हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #168 ☆ व्यंग्य ☆ साहित्यिक पीड़ा के क्षण ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक विचारणीय व्यंग्य ‘साहित्यिक पीड़ा के क्षण’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 168 ☆

☆ व्यंग्य ☆ साहित्यिक पीड़ा के क्षण

डेढ़ सौ कविताओं और सौ से ऊपर कहानियों का लेखक शहर में कई दिन से पड़ा है। लेकिन शहर है कि कहीं खुदबुद भी नहीं होती, एक बुलबुला नहीं उठता। एकदम मुर्दा शहर है, ‘डैड’। लेखक बहुत दुखी है। उनके शहर में आने की खबर भी कुल जमा एक अखबार ने छापी, वह भी तब जब उनके मेज़बान दुबे जी ने भागदौड़ की। अखबारों में भी एकदम ठस लोग बैठ गये हैं। इतने बड़े लेखक का नाम सुनकर भी चौंकते नहीं, आँखें मिचमिचाते कहते हैं, ‘ये कौन शार्दूल जी हैं? नाम सुना सा तो लगता है। अभी तो बहुत मैटर पड़ा है। देखिए एक-दो दिन में छाप देंगे।’

शहर के साहित्यकार भी कम नहीं। कुल जमा एक गोष्ठी हुई, उसके बाद सन्नाटा। गोष्ठी की खबर भी आधे अखबारों ने नहीं छापी। किसी ने रिपोर्ट छापी तो फोटो नहीं छापी। एक ने उनका नाम बिगाड़ कर ‘गर्दूल जी’ छाप दिया। रपट छपना, न  छपना बराबर हो गया। जैसे दाँत के नीचे रेत आ गयी। मन बड़ा दुखी है। वश चले तो उस अखबार के दफ्तर में आग लगा दें।

दो-तीन दिन तक कुछ साहित्यप्रेमी दुबे जी के घर आते रहे। शार्दूल जी अधलेटे, मुँह ऊपर करके सिगरेट के कश खींचते, उन्हें प्रवचन देते रहे। अच्छी रचना के गुण समझाते रहे और अपनी रचनाओं से उद्धरण देते रहे। दूसरे लेखकों की बखिया उधेड़ते रहे। फिर साहित्यप्रेमी उन्हें भूलकर अपनी दाल-रोटी की फिक्र में लग गये। अब शार्दूल जी अपनी दाढ़ी के बाल नोचते बिस्तर पर पड़े रहते हैं। आठ दस कप चाय पी लेते हैं, तीन-चार दिन में नहा लेते हैं। शहर पर खीझते हैं। इस शहर में कोई संभावना नहीं है। शहर में क्या, देश में कोई संभावना नहीं है। ‘द कंट्री इज गोइंग टू डॉग्स’। ऊबकर शाल ओढ़े सड़क पर निकल आते हैं। बाज़ार के बीच में से चलते हैं। दोनों तरफ देखते हैं कि कोई ‘नोटिस’ ले रहा है या नहीं। उन्हें देखकर किसी की आँखें फैलती हैं या नहीं। लेकिन देखते हैं कि सब भाड़ झोंकने में लगे हैं। किसी की नज़र उन पर ठहरती नहीं। कितनी बार तो पत्रिकाओं में उनकी फोटो छपी— हाथ में कलम, शून्य में टँगी दृष्टि, आँखों में युगबोध। लेकिन यहाँ किसी की आँखों में चमक नहीं दिखती। सब व्यर्थ, लेखन व्यर्थ, जीवन व्यर्थ। पत्थरों का शहर है यह।

एक चाय की दूकान पर बैठ जाते हैं। चाय का आदेश देते हैं। मैले कपड़े पहने आठ- दस साल का एक लड़का खट से चाय का गिलास रख जाता है। ‘खट’ की आवाज़ से शार्दूल जी की संवेदना को चोट लगती है, ध्यान भंग होता है। खून का घूँट पीकर वह चाय ‘सिप’ करने लगते हैं। सड़क पर आते जाते लोगों को देखते हैं। उन्हें सब के सब व्यापारी किस्म के, बेजान दिखते हैं।      

चाय खत्म हो जाती है और लड़का वैसे ही झटके से गिलास उठाता है। गिलास उसके हाथ से फिसल कर ज़मीन पर गिर जाता है और काँच के टुकड़े सब दिशाओं में प्रक्षेपित होते हैं। दूकान का मालिक लड़के का गला थाम लेता है और सात-आठ करारे थप्पड़ लगाता है। लड़का बिसूरने लगता है।

शार्दूल जी के मन में बवंडर उठता है। मुट्ठियाँ कस जाती हैं। साला हिटलर। हज़ारों साल से चली आ रही शोषण की परंपरा का नुमाइंदा। समाज का दुश्मन। नाली का कीड़ा। ज़ोरों से गुस्से का उफान उठता है, लेकिन शार्दूल जी मजबूरी में उसे काबू में रखते हैं। पराया शहर है यह। यहाँ उलझना ठीक नहीं। कोई पहचानता नहीं कि लिहाज करे। दूकान मालिक की नज़र में इतना बड़ा लेखक बस मामूली ग्राहक है। हमीं पर हाथ उठा दे तो इज़्ज़त तो गयी न। और फिर हमारे विद्रोह को समझने वाला, उसका मूल्यांकन करने वाला कौन है यहाँ? न अखबार वाले, न फोटोग्राफर, न साहित्यकार-मित्र। ऐसा विद्रोह व्यर्थ है, खासी मूर्खता।

शार्दूल जी एक निश्चय के साथ उठते हैं। विरोध तो नहीं किया, लेकिन दूकान-मालिक को छोड़ना नहीं है। कविता लिखना है, जलती हुई कविता। कविता में इस जल्लाद को बार-बार पटकना है और लड़के को न्याय दिलाना है। बढ़िया विषय मिला है। धुँधला होने से पहले इसे कलमबंद कर लेना है। धधकती कविता, लावे सी खौलती कविता।
दूकान-मालिक पर आग्नेय दृष्टि डालकर शार्दूल जी झटके में उठते हैं और बदन को गुस्से से अकड़ाये हुए दुबे जी के घर की तरफ बढ़ जाते हैं। अब दूकान-मालिक की खैर तभी तक है जब तक शार्दूल जी घर नहीं पहुँच जाते। उसके बाद कविता में इस खलनायक के परखचे उड़ेंगे।

शार्दूल जी चलते-चलते मुड़कर दूकान की तरफ दया की दृष्टि डालते हैं। पाँच दस मिनट और मौज कर ले बेटा, फिर तुझे रुई की तरह धुनकर भावी पीढ़ी के लाभार्थ सौंप दिया जाएगा।

शार्दूल जी की गति तेज़ है। वे जल्दी अपने मित्र के घर पहुँचना चाहते हैं। एक सामाजिक दायित्व है जो पूरा करना है और जल्दी पूरा करना है। एक कविता जन्म पाने के लिए छटपटा रही है— ऐसी कविता जो बहुत से कवियों को ढेर कर देगी और शार्दूल जी को स्थापित करने के लिए बड़ा धमाका साबित होगी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 125 ☆ फॉलो अनफॉलो का चक्कर ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “फॉलो अनफॉलो का चक्कर । इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 125 ☆

