(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “बदलते समीकरण…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 92 ☆
☆ बदलते समीकरण… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆
आवेश में दिया गया आदेश खाली रह जाता है। ऐसा मैंने नहीं कहा ये तो भुक्त भोगी कहते हुए देखे व सुनें जा सकते हैं। कहते हैं, कार्यों का परिणाम जब आशानुरूप होता है तो मन सत्संगति की ओर चला ही जाता है।
दिव्य शक्ति के प्रति विश्वास आपको एक नयी ऊर्जा से भर देता है, जो कुछ हुआ वो अच्छा था और जो होगा वो और अच्छा होगा ऐसी सोच जीने की चाहत को बढ़ाती है। मन में उमंग हो तो वातावरण सुखद लगता है। किन्तु इन सबमें हारे हुए सिपाही कुछ अलग ही गाथा कहते हुए दिखाई देते हैं।
कुछ लोग इतने निराशावादी होते हैं कि पूरे जीवन भर न तो खुद करते हैं न किसी को करने देते हैं। जब एक- एक बूंद जुड़कर महासागर बन सकता है तो थोड़ा- थोड़ा अनवरत किया गया परिश्रम क्या जिंदगी को नहीं बदल सकता ?
इसी उधेड़बुन में दिमाग़ उलझा हुआ था तभी सजगनाथ जी आ पहुँचे।
सजगनाथ जी अपने नाम के अनुरूप हमेशा सजग रहते, आखिर रहे भी क्यों न ? इधर का उधर करना उनकी आदत में शुमार था। पहले तो पुस्तकों को पढ़कर फिर दूसरे का लेख अपने नाम से करने में कुछ मेहनत तो लगती है थी किन्तु जब से तकनीकी ज्ञान से जुड़े तब तो मानो सारा साहित्य ही उनकी मुट्ठी में आ गया या ये भी कहा जा सकता है कि बस एक क्लिक करने कि देर और कोई भी रचना उनके नाम से तैयार ।
अब तो सजग साहब हमेशा ही काव्यपाठ, उद्घाटन व अन्य समारोह में व्यस्त रहते। एक दिन अखिलभारतीय स्तर के काव्य पाठ में उनको बुलाया गया वहाँ बड़े- बड़े नेता जी भी आमंत्रित थे अब तो सजग साहब बड़े घमंड से संचालन करने बैठे उन्होंने जैसे ही पहली पंक्ति पढ़ी तो लोग वाह- वाह करने लगे तभी मंच से एक कवि बोल पड़ा अरे सजग दादा यही कविता तो मुझे पढ़नी है इसे आप बोल दोगे तो मैं क्या करूँगा उन्होंने बात सम्भालते हुए कहा बेटा तुम्हारे लिए ही तो भूमिका बना रहा था पर क्या करें ये नई पीढ़ी का जोश भी जल्दी होश खो देता है। ये बात तो जैसे- तैसे निपटी पर जैसे ही उन्होंने दूसरी कविता की पंक्ति पढ़ी तो दर्शक दीर्घा से एक महिला उठ खड़ी हुई अरे ये क्या यह कविता तो प्रसिद्ध छायावादी रचनाकार की है, आप इसे अपनी बता कर श्रोताओं को उल्लू बना रहे हैं।
तभी पीछे से आवाज़ आयी सज़ग नाथ जी अब श्रोता भी सजग हो गए हैं, केवल आप ही फेसबुक में रचनाएँ नहीं पढ़ते हम लोग भी पढ़ते हैं साहब।
खैर ये सब तो उनके लिए कोई नई बात तो थी नहीं ऐसी मुसीबतों से निपटना वो अच्छी तरह जानते थे।
कार्यक्रम बड़े जोर शोर से चल रहा था। उनकी सजगता श्रोताओं को बाँधे हुए थी अब सजगनाथ जी के काव्यपाठ की बारी आयी उनको बड़े आदर सत्कार से एक वरिष्ठ कवि ने आमन्त्रित किया, आते ही उन्होंने बड़ी- बड़ी भूमिका बाँधी फिर दो लाइन कविता की बोली, फिर वही हास्य से परिपूर्ण चर्चा शुरू की फिर दो पंक्ति पढ़ी उसमें भी ये दो पंक्ति उनकी नहीं मशहूर शायरों की थी पूरे एक घण्टे उन्होंने मंच पर काव्यपाठ किया (संचालन का समय अतिरिक्त) पर स्वरचित पंक्ति के नाम पर कुछ भी नहीं केवल मुस्कुराहट बस उनकी थी बाकी सब कुछ साहित्यतेय स्तेय था। ऐसा ही सभी क्षेत्रों में होता हुआ दिखाई देता है – क्या नेता क्या अभिनेता।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )
आज प्रस्तुत है एक विचारणीय व्यंग्य उल्लू बनाओ मूर्ख दिवस मनाओ।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 150 ☆
व्यंग्य – उल्लू बनाओ मूर्ख दिवस मनाओ
किशमिश, काजू, बादाम सब महज 300रु किलो, फेसबुक पर विज्ञापन की दुकानें भरी पड़ी हैं। सस्ते के लालच में रोज नए नए लोग ग्राहक बन जाते हैं। जैसे ही आपने पेमेंट किया दुकान बंद हो जाती है। मेवे नहीं आते, जब समझ आता है की आप मूर्ख बन चुके हैं, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इस डिजिटल दुकानदारी के युग की विशेषता है कि मूर्ख बनाने वाले को कहीं भागना तक नहीं पड़ता, हो सकता है की वह आपके बाजू में ही किसी कंप्यूटर से आपको उल्लू बना रहा हो।
सीधे सादे, सहज ही सब पर भरोसा कर लेने वालों को कभी ओ टी पी लेकर, तो कभी किसी दूसरे तरीके से जालसाज मूर्ख बनाते रहते हैं।
राजनैतिक दल और सरकारें, नेता और रुपहले परदे पर अपने किरदारों में अभिनेता, सरे आम जनता से बड़े बड़े झूठे सच्चे वादे करते हुए लोगों को मूर्ख बनाकर भी अखबारों के फ्रंट पेज पर बने रहते हैं।
कभी पेड़ लगाकर अकूत धन वृद्धि का लालच, तो कभी आर्गेनिक फार्मिंग के नाम पर खुली लूट, कभी बिल्डर तो कभी प्लाट के नाम पर जनता को मूर्ख बनाने में सफल चार सौ बीस, बंटी बबली, नटवर लाल बहुत हैं। पोलिस, प्रशासन को बराबर धोखा देते हुए लकड़ी की हांडी भी बारम्बार चढ़ा कर अपनी खिचड़ी पकाने में निपुण इन स्पाइल्ड जीनियस का मैं लोहा मानता हूं।
अप्रैल का महीना नए बजट के साथ नए मूर्ख दिवस से प्रारंभ होता है, मेरा सोचना है की इस मौके पर पोलिस को मूर्ख बनाने वालों को मिस्टर नटवर, मिस्टर बंटी, मिस बबली जैसी उपाधियों से नवाजने की पहल प्रारंभ करनी चाहिए। इसी तरह बड़े बड़े धोखाधड़ी के शिकार लोगों को उल्लू श्रेष्ठ, मूर्ख श्रेष्ठ, लल्लू लाल जैसी उपाधियों से विभूषित किया जा सकता है।
इस तरह के नवाचारी कैंपेन से धूर्त अपराधियों को, सरल सीधे लोगों को मूर्ख बनाने से किसी हद तक रोका जा सकेगा।
बहरहाल ठगी, धोखाधड़ी, जालसाजी से बचते हुए हास परिहास में मूर्ख बनाने और बनने में अपना अलग ही मजा है, इसलिए उल्लू बनाओ, मूर्ख दिवस मनाओ।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )
आज प्रस्तुत है एक विचारणीय व्यंग्य बुरा मानकर भी कर क्या लोगे !।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 149 ☆
व्यंग्य – बुरा मानकर भी कर क्या लोगे !
