हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 44 ☆ व्यंग्य – “मोमबत्ती से मोमबत्ती का संवाद…” ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक अप्रतिम और विचारणीय व्यंग्य  मोमबत्ती से मोमबत्ती का संवाद…” ।)

☆ शेष कुशल # 44 ☆

☆ व्यंग्य – “मोमबत्ती से मोमबत्ती का संवाद…” – शांतिलाल जैन 

सड़क पर निकले एक केंडल मार्च में कुछ देर पहले ही जलाई गई एक मोमबत्ती ने दूसरी से कहा – “थोड़ी-थोड़ी बची रहना.”

“वो किसलिए?” – जलती पिघलती मोमबत्ती ने प्रतिप्रश्न किया.

“ये आखिरी रेप नहीं है बहन, न ही आखिरी मार्च. जो मार डाली गई है वो आखिरी स्त्री नहीं है. आगे भी जलना है, जलते जलते सड़कों पर निकलना है. हमें लेकर निकलनेवाले हाथ बदल जाएँगे मगर जलनेवाला हमारा नसीब और रौंद दी जानेवाली स्त्री की नियति बदलनेवाली नहीं है.”

“डोंट वरी, हमें दोबारा तुरंत निकलने की नौबत नहीं आएगी. ये सदमे,  ये संवेदनाएँ,  ये आक्रोश,  ये बहस मुबाहिसे,  ये प्रदर्शन,  ये मेरा-तुम्हारा जलना, जलते हुए सड़कों पर निकलना तब तक ही है जब तक अभया खबरों में है. मिडिया में हेडलाईन जिस दिन बदली उस दिन मोमबत्तियाँ और मुद्दे दोनों किसी कोने-कुचाले में पटक दिए जाएँगे. हादसे उसके बाद भी रोज़ ही होंगे मगर जब तक न पड़े मेन स्ट्रीम मीडिया की नज़र धरना-प्रदर्शन अधूरा रहता है. तब वो लोग निकलेंगे जो उस समय विपक्ष में होंगे, वे ही मार्च करेंगे. स्त्री के पक्ष में सत्ता का प्रतिपक्ष ही क्यों खड़ा होता है हर बार ?” 

“सत्ता तक पहुँचने का रास्ता उसे प्रदर्शन की केंडल-लाईट में एकदम क्लियर दिखाई पड़ता है. शहर मेट्रोपॉलिटन हो, मुख्यधारा के मिडिया की उपस्थिति सुलभ हो और रेप हो जाए, बांछें खिल आती है प्रतिपक्ष की. उसे अपने तले का अँधेरा दिखलाई नहीं पड़ता. बहरहाल, जितना कवरेज उतना जोश. हमने जलने से कभी मना नहीं किया मगर दूर गाँव में,  झुग्गी बस्ती में,  ऑनर किलिंग में,  दलित स्त्री, छोटी बच्ची के लिए कब वे सड़कों पर उतरे हैं ?  अंकल, कज़िन,  पड़ोसी के विरूद्ध कौन उतर पाता है सड़कों पर. पुलिस के रोजनामचे में स्त्री, बच्चों के विरूद्ध सौ से ज्यादा यौन अपराध हर दिन दर्ज होते हैं. रोज़ाना कौन निकलता है सड़कों पर ? एक राह चलती अनाम-अदृश स्त्री के मारे जाने पर हम नहीं निकले हैं,  मज़बूत इरादों वाली सशक्त डॉक्टर स्त्री के लिए निकले हैं. वो भीड़ भरे अस्पताल के अन्दर निपट अकेली पड़ गई थी.” 

“गरिमा और जान दोनों से हाथ धोना पड़ा है उसे. छत्तीस घंटे काम करने के बाद ऐसी दो गज जमीन उसके पास नहीं थी जहाँ वह महफूज़ महसूस करती हुई आराम कर पाती. उस रात वो पूज्यंते नहीं थी इसीलिए देवता भी कहीं और रमंते रहे. सवेरे फिर तीमारदारी में जुटना था मगर वो सवेरा आया ही नहीं. सुलभ ऑन-कॉल रूम की कमी ने अभया की जान ली है.” 

“एक बार अस्पताल की लाईट जाने पर वहाँ ऑपरेशन तुम्हारी रोशनी में करना पड़ा था. तुमने तो देखा है अन्दर का मंज़र. क्या देखा तुमने बहन ?”

“जितनी जगह में एक ऑन-कॉल रूम बनता है उतनी जगह में तो एक ट्विन शेयरिंग वाला प्रायवेट वार्ड निकल आता है. करोड़ों के इन्वेस्टमेंट से बने हॉस्पिटल में महिलाकर्मी की आबरू और जान की क्या कीमत है!! सरकारी अस्पताल तो और भी भीड़ भरे, मरीज के लिए ठीक से बेड मयस्सर नहीं स्टाफ की कौन कहे. दड़बेनुमा नर्सिंग स्टेशन में सिकुड़कर सोई रहती हैं सुदूर केरल से आईं चेचियाँ. साफ शौचालय और चेंजिंग रूम किस चिड़िया का नाम है ? अभया डॉक्टर थी,  मेट्रो के सरकारी अस्पताल में थी,  मिडिया की नज़र पड़ गई तो मार्च निकाल लिया गया है. सफाईकर्मी,  आया,  दाई,  मेनियल वुमन स्टाफ के बारे तो न कोई सोचता है न उनके प्रति अपराध रिपोर्ट ही हो पाते हैं.”

“जानती हो बहन – हम जल तो सकती हैं चल नहीं सकती. जब तक जलाकर ले जाते हैं देर हो जाती है.”

“कभी कभी इतनी देर भी कि एक स्त्री बेंडिट क्वीन बन जाती है. वो मोमबत्ती जलाकर निकलनेवालों का इंतज़ार नहीं करती, मशाल फूंकती है और पूरा गाँव जलाकर खाक कर देती है, बहरहाल..”

“अभया की उम्र तीस-इकत्तीस रही होगी ?”

“रेपिस्ट उम्र-निरपेक्ष होते हैं,  वे तीन साल की लड़की से भी उतनी ही     नृशंसता से पेश आते हैं जितनी कि सत्तर साल की प्रौढ़ा से. अपराधबोध नहीं होता उन्हें. वे संसद में भी मर्दानगी का वही तमगा सीने पर लगाए विराजते हैं जिसे लगाए हुए गली-कूचे से गुजरते हैं.” 