☆ फॉलो अनफॉलो का चक्कर ☆ 

एक दूसरे को देखकर बहुत कुछ सीखा जा सकता है।  सोशल मीडिया ने लगभग सभी को रील / शार्ट वीडियो बनाना सिखा दिया है। बस उसमें प्रचलित ऑडियो को सेट करें और वायरल का हैस्टैग करते हुए सब जगह फैला दीजिए। ये सब देखते हुए विचार आया कि इसे तकनीकी यात्रा का नाम दिया जाए तो कैसा रहेगा। वैसे भी यात्राएँ रुचिकर होती हैं। पुस्तकों में भी यात्रा वृतांत पढ़ने में आता है।

एक शहर से दूसरे शहर जाना अर्थात कुछ  बदलना। ये बदलाव हमारे अवलोकन को बढ़ाता है। जगह – जगह का खान- पान, रहन-सहन, वेश- भूषा सब कुछ अलग होता है। चारों धाम की यात्रा  यही सोच कर सदियों से की जा रही है। जब हम यात्रा संस्मरण पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है कि इस पुस्तक के माध्यम से हमने भी यात्रा कर ली। रास्ता नापने के मुहावरा शायद यही सोचकर बनाया गया होगा। आजकल सड़कें भी बायपास हो गयीं हैं। बिना धक्के का रास्ता आनन्द के साथ- साथ रुचिकर भी होने लगा है। तेजी से बढ़ते कदम मंजिल की ओर जब जाते हों तो लक्ष्य मिलने में देरी नहीं लगती। आस- पास हरियाली हो, वन वे ट्रैफिक हो, बस और क्या चाहिए।

यात्राएँ हमें जोड़ने का कार्य बखूबी करतीं हैं। बहुत बार हम किसी विशेष स्थान से प्रभावित होकर वहीं बसने का फैसला कर लेते हैं। हम तो ठहरे तकनीकी युग के सो सारा समय फेसबुक, इंस्टा, व्हाट्सएप व ट्विटर पर बिताते हैं। जब मामला अटकता है तो गूगल बाबा या यू ट्यूब की शरण में पहुँच कर वहाँ से हर प्रश्नों के उत्तर ले आते हैं। ये सब कुछ बिना टिकट के घर बैठे हो रहा है। पहले तो किसी से कुछ पूछो तो काम की बात वो बाद में करता था अनावश्यक का ज्ञान मुफ्त में बाँट देता था। चलो अच्छा हुआ इक्कीसवीं सदी में कम से कम इससे तो पीछा छूट गया है।

ये सब मिलेगा बस अच्छी पोस्ट को फॉलो और खराब को अनफॉलो करने की कला आपको आनी चाहिए। पहले अवलोकन करें जाँचे- परखे और सीखते- सिखाते हुए  सबके साथ आगे बढ़ते रहें।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लघुकथा # 162 ☆ “चुनाव के बहाने” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय माइक्रो व्यंग्य  – “चुनाव के बहाने”)  

☆ माइक्रो व्यंग्य # 162 ☆ “चुनाव के बहाने” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

जहां हम लोग रहते हैं उसे जवाहर नगर नाम से जाना जाता है। लोग कहते हैं कि जवाहर नगर एक लोकतांत्रिक कालोनी होती है। लोगों का क्या है वे लोग तो ये भी कहते हैं कि किसी भी शहर की नई बस्ती वह गांधी नगर हो या जवाहर नगर लोकतांत्रिक ही हुआ करती है। मुहल्ले में  एक घर शर्मा का है तो बगल में वर्मा का है, तिवारी है, मीणा है, खान है, जैन है, सिंधी है, ईसाई है। धर्म व जाति से परे व मुक्त होकर दो दशक से अधिक हो गये हैं ये सब लोग भाईचारे से रह रहे थे।

अचानक चुनाव आ गये। लोकतंत्र में चुनाव जरूरी हैं और लोकतांत्रिक कालोनियों में चुनाव का अलग महत्व है। मोहल्ले के खलासी लाइन में एक लाइन से बीस घर बने हैं।

चुनाव की घोषणा के बाद से ही हर घर मेंअलग-अलग टीवी चैनल चलने लगे। इन घरों में अलग अलग पार्टी के लोगों का आना जाना बढ़ गया, चैनलों ने और अलग अलग पार्टियों ने मोहल्ले में कटुता इतनी फैला दी  कि हर पड़ोसी एक दूसरे से कोई न कोई बात पर पंगा लेने के चक्कर में रहने लगा । गुप्ता जी ने अपने घर के सामने राममंदिर बना लिया तो पड़ोसी कालीचरण ने गोडसे मंदिर बना लिया।उनके पड़ोसी जवाहर भाई ने अपने घर के सामने गांधी जी का मंदिर बनवा लिया। बजरंगबली दीक्षित जी के घर के सामने पहले से विराजमान थे। गली के आखिरी में हरे रंग का झंडा लहराने लगा था, अचानक हरे कपड़े से लिपटी मजार दिखाई देने लगी थी।आम जनता को थोड़ी तकलीफ ये हुई कि सड़क धीरे धीरे सिकुड़ती गई पर मोहल्ले के एक बेरोजगार लड़के को फायदा हुआ उसकी फूल और प्रसाद की दुकान खूब चलने लगी।गली में अलग अलग पार्टी के लोगों का आना जाना बढ़ गया।फूल माला और प्रसाद की दुकान वाले लड़के की पूछपरख बढ़ गई, उसकी दुकान में सब पार्टी के लोग बेनर पम्पलेट दे जाते,वह चुपचाप रख लेता और रात को सब जला देता। चुनाव हुए रिजल्ट आये और प्रसाद वाली पार्टी जीत गयी। गली की सड़क बहुत सकरी हो गई थी,एक दिन बुलडोजर आया और बजरंग बली को छोड़कर  सड़क के सभी अतिक्रमण हटा दिए, सड़क चौड़ी हो गई, सबने राहत महसूस की,गली के बीसों घरों के लोग मिलने जुलने लगे, भाईचारा कायम हो गया,फूल माला प्रसाद की दुकान घाटा लगने से बंद हो गई। जवाहर नगर वाला बोर्ड दीनदयाल नगर में तब्दील हो गया। सबने चुपचाप देखा और आगे बढ़ गये।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 124 ☆ पढ़े चलो बढ़े चलो ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “पढ़े चलो बढ़े चलो। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 124  ☆

☆ पढ़े चलो बढ़े चलो ☆ 

त्याग,तपस्या, उपवास से दृढ़ निश्चय की भावना बलवती होती है। इसे कार्यसिद्धि का पहला कदम माना जा सकता है। लगातार एक दिशा में कार्य करने वाला कमजोर बुद्धि का होने पर भी सफलता हासिल कर लेता है। अक्सर देखने में आता है कि लोग अपनी विरासत को सम्हालने के लिए कुछ न कुछ करते रहते हैं और जैसे परिस्थितियाँ बदलीं बस झट से खुद को मुखिया साबित कर पूरी बागडोर अपने हाथ में ले लेते हैं। राजनीतिक क्षेत्रों में ऐसा प्रचलन बहुत तेजी से बढ़ रहा है। कोई इसे परिवार वाद का नाम देता है तो कोई इसे अपना अधिकार मानकर खुद झपट लेता है। सियासी दाँव- पेंच के बीच छुट भैया नेताओं को भी गाहे- बगाहे मौका मिल जाता है। पिता की चुनावी सीट को अपनी बपौती मानकर टिकट लेना और न मिलने पर अलग से पार्टी बना लेने का चलन खूब तेजी से बढ़ रहा है।

