हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #120 ☆ व्यंग्य – सर्दियों के फायदे ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  सर्दियों के फायदे। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 120 ☆

☆ व्यंग्य – सर्दियों के फायदे 

ज्ञानी लोग सर्दियों के बहुत से लाभ बताते हैं। मसलन, सर्दियाँ सेहत बनाने के लिए बढ़िया मौसम है। बादाम घोंटिए, मेवा खाइए और वर्जिश कीजिए। कहते हैं इस मौसम में हाज़मा बढ़िया काम करता है। जो खाइए सो भस्म।

लेकिन सवाल यह है कि जब मँहगाई के मारे आदमी खुद ही भस्म हो रहा हो तो वह क्या खाये और क्या भस्म करे? आज के ज़माने में दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो जाए तो खु़दा का शुक्र अदा कीजिए। बादाम-मेवा अब दूध-घी की तरह देवताओं के भोजन हो गये हैं। देवताओं से मेरा मतलब उन नर-रत्नों से है जिनके पास माल की कमी नहीं है और जिन्हें मँहगाई की गर्मी बिल्कुल नहीं व्यापती। ऐसे लोगों की हमारे देश में कमी नहीं है। लेकिन मेहनत और ईमानदारी की कमाई पर पलने वाले परिवार में मूँगफली तो आ सकती है, बादाम ख़्वाब की बात है।

बादाम और काजू-किशमिश बड़े लोगों की पार्टियों की शोभा बनते हैं जहाँ कलफदार वर्दी पहने सेवक चीज़ों को अदब से पेश करते हैं और अतिथिगण बिना सेवकों की ओर देखे, बातों में मशगूल, चीज़ों को उदासीनता से मुँह में डाल लेते हैं। इन पार्टियों में वे मंत्री, विधायक और अधिकारी भी होते हैं जो इस ग़रीब देश के प्रतिनिधि और सेवक कहलाते हैं।

वर्जिश करके भी क्या कीजिएगा? अब बलिष्ठ शरीर का उतना महत्व नहीं रहा जितना पहले था। अब छुरे, चाकू, तमंचे का ज़माना है। तगड़े पहलवान साहब किसी सींकिए का चाकू खाकर अस्पताल का सेवन करते हैं और सींकिया अपनी हड्डियाँ फुलाये घूमता है। फिर यह परमाणु-युद्ध और स्टार-वार्स का ज़माना है। कभी भी ज़िन्दगी की रील कट सकती है। इसलिए बादाम खाने और सेहत बनाने का कोई मतलब नहीं है। बीच में ही दुनिया ख़त्म हो गई तो बादाम पर ख़र्च किये सारे पैसे बेकार हो जाएँगे।

लेकिन बादाम वर्जिश को छोड़ दें तो सर्दियों के दूसरे फायदे हैं। अगर आपके पास फटी कमीज़ें हैं या कमीज़ों की कमी है तो सर्दियों का मौसम आपके लिए बड़ा ग़रीब परवर है। शर्त यह है कि आपके पास एक अदद कोट हो। मुझे ऐसे बहुत से सज्जन मिले जो फटी कमीज़ों का उपयोग जाड़े में कोट के नीचे कर लेते हैं। अगर आपका कोट खुले कॉलर वाला है तो कमीज़ का कॉलर साबित होना ज़रूरी है। अगर बन्द गले का कोट है तो चिथड़ा हुई कमीज़ भी चलेगी।

मेरे एक मित्र सर्दियों में बिना बाँह की कमीज़ पहनते थे। बाँहें फट जाने पर वे उन्हें काट कर अलग कर देते थे और इन बंडी कमीज़ों को सर्दियों के लिए सुरक्षित रख लेते थे।

कुछ ऐसा ही कमाल वे मोज़ों में दिखाते थे। एक बार उन्होंने जूतों को अपने चरणों से अलग किया तो देखा मोज़ों का पंजों वाला हिस्सा ग़ायब है। हमारे ज्ञानवर्धन के लिए उन्होंने बताया कि मोज़े पंजों पर फट गये थे, इसलिए उन्होंने पंजे वाला हिस्सा काट कर अलग कर दिया था। अब उनके मोज़ों की शक्ल उन ‘एनक्लेट्स’ जैसी हो गयी थी जिन्हें फुटबॉल के खिलाड़ी पहनते हैं। लेकिन जूते पहनने पर सब ठीक-ठाक दिखता था।

कुछ ऐसे महापुरुष भी मिले जो शेरवानी के नीचे सिर्फ बनियाइन पहनते थे। कमीज़ की खटखट ही नहीं। यह तो उनका बड़प्पन था जो बनियाइन पहन लेते थे। वह भी न पहनते तो उनका कोई क्या बिगाड़ लेता?

महिलाएँ भी इस मौसम में फटे ब्लाउज़ को शॉल के नीचे चला लेती हैं। शॉल सबसे बढ़िया पैबन्द का काम करता है। लेकिन शॉल के साथ यह दिक्कत होती है कि उसे बराबर सँभाले रखना ज़रूरी है। ज़रा सी असावधानी होने पर कलई खुल सकती है। कोट या शेरवानी के बटन बन्द कर लेने पर निश्चिंत हुआ जा सकता है, लेकिन शॉल में यह सुविधा नहीं है।

जिन लोगों को सफाई से परहेज़ है और जिन्हें गन्दे कपड़े पहनना सुहाता है, उनके लिए सर्दी का मौसम मददगार होता है। कोट के नीचे गन्दे कपड़े भी उसी तरह चलते हैं जैसे फटे। लेकिन इसके लिए बन्द कॉलर का कोट अनिवार्य है। कमीज़ से बदबू आने का ख़तरा हो तो कोट के ऊपर थोड़ा सेंट छिड़का जा सकता है। वैसे भी कई लोग नहाते कम और सेंट ज्यादा छिड़कते हैं।

इस सब में अटपटा कुछ भी नहीं है क्योंकि आज का ज़माना ऊपरी दिखावे का है। जितना दुनिया को दिखता है उतना ठीक रखो। मुलम्मा चमकदार होना चाहिए, भीतर सब चलता है। बहुत से कौवे सफेदी पोतकर हंस के रूप में पुज रहे हैं, इसलिए बाहरी टीम-टाम ठीक रखो, भीतर कितना गन्दा और जर्जर है इसकी चिन्ता छोड़ो।

लेकिन जैसा मैंने पहले अर्ज़ किया, सर्दियों का लाभ वही उठा सकते हैं जिनके पास एक अदद कोट या शेरवानी हो। जिनके पास सिर्फ फटी कमीज़ें हैं या जिन्हें सर्दियाँ नगर निगम के अलावों के बल पर काटनी हैं, उनके लिए इन बातों का कोई मतलब नहीं है। वहाँ समस्या कमीज़ जुटाने की है, उसे छिपाने की नहीं।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ #81 ☆ सच्ची नियत ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “सच्ची नियत”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 81 ☆ सच्ची नियत 

जब किसी राह पर चलो तो कांटे और  नुकीले पत्थर मिलेंगे ही बस उन्हें हटाते हुए बढ़ना होगा,  क्या यहाँ पर नजरअंदाज करके बढ़ना  ज्यादा सही रहेगा  या जड़ से मिटाते हुए चलें जिससे दूसरों को उन बाधाओं से न गुजरना पड़े। रिश्तों में दरार डालना कोई कठिन कार्य नहीं होता है। भले ही कुछ प्रहारों का असर न दिखाई दे किन्तु कोई भी वार कभी खाली नहीं जाता है। कहीं न कहीं आंशिक ही सही दरार बनती जरूर है जो आगे चलकर विस्फोटक स्थिति उत्पन्न करती है।

लक्ष्य को छोड़कर बिना मतलब के कार्यों में अपनी ऊर्जा बर्बाद करना कहाँ तक सही कहा जा सकता है। खैर गाहे – बगाहे परेशानी आती ही रहती है। ऐसा ही कुछ हमारे मन्नूलाल जी के साथ हमेशा से हो रहा है। शिकायतों की पोटली लिए इधर से उधर भटकते रहते हैं जैसे ही कोई दिखा; झट से उसे पकड़ पहले इधर – उधर की बातें कीं फिर अपनी पोटली खोलते हुए दुनिया भर की समस्याओं को बिखरा दिया। इधर अनोखेलाल जी तो अपनी अनोखी हरकतों के द्वारा कभी किसी को हटाना, किसी को बसाना बस यही करते हुए अपना राग अलाप रहे थे। इस सब के बीच में जो सही था, वो ये कि हर व्यक्ति अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहा था। कहते हैं जो चलेगा, कुछ करेगा वो अवश्य जीतेगा। और जब जीतेगा तो पार्टी तो होगी ही। बस ऐसी ही पार्टियाँ आए दिन होती रहतीं।

