(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “जमीन से जुड़ाव”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 122 ☆
☆ जमीन से जुड़ाव ☆
प्रचार – प्रसार माध्यमों का उपयोग करते हुए रील / शार्ट वीडियो के माध्यम से अपनी बात कहना बहुत कारगर होता है। बात प्रभावी हो इसके लिए सुगम संगीत की धुन या कोई लोकप्रिय गीत की कुछ पंक्तियों को जोड़कर सबके मन की बात 60 सेकेंड में कह देना एक कला ही तो है। ज्यादा समय कोई देना नहीं चाहता। कम में अधिक की चाहत ने क्रिकेट को ट्वेंटी- ट्वेंटी का फॉर्मेट व सोशल मीडिया में रील को जन्म दिया है। एक बार रील देखना शुरू करो तो पूरा दिन कैसे बीत जाएगा पता ही नहीं चलता।
समय को पूँजी की तरह उपयोग करना चाहिए , जैसे ही इससे सम्बंधित वीडियो देखा तो झट से मन आत्ममंथन करने लगा। अब ऊँची उड़ान भरते हुए दिन भर जो सीखा था उसे झटपट डायरी में लिख डाला और रात्रि 11 बजे एक मोटिवेशनल पेज बनाकर दिन भर की जानकारी को जोड़कर एक सुंदर पोस्टर, पोस्ट कर दिया। अब तो लाइक और कमेंट की चाहत में पूरा दिन चला गया। तब समझ में आया कि अभाषी मित्र झाँसे में आसानी से नहीं आयेंगे। बस दिमाग ने तय किया कि अब तो बूस्ट पोस्ट करना है। कुछ भी हो 10 K से ऊपर लाइक होना चाहिए आखिर इतने वर्षों का तजुर्बा हार तो नहीं सकता था।बस देखते ही देखते प्रभु कृपा हो गयी अब तो उम्मीद से अधिक फालोअर होने लगे थे जिससे सेलिब्रिटी वाली फीलिंग आ रही थी। एक पोस्ट ने क्या से क्या कर दिया था। जहाँ भी निकलो लोग पहचान रहे थे। आभासी मित्रों को भी आभास होने लगा कि समय रहते इनसे दोस्ती बढ़ाई जाए अन्यथा आगे चलकर ये तो तो पहचानेंगे भी नहीं।
ऐसा क्यों होता है कि सारा समय व्यर्थ करने के बाद हम जागते हैं। दरसल किसी भी समय जागें पर जागना जरूर चाहिए। जो लोग कुछ करने के लिए निकल पड़ते हैं उनके साथ काफिला जुड़ता जाता है। यात्राओं का लाभ ये होता है कि इससे जमीनी तथ्यों की जानकारी के साथ ही लोगों से जुड़ाव भी बढ़ता है। जगह – जगह का पानी,भोजन, बोली, वातावरण व पहनावा ये सब अवचेतन मन को प्रभावित करते हैं। व्यक्ति की सोच बदलती है वो धैर्यवान होकर केवल अधिकारों की नहीं कर्तव्यों की बातें भी करने लगता है। उसे समाज से जुड़कर उसका हिस्सा बनने में ज्यादा आनंद आने लगता है। पाने और खोने का डर अब उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता है। धरती में इतनी ताकत है कि जिसने इसे माँ समझ कर उससे जुड़ने की कोशिश की उसे आकाश से भी अधिक मिलने लगा।
अपने को जमीन से जोड़िए फिर देखिए कैसे खुला आसमान आपके स्वागत में पलकें बिछा देता है।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – व्यंग्य – रुपए का डालर में मेकओवर।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 176 ☆
व्यंग्य – रुपए का डालर में मेकओवर
मेकओवर का बड़ा महत्व होता है। सोकर उठते ही मुंह धोकर कंघी कर लीजिए कपड़े ठीक कीजीए, डियो स्प्रे कर लीजिए फ्रेश महसूस होने लगता है। महिलाओं के लिए फ्रेशनेस का मेकओवर थोडी लंबी प्रक्रिया होती है, लिपस्टिक, पाउडर, परफ्यूम आवश्यक तत्व हैं। ब्यूटी पार्लर में लड़की का मेकओवर कर उसे दुल्हन बना दिया जाता है। एक से एक भी बिलकुल बदली बदली सी लगने लगती हैं। दुल्हन के स्वागत समारोह के बाद बारी आती है ससुराल में बहू के मेकओवर की। सास, ननदे उसे गृहणी में तब्दील करने में जुट जाती हैं। शनैः शनैः गृहणी से पूरी तरह पत्नी में मेकओवर होते ही, पत्नी पति पर भारी पड़ने लगती है।
हर मेकओवर की एक फीस होती है। ब्यूटी पार्लर वह फीस रुपयों में लेता है। पर कहीं त्याग, समर्पण, अपनेपन, रिश्ते की किश्तों में फीस अदा होती है।
एक राजनैतिक पार्टी से दूसरी में पदार्पण करते नेता जी गले का अंगोछा बदल कर नए राजनैतिक दल का मेक ओवर करते हैं। यहां गरज का सिद्धांत लागू होता है, यदि मेकओवर की जरूरत आने वाले की होती है तो उसे फीस अदा करनी होती है, और अगर ज्यादा आवश्यकता बुलाने वाले की है तो इसके लिए उन्हें मंत्री पद से लेकर अन्य कई तरह से फीस अदा की जाती है। नया मेकओवर होते ही नेता जी के सिद्धांत, व्यापक जन हित में एकदम से बदल जाते हैं। विपक्ष नेता जी के पुराने भाषण सुनाता रह जाता है पर नेता जी वह सब अनसुना कर विकास के पथ पर आगे बढ़ जाते हैं।
