हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 111 ☆ एक-एक जुड़ शक्ति बढ़ेगी ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय व्यंग्य “एक-एक जुड़ शक्ति बढ़ेगी”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 111 ☆

☆ एक-एक जुड़ शक्ति बढ़ेगी ☆ 

मैनेजमेंट के सिद्धांत देखने और सुनने में जितने सहज लगते हैं, उतने होते नहीं है। किसी को निकाल कर दूसरे को उसकी जगह दे देना जहाँ कुछ प्रश्न खड़े करता है तो वहीं लोगों में छुपी प्रतिभाओं को भी सामने लाता है। जब हम किसी के निर्देशन पर कार्य करते हैं तो ढाक के तीन पात की प्रक्रिया ही दिखाई देती है। इस सम्बंध में भगवान बुद्ध द्वारा अपने शिष्यों को सुनाई गयी ये कथा याद आती है कि नेक लोग बिखर जाएँ जिससे चारों ओर नेकी फैले जबकि दुष्ट  इसी जगह बस जाएँ जिससे कटुता चारो ओर न फैले।

वैसे भी शीर्ष मैनेजमेंट यही चाहता है कि ज्यादा बुद्धिमान दूर ही रहे ताकि कोल्हू के बैल की तरह कार्य होता रहे। खैर ये सब तो चलता रहेगा। आम सदस्य से यही अपेक्षा की जाती है कि- आओ तो वेलकम जाओ तो भीड़ कम। आना- जाना तो प्रकृति का कार्य है। मौसम की तरह रंग रूप बदलकर स्वयं को निखारते हुए स्किल पर कार्य करते रहना चाहिए। जो भी कार्य हो उसमें कोई दूसरा सानी न हो इतना अभ्यास होना चाहिए। इस सबके साथ ही एक प्रश्न और अनायास दिमाग में दस्तक देता है कि क्या कारण है जो लोग कामचोर  होते हैं उन्हें कोई क्यों नहीं हटाता?

इसका जबाव भी प्रश्नकर्ता खुद ही दे देता है कि सकारात्मक चिंतन करो, ज्यादा होशियारी मँहगी पड़ेगी। अपने काम से काम रखो। सही भी है आपको इज्जत और वेतन इसी लिए मिलता है कि कार्य पर फोकस हो न कि आने-जाने वालों पर। विस्तृत कार्यों की रूप रेखा का प्रबंधन करने हेतु सिद्धांतो का अनुसरण करना ही होगा। आप इतनी बड़ी लकीर खींचिए की लोग आपको रोल मॉडल मानकर चलें। कहते हैं एकता में बड़ी शक्ति होती है। लकड़ी के गठ्ठर को देखिए कैसे सिर पर सवारी करता हुआ एक से दूसरी जगह जाता है।

आइए एक- एक कदम बढ़ाते हुए एकजुटता के साथ चलें। साथ ही संकल्प लें कि दुनिया को श्रेष्ठ विचारों द्वारा अवश्य बदलेंगे।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 42 – प्रशिक्षण कार्यक्रम – भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक मज़ेदार व्यंग्य श्रंखला  “प्रशिक्षण कार्यक्रम…“ की अगली कड़ी ।)   

☆ व्यंग्य  # 42 – प्रशिक्षण कार्यक्रम – भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

सत्र याने सेशन जो पोस्ट का भी होता है और प्रशिक्षण कार्यक्रम का भी. इस बीच भी एक अल्पकालीन टी ब्रेक होता है जो भागार्थियों याने पार्टिसिपेंट्स को अगली क्लास के लिये ऊर्जावान बनाता है. होमोजीनियस बैच जल्दी घुल मिल जाते हैं क्योंकि उनका माईंडसेट, आयु वर्ग, अनुभव और लक्ष्य एक सा रहता है. भले ही ये लोग आगे भविष्य में पदों की अंतिम पायदान पर एक दूसरे से कट थ्रोट कंपटीशन करें पर इन सब का वर्तमान लगभग एक सा रहता है, सपने एक से रहते हैं प्लानिंग एक सी रहती है और रनिंग ट्रेक भी काफी आगे तक एक सा ही रहता है. यही बैच के साथ बहुत सी बातों का एक सा होना बाद में, कहीं आगे बढ़ जाने की संतुष्टि या पीछे रह जाने की कुंठा का जनक भी होता है. पर शुरुआत की घनिष्ठता का स्वाद ही अलग होता है जो स्कूल और कॉलेज के क्लासमेट जैसा ही अपनेपन लिए रहती है. एक ही बैच से प्रमोट हुये लोग बाद में भी विभिन्न प्रशिक्षण केंद्रों में टकराते रहते हैं पर यह टकराव ईगो का नहीं, सहज मित्रता का होता है. ये अंतरंगता, व्यक्ति से आगे बढ़कर परिवार को भी समेट लेती है जो विभिन्न पारिवारिक और सांस्कृतिक आयोजन में भी दृष्टिगोचर होती रहती है. इस सानिध्य और नज़दीकियों को उसी तरह सहज रूप से देखा जाना चाहिए जैसा विदेशों में, हमवतनों का साथ मिलने पर जनित घनिष्ठता में पाया जाता है.

दूसरे प्रशिक्षणार्थी विषम समूह के होते हैं जो विभिन्न तरह के असाइनमेंट संबंधित या कार्यक्रम संबंधित सत्र अटेंड करने आते हैं. इस बैच के आयुवर्ग की रेंज बड़ी होती है जो कभी कभी टीवी सीरियल्स के पात्रों के समान भी बन जाती है जहाँ अंकल और भतीजे एक साथ, एक ही क्लास में पढ़ते हैं. इनमें आयु, सेवाकाल, माइंडसेट, और प्रशिक्षण को सीरियसली लेने के मापदंड अलग अलग होते हैं. हर व्यक्ति अपने आपको वो दिखाने की कोशिश करता है जो अक्सर वो होता नहीं है और दूसरी तरफ पर्देदारी भी नज़र आती है. इनका मानसिक तौर पर एक होना, तराजू पर मेंढकों को तौलने के समान हो जाता है पर ये मेंढक भी मधुशाला में हिट आर्केस्ट्रा के वादक बन जाते हैं. इनकी महफिलों की तनातनी भी अगर हुई भी तो अगले दिन के लंच तक खत्म हो जाती है क्योंकि तलबगार तो सीमित ही रहते हैं जिनकी सहभागिता शाम को ज़रूरी बन जाती है. इनके पास खुद के किस्से भी इतने रहते हैं कि सभासदों को इनकी संगत की आदत पड़ जाती है. जब कोई एक, महफिलों में अपने बॉस की बधिया उधेड़ रहा होता है तो श्रोताओ को उसमें अपना बॉस नज़र आने लगता है और “ताल से ताल मिला” गाना चलने लगता है.

अब तो वाट्सएप का दौर है वरना प्रशिक्षण कार्यक्रमों में व्यक्ति कुछ पाये या न पाये, उसके पास जोक्स का स्टाक जरूर बढ़ जाता था. कुछ कौशल सुनाने वालों का भी रहता था कि इनकी चौपाल हमेशा खिलखिलाहटों से गुलज़ार रहती थीं. अपनी दिलकश स्टाइल में हर तरह के जोक्स सुनाने वाले ये कलाकार धीरे धीरे विशेष सम्मान के पात्र बन जाते थे और इनके साथ कभी कभी एक बार भी प्रशिक्षण पाने वाले हमेशा इनको याद रखते थे.

