सोयाबीन, सनफ्लॉवर हो अथवा मीठा तेल, जब इनके भाव आसमान छूते हैं, तब कोई भी व्यंग्यकार को न तो यह तेल दिखाई देता है और न ही इसकी धार, और बातें करते हैं धारदार व्यंग्य की। क्या राजनीति पर किया गया व्यंग्य, तेल पर किए व्यंग्य से अधिक धारदार होता है। ।

हमारे घर में हथियार के नाम पर सिर्फ चाकू, छुरी ही होते हैं। उससे केवल सब्जियां और कभी कभी हमारे हाथ ही कटते हैं, लेकिन कभी किसी का गला नहीं। लेकिन आजकल हमारे चाकू छुरी भी व्यंग्य की तरह ही अपनी धार खो बैठे हैं।

एक समय था, जब चाकू छुरियां तेज करने वाला आदमी घर घर और मोहल्ले मोहल्ले आवाज लगाता था, एक पहियानुमा यंत्र से चिंगारी निकलती थी, और हमारे घरेलू औजार धारदार हो जाते थे।

आज की गंभीर समस्या न तो महंगाई है और न ही भ्रष्टाचार। जिसे राज करना है, राज करे, और जिसे नाराज करना है नाराज करे, कहने को फिर भी यह जनता का ही राज है। लेकिन जब व्यंग्य में ही धार नहीं, तो कैसी सर्जिकल स्ट्राइक। नाई के उस्तरे में भी धार नहीं, और चले हैं हजामत करने। ।

हमने तो खैर हमारे घर के औजार धारदार कर लिए, बस आजकल के व्यंग्य में धार अभी बाकी है। पहले सोचा धार जिले में ही जाकर बसा जाए, लेकिन हमारे एक मित्र धारकर स्वयं इंदौर पधारकर यहां बस गए।

काश, यह पता चल जाता परसाई अपने व्यंग्य लेखों पर धार कहां करवाते थे, तो उन ज्ञानियों की भी यह शिकायत दूर हो जाती कि आजकल व्यंग्य में धार नहीं है।

शब्द ही धार है, कटार है, व्यंग्य का हथियार है।

जब जरूरत से अधिक पैना हो जाता है तो शासन, प्रशासन और सत्ता को चुभने लगता है। पद्म पुरस्कार जैसे अन्य प्रलोभनों के लिए इनका सही उपयोग बहुत जरूरी है। व्यंग्य वह लाठी है जो सिर्फ सांप को ही मारती है, किसी दुधारू गाय को नहीं। ।

लेकिन वक्त वह लाठी है, जो कबीर जैसे खरी और कड़वी बात कहने वाले के मुंह से भी यह लाख टके की बात कहलवा दे ;

बालू जैसी करकरी

उजल जैसी धूप।

ऐसी मीठी कछु नहीं

जैसी मीठी चुप। ।

लो जी, यह भी कह गए,

दास कबीर। और लाइए धार अपने व्यंग्य में…!!

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 182 ☆ “पेपर लीक मामले में डील…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक व्यंग्य – “पेपर लीक मामले में डील…”।)

☆ व्यंग्य # 182 ☆ “पेपर लीक मामले में डील…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

पेपर लीक होने के बढ़ते मामले चिंता का विषय बने हुए हैं। इसके कारण कई मुख्यमंत्री और कुछ बड़े लोग बैकफुट पर आ जाते हैं। गांव के टपकती पाठशाला में उनकी पढ़ाई हुई थी, उन्होंने बचपन में पाठशाला के रिसते खपरों से लीकेज की कला सीख ली थी। पढ़ाई पूरी करके ‘लीकेज की राजनीति’ विषय में उनकी पीएचडी भी पूरी हो गई थी, इसलिए वे लीकेज की राजनीति से घबराते नहीं थे और प्रजातंत्र में लीकेज की राजनीति को प्राकृतिक विपदा जैसा मानते थे। हर पार्टी में लीकेज पकड़ने वालों का बड़ा महत्व होता है, तो चूंकि ये लीकेज की राजनीति के डाक्टरेट थे इसलिए इनकी पार्टी में इनके अच्छे जलवे थे। ‘लीक’ से हटकर अपनी अलग तरह की राजनीतिक चाल चलने में वे माहिर भी थे।