बुरा न मानो होली है कहकर, बुरा मानने लायक कई वारदातें हमारे आपके साथ घट गईं. होली हो ली. सबको अच्छी तरह समझ आ जाना चाहिये कि बुरा मानकर भी हम सिवाय अपने किसी का कुछ बिगाड़ नहीं सकते.बुरा तो लगता है जब धार्मिक स्थल राजनैतिक फतवे जारी करने के केंद्र बनते दिखते हैं. अच्छा नहीं लगता जब सप्ताह के दिन विशेष भरी दोपहर पूजा इबादत के लिये इकट्ठे हुये लोग राजनैतिक मंथन करते नजर आते हैं. बुरा लगता है जब सोशल मीडीया की ताकत का उपयोग भोली भीड़ को गुमराह करने में होता दिखता है. बुरा लगता है जब काले कपड़े में लड़कियों को गठरी बनाने की साजिश होती समझ आती है. बुरा लगता है जब भैंस के आगे बीन बजाते रहने पर भी भैंस खड़ी पगुराती ही रह जाती है. बुरा लगता है जब मंच से चीख चीख कर भीड़ को वास्तविकता समझाने की हर कोशिश परिणामों में बेकार हो जाती है. इसलिये राग गर्दभ में सुर से सुर मिलाने में ही भलाई है. यही लोकतंत्र है. जो राग गर्दभ में आलाप मिलायेंगे, ताल बैठायेंगे, भैया जी ! वे ही नवाजे जायेंगे. जो सही धुन बताने के लिये अपनी ढ़पली का अपना अलग राग बजाने की कोशिश करेंगे, भीड़ उन्हें दरकिनारे कर देगी. भीड़ के चेहरे रंगे पुते होते हैं. भीड़ के चेहरों के नाम नहीं होते. भीड़ जिससे भिड़ जाये उसका हारना तय है. लोकतंत्र में भीड़ के पास वोट होते हैं और वोट के बूते ही सत्ता होती है.
सत्ता वही करती है जो भीड़ चाहती है. भीड़ सड़क जाम कर सकती है, भीड़ थियेटर में जयकारा लगा सकती है, भीड़ मारपीट, गाली गलौज, कुछ भी कर सकती है. फ्री बिजली, फ्री पानी, फ्री राशन और मुफ्तखोरी के लुभावने वादों से भीड़ खरीदना लोकतांत्रिक कला है. बेरोजगारी भत्ते, मातृत्व भत्ते, कुपोषण भत्ते, उम्रदराज होने पर वरिष्ठता भत्ते जैसे आकर्षक शब्दों के बैनरों से बनी योजनाओ से बिन मेहनत कमाई के जनोन्मुखी कार्यक्रम भीड़ को वोट बैंक बनाये रखते हैं.
भीड़ बिकती समझ आती है पर बुरा मानकर भी कर क्या लोगे ! खरीदने बिकने के सिलसिले मन ही मन समझने के लिये होते हैं, बुरा भला मानने के लिये नहीं. खिलाड़ियो को नीलामी में बड़ी बड़ी कीमतों पर सरे आम खरीद कर, एक रंग की पोशाक की लीग टीमें बनाई जाती हैं. मैच होते हैं, भीड़ का काम बिके हुये खिलाड़ियों को चीयर करना होता है. चीयर गर्ल्स भीड़ का मनोरंजन करती हैं. भीड़ में शामिल हर चेहरा व्यवस्था की इकाई होता है. ये चेहरे सट्टा लगाते है, हार जीत होती है करोड़ो के वारे न्यारे होते हैं. बुद्धिमान भीड़ को हांकते हैं. जैसे चरवाहा भेड़ों को हांकता है. भीड़ को भेड़ चाल पसंद होती है. भीड़ तालियां पीटकर समर्थन करती है. काले झंडे दिखाकर, टमाटर फेंककर और हूट करके भीड़ विरोध जताती है. आग लगाकर, तोड़ फोड़ करके भीड़ गुम हो जाती है. भीड़ को कही गई कड़वी बात भी किसी के लिये व्यक्तिगत नहीं होती. भीड़ उन्मादी होती है. भीड़ के उन्माद को दिशा देने वाला जननायक बन जाता है.
भीड़ के कारनामों का बुरा नहीं मानना चाहिये, बल्कि किसी पुरातन संदर्भ से गलत सही तरीके से उसे जोड़कर सही साबित कर देने में ही वाहवाही होती है. भीड़ प्रसन्न तो सब अमन चैन. सो बुरा न मानो, होली है, और जो बुरा मान भी जाओगे तो कुछ कर न सकोगे क्योंकि तुम भीड़ नही हो, और अकेला चना भाड़ नही फोड़ सकता. इसलिये भीड़ भाड़ में बने रहो, मन लगा रहेगा.
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर व्यंग्य “शादी – ब्याह के नखरे”।)
☆ व्यंग्य # 129 ☆ “शादी – ब्याह के नखरे” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
काये भाई इटली शादी करन गए थे और हनीमून किसी और देश में मनाने चले गए….. का हो गओ तो…… शादी में कोऊ अड़ंगा डाल रहो थो क्या ? तबई भागे भागे फिर रहे थे। छक्के पर हम सब लोग छक्कों की तरह ताली बजा बजाकर तुमसे छक्का लगवाते रहे हैं और तुम शादी के चक्कर में इटली भाग गये। जो साऊथ की इडली में मजा है वो इटली की इडली में कहां है। और सीधी-सादी बात जे है कि शादी करन गये थे तो देशी नाऊ और देशी पंडित तो ले जाते कम से कम। बिना नाऊ और पंडित के शादी इनवेलिड हो जाती है मैरिज सर्टिफिकेट में पंडित का प्रमाणपत्र लगता है। सब लोग कह रहे हैं कि यदि इटली में जाकर शादी की है तो इण्डिया में मैरिज सर्टिफिकेट नहीं बनेगा, इण्डिया में तुम दोनों को अलग अलग ही रहना पड़ेगा……. लिव इन रिलेशनशिप में रहोगे तो 28 प्रतिशत जीएसटी देना पड़ेगा और खेल में भी मन नहीं लगेगा।
पेपर वाले कह रहे हैं कि शादी करके उड़ गए थे फिर कहीं और हनीमून मनाके लौट के बुद्धू यहीं फिर आये, कहीं फूफा और जीजा तंग तो नहीं कर रहे थे। यहां आके शादी की पब्लिसिटी के लिए दिल्ली और मुंबई में मेगा पंगत पार्टी करके चौके-छक्के वाली वाह वाही लूट ली।
दाढ़ी वालों का जमाना है दाढ़ी वाले जीतते हैं और विकास की भी बातें करते हैं पर ये भी सच है कि शादी के बाद दाढ़ी गड़ती भी खूब है। कोई बात नहीं दिल्ली की हवेली में जहां तुम आशीर्वाद लेने के चक्कर में घुसे हो उस बेचारे ने शादी करके देख लिया है, तुम काली दाढ़ी लेकर आशीर्वाद लेने गए हो तो वो तुम्हारी दाढ़ी में पहले तिनका जरूर ढूढ़ेगा….. शादी के पहले और शादी के बाद पर कई तरह के भाषण पिला देगा। तुम शादी की मेगा पंगत में खाने को बुलाओगे तो वो झटके मारके बहाने बना देगा….. तुम बार बार पर्दे के अंदर झांकने की कोशिश करोगे तो डांटकर कहेगा – बार बार क्या देखते हो बंगले में “वो “नहीं रहती, हम ब्रम्हचारी हैं….. शादी करके सब देख चुके हैं दाढ़ी से वो चिढ़ती है और दाढ़ी से हम प्यार करते हैं……. अरे वो क्या था कि पंडित और नाऊ ने मिलकर बचपन में शादी करा दी थी तब हम लोग खुले में शौच जाया करते थे…… शादी के बहुत दिन बाद समझ में आया कि इन्द्रियों के क्षुद्र विषयों में फंसे रहने से मनुष्य दुखी रहता है इन्द्रियों के आकर्षण से बचना, अपने विकारों को संयम द्वारा वश में रखना, अपनी आवश्यकताओं को कम करना दुख से बचने का उपाय है…… सो भाईयो और बहनों जो है वो तो है उसमें किया भी क्या जा सकता है जिनके मामा इटली में रहते हैं उनको भी हमारी बात जम गई है……..