प्रारंभिक दो सत्र के बाद एक घंटे का लंच अवर होता था जो पूरे बैच को 1947 के समान दो भाग में विभाजित कर देता था. पर ये विभाजन धर्म के आधार पर नहीं बल्कि आहार के आधार पर होता था सामिष और निरामिष याने वेज़ और नॉन वेज़. पहले ये सुविधा रात्रिकालीन होती थी पर केंद्र में कुछ अनुशासन भंग की घटनाओं के कारण मध्याह्न में उपलब्ध कराई जाने लगी. पर यह बात ध्यान से हट गई कि नॉनवेज आहार के बाद नींद के झोंके अधिक तेज़ गति से आते हैं.

पोस्ट लंच सेशन सबसे खतरनाक सेशन होता है जब सुनाने वालोँ और सुनने वालों के बीच ज्ञान की देवी सरस्वती से ज्यादा निद्रा देवी प्रभावी होती हैं. ये सुनाने वालों के कौशल की भी परीक्षा होती है जब उन्हेँ सुनाने के साथ साथ जगाने वालों का दायित्व भी वहन करना पड़ता है. वैसे यह भी एक शोध का विषय हो सकता है कि सुनाने वालों को क्या नींद परेशान नहीं करती. जितनी अच्छी नींद का आना इस सत्र में पाया जाता है, रिटायरमेंट के बाद व्यक्ति बस वैसी ही नींद की चाहत करता है. जब आपकी यात्रा में लेटने की सुविधा न हो तब भी यही नींद कमबख्त, अपना रोद्र रूप दिखाती है. प्रशिक्षक की निष्ठुरता यहीं पर दिखाईवान होती है. “अरे सर, कौन सा इनको याद रहता है जो आप इनकी अर्धनिद्रा में सुनाने की कोशिश करते हैं”. इनको तो आगे जाकर सब भूल ही जाना है. प्रशिक्षु सब भूल जाता है पर ये पोस्ट लंच सेशन हमेशा उसकी यादों में जागते रहते हैं. कुछ महात्मा, फोटोसन ग्लास पहन कर भी क्लास अटैंड करके नींद का मजा लेना शुरु करते थे पर खर्राटे सब भेद खोल देते हैं. अनुभवी पढ़ाने वाले गर्दन के एंगल और शरीर के हिलने डुलने से भी समझ जाते हैं कि विद्यार्थी, ज्ञानार्जन की उपेक्षा कर निद्रावस्था की ओर बढ़ने वाला है तो वे उसे आगे बढ़ने से किसी न किसी तरह रोक ही लेते हैं.

प्रशिक्षण सत्र जारी रहेगा, अतःपढ़कर सोने से पहले लाईक और/या कमेंट्स करना ज़रूरी है.

क्रमशः…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #151 ☆ व्यंग्य – ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य नार्सिसस की सन्तानें। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 151 ☆

☆ व्यंग्य – नार्सिसस की सन्तानें

ग्रीक मिथकों में नार्सिसस नामक चरित्र की कथा मिलती है जो इतना रूपवान था कि अपने ही रूप पर मुग्ध हो गया था।पानी में अपना प्रतिविम्ब देखते देखते वह डूब कर मर गया था और एक फूल में परिवर्तित हो गया था।इसीलिए आत्ममुग्धता की प्रवृत्ति को ‘नार्सिसस कांप्लेक्स’ कहा जाता है।आज की दुनिया में भी ऐसे चरित्र बहुतायत में मिल जाते हैं।

मैं उस नये शहर में बड़ी उत्कंठा से उनसे मिलने गया था। बड़ी देर तक उनका घर ढूँढ़ता रहा। जब घर के सामने पहुँचा तो देखा, वे किसी अतिथि को छोड़ने के लिए सीढ़ियाँ उतर रहे थे। उन्हें मैंने बड़ी गर्मजोशी से नमस्कार किया, लेकिन उत्तर में उन्होंने जैसा ठंडा नमस्कार मेरी तरफ फेंका उसे पाकर मैं सोचने लगा कि मैं इनसे सचमुच डेढ़ साल बाद मिल रहा हूँ या अभी थोड़ी देर पहले ही मिलकर गया हूँ। मेरा सारा जोश बैठ गया।

मैं सीढ़ियों पर खड़ा रहा और वे आराम से अतिथि को विदा देते रहे। लौटे तो उसी ठंडक से बोले, ‘आइए।’

सीढ़ियाँ चढ़ते चढ़ते मैंने उनसे क्षमा याचना की- ‘आया तो तीन दिन पहले था लेकिन दम मारने को फुरसत नहीं मिली। इसीलिए आपसे नहीं मिल पाया।’

वे बोले, ‘फुरसत तो मुझे भी बिलकुल नहीं है।’

कमरे में घुसे तो देखा दो विद्यार्थीनुमा लड़के परीक्षा की उत्तर पुस्तिकाओं का ढेर सामने रखे टोटल कर रहे थे। मित्र बोले, ‘कानपुर यूनिवर्सिटी की कॉपियाँ हैं। आज रात भर जाग कर इन्हें जाँचा है। टोटल करने के लिए इन विद्यार्थियों को बुला लिया है।’ वे दोनों शिष्य पूरी निष्ठा से काम में लगे थे।

मेरा और उनका परिचय दस बारह वर्ष पुराना था। लगभग आठ वर्ष पहले उन्होंने नौकरी लग जाने के कारण मेरा शहर छोड़ दिया था। तब से उनके दंभी और अहंकारी होने के चर्चे सुने थे, लेकिन खुद अनुभव करने का यह पहला मौका था। बीच में एक दो बार उनसे मुलाकात हुई थी लेकिन संक्षिप्त मुलाकात में उनमें हुए परिवर्तन का अधिक आभास नहीं हुआ था।

मैं सोच रहा था कि उनसे उनके परिवार की कुशल-क्षेम पूछूँ कि वे उठकर दोनों हाथ अपनी कमर पर रख कर मेरे सामने खड़े हो गये। मेरे चेहरे पर गर्वपूर्ण निगाहें जमा कर बोले, ‘जानते हो, आजकल मैं अपने कॉलेज में सबसे महत्वपूर्ण आदमी हूँ। यों समझो कि प्राचार्य का दाहिना हाथ हूँ। मुझसे पूछे बिना प्राचार्य कोई काम नहीं करते।’

वे कमरे में उचकते हुए आत्मलीन टहलने लगे। टहलते टहलते भी उनका भाषण जारी था, ‘प्राचार्य का मुझ पर पक्का विश्वास है। वे अपनी परीक्षा की कॉपियां जाँच कर छोड़ देते हैं। बाकी टोटल से लेकर डिस्पैच तक का पूरा काम मेरे भरोसे छोड़ देते हैं।’

उनकी गर्दन गर्व से तनी हुई थी। मुझे उनकी बात पर हँसी आयी, लेकिन मैंने उसे घोंट दिया। प्राचार्य की चमचागीरी करने के बाद भी वह बड़े गर्वित थे।

वे पूर्ववत उचकते हुए, कमर पर हाथ रखे टहल रहे थे। फिर बोलने लगे, ‘जानते हो, जो आदमी महत्वपूर्ण हो जाता है उसके दस दुश्मन हो जाते हैं। कॉलेज में मेरे महत्व के कारण सब मुझसे जलते हैं। कोई दिन ऐसा नहीं जाता जिस दिन मेरी किसी से झड़प नहीं होती। साले मुझे प्रिंसिपल का चमचा कहते हैं, लेकिन मेरे ठेंगे से।’