प्रदर्शनकारी गंतव्य तक पहुँच गए थे, मंजिल न मिलना थी, न मिली. मोमबत्तियाँ जल कर पूरी तरह पिघल जाने के कगार पर थीं. पहली ने कहा – “चाहकर भी अगले जुलूस तक के लिए बच नहीं पाए हम, तब भी कोई गम नहीं, एक नोबल कॉज़ के लिए जलकर मरे हैं.” 

“अपनी अगली पीढ़ी को कहूँगी मैं – तैयार रहना, आर्यावर्त की सड़कों पर निकलनेवाले ऐसे मार्च अभी ख़त्म नहीं होनेवाले, अलविदा”, दम तोड़तीं मोमबत्तियाँ वहीं प्रस्थान कर गईं हैं जहाँ अभया चली गई है. 

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© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 255 ☆ व्यंग्य – मालदारों का दु:ख ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम व्यंग्य नाटिका – ‘मलदारों के दुःख‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 255 ☆

☆ व्यंग्य ☆ मालदारों का दु:ख

देश के मालदारों के बीच कुछ दिनों से इस मामले को लेकर सुगबुगाहट थी। जब भी कहीं मालदारों का जमावड़ा होता, वह बात उछल कर सामने आ जाती। मुद्दा यह था कि देश के मालदार शिद्दत से यह महसूस कर रहे थे कि वे अपना माल इकट्ठा करने के चक्कर में ज़िन्दगी भर जिल्लतें झेलते हैं, ई.डी., सी. बी. आई., इनकम टैक्स के छापों का सामना करते हैं, सांप की तरह अपनी संपत्ति की रक्षा करते हैं, लेकिन एक दिन सबको सिकन्दर की तरह हाथ पसारे दुनिया  से रुखसत होना पड़ता है। अरबों की संपत्ति में से एक धेला भी साथ नहीं जाता। ऊपर वाले की भी ऐसी नाइंसाफी है कि बिना कोई नोटिस दिये आदमी को अचानक पलक झपकते उठा लिया जाता है।

जमावड़ों में यह बात भी सामने आयी कि अक्सर मालदार के स्वर्गवासी या नरकवासी होने के बाद उसकी सन्तानें बाप की संपत्ति को विलासिता में उड़ा देती हैं या खुर्द-बुर्द  कर देती हैं, जिससे निश्चय ही मरहूम की आत्मा को घोर कष्ट का अनुभव होता होगा।

नतीजतन एक जमावड़े में यह निर्णय लिया गया कि सरकार से दरख्वास्त की जाए कि नई टेक्नोलॉजी का उपयोग करके ऐसा इन्तज़ाम करे  कि मालदारों की मौत के बाद उनकी संपत्ति उनकी इच्छानुसार स्वर्ग या नरक ट्रांसफर की जा सके। कहा गया कि लगता है अभी तक सरकार ने स्वर्ग और नरक को खोजने की कोई ईमानदार कोशिश नहीं की। जब वैज्ञानिक चांद और दूसरे ग्रहों तक पहुंच सकते हैं तो स्वर्ग और नरक का पता क्यों नहीं लगा सकते? हर धर्म की किताबें स्वर्ग और नरक के बयानों से पटी हैं। बताया जाता है कि नरक में आत्मा को उबाला या गोदा जाता है और स्वर्ग में उसकी खिदमत के लिए सुन्दरियां या हूरें उपलब्ध रहती हैं। वैसे हमारे अज़ीम शायर ‘दाग़’ देहलवी इस बाबत फरमा गये हैं— ‘जिसमें लाखों बरस की हूरें हों, ऐसी जन्नत का क्या करे कोई?’ फिर भी बहुत से लोग इन हूरों से मुलाकात की उम्मीद में उम्र भर ऊपर की तरफ टकटकी लगाये रहते हैं। यह समझना मुश्किल है कि शरीर-विहीन आत्मा को कैसे उबाला और गोदा जाता है। कोई ‘वहां’ से लौट कर आता भी नहीं है कि कुछ पुख्ता जानकारी मिले। बता दें कि भगवद्गीता ने आत्मा को अदाह्य, अक्लेद्य और अशोष्य कहा है।

ऐसा लगता है कि ऊपर कोई सुपर कंप्यूटर है जिसमें आदमी के ज़मीन पर उतरते ही उसकी ज़िन्दगी का लेखा-जोखा अंकित हो जाता है। फिर आदमी को ‘राई घटै,न तिल बढ़ै’ के हिसाब से चलना पड़ेगा। यह प्रश्न उठता है कि पूरी दुनिया के आदमियों के लिए एक ही सुपर कंप्यूटर है या अलग-अलग धर्म के अलग कंप्यूटर हैं? इस भारी-भरकम काम को अकेले चित्रगुप्त संभालते हैं या अलग-अलग धर्म के अलग-अलग चित्रगुप्त हैं? यह सवाल भी पैदा होता है कि क्या हर धर्म के अपने अलग स्वर्ग और नरक हैं?

जमावड़े के निर्णय के लीक होते ही मालदारों के परिवारों और रिश्तेदारों के बीच हड़कंप मच गया। मालदारों की अनेक संतानें  मायूस होकर ‘डिप्रेशन’ में चली गयीं। बहुत सी बहुओं ने सुबह-शाम ससुर जी के पांव छूना और उनकी आरती उतारना शुरू कर दिया। कुछ बेटों से पिताजी को धमकी मिलने लगी कि अगर उनको अपनी संपत्ति अपने साथ ही ले जाना है तो वे अपना अलग इंतजाम कर लें और उनसे सेवा- ख़िदमत की उम्मीद न रखें। कई परिवारों में बुज़ुर्गों पर नज़र रखी जाने लगी कि वे कहां जाते हैं और किससे मिलते हैं।

उधर सरकार के पास बात पहुंची तो उसकी तरफ से मालदारों को समझाया गया कि इस मांग को छोड़ दें क्योंकि यहां की मुद्रा वहां चलती नहीं है। वहां ‘बार्टर’ या वस्तु-विनिमय चलता है या स्वर्ण का आदान-प्रदान होता है। इस पर मालदारों का जवाब था कि यहां की मुद्रा वहां चले न चले, उनका इरादा उसे बरबादी से बचाना था।