-हां तो बताओ इटली में जाकर शादी करने में कैसा लगा ?
—-सर जी, हमसे एक भूल हो गई अपना देशी नाऊ और देशी पंडित शादी में ले जाना भूल गए, इटली वालों को जल्दी पड़ी थी। सर यहां के लोग कह रहे हैं कि मैरिज सर्टिफिकेट यहां नहीं बनेगा….. अब क्या करें ?
—बात तो ठीक कह रहे हैं 125 करोड़ देशवासियों का देश है, फिर भी देखते हैं नागपुर वालों से सलाह लेनी पड़ेगी।
….. शहर का नाम लेने से डर लगता है क्योंकि वे शादी-ब्याह से चिढ़ते हैं शादी के नाम पर गंभीर हो जाते हैं घर परिवार और मौजूदा हालात से उदासीन रहते हैं शादी का नाम लो तो उदासी ओढ़ लेते हैं उदासी जैसे मानसिक रोग से पीड़ित रोगी सदा गंभीर और नैराश्य मुद्रा बनाये रखते हैं आधुनिक देशभक्ति पर जोर देते हैं, आधार को देशभक्ति से जोड़ने के पक्षधर होते हैं ऐसे आदमी देखने में ऐसे लगते हैं जैसे वे किसी मुर्दे का दाहकर्म करके श्मशान से लौट रहे हों।
पान की दुकान में खड़ा गंगू उदास नहीं है बहुत खुश दिख रहा है खुशी का राज पूछने पर गंगू ने बताया कि वह दिल्ली की मेगा पंगत पार्टी से लौटा है और बाबा चमनबहार वाला पान खा रहा है। गंगू ने बताया कि कम से कम 100 करोड़ की शादी हुई होगी, इटली में शादी…. एक और देश जिसका नाम अजीब है वहां हनीमून और दिल्ली में पंगत………..
गंगू ने मजाक करते हुए हंसकर बताया कि महिला का नाम भले ही कुछ भी क्यों न हो….. भले शादी में 100 करोड़ ही क्यों न ख़र्च किए हों लेकिन वो 50 पर्सेंट की सेल की लाइन में खड़े होने में शर्मा नहीं सकती पति कितना भी विराट क्यों न हो बीबी उसे झोला पकड़ा ही देती है।
शादी की मेगा पंगत पार्टी के अनुभवों पर चर्चा करते हुए गंगू ने बताया कि 100 नाई और 100 पंडित की फरमाइश पर जमीन पर बैठ कर पंगत लगाई गई बड़े बड़े मंत्री और उद्योगपतियों की लार टपक रही थी अरे शादी की पंगत में जमीन पर बैठ कर पतरी – दोना में खाने का अलग सुख है वे सब ये सुख लेने के लिए लालायित थे पर अहं और आसामी होने के संकोच में कुछ नहीं कर पा रहे थे। तो पंगत बैठी परोसने वाले की गलती से गंगू को “मही-बरा” नहीं परोसा गया तो गंगू ने हुड़दंग मचा दी, वर-वधू को गालियाँ बकना चालू कर दिया और खड़े होकर पंगत रुकवा दी चिल्ला कर बोला – इस पंगत में गाज गिरना चाहिए, जब पंडितों ने पूछा कि गाज गिरेगी तो गंगू तुम भी नहीं बचोगे…. तब गंगू ने तर्क दिया कि जैसे पंगत में मठा – बरा सबको मिला और गंगू की पतरी को नहीं मिला वैसई गाज गिरने पर गंगू बच जाएगा। तुरत-फुरत गंगू के लिए मही-बरा बुलवाया गया तब कहीं पंगत चालू हो पाई।
पंगत के इस छोर पर 50 पुड़ी खाने के बाद एक पंडित बहक गये कहने लगे – शादी जन्म जन्मांतर का बंधन होता है छक्के मारते रहने से मजबूत गठबंधन बनता है छक्के – चौके लगाने से फिल्मी स्टारों से शादी हो जाती है और शादी से सम्पत्ति बढ़ती है। हालांकि भले बाद में पछताना पड़े पर ये भी सच है कि शादी वो लड्डू है जो खाये वो पछताये जो न खाये वो भी पछताये….. और पंडित जी ने दोना में रखे दो बड़े लड्डू एक साथ गुटक लिए……… ।
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘स्वर्ग और पुनर्जन्म के लिए सेटिंग’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 132 ☆
☆ व्यंग्य – स्वर्ग और पुनर्जन्म के लिए सेटिंग ☆
चार छः दिन से चुन्नीलाल को तबियत गड़बड़ लग रही थी। छाती की बायीं तरफ हल्का दर्द और भारीपन था।काम करने में जल्दी थकान आती थी।बेटों ने डॉक्टर को दिखाने को कहा तो उनका जवाब था, ‘आजकल कोई डाक्टर पाँच सौ से कम फीस नहीं लेता।जरा सी तकलीफ के पाँच सौ कौन देगा? मौसम का असर लगता है। दो चार दिन में अपने आप ठीक हो जाएगा।’
रात को सोते सोते कुछ खटपट सुनाई पड़ी तो आँख खुल गयी। देखा, दो आदमी अजीब से वस्त्र पहने पलंग के पास खड़े थे। चुन्नीलाल डर कर बोले, ‘कौन हो भाई? अंदर कैसे आये? चोरी करने का इरादा है क्या?’
उन दोनों में से एक हँसकर बोला, ‘हम तुम्हारी आत्मा की चोरी करने यमलोक से आये हैं। तुम्हारा टाइम हो गया।’
चुन्नीलाल घबराकर पलंग पर बैठ गये। बोले, ‘अरे, अभी तो हमारे हाथ पाँव दुरुस्त हैं। अभी कैसे ले जाना है?’