उन्होंने अपना दाहिना अँगूठा उठाकर मुझे दिखाया। मैं उनसे कुछ पारिवारिक बातें शुरू करने के लिए कोई सूराख़ ढूँढ़ रहा था लेकिन वे मुझे सूराख़ नहीं मिलने दे रहे थे।

वे फिर बोलने लगे, ‘बात यह है कि मैं पीएचडी नहीं हूँ और बहुत से गधे पीएचडी हैं। लेकिन पीएचडी से क्या होता है? विद्वत्ता में मेरी बराबरी का कोई नहीं है।’ वे अपनी छाती ठोकने लगे।

चलते चलते वे शीशे के सामने रुक गये और मुँह को टेढ़ा-मेढ़ा करके अपनी छवि निहारने लगे। वहीं से बोले, ‘विद्यार्थी सब मेरे नाम से थर्राते हैं। एक दो की तो पिटाई भी कर चुका हूँ। बहुत हंगामा हुआ लेकिन मेरा कुछ नहीं बिगड़ा। अन्त में जब वे लड़के मेरी शरण में आये तभी पास वास हुए, नहीं तो सब लटक गये थे।’

वे फिर टहलने लगे। साथ ही बाँहें झटकते हुए बोले, ‘बड़ी व्यस्तता है। दुनिया भर की यूनिवर्सिटियों की कॉपियाँ आती हैं। यहाँ रोज आदिवासी हॉस्टल में लेक्चर देना पड़ता है। पैसा तो मिलता है लेकिन साँस लेने की फुरसत नहीं मिलती।’

फिर मुझसे मुखातिब हुए। हँस कर बोले, ‘यहाँ के लोग मुझे बहुत पैसे वाला समझते हैं। यहाँ जो सामने टाल वाला है वह कहता है साझे में बिज़नेस कर लो, लेकिन मैं इस लफड़े में फँसने वाले नहीं।’

वे मुझे बातचीत में घुसने के लिए कहीं संधि नहीं दे रहे थे। अब तक मुझे लगने लगा था जैसे मैं किसी गैस चेंबर में फँस गया हूँ। लगता था जैसे सब तरफ से ‘मैं मैं मैं मैं’ की ध्वनियाँ आ रही हों। लगा, ज़्यादा समय तक यहाँ रहा तो पागल हो जाऊँगा।

मैंने घड़ी देखकर चौंकने का अभिनय किया, कहा, ‘अरे बातों में भूल ही गया। अभी वापस पहुँचना है।’

वे अपनी दुनिया से मेरी तरफ लौटे। बोले, ‘रुकिए, आपको पान खिलाऊँगा।’ उन्होंने एक विद्यार्थी से कहा, ‘जा नीचे से पान ले आ।’

वह उपेक्षा से बोला, ‘जरा काम खत्म कर लूँ, तब लाता हूँ।’ वे अवाक हुए।

मैंने उन्हें रोका, कहा, ‘चलिए, नीचे ही खा लेंगे।’

उनके साथ नीचे उतरा। जब नीचे की खुली हवा लगी तब दिमाग कुछ शान्त हुआ, नहीं तो दिमाग में घन बज रहे थे।

पान खाने के बाद उन्होंने कुछ बोलने के लिए मुँह खोला ही था कि मैं लपक कर एक रिक्शे पर बैठ गया और रिक्शेवाले से कहा, ‘जल्दी चलो।’

जब रिक्शा करीब दस कदम चल चुका तो एकाएक वे पीछे से चिल्लाये,  ‘आपने अपने बारे में तो कुछ बताया नहीं। आप कैसे हो?’     

मैंने गर्दन निकाल कर जवाब दिया, ‘अभी तक तो ज़िन्दा हूँ।’

वे इसे मज़ाक समझ कर ज़ोर से हँस दिये।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ पहला पोपट! ☆ श्री केशव राजेंद्र प्रसाद शुक्ल ☆

श्री केशव राजेंद्र प्रसाद शुक्ल

(युवा साहित्यकार श्री केशव राजेंद्र प्रसाद शुक्ल जी लखनऊमें पले बढ़े और अब पुणे में सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं। आपको बचपन से ही हिंदी और अंग्रेजी कविताएं लिखने का शौक है। आज प्रस्तुत है आपका एक मजेदार व्यंग्य पहला पोपट!)

 ☆ व्यंग्य ☆ पहला पोपट! ☆ श्री केशव राजेंद्र प्रसाद शुक्ल ☆

बात उन दिनों की है जब हम नये-नये पुणे शहर में आये थे, उम्र भी उतनी थी की अधिक जानकारी नहीं थी और न ज़रुरत।

नौकरी महाराष्ट्र में लगी थी तो  मराठी भाषा से दो-चार होना भी स्वाभाविक था। एक बार यूँ ही बातों बातों में एक मित्र ने कहा कि “बहुत पोपट हो गया”, और उत्सुकता वश हमने पूछा कि यह क्या होता है?  समय के आभाव के कारण मित्र ने कहा की बाद में बताएंगे। और फिर सभी इस बात को भूल गए।

एक बार येरवड़ा से पुणे स्टेशन जाने के लिए बस में चढ़े ! हमेशा की तरह बहुत भीड़ थी, पर कुछ ऊपरवाले का आशीर्वाद और कुछ शरीर का लचीलापन कि हमें सीट मिल गई।

जो पुणे नहीं आते जाते उनको बता दूँ कि, बस की सीट मिलना,  लोकसभा की सीट मिलने जितना मुश्किल नहीं होता, न ही शादीशुदा पुरुष को अपने ही घर में टीवी का रिमोट मिलने जितना मुश्किल होता है। पर अपने आप में एक छोटी मोटी उपलब्धि के रूप में तो गिना ही जा सकता है। पर कामयाबी पा लेना एक बात होती है, और उसपे टिके रहना दूसरी। ठीक अगला स्टॉप आते ही एक वृद्धा बस में चढ़ी और नैतिकता के कारण हमने अपनी सीट उनको दे दी।

आगे का वाकया सुनाने से पहले एक और जानकारी देना चाहते हैं। जब बात मराठी की आती है तो उन दिनों हमे मराठी का सिर्फ एक वाक्य ही आता था :

“मला मराठी येत नाही”।

महिला ने सीट मिलने की ख़ुशी में हमे मराठी में धन्यवाद दिया, हमने भी मुस्कुरा के स्वीकार कर लिया। अभी एक मिनट भी नहीं गुज़रा था कि उन्होंने फिर से हमारी ओर देख कर कुछ मराठी में कहा, न समझ में आने पर भी हमने हाँ की मुद्रा में सर हिला दिया। ऐसे ही दो स्टॉप और गुज़र गए परन्तु वह मेरी ओर देख कुछ न कुछ मराठी में कहती रही।

बस आगे बढ़ी और कुछ जगह होने पर मैंने एक दूसरी सीट लपक ली, परन्तु लपकने में अधिक फुर्ती न दिखा पाने के कारण विन्डो सीट जाती रही। उस पर एक युवती बैठ गई। मुझे लगता है अलग से बताने की कोई आवश्यकता नहीं है कि विंडो सीट, आम सीट मिलने से बड़ी उपलब्धि है। परंतु इससे पहले कि हम अपनी छोटी सी हार का शोक मना पाते, वृद्धा ने फिर से हमारी ओर देखा और मराठी में एक और गद्यांश सा पढ़ दिया।  इस बार हमसे रहा न गया, और मित्रो द्वारा सिखाया मंत्र हमने पढ़ दिया :-

“मला मराठी येत नाही।”