स्कूल कालेज कोरे मन के बच्चों का मेकओवर कर, उन्हें सुशिक्षित इंसान बनाने के लिए होते हैं। किंतु हुआ यह कि वे उन्हें बेरोजगार बना कर छोड़ देते, इसलिए शिक्षा में आमूल परिवर्तन किए जा रहे हैं, अब केवल डिग्री नौकरी के मेकओवर के लिए अपर्याप्त है। स्किल, योग्यता और गुणवत्ता से मेकओवर नौकरी के लिए जरूरी हो चुके हैं। अब स्टार्ट अप के मेकओवर से एंजल इन्वेस्टर आप के आइडिये के लिए करोड़ों इन्वेस्ट करने को तैयार हैं।
पिछले दिनों हमारा अमेरिका आना हुआ, टैक्सी से उतरते तक हम जैसे थे, थे। पर एयरपोर्ट में प्रवेश करते हुए अपनी ट्राली धकेलते हम जैसे ही बिजनेस क्लास के गेट की तरफ बढ़े, हमारा मेकओवर अपने आप कुछ प्रभावी हो गया लगा। क्योंकि हमसे टिकिट और पासपोर्ट मांगता वर्दी धारी गेट इंस्पेक्टर एकदम से अंग्रेजी में और बड़े अदब से बात करने लगा।
बोर्डिंग पास इश्यू करते हुए भी हमे थोड़ी अधिक तवज्जो मिली, हमारा चेक इन लगेज तक कुछ अधिक साफस्टीकेटेड तरीके से लगेज बेल्ट पर रखा गया। लाउंज में आराम से खाते पीते एन समय पर हैंड लगेज में एक छोटा सा लैपटाप बैग लेकर जैसे ही हम हवाई जहाज में अपनी फ्लैट बेड सीट की ओर बढ़े सुंदर सी एयर होस्टेस ने अतिरिक्त पोलाइट होकर हमारे कर कमलों से वह हल्का सा बैग भी लेकर ऊपर डेक में रख दिया, हमे दिखा कि इकानामी क्लास में बड़ा सा सूटकेस भी एक पैसेंजर स्वयं ऊपर रखने की कोशिश कर रहा था। बिजनेस क्लास में मेकओवर का ये कमाल देख हमें रुपयों की ताकत समझ आ रही थी।
जब अठारह घंटे के आराम दायक सफर के बाद जान एफ केनेडी एयरपोर्ट पर हम बाहर निकले, तब तक बिजनेस क्लास का यह मेकओवर मिट चुका था, क्योंकि ट्राली लेने के लिए भी हमें अपने एस बी आई कार्ड से छै डालर अदा करने पड़े, रुपए के डालर में मेकओवर की फीस कटी हर डालर पर कोई 9 रुपए मात्र। हमारे मैथ्स में दक्ष दिमाग ने तुरंत भारतीय रुपयों में हिसाब लगाया लगभग पांच सौ रुपए मात्र ट्राली के उपयोग के लिए। हमें अपने प्यारे हिंदोस्तान के एयर पोर्ट याद आ गए कहीं से भी कोई भी ट्राली उठाओ कहीं भी बेतरतीब छोड़ दो एकदम फ्री। एकबार तो सोचा कितना गरीब देश है ये अमरीका भला कोई ट्राली के उपयोग करने के भी रुपए लेता है ? वह भी इतने सारे, पर जल्दी ही हमने टायलेट जाकर इन विचारों का परित्याग किया और अपने तन मन का क्विक मेकओवर कर लिया। जैकेट पहन सिटी बजाते रेस्ट रूम से निकलते हुए हम अमेरिकन मूड में आ गए। तीखी ठंडी हवा ने हमारे चेहरे को छुआ, मन तक मौसम का खुशनुमा मिजाज दस्तक देने लगा। एयरपोर्ट के बाहर बेटा हमे लेने खड़ा था, हम हाथ हिलाते उसकी तरफ बढ़ गए।
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक मज़ेदार व्यंग्य ‘लेखक के पत्र, मित्र के नाम’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 164 ☆
☆ व्यंग्य – लेखक के पत्र, मित्र के नाम ☆
📩 पत्र क्रमांक – 1 📩
प्रिय बंधु,
मेरा पत्र पाकर आपको आश्चर्य होगा। याद दिला दूँ कि हम 2019 में लखनऊ के लेखक सम्मेलन में मिले थे। तब मैंने आपको अपनी सात किताबें भेंट की थीं। आपको जानकर खुशी होगी कि इस साल विविध विधाओं में मेरी 135 पुस्तकें लुगदी प्रकाशन संस्थान,दिल्ली से प्रकाशित हुई हैं। इन्हें देखकर आपको महसूस होगा कि मेरी प्रतिभा कैसे दिन दूनी,रात चौगुनी निखर रही है। कनाडा में निवासरत अंतर्राष्ट्रीय कवयित्री रेणुका देवी ने मेरी किताबों के आवरण पर ही तीन पेज का लेख लिखा है। उन्होंने लिखा है कि कवर इतने सुन्दर हैं कि किताबों को खोलने की इच्छा ही नहीं होती। मैं अपनी 135 किताबें आपके पास भेजना चाहता हूँ ताकि आप और आपके मित्र उन्हें पढ़कर आनन्द प्राप्त करें। आपका उत्तर प्राप्त होते ही पुस्तकें रवाना कर दी जाएँगीं।
आपका
प्रीतम लाल ‘निरंकुश’
📩 उत्तर क्रमांक – 1 📩
भाई साहब,
आपका पत्र प्राप्त हुआ। 135 पुस्तकों के प्रकाशन पर मेरी बधाई लें। आपने ये पुस्तकें भेजने की बात लिखी है। मेरी दिक्कत यह है कि मैं उच्च रक्तचाप का मरीज़ हूँँ और अचानक इतनी किताबों को सँभाल पाना मेरी कूवत से बाहर है। दूसरी बात यह कि मेरे पास लेखक-मित्रों से प्राप्त इतनी किताबें इकट्ठी हो चुकी हैं कि उन्हें रखने के लिए घर में जगह नहीं बची है। मेरी पत्नी अलमारी से बची किताबों को चार बोरों में भरकर स्टोर में रख चुकी है। मुझे डर है कि किसी दिन मेरी अनुपस्थिति में वे कबाड़ी को सौंप दी जाएँगीं। इसलिए आप फिलहाल किताबें भेजने के अपने इरादे को स्थगित रखें। स्थितियाँ अनुकूल होने पर मैं स्वयं आपको सूचित करूँगा।