यमदूत बोला, ‘बाहर से ठीक-ठाक है, लेकिन भीतर तो सब गड़बड़ हो गया है। जिन्दगी भर दूकान की गद्दी पर धरे रहे, हाथ पाँव चलाये नहीं, इसीलिए यह नौबत आयी।’ उनकी बातचीत सुनकर चुन्नीलाल के दोनों बेटे आ गये। यमदूतों की बातें सुनकर वे अवाक थे।
चुन्नीलाल गुस्से में बोले, ‘तुम्हारे यहां का सिस्टम इतना खराब है। बिना सूचना दिये चाहे जब आ धमकते हो। कोई नोटिस मिल जाये तो आदमी घरवालों को जरूरी जानकारी दे दे।’
यमदूत बोला, ‘इस सबसे हमें कुछ लेना देना नहीं। यह शिकायत ऊपर चल कर करना।’
तभी दूसरा यमदूत सीलिंग की तरफ आँखें टिका कर बोला, ‘स्वर्ग की सेटिंग करना हो तो कर लो।’
चुन्नीलाल चौंके, बोले, ‘क्या कहा?’
वह वैसे ही बोला, ‘स्वर्ग की सेटिंग करना हो तो हो जाएगा। यहां के हिसाब से करीब बीस तोला सोना लगेगा। सोना तो वहां भी चलता है। सभी लोग सोने के आभूषण पहनते हैं।’
चुन्नीलाल खुश होकर बोले, ‘हो जाएगा।’ फिर बेटों से बोले, ‘जाओ, अम्माँ से सोना ले आओ। कम पड़े तो बहुओं से ले लेना।’
पहला यमदूत बोला, ‘पहले यह सब नहीं होता था। यहाँ से एक इंस्पेक्टर मातादीन गये, जो कभी चाँद पर गये थे। उन्हें चित्रगुप्त जी का असिस्टेंट नियुक्त किया गया है।
उन्हींने धीरे धीरे यह व्यवस्था बनायी ताकि सभी को अपनी मेहनत का कुछ फल मिल सके।’
चुन्नीलाल बोले, ‘लेकिन हमें तो यह बताया गया है कि पुण्य करने वालों को ही स्वर्ग मिलता है।’
यमदूत बोला, ‘पहले मिलता था। अब सेटिंग वालों से जो जगह बचती है उसी में पुण्य वालों का नंबर लगता है।’
सोना समेटने के बाद दूसरा यमदूत बोला, ‘चाहो तो दूसरे जनम की सेटिंग भी हो जाएगी, लेकिन उसमें करीब दुगुना सोना लगेगा।’
चुन्नीलाल फिर चौंके,बोले, ‘क्या मतलब?’
यमदूत बोला, ‘मतलब यह कि अगला जनम जिस खानदान में भी लेना चाहो उसका इंतजाम भी हो जाएगा।’
चुन्नीलाल आश्चर्य से बोले, ‘अरे वाह!’
यमदूत बोला, ‘अभी यहाँ जो दस बीस सबसे बड़े घराने हैं उनकी बुकिंग तो हो गयी। फिर भी बहुत से करोड़पति घराने बाकी हैं। कई दो नंबर वाले हैं जो अपनी कमाई छिपाकर रखते हैं। हमारे पास सब की जानकारी है, जहाँ कहोगे वहाँ भेज देंगे। लेकिन इसके लिए अभी टाइम है। ऊपर चल के बता देना। हम पहले यहाँ आकर तुम्हारे बेटों से सोना वसूल कर लेंगे।’
पहला यमदूत बोला, ‘सेटिंग कर लेना, नहीं तो क्या पता कुत्ते-बिल्ली की योनि में ढकेल दिये जाओ।’
चुन्नीलाल बोले, ‘लेकिन हमने तो पढ़ा था कि अच्छे कर्म करने से ही अगला जन्म सुखी होता है।’
यमदूत बोला, ‘ये बातें पुराने जमाने में राजाओं ने अपने पुरोहितों के साथ मिलकर फैलायी थीं ताकि प्रजा उनके खिलाफ विद्रोह न करे, अपना पुनर्जन्म सँवारने में लगी रहे। इसीलिए राजा को भगवान का रूप घोषित किया जाता था।’
इतनी जानकारी देकर चुन्नीलाल और उनके परिवार को प्रसन्न करके दोनों यमदूत चुन्नीलाल की आत्मा के साथ यमलोक को प्रस्थान कर गए।
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर विचारणीय व्यंग्य “एक्जिट पोल का खेला”।)
☆ व्यंग्य # 128 ☆ “एक्जिट पोल का खेला” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
बेचारी गंगू बाई बकरियां और भेड़ चराकर जंगल से लौट रही थी और गनपत चुनावी सर्वे (एक्जिट पोल) का बहाना करके नाहक में गंगू बाई को परेशान कर रहा है, जब गंगू बाई ने वोट ही नहीं डाला तो इतने सारे सवाल करके उसे क्यों डराया जा रहा है। गंगू बाई की ऊंगली पकड़ पकड़ कर गनपत बार बार देख रहा है कि स्याही क्यों नहीं लगी। परेशान होकर गंगू बाई कह देती है लिख लो जिसको तुम चाहो। गंगू बाई को नहीं मालुम कि कौन खड़ा हुआ और कौन बैठ गया। गंगू बाई से मिलकर सर्वे वाला गनपत भी खुश हुआ कि पहली बोहनी बढ़िया हुई है।
सर्वे वाला गनपत आगे बढ़ा। कुछ पार्टी वाले मिल गये, गनपत भैया ने उनसे भी पूछ लिया। काए भाई किसको जिता रहे हो? सबने एक स्वर में कहा – वोई आ रहा है क्योंकि कोई आने लायक नहीं है। गनपत को लगा कि एक्जिट पोल का अच्छा मसाला मिल रहा है।
सामने से एक चाट फुल्की वाला आता दिखा, बोला -कौन जीत रहा है हम क्यों बताएं, हमने जिताने का ठेका लिया है क्या ? पिछली बार तुम जीएसटी का मतलब पूछे थे तब भी हमने यही कहा था कि आपको क्या मतलब …..! गोलगप्पे खाना हो तो बताओ… नहीं तो हम ये चले।
अब गनपत को प्यास लगी तो एक घर में पानी मांगने पहुँचे…तो मालकिन बोली – फ्रिज वाला पानी, कि ओपन मटके वाला …….
खैर, उनसे पूछा तो ऊंगली दिखा के बोलीं – वोट डालने गए हते तो एक हट्टे-कट्टे आदमी ने ऊंगली पकड़ लई, हमें शर्म लगी तो ऊंगली छुड़ान लगे तो पूरी ऊंगली में स्याही रगड़ दई। ऐसी स्याही कि छूटबे को नाम नहीं ले रही है। सर्वे वाले गनपत ने झट पूछो – ये तो बताओ कि कौन जीत रहो है। हमने कही जो स्याही मिटा दे, वोईई जीत जैहै।
पानी पीकर आगे बढ़े तो पुलिस वाला खड़ा मिल गया, पूछा – क्यूँ भाई, कौन जीत रहा है ……? वो भाई बोला – किसको जिता दें आप ही बोल दो। गनपत समझदार है कुछ नोट सिपाही की जेब में डाल कर जैसा चाहिए था बुलवा लिया। पुलिस वाले से बात करके गनपत दिक्कत में पड़ गया। पुलिस वाले ने डंडा पटक दिया बोला – हेलमेट भी नहीं लगाए हो, गाड़ी के कागजात दिखाओ और चालान कटवाओ, नहीं तो थोड़ा बहुत और जेब में डालो।
कुछ लोग और मिल गए हाथ में ताजे फूल लिए थे, गनपत ने उनसे पूछा ये ताजे फूल कहां से मिल गए…… उनमें से एक रंगदारी से बोला – चुरा के लाए है बोलो क्या कर लोगे, ……..