वे बड़ी ज़ोर से हसीं और उन्होंने हिंदी में कहा, “आप के बगल में मेरी बेटी बैठी है मैं उससे बात कर रही हूँ।”

मुझे लगा कि शायद पहले भी उनकी बेटी मेरे बगल में ही खड़ी थी। मजे की बात है कि  उसने अपनी माँ की किसी बात का कोई ज़वाब नहीं दिया। पर बस में किसी को सफाई देने से कोई फायदा नहीं होने वाला था,  हमारा मज़ाक तो उड़ चुका था।

राहत की बात यह थी कि अगला स्टॉप पुणे स्टेशन आ चूका था, और अजीब स्थिति से बचने के लिए हमने भी भागने में कोई देरी न दिखाई।

बाद में मराठी के जानकार मित्र ने बताया कि इसी को “पोपट होना” कहते हैं।

© केशव राजेंद्र प्रसाद शुक्ल

पुणे मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 110 ☆ आरोप – प्रत्यारोप ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय व्यंग्य “आरोप – प्रत्यारोप”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 110 ☆

☆ आरोप – प्रत्यारोप ☆ 

बात तू तू –  मैं मैं से शुरू होकर इतनी बढ़ जाएगी कि  सावन की झड़ी को नकारते हुए आरोपों की झड़ी आगे बढ़कर शीर्ष पर विराजित होने की ओर सबकी सलाह को एक तरफ रख अपनी बुद्धि का प्रयोग करने से नहीं चूकेगी। सारे ताम- झाम लगाकर कुछ सीटें हासिल की थीं किन्तु उसमें भी लोगों की नजर लग गयी। कोई यहाँ कोई वहाँ जाने में पूरे 5 वर्ष व्यतीत कर देता है। मजे की बात जब जनता की अदालत में पहुँचते हैं तो फिर से मासूमियत का दिखावा  काम कर जाता है। कोई भी दल हो जीतते व्यक्ति के कर्म हैं। लोगों ने तो जैसे नेताओं के लिए अघोषित पात्रता निर्धारित कर दी है। कहीं भी रहें जीतेगा तो वही जो पूरे दमखम से अपनी बात नजर मिलाकर रखेगा।

नजर क्या केवल लगने और उतारने के लिए होती है। इसी के बल पर लोगों को बिना कुछ बोले डराया व धमकाया भी जा सकता है। एक सीट वाला व्यक्ति भी उपयोगी होता है , उसे अपनी ओर करने के लिए अनवरत कोशिशें होती रहती है। खींच- तान के बीच झूलते प्रशासकीय अधिकारी भी अपने दल का चुनाव कर ही लेते हैं। आखिर सच्चे लोकतंत्र की परिभाषा इन्हीं बदलते रिश्तों पर ही टिकी होती है।

इन सबमें मतदाताओं की भूमिका  क्या होनी चाहिए इस पर कोई प्रश्न चिन्ह नहीं लगाता क्योंकि उन्हें मालूम है कि सब कुछ प्रायोजित है बस मेहनत  तो करनी पड़ेगी। वैसे भी गीता का ज्ञान यही कहता है – कर्म किए जा फल की इच्छा मत कर ए  इंसान।

एक प्रश्न और मन में कौंधता है कि जिस दल का घोषणा पत्र लेकर आए हैं क्या पूरे 5 वर्ष उसी पर अमल करेंगे या जिसके विरोध में उतरे थे उसी का हाथ पकड़  अपने उसूलों को स्वयं ध्वस्त करेंगे।

सारा समय डिजिटल प्लेटफार्म पर बिताने के साथ- साथ अच्छी खासी फैन फॉलोइंग   भी बना लेते हैं जिससे जरूरत पड़ने पर ट्विटर व इंस्टाग्राम पर समय व्यतीत कर सकें। आजकल मन की बातें करने का सबसे सशक्त माध्यम यही है। सारे सवाल- जबाव यहीं करते हुए समस्याओं को बढ़ाना- घटाना, जोड़ना, तोड़ना , मोड़ना यही करते रहते हैं।

कोई कुछ भी कहे बस कुर्सी के किस्से अपने हिस्से हो जाए, यही मूल मंत्र होता है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 42 – प्रशिक्षण कार्यक्रम – भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव  ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक मज़ेदार व्यंग्य श्रंखला  “प्रशिक्षण कार्यक्रम…“ की प्रथम कड़ी ।)   

☆ व्यंग्य  # 42 – प्रशिक्षण कार्यक्रम – भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

ये भी बैंकों की सामान्य प्रक्रिया का ही अंग है जो अपने स्टाफ को अद्यतन करने या फिर विशेष असाइनमेंट के लिये तैयार करने के लिए दिया जाता है.अक्सर इसका प्रभाव कोविड वेक्सीन के समान ही होता है याने जो सावधानियां वेक्सीनेशन के पहले ली जाती आई हैं, वही वैक्सीनेशन के बाद भी ली जानी है. आत्मा वही रहती है अर्थात आत्मा में परिवर्तन होता नहीं है चाहे प्रशिक्षार्थी कोई भी रहे, पर प्रशिक्षण फिर भी आवश्यक है जैसे बी.ए.की डिग्री पाना. होता जाता कुछ नहीं है पर आप मोहल्ले में बता सकते हो क्योंकि लोगों के जीवन में हास्यरस हमेशा महत्वपूर्ण है.

व्यक्तिगत रूप से इसके ज्ञान पाने के अलावा भी बहुत फायदे हैं. इस अवधि में शाखा या कार्यालय के काम से छुट्टी मिल जाती है. जो छड़े हैं या कुंवारे हैं, उन्हें खाने की और स्वाद की चिंता से मुक्ति मिल जाती है. जो विवाहित हैं, वे “नून तेल लकड़ी” के गृहस्थ जीवन से पीरियाडिक राहत पा लेते हैं. पति पत्नी के संबंधों में यह प्रशिक्षण रूपी विरह काल, माधुर्य उत्पन्न कर देता है. फरमाइशें विलंबित हो जाती हैं और सिर्फ ये गाना “तुम लौट के आ जाना, पिया याद रखोगे कि भूल जाओगे” सुनाई देता है. पर याद रखें कि कवि के लिखे इस गीत पर आंख बंद कर विश्वास मंहगा पड़ सकता है. ये गीत फिल्मों के लिये लिखा गया था जहाँ गीतकार, गायक, संगीतकार और हीरो हीरोइन सब बाकायदा पेमेंट लेकर ऐसा अभिनय कर रहे थे. अगर सिकंदर के समान खाली हाथ लौटे तो घर पर खाना “कपूर एंड संस इंदौर वाले” नहीं बनाने वाले. जो कुंवारे प्रशिक्षु होते हैं, हो सकता है वे अपनी प्रेमिका या मंगेतर के लिये मंहगी गिफ्ट ले जाने की चाहत रखें पर बैंक खुले हाथ खर्च करने लायक वेतन देती नहीं हैं. फिर रात्रिकालीन प्रि-डिनर सेशन का भी तो देखना पड़ता है.