दबाव ज़्यादा बढ़ा तो सरकार की तरफ से निर्णय लिया गया कि तत्काल एक ताकतवर अंतरिक्ष-यान पर काम शुरू किया जाए जो स्वर्ग और नरक तक पहुंच सके और फिर वहां कुछ बैंकों की शाखाएं खोली जाएं जहां मालदारों का माल ट्रांसफर किया जा सके। इसके लिए ऊपर पहुंचे हुए बैंक कर्मचारियों, अधिकारियों की मदद ली जा सकती है।

सरकार से निर्देश पाकर वैज्ञानिक एक पावरफुल अंतरिक्ष-यान के निर्माण में जुट गये हैं जो स्वर्ग और नरक को ढूंढ़ निकालेगा। दूसरी तरफ मालदारों के परिवार-रिश्तेदार ऊपर वाले से प्रार्थना करने में जुट गये हैं कि वैज्ञानिकों की कोशिश कारगर न हो।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 18 – आलस्य का नया युग ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना आलस्य का नया युग)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 18 – आलस्य का नया युग ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

एक दिन, हमारे देश के नेताओं ने एक नई योजना बनाई। उन्होंने सोचा कि अब पुराने नारे जैसे ‘वंदेमातरम’ और ‘जयहिंद’ आउट-ऑफ डेट हो चुके हैं। अब समय आ गया है कि हम अपने नागरिकों को एक नया नारा दें – ‘सुस्त बनो, मस्त रहो’।

नेताओं ने एक बड़ी सभा बुलाई और जनता को संबोधित किया। “भाइयों और बहनों,” नेता जी ने कहा, “आज हम एक नए युग में प्रवेश कर रहे हैं। अब हमें आलस को अपनाना होगा। यह हमारे समाज का नया विकास मंत्र है।”

सभा में बैठे लोग पहले तो चौंक गए, लेकिन फिर तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा मैदान गूंज उठा।

नेता जी ने आगे कहा, “हम सदा शरीर को कष्ट देने वाले नारे लगाते आ रहे हैं, लेकिन अब इन नारों का कोई अर्थ नहीं रहा। अब हमें श्री श्री 1008 श्री आलस्य ऋषि का लिखा आलस्य पुराण पढ़ना चाहिए।”

सभा में बैठे एक बुजुर्ग ने कहा, “नेता जी, यह आलस्य पुराण क्या है?”

नेता जी ने मुस्कुराते हुए कहा, “आलस्य पुराण में आलसी बनने के तरीके, उससे फायदे और आधुनिक युग में आलसी बने जिंदा रहने के तरीके बताए गए हैं।”

सभा में बैठे लोग हंस पड़े।

नेता जी ने कहा, “स्व. आलसी बाबा ने कहा था कि मैं कोई काम जल्दी नहीं करता। ऐसा करने से बदन दर्द देने लगता है। फाइल खुद चलकर आए तो काम करने का मजा आता है, टेबल पर रखी फाइल देख लेंगे तो हमारी तौहीन नहीं होगी क्या।”

सभा में बैठे लोग अब पूरी तरह से सहमत हो गए थे।

नेता जी ने कहा, “अब हमें ‘आलस्य परमो गुणः’ जैसे गबन-राग छेड़ते हुए आलस्य बढ़ाने के आंदोलन करने चाहिए। हमें अधिकतम आलस्य करना चाहिए और अपने देश को इस मामले में सिरमौर का दर्जा दिलवाना चाहिए।”

सभा में बैठे लोग अब पूरी तरह से उत्साहित हो गए थे।

नेता जी ने कहा, “आलस्य धर्म-जाति-वर्ग निरपेक्ष होता है। यह हमारे समाज को एकीकृत करने में बहुत काम आएगा।”

सभा में बैठे लोग अब पूरी तरह से आलस्य को अपनाने के लिए तैयार हो गए थे।

नेता जी ने कहा, “आइए, अति आलसी बनकर अति मस्त बनें।”

सभा में बैठे लोग अब पूरी तरह से आलस्य को अपनाने के लिए तैयार हो गए थे।

लेकिन, इस आलस्य के चलते समाज में अराजकता फैल गई। लोग एक-दूसरे को धोखा देने लगे। कामचोरी और खर्राटे लेना आम हो गए।

एक दिन, जब एक सेवानिवृत्त बूढ़ा अपनी पेंशन की फाइल के बारे में पूछा, तो देखा कि उसकी फाइल चूहों की भेंट चढ़ चुकी थी।

बूढ़े ने रोते हुए कहा, “मैंने अपनी पूरी जिंदगी मेहनत से काम किया, लेकिन अब मुझे समझ आ गया कि इस समाज में मेहनत की कोई कीमत नहीं है।”

बूढ़े की आंखों में आंसू थे और उसने अपनी खोई फाइल की याद में रोते हुए कहने लगा, “अब मैं भी अपने बच्चों को आलसी बनाऊँगा, ताकि उन्हें मेहनत करके कोई नौकरी न करना पड़े।”

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 254 ☆ व्यंग्य नाटिका – चढ़ता रिश्तेदार ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम व्यंग्य नाटिका – ‘चढ़ता रिश्तेदार‘ इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 254 ☆

☆ व्यंग्य नाटिका ☆ चढ़ता रिश्तेदार

 (एक कमरा। खिड़की से धूप आ रही है। कमरे में एक पलंग पर मुंह तक चादर ताने एक आदमी सोया है। गृहस्वामी का प्रवेश।)

मेज़बान- उठिए भाई साहब, धूप चढ़ आयी। आठ बजे का भोंपू बज गया। फैक्टरी वाले काम पर गये।

मेहमान- (कुनमुनाकर चेहरे पर से चादर हटाता है। आंखें मिचमिचाकर) अभी नहीं उठूंगा। कल बात-बात में मुंह से निकल गया कि मेरा आज सवेरे लौटने का विचार है तो आप मुझसे पीछा छुड़ाने में लग गये? मुझे टाइम मत बताइए। मुझे अभी नहीं जाना है।

मेज़बान- (क्षमा याचना के स्वर में) आप मुझे गलत समझे। मैं भला क्यों चाहूंगा कि आप लौट जाएं? आपके पधारने से तो मुझे बड़ी खुशी हुई है। कितने दिन बाद पधारे हैं आप। मैं तो यही चाहता हूं कि आप हमें और कुछ दिन अपने संग का सुख दें।