सुनिए तो थोड़ा चुनाव के बारे में बता दीजिये ……?
बोले – तू कौन होता बे…. पूछने वाला। नेता जी नाराज नहीं होईये हम लोग आम आदमी से चुनाव की बात कर एक्जिट पोल बना रहे हैं।
सुन बे ‘आम आदमी’ का नाम नहीं लेना, और ये भी नहीं पूछना कि पंजाब में क्या आम आदमी की सरकार बन रही है।
थक गए तो घर पहुंचे, पत्नी पानी लेकर आयी, तो पूछा – काए किसको जिता रही हो …..? पत्नी बड़बड़ाती हुई बोली – तुम तो पगलाई गए हो …! पैसा वैसा कुछ कमाते नहीं और राजनीति की बात करते रहते हो। कोई जीते कोई हारे तुम्हें का मतलब…..
फोन आ गया,
हां हलो, हलो ……कौन बोल रहे हैं ?
अरे भाई बताओ न कौन बोल रहे हैं ?
आवाज आयी – साले तुमको चुनाव का सर्वे करने भेजा था और तुम घर में पत्नी के साथ ऐश कर रहे हो ………..
नहीं साब, प्यास लगी थी पानी पीने आया था, बहुत लोगों से बात हो गई है,
निकलो जल्दी … बहस लड़ा रहे हो, बहाना कर रहे हो ……….
काम वाली बाई रास्ते में मिल गयी, तो उससे पूछने लगे कि किसको जिता रही हो? तो उसने पत्नी से शिकायत कर दी कि साहब छेड़छाड़ कर रहे हैं …….
रास्ते में पान की दुकान में गनपत पत्रकार रुके, पान में बाबा चटनी चमन बहार और चवन्नी के साथ तेज रगड़ा डलवाया और कसम खायी कि अगली बार से एक्जिट पोल का काम नहीं करेंगे, क्योंकि ये झटके मारने का खेला है।
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘नींद क्यों रात भर नहीं आती ’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 131 ☆
☆ व्यंग्य – नींद क्यों रात भर नहीं आती ☆
ग़ालिब ने लिखा है— ‘मौत का एक दिन मुअय्यन है, नींद क्यों रात भर नहीं आती?’ यानी जब मौत का आना निश्चित है तो फिर उसकी चिन्ता में नींद क्यों हराम होती है? अर्ज़ है कि मौत का आना तो निश्चित है, लेकिन उसके आने की तिथि का कोई ठिकाना नहीं है। जब मर्ज़ी आ जाए और आदमी को एक झटके में उसके ऐशो- इशरत, नाम-धाम से समेट कर आगे बढ़ जाए। भारी विडम्बना है।
सभी धर्मों में यह माना जाता है कि आदमी का जीवन पूर्व नियत है, यानी सब कुछ पहले से ही निश्चित है। यही प्रारब्ध,भाग्य, मुकद्दर, नसीब, ‘फ़ेट’ और ‘डेस्टिनी’ का मतलब है। ‘राई घटै ना तिल बढ़ै, रहु रे जीव निश्शंक।’ तुलसीदास ने लिखा है— ‘को करि तरक बढ़ावे साखा, हुईहै वहि जो राम रचि राखा।’ अर्थात, जीवन मरण सब पूर्व नियत है। हस्तरेखा-शास्त्र और ज्योतिष भी यही बताते हैं।
मौत का दिन मुअय्यन होने के बावजूद नींद इसलिए नहीं आती कि लाखों साल से आदमी की ज़िन्दगी में पूर्ण विराम लग रहा है, लेकिन अभी तक ऊपर वाले के यहाँ मरहूम को नोटिस देने की कोई रिवायत नहीं बनी है। कोई ट्रेन में सफर करते करते अचानक लम्बी यात्रा पर निकल जाता है तो कोई हवाई जहाज़ में उड़ते उड़ते एक पल में और ऊपर उठ जाता है। धरती पर अगर बिना नोटिस के कोई कार्रवाई हो जाए तो अदालतें तुरन्त उसे अन्याय मानकर खारिज कर देती हैं, लेकिन ज़िन्दगी जैसी बेशकीमती चीज़ बिना नोटिस के छिन जाने के ख़िलाफ़ न कोई सुनवाई है, न कोई अपील। इसे दूसरी दुनिया की प्रशासनिक चूक न कहें तो क्या कहें? यह निश्चय ही हमारी ज़िन्दगी की बेकद्री है।
हमारे लोक में बिना नोटिस के कोई कार्रवाई नहीं हो सकती, चाहे वह नौकरी से बाहर करने का मामला हो या किसी की संपत्ति के अधिग्रहण का। जो लोग कुर्सी पर सोते सोते नौकरी पूरी कर लेते हैं उन्हें भी बिना ‘शो कॉज़ नोटिस’ के बाहर नहीं किया जा सकता। कई चतुर लोग मनाते हैं कि उन पर बिना नोटिस के कार्रवाई हो जाए ताकि वे तत्काल कोर्ट से ‘स्टे’ लेकर फिर अपनी कुर्सी पर आराम से सो सकें। अतः इन्तकाल जैसे गंभीर मामले में कोई नोटिस न दिया जाना चिन्ता का विषय है।
मौत से पहले नोटिस मिल जाए तो आदमी अपनी एक नम्बर या दो नम्बर की कमाई का बाँट-बखरा कर सकता है। या यदि वह किसी को संपत्ति नहीं देना चाहता तो नोटिस की अवधि में उसे फटाफट खा-उड़ा कर बराबर कर सकता है। जिन लोगों ने ज़िन्दगी भर तथाकथित पाप किये हैं वे नोटिस मिलने पर बाकी अवधि में कुछ पुण्य कमा सकते हैं, ताकि उन्हें ऊपर निखालिस पापी के रूप में हाज़िर न होना पड़े। इसके अलावा हुनरमन्द लोग नोटिस मिलने के बाद इष्ट- मित्रों से बड़ी रकम उधार लेकर नोटिस में दी गयी रुख़सती की तारीख के बाद चुकाने का वादा करके अपनी मूँछों पर ताव दे सकते हैं।
नोटिस न मिलने से आदमी के लिए बड़ी दिक्कतें पेश हो जाती हैं। आदमी बिना कोई वसीयतनामा किये अचानक चल बसे तो वारिसों में सिर फुटौव्वल शुरू हो जाता है। जो जबर और चतुर होते हैं वे संपत्ति का बड़ा हिस्सा ले उड़ते हैं। संपत्ति उन नालायकों को मिल जाती है जिन्हें अचानक दिवंगत हुए पिताजी नहीं देना चाहते थे। अमेरिका के एक खरबपति का किस्सा पढ़ा था जिनका विमान अचानक समुद्र में गुम हो गया था। खरबपति के अचानक जाने के बाद उनकी संपत्ति के अनेक झूठे-सच्चे हकदार खड़े हो गये। ज़रूरत पड़ी डी.एन.ए. मिलाने की, लेकिन मालिक का शरीर तो गुम हो गया था। डॉक्टरों को याद आया कि कुछ दिन पहले उनके शरीर से एक मस्सा निकाला गया था और वह अभी तक सुरक्षित था। उसी मस्से की मदद से तथाकथित वारिसों के डी.एन.ए. का मिलान हुआ और समस्या का हल निकाला गया। अगर खरबपति महोदय को ऊपर से नोटिस मिल जाता तो यह फजीहत न होती।