उनके दिन तब फिरे जब पूरे माहौल में लीकेज बबंडर बनके छा गया। परीक्षाओं के समय पर्चा लीक होने का मौसम गरमाया, डाटा लीक होने के किस्सों ने लोगों का मन भरमाया, शहरों में पाईप लाईन लीकेज की घटनाओं से हाहाकार मचा, चुनाव की तारीख लीक होने से मीडिया गरमाया। जब लीकेज की समस्या विकराल रूप लेने लगी तो उनकी पूछ परख ज्यादा बढ़ गई। प्रजातंत्र में लीकेज विषय पर की गई पीएचडी के जलवे और बढ़ गए और उन्हें गोपनीय विभाग (लीकेज अनुभाग) का मंत्री का पद मिल गया। केन्द्र में महत्वपूर्ण पद जिसमें पिछली सरकार के लूपहोल, रिसाव, लीकेज को ढूंढने का काम था और ताजे लीकेज घटनाक्रम में तीखी नजर रखनी थी।

दिनों दिन लीकेज विभाग का महत्व बढ़ने लगा। मंत्री जी लीकेज की राजनीति के खिलाड़ी बन गए थे। परीक्षाओं के पेपर धड़ाधड़ लीक करा दिए गए। जब पत्रकारों ने मंत्री जी से पर्चा लीक होने संबंधी सवाल किये तो मंत्री जी ने पत्रकारों को टालने के लिए तरह-तरह के न समझ आने वाले जवाबों की बरसात कर दी।  कहने लगे – लीकेज का प्रॉब्लम सब जगह संक्रामक बीमारी की तरह फैल गया है, आपको याद नहीं है क्या अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में डाटा लीकेज का मामला। आनलाईन लीकेज से डरकर चीन ने आनलाईन हंसी पर रोक लगा दी है। जहां तक परीक्षा के पेपर लीक होने का मामला है तो आप लोग कहेंगे तो अब वाटरप्रूफ पेपर छपवाने के आदेश कर देते हैं। मंत्री जी ने सोशल मीडिया पर लीक हो रहे मामलों पर चिंता व्यक्त की और मीडिया वालों से सहयोग की अपील की। प्रजातंत्र में टपका की समस्या पर गहन विचार विमर्श करते हुए पत्रकारों को बताया कि पिछली सरकार के लीकेज इतने अधिक पकड़ में आये हैं कि रिसाव रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं। पिछली सरकार के पीडब्ल्यूडी विभाग की गड़बड़ी और भ्रष्टाचार से सरकारी क्वार्टरों में टपका, सीपेज, लीकेज के केस ज्यादा दर्ज हुए हैं।

नगर निगमों की पाइप लाइन में रोज बढ़ते लीकेज की समस्या पर विपक्ष जिम्मेदार है विपक्षी लोग नहीं चाहते कि जनता को रोज पानी मिले।

मीडिया वालों से हाथ जोड़कर मंत्री जी ने निवेदन किया कि हमारी पार्टी और हमारे मंत्री टपके और लीकेज की राजनीति नहीं करते, क्योंकि हमारे पास पर्याप्त जांच एजेंसियां और कोर्ट के खास लोग हैं, इसलिए जो हुआ तो हुआ आप लोग लीकेज वाली बात से संबंधित सवाल अब हमसे न पूछें नहीं तो आप सबकी आंखों में लीकेज की समस्या बढ़ सकती है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 143 ☆ मंजिल की तलाश में… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “उठा पटक के मुद्दे…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 143 ☆

☆ मंजिल की तलाश में ☆

सलाहकार की फौज होने से कोई विजेता नहीं बन जाता, एक व्यक्ति हो पर सच्चा और समझदार हो तो मंजिल तक पहुँचा जा सकता है। नासमझी के चलते लोग ऐसी टीम गठित कर लेते हैं, जहाँ हर सिक्का खोटा होता है, अब खोटे से कुछ होने से रहा, सो खींचतान करते हुए अपनी जगह पर मशीनी साइक्लिंग करते नज़र आते हैं। ऐसी दशा में वजन भले ही कम हो किन्तु दिशा बदलने से रही।