आपका
सज्जन लाल
📩 पत्र क्रमांक – 2 📩
बंधुवर,
आपका पत्र मिला। आपके स्वास्थ्य का हाल जानकर चिन्ता हुई, लेकिन मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि ब्लड-प्रेशर होने से किताबों को सँभालने में क्या दिक्कत हो सकती है। आप मेरे घर आएँगे तो देखकर ही आपका ब्लड-प्रेशर बढ़ जाएगा। सब तरफ मेरी किताबें अँटी पड़ी हैं। तिल धरने को जगह नहीं है। अतिथि आते हैं तो उन्हें किताबों के बंडल पर ही बैठाना पड़ता है। आपने किताबों के लिए स्थानाभाव की बात लिखी तो मेरा एक सुझाव है। मैं आपके पास एक अलमारी की कीमत भेज दूँगा। उस अलमारी में सिर्फ मेरी किताबें रखी जाएँ। उसमें किसी अन्य लेखक की घुसपैठ न हो। आपका उत्तर मिलते ही राशि भेज दूँगा।
आपका
प्रीतम लाल ‘निरंकुश’
📩 उत्तर क्रमांक – 2 📩
भाई साहब,
अलमारी के लिए पैसे भेजने के आपके प्रस्ताव के लिए आभारी हूँँ, लेकिन समस्या वह नहीं है। समस्या यह है कि अलमारी रखने के लिए जगह नहीं बची है। अतः एक ही रास्ता है कि ऊपर एक हॉल बनवाकर किताबों की सारी अलमारियाँ वहाँ प्रतिष्ठित कर दी जाएँ। इसमें कम से कम डेढ़ दो लाख का व्यय आएगा। यदि आप इसमें पच्चीस तीस हज़ार का योगदान कर सकें तो आभारी हूँगा। फिर आप अपनी कितनी भी पुस्तकें भेज सकेंगे। अन्य लेखक-मित्रों से भी अनुरोध कर रहा हूँ। मैं वादा करता हूँ कि चार छः साल में व्यवस्था करके सबके पैसे लौटा दूँगा। आप विचार करके यथाशीघ्र सूचित करें।
आपका
सज्जन लाल
📩 पत्र क्रमांक – 3 📩
भाई साहब,
मुझे इल्म नहीं था कि आप मेरे साथ मसखरी करेंगे। मैं भला आपको पच्चीस तीस हजार रुपये क्यों देने लगा? उतने में मैं अपनी दो किताबें और छपवा लूँगा। मैं आपको अपनी 135 किताबें मुफ्त में दे रहा हूँ, और आप मज़ाक कर रहे हैं! सो इट इज़ योर लॉस, नॉट माइन। आपको मेरी किताबों की कद्र नहीं है तो हज़ारों और कद्रदाँ हैं। अब ये किताबें किसी और भाग्यशाली को मिलेंगीं। नमस्कार।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “टीम बड़ी या नेतृत्व”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 121 ☆
☆ टीम बड़ी या नेतृत्व ☆
बहुत से लोग अपनी सशक्त टीम के बल पर शीर्ष पर पहुँचते हैं। बस यहीं से टीम टूटने लगती है उसके सदस्यों को लगता है कि यहाँ तक उन्होंने पहुँचाया है जबकि स्थिति इससे उलट होती है। सबसे महत्वपूर्ण कार्य विजन का होता है जो कि टीम लीडर ने किया है। उसके बाद लक्ष्य तय करना, योजना बनाना, उसे पूरा करने की सीमा तय करना, सदस्यों का चयन उनकी उपयोगिता के आधार पर, उनसे कार्य करवाना, दिशा निर्देशन देना। यहाँ तक कि हर छोटे- बड़े फैसले भी खुद लेना।
अब तक के कार्यों को देखें तो इसमें टीम ने क्या किया है ? दरसल ये सदस्य किसी एक कार्य के लिए चुने जाते हैं उसके पूरा होते ही इनका टूट कर बिखरना पहले से ही तय रहता है। जब टीम के सदस्य कार्य करते हैं तो उन्हें प्रोत्साहित करने हेतु कहा जाता है कि आप ने यह कार्य बहुत अच्छे से किया, ऐसा कोई कर नहीं सकता। बस यहीं से वो भ्रमित होकर अपने को सर्वे सर्वा समझने लगते हैं और खुद अलग होकर स्वतंत्र कम्पनी स्थापना कर बैठते हैं। अगर ध्यान से देखिए तो पता चलेगा कि टीम के सदस्यों ने केवल वही कार्य किया जो लीडर ने निर्धारित किया था। इनसे जो पहले से बनता था उतना आज भी बन रहा है। बस इनको ये भ्रम हो गया था कि इनके दम पर ये लीडर बना है।
ऐसा जीवन के हर क्षेत्र में हो रहा है, हम बिना स्वमूल्यांकन के अनजाने क्षेत्रों में कूद पड़ते हैं और बाद में हताश होकर अधूरे कार्यों के साथ दोषारोपण करते हैं। जरा सोचिए कि अलग- अलग होकर बिना मतलब का कार्य करने से कहीं अधिक अच्छा होता कि एक जुटता के साथ किसी बड़े लक्ष्य पर कार्य करते।
इस संदर्भ में एक प्रसंग याद आ रहा है कि एक संस्था प्रमुख ने अपने जन्मोत्सव को मनाने के लिए सभी साहित्यकारों को इकट्ठा किया और अपने अनुसार पूरे सात दिनों तक गुणगान करवाया। समय पास करने हेतु लोग मिल जाते हैं सो उन्हें भी मिल गए। खूब माला पहनी व पहनायी। अंत में भोजन की व्यवस्था भी थी सो हास- परिहास के साथ सब कुछ सम्पन्न हो गया।