हमारे लोक में किसी का ट्रांसफर होता है तो उसे बाकायदा महीना-पन्द्रह रोज़ पहले आदेश मिलता है और ‘जॉइनिंग टाइम’ भी मिलता है, लेकिन एक लोक से दूसरे लोक ट्रांसफर में पूर्व- सूचना तो दूर, ‘फ़ेयरवेल पार्टी’ तक का वक्त नहीं मिलता।
इसलिए मेरा तीनों लोकों के स्वामी से विनम्र निवेदन है कि इस लोक से किसी को उठाने से पहले कम से कम छः महीने के नोटिस की तत्काल व्यवस्था की जाए। स्थितियों के अनुसार नोटिस की अवधि एक दो माह बढ़ाने की व्यवस्था भी हो। मेरा तो यह भी सुझाव है कि आदमी को अपनी कमायी संपत्ति को अपने साथ ऊपर ले जाने की व्यवस्था की जाए ताकि उसके रुख़सत होने के बाद उसकी संपत्ति और सन्तानों की बर्बादी न हो।
एक इल्तिजा और। हमारे लोक में बहुत से वी.आई.पी. हैं जिन्हें हर जगह विशेष ट्रीटमेंट मिलता है। लेकिन आखिरी वक्त में सब को लेने के लिए सिपाही के स्तर के यमदूत भेजे जाते हैं। निवेदन है मालदार और रसूखदार लोगों को लेने के लिए कुछ ओहदेदारों को भेजा जाए ताकि वे अपमानित महसूस किये बिना खुशी खुशी रुख़सत हो सकें।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “मुद्दे की बात…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 91 ☆ मुद्दे की बात…☆
अक्सर उबाऊ बातचीत से बचने के लिए लोग कह देते हैं, सीधे- सीधे मुद्दे पर आइए। बात चाहें कुछ भी हो, जल्दी पूरी हो, ये सभी की इच्छा रहती है। आजकल यही प्रयोग पत्रकारों द्वारा चुनावी चर्चा में किया जा रहा है। विकासवाद, राष्ट्रवाद, बदलाव, महंगाई, बेरोजगारी इन शब्दों का प्रयोग खूब हो रहा है। घोषणा पत्र सुनने , पढ़ने व समझने का समय किसी के पास नहीं है क्योंकि सबको पता है ये चुनावी वादे हैं जो बिना बरसे ही हवा के साथ हवाई हो जाएंगे।
जैसे ही मतदाता दिखा, सबसे पहले यही प्रश्न पूछा जाता है कि आप किस मुद्दे को ध्यान में रखकर दल का चुनाव करेंगे ?
तत्काल ही उत्तर मिल जाता है। हाँ इतना जरूर है कि कुछ लोग इसका अर्थ नहीं समझते हैं और कहने लगते हैं कि हमें क्या हम तो इस निशान पर बटन दबाएंगे। वहीं कुछ लोग अपने पसंदीदा दल की तारीफ़ में कसीदे पढ़ने लगते हैं तो कुछ लोग नासमझ बनते हुए, घुमाते फिराते हुए, अंत में कह देते हैं वोट किसको देना है, अभी तक सोचा ही नहीं।
इस सोचने समझने के मध्य पत्रकार भी तो किसी न किसी दल की विचारधारा का समर्थक होता है, अनचाहे उत्तरों से उसका चेहरा बुझा हुआ साफ देखा जा सकता है। कुछ भी कहिए हाथ में माला लेकर भागते हुए लोग जो आगे जाकर माला देते हैं कि हमारे नेता जी आने वाले हैं उन्हें आप पहना दीजियेगा। इधर नेता जी भी आठ- दस माला तो पहने रहते हैं बाकी उतार- उतार के उसी व्यक्ति को दे देते हैं। ठीक भी है, ऐसा करने से फूलों व रुपए दोनों की बचत होती है। साथ में चलती हुई गाड़ियों में बढ़िया धुनों वाले गाने बजते रहतें हैं जिसकी धुन व बोल सभी के मनोमस्तिष्क पर छा जाते हैं। इस बार के चुनावों में मतदाता भी खूब मनोरंजन कर रहे हैं। एक बात तो साफ हो गयी है कि भविष्य में उन्हें भी पाँच वर्ष में एक बार आने वाले इन पर्वों का बेसब्री से इंतजार रहेगा।
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘व्यंग्यकार की शोकसभा’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 130 ☆
☆ व्यंग्य – व्यंग्यकार की शोकसभा ☆
शहर के जाने-माने व्यंग्यकार अनोखेलाल ‘बेदिल’ अचानक ही भगवान को प्यारे हो गये। दरअसल हुआ यह कि एक स्थानीय अखबार के पत्रकार ने उनके नये व्यंग्य-संग्रह ‘गधे की दुलत्ती’ की समीक्षा छापी थी, जिसमें संग्रह की रचनाओं को घटिया और बचकानी बताया गया था। समीक्षा छपने के दो घंटे बाद ही ‘बेदिल’ जी को दिल का दौरा पड़ा था और उन्हें अस्पताल में भर्ती करना पड़ा था। उनके दिल को लगा धक्का इतना ज़बरदस्त था कि दो दिन अस्पताल में रहने के बाद वे इस बेवफा दुनिया को अलविदा कह गये।
उनके निधन पर तत्काल दो तीन व्यंग्यकारों ने एक वक्तव्य देकर समीक्षा करने वाले पत्रकार की कठोर भर्त्सना की और शहर के साहित्य-जगत को हुई इस अपूरणीय क्षति के लिए उसे सीधे सीधे ज़िम्मेदार ठहराया।साथ ही अखबार के प्रबंधन से अपील की कि दोषी पत्रकार के खिलाफ कठोर कार्यवाही की जाए।
श्मशान में ‘बेदिल’ जी को विदाई देने के लिए 15-20 व्यंग्यकार इकट्ठे हुए।उन्हें उनके कंधों पर लटकते झोलों से पहचाना जा सकता था।सब वहाँ बनी सीमेंट की बेंचों पर बैठकर कार्यक्रम संपन्न होने का इंतज़ार करने लगे।
अचानक पता चला कि ‘बेदिल’ जी के दामाद वायु-मार्ग से आ रहे हैं और उन्हें वहाँ पहुँचने में कम से कम एक घंटा लग जाएगा।तब तक कार्यक्रम रुका रहेगा।
नगर के एक और सक्रिय व्यंग्यकार बेनी प्रसाद ‘खंजर’ के दिमाग़ में कुछ कौंधा और उन्होंने दो तीन साथियों से खुसुर-पुसुर की। उसके बाद उन्होंने सभी व्यंग्यकारों को सभा-भवन में इकट्ठा होने के लिए इशारा करना शुरू किया, कुछ उसी तरह जैसे शादियों में मेहमानों को भोजन- कक्ष में पहुंचने का इशारा किया जाता है।
सारे व्यंग्यकार सभा-भवन में इकट्ठे हो गए। ‘खंजर’ जी उनसे बोले, ‘भाइयो, अभी कार्यक्रम में कम से कम एक घंटा लगेगा। सोचा, क्यों न ‘बेदिल’ जी के सम्मान में एक व्यंग्य-गोष्ठी करके इस समय का सदुपयोग कर लिया जाए। इसलिए आप लोगों से अनुरोध है एक एक व्यंग्य सभी पढ़ें। आपके मोबाइल में रचनाएँ तो होंगी ही।’
एक व्यंग्यकार बोले, ‘हमने तो मोबाइल में नहीं डालीं।’
खंजर जी बोले, ‘स्मरण-शक्ति से सुना दीजिए। थोड़ा बहुत हेरफेर होगा, और क्या?’