जैसे-जैसे लोग शिक्षित हो रहे हैं वैसे- वैसे उनके चयन का आधार भी बदल रहा है। वे भावनाओं के वशीभूत होकर उम्मीदवार का चयन नहीं करते हैं। चुनावी घोषणा पत्र से प्रभावित होकर पाँच वर्षों के लिए नए प्रत्याशी को मौका देने लगें हैं।

कथनी और करनी में भेद सदैव से जनतंत्र का अघोषित मंत्र रहा है। कोई इसी चुनावी जुमला कह के पल्ला झाड़ लेता है तो कोई केंद्र सरकार पर दोषारोपण करते हुए सहायता न मिलने की बात कह देता है। कुल मिलाकर लोग जहाँ के तहाँ रह जाते हैं। अब तो लोगों को भी मालूम है कि ये सब प्रलोभन बस कुछ दिनों के हैं किंतु चयन तो करना है सो मतदान को अपना अधिकार मानते हुए मत दे देते हैं।

इन सबके बीच एक बात अच्छी है कि सभी दल सारे मतभेदों से ऊपर अपने राष्ट्र को रखते हुए तिरंगे का सम्मान करते हैं और आपदा पड़ने पर एकजुटता का परिचय देते हैं। शिक्षा के महत्व को जीवन के हर क्षेत्रों में देखा जा सकता है। आइए मिलकर एक दूसरे का सहयोग करते हुए शत प्रतिशत साक्षरता की ओर अग्रसर हों।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 179 ☆ व्यंग्य – ब्राण्डेड-वर-वधू   ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय  व्यंग्य – ब्राण्डेड-वर-वधू  ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 179 ☆  

? व्यंग्य – ब्राण्डेड-वर-वधू  ?

हर कोई  अपने उपलब्ध विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठ घर-वर देखकर शादी करता है, पर जल्दी ही, वह  कहने लगता हैं- तुमसे शादी करके तो मेरी किस्मत ही फूट गई है। या फिर तुमने आज तक मुझे दिया ही क्या है।  प्रत्येक पति को अपनी पत्नी `सुमुखी` से जल्दी ही सूरजमुखी लगने लगती है। लड़के के घर वालों को तो बारात के वापस लौटते-लौटते ही अपने ठगे जाने का अहसास होने लगता है। जबकि आज के इण्टरनेटी युग मे पत्र-पत्रिकाओं,रिश्तेदारों, इण्टरनेट तक में अपने कमाऊ बेटे का पर्याप्त विज्ञापन करने के बाद जो श्रेष्ठतम लड़की, अधिकतम दहेज के साथ मिल रही होती हैं, वहीं रिश्ता किया गया होता हैं यह असंतोष तरह तरह प्रगट होता है । कहीं बहू जला दी जाती हैं, कहीं आत्महत्या करने को विवश कर दी जाती हैं पराकाष्ठा की ये स्थितियां तो उनसे कहीं बेहतर ही हैं, जिनमें लड़की पर तरह तरह के लांछन लगाकर, उसे तिल तिल होम होने पर मजबूर किया जाता हैं।

नवयुगल फिल्मों के हीरो-हीरोइन से उत्श्रंखल हो पायें इससे बहुत पहले ननद, सास की एंट्री हो जाती है। स्टोरी ट्रेजिक बन जाती है और विवाह जो बड़े उत्साह से दो अनजान लोगों के प्रेम का बंधन और दो परिवारों के मिलन का संस्कार हैं,एक ट्रेजडी बन कर रह जाता है। घुटन के साथ, एक समझौते के रूप में समाज के दबाव में मृत्युपर्यन्त यह ढ़ोया जाता है। ऊपरी तौर पर सुसंपन्न, खुशहाल दिखने वाले ढेरो दम्पत्ति अलग अलग अपने दिल पर हाथ रख कर स्वमूल्यांकन करें, तो पायेंगे कि विवाह को लेकर अगर-मगर, एक टीस कहीं न कहीं हर किसी के दिल में हैं।

 यदि दामाद को दसवां ग्रह मानने वाले इस समाज में, यदि वर-वधू की मार्केटिंग सुधारी जावें, तो स्थिति सुधर सकती है। विवाह से पहले दोनों पक्ष ये सुनिश्चित कर लेवें कि उन्हें इससे बेहतर और कोई रिश्ता उपलब्ध नहीं है। वधू की कुण्डली लड़के के साथसाथ भावी सासू मां से भी मिलवा ली जावे। वर यह तय कर ले कि जिदंगी भर ससुर को चूसने वाले पिस्सू बनने की अपेक्षा पुत्रवत्, परिवार का सदस्य बनने में ही दामाद का बड़प्पन हैं, तो वैवाहिक संबंध मधुर स्वरूप ले सकते है।

 वर वधू की एक्सलेरेटेड मार्केटिंग हो।  मेरा प्रस्ताव है ब्राण्डेड वर, वधू सुलभ कराये । यूं तो शादी डॉट कॉम जैसी कई अंर्तराष्ट्रीय वेबसाइट सामने आई हैं।  एक चैनल पर बाकायदा एक सीरियल ही शादी करवाने को लेकर चला था। अनेक सामाजिक एवं जातिगत संस्थाये सामूहिक विवाह जैसे आयोजन कर ही रही हैं। किसी राज्य  मे मामा  तो किसी सरकार में मुख्यमंत्री गरीबो के विवाह रचकर वोट बटोरने की कोशिश कर रहे हैं।  लगभग प्रत्येक अखबार, पत्रिकायें वैवाहिक विज्ञापन दे रहें है,पर मेरा सुझाव कुछ हटकर है।

यूं तो गहने, हीरे, मोती सदियों से हमारे आकर्षण का केन्द्र रहे हैं, पर जब से ब्राण्डेड` हीरा है सदा के लिये´ आया हैं, एक गारण्टी हैं, शुद्धता की। रिटर्न वैल्यू है। रिलायबिलिटी है। आई एस ओ प्रमाण पत्र का जमाना है साहब। ये और बात है कि ब्रांडेड हीरा बेचने वाले खुद ही बैंको के रूपये दबाकर विदेशी जेलों में रफूचक्कर हो गए हैं।