जरा सोचिए कि जब बुद्धिजीवी वर्ग ऐसे कार्यक्रमों में शामिल होकर अपने को जाया करेगा तो हम विश्व स्तर पर कैसे पहुँचेंगे, जब हमारा लक्ष्य ही आत्म केंद्रित हो जाएगा तो हिंदी का परचम अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कैसे फहरा पायेंगे।
बात वहीं पर आकर ठहरती है कि जिस नेतृत्व में आप कार्य कर रहें उसे योग्य, दूरदर्शी व सबको साथ लेकर चलने वाला है या नही।
खैर कुछ भी करें पर करते रहिए। सार्थक कार्य आपको कभी न कभी शीर्ष पर विराजित करेगा किन्तु आलस्य सामान्य सदस्य भी बना रहने देगा या नहीं ये कहा नहीं जा सकता है।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “सुधारीकरण की आवश्यकता”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 120 ☆
☆ वैचारिक तरक्की☆
युक्त, अभियुक्त, प्रयुक्त, संयुक्त, उपयुक्त ये सब कहने को तो आम बोलचाल के हिस्से हैं किंतु इनके अर्थ अनेकार्थी होते हैं। कई बार ये हमारे पक्ष में दलील देते हुए हमें कार्य क्षेत्र से मुक्त कर देते हैं तो कई बार कटघरे में खड़ा कर सवाल-जबाब करते हैं।
क्या और कैसे जब प्रश्न वाचक चिन्ह के साथ प्रयुक्त होता है तो बहुत सारे उत्तर अनायास ही मिलने लगते हैं। पारखी नजरें इसका उपयोग कैसे हो इस पर विचार- विमर्श करने लगतीं हैं। त्योहारों व धार्मिक किरदारों के साथ छेड़छाड़ मिथ्या कथानक बना देते हैं। क्रमशः विकास अच्छी बात है किंतु जो ऐतिहासिक धरोहर हैं, इतिहास हैं, हमारे संस्कार से जुड़े तथ्य हैं उनमें मनमानी करना किसी भी हद तक सही नहीं कहा जा सकता।
स्वतंत्रता के नाम पर कुछ भी लिखना व उसके अनुरूप चित्रांकन कर आम जनता को बरगलाना क्या सकारात्मक विचारधारा को तोड़ने जैसा नहीं होगा। सबका सम्मान हो इसके लिए किसी आधारभूत स्तम्भों को तोड़ना- मरोड़ना नहीं चाहिए। सूरज को पश्चिम से निकालना, धूप को शीतल करना, चंद्रमा को कठोर बताना क्या सही होगा। इससे हमारे आगे का भविष्य एक ऐसे दो राहे पर खड़ा मिलेगा जो ये नहीं समझ पायेगा की जो बातें हमारे धर्मग्रंथ कहते हैं वो सही हैं या जो फिल्में दिखाती हैं वो? वैसे भी धार्मिक आदर्शों को कार्टून द्वारा मनोरंजन के नाम पर बदल कर रख दिया गया है। एक प्रश्न आप सभी से है कि क्या इस तरह के बदलाव हमारे लिए उचित होंगे। वैचारिक तरक्की के नाम पर कहीं हम अपना अस्तित्व तो नहीं खो देंगे?
खैर कुछ भी हो अपनी संस्कृति से अवश्य जुड़ें। अच्छा साहित्य पढ़ें और पढ़ाएँ क्योंकि यही आपको उचित- अनुचित का भान कराएगा।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “सुधारीकरण की आवश्यकता”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 119 ☆
☆ सुधारीकरण की आवश्यकता☆
दूसरों को सुधारने की प्रक्रिया में हम इतना खो जाते हैं कि स्वयं का मूल्यांकन नहीं कर पाते हैं। एक दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ में गलत रास्ते पर चल देना आजकल आम बात हो गयी है। पुरानी कहावत है चौबे जी छब्बे बनने चले दुब्बे बन गए। सब कुछ अपने नियंत्रण करने की होड़ में व्यक्ति स्वयं अपने बुने जाल में फस जाता है। दो नाव की सवारी भला किसको रास आयी है। सामान्य व्यक्ति सामान्य रहता ही इसीलिए है क्योंकि वो पूरे जीवन यही तय नहीं कर पाता कि उसे क्या करना है। कभी इस गली कभी उस गली भटकते हुए बस माया मिली न राम में गुम होकर पहचान विहीन रह जाता है। हमें कोशिश करनी चाहिए कि एक ओर ध्यान केंद्रित करें। सर्वोच्च शिखर पर बैठकर हुकुम चलाने का ख्वाब देखते- देखते कब आराम कुर्सी छिन गयी पता ही नहीं चला। वो तो सारी साजिश तब समझ में आई कि ये तो खेला था मुखिया बनने की चाहत कहाँ से कहाँ तक ले जाएगी पता नहीं। अब पुनः चौबे बनना चाह रहे हैं, मजे की बात दो चौबे एक साथ कैसे रहें। किसी के नियंत्रण में रहकर आप अपना मौलिक विकास नहीं कर सकते हैं। समय- समय पर संख्या बल के दम पर मोर्चा खोल के बैठ जाने से भला पाँच साल बिताए जा सकेंगे। हर बार एक नया हंगमा। जोड़ने के लिए चल रहे हैं और स्वयं के ही लोग टूटने को लेकर शक्तिबल दिखा रहे हैं। देखने और सुनने वालों में ही कोई बन्दरबाँट का फायदा उठा कर आगे की बागडोर सम्भाल लेगा। वैसे भी लालची व्यक्ति के पास कोई भी चीज ज्यादा देर तक नहीं टिकती तो कुर्सी कैसे बचेगी। ऐसे में चाहें जितना जोर लगा लो स्थिरता आने से रही। हिलने- डुलने वाले को कोई नहीं पूछता अब तो स्वामिभक्ति के सहारे नैया पार लगेगी। समस्या ये है कि दो लोगों की भक्ति का परीक्षण कैसे हो, जो लंबी रेस का घोड़ा होगा उसी पर दाँव लगाया जाएगा। जनता का क्या है कोई भी आए – जाए वो तो मीडिया की रिपोर्टिंग में ही अपना उज्ज्वल भविष्य देखती है। ऐसे समय में नौकरशाहों के कंधे का बोझ बढ़ जाता है व उनकी प्रतिभा, निष्ठा दोनों का मिला- जुला स्वरूप ही आगे की गाड़ी चलता है। कुल मिलाकर देश की प्रतिष्ठा बची रहे, जनमानस इसी चाहत के बलबूते सब कुछ बर्दाश्त कर रहा है।