मेहमान- साहित्यिक भाषा मत झाड़िए।  मैं आपके मन की बात जानता हूं। मेहमानदारी करते मेरी उमर गुज़र गयी। हर तरह के मेज़बानों से निपटा हूं। आप तो रोज पूजा के वक्त घंटी हिलाने के साथ प्रार्थना करते हैं कि मैं जल्दी यहां से दफा हो जाऊं। आपकी पत्नी रोज आपसे झिक-झिक करती है कि मैं अंगद के पांव जैसा जमकर बैठा  आपका राशन क्यों नष्ट कर रहा हूं। लेकिन मैं अभी जाने वाला नहीं। आपकी प्रार्थना से कुछ नहीं होने वाला।

मेज़बान- हरे राम राम। आप तो मुझे पाप में घसीट रहे हैं। मैं तो रोज यही प्रार्थना करता हूं कि आप बार-बार हमारे घर को पवित्र करें। मेरी पत्नी आपकी सेवा करके कितना सुख महसूस करती है आपको कैसे बताऊं। यकीन न हो तो आप खुद पूछ लीजिए।

मेहमान- रहने दीजिए। वह सब मैं समझता हूं। मुंह के सामने झूठी मुस्कान चमका देने से कुछ नहीं होता। मैं पूरे घर का वातावरण भांप लेता हूं। चावल के एक दाने से हंडी की हालत पकड़ लेता हूं। मेरे सामने पाखंड नहीं चलता।

मेज़बान- पता नहीं आपको ऐसा भ्रम कैसे हो गया। हां, हम लोग कभी-कभी यह चर्चा जरूर करने लगते हैं कि आपको आये इतने दिन हो गये, घर के लोग चिंतित हो रहे होंगे।

मेहमान- छोड़िए, छोड़िए। आपकी चिंता को मैं समझता हूं। आपकी चिंता यही है कि मैं आपके घर की देहरी क्यों नहीं छोड़ता। जहां तक मेरे घर वालों का सवाल है, वे मेरी आदत जानते हैं इसलिए चिंतित नहीं होते। मेरा जीवन इसी तरह लोगों को उपकृत करते बीत गया। वे जानते हैं कि मैं जहां भी हूंगा सुख से हूंगा।

मेज़बान- बड़ी अच्छी बात है। हम भी यही चाहते हैं कि आप यहां पूरे सुख से रहें। लीजिए, चाय पीजिए।

मेहमान- पीता हूं। आपसे कहा था कि एक-दो दिन मुझे यहां के आसपास के दर्शनीय स्थल दिखा दीजिए, लेकिन आप झटके पर झटका दिये जा रहे हैं। कभी छुट्टी नहीं मिली तो कभी स्पेशल ड्यूटी लग गयी।

मेज़बान- आपको गलतफहमी हुई है, भाई साहब। इस शहर में कुछ देखने लायक है ही नहीं। लोग यों ही अपने शहर के बारे में शेखी मारते रहते हैं।

मेहमान- उड़िए मत। यहां की संगमरमर की चट्टानें पूरे हिन्दुस्तान में मशहूर हैं। रानी दुर्गावती का एक किला भी है जिसकी लोग चर्चा करते हैं। दरअसल आप चाहते हैं कि मैं अकेला ही चला जाऊं ताकि आपका पैसा बचे और मेरा खर्च हो।

मेज़बान- कैसी बातें करते हैं आप! असली बात यह है कि रानी दुर्गावती का किला अब इतना पुराना हो गया है कि आम आदमी को उसमें कुछ दिलचस्प नज़र नहीं आता और संगमरमर की चट्टानों में इतनी तोड़फोड़ हो गयी है कि उनका नाम भर रह गया है।

मेहमान- जो भी हो। मुझे अपने शहर लौट कर लोगों को बताना है कि मैंने यह सब देखा। इसलिए मुझे यहां से जल्दी विदा करना चाहते हों तो दफ्तर से छुट्टी लीजिए और मुझे ये जगहें घुमाइए।

मेज़बान- ज़रूर घुमाऊंगा। लेकिन आप विदा होने की बात क्यों करते हैं? मुझे इससे पीड़ा होती है।

 

मेहमान- पीड़ा होती है या खुशी होती है यह मैं जानता हूं। ये सब जगहें घूमने के बाद आप अपने पैसे से मेरा रिजर्वेशन करा दीजिए। संगमरमर की एक अच्छी सी मूर्ति भेंट भी कर दीजिएगा। घर जाकर क्या दिखाऊंगा? मैं आपके चढ़ते समधी का फुफेरा भाई हूं।चढ़ता रिश्तेदार हूं। इतना हक तो मेरा बनता ही है। रोज-रोज थोड़े ही आता हूं।

मेज़बान- सब हो जाएगा। हम पर आपका हक तो पूरा है ही। यह भी कोई कहने की बात है?

मेहमान- अगले साल बाल-बच्चों को लेकर आऊंगा। आठ दस दिन रुकूंगा।

मेज़बान- ज़रूर ज़रूर। मेरा अहोभाग्य। हम आपकी प्रतीक्षा करेंगे। आने से पहले सूचित कर दीजिएगा ताकि मैं कहीं इधर-उधर न चला जाऊं।

मेहमान- बिना सूचित किये ही आऊंगा। सूचित करुंगा तो आप जानबूझकर लिख देंगे कि इधर-उधर जा रहा हूं। आप नहीं भी रहेंगे तो आपका परिवार तो रहेगा।

मेज़बान- आप बहुत विनोदी हैं। आपके आने से हमें सचमुच बड़ी खुशी होगी

मेहमान- अब आपको खुशी हो या रंज, हम तो आएंगे। आप में हमें बाहर निकालने की हिम्मत तो है नहीं क्योंकि हम चढ़ते रिश्तेदार हैं। साल भर भी डेरा डाले रहें फिर भी आप चूं नहीं कर सकते। मुझे पता है कि हमारा रहना-खाना आपको अखरेगा क्योंकि महंगाई बढ़ रही है, लेकिन आपको चढ़ते भावों और चढ़ते रिश्तेदारों में से एक का चुनाव करना होगा।

मेज़बान- मैं पहले आज छुट्टी लेकर आपके घूमने-घामने की व्यवस्था करता हूं।

मेहमान-देखा! मैंने रिजर्वेशन की बात कही तो आप फौरन हरकत में आ गये। ठीक है, यहां से विदा होकर मुझे एक और उतरते रिश्तेदार के यहां जाना है। दो-तीन साल से उनका आतिथ्य ग्रहण नहीं किया। कुछ दिन उन्हें भी सेवा का मौका देना है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 17 – गरीबी का ताना-बाना ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना सत्ता का नया फार्मुला।)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 17 – गरीबी का ताना-बाना ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