चाणक्य ने चंद्रगुप्त द्वारा नए साम्रज्य की स्थापना कर दी किन्तु अविवेकपूर्ण व्यक्ति न तो स्वयं बढ़ेगा न दूसरों को बढ़ने देगा। केवल धक्का- मुक्की के बल पर भला शिखर पर विराजित हुआ जा सकता है।

यदि आपमें नेतृत्व की क्षमता न हो तो जरूरी नहीं कि मुखिया बनें आप ऐसी टीम के साथ जुड़कर कार्य कर सकते हैं जहाँ बुद्धिमत्ता पूर्वक निर्णय लिए जा रहे हों। देश निर्माण में लगे रहना, विश्व बंधुत्व को बढ़ावा, तकनीकी विकास, आर्थिक उदारता के साथ अपने को विश्व का मुखिया बना लेना। कदम दर कदम चलते रहने का ही परिणाम है।

तेरा- मेरा छोड़कर मिल बाँट कर रहना सीखिए। सब कुछ केवल मेरा हो ये प्रवृत्ति जब तक मन से नहीं जायेगी तब तक मानसिक शांति नहीं मिल सकती।  जो लोग साथ रहने की आदत  रखते हैं वे हमेशा मुस्कुराते हुए हर परिस्थितियों का सामना करते जाते हैं।  कोई भी वस्तु या  क्षण स्थायी नहीं होता  इसमें बदलाव होना स्वाभाविक  है अतः किसी वस्तु के प्रति अनावश्यक मोह नहीं पालना चाहिए, कैसे योग्य बनें इस पर चिंतन करते हुए स्वयं को निखारते रहें। अनायास ही जब प्रकृति आपसे दी हुई सुविधाएँ वापस लेने लगे तो समझ जाइये की वक्त बदल रहा है सो अभी भी समय है बदलिए। पुरानी बातों का ढ़िढोरा पीटने से कुछ नहीं होगा।

हर घटना कुछ न कुछ सिखाती है व हमें अवसर प्रदान करती है खुद को सिद्ध करने का। अतः किसी एक क्षेत्र में प्रयास करते रहें जब तक मंजिल न मिल जाए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 204 ☆ व्यंग्य – जूम और मीट की बहार है… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय व्यंग्य जूम और मीट की बहार है

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 204 ☆  

? व्यंग्य – जूम और मीट की बहार है… ?

लोकतंत्र में बिना चर्चा कोई काम नहीं होता. सबकी सहभागिता जरूरी है. सहभागिता के लिये मीटिंग आवश्यक हैं. कोरोना जनित नया जमाना वर्चुएल मीटिंग्स का है. जूम और मीट की बहार है.वर्क फ्राम होम का कल्चर फल फूल पनप रहा है. विकास की चर्चाओ के लिये सरकारी और साहित्य की असरकारी मीटिंग्स पोस्ट कोरोना युग में मोबाईल और लैपटाप्स पर ही सुसंपन्न हो रही हैं. जूम पर या गूगल मीट पर मीटींग्स के लिये पहले दिन और समय तय होता है. संबंधितो को व्हाट्सअप ग्रुप्स पर मीटिंग का संदेश दिया जाता है. यदि मीटिंग सरकारी है तब तो बडे साहब के चैम्बर में उनकी सीट के सामने की दीवार पर एक बड़ा सा मानीटर होता है. एक युवा साफ्टवेयर इंजीनियर पहले ब्राडबैंड सिग्नल, बैकग्राउंड  दृश्य और साउंड क्वालिटी चैक करता है. फिर जिन अन्य मातहत कार्यालयों को मीटिंग में जोड़ना होता है, बारी बारी से उन्हें फोन करके उनसे संपर्क करता है जिससे जब साहबों की वास्तविक मीटिंग हो तो बेतार के तार निर्विघ्न जुड़े रहें. नियत समय से कुछ पहले से ही मातहत अपनी प्राग्रेस रिपोर्ट या प्रस्तावों के प्रतिवेदन तैयार करके, अपने कपड़े ठीक ठाक करके कैमरे के सम्मुख विराजमान हो जाते हैं. यदि मीटिंग बड़ी हुई यानी उसमें प्रदेश भर के कार्यालय जुड़ने वाले हुये तो आईडेंटीफिकेशन के लिये मातहत आफिसों के नाम की फलेक्स पट्टिकायें भी लगा दी जातीं है.  इस बीच यदि कोई फरियादी जरुरी से जरूरी काम लेकर भी साहब से मिलना चाहता है तो सफेद ड्रेस में सज्जित दरबान उसे बाहर ही रोक देता है, और थोड़े रोब से बताता है आज साहब हेड आफिस से वीसी मतलब वर्चुएल कांफ्रेंस में हैं. आगंतुक समझ जाता है कि आज साहब पास होकर भी दूर वालों के ज्यादा पास हैं. आज उन तक फरियाद पहुंचाना मुश्किल है.