(श्रीमती सविता मिश्रा ‘अक्षजा’ जी हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं (लघुकथा, कहानी, व्यंग्य, छंदमुक्त कविता, आलेख, समीक्षा, जापानी-विधा हायकु-चोका आदि) की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आप एक अच्छी ब्लॉगर हैं। कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित / पुरस्कृत / अलंकृत हैं। आपकी कई रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं एवं आकाशवाणी के कार्यक्रमों में प्रसारित हो चुकी हैं। ‘रोशनी के अंकुर’ लघुकथा एकल-संग्रह प्रकाशित| आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य ‘इससे अधिक ताजा क्या?‘. हम भविष्य में आपकी चुनिंदा रचनाएँ अपने पाठकों से साझा करने की अपेक्षा करते हैं।)
☆ व्यंग्य – इससे अधिक ताजा क्या? ☆ सविता मिश्रा ‘अक्षजा’ ☆
संपादक महोदय ने साहित्यकारों से ताजा-तरीन व्यंग्य ऐसे माँगा जैसे, फूल वाले से ग्राहक ताजा-तरीन फूल, सब्जी वाले से ताजा सब्जी, फल वाले से ताजे-ताजे फल, मिठाई वाले से ताजा-तरीन मिठाईयाँ। अब ये किसको पता चलता है कि ताजा चीज का दावा करने वाले उपर्युक्त लोग ताजा-ताजा का शोर मचा करके ग्राहक को चूना लगा देते हैं। तो भई व्यंग्यकार भला कैसे पीछे रहे, वह तो इन सब का बाप होता है। इन सबका क्या, वह तो सबका बाप बनने हेतु प्रयत्नशील रहता है, बन नहीं पाए ये और बात है। व्यंग्यकार से कवि बना मानुष से तो छुटंकी माचिस भी भय खाती है। अपनी हर रचना को ताजा-ताजा कहकर स्टेज पर खड़ा होकर धड़ल्ले से भीड़ के बीच, पुरानी छूटी-बिछड़ी पड़ी कविता को तड़का मारकर परोसकर आग लगा देता है| और बड़ी बेशर्मी से तालियों की माँग भी अपने लिए कर डालता है। जैसे गृहिणी बासी सब्जी को फ्रिज से निकालकर तड़का देकर ताजा कर देती है और घर वालों से तारीफ बटोर लेती है। कभी- कभी अपनी छूटी-बिछड़ी नहीं, बल्कि इधर-उधर से झपटी गयी रचनाएँ भी सुना मारता है| सोशल साइट पर बिखरे दो लाइनों के हास्य पर वह ऐसे झपट्टा मारता है कि बेचारी चील की प्रजाति देख ले तो शरमा जाय| उसकी यह निर्भीकता साहित्यिक क्षेत्र के उस शगूफे की राह से होकर आयी रहती है, जहाँ यह शोर छाया रहता है कि ‘कोई किसी को पढ़ता नहीं है’। बस इसी पूर्वाग्रह के जाल में मकड़ी की तरह फंस जाता है चौर्यकर्म करने वाला वह खिलाड़ी| क्योंकि चुपके-चुपके ही सही, दूसरों की रचनाओं को पढ़ने वालों की कमी नहीं है। सब एक दूजे को पढ़ते रहते हैं, न अधिक सही, थोड़ा बहुत ही सही| बस कभी-कभी चोरों की किस्मत साथ नहीं देती है तो वे ऐसे पढ़ाकूओं के हत्थे चढ़ जाते हैं, दूसरे की रचना को अपनी कहने वालों पर चुपके-चुपके, चोरी-चोरी पढ़ने वाले आखिरकार नकेल डाल ही देते हैं। यधपि ताजा कह अपनी रचना कहने वाला कवि तब भी अड़ा ही रहता है, अड़ियल बैल क्या अड़ेगा उसके सामने।
इस ताजे-ताजे की गुगली स्वप्रिय खेल तक सीमित नहीं है, इसका क्षेत्रफल उतना ही विशाल है जितना कि, हमारे देश में भ्रष्टाचार का खेल। इस ताजा के चक्कर में अपनी रचनाओं को ताजा अप्रकाशित कहकर पत्रिकाओं में ठिकाने लगाने वाले लोग पत्रिका तक नहीं रुकते हैं, बल्कि प्रतियोगिताओं में भी सेंध करने का प्रयत्न करते हैं। ताजा लिख न पाएं तो दूसरे साहित्यकारों की सोशल मीडिया पर घूमती रचनाओं को पकड़ते हैं, अपनी कुशाग्र बुद्धि का परिचय देते हुए उसके ढाँचे में फेरबदल करते हैं, और ताजा-तरीन कहकर पेश कर देते हैं सबके सामने।