हर पार्टी में कोई न कोई आकर्षण का केंद्र अवश्य होता था जिसके इर्द गिर्द बातचीत घूमने लगती और तब तक घूमती जब तक नया मुद्दा न मिल जाए। खोने – पाने का खेल चलता ही रहता। मन्नूलाल जी रिकार्ड्स बनाने के बहुत शौकीन थे। कोई न कोई विषय पर खोजबीन करना, उसे पढ़ना और जुट जाना शिखर पर पहुँचने की ओर। इधर खबरी लाल भी उन्हें सारी जानकारी प्रदान करते जा रहे थे। अब तो ताबड़तोड़ उपलब्धियों की बरसात हो रही थी। लगातार लोगों द्वारा मदद भी मिलने लगी। जब कोई सफल होने लगता है तो सारा हुजूम उसके पीछे चलते हुए उसका साथ देना चाहता है।

एक के बाद एक बड़े कार्य होते जा रहे हैं ऐसा लगता है मानो सब कुछ खुली आँखों द्वारा देखा गया सपना ही तो है। सपने सच होते हैं उनके, जो परिश्रम करना जानते हैं, जो सबको साथ लेकर, सच्ची नियत के मालिक होते हैं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #119 ☆ व्यंग्य – इंकलाब और फर्नीचर की दूकान ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘इंकलाब और फर्नीचर की दूकान’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 119 ☆

☆ व्यंग्य – इंकलाब और फर्नीचर की दूकान 

रज्जू के घर कई दिन बाद गया था। ड्राइंग-रूम में दाख़िल हुआ तो देखा दीवान पर एक साहब छाती तक रज़ाई खींचे,लेटे, सिगरेट के कश लगा रहे हैं। सारे कमरे में सिगरेट की बू भरी हुई थी। सिरहाने सिगरेट के आठ दस टोंटे पड़े थे और अलमारी में ‘ब्लैक नाइट’ की एक ख़ाली बोतल रखी थी। एक तरफ एक अधखुला सूटकेस था जिसमें से कपड़े झाँक रहे थे। तीन चार कपड़े दीवान की पुश्त और किवाड़ पर टंगे थे। ख़ासा बेतरतीबी का आलम था।

अतिथि महोदय नौजवान ही थे। मुझे देखकर उन्होंने वैसे ही लेटे लेटे हाथ उठाकर सलाम किया। दस बज गये थे लेकिन ज़ाहिर था कि उनके लिए अभी बाकायदा सबेरा नहीं हुआ था।

रज्जू कहीं गया हुआ था। भीतर गया तो देखा भाभी का पारा ख़ासा गरम था। घर में हीटर की ज़रूरत नहीं थी। मैंने पूछा, ‘ये साहब कौन हैं?’

वे बोलीं, ‘इनके पुराने दोस्त हैं। आठ दिन से खून पी रहे हैं। हिलने का ना्म नहीं लेते। ये अभी उन्हीं के लिए अंडे लेने गये हैं। बिना आमलेट के उनका नाश्ता नहीं होता। इन्हें ऐसे ही निठल्ले दोस्त मिलते हैं।’

मैं भाभी के मिजाज़ पर दो चार ठंडे छींटे देकर वापस ड्राइंग रूम में आया तो अतिथि महोदय मेरे ऊपर इनायत करके अधलेटे हो गये। मेरी तरफ हाथ बढ़ाकर बोले, ‘मैं शम्मी, रज्जू का कॉलेज के ज़माने का दोस्त। यूँ ही अचानक याद आ गयी तो आ गया। वैसे भोपाल में रहता हूँ। आपकी तारीफ?’

मैंने कहा, ‘मैं जे.पी.शर्मा हूँ। रज्जू से बहुत पुराने ताल्लुक़ात हैं।’

वे बोले, ‘आपसे मिलकर ख़ुशी हुई।’

मैंने पूछा, ‘भोपाल में आप क्या करते हैं?’

वे थोड़ा हँसे, फिर छत पर आँखें टिकाकर बोले, ‘अजी जनाब, हमारी क्या पूछते हैं। बस यूँ समझिए कि—चला जाता हूँ हँसता खेलता मौजे हवादिस से, अगर आसानियाँ हों ज़िन्दगी दुश्वार हो जाए।’

मैं चमत्कृत हुआ। सोचा, यह तो कोई जीवट वाला, जुझारू आदमी है जो ज़िन्दगी से बहादुरी से दो दो हाथ कर रहा है। कहा, ‘लगता है आप बड़ी जद्दोजहद से गुज़र रहे हैं।’

वे सिगरेट के टोंटे को चाय के कप में बुझाते हुए लंबी साँस छोड़कर बोले, ‘अजी क्या पूछते हैं!बस यूँ समझिए कि आग के दरया में से डूब कर जा रहे हैं।’

मैं चुप हो गया तो वे बोले, ‘मेरे बारे में और कुछ नहीं जानना चाहेंगे?’

मैंने कहा, ‘क्यों नहीं!आपकी ज़िन्दगी तो ख़ासी दिलचस्प लगती है। फ़रमाइए।’

वे सिर को हथेली की टेक देकर, दुबारा छत पर नज़रें जमा कर धीरे धीरे बोले, ‘भोपाल में हमारे डैडी की फर्नीचर की बड़ी दूकान है। पाँच औलादों में मैं अकेला बेटा हूँ। मैं शुरू से शायर-तबियत और नफ़ासत-पसन्द इंसान रहा हूँ। डैडी का फर्नीचर का धंधा मुझे कभी पसन्द नहीं आया। कॉलेज के बाद मेरा बस यही शग़ल रहा—दोस्तों के साथ घूमना-घामना, खाना-पीना और मौज करना। एक दिन डैडी कहने लगे, बालिग़ हो गये हो, दूकान पर बैठो। मैंने कहा, मैं मुर्दा फर्नीचर के बीच बैठ कर क्या करूँगा, मैं तो ज़िन्दा चीज़ों का शैदाई हूँ। डैडी बेहद ख़फ़ा हो गये। कहने लगे,इसी फर्नीचर की रोटी खाता है और इसी की बुराई करता है?मैंने जवाब दिया, जनाब, रोटी तो ख़ुदा की दी हुई खाता हूँ। जिसने चोंच दी है वही चुग्गा देता है। आप खामखाँ क्रेडिट ले रहे हैं। बात बढ़ गयी। वे कहने लगे,दूकान पर बैठो, नहीं तो यहाँ से मुँह काला करो।

‘बात उसूलों की थी। मैंने फौरन घर छोड़ दिया। मम्मी ने मुझे चुपके से दस हज़ार रुपये पकड़ा दिये। वहाँ से लखनऊ अपने मामू के यहाँ चला गया। वहाँ दो महीने रहा। वहाँ भी कई दोस्त बन गये और ज़िन्दगी अच्छी ख़ासी गुज़रने लगी। लेकिन मुश्किल यह है कि दुनिया के कारोबारी लोगों को मेरे जैसे आदमी का सुकून बर्दाश्त नहीं होता। कुछ दिनों बाद मेरा सुख-चैन मेरे मामू को खटकने लगा। उनकी हार्डवेयर की दूकान है। कहने लगे दूकान पर बैठो। मैंने कहा, बात उसूलों की है। मैं नाज़ुक चीज़ों का प्रेमी हूँ, लोहा-लंगड़ के बीच बैठना मुझे गवारा नहीं। आख़िरकार लखनऊ भी छोड़ना पड़ा। चलते वक्त मामू से पाँच हज़ार रुपये ले लिये।

‘फिर रामपुर दूसरे मामू के यहाँ चला गया। वहाँ एक महीने ही रहा क्योंकि वे शुरू से ही पीछे पड़े रहे कि मैं डैडी के पास लौट जाऊँ। दुनिया भर की नसीहतों का दफ्तर खोले रहते थे। हर दूसरे दिन डैडी को फोन करते थे। लेकिन मेरे ऊपर उनकी बातों का असर भला क्यों होता?मैं तो सर पर कफ़न बाँध कर निकला था। मैंने कह दिया कि भीख माँग कर गुज़ारा कर लूँगा लेकिन फर्नीचर की दूकान पर बैठने भोपाल न जाऊँगा।

‘चुनांचे उन मामू से भी पाँच हज़ार रुपये लिये और वहाँ से अपने एक दोस्त के पास दिल्ली चला गया। वहाँ बीस दिन रहा। दोस्त तो भला आदमी है, लेकिन आप तो जानते ही हैं कि औरतें ज़रा तंगज़ेहन होती हैं। मैं दोस्त के साथ रात ग्यारह बारह बजे तक महफिल जमाये रहता था। दो चार और भले लोग शामिल हो जाते थे। बस उस नेकबख़्त औरत ने कहना शुरू कर दिया कि मैं उसके शौहर को बिगाड़ रहा हूँ। गोया कि उसका शौहर कोई दूध-पीता बच्चा है जो मैं बिगाड़ दूँगा। ख़ैर, मैंने दिल्ली भी छोड़ा और दोस्त से दो हज़ार रुपये लेकर इधर चला आया। जब हालात बेहतर होंगे, चुका दूँगा।’

मैंने कहा, ‘आपकी ज़िन्दगी तो जद्दोजहद की मुसलसल दास्तान है।’

वे सिगरेट का कश खींचकर गुल झाड़ते हुए बोले, ‘सच पूछिए तो हम तो इंकलाबी हैं और इंकलाब की मशाल लिये घूमते हैं। ये पुरानी सड़ी हुई पीढ़ी की तानाशाही हम क़तई बर्दाश्त नहीं करेंगे। दुश्वारियों की कोई फिक्र नहीं है। दुश्वारियों की तो आदत पड़ गयी है। आदत के बाद दर्द भी देने लगा मज़ा, हँस हँस के आह आह किए जा रहा हूँ मैं।’

मैंने एक मिनिट तक ‘वाह वाह’ करने के बाद पूछा, ‘अभी तो आप रुकेंगे?’