बहरहाल आज खाने की वस्तु खरीदनी हो तो हम चीज नहीं एगमार्क देखने के आदि हैं, पैकेजिंग की डेट, और एक्सपायरी अवधि, कीमत सब कुछ प्रिंटेड पढ़कर हम , कुछ भी सुंदर पैकेट में खरीदकर खुश होने की क्षमता रखते है। अब आई एस आई के भारतीय मार्के से हमारा मन नहीं भरता हम ग्लौबलाईजेशन के इस युग में आई एस ओ प्रमाण पत्र की उपलब्धि देखते है।अब तो  स्कूलों को आई एस ओ प्रमाण पत्र मिलता है, यानि सरकारी स्कूल में दो दूनी चार हो, इसकी कोई गारण्टी नहीं है, पर यदि आई एस ओ प्रमाणित स्कूल में यदि दो दूनी छ: पढ़ा दिया गया, तो कम से कम हम कोर्ट केस करके मुआवजा तो पा ही सकते हैं।  मुझे एक  आई एस ओ प्राप्त ट्रेन में  सफर करने का अवसर मिला, पर मेरी कल्पना के विपरीत ट्रेन का शौचालय यथावत था जहां विशेष तरह की चित्रकारी के द्वारा यौन शिक्षा के सारे पाठ पढ़ाये गये थे , मैं सब कुछ समझ गया। खैर विषयातिरेक न हो, इसलिये पुन: ब्राण्डेड वर वधू पर आते हैं-! आशय यह है कि ब्राण्डेड खरीदी से हममें एक कान्फीडेंस रहता है। शादी एक अहम मसला है। लोग विवाह में करोड़ो खर्च कर देते है। कोई हवा में विवाह रचाता है,तो कोई समुद्र में। एक जोड़े ने ट्रेकिंग करते हुए पहाड़ पर विवाह के फेरे लिये, एक चैनल ने बकायदा इसे लाइव दिखाया। विवाह आयोजन में लोग जीवन भर की कमाई खर्च कर देते हैं , उधार लेकर भी बडे  शान शौकत से बहू लाते हैं , विवाह के प्रति यह क्रेज देखते हुये मेरा अनुमान है कि ब्राण्डेड वर वधू अवश्य ही सफलतापूर्वक मार्केट किये जा सकेगें। वर वधु को ब्राण्डेड बनाने वाली मल्टीनेशनल कंपनी सफल विवाह की  कोचिंग देगी। मेडिकल परीक्षण करेगी। खून की जांच होगी। वधुओं को सासों से निपटने के गुर सिखायेगी।लड़कियो को विवाह से पहले खाना बनाने से लेकर सिलाई कढ़ाई बुनाई आदि ललित कलाओ का प्रशिक्षण दिया जावेगा . भावी पति को बच्चे खिलाने से लेकर खाना बनाने तक के तरीके बतायेगी, जिससे पत्नी इन गुणों के आधार पर पति को ब्लेकमेल न कर सके। विवाह का बीमा होगा। इसी तरह के छोटे-बड़े कई प्रयोग हमारे एम बी ए पढ़े लड़के ब्राण्डेड दूल्हे-दुल्हन सर्टिफाइड करने से पहले कर सकते है। कहीं ऐसा न हो कि दुल्हन के साथ साली फ्री का लुभावना आफर ही व्यवसायिक प्रतियोगी कम्पनी प्रस्तुत कर दें। अस्तु! मैं इंतजार में हूं कि सुदंर गिफ्ट पैक में लेबल लगे, आई एस ओ प्रमाणित दूल्हे-दुल्हन मिलने लगेंगे, और हम प्रसन्नता पूर्वक उनकी खरीदी करेगें, विवाह एक सुखमय, चिर स्थाई प्यार का बंधन बना रहेगा। सात जन्म का साथ निभाने की कामना के साथ,स्त्री समानता के इस युग मे पत्नी हीं नहीं, पति भी हरतालिका और करवा चौथ के व्रत रखेगें। अपनी तो पिताजी की कराई शादी में गुजर बसर हो गई है नाती पोतो का विवाह शायद ब्रांडेड वर वधुओ के चयन से हो।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

न्यूजर्सी , यू एस ए

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #166 ☆ व्यंग्य – वैज्ञानिक सोच का हश्र ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक मज़ेदार व्यंग्य ‘वैज्ञानिक सोच का हश्र’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 166 ☆

☆ व्यंग्य – वैज्ञानिक सोच का हश्र

 नन्दलाल को हम ‘लाइव वायर’ कहते हैं। हमेशा उत्तेजना की स्थिति में रहता है। अपने विश्वासों और निष्कर्षों के खिलाफ कोई बात सुनना उसे मंज़ूर नहीं। कहीं भी सड़क के किनारे उसे किसी के साथ बहस में उलझा देखा जा सकता है। घर के लोगों का कहना है कि पता नहीं चलता कि वह कब सोता है और कब बिस्तर छोड़ देता है।
दरअसल नन्दलाल स्कूल में मजूमदार सर का चेला रहा है। मजूमदार सर विज्ञान के शिक्षक थे। क्लास में जितना किताबी ज्ञान देते थे उतना ही अंधविश्वासों और ढकोसलों की बखिया उधेड़ते थे। जादूगरों और ओझाओं-गुनियों की ट्रिक्स की क्लास में पोल खोलते रहते थे। बर्तन से लगातार भभूत या पानी गिराना, मुँह से कई गोले निकालना, खरगोश या कबूतर प्रकट करना, आदमी को डिब्बे में बंद कर डिब्बे को बीच से काट देना— सब की असलियत मजूमदार सर क्लास में बताते थे और छात्रों को अंधविश्वासों से बचने की नसीहत देते थे। ग़रज़ यह कि मजूमदार सर पक्के विज्ञान के मार्गदर्शक थे।

नन्दलाल के सिर पर उन्हीं का जादू चढ़ गया था। अब वह जहाँ भी अंधविश्वास या ढकोसला देखता, उसकी पोल-पट्टी खोलने में लग जाता। कई बाबाओं की भूमि में समाधि लेने की योजना में उसके कारण पलीता लग गया। कई बाबाओं की महिलाओं को पुत्रवती बनाने की योजना उसके कारण विफल हो गयी। बड़े आयोजनों में भी वह प्रवचनकर्ताओं से सवाल- जवाब करने लगता और कई बार भक्तों के सामने गुरूजी का पानी उतर जाता। कोई और उपाय न होने पर ऐसे गुरुओं ने नन्दलाल पर ‘नास्तिक’ का ठप्पा लगा दिया था। सड़क पर मजमा लगाने वाले जादूगर नन्दलाल को पहचानने और उसके मुहल्ले से बचने लगे थे।

नन्दलाल को ताज़ी सूचना पास के गाँव में एक हँसिया वाले बाबा की मिली थी जो हँसिया से ऑपरेशन करके लोगों के रोग ठीक करते थे। सूचना मिलते ही नन्दलाल का चैन हराम हो गया। दूसरे दिन वह अपने जैसे दो दोस्तों के साथ बाबाजी के अड्डे पर पहुँच गया। बाबाजी एक पुराने मन्दिर में विराजे थे। चार पाँच चेले श्वेत वस्त्रों में उनके आसपास तैनात थे। मन्दिर के सामने करीब आधा किलोमीटर लंबी लाइन लगी थी जिसमें कई संभ्रांत, पढ़े-लिखे लगने वाले लोग भी दिखते थे। मन्दिर के सामने एक बड़ा सा पात्र रखा था जिस पर ‘दान-पात्र’ लिखा था।

नन्दलाल ने मन्दिर के सामने पहुँच कर देखा, अन्दर बाबाजी हाथ में हँसिया थामे एक लेटे हुए आदमी के पेट पर कुछ क्रिया कर रहे थे। उन्होंने हँसिये की नोक उसके पेट पर थोड़ी देर तक टिकायी और फिर लाल रंग से भीगे रुई के टुकड़े को हाथ उठाकर भीड़ को दिखाया। भीड़ ने प्रसन्न होकर जयजयकार की।उसके बाद बाबाजी ने मरीज़ के पेट के ऊपर अपनी हथेली घुमायी, और फिर उसे उठने का इशारा किया। मरीज़ उठकर बाबाजी को प्रणाम कर मन्दिर में ही कहीं अंतर्ध्यान हो गया।

आदतन नन्दलाल की बेचैनी बढ़ने लगी। मन्दिर में घुसकर वह बाबाजी के पास पहुँचने की कोशिश करने लगा। चेलों ने उसे ढकेला, बोले, ‘नीचे चलो। यहाँ कहाँ चढ़े आते हो?’