मात वही खाते हैं जो इस क्षेत्र में नवागत होते हैं या फिर उनकी बुद्धि गधों से आयातित हुई होती है। कुछ बैल बुद्धि वाले भी प्रकट कृपालु की तरह प्रकट होते हैं और आरोप-प्रत्यारोप से आहत हुए बिना बैल से डटे रहते हैं कि भई रचना मेरी ही है। भले सबूत-दर-सबूत पेश किए जाते रहें। इस किस्म की प्रजाति झेंपने वाली जात-बिरादरी से नहीं होती है कि गदहे की तरह सब कुछ सुनकर चुप हो जाए| ये उस किस्म के गधे नहीं हैं जो धोबी के घर पाये जाते हैं, ये नेताओं के आगे-पीछे घूमने वाले गधे हैं| अतः प्रत्यारोप अधिक होने पर ‘क्या कर लोगे!’ कहकर दुलत्ती जमाकर अपने चौर्यकर्म में मेहनत और लगन पूर्वक पुनः जुट जाते हैं| आखिर परवाह क्योंकर करें, उन्हें भी तो किताबों के पहाड़ में अपनी आहुति डालनी होती है| पुस्तकों की गिनती बढ़ाने के लिए सबसे आवश्यक कार्य यह हेराफेरी ही तो है, और कई-कई गदहें इस अभूतपूर्व कार्य में लगे हुए हैं| उन्हें लगे रहने दीजिए साहेब, वैसे भी आप रोक भी नहीं सकते हैं| जब रोक नहीं सकते हैं तो फिर उन्हें बासी रचनाओं से ताजा रचनाएँ बनाने दीजिए| कभी न कभी धोबी उन्हें खुद ही धोबिया पछाड़ दे देगा|
हम कर रहे थे बैलों की बात और पहुँच गए फिर गदहों पर| समस्या वहाँ ही बार-बार पहुँचने की नहीं है, बल्कि समस्या प्रवृत्ति की है| इन्सान बलिष्ठ को छोड़कर कमजोर को सताने, उसकी किरकिरी करने में अपना समय अधिक खपाता है| यह पूर्वाग्रह नहीं है प्रत्युत सौ-प्रतिशत सच है| बैल बचकर निकल जाते हैं और बेचारे गदहों को सैकड़ों बातें सुनाई जाती हैं| बैल को छेड़ने की हिम्मत किसी में है ही नहीं| ‘बैल बुद्धि’ की कहावत न जाने क्यों कही गयी, ‘गदहा बुद्धि’ कहावत क्यों नहीं बनी| ये जो बैल, साहित्य के क्षेत्र में घूमते हुए दूसरों की ताजा-ताजा रचनाएँ चर ले रहे हैं खुल्लम-खुल्ला, उनका क्या! बैल बुद्धि के होते तो इतनी सफाई से चर लेते और पता भी न चलता? हमें लगता है जो बैल, साहित्य में विद्वान हैं वे गदहों को मात दे रहे हैं| डंके की चोट पर लोगों की रचना उड़ाते हैं, टोंको तो घुघुआते हैं। यही रुके तो भी ठीक परन्तु ये दो कदम और आगे बढ़ते हैं और उसे अपनी लेखन कला से तिकड़म करके उसमें अपना रंग भरते हैं कि कहीं से से भी चोरी की प्रतीत न हो| तदुपरांत ताजातरीन कहकर सोशल मीडिया पर बिखरा देते हैं| दूसरों के आँखों में धूल झोंकने की ये इनकी सामान्य प्रक्रिया हो गयी है। कोई बोले तो बैल तो हैं ही और उनका दबदबा होता ही है, अतः ये गदहे की तरह दुलत्ती मारकर चारों खाने चित्त करने में विश्वास नहीं रखते हैं बल्कि सीधे सामने वाले के दिमाग पर वार करते हैं| इनके सिंघ भी होती है, अब गधे की तो होती नहीं है! अतः इनका वार कभी खाली नहीं जाता, इन्सान का दिमाग सुन्न हो जाता है| वह या तो पीछे हट जाता है, या फिर ब्लैक होल में समा जाता है| बैल हुँकार भरता हुआ मैदान में डटा रहता है और साहित्य के बियाबान जंगल में विचरण करता है, इनका सानिध्य पाकर गधे भी खुल्लमखुल्ला विचरण करने से बाज नहीं आते हैं|
ताजा ताजा रचना है कहकर, दूसरे की बाग़ का फूल संपादक-प्रकाशक के चरणों में चढ़ाकर साहित्यकार बने फिरते हैं| और ईमानदार, स्वाभिमानी, असल साहित्यकार ब्लैक होल को ही अपनी दुनिया समझ कर कर्मठता से रचता रहता है भावनाओं का संसार या फिर सन्यास ले लेता है|
संपादक जी हम ताजा-ताजा रचना भेज रहे हैं, बासी होने और दूसरे के हाथ साफ़ करने से पहले आपसे विनम्र विनती है संपादक महोदय, कृपा करिए और अपने ताजा-ताजा अंक में इस ताजातरीन रचना को छाप दीजिए वरना बेचारी एक और कलमकार कहीं ब्लैक होल में न समा जाए| और यह हमारी ताजा रचना बासी होकर किसी और के हाथ में उछल-कूद करती हुई और अन्य पत्रिकाओं में छपके हमें ही दुलत्ती मारने लगे|
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘पच्चीस परसेंट का वादा’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 160 ☆
☆ व्यंग्य – पच्चीस परसेंट का वादा ☆
सबसे पहले हमारा परनाम लीजिए क्योंकि आप ठहरे व्होटर और हम ठहरे उम्मीदवार। उम्मीदवार का धरम बनता है व्होटर को परनाम करने का। हम हैं सीधे-सादे आदमी, इसलिए हम सीधी-सादी बात करेंगे। फालतू का फरफंद हमें आता नहीं,कि एक घंटा भर तक आपको बंबई- कलकत्ता घुमाएँ, उसके बाद मतलब की बात पर आएँ।
तो हम यह निवेदन करने आये हैं कि अब की बार चुनाव में बंसीधर को व्होट मत दीजिए, हमें दीजिए, यानी मुरलीधर को। अब आप कहेंगे कि क्यों दीजिए भई मुरलीधर को? तो हमारा निवेदन है कि हमें बंसीधर के कोई खास सिकायत नहीं। सिकायत यही है कि उन्होंने छेत्र की परगति के लिए कोई काम नहीं किया। अब छेत्र परगति नहीं करेगा तो देस कैसे परगति करेगा?