वे बोले, ‘देखिए, कब तक यहाँ आबोदाना रहता है। फिलहाल तो हूँ ही।’

अब तक रज्जू भी आ गया था। शम्मी साहब मुझसे बोले, ‘शाम को आइए। कुछ और दिल खोल कर बातें होंगी।’

मैं भाभी के तेवर देख चुका था। बोला, ‘आज शाम को तो मसरूफ़ हूँ। फिर कभी आऊँगा।’

थोड़ी देर में मैंने विदा ली। चलने लगा तो उन्होंने हाथ उठाकर दुहराया, ‘अगर आसानियाँ हों ज़िन्दगी दुश्वार हो जाए।’

रज्जू मुझे बाहर तक छोड़ने आया। मैंने उससे कहा, ‘इस बला से पीछा छुड़ा, नहीं तो भाभी किसी दिन हंगामा कर देगी।’

वह दुखी भाव से बोला, ‘क्या करूँ?मैं तो कई बार इशारा कर चुका, लेकिन उस पर कोई असर ही नहीं होता।’

दो दिन बाद रज्जू का फोन आया कि शम्मी मुझसे मिलना चाहते हैं। कई बार इसरार कर चुके हैं। मैं दोपहर को गया तो वे उसी तरह रज़ाई में घुसे मिले। हवा में वही सिगरेट की गमक थी और अलमारी में रात की खाली बोतल विराजमान थी।

मेरे बैठने के बाद वे बोले, ‘उस दिन की मुख़्तसर मुलाक़ात के बाद आपसे मिलने की ख़्वाहिश बनी रही। दरअसल अब एकाध रोज़ में यहाँ से चलने की सोच रहा हूँ।’ फिर तिरछी नज़र से भीतरी दरवाज़े की तरफ देखकर आवाज़ हल्की करके बोले, ‘मैंने पाया है कि दुनिया के ज़्यादातर लोग तंगज़ेहन हैं। एक इंकलाबी की ज़रूरतों को समझना और उसके काम में मदद करना लोगों को आता नहीं। ख़ास तौर से औरतों को मैंने इस मामले में बहुत ही नासमझ पाया। इसीलिए सोचता हूँ कि दोस्तों से मदद लेने के बजाय डैडी की फर्नीचर की दूकान पर ही लौट जाऊँ।’

मैंने कहा, ‘ख़याल नेक है। देर मत कीजिए।’

वे बोले, ‘वैसे मैं सोच रहा था दो चार दिन आपकी मेहमाननवाज़ी क़ुबूल की जाए। आप बड़े भले आदमी लगे।’

मेरा दिमाग़ तुरत रेस के घोड़े की तरह तेज़ भागा और मैंने निर्णय ले लिया। कहा, ‘तारीफ के लिए शुक्रिया, लेकिन मेरे घर में एक भारी समस्या है। मेरी बीवी को गुस्से के दौरे पड़ते हैं और दौरा पड़ने पर वह बिना सोचे समझे सामने वाले पर हाथ की चीज़ मार देती है। कई बार मुसीबत में पड़ चुका हूँ। ज़िन्दगी समझिए नर्क हो गयी है।’

शम्मी भाई घबराकर बोले, ‘तौबा तौबा!अच्छा हुआ आपने बता दिया। आप तो ख़ासी मुसीबत में हैं। मुझे आपसे हमदर्दी है।’

फिर बोले, ‘अब डैडी की फर्नीचर की दूकान पर लौट जाना ही बेहतर है। दुनिया की आबोहवा हम जैसे इंकलाबियों के लिए मौजूँ नहीं है। रज्जू से दो हज़ार कर्ज़ माँगा है, मिल जाए तो रवाना हो जाऊँगा।’

मैंने चलते वक्त उनसे हाथ मिलाया तो मेरा हाथ हिलाते हुए उन्होंने अपनी शहीदाना मुस्कान के साथ वही शेर पढ़ा—-चला जाता हूँ हँसता खेलता मौजे हवादिस से, अगर आसानियाँ हों ज़िन्दगी दुश्वार हो जाए।’

मैं दरवाज़े से निकलते निकलते मुड़ा तो उन्होंने इस तरह हाथ हिलाया जैसे बस हँसते हँसते फाँसी के तख़्ते पर चढ़ने ही वाले हों।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #12 – व्यंग्य निबंध – व्यंग्य में हास्य की उपस्थिति होने से उसकी सम्प्रेषणीयता बढ़ जाती है पर प्रहारक क्षमता कमजोर हो जाती है. ☆ श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी  के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में  ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ियां सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन  देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।  

आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की अगली कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य निबंध – ‘व्यंग्य में हास्य की उपस्थिति होने से उसकी सम्प्रेषणीयता बढ़ जाती है पर प्रहारक क्षमता कमजोर हो जाती है.’।  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो # 12 – व्यंग्य निबंध – व्यंग्य में हास्य की उपस्थिति होने से उसकी सम्प्रेषणीयता बढ़ जाती है पर प्रहारक क्षमता कमजोर हो जाती है. ☆ श्री रमेश सैनी ☆ 

[प्रत्येक व्यंग्य रचना में वर्णित विचार व्यंग्यकार के व्यक्तिगत विचार होते हैं।  हमारा प्रबुद्ध  पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ]

व्यंग्य  एक गंभीर विधा है. जो समाज, व्यक्ति के सरोकारों, मानवीय संवेदनाओं के साथ आगे बढ़ती हैं. जिसमें जीवन और समाज में  व्याप्त सारी विसंगतियों पर अपनी बात करती है. जिससे व्यक्ति समाज,या शासन का का वह तबका  जिसके कारण व्यक्ति समाज प्रभावित है वह सोचने को मजबूर ह़ो जाता है. व्यंग्य वह शक्ति निहित है कि शोषक तंत्र के माथे पर चिंता की रेखाएं खिच जाती है.. तब यह गंभीर  चिंतनीय विचारणीय हो जाता है. इस स्थिति में हमारे पास वह अस्त्र होना चाहिए. जिससे सामने वाले पर तीखा प्रहार पड़े. उन अस्त्रों में हमारे पास शब्द हैं. शैली हैं. विचार हैं. इन अस्त्रों के उपयोग से ही हम सार्थक ढ़ंग से सामने वाले के पास अपनी बात पहुँचाने में सक्षम होंगे. अन्यथा अगर किसी एक टूल में कमजोर हो जाएंगे. तब इस स्थिति में हमारी विसंगति, सोच का असरहीन होने की पूरी संभावना है.इससे हमारे प्रयास और उद्देश्य विफल हो जाएंगे.यह विफलता शोषण और शोषक को शक्ति प्रदान करेगी।यह अराजकता धीरे धीरे समाज में बड़ी समस्या बन सामने आ सकती है.  समस्या का विकराल में परिवर्तित होने पर समाज और व्यक्ति का बहुत बड़ा नुकसान होने की पूरी की पूरी संभावना है.इस स्थिति में हमें सिर्फ पश्चताने के सिवा कुछ हाथ नहीं आना है. सभी सभ्य समाज, व्यक्ति शासन, या सत्ता  सदा सजग जिम्मेदार चिंतक, विचारक, लेखक कला साधक समाज सुधारक, समाज सुधारक संस्था की ओर आशा की नज़र से देखता है. इस समय लेखक कवि, और कलाकार का दायित्व बढ़ जाता है कि वह गंभीरता से उस विसंगति, कमजोरी, पर विचार करे. अपने पूरे टूल्स के साथ के उन कमजोरियों के समाज और सत्ता के सामने लाए. या उन विसंगतियों का संकेत करे. जिससे पीड़ित, शोषित वर्ग उन विसंगतियों के प्रति सजग सतर्क हो सके. यह काम सिर्फ और सिर्फ गंभीर प्रवृत्ति वाले लोग ही अच्छे ढ़ंग से कर सकते हैं. जिससे बेहतर समाज, बेहतर मनुष्य को बनाने की संकल्पना कर सकते हैं. यह कार्य हास्य की उपस्थित में पूरी क्षमता के साथ संभव नहीं है. गंभीरता में हमारी क्षमताओं का घनत्व बढ़ जाता है. जिससे हमारी सोच और बात की संप्रेषणीयता को विस्तार मिलता है. तब इससे इसकी पठनीयता बढ़ जाती है. संप्रेषणीयता और पठनीयता के तत्वों के कारण हमारे उद्देश्य की सफलता के अवसर बढ़ जाते हैं.हास्य रचनाओं में तरलता प्रदान करता है. जिससे रचनाओं का उद्देश्य कमजोर हो जाता है. किसी कमजोर चीज या शक्ति का प्रभावहीन होना बहुत साधारण सी बात है. तब हमारा उद्देश्य पीछे ह़ो जाता है. हमारा यह श्रम और प्रयास विफल हो जाता है. गंभीर से गंभीर रचना अपने सरोकार और संवेदनशीलताको लेकर अपनी बात समाज के सामने आती है.उसका प्रभाव सकारात्मक लिए होता है. यदि उसमें हास्य का मिश्रण कर दें. तब उसकी संप्रेषणीयता और पठनीयता तो बढ़ जाएगी. तब लोग उसको हास्य में ले लेंगे.और उसॆ  हास्य में उड़ा देंगे. इस स्थिति में हमारा को उद्देश्य हास्यास्पद होने की संभावना बढ़ जाती है. यह विकट स्थिति है. इससे बचना चाहिए. हरिशंकर परसाई जी सदा विसंगतियों पर बहुत गंभीरता से लिखा. चाहे इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर,अकाल उत्सव, वैष्णव की फिसलन, पवित्रता का दौरा,आदि अनेक रचनाएं अपने गंभीर उद्देश्य को लेकर चलती है.. उनकी रचनाओं में हास्य के छीटे जरूर आते हैं पर व्यंग्य और विषय की गंभीरता को कम नहीं करते हैं. इस पर परसाई जी का कहना है कि “हास्य लिखना मेरा यथेष्ट नहीं है यदि स्वाभाविक रूप से हास्य आ जाए तो मुझे गुरेज भी नहीं है.” यहां पर परसाई जी ने हास्य को प्राथमिकता नहीं दी है. वरन वे अपनी बात को गंभीरता से क ने विश्वास करते हैं. उनकी चर्चित रचन ‘इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर ‘ का संवाद हैं