गरीबी, हां वही, जिसे हम सभी ने सहेज कर रखा है, जैसे पुराने जमाने की बेमिसाल विरासत। इसे किसी बर्तन में ढक कर रखा जाए, या फिर दरवाजे पर लटका दिया जाए, इससे फर्क नहीं पड़ता। गरीबों की झुग्गी में सब कुछ मस्त था, बशर्ते खाने-पीने का कोई इंतजाम न हो।

भोलू नामक एक गरीब किसान, जो कि अपने खेत में कुछ भी न उगाकर रोज़ की खिचड़ी पकाता था, अपने हालात पर हमेशा हंसता रहता। एक दिन वह अपनी गगरी लेकर पानी भरने चला, जैसे गगरी से पानी निकालकर अमीर बन जाएगा। लेकिन भोलू का तो पूरा दिन इसी फिक्र में निकल जाता था कि पानी किस तरह उसकी झुग्गी में आए।

“पानी भरने का काम बहुत आसान है, बस हाथ और गगरी चाहिए, बाकी सब तो आ जाएगा,” उसने खुद से कहा, लेकिन बात यहीं पर खत्म नहीं हुई। पानी भरने के बाद, भोलू को एक महात्मा का दर्शन हुआ जो उसके घर में आकर बोले, “गरीबी दूर करने के लिए तुमने कोई शास्त्र पढ़ा?”

“नहीं बाबाजी, मैंने तो गगरी भरने के बाद सिर्फ गगरी ही पढ़ी है,” भोलू ने जवाब दिया। महात्मा ने उसकी यह प्रतिक्रिया सुनकर कहा, “तुम्हारी गरीबी अब भी कायम रहेगी।”

फिर भोलू के विचारों में उथल-पुथल मच गई। उसने सोचा, “गरीबी हटाने का तरीका अब यही है कि हर बात में केवल हंसी ही हंसी करूँ। किसी ने पूछा, ‘भोलू, क्या हाल है?’ मैंने कहा, ‘अरे, हर रोज़ नया हो जाता है।’ यह भी सच है कि गरीबों का चेहरा हमेशा नए नारे सुनने के लिए तैयार रहता है।”

इस बीच, गांव में एक बड़ी दावत हुई, जिसमें भोलू भी गया। वहाँ, महात्मा ने फिर से उसकी सराहना की, “भोलू, तुमने बड़ा काम किया है, दावत में आए हो।”

“हां बाबाजी, लेकिन दावत में तो गरीब के लिए भी जगह नहीं मिलती,” भोलू ने कहा। महात्मा हंस पड़े और बोले, “गरीब का स्थान तो दावत में हमेशा खाली रहता है।”

भोलू दावत की हर चीज़ को देखकर सोचने लगा कि गरीब का दिल भी हमेशा खाली रहता है, जैसे दावत के थालों में कभी-कभी जगह नहीं होती। फिर भोलू ने सोचा कि गरीबी के खिलाफ आंदोलन करना चाहिए। उसने गांव में भाषण देना शुरू किया, “सभी लोग सुनो, गरीब को ही सच्चा अमीर समझो। अमीर तो सिर्फ दिखावा करते हैं, असली अमीरी तो गरीबों की झोपड़ी में है। यहाँ न कोई टैक्स है, न कोई ब्याज। सब कुछ मुफ्त में मिल रहा है।”

इस भाषण के बाद, गांव के अमीरों ने भोलू को अपनी चाय पर बुलाया। भोलू ने सोचा, “अब तक अमीरों की चाय की आदत थी, अब गरीबों की चाय की आदत बनानी पड़ेगी।” चाय पीते हुए, अमीरों ने भोलू से पूछा, “क्या योजना है तुम्हारी गरीबी मिटाने की?”

भोलू ने जवाब दिया, “गरीबी मिटाने की योजना है, अमीरों की चाय पीकर। जब अमीरों की चाय खत्म हो जाएगी, तो गरीबी भी ख़त्म हो जाएगी। अमीरों की चाय पीकर गरीबों की भूख भी मिटेगी।”

भोलू की बातों पर सब हंसी में फूट पड़े। भोलू की हर बात में गरीबी का ही मजाक था, जैसे गरीबी अपने आप में एक हंसी का विषय हो। वह जानता था कि गरीबी पर हंसी ही हंसी ही एकमात्र इलाज है।

एक दिन भोलू की झुग्गी में आग लग गई। गांव वालों ने देखा कि भोलू तो हंसते-हंसते जल रहा है। लोग बोले, “भोलू, तुम्हारे घर में आग लगी है।”

भोलू ने जवाब दिया, “अरे, आग लगी है तो क्या हुआ, गरीबी का घर ही तो जल रहा है। अगली बार तो इसी जलन के साथ नया घर बनाऊँगा।”

इस तरह, भोलू की हर बात में गरीबी की झलक दिखाई देती थी। उसका जीवन गरीबी से ही ताना-बाना बुनता था, और वह इसी ताने-बाने को हंसी में बदलने में माहिर था। गरीबी पर हंसी ही उसका सबसे बड़ा हथियार थी, और इसी हथियार से वह हर दिन गरीबी को पराजित करने की कोशिश करता था। 

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 43 ☆ व्यंग्य – “ये सवाल हैं जोख़िम भरे…” ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक अप्रतिम और विचारणीय व्यंग्य  ये सवाल हैं जोख़िम भरे.…”।) 

☆ शेष कुशल # 43 ☆

☆ व्यंग्य – “ये सवाल हैं जोख़िम भरे…” – शांतिलाल जैन 

इसीलिए अपन तो रिस्क लेते ही नहीं.

