डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘प्रोफेसर बृहस्पति और एक अदना क्लर्क’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 123 ☆
☆ व्यंग्य – प्रोफेसर बृहस्पति और एक अदना क्लर्क ☆
प्रोफेसर बृहस्पति, एम.ए.,डी.लिट.,की चरन धूल फिर शहर में पड़ने वाली है। प्रोफेसर गुनीराम,एम. ए.,पीएच.डी. ने फिर उन्हें बुलाया है। यह खेल ऐसे ही चलता रहता है। प्रोफेसर बृहस्पति प्रोफेसर गुनीराम को अपनी यूनिवर्सिटी में बुलाते रहते हैं और प्रोफेसर गुनीराम प्रोफेसर बृहस्पति को। अवसरों की कमी नहीं है। कभी रिसर्च कमिटी की मीटिंग में, कभी ‘वाइवा’ के लिए। एक बार में एक ही उम्मीदवार का ‘वाइवा’ होता है। एक बार क्लर्क ने दो उम्मीदवारों का ‘वाइवा’ एक साथ रख दिया तो प्रोफेसर बृहस्पति कुपित हो गये थे। एक बार में एक ही उम्मीदवार का ‘वाइवा’ होना चाहिए, अन्यथा टी.ए.,डी.ए. का नुकसान होता है।
‘वाइवा’ का सबसे ज़रूरी हिस्सा यह होता है कि उम्मीदवार जल्दी से जल्दी टी.ए. बिल पास कराके मुद्रा गुरूजी के चरणों में समर्पित करे। इसमें विलम्ब होने पर छात्र की प्रतिभा और उसके शोध की गुणवत्ता पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है। विश्वविद्यालय तो नियमानुसार फूल-पत्र भेंट करता है, बाकी रुकना-टिकना, स्वागत-सत्कार, पीना-खाना, घूमना-फिरना और वातानुकूलित दर्जे का आने-जाने का नकद किराया उम्मीदवार को विनम्रतापूर्वक वहन और सहन करना पड़ता है। गुरूजी अक्सर सपत्नीक आते हैं। ऐसी स्थिति में स्वभावतः ए.सी. का किराया दुगना हो जाता है। यह भी ज़रूरी है कि विदा होते वक्त उम्मीदवार गुरू-गुरुआइन के चरन-स्पर्श कर प्रसन्न भाव से विदा करे। व्यय का भार कितना भी पड़े, मुख पर सन्ताप न लावे।
हस्बमामूल ‘वाइवा’ के बाद शाम को उम्मीदवार की सफलता की खुशी में पार्टी होती है जिसमें बाहर वाले गुरूजी और उनके मित्र-परिचित, स्थानीय गुरूजी और उनके मित्र-परिचित और चार-छः ऐसे ठलुए शामिल होते हैं जो ऐसे ही मौकों की तलाश में रहते हैं। स्थानीय गुरूजी को उन्हें शामिल करने में एतराज़ नहीं होता क्योंकि द्रव्य उम्मीदवार की जेब से जाता है। जो लोग भोजन से पूर्व क्षुधावर्धक पेय में रुचि रखते हैं वे पार्टी से एकाध घंटा पूर्व एकत्रित होकर उम्मीदवार की सेहत का जाम उठाते हैं।
इस बार बलि का बकरा शोषित कुमार है जो पीएच.डी. की डिग्री प्राप्त कर प्रोफेसर गुनीराम की अनुकंपा से विश्वविद्यालय में व्याख्याता पद पाने की उम्मीद रखता है। उसने अपने शिक्षण काल में किताब की जगह गुरूजी को ही पढ़ा है और उनके श्रीचरणों में अपना जीवन समर्पित किया है। पूरे विश्वविद्यालय में वह प्रोफेसर गुनीराम के चमचे के रूप में विख्यात है और वह इस उपाधि पर पर्याप्त गर्व का अनुभव करता है। शोषित कुमार के बाप एक प्राइमरी स्कूल में मास्टर हैं, लेकिन उन्होंने प्रोफेसर बृहस्पति के स्वागत-सत्कार के लिए बीस हजार रुपये का जुगाड़ कर लिया है।