सुबह की बेड टी से, प्रशिक्षण केंद्र का बंदा जब जगाता है तो मीठे सपने अपना विराम पाते हैं और अच्छे अच्छे गुड बॉय भी बेड टी जरूर पीते हैं. सबसे शानदार ब्रेकफास्ट का सेशन रहता है जब लोग सुबह की असली शुरुआत करते हैं, एक दूसरे से हल्का फुल्का परिचय प्राप्त करते हैं और डायनिंग टेबल पर पूरी सजगता और क्षमता से वो सब हासिल करते हैं जो बैंक की रुटीन लाइफ में सौ प्रतिशत संभव नहीं हो पाता. सामान्यतः नुक्स निकालने लायक कुछ होता नहीं है पर फिर भी कुछ आ ही जाते हैं जो ब्रेड, ऑमलेट और शाकाहारी आइटम में कुछ ढूंढ ही लेते हैं, कुछ तो फलों में भी पर केंटीन के बंदे पक्के अनुभवी होते हैं तो वो बड़ी कुशलता से ऐसी स्थितियां हेंडल कर लेते हैं. चाय और कॉफी दोनों का ऑप्शन होता है याने टेबल पर मौजूद रहते हैं. पर चाय पीने के बाद अगर पसंद न आये तो कॉफी भी बेधड़क पी जा सकती है और अगर कॉफी कड़वी लगे तो टेस्ट सुधारने के लिये फिर से चाय का सहारा लेने से रोकता कौन है. ब्रेकफास्ट की टेबल तक पहुंचने के लिये पंक्चुअल होना बहुत जरूरी है वरना लेट होने पर “खाली खाली तंबू है, खाली खाली डेरा है, बिना चिड़िया का बसेरा है, न तेरा है न मेरा है” याने बाजार खाली भी मिल सकता है. अगला भोजन रूपी स्टेशन का दो बजे के पहले नहीं आता और इस अवधि में क्लास भी तो अटैंड करनी है जो शाखा जाने से भी ज्यादा अनिवार्य होती है.

प्रशिक्षण का पहला सत्र, औपचारिक परिचय का सत्र होता है. सेवाकाल के प्रथम प्रशिक्षण काल में अधिकतर तो लोग अनजाने होते हैं पर हर प्रशिक्षण में कुछ बहुत अच्छे मित्र बन जाते हैं जो कि एक महत्वपूर्ण उपलब्धि कही जा सकती है. ये मित्रता के संबंध प्रायः दीर्घकालिक होते हैं और बहुत सी स्मृतियों का खजाना भी समेटे रहते हैं. क्लास में प्रवेश के बाद स्थान ग्रहण करने के लिये पंक्ति याने लाइन का चयन और समीप बैठने वाले सहपाठी से अभिन्नता बहुत कुछ पर्सनैलिटी टेस्ट भी होती है. जो सबसे अगली कतारों में बैठते हैं, वो स्कूल कॉलेज का माइंडसेट ही लेकर बैठते हैं, कुछ अनुभवी इसलिए भी बैठते हैं कि दिया तले अंधेरा हमेशा होता है तो पढाने वाले सर की नज़रों से बचा जा सकता है. वैसे नींद आने पर इंक्रिमेंट रुकने या जवाब देने की बाध्यता नहीं होती पर आखिर संस्कार भी कुछ होते हैं जो मिडिल आर्डर में बैठते हैं, वो प्रायः हर जगह बैक बोन ही होते हैं और ओपनर्स के जल्दी आउट होने पर पारी संभालने जैसा रोल भी शाखाओं और कार्यालयों में करते हैं. जब मधुशाला रूपी पार्टियों में कोई ऑउट होने लगता है तो उसे भी यही संभालते हैं. लॉस्ट बट नाट दी लीस्ट टाइप वाले बैठते तो अंतिम कतारों में हैं पर कमजोर नहीं  “बड़े वो” वाले होते हैं पीछे डबल क्लास चलती है, एक तो वो जो प्रशिक्षक पढ़ा रहे हैं और दूसरी वो जो ये खुद चलाते हैं याने एक दूसरे को पढाते हैं. इन लोगों के पास मजे लेने का रेगुलेटर होता है अर्थात इनके रिवाल्वरों में साइलेंसर लगे होते हैं. यहां जो इन बैक बैंचर्स का सानिध्य पाता है ,वह बैंकिंग के अलावा दुनियादारी भी सीखता है. ये बैक बेंचर्स, दर असल बैंचमार्क होते हैं जो मल्टी टास्किंग के बंदे तैयार करते हैं. इनसे प्रशिक्षण प्राप्त बंदे शाखा प्रबंधक बनने पर कस्टमर, स्टाफ और हेडऑफिस सबको बड़ी कुशलतापूर्वक हैंडल करते हैं.

प्रशिक्षण काल का पहला दिन पहला सत्र है, आगे भी प्रशिक्षण जारी रहेगा. उद्देश्य सिर्फ मनोरंजन है, आगे भी रहेगा अतः दिल पर न लें.

क्रमशः…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 29 ☆ इस अंजुमन में आपको आना है बारबार…  ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  “इस अंजुमन में आपको आना है बारबार… ”।) 

☆ शेष कुशल # 29 ☆

☆ व्यंग्य – “इस अंजुमन में आपको आना है बारबार… ” – शांतिलाल जैन ☆ 

किसी भी अस्पताल में सबसे कठिन समय वो नहीं होता जब आप दर्द से बेपनाह कराह रहे होते हैं, वो होता जो डॉक्सा द्वारा छुट्टी कर देने का निर्णय दिए जाने और फायनली डिस्चार्ज टिकट हाथ में आ जाने के बीच गुजरता है. जमानत हो जाती है, ऑर्डर की कॉपी जेल अधिकारी तक नहीं पहुंच पाती. छुट्टी हो जाती है डिस्चार्ज टिकट बिलिंग काउंटर तक नहीं पहुंच पाता. अस्पताल के गेट की मजबूती जेल-गेट से कम नहीं होती श्रीमान. आप समय से बाहर आ सकें के प्रयास में आपका अटेंडेंट बदहवास काउन्टर-दर-काउन्टर भटकता है और आप हाथ पर लगे कैनुला को बेबसी से देखते हुए हर थोड़ी देर में पत्नी को फोन पर बताते हो बस कुछ ही देर में घर पहुँच जाएंगे, खाना मत भेजना. ‘कुछ देर’ का मतलब मिनिमम साढ़े छह घंटे तो होता ही है.

ताज़ा हादसा अपन के साथ हुआ. दादू आठ दिन से अस्पताल में भर्ती था और अपन उसकी तीमारदारी में लगे थे. राउंड पर आए डॉक्सा ने सुबह नौ बजकर तेरह मिनिट पर लंबे लंबे चार्ट पर निगाह मार कर, नर्स से चाइनीज लेंग्वेज़ में कुछ पूछा. नर्स ने मंगोलियन भाषा में जवाब दिया. मुझे पक्का यकीन है कि डॉक्सा ने जो कहा वो नर्स नहीं समझी और नर्स के कहे को समझने की जरूरत डॉक्सा ने नहीं समझी. जो भी हुआ, डॉक्सा ने कहा – ‘आज आपकी छुट्टी कर देते हैं’. अंधा क्या चाहे श्रीमान – दो आँखें. दादू का बस चलता तो वो सीढ़ी से उतरने का धैर्य भी नहीं रखता, खिड़की से कूद कर घर चला जाता. फिलवक्त दादू सातवें आसमान पर था और अपन उसके साथ थे. फौरन से पेश्तर बेटे को मोबाइल पर कहा कि वो कार लेकर हमको लिवाने आ जाए. सामान भी रहेगा चद्दर, पतीली, चम्मच, बची दवाईयां, सक्कर की पुड़िया, बिस्कुट का पूड़ा और आधी घिसी हुई साबुन की बट्टी. दस हज़ार रुपयों के खून से सराबोर दो जंगी काली डरावनी एमआरआई की तस्वीरें, धमनियों और किडनियों से बहे अलग अलग द्रवों की जांच रिपोर्टें. 