रिस्क रहती है श्रीमान् साड़ी पसंद करवाने के काम में. ताज़ा ताज़ा हाथ जला बैठे हैं डिज़ाइनर तरूण तहिलियानी. पेरिस ओलंपिक के लिए उनकी डिज़ाइन की गई साड़ी विवाद के केंद्र में आ गई है. मुर्गे की जान गई और खानेवाले को मज़ा नहीं आया. ओलंपिक दल की महिला सदस्यों ने पहन भी ली, ओपनिंग सेरेमनी में पहन कर चलीं भी, अब कह रहे हैं साड़ी पसंद नहीं आई. आजकल छोटे-छोटे आयोजनों में प्रिंटेड साड़ी तो कामवाली बाई नहीं पहनतीं, तरूणबाबू आपने ओलंपिक में पहनवा दी. ‘इकत’ प्रिंट है. तो क्या हुआ इकत प्रिंट का चलन तो इन दिनों बेडशीट में भी नहीं रहा! घर जैसे टंटे पेरिस में भी. होता है – जब साड़ी ननद लाई हो – ‘ऐसी तो दो-दो सौ रूपये में सेल में मिल जाती है’. एक्जेक्टली यही ओलंपिक साड़ी के लिए कहा जा रहा है – ‘दो सौ रूपये में दादर स्टेशन के बाहर मिलती है.’ जो पीहर से वैसी ही साड़ी आ जाए तो ट्रायल रन में ही केटवॉक, ऑन दी सेम-डे, किचन टू पोर्च वाया ड्राईंगरूम एंड बैक, हुज़ूर इस कदर भी न इतरा के चलिए. तो श्रीमान कहानी का पहला मोराल तो ये कि तारीफ़ करने या खोट निकालने से पहले सुनिश्चित कर लीजिए साड़ी आई कहाँ से है. बेचारे तरूणबाबू को इल्म भी नहीं रहा होगा कि सेम-टू-सेम एटीट्यूड इंटरनॅशनल लेवल पर नुमायाँ हो जाएगा. काश! उन्होंने सप्लाय करने से पहले इंडियन ओलंपिक असोसिएशन से पूछ लिया होता – ‘देनेलेने में दिखाऊँ ?’ तो उनकी इतनी आलोचना न होती. कस्बे के दुकानदार को पता होता है इस तरह की साड़ियों का कपड़ों में वही स्थान होता है जो दिवाली की मिठाई में सोन-पपड़ी का होता है. कभी कभी तो वही की वही साड़ी आठ-दस घरों में लेनदेन निपटाकर फिर से वहीं आ जाती है. ऐसे में बेचवाल सेफ हो जाता है, साफगोई से उसने पहले ही बता दिया कि ये देनेलेने के काम की है, पहनकर ट्रैक पर चलने को किसने कहा था!

रिस्क साड़ी खरीदवाने के काम में ही नहीं रहती, ‘आज क्या पहनूँ ?’ को रिस्पांड करने में भी रहती है. ऐसा करो वो एरी सिल्क की देख लो. कौन सी एरी सिल्क ? वही जो अभी अभी खरीदी है मूँगिया ग्रीन. अभी कभी? अरे अभी तो कुछ समय पहले तो खरीदी तुमने. सालों गुजर गए जो आपने एक साड़ी भी दिलाई हो. क्यों, अपन जोधपुर चले थे तब नहीं खरीदी तुमने, महिना भर भी नहीं हुआ है. वो तो मैंने मेरी मम्मी के पैसों से खरीदी थी, कौनसी आपने दिला दी है. कब से कह रही हूँ आइसी-ब्लू शेड में एक साड़ी लेनी है. आपके पास सबके लिए बजट है मेरे लिए नहीं. लगा कि अब और कुछ कहा तो मौसम बदल जाएगा. रिस्क तो रहती है श्रीमान, डर लगता है, बेध्यानी में भी सच न निकल जाए मुँह से.  बेटर हॉफ की मम्मी ने तो खाली पाँच सौ रूपये भिजवाए थे साड़ी के, फॉल-पिको में निकल गए. पूरी फंडिंग अपन की लगी है. फिर सात वचन से बंधा जो हूँ, त्याग तो करना ही पड़ता है. वैसे असल त्याग तो रेशम के कीड़ों का है श्रीमान, उबलते पानी में जान देकर भी….

बहरहाल, ‘आज क्या पहनूँ ?’ अपन के दिए सारे ऑप्शंस रिजेक्ट हो चुके हैं. टसर सिल्क, कोसा सिल्क, मैसूर सिल्क, चंदेरी सिल्क हर ऑप्शन खारिज़. उधर उत्तर में बनारस से लेकर सुदूर दक्षिण में कांजीवरम तक कुछ जम नहीं रहा. पता नहीं कौन लोग हैं जो भारत को विकसित राष्ट्र मानते हैं. एक साड़ी तो ऐसी आज तक बना नहीं पाए जो पहली नज़र में पसंद आ सके चलें हैं विश्व का नेतृत्व करने. ‘अलमारी में कपड़े जमाकर कैसे रखें जाएँ’ – मैरी-कोंडो ये तो दुनिया को सिखा सकती हैं, मगर ‘आज क्या पहनूँ ?’ रिस्पांड करने में भारतीय पति की मदद नहीं कर सकती. कुदरत ने आर्यावर्त में महिलाओं को एलिफेंट मेमोरी की नेमत बख्शी है. दस साल पहले किसी परिवार में, किसी आयोजन में कौनसी साड़ी पहनी थी, याद रहता है उन्हें. याद रखना पड़ता है. उसी परिवार में, वैसे ही आयोजन में साड़ी रिपीट न हो जाए, कांशियस बना रहता है. ओवरफ्लो होते तीन तीन वार्डरोब. खोलने के लिए दरवाजा थोड़ा सा स्लाइड करते ही साड़ियाँ कोरस में सवाल करने लगती हैं – ‘क्या मुझे दूसरी बार कभी पहना जाएगा?’ वे आज फिर रिजेक्ट हो चुकी हैं. थकहार कर अगले ने उसी साड़ी को पहनना नक्की किया है जिसे वे शुरू में मना कर चुकी हैं – एरी सिल्क का मूँगिया ग्रीन. रिस्क गाड़ी छूट जाने की भी है – एरी की मूँगिया ग्रीन ड्रेप-रेडी नहीं है, तैयार होने में अभी टाईम लगेगा. 