प्रोफेसर बृहस्पति पधारे। साथ में पत्नी भी आयीं। उन्होंने बहुत दिनों से भेड़ाघाट नहीं देखा था। बेटा शोषित कुमार दिखा देगा। अच्छे होटल में ठहरने का इंतज़ाम है। आदेश दे दिया गया है कि गुरूजी जब जो माँगें, प्रस्तुत किया जाए। गेट के पास टैक्सी तैनात है, गुरूजी जहाँ जाना चाहें ले जाए।
गुरूजी टैक्सी में विश्वविद्यालय पहुँचे। शोषित कुमार ड्राइवर की बगल में डटा है। प्रोफेसर गुनीराम विश्वविद्यालय में इन्तज़ार कर रहे हैं। पहुँचते ही प्रोफेसर बृहस्पति टी.ए. बिल भरकर शोषित कुमार को थमाते हैं—- ‘लो बेटा, इसे पास कराओ और सफलता की ओर कदम बढ़ाओ।’
शोषित कुमार बिल लेकर उड़ता है। ‘च्यूइंग गम’ चबाते हुए उसे निश्चिंतता से संबंधित क्लर्क के सामने धर देता है। क्लर्क उसे उठाकर पढ़ता है, फिर वापस शोषित की तरफ धकेल देता है। कहता है, ‘टिकट नंबर लिखा कर लाओ।’
शोषित कुमार आसमान से धम से ज़मीन पर गिरता है। बेसुरी आवाज़ में पूछता है, ‘क्या?’
क्लर्क दुहराता है, ‘सेकंड ए.सी. का क्लेम है। टिकट नंबर लिखा कर लाओ।’
शोषित कुमार पाँव घसीटता लौटता है। प्रोफेसर गुनीराम के कान के पास मिनमिनाता है, ‘सर, क्लर्क टिकट नंबर माँगता है।’
प्रोफेसर गुनीराम की भवें चढ़ जाती हैं। यह कौन गुस्ताख़ लिपिक है? रोब से उठकर लेखा विभाग की ओर अग्रसर होते हैं। क्रोधित स्वर में क्लर्क से पूछते हैं, ‘यह टिकट नंबर की क्या बात है भई?’
क्लर्क निर्विकार भाव से कहता है, ‘रजिस्ट्रार साहब का आदेश है।’
प्रोफेसर गुनीराम कहते हैं, ‘अभी तक तो कभी टिकट नंबर नहीं माँगा गया।’
क्लर्क फाइल का पन्ना पलटते हुए जवाब देता है, ‘नया आदेश है।’
प्रोफेसर गुनीराम रोब मारते हैं, ‘तो रजिस्ट्रार साहब से पास करा लायें?’
क्लर्क मुँह फाड़कर जम्हाई लेता है, कहता है, ‘करा लाइए।’
प्रोफेसर गुनीराम ढीले पड़ जाते हैं। रजिस्ट्रार कायदे कानून वाले आदमी हैं। वहाँ जाना बेकार है।
वे तरकश से खुशामद-अस्त्र निकालते हैं। ताम्बूल-रचित दन्त-पंक्ति दिखा कर कहते हैं, ‘क्या बात है, पटेल जी, घर से झगड़ा करके आये हो क्या?’
क्लर्क किंचित मुस्कराता है, ‘नहीं सर, ऐसी कोई बात नहीं है।’
उसकी मुस्कान से प्रोत्साहित होकर प्रोफेसर गुनीराम कहते हैं, ‘निपटा दो,भैया। बाहर के प्रोफेसर हैं। बिल पास नहीं होगा तो बाहर से ‘वाइवा’ लेने कौन आएगा?’