नादां थे हम जो पंद्रह मिनट में अस्पताल छोड़ देने की उम्मीद पाल बैठे थे. अभी तो दास्तां-ए-डिस्चार्ज शुरू हुई थी, कुछेक ट्रेजिक मोड आने बाकी थे. साढ़े ग्यारह बज चुके थे और डिस्चार्ज किए जाने का आदेश उसी फ्लोर के नर्सिंग स्टेशन तक भी पहुंचा नहीं था. दादू सातवें से उतरकर पांचवें आसमान पर आ गया था. मैं नर्सिंग स्टेशन पर खड़ा था और वे मेरी तरफ देख भी नहीं रही थीं. इन आठ दिनों में ही मैंने जाना कि आँकड़े भरने, रिकार्ड रखने और उसी में तल्लीन रहने में हमारे अस्पतालों ने भारतीय सांख्यिकीय संस्थान से बाज़ी कैसे मार ली है. जब जब मैं नर्स को बुलाने जाता वे मरीजों की फ़ाईल्स में शरीर का तापमान, खून का दबाव, शकर की मात्रा और यूरिन का आऊटपुट जैसी जानकारी दर्ज़ करने में इस कदर तल्लीन होती कि मुझे चाबी से काउन्टर का टॉप पर तीन बार खट-खट करना पड़ता. जीडीपी और मुद्रास्फीति के आंकड़ों को दर्ज़ करनेवाले अर्थशास्त्रियों को नर्सिंग स्टॉफ से सीखना चाहिए – डाटाशीट कैसे फ़िल-अप की जाती है. नर्सें सुनिश्चित करतीं कि मरीज को इंजेक्शन लगे न लगे उसके लगाए जाने की इंट्री चार्ट में जरूर हो. वहाँ खड़े एक जूनियर डॉक्टर ने पुष्टि की – यस इनको डिस्चार्ज देना है. कहा– आप अपने रूम में बैठिए हम पर्चा डॉक्सा से साईन करवाके काउन्टर पर भिजवाते हैं. और डॉक्सा ? वो अब तक ओटी में प्रवेश कर गए थे. वहाँ से बाहर कब निकलेंगे ये नजूमी का तोता ही बता सकता था जो आज अस्पताल के बाहर फुटपाथ पर बैठा नहीं था. दादू पाँचवे से तीसरे आसमान पर उतर आया.

इस बीच एक सफाईकर्मी महिला ने रोजाना से बेहतर पोंछा मारा. मुंह में अतिरिक्त मिश्री घोलकर पूछा – ‘बाबूजी छुट्टी हो गई आपकी.’ उसने बताया कि उसकी शिफ्ट खत्म होने वाली है और वो घर जानेवाली है. शेष दादू की समझ पर छोड़ा गया कि वो अपनी जेब से आरबीआई गवर्नर का हस्ताक्षर किया हुआ वो पत्र उसे सौंप दे जिस पर लिखा हो ‘मैं धारक को पचास रूपये अदा करने का वचन देता हूँ’. पेमेंट सक्सेसफुल का मेसेज रिसीव्ड हुआ.

दादू के हाथ में कैनुला उसके अस्पताल का बंदी होने की पहचान थी जिससे वो जल्द से जल्द छुटकारा पाना चाहता था. चेची विवश थी, कैनुला हटाने का ग्रीन सिग्नल उसे अभी मिला नहीं था. दादू कभी कैनुला की टोपी घुमाता कभी उसके बाहर निकल आए खून की बूंदों से चिंतित होता. उसके आसपास का हिस्सा सूज़ गया था. वो दिल बार बार खड़ा करने की कोशिश करता जो बार बार बैठा जा रहा था. पथराई आँखों से कभी घड़ी की ओर देखता कभी छत के पंखे को. जेल होती तो सुरंग खोदकर भागा जा सकता था, कमरा नंबर 407 से फरार होने की गेल न थी. न ही बेडशीट पंखे में बांधकर आत्महत्या कर लेने कोई गुंजाईश थी.

पैथ-लैब, कैथ-लैब, पल्मोनरी, एक्स-रे विभाग, मेडिकल शॉप, केंटीन का मेरी-गो राउन्ड झूला था जिसमें नो-ड्यूज पाने की गरज से मैं गोल-गोल घूमता रहा. मेन गेट में घुसते ही बायीं ओर बने मंदिर में से गणेशजी मुझे कभी अनुनय, कभी गुस्सा, कभी खीज, तो कभी शब्दशः बाल नोचते हुवे देखते रहे मगर कुछ कर न सके. वे मरीजों को शीघ्र स्वस्थ होने का आशीर्वाद तो दे पा रहे थे मगर स्टॉफ से इफिशियंसी से काम करवा पाना उनके भी बस का नहीं था. मैंने पूछा – प्रभु, कैशलेस होने का मतलब सिर के केश का लेस होते जाना तो नहीं होता ना!! प्रभु इस पर तो चुप्पी साध गए लेकिन उन्होने मुझे धीरे से समझाया कि यहाँ उनकी टेरेटरी मंदिर तक ही सीमित है – शेष पूरे परिसर में केवल आदरणीया लक्ष्मीजी का ही आदेश चलता है.

अस्पताल की पूरी कोशिश थी कि ओरिजिनल मरीज भले ही डिस्चार्ज होकर घर चला जाए मगर उसके अटेंडेंट को वे हायपर टेंशन, एङ्क्साईटी, उच्च रक्तचाप के केस में रोक कर एडमिट कर सकें. हमारा वार्ड चौथी मंज़िल पर था, बिलिंग काउंटर धरातल पर. और लिफ्ट ? केवल मरीजों और डॉक्टरों के लिए थी. ऊपर नीचे होने में सांस फूल जाती, धड़कने असामान्य आवाज़ करने लगती, बीपी बढ़ने लगता, घुटने पिराने लगते थे. तीन बार मैं बिलिंग काउन्टर पर क्लियर करके आया था कि हमारा कैशलेस तो है ही, बीस हज़ार एक्सट्रा जमा है. हर बार काउन्टर पर कोई नया शख्स होता हर बार मैं उसे पूरी रामायण सुनाता. आखिरी में वो मुझसे पूछता सीता राम की कौन थी ?

दादू अंतिम ढाई आसमान भी नीचे उतर आया. उसकी पॉज़िटिविटी ही उसे बचाए हुवे थी. सिस्टम की बेदिली में भी उसने कुछ पॉज़िटिव खोज लिया था. उसने बताया कि दूसरी विंग में आज सुबह मृत घोषित किए गए आत्मारामजी सहगल जीवित हो उठे हैं. पहचान की गफलत में यमदूत से  आत्मा ले जाने में मिस्टेक हो गई थी. चित्रगुप्त के पॉइंट-आउट करते ही यमदूत जब वापस लौटा तो पाया कि सर्टिफिकेट जारी किए जाने में हो रही देरी से डेड-बॉडी अभी तक अस्पताल में ही पड़ी है. उसने राहत की सांस ली और सहगल साहब की आत्मा फिर से उसी शरीर में रोपकर चला गया.

बहरहाल, हमारे पुण्य कर्म का उदय हुआ. अभी शाम के पाँच बजने में दस मिनिट कम हैं. कैनुला निकाल दिया गया है. जो सुबह सातवें आसमान पर थे अब सड़क पर हैं. हमसे ज्यादा समझदार तो बेटा निकला. सुबह ही उसने कह दिया था – पापा आप तो ओला कर लेना या ऑटो ले लेना. ऑफिस से उसकी एक दिन की छुट्टी बच जो गई है.