एक  इंस्पेक्टर ने कहा  – हाँ  मारने वाले तो भाग गए थे. मृतक  सड़क पर बेहोश पड़ा था. एक भला आदमी वहाँ रहता है. उसने उठाकर अस्पताल भेजा. उस भले आदमी के कपड़ों पर खून के दाग लग गए हैं.

 मातादीन ने कहा- उसे फौरन गिरफ्तार करो

 कोतवाल ने कहा – “मगर उसने तो मरते हुए आदमी की मदद की थी “

मातादीन ने कहा – वह सब ठीक है. पर तुम खून के दाग ढूंढने कहाँ जाओगे  जो एविडेंस मिल रहा है. उसे तो कब्जे में करो. वह भला आदमी पकड़कर बुलवा लिया गया.

उसने कहा- “मैंने तो मरते आदमी को अस्पताल भिजवाया था. मेरा क्या कसूर है?

चाँद की पुलिस उसकी बात से एकदम प्रभावित हुई. मातादीन प्रभावित नहीं हुए. सारा पुलिस महकमा उत्सुक था। अब मातादीन क्या तर्क निकालते हैं।

मातादीन ने उससे कहा- पर तुम झगड़े की जगह गए क्यों? उसने जवाब दिया -“मैं झगड़े की जगह नहीं गया. मेरा वहां मकान है. झगड़ा मेरे मकान के सामने हुआ.

अब फिर मातादीन की प्रतिभा की परीक्षा थी. सारा महकमा उत्सुक देख रहा था.

मातादीन ने कहा- “मकान है, तो ठीक है. पर मैं पूछता हूं कि झगड़े की जगह जाना ही क्यों?” इस तर्क का कोई जवाब नहीं था. वह बार-बार कहता मैं झगड़े की जगह नहीं गया. मेरा वहां मकान है. मातादीन उसे जवाब देते – ‘तो ठीक है, पर झगड़े की जगह जाना ही क्यों ? इस तर्क प्रणाली  से पुलिस के लोग बहुत प्रभावित हुए.

संवाद हमें ह़ँसने के लिए विवश अवश्य करता है. व्यंग्य के उद्देश्य कहीं भी तरल या कमजोर नहीं करता है. यहाँ हास्य हैं पर रचना की गंभीरता पर कोई असर नहीं पड़ता है. परसाई जी सदा इन विशेषता के आज भी याद आते हैं. उन्होंने अपने व्यंंग्य में टूल्स का समानुपातिक मात्रा में प्रभावी ढ़ंग से लिखा. यहां पर उनके समकालीन लेखक के पी सक्सेना जी का अवश्य ही उल्लेख करना चाहूंगा. उन्होंने विपुल मात्रा में लिखा। पर उनकी रचनाएं हमें समरण नहीं है. उनकी रचनाओं में पठनीयता थी लोगों को बहुत पसंद आती थी. वे मंच पर बहुत सराहे जाते थे. पर हास्यपरक होने के उन पर आरोप लगते रहे. उन्हें भी जीवन भर यह मलाल रहा कि मेरी रचनाओं में व्यंंग्य हैं परंतु यह स्वीकारते नहीं. इसके पार्श्व में मूल कारण यही था कि उनकी रचनाओं में हास्य व्यंंग्य की गंभीरता को तरल कर देते थे. जिससे व्यंग्य प्रभावहीन होकर अपने उद्देश्य में विफल हो जाता था. जब व्यंंग्य अपने सरोकारों और मानवीय संवेदना से छिटककर सामने आता है. तब प्राणहीन प्रस्तर प्रतिमा के समान दिखती है.उसका आकर्षण तो होता है, पर जीवंतता गायब रहती है.यही व्यंंग्य की गंभीर रचना में हास्य दुष्प्रभाव है.   

© श्री रमेश सैनी 

सम्पर्क  : 245/ए, एफ.सी.आई. लाइन, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर, मध्य प्रदेश – 482 002

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ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ #80 ☆ सच्ची चाहत ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना सच्ची चाहत। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 80 ☆ सच्ची चाहत 

काम किसी का नहीं रुकता है, बस चाहत सच्ची होनी चाहिए। जब कोई व्यक्ति जाता है तो उससे बढ़िया आता है। प्रश्न ये है कि  प्रमुख व्यक्ति  जब सबको जोड़कर रखे हुए है तो उसकी टीम अनायास टूट कैसे जाती है? अक्सर देखने  में आता है कि नए लोगों का स्वागत है, वहीं पुराने लोग उपेक्षित होकर सब कुछ छोड़ने पर मजबूर होते हुए दिखते हैं। सबको बाँध कर रखना संभव नहीं हो सकता है। लोगों को अपनी कार्यक्षमता को बढ़ाना चाहिए। लोग निरन्तर आ रहे हैं और जुड़ने पर गर्व महसूस करते हैं।जबकि दूसरी ओर  नए – नए लोगों का आना और पुरानों का बेइज्जत होकर जाना ये क्रम भी चल रहा है। इन सबके बीच यदि कोई पूज्यनीय है तो वो है सत्कर्म। कर्म करते रहें, सही योजना बनाकर जब भी आयोजन होंगे तो सफलता कदम चूमेंगी ही।

शत प्रतिशत ताकत के साथ जब आप किसी कार्य में जुटेंगे तो उसका परिणाम अवश्य ही दूरगामी होगा। पूर्णता के साथ आगे बढ़ते रहें। क्रमशः ऊँचाई की ओर देखते हुए एक -एक कदम रखते जाएँ अवश्य ही सफ़लता मिलेगी। यदि शिखर पर विराजित होना है तो स्वयं को हर पल तरोताजा व तकनीकी रूप से समृद्ध रखना होगा। लक्ष्य एक हो किन्तु उसे पाने के तरीके में नई – नई योजना होनी चाहिए। जब तक मन आनंदित नहीं होगा कार्य करते समय उदासीनता घर कर लेगी।  उत्साह बनाए रखने के लिए नवीनता का होना जरूरी होता है। ये कार्य हमारे लिए क्यों जरूरी है इससे हमें व समाज को क्या फायदा होगा ये प्रश्न भी पूछते रहना चाहिए। लाभ व हानि का मुद्दा ही मन में जोश भरता है। 

कार्य में इतनी गुणवत्ता होनी चाहिए कि दूसरा कोई विकल्प न हो, जब भी कोई नाम ढूंढा जाए तो आपका ही अक्स सामने उभर कर आए। ये सही है कि समझौते के बिना दुनिया नहीं चलती किन्तु योग्यता के महत्व को कोई आज तक नकार नहीं सका है सो अपने अंदर जुनून पैदा करें और कोई इतिहास रचें जो न भूतों न भवष्यति हो।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #118 ☆ व्यंग्य – पुरस्कार-समिति के अध्यक्ष से भेंट ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘पुरस्कार-समिति के अध्यक्ष से भेंट’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 118 ☆