हमारी सिकायत यही है कि बंसीधर ने छेत्र की परगति पर एक्को पैसा खरच नहीं किया। कुछ अपनी परगति पर खरच किया, बाकी अफसर-अमला की परगति पर खरच हो गया। अब ये तो गलत काम हो गया है ना? आप छेत्र पर एक्को पैसा खरच नहीं करेंगे तो छेत्र कैसे परगति करेगा और देस कैसे परगति करेगा? इसलिए हमारा जी दुखी है।
अब आप कहेंगे कि मुरलीधर, कल तक तो बंसीधर के गलबाँही डाले फिरते थे,आज सिकायत करते हो। तो आपका कहना वाजिब है। लेकिन मामला सिद्धांत का बन गया है। जब सिद्धांत के खिलाफ बात जाने लगेगी तब भला कौन बरदास्त करेगा?
हमारा कहना यह है कि भाई, छेत्र की परगति के लिए जो पैसा मिलता है उसका पच्चीस परसेंट जरूर छेत्र पर खरच होना चाहिए। पच्चीस परसेंट भी खरच नहीं होगा तो छेत्र तो एक्को तरक्की नहीं करेगा ना? इसलिए पच्चीस परसेंट छेत्र पर खरच होना ही चाहिए।
बाकी पचत्तर परसेंट नेता और अफसर- अमला अपनी परगति पर खरच कर सकता है। यह तो एकदम जायज बात है। सोचिए, नेता सार्वजनिक जीवन में किस लिए आया है? भाड़ झोंकने आया है क्या? जो नेता अपनी और अपने नाते-रिस्तेदारों की परगति न कर पाए वो देस की परगति क्या खाके करेगा? तो भई नेता तो अपनी परगति करेगा। अफसर-अमला अपनी परगति नहीं करेगा तो काम कैसे करेगा? सूखी तनखा में काम करेगा क्या? मोटर चलाने के लिए पेटरोल-डीजल नहीं लगेगा? तब? तनखा से कोई काम करने की ताकत आती है क्या? तनखा तो सबको मिलती है, लेकिन सब के ऊपर तो देस की परगति का भार नहीं होता। तब?
तो पचत्तर परसेंट नेता और अफसर- अमला अपनी परगति पर खरच कर सकता है। बाकी पच्चीस परसेंट छेत्र पर हर हालत में खरच होना चाहिए। इसमें कोई गड़बड़ हम बरदास्त नहीं करेंगे। बंसीधर ने यही गड़बड़ किया कि सेंट परसेंट पैसा अपनी परगति पर खरच कर लिया। इसलिए हमारा बंसीधर से बिरोध है। हम आपसे क्या बताएँ कि जाने कितनी योजनाओं का पैसा बंसीधर के पास आया और उन्होंने पूरा का पूरा अपनी परगति पर खरच कर लिया। एकदम गलत काम हो गया। अब आप ये मत पूछिए कि कौन-कौन योजनाओं का पैसा आया था, क्योंकि हम ये न बताएँगे। बात ये है कि कल के दिन हमीं चुने जाएँगे और आप हमसे पूछने लगे कि फलाँ- फलाँ योजना में कितना-कितना पैसा आया तो हम मुस्किल में पड़ जाएँगे। इसलिए आप बस इतना समझ लीजिए कि बंसीधर ने बहुत सी योजनाओं का सेंट परसेंट पैसा अपनी परगति पर खरच कर लिया।
तो हमारा आपसे वादा है कि हम पच्चीस परसेंट पैसा छेत्र की परगति पर जरूर खर्च करेंगे। ये फरफंद नहीं है, आपको दिखायी पड़ेगा कि पच्चीस परसेंट पैसा खरच हुआ है। हाथ कंगन को आरसी क्या? तो आप हमारा बिसवास कीजिए और अपना व्होट हमीं को दीजिए, यानी मुरलीधर को। पच्चीस परसेंट का हमारा आपसे वादा है। हम कसम-वसम तो न खाएँगे क्योंकि कसम खाएँगे तो आप समझेंगे कि झूठ बोल रहे हैं। इसलिए हम कसम न खाएँगे। वादा जरूर करते हैं।
अंत में आप से निवेदन है कि हमें व्होट दीजिए और देस से भरस्टाचार खतम करने में हमारी मदद कीजिए। अब एक बार ताली तो बजा दीजिए। हम आपसे इतना बड़ा वादा कर रहे हैं और आप बस हमें मुटुर मुटुर निहारे जा रहे हैं।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “जागिए – जगाइए”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 118 ☆
☆ जागिए – जगाइए ☆
जरा सी आहट में नींद टूट जाती है, वैसे भी अधूरी नींद के कारण ही आज इस उच्च पद पर विराजित हैं। बस अंतर इतना है कि पहले पढ़ने के लिए ब्लैक कॉफी पीकर जागते थे। अब कैसे ब्लैक मनी को व्हाइट करे इस चिंतन में रहते हैं। अब तो कॉफी से काम नहीं चलता अब शराब चाहिए गम गलत करने के लिए।
भ्रष्टाचार की पालिश जब दिमाग में चढ़ जाती है तो व्यक्ति गरीब से भी बदतर हो जाता है। सोते-जागते बस उसे एक ही जुनून रहता है कि कैसे अपनी आमदनी को बढ़ाया जाए। उम्मीद की डोर थामें व्यक्ति इसके लिए क्या- क्या कारगुजारियाँ नहीं करता।
वक्त के साथ- साथ लालच बढ़ता जाता है, एक ओर उम्र साथ छोड़ने लगती है तो वहीं दूसरी ओर व्यक्ति रिटायरमेंट के करीब आ जाता है। अब सारे रुतबे छूटने के डर से उसे पसीना छूट जाता है। ऐसे में पता चलता है कि हार्ट की बीमारी ने आ घेरा। बढ़ा हुआ ब्लड प्रेशर दवाइयों से भी काबू नहीं आ रहा। ऐसे में उतार- चढ़ाव भरी जिंदगी भगवान का नाम भी नहीं ले पा रही है। समय रहते जो काम करने चाहिए थे वो किए नहीं। बस निन्यानवे का चक्कर वो भी गलत रास्ते थे। बच्चों को विदेश भेजकर पढ़ाया वो भी वहीं सेटल हो गए। इतने बड़े घर में बस दो प्राणी के अलावा पालतू कुत्ते दिखते। जीवन में वफादारी के नाम पर कुत्तों से ही स्नेह मिलता। अपनी अकड़ के चलते पड़ोसियों से कभी नाता जोड़ा नहीं। वैसे भी धन कुबेर बनने की ललक हमें दूर करती जाती है।