दो तीन व्यंग्यकार अपना झोला बजाकर बोले, ‘हम तो हर जगह अपनी कॉपी लेकर चलते हैं। पता नहीं कहाँ पढ़ना पड़ जाए।’
व्यंग्य-गोष्ठी शुरू हो गयी। सभी पूरे जोश और तन्मयता से पढ़ते रहे। इस बीच दामाद साहब आ गये और उधर का कार्यक्रम शुरू हो गया।
थोड़ी देर में संदेश आया कि सब लोग चिता की परिक्रमा को पहुँचें। तत्काल तीन चार व्यंग्यकारों ने हाथ उठा दिया। कहा, ‘हम तो रह गये। यह ठीक नहीं है। हमें भी पढ़ने का मौका मिलना चाहिए।’
‘खंजर’ जी ने उन्हें आश्वस्त किया,कहा, ‘यहाँ अभी शोकसभा होगी। उसके बाद आप लोग यहीं रुके रहिएगा। कोई जाएगा नहीं। बचे हुए लोगों को भी अपनी रचना पढ़ने का मौका दिया जाएगा।’
शोकसभा के बाद सभी व्यंग्यकार वहीं रुके रहे। दूसरे लोगों के जाने के बाद गोष्ठी फिर शुरू हो गयी और बाकी व्यंग्यकारों को भी अपनी रचना पढ़ने का सुखद अवसर प्राप्त हुआ। उसके बाद सभी व्यंग्यकार ‘बेदिल’ जी के प्रति कृतज्ञता से भरे हुए अपने घर को रवाना हुए।
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘महाकवि ‘उन्मत्त’ की शिष्या’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 129 ☆
☆ व्यंग्य – महाकवि ‘उन्मत्त’ की शिष्या ☆
हमारे नगर के गौरव ‘उन्मत्त’ जी का दृढ़ विश्वास है कि ‘निराला’ के बाद अगर किसी कवि को महाकवि कहलाने का हक है तो वे स्वयं हैं,भले ही दुनिया इसे माने या न माने।दाढ़ी-मूँछ हमेशा सफाचट रखे और कंधों तक केश फैलाये ‘उन्मत्त’ जी हमेशा चिकने-चुपड़े बने रहते हैं।उनके वस्त्र हमेशा किसी डेटरजेंट का विज्ञापन लगते हैं।बढ़ती उम्र के साथ रंग बदलते बालों को वे सावधानी से ‘डाई’ करते रहते हैं।कोई बेअदब सफेद खूँटी सर उठाये तो तत्काल उसका सर कलम कर दिया जाता है। घर-गृहस्थी को पत्नी के भरोसे छोड़ ‘उन्मत्त’ जी कवि-सम्मेलनों की शोभा बढ़ाने के लिए पूरे देश को नापते रहते हैं।उनके पास दस पंद्रह कविताएँ हैं, उन्हीं को हर कवि सम्मेलन में भुनाते रहते हैं। कई बार एक दो चमचों को श्रोताओं के बीच में बैठा देते हैं जो उन्हीं पुरानी कविताओं की फरमाइश करते रहते हैं और ‘उन्मत्त’ जी धर्मसंकट का भाव दिखाते उन्हीं को पढ़ते रहते हैं।
‘उन्मत्त’ जी के पास कई नवोदित कवि मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए आते रहते हैं। ऐसे ही एक दिन एक कवयित्री अपनी कविता की पोथी लिये सकुचती हुई आ गयीं। ‘उन्मत्त’ जी ने उनकी पोथी पलटी और पन्ने पलटने के साथ उनकी आँखें फैलती गयीं। फिर नवोदिता के मुख पर दृष्टि गड़ा कर बोले, ‘ आप तो असाधारण प्रतिभा की धनी हैं। अभी तक कहाँ छिपी थीं आप? आपको सही अवसर और मार्गदर्शन मिले तो आपके सामने बड़े-बड़े जीवित और दिवंगत कवि पानी भरेंगे। अपनी प्रतिभा को पहचानिए, उसकी कद्र कीजिए।’
फिर उन्होंने एक बार और कविताओं पर नज़र डालकर चिबुक पर तर्जनी रख कर कहा, ‘अद्भुत! अद्वितीय!’