☆ व्यंग्य – पुरस्कार-समिति के अध्यक्ष से भेंट 

पैंतीस पुस्तकों के लेखक और देश में फैली नाना समितियों और संगठनों से पैंतालीस पुरस्कार-प्राप्त यशस्वी लेखक उस मकान की सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे। एक हाथ में उनकी पैंतीस पुस्तकों का बंडल और दूसरे में मिठाई का डिब्बा।  घुटनों की तकलीफ के कारण कराहते, मुँह बनाते चढ़ रहे थे। वे यहाँ प्रदेश की सबसे महत्वपूर्ण पुरस्कार-समिति के अध्यक्ष से सौजन्य-भेंट करने आये थे। पुरस्कारों का मौसम चल रहा था।

सीढ़ी पर बीच में रुककर लेखक महोदय पीड़ा से बुदबुदाये, ‘ससुरे सरग में रहते हैं। दर्द से परान निकले जा रहे हैं।’

ऊपर पहुँच कर घंटी बजायी तो अध्यक्ष महोदय सामने आये। सामान से लदे फँदे,पस्त लेखक जी सामने पड़े सोफे पर ढेर हो गये। थोड़ा सँभले तो बत्तीस दाँतों वाली मुस्कान फेंककर हाथ जोड़कर बोले, ‘मैं हजारीलाल ‘चातक’। पचास साल से साहित्य के क्षेत्र में हूँ। पैंतीस किताबें छप चुकी हैं। आपको भेंट करने के लिए लाया हूँ।’ उन्होंने बंडल की तरफ इशारा किया।

अध्यक्ष महोदय बोले, ‘हाँ,आपका नाम ज़रूर कहीं पढ़ा है। कैसे पधारे?’

‘चातक’ जी बोले, ‘इस शहर में कुछ काम से आया था। सोचा आपको पुरस्कार समिति का अध्यक्ष बनने की बधाई दे आऊँ।’

अध्यक्ष जी बोले, ‘पुरस्कार समिति का अध्यक्ष बने तो डेढ़ साल हो गया।’

‘चातक’ जी ने जवाब दिया, ‘तो क्या हुआ? देर आयद, दुरुस्त आयद। जब जागे तभी सबेरा। अंग्रेजी में भी कहते हैं बैटर लेट दैन नेव्हर। और वह सरकारी नारा है, दुर्घटना से देर भली।’

अध्यक्ष जी ने पूछा, ‘दुर्घटना कैसी?’

‘चातक’ जी बोले, ‘अब देखिए न, पैंतीस किताबों के स्थापित और लोकप्रिय लेखक को पचास साल की साहित्य-सेवा के बाद भी कोई बड़ा पुरस्कार न मिले तो यह दुर्घटना से क्या कम है? इसीलिए समय रहते जरूरी कार्यवाही कर लेना चाहिए।’

अध्यक्ष जी बोले, ‘आपसे पहले कहीं भेंट नहीं हुई?’

‘चातक’ जी बोले, ‘हुई थी। आपको याद नहीं है, लेकिन मेरे पास प्रमाण है। पिछले साल लखनऊ में हुए लेखक-सम्मेलन में मैंने आपके साथ फोटो खिंचवाया था। हाथ भी मिलाया था। यह देखिए फोटो।’

अध्यक्ष जी ने देखा फोटो में ‘चातक’ जी लेखकों की भीड़ में दो लेखकों के कंधों पर से झाँक रहे थे।

‘चातक’ जी ने मिठाई का डिब्बा बढ़ाया। अध्यक्ष जी बोले, ‘यह क्या है?’

‘चातक’ जी ने जवाब दिया, ‘कुछ नहीं। रास्ते में अच्छी मिठाई की दूकान मिल गयी तो थोड़ी सी ले ली। सोचा हमारी भेंट कुछ मधुर हो जाएगी और आपके ज़ेहन में मेरी मधुर स्मृतियाँ रहेंगीं।’

दरअसल ‘चातक’ जी शहर में किसी दूसरे काम से नहीं, अध्यक्ष जी के साथ पुरस्कार की गोटी बैठाने के लिए ही पैसा खर्च करके आये थे और एक होटल में टिके थे। होटल में रुकने का खर्च उन्हें अखर गया था लेकिन पुरस्कार के लालच में उन्होंने उसे भावी लाभ हेतु किया गया विनियोग मान लिया था।

मिठाई का डिब्बा देकर ‘चातक’ जी बोले, ‘आप शिष्टाचारवश मुझे चाय पिलायेंगे ही, इसलिए बता देता हूँ कि मेरी चाय में चीनी नहीं रहेगी। बैठे बैठे साहित्य-सेवा करते करते डायबिटीज़ हो गयी। यों समझिए कि अपना पूरा जीवन ही साहित्य की भेंट चढ़ गया, लेकिन विडंबना देखिए इतने बड़े त्याग के बाद भी अभी तक कोई बड़ा पुरस्कार हाथ नहीं आया।’

फिर उन्होंने एक पुस्तक अध्यक्ष जी की तरफ बढ़ायी, बोले, ‘यह पाक-शास्त्र के नुस्खों की पुस्तक है। भाभी जी को दीजिएगा। आपको बना बना के उत्तम व्यंजन खिलाएँगीं तो आपका स्वास्थ्य और मन बढ़िया रहेगा।’

इसके बाद थोड़ा सुस्ता कर बोले, ‘एक बात मन की कहता हूँ। पिछले जो अध्यक्ष जी थे वे मुँह देख कर,चीन्ह चीन्ह कर पुरस्कार देते थे। आपको देख कर विश्वास होता है कि आप के हाथों नाइंसाफी नहीं होगी, सुपात्रों को ही पुरस्कार मिलेंगे।’

फिर अध्यक्ष जी के चेहरे पर आँखें टिकाकर बोले, ‘बहुत से साहित्यकार मुझसे कहते हैं कि तुम्हें तो साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिलना चाहिए। मैं कहता हूँ कि भैया, चने के झाड़ पर मत चढ़ाओ। अपने देश के पुरस्कार मिल जाएँ यही बहुत है। अपन को नोबेल फोबेल की कोई इच्छा नहीं है। अपने देश के पुरस्कार मेंं जो बात है वह विदेशी पुरस्कार में कहाँ!’

थोड़ी देर इधर उधर की बातें करके ‘चातक’ जी बोले, ‘अब चलता हूँ, आपका बहुत समय लिया। अपनी ये पैंतीस पुस्तकें छोड़े जा रहा हूँ। मुझे विश्वास है कि इन्हें पढ़कर आपको लगेगा कि इस पुरस्कार का सही हकदार मैं ही हूँ। समिति के दूसरे सदस्य अपने भाई-भतीजों के नाम सुझाएँगे, लेकिन आप डटे रहेंगे तो सही आदमी के साथ पक्षपात और अन्याय नहीं होगा। साहित्य- संसार बड़ी उम्मीद से आपकी तरफ देख रहा है।’

अध्यक्ष महोदय ने हँसकर उन्हें आश्वस्त किया।’चातक’ जी उठकर बाहर आये। सामने नीचे उतरती सीढ़ियों को देखकर उनका मूड फिर गड़बड़ हो गया। ज़बान पर फिर ‘ससुरे’ शब्द आया लेकिन अध्यक्ष महोदय को दरवाज़े पर खड़ा देख वे उसे पीछे धकेल कर मुस्करा दिये। फिर वे पीड़ा से मुँह बिगाड़ते, सीढ़ियाँ उतरने लगे। गनीमत यही थी कि वे पैंतीस किताबों के बंडल और मिठाई के डिब्बे के बोझ से मुक्त हो गये थे, अन्यथा और फजीहत होती।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो # 11 – व्यंग्य निबंध – व्यंग्य के प्रतिमान और वर्तमान ☆ श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी  के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में  ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ियां सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन  देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।  

आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की अगली कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य निबंध – ‘व्यंग्य के प्रतिमान और वर्तमान’।  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो # 11 – व्यंग्य निबंध – व्यंग्य के प्रतिमान और वर्तमान ☆ श्री रमेश सैनी ☆ 

[प्रत्येक व्यंग्य रचना में वर्णित विचार व्यंग्यकार के व्यक्तिगत विचार होते हैं।  हमारा प्रबुद्ध  पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ]

व्यंग्य की जब भी बात होती है. तब स्वभावतः होता है कि कबीर के समय पर चले जाते हैं. कबीर ने अपने समय की विसंगति पाखंड प्रपंच पर कठोरता से प्रहार किया है. उनके शबद, बानी और दोहों ने समाज को जगाने का काम किया. कबीर ने बहुत बेबाकी से अपने समय की बात रखी. उन्होंने धार्मिक अंधविश्वास पाखंड प्रपंच पर तीखे तेवर से बातो को समाज के सामने आगे बढ़ाया.. कबीर के समय में धर्म की सत्ता अधिक प्रभावशाली थी. कबीर कहते हैं

मेरा मन समरई राम को मेरा मन रामाहि आहि

इब  मन रामहि है चला सीस नवाबों काहि

यहाँ पर कबीर ने मनुष्यता को उच्चतर स्तर दिया है. राम को जीवन का पर्याय माना है. कबीर राम और मनुष्य के अंतर को मिटा देते हैं। उनका मानना है रामत्व भरे जीवन से भय, त्रास अभाव दूर रहते हैं. अभिमान लुप्त हो जाता है. तब ऐसी स्थिति में अन्य के आगे शीश नबाने क्या फायदा.

कबीरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ

जो घर फूकों आपनो चलै हमारे साथ

यह समझने की जरूरत है. यहाँ कबीर साहित्य मनुष्य और मनुष्यता को बड़ा बनाने में प्रयास रत है. उस समय का बाजार अलग था. उस समय के बाजार में सकारात्मक पहलू थे. उस समय के बाजार में सबके लिए विशेष कर किसानों के लिए आर्थिक आधार था. उनका सम्मान था. इस बाजार ने किसानों को स्वायत्तता प्रदान कर मनुष्य और मनुष्यता को आगे बढ़ाया. कबीर का रास्ता वे ही अपना सकते हैं जो अपना सब कुछ त्याग मनुष्यता के पक्ष में खड़े हैं. कबीर के साहित्य ने मानवीय सरोकारों के साथ सामाजिक संवेदनों के महत्व का आकलन कर मनुष्य के प्रतिमान स्थापित किए हैं यह परंपरा कबीर से लेकर भारतेंदु हरिश्चंद्र, बालकृष्ण भट्ट, बालमुकुंद गुप्त से आगे बढ़कर हरिशंकर परसाई और शरद जोशी तक हमें देखने में मिल जाती हैं उसके बाद इसमें ठहराव सा नजर आता है. स्वतंत्रता के बाद परसाई ने सामाजिक सरोकारों, राजनीतिक विसंगति, मानवीय कमजोरियों और प्रवृत्तियों पर तीखे तेवर के साथ बात उठाई है. जिस सत्ता, समुदाय, और व्यक्ति की प्रवृत्तियों पर अपनी कलम चलाई है. वह सत्ता या व्यक्ति तिलमिला उठता है. परसाई पर अनेक प्रकार के दबाव और हमले हुए. पर वे डरे नहीं. अपने उद्देश पर डटे रहे. पुलिस की कार्यप्रणाली और भर्राशाही पर उन्होंने ‘इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर”, ‘भोलाराम  का जीव’ में शासकीय कार्यालयों में व्याप्त अराजकता और भ्रष्टाचार, ‘अकाल उत्सव’ में अकाल के समय पर अफसरों की अफसर शाही और उनके भ्रष्टाचार के नंगेपन को बेदर्दी से उजागर किया है. व्यक्ति की अपने स्वार्थवश फिसलती आस्था पर’ वैष्णव की फिसलन’ मानवीय चरित्र और परिवार की सत्ता पर ‘कंधे श्रवण कुमार के’ माध्यम से मानवीय सरोकारों की बात करते हैं धार्मिक अंधविश्वास और अवसरवाद पर ‘टार्च बेचने वाले’ में व्याप्त प्रपंच को सामने रखते हैं. यहां परसाई का सरोकार समाज, सत्ता में गिरे आचरण पर प्रहार कर व्यंग्य के प्रतिमान को स्थापित करना है. उनके समकालीन शरद जोशी ने शासकीय भर्राशाही ठाकुरसुहाती पर ‘वर्जीनिया वुल्फ से सब डरते हैं’ अफसरों की अवसरवादिता  और भ्रष्टाचार पर वे’ जीप पर सवार इल्लियां’, ‘पुलिया पर बैठा आदमी’ आदि रचनाओं से पाठक और सत्ता को सचेत करते हैं. उनके समकालीन शंकर पुणतांबेकर, अजातशत्रु, लतीफ घोंघी, ज्ञान चतुर्वेदी, प्रेम जनमेजय, हरीश नवल, श्रीराम ठाकुर ‘दादा’, रमेश सैनी आदि की लंबी परंपरा रही है. जिन्होंने व्यक्ति को मानवीय और सामाजिक सरोकारों से जोड़कर वंचितों, शोषितों पीड़ितों के पक्ष में खड़े होकर व्यंग्य के प्रतिमान को स्थापित किया है. इस कारण साहित्य और समाज में व्यंग्य प्रमुखता से उभर कर सामने आया है. आज व्यंग्य अखबार और पत्रकारों की आवश्यकता बन गया है. व्यंग्य संग्रहों का प्रकाशन प्रचुर मात्रा में हो रहा है. ये व्यंग्य के स्थायित्व  के प्रतिमान है जिसके पीछे व्यंग्यकार की निष्पक्षता निर्भरता के साथ जन सरोकारों के साथ खड़ा होना है. पाठक और जन सामान्य को ऐसा महसूस होता है कि यह यह हमारे मन की बात कह रहा है. हमारी आवाज को उठा रहा है. यह सत्ता की शक्ति के साथ नहीं शोषितों के साथ दिख रहा है. इसके पीछे पूर्व के व्यंग्यकारों द्वारा ईमानदारी से किए गए लेखकीय उपक्रम है जिस पर पाठक का विश्वास जगा है

जब हम वर्तमान समय को देखते हैं तो निराशा होती है. व्यंग्य का पाठक पर प्रभाव को देखते हुए अखबार और पत्रिका में स्पेस तो दे रहे हैं. पर उसको बौना बना दिया है. सीमित संख्या म़े सिकोड़कर रख दिया है. व्यंग्यकार देखने दिखाने और छपने के लालच में उसी ढर्रे पर चल निकला है वह अपनी बात को सीमित शब्दों में कहने का प्रयास कर रहा है. जिस कारण बात का संक्षिप्तीकरण होकर संकेतों में सीमित हो जाता है. कभी-कभी पाठक संकेतों को पूरी तरह से आत्मसात नहीं कर पाता है. सीमितता के चलते सभी व्यंग्य  अपने उद्देश्य में पूरी तरह खुल नहीं पाते हैं, या फिसल जाते हैं. फिर वर्तमान समय में कुछ ऐसी रचनाएं आ रही हैं. जो अपने समय की विसंगतियों, कमजोरियों को उजागर करती हैं. आज साहित्य का पूरा परिदृश्य बदल गया है. इसका पूरा प्रभाव व्यंग्य पर भी पड़ा है. आज लेखक, मीडियाकर, पत्रकार नफा नुकसान के गणित के साथ आगे बढ़ रहे हैं. सत्ता की कमजोरियों को छुपा कर उसे बचाकर चलने लगे हैं. इस कारण समाज में व्याप्त समस्याओं और प्रवृत्तियों का सच सामने नहीं आ रहा है. सत्ता भी अपने उपकरणों का उपयोग ऐन केन प्रकारेण सच को छुपाने में ही प्रयास करती है आज का व्यंग्यकार रिस्क नहीं लेना चाहता है. वरन सत्ता से लाभ लेने हेतु उसके साथ देखने का कोई भी अवसर नहीं छोड़ता है. इसकी परिणति यह है कि वह अपने मानवीय सरोकारों से हटकर गैरजरूरी विषयों पर घूम गया है. आज अनेक व्यंग्यकार स्वयं  यह सवाल उठाने लगे हैं कि सत्ता का विरोध क्यों? जबकि व्यंग्य  का उद्देश्य सत्ता का विरोध करना होता है. पर वह सत्ता घर में पिता की, ऑफिस में बॉस  की, या वे सभी प्रकार की सत्ता जो जबरन अपने विचार और प्रभाव को थोपना या मनवाना चाहती हैं. अधिकांश सत्ता का अर्थ है राजनीति से लेते हैं और वैचारिक प्रतिबद्धता के चलते उस सत्ता का विरोध नहीं कर पाते. जबकि वहां पर बड़े-बड़े ब्लैक होल्स है. यह साहित्य और व्यंग्य की बहुत बड़ी विडंबना है जो अपने सच को उजागर करने में अक्षम है. फिर भी  वर्तमान पूरी तरह धुंधला नहीं है. यहां भी दिए की रोशनी है जो सच का रास्ता दिखाने में सक्षम है. इन सब चीजों का आकलन विगत कारोना काल में आ रही रचनाओं से भली-भांति कर सकते हैं. इस समय हमें दोनों प्रकार के दृश्य देखने को मिल गए. शायद यही प्रकृति का चलन है।

© श्री रमेश सैनी 

सम्पर्क  : 245/ए, एफ.सी.आई. लाइन, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर, मध्य प्रदेश – 482 002

मोबा. 8319856044  9825866402

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 79 ☆ जोड़ तोड़ की जद्दोजहद ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “जोड़ तोड़ की जद्दोजहद”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 79 – जोड़ तोड़ की जद्दोजहद 

लक्ष्य प्राप्ति के लिए आगे बढ़ते समय दो प्रश्न हमेशा ही मन में कौंधते हैं कि ऐसी क्या वजह है कि हम जोड़ने से ज्यादा तोड़ने पर विश्वास करते हैं। क्यों नहीं सकारात्मक कार्यों में जुट कर कुछ अच्छा व सार्थक करें पर नहीं हमें तो सब पर अपना आधिपत्य जमाना है सो हमारे हाथ में उन लोगों की लगाम कैसे आए यही चिंतन दिन रात चलता रहता है। ये भी अटल सत्य है कि जिस चीज को जी जान से चाहो वो तुरंत मिल जाती है पर क्या उसे पाने के बाद मन प्रसन्न होगा?