वर्चुएल मीटिंग को साहित्यकारों ने भी बहुत अच्छा प्रतिसाद दिया है. योग, नृत्य, ट्यूशन क्लासेज भी जूम और मीट प्लेटफार्म पर सक्सेजफुली चल रही हैं. अब साहित्य की गोष्ठियां मोबाईल से ही निपटा ली जाती है. इनवीटेशन, हाल बुकिंग, मंच माला माईक, चाय नाश्ता, सारी झंझटों से मुक्ति मिल गई है. वरचुएल मीट प्रारंभ होते ही जब अधिकाधिक लोग जुड़े होते हैं, अखबारी न्यूज के लिये स्क्रीन शाट ले लिये जाते हैं.  चतुर लोग धीरे से अपना वीडीयो और माईक बंद करके दूसरे काम निपटा लेते हैं. कुछ तो मीटिंग साउंड भी बंद करके मोबाईल जेब के हवाले कर देते हैं, पर वर्चुएली मीटिंग से जुड़े रहकर समूह के साथ अपनी सालीडेरिटी बनाये रखते हैं. ऐसे साफ्टवेयर फ्रेंडली रचनाकार वर्चुएल बैकग्राउंड में किताबों से भरी लाईब्रेरी का चित्र लगाकर अपना प्रोफाईल कुछ खास बना लेते हैं. जो थोड़ा बुजुर्ग या अधेड़ उम्र के वरिष्ठ या गरिष्ट साहित्यकार होते हैं, यदि वे जूम फ्रेंडली नहीं होते कि मींटिंग के दौरान हैंण्ड रेज कर सकें, माईक चालू या बंद कर सकें और अपना कैमरा सेट कर सकें, तो मदद के लिये वे अपने साथ अपने नाती पोतों या युवा पीढ़ी से बेटे, बहू को पकड़ रखते हैं. यदि सब सैट करके बच्चे खिसक लिये तो ऐसे लोगों की प्रोफाईल पर सीलींग का पंखा देखने मिल सकता है. कभी कभी जब किचन की आवाजें जूम मीटिंग में सुनाई दें तो समझ लें किसी न किसी ऐसे ही व्यक्ति का माईक खुला हुआ है. प्रायः जब किसी ऐसे व्यक्ति के बोलने की बारी आती है तो माईक चालू करते ही वे शुरुवात करते हुये कहते हैं ” मेरी आवाज आ रही है न ! ” तब संचालक को बताना पड़ता है कि, जी हाँ आपकी पूरी आवाज आ रही है. सच तो यह है कि कभी कभार हुये आकस्मिक तकनीकी व्यवधान छोड़ दिये जायें तो फाईव जी के इस जमाने में आवाज तो सबकी पूरी ही आती है, ये और बात है कि सबकी आवाजें सुनी नहीं जातीं.जूम और मीट की बहार है.  वर्चुएल मीटिंग का बड़ा लाभ यही है कि कार्यालयों की मीटिंग में जब डांट पड़ने लगती है तो आवाजें डिस्टर्ब कर ली जातीं हैं, साहित्यिक मीटींग्स में आत्ममुग्धता से भरे व्याख्यान खुद बोलो खुद सुनो बनकर रह जाते हैं क्योंकि आवाज आती तो है पर सुनना न सुनना दूसरे छोर पर बैठे व्यक्ति के हाथ होता है. अच्छी से अच्छी बातें तो हमेशा से हैं आ रही हैं, उन्हें सुन भी लें तो उन्हें ग्रहण करना तो सदा से हम पर ही निर्भर है.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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