नवोदिता प्रसन्नता से लाल हो गयीं। आखिर रत्न को पारखी मिला। ‘उन्मत्त’ जी बोले, ‘आपको यदि अपनी प्रतिभा के साथ न्याय करना हो तो मेरे संरक्षण में आ जाइए। मैं
आपको कवि- सम्मेलनों में ले जाकर कविता के शिखर पर स्थापित कर दूँगा।’
कवयित्री ने दबी ज़बान में घर-गृहस्थी की दिक्कतें बतायीं तो ‘उन्मत्त’ जी बोले, ‘यह घर-गिरस्ती प्रतिभा के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। कितनी महान प्रतिभाएँ घर-गिरस्ती में पिस कर असमय काल-कवलित हो गयीं। थोड़ा घर- गिरस्ती से तटस्थ हो जाइए। बड़े उद्देश्य के लिए छोटे उद्देश्यों का बलिदान करना पड़ता है।’
‘उन्मत्त’ जी ने उस दिन नवोदिता को ‘काव्य-कोकिला’ का उपनाम दे दिया। बोले, ‘मैं सुविधा के लिए आपको ‘कोकिला’ कह कर पुकारूँगा।’
‘उन्मत्त’ जी ने ‘कोकिला’ जी को एक और बहुमूल्य सलाह दी। कहा, ‘कवि- सम्मेलनों में सफलता के लिए कवयित्रियों को एक और पक्ष पर ध्यान देना चाहिए। थोड़ा अपने वस्त्राभूषण और शक्ल-सूरत पर ध्यान दें। बीच-बीच में ‘ब्यूटी पार्लर’ की मदद लेती रहें। कारण यह है कि श्रोता कवयित्रियों को कानों के बजाय आँखों से सुनते हैं। कवयित्री सुन्दर और युवा हो तो उसके एक-एक शब्द पर बिछ बिछ जाते हैं, घटिया से घटिया शेरों पर भी घंटों सर धुनते हैं। यह सौभाग्य कवियों को प्राप्त नहीं होता। हमारा एक एक शब्द ठोक बजाकर देखा जाता है।’
‘कोकिला’ जी घर लौटीं तो उनके पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। घर पहुँचने पर उन्हें अपना व्यापारी पति निहायत तुच्छ प्राणी नज़र आया। घर पहुँचते ही उन्होंने पति को निर्देश दिया कि उनके लिए तत्काल नई मेज़-कुर्सी खरीदी जाए ताकि उनकी साहित्य-साधना निर्बाध चल सके और जब वे मेज़-कुर्सी पर हों तब उन्हें यथासंभव ‘डिस्टर्ब’ न किया जाए।साथ ही उन्होंने पतिदेव से यह भी कह दिया कि खाना बनाने के लिए कोई बाई रख ली जाए ताकि उन्हें इन घटिया कामों में समय बर्बाद न करना पड़े।पतिदेव की समझ में नहीं आया कि उनकी अच्छी-भली पत्नी को अचानक कौन सी बीमारी लग गयी।
इसके बाद ‘उन्मत्त’ जी के साथ कवि- सम्मेलनों में ‘कोकिला’ जी अवतरित होने लगीं।बाहर के दौरे भी लगने लगे।देखते देखते ‘कोकिला’ जी कवयित्री के रूप में मशहूर हो गयीं।वे ‘उन्मत्त’ जी से ज़्यादा दाद बटोरती थीं।जल्दी ही उन्होंने ‘ज़र्रानवाज़ी, इरशाद, इनायत, तवज्जो, पेशेख़िदमत, मक़्ता, मतला, नवाज़िश, हौसलाअफज़ाई का शुक्रिया’ जैसे शब्द फर्राटे से बोलना और मंच पर घूम घूम कर माथे पर हाथ लगाकर श्रोताओं का शुक्रिया अदा करना सीख लिया।
अब बहुत से पुराने, पिटे हुए और कुछ नवोदित कवि ‘कोकिला’ जी के घर के चक्कर लगाने लगे थे।रोज़ ही उनके दरवाज़े पर दो चार कवि दाढ़ी खुजाते खड़े दिख जाते थे।शहर के बूढ़े, चुके हुए कवि उन्हें अपने संरक्षण में लेने और उन्हें मार्गदर्शन देने के लिए रोज़ फोन करते थे।
लोकल अखबार वाले उनके इंटरव्यू छाप चुके थे।हर इंटरव्यू में ‘कोकिला’ जी आहें भरकर कहती थीं, ‘मेरा हृदय एक अनजानी पीड़ा से भारी रहता है।संसार का कुछ अच्छा नहीं लगता।यह दुख क्या है और क्यों है यह मुझे नहीं मालूम।बस यह समझिए कि यही ग़म है अब मेरी ज़िन्दगी, इसे कैसे दिल से जुदा करूँ?मैं नीर भरी दुख की बदली।इसी दुख से मेरी कविता जन्म लेती है।इसी ने मुझे कवयित्री बनाया।’
‘उन्मत्त’ जी शहर के बाहर कवि- सम्मेलनों में ‘कोकिला’ जी को ले तो जाते थे लेकिन जो पैसा-टका मिलता था उसका हिसाब अपने पास रखते थे। थोड़ा बहुत प्रसाद रूप में उन्हें पकड़ा देते थे। पूछने पर कहते, ‘इस पैसे- टके के चक्कर से फिलहाल दूर रहो। पैसा प्रतिभा के लिए घुन के समान है। कविता के शिखर पर पहुँचना है तो पैसे के स्पर्श से बचो। ये फालतू काम मेरे लिए छोड़ दो। आप तो बस अपनी कविता को निखारने पर ध्यान दो।’
अब कवि-सम्मेलनों के आयोजक ‘कोकिला’ जी से अलग से संपर्क करने लगे थे। कहते, ‘आप ‘उन्मत्त’ जी के साथ ही क्यों आती हैं? हम आपको अलग से आमंत्रित करना चाहते हैं। ‘उन्मत्त’ जी हमेशा पैसे को लेकर बखेड़ा करते हैं।’
दो-तीन साल ऐसे ही उड़ गए। कवि-सम्मेलन, गोष्ठियाँ, अभिनन्दन, सम्मान। ‘कोकिला’ जी आकाश में उड़ती रहतीं। जब घर लौटतीं तो दो चार लोकल या बाहरी कवि टाँग हिलाते, दाढ़ी खुजाते, इन्तज़ार करते मिलते। घर- गिरस्ती की तरफ देखने की फुरसत नहीं थी।
एक दिन ‘कोकिला’ जी के पतिदेव आकर उनके पास बैठ गये। बोले, ‘कुछ दिनों से तुमसे बात करने की कोशिश कर रहा था लेकिन तुम्हें तो बात करने की भी फुरसत नहीं। तुम कवयित्री हो, बड़ा नाम हो गया है। मैं साधारण व्यापारी हूँ। मुझे लगने लगा है कि अब हमारे रास्ते अलग हो गए हैं। अकेले गृहस्थी का बोझ उठाते मेरे कंधे दुखने लगे हैं। मेरा विचार है कि हम स्वेच्छा से तलाक ले लें।’
‘कोकिला’ जी जैसे धरती पर धम्म से गिरीं। चेहरा उतर गया। घबरा कर बोलीं, ‘मुझे थोड़ा सोचने का वक्त दीजिए।’
दौड़ी-दौड़ी ‘उन्मत्त’ जी के पास पहुँचीं। ‘उन्मत्त’ जी ने सुना तो खुशी से नाचने लगे। नाचते हुए उल्लास में चिल्लाये, ‘मुक्ति पर्व! मुक्ति पर्व! बधाई ‘कोकिला’ जी। छुटकारा मिला। कवि की असली उड़ान तो वही है जिसमें बार-बार पीछे मुड़कर ना देखना पड़े।’ फिर ‘कोकिला’ जी का हाथ पकड़ कर बोले, ‘अब हम साहित्याकाश में साथ साथ निश्चिन्त उड़ान भरेंगे। टूट गई कारा। मैं कल ही आपके अलग रहने का इन्तज़ाम कर देता हूँ।’
‘कोकिला’ जी उनका हाथ झटक कर घर आ गयीं।
दो दिन तक वे घर से कहीं नहीं गयीं। दो दिन बाद वे स्थिर कदमों से आकर पति के पास बैठ गयीं, बोलीं, ‘मैंने आपकी बात पर विचार किया। मैं महसूस करती हूँ कि पिछले दो-तीन साल से मैं घर गृहस्थी की तरफ ध्यान नहीं दे पायी। कुछ बहकाने वाले भी मिल गये थे। लेकिन अब मैंने अपनी गलती समझ ली है। भविष्य में आपको शिकायत का मौका नहीं मिलेगा।’
उसके बाद वे जा कर ड्राइंग रूम में ऊँघ रहे कवियों से बोलीं, ‘अभी आप लोग तशरीफ ले जाएँ। मैं थोड़ा व्यस्त हूँ। अभी कुछ दिन व्यस्त ही रहूँगी, इसलिए आने से पहले फोन ज़रूर कर लें।’
कविगण ‘टाइम-पास’ का एक अड्डा ध्वस्त होते देख दुखी मन से विदा हुए।