सबको साथ लेकर चलें, श्रेय लेने की कोशिश करने पर ही सारे विवाद सामने आते हैं। जब अपनी सोच एकदम स्पष्ट होगी तो विवाद का कोई प्रश्न नहीं उठेगा। गति और प्रगति के बीच की रेखा यदि स्पष्ट हो तो सार्थक परिणाम दिखाई देने लगते हैं। धीरे – धीरे ही सही जो लगातार चलता है वो विजेता अवश्य बनता है और यही तो उसके प्रगति की निशानी है। सबको साथ लेकर चलने पर जो आंनद अपनी उपलब्धियों पर मिलता है वो तोड़फोड़ करने पर नहीं आता। जो मजबूत है उसका सिक्का तो चलना ही है। बस नियत सच्ची हो तो वक्त बदलने पर भी प्रभाव कम नहीं होता है।

समझाइश लाल जी सबको समझाते हुये सारे कार्य करते और करवाते हैं किंतु जब उनकी बारी आती है तो समझदारी न जाने कहाँ तफरी करने चली जाती है। खुद के ऊपर बीतने पर क्रोध से लाल पीले होते हुए अनर्गल बातचीत पर उतर आते हैं। तब सारे नियमों को ध्वस्त करते हुए नयी कार्यकारिणी गठित कर लेते हैं। पुरानों को सबक सिखाने का ये अच्छा तरीका है।वैसे भी बोलने वालों  के  मुख पर लगाम कसना ही शासक का धर्म होता है। अनचाही चीजों को हटाने का नियम तो वास्तु शास्त्र में भी है। जो भी चीज अनुपयोगी हो उसे या तो किसी को दे दो या नष्ट कर देना चाहिए। कबाड़ कबाड़ी के पास ही शोभता है।

सबसे जरूरी बात ये है कि जब हम लक्ष्य की ओर अग्रसर होते हैं तो रास्ते में बहुत सारे भ्रमित करने वाले चौराहे मिलते हैं किन्तु हमें लक्ष्य पर केंद्रित होते हुए सही दिशा को ही चुनना पड़ता है। भले ही वहाँ काँटे बिछे हों। चारो तरफ अपनी शक्ति को न बिखेरते हुए केवल और केवल लक्ष्य पर केंद्रित होना चाहिए। हाँ इतना जरूर है कि साधन और साध्य के चयन में ईमानदारी बरतें अन्यथा वक्त के मूल्यांकन का सामना करते समय आप पिछड़ जाएंगे। ये सब तो प्रपंच की बातें लगतीं हैं वास्तविकता यही है कि जहाँ स्वार्थ सिद्ध हो वहीं झुक कर समझौता कर लेना चाहिए। होता भी यही है, सारे दूरगामी निर्णय लाभ और हानि को ध्यान में रखकर किए जाते हैं ये बात अलग है कि वक्त के साथ व्यवहार बदलने लगता है आखिर मन का क्या है वो ऊबता बहुत जल्दी है और इसी जद्दोजहद में ऊट कब किस करवट बैठ जाए इसे केवल परिस्थिति ही तय करेगी।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 131 ☆ व्यंग्य – हिंडोले ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा लिखित एक विचारणीय व्यंग्य  ‘हिंडोले ’ । इस विचारणीय व्यंग्य के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 131 ☆

?  व्यंग्य – हिंडोले ?

पत्नी मधुर स्वर में भजन गा रहीं थीं . “कौन झूल रहे , कौन झुलाये हैं ? कौनो देत हिलोर ? … गीत की अगली ही पंक्तियों में वे उत्तर भी दे देतीं हैं . गणपति झूल रहे , गौरा झुलायें हैं , शिव जी देत हिलोर.” … सच ही है  हर बच्चा झूला झूलकर ही बडा होता है . सावन में झूला झूलने की हमारी सांस्कृतिक विरासत बहुत पुरानी है . राजनीति के मर्मज्ञ परम ज्ञानी भगवान कृष्ण तो अपनी सखियों के साथ झूला झूलते , रास रचाते दुनियां को राजनीति , जीवन दर्शन , लोक व्यवहार , साम दाम दण्ड भेद बहुत कुछ सिखा गये हैं .  महाराष्ट्र , राजस्थान , गुजरात में तो लगभग हर घर में ही पूरे पलंग के आकार के झूले हर घर में होते हैं . मोदी जी के अहमदाबाद में  साबरमती तट पर विदेशी राजनीतिज्ञों के संग झूला झूलते हुये वैश्विक राजनीती की पटकथा रचते चित्र चर्चित रहे हैं . आशय यह है कि राजनीति और झूले का साथ पुराना है .

मैं सोच रहा था कि पक्ष और विपक्ष राजनीति के झूले के दो सिरे हैं . तभी पत्नी जी की कोकिल कंठी आवाज आई “काहे को है बनो रे पालना , काहे की है डोर , काहे कि लड़ लागी हैं ? राजनीती का हिंडोला सोने का होता है , जिसमें हीरे जवाहरात के लड़ लगे होते हैं , तभी तो हर राजनेता इस झूले का आनंद लेना चाहता है . राजनीति के इस झूले की डोर वोटर के हाथों में निहित वोटों में हैं . लाभ हानि , सुख दुख , मान अपमान , हार जीत के झूले पर झूलती जनता की जिंदगी कटती रहती है . कूद फांद में निपुण ,मौका परस्त कुछ नेता उस हिंडोले में ही बने रहना जानते हैं जो उनके लिये सुविधाजनक हो . इसके लिये वे सदैव आत्मा की आवाज सुनते रहते हैं , और मौका पड़ने पर पार्टी व्हिप की परवाह न कर  जनता का हित चिंतन करते इसी आत्मा की आवाज का हवाला देकर दल बदल कर डालते हैं .  अब ऐसे नेता जी को जो पत्रकार या विश्लेषक बेपेंदी का लोटा कहें तो कहते रहें , पर ऐसे नेता जी जनता से ज्यादा स्वयं के प्रति वफादार रहते हैं . वे अच्छी तरह समझते हैं कि ” सी .. सा ” के राजनैतिक खेल में उस छोर पर ही रहने में लाभ है जो ऊपर हो . दल दल में गुट बंदी होती है . जिसके मूल में अपने हिंडोले को सबसे सुविधाजनक स्थिति में बनाये रखना ही होता है . गयाराम  जिस दल से जाते हैं वह उन्हें गद्दार कहता है , किन्तु आयाराम जी के रूप में दूसरा दल उनका दिल खोल कर स्वागत करता है और उसे हृदय परिवर्तन कहा जाता है. देश की सुरक्षा के लिये खतरे कहे जाने वाले नेता भी पार्टी झेल जाती है.

किसी भी निर्णय में साझीदारी की तीन ही सम्भावनाएं होती हैं , पहला निर्णय का साथ देना, दूसरा विरोध करना और तीसरा तटस्थ रहना. विरोध करने वाले पक्ष को विपक्ष कहा जाता है.  राजनेता वे चतुर जीव होते हैं जो तटस्थता को भी हथियार बना कर दिखा रहे हैं . मत विभाजन के समय यथा आवश्यकता सदन से गायब हो जाना ऐसा ही कौशल है . संविधान निर्माताओ ने सोचा भी नहीं होगा कि राजनैतिक दल और हाई कमान के प्रति वफादारी को हमारे नेता देश और जनता के प्रति वफादारी से ज्यादा महत्व देंगे . आज पक्ष विपक्ष अपने अपने हिंडोलो पर सवार अपने ही आनंद में रहने के लिये जनता को कचूमर बनाने से बाज नही आते .