और आप श्रीमान ! दास्तां-ए-डिस्चार्ज पूरी हुई मानकर मत चलिएगा… आनेवाले सप्ताहों में कई चक्कर लगाने पड़ेंगे – कुछ जाँचे बाहर भेजी हैं उनकी रिपोर्ट आनी बाकी है, पक्का बिल लेना है, सील लगवाना है, क्लेम फॉर्म में निकली क्वेरीज के जवाब लिखवाना है. सो शेष कथा फिर कभी…

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 147 ☆ चौपाल चर्चा – “साइकिल के बहाने”☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  – चौपाल चर्चा – “साइकिल के बहाने”)  

☆ व्यंग्य # 147 ☆ चौपाल चर्चा – “साइकिल के बहाने” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हमारी चौपाल चर्चा के फूफा ने जब से  सेकेंड हैंड साइकिल खरीदी है, तब से साइकिल चर्चा में रही आती है। साइकिल जिनसे खरीदी है वे भी पुराने मित्र हैं, जब भी साइकिल पर चर्चा चलती है वे चुपके चुपके मुस्कराते रहते हैं, पर मुस्कराने का राज नहीं बताते। एक साथी का सोचना है कि फूफा ठगे गए हैं क्योंकि आजकल ऐसे कोई साइकिल खरीदता नहीं और इतनी पुरानी साइकिल कबाड़ी भी कबाड़ के भाव लेता है, फूफा अपने आपको होशियार समझते हैं, हर बात में खुचड़ करने का उनका स्वभाव है, कुछ लोग उन्हें अरकाटी कहते हैं, ठगे जाने पर भी सामने वाले को वे बुद्धू समझते हैं।

सब लोग फूफा को खुश करने के लिए साइकिल की झूठी तारीफ करते रहते हैं। एक दिन अचानक साइकिल का अगला चका फूट गया, टायर और ट्यूब फट गये,  साइकिल पर और साइकिल सवारी करने वाले पर तरह तरह की बहस होने लगी। ऐसे समय में छकौड़ी को अपनी साइकिल याद आ गई, जिसमें वो कालेज पढ़ने जाता था।  साइकिल में तीन डण्डे होते थे, नीचे वाले डण्डे में दो हुक लगे रहते थे जिसमें हवा भरने का पम्प फंसा रहता था। उस समय साइकिल में हवा भरने में बड़ा मजा आता था। अब तो न वे पम्प रहे न वैसी साइकिल रही, उस समय छकौड़ी की साइकिल गरीबी रेखा की साइकिल कहलाती थी, जिसमें बाकायदा फटे टायर में गैटर डाल दिया जाता था।

चौपाल में साइकिल चर्चा चल रही थी कि अचानक मुन्ना ने देश की अर्थव्यवस्था पर  चिंता जाहिर कर दी तो फूफा डांटने लगे, कहने लगे बीच में मत बोला करो। मामू अड़ गए कहने लगे आज की चर्चा साइकिल और अर्थव्यवस्था पर होनी चाहिए।

बीच में गंगू ने एक जोरदार प्रश्न दाग दिया, 

“क्या साइक्लिंग अर्थव्यवस्था के लिए हानिकारक है…?”

प्रश्न हास्यास्पद जरूर है परन्तु सत्य है !

“एक साइकिल चलाने वाला देश की चरमराती अर्थव्यवस्था में कितनी मदद करता है”?

सब एक दूसरे का मुंह देखने लगे। जिस भाई ने साइकिल बेची थी उसने शर्माते हुए जबाब दिया – “साइकिल चलाने वाला कभी मंहगी गाड़ी नहीं खरीदता, वो कभी लोन नहीं लेता, वो गाड़ी का बीमा नहीं करवाता, वो तेल नहीं खरीदता, वो गाड़ी की सर्विसिंग नहीं करवाता, वो पैसे देकर गाड़ी पार्किंग नहीं करता, और वो मोटा (मोटापा) नहीं होता।”

गंगू बोला – “ये सत्य है कि स्वस्थ व्यक्ति अर्थव्यवस्था के लिए सही नहीं है,क्योंकि:-

-वो दवाई नहीं खरीदता, 

-वो अस्पताल या चिकित्सालय के पास नहीं जाता, 

-वो राष्ट्र के GDP में कोई योगदान नहीं देता ।”

दोस्तों के बीच मजाकिया बहस करने में सबको मजा आ रहा था, कुछ लोग साइकिल सवारी के और फायदे बताने को तैयार हुए पर अचानक पीछे से एक सांड आया और उसने अपने सींगों में साइकिल फंसाकर सड़क के उस पार फैंक दी। चौपाल चर्चा में बैठे सब लोग डर कर इधर उधर भाग गए। फूफा बड़बडाते हुए बोले- “लगता है साइकिल गलत मुहूर्त में ले ली। फूफा डरे डरे कभी सांड को देखते और कभी टूटी साइकिल को…”

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #150 ☆ व्यंग्य – दलिद्दर की बीमारी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य दलिद्दर की बीमारी। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 150 ☆

☆ व्यंग्य – दलिद्दर की बीमारी 

दलिद्दर अपनी कंजूसी के लिए विख्यात हैं। माँ-बाप ने तो उनका नाम चंद्रमा प्रसाद रखा था, लेकिन उनके सूमपन को देखकर मोहल्ले वालों ने उनका नाम दलिद्दर रख दिया था। चंद्रमा प्रसाद ने भी इस नाम को स्वीकार कर लिया था। जब लोग उन्हें ‘दलिद्दर’ कहकर पुकारते तो वे घूम कर प्रेम से जवाब देते, ‘हाँ भैया।’

दलिद्दर ने कौड़ी कौड़ी जोड़कर भारी मकान खड़ा किया था। उसमें छोटे-छोटे कमरे बनाकर चार किरायेदार घुसा दिए थे। मकान बनते वक्त दलिद्दर ने खुद ही ईंटें ढोयीं थीं और मिस्त्री का काम भी किया। इसमें उनका उद्देश्य सिर्फ पैसा बचाने का था।

अब दलिद्दर अपने किरायेदारों को हलाकान किये रहते थे। रोज उन्हें पच्चीस निर्देश देते। उनका व्यवहार ऐसा था जैसे मकान किराये पर देकर उन्होंने कोई एहसान किया हो, या जैसे किरायेदार मुफ्त में रह रहे हों।

दलिद्दर हमेशा गंदी कमीज़ और पायजामा पहनते थे और अक्सर नंगे पाँव रहते थे। संपन्न होने के बाद भी वे हरएक के सामने अपने कष्टों का रोना रोते रहते। कोई उनकी संपन्नता की बात करता तो वे मुँह पर भारी दुख लाकर कहते, ‘अरे भैया, साँप के पाँव साँप को ही दिखते हैं। यहाँ गिरस्ती का बोझ उठाते कमर टूट रही है और तुम्हें मजाक सूझता है। तुम क्या समझते हो ये गंदे कपड़े पहनने का मुझे शौक है?’ कई बार वे अपनी तकलीफों का बयान करते आँखों में आँसू भर लाते।

दलिद्दर शाम को चौराहे पर चाय की दूकान के पास खड़े रहते। कोई परिचित दिखता तो खिलकर कहते, ‘आओ भई, मैं देख रहा था कोई दोस्त मिले तो चाय का जुगाड़ हो जाए। बड़ी कड़की चल रही है।’