नन्दलाल बोला, ‘मुझे ऊपर आने दो। बाबाजी का ऑपरेशन देखना है।’

चेले बोले, ‘ऑपरेशन कोई नहीं देख सकता। जब तुम्हारी बारी आये तब आना। नीचे लाइन में लगो।’

नन्दलाल भीड़ की तरफ मुँह करके सीढ़ियों पर खड़ा होकर ऊँचे स्वर में बोलने लगा, ‘भाइयो, यह सब प्रपंच है। हँसिया से कोई ऑपरेशन नहीं हो सकता। घाव हो जाएगा तो सेप्टिक या टेटनस हो जाएगा। जान खतरे में पड़ जाएगी। घर जाकर डॉक्टर को दिखाइए।’

बाबाजी ने हाथ रोक कर रहस्यपूर्ण नज़रों से चेलों की तरफ देखा। चेले इशारा समझ गये। चिल्लाये, ‘अरे यह कोई नास्तिक, अधर्मी आ गया है। बाबाजी के इलाज पर शक करता है। मारो इसे।’

वे लाठी उठाकर नन्दलाल की तरफ लपके। लाइन में से भी ‘भगाओ, हटाओ इसे’ की आवाज़ें आयीं।

एक चेला चिल्लाया, ‘अरे यह पुराना पापी है। जब गणेश जी ने दूध पिया था तब इसी ने कई मन्दिरों में जाकर बिलोरन की थी। आज इसे नहीं छोड़ना है।’

चेलों को अपनी तरफ लपकते देख नन्दलाल जान बचाकर भागे। नन्दलाल के साथी  भी दौड़ लगाकर अपनी मोटरसाइकिलों तक पहुँचे। मदद की उम्मीद में इधर-उधर देखा तो दो पुलिसवाले दूर पेड़ के नीचे आराम करते दिखे।

नन्दलाल और उसके साथियों के मोटरसाइकिल स्टार्ट करते-करते बाबा जी के चेले लाठियाँ लहराते उन तक आ पहुँचे। चलते-चलते भी तीनों की पीठ पर दो-तीन लाठियाँ पड़ गयीं। पीछे से चेले चिल्लाये, ‘अब लौट कर मत आना बच्चू, नहीं तो अपने पाँवों पर चल कर नहीं जा पाओगे।’

शाम को मुहल्ले के थाने से नन्दलाल का बुलावा आ गया। दरोगा जी उसे जानते थे। कोमल स्वर में बोले, ‘मेरे पास शिकायत आयी है कि तुम हँसिया वाले बाबा के कार्यक्रम में बखेड़ा करने पहुँच गये थे। हम जानते हैं कि तुम्हारा सोच सही है, लेकिन ज़माने का वातावरण देख कर चलो। बड़े-बड़े लोग इन बाबाओं के पीछे बैठे हैं। ज़्यादा समाज सुधार के चक्कर में रहोगे तो किसी दिन जेल में ठूँस दिए जाओगे। फिर ज़मानत भी नहीं मिलेगी। ज़िन्दगी खराब हो जाएगी। इसीलिए थोड़ा सोच-समझ कर काम करो।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 123 ☆ आकार को साकार करें ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “आकार को साकार करें। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 123 ☆

☆  आकार को साकार करें ☆ 

आभाषी सम्बन्धों की गर्मी समय के साथ बदलती जाती है। वैसे भी जब तक एक विचार धारा के लोग न हों उनमें दोस्ती संभव नहीं। जिस तरह कार्यों के संपादन हेतु टीम बनाई जाती है उसी तरह कैसे लोगों का सानिध्य चाहिए ये भी निर्धारित होता है। कार्य निकल जाने के बाद नए लोग ढूंढे जाते हैं। जीवन अनमोल है इसे व्यर्थ करने से अच्छा है कि समय- समय पर अपनी उपलब्धियों का आँकलन करते हुए पहले से बेहतर बनें और जोड़ने- तोड़ने से न घबराएँ। इन सब बातों से बेखबर सुस्त लाल जी एक ही ढर्रे पर जिए चले जा रहे थे। मजे की बात सबको तो डाँट- फटकार पड़ती पर उनका कोई बाल बांका भी नहीं कर पाता था क्योंकि जो कुछ करेगा गलती तो उससे होगी।

भाषा विकास के नाम पर कुछ भी करो बस करते रहो, सम्मान समारोह तो इस इंतजार में बैठे हैं कि कब सबको सम्मानित करें। कोई अपना नाम सम्मान से जोड़कर अखबार की शोभा बढ़ा रहा है तो कोई सोशल मीडिया पर रील वीडियो बनाकर प्रचार- प्रसार में लगा है। सबके उद्देश्य यदि सार्थक होंगे तो परिणाम अवश्य ही आशानुरूप मिलेंगे। सोचिए जब एक चित्र कितना कुछ बयान करता है तो जब दस चित्रों को जोड़कर रील बनेंगी तो मानस पटल कितना प्रभाव छोड़ेगी। इस के साथ वेद मंत्रों के उच्चारण का संदेश, बस सुनकर रोम- रोम पुलकित हो उठता है। हैशटैग करते हुए पोस्ट करना अच्छी बात है किंतु अनावश्यक रूप से अपने परिचितों की फेसबुक वाल पर घुसपैठ करना सही नहीं होता। हम अच्छा लिखें और अच्छा पढ़ें इन सब बातों के साथ- साथ जब कुछ नया सीखते चलेंगे तो मुंगेरीलाल के हसीन सपने अवश्य साकार होंगे। शब्द जीवंत होकर जब भावनाओं को आकार देते हैं तो एक सिरे से दूसरे सिरे अपने आप जुड़ते चले जाते हैं। सात समुंदर पार रहने वाले कैसे शब्दों के बल पर खिंचे चले आते हैं ये तो उनके चेहरों की मुस्कुराहट बता सकती है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 178 ☆ व्यंग्य – पड़ोसी के कुत्ते ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय  व्यंग्य – पड़ोसी के कुत्ते।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 178 ☆  

? व्यंग्य –  पड़ोसी के कुत्ते ?

मेरे पड़ोसी को कुत्ते पालने का बड़ा शौक है. उसने अपने फार्म हाउस में तरह तरह के कुत्ते पाल रखे हैं. कुछ पामेरियन हैं, कुछ उंचे पूरे हांटर हैं कुछ दुमकटे डाबरमैन है, तो कुछ जंगली शिकारी खुंखार कुत्ते हैं.पामेरियन   केवल भौंकने का काम करते हैं, वे पड़ोसी के पूरे घर में सरे आम घूमते रहते हैं. पड़ोसी उन्हें पुचकारता, दुलारता रहता है. ये पामेरियन अपने आस पास के लोगो पर जोर शोर से भौकने का काम करते रहते हैं,  और अपने मास्टर माइंड से साथी खुंखार कुत्तो को आस पास के घरो में भेज कर कुत्तापन फैलाने के प्लान बनाते हैं.