मुझ मूढ़ को समझ नहीं आता कि क्या संविधान के अनुसार विपक्ष का अर्थ केवल सत्तापक्ष का विरोध करना है ? क्या पक्ष के द्वारा प्रस्तुत बिल या बजट का कोई भी बिन्दु ऐसा नही होता जिससे विपक्ष भी जन हित में सहमत हो ? इधर जमाने ने प्रगति की है , नेता भी नवाचार कर रहे हैं . अब केवल विरोध करने में विपक्ष को जनता के प्रति स्वयं की जिम्मेदारियां अधूरी सी लगती हैं . सदन में अध्यक्ष की आसंदी तक पहुंचकर , नारेबाजी करने , बिल फाड़ने , और वाकआउट करने को विपक्ष अपना दायित्व समझने लगा है .लोकतंत्र में संख्याबल सबसे बड़ा होता है , इसलिये सत्ता पक्ष ध्वनिमत से सत्र के आखिरी घंटे में ही कथित जन हित में मनमाने सारे बिल पारित करने की कानूनी प्रक्रिया पूरी कर लेता है . विपक्ष का काम किसी भी तरह सदन को न चलने देना लगता है . इतना ही नही अब और भी नवाचार हो रहे हैं , सड़क पर समानांतर संसद लगाई जा रही है . विपक्ष विदेशी एक्सपर्टाइज से टूल किट बनवाता है , आंदोलन कोई भी हो उद्देश्य केवल सत्ता पक्ष का विरोध , और उसे सत्ता च्युत करना होता है . विपक्ष यह समझता है कि सत्ता के झूले पर पेंग भरते ही झूला हवा में ऊपर ही बना रहेगा , पर विज्ञान के अध्येता जानते हैं कि झूला हार्मोनिक मोशन का नमूना है , पेंडलुम की तरह वह गतिमान बना ही रहेगा . अतः जरूरी है कि पक्ष विपक्ष सबके लिये जन हितकारी सोच ही सच बने , जो वास्तविक लोकतंत्र है .

पारम्परिक रूप से पत्नियों को  पति का कथित धुर्र विरोधी समझा जाता है . पर घर परिवार में तभी समन्वय बनता है जब पति पत्नी झूले दो सिरे होते हुये भी एक साथ ताल मिला कर रिदम में पेंगें भरते हैं .यह कुछ वैसा ही है जैसा पक्ष विपक्ष के सारे नेता एक साथ मेजें थपथपा कर स्वयं ही आपने वेतन भत्ते बढ़वा लेते हैं . मेरा चिंतन टूटा तो पत्नी का मधुर स्वर गूंज रहा था ” साथसखि मिल झूला झुलाओ. काश नेता जी भी देश के की प्रगति के लिये ये स्वर सुन सकें .

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 114 ☆ मोहल्ला और मंदिर….! ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय व्यंग्य  ‘ मोहल्ला और मंदिर ….!’ )  

☆ कविता # 114 ☆ मोहल्ला और मंदिर….! ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

जब उन्होंने इस मोहल्ले में प्लाट खरीदा, तो कुछ लोगों ने खुशी जाहिर की, कुछ लोगों ने ध्यान नहीं दिया और कुछ लोगों के व्यवहार और बाडी लेंग्वेज ने बता दिया कि प्लाट के साथ फ्री में मिली सड़क उनके अंदर खुचड़ करने की भावना पैदा कर रही है। दरअसल इस प्लाट को लेने मोहल्ले के कई लोग इच्छुक थे।  इच्छुक इसलिए भी थे क्योंकि इसी प्लाट के आखिरी छोर पर सड़क आकर खतम हो जाती है।  हर किसी को फायदेमंद बात इसीलिए लग रही थी कि जिस साइज का प्लाट था उसके सामने की सड़क की जगह उस प्लाट मालिक को मुफ्त में मिल जायेगी, इस कारण से भी मोहल्ले के लोगों में खींचतान और बैर भाव पनप रहा था।प्लाट लेने वालों की संख्या को देखते हुए संबंधित विभाग ने प्लाट को ऑक्शन के नियमों के अनुसार बेचने का फैसला किया, बंद लिफाफे में ड्राफ्ट के साथ आवेदन मंगाए गए, सबके सामने लाटरी खोली गई और मधुकर महराज को प्लाट मिल गया। मधुकर महराज सीधे सादे इंसान थे, बंद गली का आखिरी मकान के मकान मालिक बनने की खुशी में जल्दी मकान बनाने लगे तो मोहल्ले में कुछ खुचड़बाजों ने राजनीति चालू कर दी। कुछ लोगों के अंदर आस्था का सैलाब उमड़ने लगा, मोहल्ले में मंदिर बनना चाहिए ऐसी बातें दबी जुबान चालू हो गईं।

गुप्ता जी की व्याकुलता बढ़ गई है  रोज उनके सपने में  रामचंद्र जी और बजरंगबली आने लगे, वे सुबह उठते और मोहल्ले वालों से कहते हैं कि बंद गली के आखिरी मकान के सामने की सड़क पर रातों-रात मंदिर बनना चाहिए। सपने की बात उन्होंने अपने गुट के लोगों को बताई, यह बात मोहल्ले में फैल गई। मधुकर जी का मकान तेजी से बनकर खड़ा हो गया, सामने की खाली जगह को देखकर लोगों की छाती में सांप लोटने लगता …..

मंदिर बनाने के बहाने कब्जा करने की नीति का खूब प्रचलन है यही कारण है कि गली गली, मोहल्ले मोहल्ले, सड़क के किनारे, दुकानों के बगल में खूब बजरंगबली और दुर्गा जी बैठे दिखाई देते हैं।

तो जबसे मधुकर जी का दो मंजिला मकान बनकर खड़ा हुआ है तब से मोहल्ले में पड़ोसियों के बीच बजरंगबली और दुर्गा जी के दो गुट बन गये , दुर्गा जी गुट के वर्मा जी मोहल्ले में उमड़ी अध्यात्मिक राजनीति की खबर मधुकर महराज तक पहुंचाते रहते । मधुकर जी सीधे सादे हैं पर इस खबर से विचलित रहते कि उनके घर के सामने की खाली जगह पर कुछ लोग रातों-रात मंदिर बनाना चाह रहे हैं।

मंदिर के नाम पर मोहल्ले में अचानक एकजुटता देखने मिलने लगी। पहले आपस में इंच इंच के लिए झगड़े होते थे।

बजरंगबली समर्थक गुट बजरंगबली की मूर्ति देख आया था, और कुछ लोग दुर्गा जी की मूर्ति देख आये थे।

चतुर्वेदी जी के घर में हुई मीटिंग से पता चला कि आजकल बने बनाए रेडीमेड मंदिर बाजार में मिलते हैं, पर कीमत थोड़े ज्यादा है, चंदे की बात में झगड़ा हो गया, झगड़ा इतना बढ़ा कि मामला पुलिस तक पहुंच गया, पुलिस मोहल्ले पहुंच गई, मोहल्ले में खुसर-पुसर मच गई, मधुकर महराज घोर संकोच में फंस गए, उगलत लीलत पीर घनेरी।

गृह प्रवेश की तिथि और ऊपर से थाने में पेशी। उल्टा चोर कोतवाल को डांटे। पुलिस वाला बोला- इतनी मंहगाई में मकान बनाने की क्या जरूरत आ गई, इतनी मंहगाई में इतना सारा पैसा कहां से आ गया, बजरंगबली से क्यों पंगा ले रहे हो। पुलिस के ऐसे घातक सवालों और धमकियों से मधुकर जी का मन दुखी हो गया। वे नारियल फोड़कर रातों-रात अपने घर में घुस गये। मोहल्ले में घूरती निगाहों का वे सामना करते रहे, दिन बीतते गए, मंदिर बनने की घुकघुकी में मन उद्वेलित रहता।

मोहल्ले में धीरे धीरे आस्था का सैलाब ठंडा पड़ने लगा, जिनके सपनों में बजरंगबली और दुर्गा जी आ रहे थे, उनकी नजरें झुकी झुकी रहने लगीं, गुप्ता जी दिल के दौरे से चले गए, मधुकर जी ने सामने की जगह घेर ली, कुछ लोगों को जलाने के लिए सामने गेट लगा दिया,

मंदिर की बात धीरे धीरे लोग भूल गए…

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बीस साल बाद मधुकर जी ने उस जमीन पर मंदिर बना दिया, मोहल्ले में इर्ष्या जलन की हवा चलने लगी, दो गुट आपस में लड़ने लगे, कटुता फैल गई, पड़ोसियों ने आपत्ति उठाई कि मंदिर की छाया उनके घर के सामने नहीं पड़नी चाहिए नहीं तो पुलिस केस कर देंगे। बात आई और गई…. मधुकर महराज ने महसूस किया कि जब से मंदिर बना है तब से आज तक मोहल्ले का कोई भी व्यक्ति मंदिर में पूजा करने या दर्शन करने नहीं आया, मधुकर महराज को इसी बात का दुख है। बजरंगबली खुशी खुशी चोला बदलते रहते हैं, मोहल्ले वालों को इसकी कोई खबर नहीं रहती। आस्था लोभ मोह में भटकती रहती, इसीलिए मधुकर जी ने मंदिर में एक बड़ा घंटा भी लगवा दिया है, जो सुबह-शाम बजने लगता है, पर मोहल्ले वालोंं को कोई फर्क नहीं पड़ता……

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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