कोई उनसे चाय पिलाने को कहता तो वे या तो ठंडी आह भरकर ज़मीन की तरफ देखने लगते, या कहते, ‘यार, अभी पिछले महीने ही तो पिलायी थी। एक महीना भी तो नहीं हुआ। हम कोई धन्नासेठ हैं जो रोज चाय पिलायें।’

दलिद्दर अपनी या परिवार की दवा- दारू पर बहुत कम पैसा खर्चते थे। कभी कोई बीमार पड़ता तो दवा की दूकान पर जाते और कहते, ‘भैया, बुखार की कोई सस्ती गोली दे दो।’ जब हालत चिन्ताजनक हो जाती तभी डॉक्टर के पास जाते। तब भी अगर डॉक्टर दस दिन दवा खाने को कहता जो पाँच दिन में ही बन्द कर देते।

एक बार दलिद्दर को बुखार आया। दलिद्दर जाते और दूकानदार से पूछकर सस्ती गोलियाँ लेकर खा लेते। लेकिन बुखार ठीक नहीं हुआ। आखिर हारकर दलिद्दर डॉक्टर के पास पहुँचे। डॉक्टर ने जाँच की, कहा, ‘कंजूसराम, रोग बिगाड़ कर अब हमारे पास आये हो? दवा खानी हो तो हम लिखें, नहीं तो भोगते रहो।’

दलिद्दर दुखी भाव से बोले, ‘खाएँगे। आप लिख दो।’

डॉक्टर बोला, ‘नहीं खाओगे तो ऊपर चले जाओगे। सोच लो, पैसा बचाना है या जान।’

दलिद्दर कुछ खीझ कर बोले, ‘कहा न। खाएँगे। लिख दो।’

डॉक्टर ने परचा दिया तो दलिद्दर बोले, ‘आपके पास तो नमूने की दवाइयाँ पड़ी होंगीं। उन्हीं में से दे दो। आपको पुन्न होगा।’    

डॉक्टर बोला, ‘ये दवाइयाँ मेरे पास नहीं हैं। दूकान से खरीदनी पड़ेंगीं। फिर तुम जैसे आदमी को मुफ्त में दवा देने से मुझे कोई पुण्य नहीं होने वाला।’

दलिद्दर चुप हो गये। फिर उन्होंने अपनी जेबें घिस घिस कर बड़ी देर में नोट निकालकर डॉक्टर की फीस दी। फिर वे मुँह लटकाये दवा की दूकान पर पहुँचे। दवा के दाम पूछे। दाम सुनकर वापस लौट कर डॉक्टर के पास आ गये, बोले, ‘यह कैसी दवा लिखी आपने। एक  कैप्सूल दस रुपये का। रोज तीन कैप्सूल खाना है। तीस रुपये के हुए। कोई सस्ती दवा लिखिए।’

डॉक्टर बोला, ‘पहले आ जाते तो सस्ती दवा से काम चल जाता। अब यही दवा खानी हो तो खाओ नहीं तो घर जाकर यमराज का इंतज़ार करो।’

दलिद्दर गुस्सा होकर ‘अंधेर है’ कह कर चले गये।

इसके बाद दलिद्दर एक हफ्ते बाद दिखाने आये। उनके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं और शरीर दुबला दिख रहा था। डॉक्टर ने जाँच की, बोला, ‘बुखार तो ठीक है, लेकिन तुम्हारी हालत क्या हो रही है?’

दलिद्दर दुखी भाव से बोले, ‘पता नहीं। जी घबराता है, रात को नींद नहीं आती। भूख गायब है। लेकिन कोई नयी दवा मत लिख देना।’

अगले हफ्ते दलित आये तो उनका मुँह और लटका था। डॉक्टर जाँच करके बोला, ‘अब बुखार तो बिल्कुल ठीक है, लेकिन तुम लटक क्यों रहे हो?’

दलिद्दर भन्ना कर बोले, ‘हमसे पूछ रहे हैं कि हम क्यों लटक रहे हैं। पन्द्रह दिन की दवा में एक हजार से ज्यादा खर्च हो गये। इतने तो हमने जिन्दगी में कभी दवा पर खर्च नहीं किये होंगे। इतनी मँहगी जिन्दगी से तो मौत अच्छी।’

डॉक्टर हंँसकर बोला, ‘चलो, अब खुश हो जाओ। अब तुम ठीक हो गये। अब और पैसा नहीं लगेगा।’

दलिद्दर मनहूस चेहरा लिये उठे। उठ कर बोले, ‘खुश कैसे हो जाएँ? जो खर्च हो गया है उसको पूरा करने में दो चार महीने लग जाएँगे। किफायत से रहना पड़ेगा। आपने एक बीमारी ठीक करके दूसरी लगा दी। पहली बीमारी तो जल्दी ठीक हो गयी, दूसरी ठीक होने में टाइम लगेगा।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 109 ☆ जुगलबंदी ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय व्यंग्य “जुगलबंदी”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 109 ☆

☆ जुगलबंदी ☆ 

आंदोलनों की आड़ में कार्यों को बाधित करने की शैली पुरानी हो चली है। तकनीकी अब बदलाव चाहती है। जहाँ संख्या बल हो वहीं पर अपने को टीम लीडर बनाकर खड़े हो जाने से काम नहीं चलेगा। इसके लिए किसी मजबूत हस्त की छत्र छाया चाहिए होती है। पीछे से सही गलत की सलाह मिलती रहे तो कदम सुरक्षित दिशा की ओर खुद व खुद  बढ़ते जाते हैं। यहाँ आकर्षण बल का सिद्धांत का सिद्धांत लागू होने लगता है। लोग वहीं का रुख कर लेते हैं जहाँ मजबूती दिखाई  देती है।

मुहँ फुलाकर हाथ पर हाथ धरे बैठने से टीम का आखिरी सदस्य भी चला गया। अब किसके सामने अपनी महत्वा को बताएंगे। दरसल आप में नेतृत्व की क्षमता  नहीं थी  सो ऐसा तो होना ही था। लगभग सभी क्षेत्रों में यही चल रहा है। पकड़ ढीली होते ही ताश के पत्ते खुलने लगते हैं और रेतीला महल भरभरा कर ढह जाता है। रेत सीमेंट का जोड़ बहुत जरूरी है। केवल नींव के पत्थर तो आपको मौसम की मार से नहीं बचा सकते हैं। आजकल खम्भों पर बहुमंजिला इमारतें तनी होती हैं। सो नींव का एक पत्थर यदि चिल्लाकर दुहाई देगा की वही प्रमुख है उसे पूजो इस पर कोई ध्यान नहीं देगा।

सुधारों की ओर समय रहते ध्यान न देने पर बारिश में छतों से पानी टपकना, दीवारों में सीलन आना, घरों में पानी घुसना ये सब आम बातें हैं। हमारे जीवन के सभी कार्य इन्हीं नियमों से चल रहे हैं। समय रहते संतान को संस्कारित न किया जाए तो वो बिना मौसम आपकी बेज्जती करवाती रहती है। और मोह से ग्रसित व्यक्ति  धृतराष्ट्र की तरह महाभारत के चक्रव्यूह का गुनहगार बन ही जाता है।

अपने सिद्धांतों पर अडिग रहने से ही मजबूती कायम होगी। कहते हैं नियमित पुस्तक पढ़ने से हर समस्या का हल मिल जाता है। हमें दूसरों के अनुभवों से सीखने व समझने हेतु अपने क्षेत्र से सम्बंधित पुस्तकें पढ़नी चाहिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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