पड़ोसी के कुछ कुत्ते बहुत खूंखार किस्म के हैं, उन्हें अपने कुत्ते धर्म पर बड़ा गर्व है, वे समझते हैं कि इस दुनिया में सबको बस कुत्ता ही होना चाहिये. वे बाकी सबको काट खाना जाना चाहते हैं.और इसे कुत्तेपन का धार्मिक काम मानते हैं.  ये कुत्ते योजना बनाकर जगह जगह बेवजह हमले करते हैं.इस हद तक कि  कभी कभी स्वयं अपनी जान भी गंवा बैठते हैं. वे बच्चो तक को काटने से भी नही हिचकते. औरतो पर भी ये बेधड़क जानलेवा हमले करते हैं. वे पड़ोसी के  फार्म हाउस से निकलकर आस पास के घरो में चोरी छिपे घुस जाते हैं और निर्दोष पड़ोसियो को केवल इसलिये काट खाते हैं क्योकि वे उनकी प्रजाति के नहीं हैं. मेरा पड़ोसी इन कुत्तो की परवरिश पर बहुत सारा खर्च करता है, वह इन्हें पालने के लिये उधार लेने तक से नही हिचकिचाता. घरवालो के रहन सहन  में कटौती करके भी वह इन खुंखार कुत्तो के दांत और नाखून पैने  करता रहता है. पर पड़ोसी ने इन कुत्तो के लिये कभी जंजीर नही खरीदी. ये कुत्ते खुले आम भौकने काटने निर्दोष लोगो को दौड़ाने के लिये उसने स्वतंत्र छोड़ रखे हैं. पड़ोसी के चौकीदार उसके इन खुंखार कुत्तो की विभिन्न टोलियो के लिये तमाम इंतजाम में लगे रहते हैं, उनके रहने खाने सुरक्षा के इंतजाम और इन कुत्तो को दूसरो से बचाने के इंतजाम भी ये चौकीदार ही करते हैं. इन कुत्तो के असाधारण खर्च जुटाने के लिये पड़ोसी हर नैतिक अनैतिक तरीके से धन कमाने से बाज नही आता.इसके लिये पड़ोसी अफीम  ड्रग्स की खेती तक  करने लगा है. जब भी ये कुत्ते लोगों  पर चोरी छिपे खतरनाक हमले करते हैं तो पड़ोसी चिल्ला चिल्लाकर सारे शहर में उनका बचाव करता घूमता है. पर सभ्यता का अपना बनावटी चोला बनाये रखने के लिए  वह सभाओ में  यहां  तक कह डालता है  कि ये कुत्ते तो उसके हैं ही नहीं. पड़ोसी कहता है कि वह खूंखार कुत्ते पालता ही नहीं है. लेकिन सारा शहर जानता है कि ये कुत्ते रहते पड़ोसी के ही फार्म हाउस में ही हैं. ये कुत्ते दूसरे देशो के देशी कुत्तो को अपने गुटो में शामिल करने के लिये उन्हें कुत्तेपन का हवाला देकर बरगलाते रहते हैं.

जब कभी शहर में कही भले लोगो का कोई जमावड़ा होता है, पार्टी होती है तो पड़ोसी के तरह तरह के कुत्तो की चर्चा होती है. लोग इन कुत्तो पर प्रतिबंध लगाने की बातें करते हैं. लोगो के समूह, अलग अलग क्लब मेरे पड़ोसी को समझाने के हरसंभव यत्न कर चुके हैं, पर पड़ोसी है कि मानता ही नहीं. इन कुत्तो से अपने और सबके बचाव के लिये शहर के हर घर को ढ़ेर सी व्यवस्था और  ढ़ेर सा खर्च व्यर्थ ही करना पड़ रहा है. घरो की सीमाओ पर कंटीले तार लगवाने पड़ रहे हैं, कुत्तो की सांकेतिक भाषा समझने के लिये इंटरसेप्टर लगवाने पड़े हैं. अपने खुफिया तंत्र को बढ़ाना पड़ा है, जिससे कुत्तो के हमलो के प्लान पहले ही पता किये जा सकें. और यदि ये कुत्ते हमला कर ही दें तो बचाव के उपायो की माक ड्रिल तक हर घर में लोग करने पर विवश हैं. इस सब पर इतने खर्च हो रहे हैं कि लोगो के बजट बिगड़ रहे हैं. हर कोई सहमा हुआ है जाने कब किस जगह किस स्कूल, किस कालेज, किस मंदिर,  किस गिरजाघर,  किस बाजार , किस हवाईअड्डे, किस रेल्वेस्टेशन, किस मॉल  में ये कुत्ते जाने  किस तरह से हमला कर दें ! कोई नही जानता. क्योकि सारी सभ्यता, जीवन बीमा की सारी योजनायें  एक मात्र सिद्धांत पर टिकी हुई हैं कि हर कोई जीना चाहता है.   कोई मरना नही चाहता इस  मूल मानवीय मंत्र को ही इन कुत्तों ने  किनारे कर दिया है. इनका इतना ब्रेन वाश किया गया है कि अपने कुत्तेपन के लिये ये खुद मरने को तैयार रहते हैं. इस पराकाष्ठा से निजात कैसे पाई जावे यह सोचने में सारे बुद्धिजीवी  लगे हुये हैं. कुत्ते की दुम टेढ़ी ही रहती है, उसे सीधा करने के सारे यत्न फिर फिर असफल ही होते आए हैं.खुद पड़ोसी कुत्तो के सामने मजबूर है, वह उन्हें जंजीर नही पहना पा रहा. अब शहर के लोगो को ही सामूहिक तरीके से कुत्ते पकड़ने वाली वैन लगाकर मानवता के इन दुश्मन कुत्तो को पिंजड़े में बंद करना होगा.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

न्यूजर्सी , यू एस ए

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 177 ☆ व्यंग्य – बा बा ब्लैक शीप ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय  व्यंग्य – बा बा ब्लैक शीप।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 177 ☆  

? व्यंग्य – बा बा ब्लैक शीप ?

बचपन में हम भी बाबा हुआ करते थे ! हर वह शख्स जो हमारा नाम नहीं जानता था , हमें प्यार से बाबा कह कर पुकारता था . इस बाबा गिरी में हमें लाड़ , प्यार और कभी जभी चाकलेट वगैरह मिल जाया करती थी . “बाबा” शब्द से यह हमारा पहला परिचय था .अपनी इसी उमर में हमने बा बा ब्लैक शीप वाली राइम भी सीखी थी . जब कुछ बड़े हुये तो बालभारती में सुदर्शन की कहानी हार की जीत पढ़ी . बाबा भारती और डाकू खड़गसिंग के बीच हुये संवाद मन में घर कर गये . “बाबा ” का यह परिचय संवेदनशील था . कुछ और बड़े हुये तो लोगों को राह चलते अपरिचित बुजुर्ग को भी ” बाबा ” का सम्बोधन करते सुना . इस वाले बाबा में किंचित असहाय होने और उनके प्रति दया वाला भाव दिखा . कुछ दूसरे तरह के बाबाओ में कोई हरे कपड़ो में मयूर पंखो से लोभान के धुंयें में भूत , प्रेत , साये भगाता मिला तो कोई काले कपड़ो में शनिवार को तेल और काले तिल का दान मांगते मिला .कुछ वास्तविक बाबा आत्म उन्नति के लिये खुद को तपाते हुये भी मिले। कुछ तंत्र मंत्र के ज्ञानी निरभिमानी थे तो कुछ वेश भूषा आचार व्यवहार की मनमानी करते मिले।
कष्टो दुखो से घिरे दुनिया वालो को बाबाओ की बड़ी जरूरत है . किसी की संतान नहीं है , किसी की संतान निकम्मी है , किसी को रोजगार की तलाश है , किसी को पत्नी या प्रेमिका पर भरोसा नही है , किसी को लगता है की उसे वह सब नही मिलता जिसके लायक वह है , कोई असाध्य रोग से पीड़ित है तो किसी की असाधारण महत्वाकांक्षा वह साधारण तरीको से पूरी कर लेना चाहता है , वगैरह वगैरह । हर तरह की समस्याओ का एक ही शार्ट कट निदान होता है ” बाबा” . इसलिये प्रायः लोगों को एक बाबा की तलाश होती है ,जो उन्हें विभ्रम की स्तिथि में राह बता सके , थोड़ा ढाड़स बंधा सके ।