क्लर्क फिर लक्ष्मण-रेखा में लौट जाता है, कहता है, ‘हम क्या करें? रजिस्ट्रार साहब से कहिए।’
प्रोफेसर गुनीराम समझ जाते हैं कि इन तिलों से तेल नहीं निकलेगा। लेकिन अब प्रोफेसर बृहस्पति को क्या मुँह दिखायें?इस पिद्दी से क्लर्क ने इज्जत का फलूदा बना दिया।
लौट कर प्रोफेसर बृहस्पति के सामने हाज़िर होते हैं। पस्त आवाज़ में कहते हैं, ‘डाक साब, यहाँ के क्लर्क बड़े बदतमीज़ हो गये हैं। कहते हैं ए.सी. का नंबर लेकर आइए।’
प्रोफेसर बृहस्पति का मुख-कमल क्रोध से लाल हो जाता है। ऐसी अनुशासनहीनता!प्रोफेसर गुनीराम के हाथ से बिल लेकर उस पर लिख देते हैं, ‘टिकट सरेंडर्ड एट द गेट’, यानी टिकट रेलवे स्टेशन के गेट पर सौंप दिया।
प्रोफेसर गुनीराम फिर क्लर्क के पास उपस्थित होते हैं। क्लर्क प्रोफेसर बृहस्पति के कर कमलों से लिखी बहुमूल्य टीप को पढ़ता है और पुनः बिल प्रोफेसर गुनीराम की तरफ सरका देता है। कहता है, ‘हमें नंबर चाहिए। टिकट सौंपने से पहले नंबर क्यों नोट नहीं किया?अब तो मोबाइल पर टिकट आता है।’
प्रोफेसर गुनीराम को रोना आता है। इस दो कौड़ी के आदमी ने उनकी इज़्ज़त के भव्य भवन को कचरे का ढेर बना दिया।
लौट कर प्रोफेसर बृहस्पति से कहते हैं, ‘आप फिक्र न करें, डाक साब। मैं चेक बनवा कर भेज दूँगा।’
प्रोफेसर बृहस्पति का मूड बिगड़ जाता है। चेक बनने और मिलने में पता नहीं कितना समय लगेगा। इसके अलावा चेक का पैसा आयकर की पकड़ में आने का भय होता है।
‘वाइवा’ के कार्यक्रम का सारा मज़ा किरकिरा हो गया।
शाम को प्रोफेसर बृहस्पति सपत्नीक शोषित कुमार के द्वारा प्रस्तुत टैक्सी में बैठकर भेड़ाघाट की सैर के लिए रवाना होते हैं। प्रोफेसर बृहस्पति बेमन से जाते हैं। उनका सारा सौन्दर्यबोध और उत्साह लेखा विभाग के उस क्लर्क ने हर लिया है। उन्हें अब कहीं कोई सुन्दरता नज़र नहीं आती। पूरा शहर मनहूस लगता है।
भेड़ाघाट में पति-पत्नी नाव में बैठकर संगमरमरी चट्टानों को देखने जाते हैं। श्रीमती बृहस्पति मुग्धभाव से श्वेत धवल चट्टानों को निहारती हैं। एकाएक कहती हैं—‘कितनी खबसूरत चट्टानें हैं।’
प्रोफेसर बृहस्पति के भीतर खदबदाता गुस्सा फूट पड़ता है। मुँह बिगाड़ कर कहते हैं—‘खबसूरत नहीं, खूबसूरत। कितनी बार कहा कि शब्दों का सत्यानाश मत किया करो।’
श्रीमती बृहस्पति गुस्से में मुँह फेरकर बैठ जाती हैं और प्रोफेसर बृहस्पति लौटने पर होने वाली कलह की संभावना से भयभीत होकर बिल की बात भूलकर कातर नेत्रों से पत्नी का मुखमंडल निहारने लगते हैं।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