जीवन के अंतिम चरण में बैठा हुआ व्यक्ति यही सोचता है ये झूठी कमाई किस काम की, जिस रास्ते से आया उसी रास्ते में जा रहा है। काला धन विदेशी बैंकों में जमा करने से भला क्या मिलेगा। देश से गद्दारी करके अपने साथ-साथ व्यक्ति सबकी नजरों में भी गिर जाता है। सदाचार की परंपरा का पालन करने वाले देश में भ्रष्टाचार क्या शोभा देता है। सारी समस्याओं की जड़ यही है। आत्मा की आवाज सुनने की कला जब तक हमारे मनोमस्तिष्क में उतपन्न नहीं होगी तब तक ऐसे ही उथल-पुथल भरी जीवन शैली का शिकार हम सब होते रहेंगे।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामस्वरूप दीक्षित जी गद्य, व्यंग्य , कविताओं और लघुकथाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। धर्मयुग,सारिका, हंस ,कथादेश नवनीत, कादंबिनी, साहित्य अमृत, वसुधा, व्यंग्ययात्रा, अट्टाहास एवं जनसत्ता ,हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स, राष्ट्रीय सहारा,दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, नईदुनिया,पंजाब केसरी, राजस्थान पत्रिका,सहित देश की सभी प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित । कुछ रचनाओं का पंजाबी, बुन्देली, गुजराती और कन्नड़ में अनुवाद। मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन की टीकमगढ़ इकाई के अध्यक्ष। हम समय समय पर आपकी सार्थक रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास कराते रहते हैं।
☆ व्यंग्य – चीता समर्थक गायें ☆
( व्यंग्य स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे व्यंग्यकार के सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि प्रत्येक व्यंग्य को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें।)
गायें पहले सीधी हुआ करती थीं। अब मूर्ख भी हो गई हैं।वे हिंसक चीतों के समर्थन में उतर आई हैं। चीते उन्हें खूबसूरत लगने लगे हैं। उनकी धारियां उन्हें आकर्षित कर रही हैं। किसी ने कहा कि चीते हिंसक होते हैं। उन्होंने उत्तर दिया कि यह बेहद पुराना और घिसापिटा विचार है, संकीर्ण सोच का प्रतीक और अब हम पहले जैसी भोली-भाली गाएं नहीं रहीं। हमारी सोच प्रगतिशील है। हम चीतों को किसी के कहने से कब तक हिंसक मानते रहेंगे। हमें समय समय पर अपने विचारों में परिवर्तन करते रहना चाहिए। हम चीतों को हिंसक माने जाने के खिलाफ हैं। चीते जंगल की शान हैं। चीतों से ही हमारा वन्य प्रदेश सुशोभित होता है। चीते हमारी शान हैं। हमारा अलंकरण हैं। “बिन चीता सब सून।”
समझाने वाले ने फिर कहा ” पागल मत बनो। एक दिन यही चीते मौका देखते ही तुम्हें और तुम्हारे बछड़ों को खा जायेंगे और तुम लोग कुछ नहीं कर पाओगी।”
“हम तुम्हारी चीता विरोधी मानसिकता को भलीभांति समझ गए हैं। हम लोग तुम्हारी बातों में आने वाली नहीं। हमें हमारे अपने ही लोगों से ज्ञात हुआ कि अब चीते शाकाहारी हो गए हैं। अब वे निरीह जानवरों का शिकार नहीं करते। नित्य स्नान और पूजापाठ करने लगे हैं। जंगल की अस्मिता और उसके पुराने वैभव को लौटाने के लिए वे कुछ भी त्याग करने को तत्पर रहते हैं। जंगल में उनकी वजह से सब तरह से मंगल है।भय , भूख का नामोनिशान नहीं रहा।जंगल दशकों बाद फिर से हराभरा हो गया है।”
समझाने वाले को लगा कि जब मूर्ख को अपनी मूर्खता पर गर्व होने लगे तो समझ लेना चाहिए कि अब उसका अंत निकट आ गया है।अंधेरे के समर्थक रोशनी में आंखें मूंद लेते हैं। उसे लगा कि गाएं गांधारी से कुछ ज्यादा ही प्रभावित दिख रही हैं। चीतों के दलालों ने उनकी जो अहिंसक छवि जंगल में बना रखी है गाएं उसके प्रभाव में खुद का गाय होना भूल गई थीं।
चीतों का प्रचारतंत्र इतना तगड़ा था कि गंजों के मोहल्लों में कंघियों की सेल लगाते थे और सारे गंजे एक की बजाय चार चार कंघियां खरीद लेते थे।
फिर भी उसने अंतिम कोशिश की “देखो मैं फिर भी कह रहा हूं कि अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए तुम्हें चीतों से सावधान रहना चाहिए।”
“तुम हमें हमारे हाल पर छोड़ दो और अपना कांमधंधा देखो।” गायों ने एक स्वर में कहा।
यह सुनकर वह जाने के लिए मुड़ा ही था कि चीतों का एक झुंड आया और गायों के ऊपर टूट पड़ा।