उधर ओलंपिक का साड़ी विवाद इस पर भी बढ़ गया कि तरूणबाबू ने डिज़ाइंड साड़ी पर अपनी कंपनी तस्व का लोगो ही छाप डाला. ‘ये साड़ी आपने कहाँ से ली ?’ ऐसे सवालों के जवाब सचाई से नहीं दिए जाते तरूणबाबू, नंदिता अय्यर जैसियों को तो बिलकुल भी नहीं, और आपने कंपनी का लोगो छाप कर सीक्रेट ख़त्म कर दिया. आलोचना तो होनी ही थी. वैसे भी कपड़े का नौ वार लम्बा यह टुकड़ा भारतीयों को इस कदर लुभाता है कि हम पदकों से ज़्यादा खिलाड़ियों की साड़ी के बारे में चिंतित होते हैं, गोया कि स्टेडियम का रेसिंग ट्रेक न हो, फैशन शो का रैम्प हो. ओलंपिक तो 11 अगस्त को ख़त्म हो जाएगा, साड़ी पसंद करवाने के काम में रिस्क तो ताउम्र बनी रहेगी. आप नज़र पदक पर रखिए, अपन साड़ी विवाद पर रखते हैं.

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© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 253 ☆ व्यंग्य – नवाब साहब का पड़ोस☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम व्यंग्य – नवाब साहब का पड़ोस। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 253 ☆

☆ व्यंग्य ☆ नवाब साहब का पड़ोस 

मैंने उनके पड़ोस में बसने की गुस्ताख़ी करीब डेढ़ साल पहले की थी। सुनता था कि वे किसी मशहूर नवाब ख़ानदान के भटके हुए चिराग़ हैं। कभी-कभार गेट के पास मिल जाने पर सलाम- दुआ हो जाती थी, लेकिन आना जाना कतई नहीं था। उनके घर कई लोगों का आना- जाना लगा रहता था। बहुत से कार वाले लोग आते थे। उनके पास भी एक पुरानी  एंबेसेडर थी जो घंटों में स्टार्ट होती थी और जो रोज़ हमारे घर को धुएँ और शोर से भर देती थी। मैं लिहाज़ में धुएँ के घूँट पीता बैठा रहता था।

एक दिन सवेरे सवेरे वे गेट खोलकर हमारे घर आ गये। मैं उन्हें देखकर उलझन में पड़ गया क्योंकि मैं अमूमन मामूली इंसानों से ताल्लुक रखता हूँ, सामन्तों और ऊँचे लोगों से निभाव करने का मुझे अभ्यास नहीं है। उनके आने से मैं  सपरिवार कृतार्थ हो गया।

वे कुर्सी पर विराज कर बोले, ‘आपसे मिलने की तबीयत तो कई बार हुई, लेकिन आ ही नहीं सका। अजीब बात है कि हम डेढ़ साल से पड़ोसी हैं और एक दूसरे को बाकायदा जानते भी नहीं।’

मैंने उन्हें चाय पेश की। वे चुस्कियाँ लेते हुए बोले, ‘दरअसल मैं इस वक्त इसलिए आया था कि अचानक दो हज़ार रुपये की ज़रूरत आ पड़ी है। वैसे तो बहुत रुपया आता जाता रहता है, लेकिन इस वक्त नहीं है।’

मैं उनके आने से अभिभूत था। लगा, पैसा माँग कर वे मुझ पर इनायत कर रहे हैं।’

भीतर से पैसे लाकर मैंने उनके सामने रख दिये। मैं पैसे जेब में रखते हुए बोले, ‘दरअसल पानवाला और गोश्तवाला सवेरे सवेरे पैसों के लिए सर पर खड़े हो गये हैं। इसलिए आपको तकलीफ देनी पड़ी।’

मैंने संकोच से कहा, ‘कोई बात नहीं।’

वे बोले, ‘हमारे यहाँ रोज़ सौ डेढ़-सौ रुपये के पान आते हैं। गोश्त भी रोज डेढ़ दो किलो आ जाता है। मेहमान आते हैं तो बढ़ भी जाता है। महीने डेढ़-महीने में हिसाब होता है।’

फिर ठंडी साँस लेकर बोले, ‘क्या ज़माना आ गया है कि पानवालों और गोश्तवालों की हिम्मत पैसे माँगने के लिए हमारे घर आने की होने लगी। पुराना ज़माना होता तो पैसा मांगने वाली ज़बान काट ली जाती।’

फिर व्यंग्य से हंँसकर बोले, ‘डेमोक्रेसी है न! डेमोक्रेसी में सब तरह के लोगों को सर पर बैठाना पड़ेगा।’

मैंने सहानुभूति में सिर हिला कर कहा, ‘दुरुस्त फरमाते हैं।’

वे उठ खड़े हुए। बोले, ‘अब इजाज़त चाहता हूँ। आप फिक्र मत कीजिएगा, पैसे जल्दी भेज दूँगा। मौके की बात है, वर्ना पैसे तो आते जाते रहते हैं।’

मैंने जवाब दिया, ‘कोई बात नहीं। आप फिक्र न करें।

वे चले गये। मैं दो हज़ार देकर भी खुश था। इतने इज्ज़तदार लोगों को कर्ज़ देने के मौके बार-बार नहीं मिलते।

धीरे-धीरे दिन गुज़रते गये, लेकिन नवाब साहब के पास से पैसा लौट कर नहीं आया। जब दो महीने बीत गये तो मेरे सब्र का पैमाना छलक उठा। एक शाम को हिम्मत जुटाकर उनके दौलतख़ाने में घुस गया। वे बरामदे में ‘सब रोगों की दवा’ का गिलास लिये बैठे थे। बगल में पानदान रखा था और एक तरफ पीकदान। मुझे देखकर उन्होंने बड़े तपाक से स्वागत किया।

गिलास की तरफ इशारा करके बोले, ‘थोड़ी सी नोश फ़रमाएंँगे?’

मैंने क्षमा मांँगी तो हँस कर बोले, ‘अपनी तो इससे पक्की दोस्ती है। इसके बिना शाम नहीं कटती। आप भी इससे दोस्ती कर लीजिए तो ज़िन्दगी रंगीन हो जाएगी।’

मैंने हँसकर उनकी बात टाल दी।

उन्होंने पॉलिटिक्स की बात शुरू कर दी। बोले, ‘इन नेताओं को हुकूमत करना नहीं आता। हम जैसे ख़ानदानी नवाबों से कुछ सीखते तो मुल्क का भला होता। हमारे तो ख़ून में हुकूमत बैठी है। मेरे जैसे सैकड़ों राजाओं-नवाबों के काबिल वारिस बेकार बैठे हैं, लेकिन हमारी काबिलियत का इस्तेमाल करने वाला कोई नहीं। हमें क्या, नुकसान तो मुल्क का हो रहा है।’

थोड़ी देर तक उनकी लंतरानी सुनने के बाद मैंने जी कड़ा करके कहा, ‘नवाब साहब, वे पैसे मुझे मिल जाते तो मेहरबानी होती। मुझे ज़रूरत है।’

वे  माथे पर बल देकर बोले, ‘कौन से पैसे?’