एक अच्छे बाबा को किंचित कालिदास की तरह का गुणवान होना चाहिए , अच्छा हो की वह कुछ वाचाल हो , दुनियादारी से थोड़ा बहुत वाकिफ हो ,कुछ जुमले कहावतें उसे कंठस्थ हों , टेक्टफुल हो , थोड़ा बहुत आयुर्वेद और ज्योतिष जानता हो तो बेहतर , चाल चरित्र मे ठीक ठाक हो तो बात ही क्या। ऐसा बंदा सरलता से बाबा के रूप में महिमा मण्डित हो सकता है। बाबा बाजी वाले बाबाओ के रूप में चकाचौंध होती है . बड़े बड़े आश्रम , लकदक गाड़ियों का काफिला भगवा वस्त्रो में चेले चेलियों की शिष्य मंडली बन ही जाती है . ऐसे बनाओ के प्रवचन के पंडाल होते हैं , पंडालो के बाहर बाबा जी के प्रवचनो की डी वी डी , किताबें , देसी दवाईयां विक्रय करने के स्टाल लगाते हैं . टी वी चैनलो पर इन बाबाओ के टाईम स्लाट होते हैं . इन बाबाओ को दान देने के लिये बैंको के एकाउंट नम्बर होते हैं .कोई बाबा हवा से सोने की चेन और घड़ी निकाल कर भक्तो में बांटने के कारण चर्चित रहे तो कोई जमीन में हफ्ते दो हफ्ते की समाधि लेने के कारण , कोई योग गुरु होने के कारण तो कोई आयुर्वेदाचार्य होने के कारण सुर्खियो में रहते हैं . बड़े बड़े मंत्री संत्री , अधिकारी , व्यापारी इन बाबाओ के चक्कर लगाते हैं . ” ही ” बाबा और “शी” बाबा के अपने अपने छोटे बड़े ग्रुप सुर्खियों में रहे हैं .
बाबाओ के रहन सहन आचार विचार के गहन अध्ययन के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि किसी को बाबा बनाने के लिये प्रारंभिक रूप से कुछ सकारात्मक अफवाह फैलानी होती है . आम आदमी की भीड़ चमत्कार को नमस्कार करते आई है . कुछ महिमा मण्डन , झूठा सच्चा गुणगान करके दो चार विदेशी भक्त या समाज के प्रभावशाली वर्ग से कुछ भक्त जुटाने पड़ते हैं . एक बार भक्त मण्डली जुटनी शुरु हुई तो फिर क्या है ,कुछ के काम तो गुरु भाई होने के कारण ही आपस में निपट जायेंगे , जिनके काम न हो पा रहे होंगे बाबा जी के रिफरेंस से मोबाईल करके निपटवा देंगे .

हमारे दीक्षित बाबा जी को हम स्पष्ट रूप से समझा देंगे कि उन्हें सदैव शाश्वत सत्य ही बोलना है ,कम से कम बोलना है . गीता के कुछ श्लोक ,और रामचरित मानस की कुछ चौपाईयां परिस्थिति के अनुरूप बोलनी है . जब संकट का समय निकल जायेगा और व्यक्ति की समस्या का अच्छा या बुरा समाधान हो जावेगा तो बोले गये वाक्यो के गूढ़ अर्थ लोग अपने आप निकाल लेंगे . बाबाओ के पास लोग इसीलिये जाते हैं क्योकि वे दोराहे पर खड़े होते हैं और स्वयं समझ नहीं पाते कि कहां जायें , वे नहीं जानते कि उनका ऊंट किस करवट बैठेगा , यह तो कोई बाबा जी भी नही जानते कि कौन सा ऊंट किस करवट बैठेगा , पर बाबा जी , ऊंट के बैठते तक भक्त को दिलासा और ढ़ाड़स बंधाने के काम आते हैं . यदि ऊंट मन माफिक बैठ गया तो बाबा जी की जय जय होती है , और यदि विपरीत दिशा में बैठ गया तो पूर्वजन्मो के कर्मो का परिणाम माना जाता है , जिसे बताना होता है कि बाबा जी ने बड़े संकट को सहन करने योग्य बना दिया , इसलिये फिर भी बाबा जी की जय जय . बाबा कर्म में हर हाल में हार की जीत ही होती है भले ही भक्त को बाबा जी का ठुल्लू ही क्यो न मिले . बाबा जी पर भक्त सर्वस्व लुटाने को तैयार मिलते हैं भले ही बाबा ब्लैकशीप ही क्यो न हों .

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

न्यूजर्सी , यू एस ए

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #165 ☆ व्यंग्य – मोटी किताब लिखने के फायदे ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक मज़ेदार व्यंग्य ‘मोटी किताब लिखने के फायदे ’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 165 ☆

☆ व्यंग्य – मोटी किताब लिखने के फायदे

लेखकों-कवियों के ये दुर्दिन हैं। किताबें लिखी खूब जा रही हैं, छप भी रही हैं, लेकिन पढ़ने वाला कोई नहीं है। दूर-दूर तक बस धूल उड़ती दिखती है। कहाँ गया रे पाठक? कवि आँख मूँदे पुकार रहा है— ‘आ लौट के आजा मेरे मीत, तुझे मेरे गीत बुलाते हैं’, लेकिन मीत यानी पाठक ‘डोडो’ पक्षी की तरह अंतर्ध्यान हो गया है।

वैसे लेखक और कवि अभी पूरी तरह मायूस नहीं हुए हैं। जेब से पैसे लगाकर अपनी किताबें छपवा रहे हैं और प्रकाशकों की जेब गर्म कर रहे हैं। कोई कन्या के दहेज के लिए रखे पैसे निकाल रहा है तो कोई बीमारी-विपदा के लिए रखे पैसे बढ़ा रहा है। कुछ ऐसे समर्पित लेखक हैं जो पत्नी के ज़ेवर बेचकर अमर होने का इंतज़ाम कर रहे हैं। लेकिन इन पुस्तकों को पढ़ने वाला कहाँ है? यानी पकवान तो बन रहे हैं लेकिन उनका स्वाद लेने वाला ग़ायब है। अब लेखक ही लिखे और लेखक ही पढ़े।

ज़्यादातर प्रकाशक भी पाठकों के बूते किताबें नहीं छापते। उनकी नज़र या तो थोक ख़रीद पर रहती है या पुरस्कारों पर। प्रकाशक सही कमीशन देने को तैयार हो तो कितनी भी मँहगी किताब कितनी भी संख्या में बिक जाएगी। साहब से लेकर मुसाहब तक सब का हिस्सा देने के बाद किताबें विभागों को ढकेल दी जाएंगीं जहाँ उन्हें शेल्फों में ठूँस कर अंतिम प्रणाम कर लिया जाएगा। पाठक को छोड़कर लेखक, प्रकाशक, अफसर, बाबू सब खुश क्योंकि सबको ज्ञान का प्रसाद मिल जाता है। यानी किताब की स्थिति यह होती है कि ‘आये भी वो,गये भी वो, ख़त्म फ़साना हो गया’। इसीलिए आजकल उन लेखकों की किताबें आसानी से छपती हैं जो ऊँचे ओहदे पर या ताकतवर हैं और किताबें बिकवाने की कूवत रखते हैं।

बहुत से लेखकों को सामान्य पाठक पसन्द नहीं आते। वजह यह है कि बहुत से पाठक कुछ नासमझ यानी खरी खरी बात करने वाले होते हैं। लेखक की रचना पढ़कर बेबाक आलोचना कर देते हैं जो लेखक के दिल पर चोट करती है। ये नादान पाठक यह नहीं समझते कि लेखक बेहद संवेदनशील होता है, आलोचना उसे बर्दाश्त नहीं होती। ‘फुलगेंदवा न मारो, लगत करेजवा में चोट।’ ऐसे लेखक सामान्य पाठक को अपनी रचना के पास नहीं फटकने देते। दस बारह यारों को घर पर बुला लेते हैं और उच्च कोटि की जलपान व्यवस्था के बाद रचना पर अपनी बहुमूल्य राय प्रस्तुत करने का अनुरोध करते हैं। मित्रों को अपनी भूमिका मालूम होती है, अतः वे रचना का अंश कान में पड़ते ही सिर धुनना शुरू कर देते हैं। फिर वे गदगद स्वर में कहते हैं कि ऐसी महान रचना सुनकर वे स्तब्ध हैं और ऐसी रचना न पहले लिखी गयी, न भविष्य में लिखी जा सकती है।वे रुँधे कंठ से यह भी कहते हैं उन्हें पता नहीं था कि उनके बीच ऐसा गुदड़ी का लाल छिपा है। प्रशंसा से मगन लेखक अनुपस्थित आम पाठक को अँगूठा दिखा कर लंबी तान कर सो जाता है।

ताज्जुब है कि ऐसे शत्रु-समय में भी कुछ लेखक पूर्ण निष्ठा और मनोयोग से मोटी मोटी किताबें लिख कर साहित्य के प्रांगण में पटक रहे हैं। पृष्ठ संख्या पाँच सौ से हज़ार तक, कीमत पाँच सौ से छः सौ तक। हर साल ऐसे महाग्रंथ धरती पर उतर कर उस में कंपन उत्पन्न कर रहे हैं। ये कौन अटूट आशावादी लेखक हैं जो ज़माने की तरफ पीठ करके पोथे रचने में लगे हैं? उन्हें कौन पढ़ेगा? कौन खरीदेगा? लेखक से पूछिए तो उनका भोला सा उत्तर होगा कि विश्व के ज़्यादातर क्लासिक वज़नदार रहे हैं और जहाँ तक कीमत का सवाल है, महान साहित्य के लिए पाठकों को त्याग करना ही पड़ेगा।

ऐसी वज़नदार किताबें आते ही धड़ाधड़ उनकी समीक्षाएँ और लेखक के इंटरव्यू आना शुरू हो जाते हैं। इन समीक्षाओं और साक्षात्कारों  को लिखने के लिए अनेक रिटायर्ड लेखक धूल झाड़ कर पुनः प्रकट हुए हैं और अनेक नये समीक्षकों का जन्म हुआ है। सभी समीक्षाओं से एक बात स्पष्ट होती है कि साहित्य में नयी ज़मीन टूट चुकी है और पवित्र जल फूटने को ही है।

इन पोथों का विमोचन भी कम दिलचस्प नहीं होता। हिन्दी के एक लेखक अपनी पुस्तकों के प्रकाशन की धीमी गति से ऐसे अधीर हुए कि उन्होंने अपना प्रकाशन गृह खोल डाला और अपना एक भारी-भरकम उपन्यास छाप दिया। उपन्यास के लिए वित्त कहांँ से आया होगा यह सोचकर ही रूह काँपती है क्योंकि लेखक लक्ष्मी जी के लाड़ले नहीं थे।

पुस्तक के विमोचन हेतु एक मशहूर बुज़ुर्ग लेखक आमंत्रित हुए। बुज़ुर्ग लेखक ने अपने भाषण में जो कहा वह आँख खोलने वाला था। उन्होंने कहा कि उन्होंने वह पुस्तक तो नहीं पढ़ी थी, लेकिन लेखक की अन्य रचनाएं पढ़ी थीं जिनके आधार पर वह कह सकते थे कि—। यह बुज़ुर्ग लेखक की ईमानदारी थी कि उन्होंने स्वीकार कर लिया उन्होंने किताब पढ़ी नहीं थी, अन्यथा ऐसे वक्ता भी होते हैं जो पुस्तक को बिना पढ़े उस पर एक घंटा बोलने का माद्दा रखते हैं।

मोटी किताबों के प्रकाशन का गणित साफ है। यदि पाठक को खारिज कर दिया जाए तो मोटी और मँहगी किताबें लेखक, प्रकाशक और अफसरों-बाबुओं के लिए दुबली और सस्ती किताबों के मुकाबले ज़्यादा फायदेमन्द होती हैं। पच्चीस पचास किताबों की खरीद में ही वारे-न्यारे हो जाते हैं।

मोटी पुस्तकें पुरस्कार की दृष्टि से भी अच्छी होती हैं क्योंकि पुरस्कारों के सूत्र जिनके हाथों में होते हैं वे पुस्तकों को बाहर से ही देखते हैं। मोटी किताब रोब पैदा करती है और लेखक के दावे को पुख़्ता करती है। बाकी काम जुगाड़ से होता है जिसके लिए पुस्तक की उपस्थिति ही काफी होती है। पढ़कर विद्वान लेखक के प्रति अविश्वास कौन जताये? विश्वविद्यालयों में भी पीएच.डी. के लिए मोटा पोथा ज़रूरी माना जाता है।

वैसे पढ़ने की बात छोड़ दें तो मोटी पुस्तकों के बहुत से दीगर उपयोग हैं। घर में तकिया न हो तो मोटी किताब ख़ासा सुकून दे सकती है। आम लेखक अहिंसक होता है, घर में असलाह नहीं रखता, इसलिए घर में चोर-लुटेरा घुस आए तो पुस्तक फेंककर उसका जबड़ा तोड़ा जा सकता है। लेकिन इसके लिए पुस्तक का हार्ड बाउंड होना ज़रूरी है। पेपरबैक इस लिहाज से बेकार है।

चलते चलते आम लेखक के लिए यह नसीहत ज़रूरी है कि मोटी पुस्तक अपने खर्चे से न छपवाये वर्ना वह अपना जबड़ा भी तोड़ सकती है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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