मैंने हैरान होकर कहा, ‘वही जो लेने आप मेरे गरीबख़ाने पर तशरीफ लाये थे।’

वे उसी तरह बोले, ‘वे रुपये मैंने आपको लौटाये नहीं?’

मैंने अपराध भाव से गिड़गिड़ा कर कहा, ‘अभी नहीं लौटे, नवाब साहब।’

वे गाल पर उँगली टिकाकर बोले, ‘मैं तो बिलकुल भूल ही गया था। दरअसल मैं समझ रहा था कि मैंने लौटा दिये हैं। एक मिनट में हाज़िर हुआ।’

वे उठकर कुछ अप्रसन्न भाव से भीतर चले गये। लौट कर बोले, ‘माफ कीजिएगा। पैसे आये तो थे, लेकिन पिछले हफ्ते हमारे साले साहब फेमिली के साथ आ गये थे। उनके साथ सैर के लिए कार से पचमढ़ी चला गया था। काफी पैसा खर्च हो गया। दो-तीन दिन में भिजवा देता हूँ।’

मैं चलने लगा तो वे बोले, ‘दरअसल मैं शाम को किसी से लेन-देन नहीं करता। पीने का सारा मज़ा किरकिरा हो जाता है।’

मैं उनसे बार-बार माफी माँग कर अपराधी की तरह लौट आया।

दो-तीन दिन की जगह तीन महीने गुज़र गये। नवाब साहब के घर से खाने की ख़ुशबू  और कार का धुआँ आता रहा लेकिन पैसे नहीं आये।’

आख़िरकार एक बार फिर बेशर्मी की चादर ओढ़ कर उनके हुज़ूर में हाज़िर हो गया। इस बार थोड़ा जल्दी गया ताकि उनके सुरूर में ख़लल न पड़े।

वे बेगम के साथ बैठे चौपड़ खेल रहे थे। मुझे देखकर बेगम अन्दर तशरीफ ले गयीं। नवाब साहब पहले की तरह जोश से मुझसे मिले, बोले, ‘आप तो ईद के चाँद हो गये। मुद्दत के बाद मुलाकात हो रही है।’

फिर वे मुझे बताने लगे कि कैसे उनसे मिलने एक मिनिस्टर साहब आये थे जिनके दादा उनके दादाजान के यहाँ बावर्ची हुआ करते थे। बोले, ‘अब भी बहुत इज्ज़त से पेश आता है। भई वो इंडिया का प्रेसिडेंट हो जाए, फिर भी हम हमीं रहेंगे और वो वही रहेगा।’

मैंने कहा, ‘इसमें क्या शक है।’

वे एक शिकार का किस्सा शुरू करने जा रहे थे कि मैंने बीच में कहा, ‘माफ कीजिएगा, नवाब साहब, मैं ज़रा जल्दी में हूँ। मैं अपने पैसों के बारे में आया था। आपने फरमाया था कि दो-तीन दिन में पहुँच जाएँगे।’

नवाब साहब ने पहले तो ‘ओह’ कह कर माथे पर हाथ मारा, जैसे मेरी रकम भूल जाने का उन्हें अफसोस हो। फिर पहले की तरह ‘एक मिनट’ कह कर भीतर गुम हो गये। लौट कर बोले, ‘आप एक घंटे पहले आ जाते तो दे देता। अब तो गड़बड़ हो गया। पैसा आते ही लेनदार सूँघते हुए आ जाते हैं। आप चलिए, मैं कल तक कुछ इन्तज़ाम करता हूँ।’

चलने लगा तो उन्होंने हँसकर टिप्पणी की, ‘आपका दिल पैसों में कुछ ज़्यादा ही रहता है। पैसा तो हाथ का मैल है। ज़िन्दगी का लुत्फ़ लीजिए। कुछ हमसे सीखिए।’

मैंने कहा, ‘कोशिश करूँगा।’

उस दिन सारी शाम दिमाग ख़राब रहा। जब एक हफ्ते तक नवाब साहब का ‘कल’ नहीं आया तो इस बार गुस्से में फिर उनके घर जा धमका। वे बालों और मूँछों में ख़िज़ाब लगाये कुछ चिन्तित से बैठे थे। मुझे देखकर आधा उठकर हाथ मिलाया।

मेरे कुछ बोलने से पहले ही बोले, ‘बड़ा ख़राब ज़माना आ गया है। आज शराब के लिए आदमी भेजा जो गुस्ताख़ शराब वाले ने कहलवा भेजा कि पहले पिछला उधार चुका दूँ, फिर आगे शराब मिलेगी। आदमी की कोई कद्र, कोई इज्ज़त नहीं रह गयी। पैसा ही सब कुछ हो गया। पुराना ज़माना होता तो—‘

मैंने उनकी बात काट कर कहा, ‘आपने दूसरे दिन पैसा भेजने को कहा था। तब से इन्तज़ार ही कर रहा हूँ।’

वे गुस्से में हाथ नचाकर बोले, ‘हद हो गयी। मैं इस फ़िक में परेशान हूं कि मेरी आज की शाम कैसे गुज़रेगी और आपको अपना पैसा दिख रहा है। खूब पड़ोसी हैं आप! रुकिए, अभी आता हूँ।’

वे भीतर चले गये। भीतर कुछ देर तक मियाँ-बीवी में ज़ोर-ज़ोर से बात करने की आवाज़ें आती रहीं, फिर वे गुस्से में मुँह बिगाड़े बाहर निकले। मेज़ पर कुछ नोट रख कर बोले, ‘ये लीजिए। एक हज़ार हैं। अपना कलेजा ठंडा कर लीजिए और मुझे मेरे हाल पर छोड़ दीजिए। उधर बेगम हैं कि एक एक पैसे के लिए झिकझिक करती हैं, और इधर आप जैसे लोग सूदख़ोरों की तरह पीछे पड़े रहते हैं।’

मैंने उठते हुए पूछा, ‘बाकी?’

वे हाथ हिलाते हुए बोले, ‘बाकी भी मिल जाएँगे। थोड़ा सब्र रखना सीखिए। हम ख़ानदानी लोग हैं, आपका पैसा लेकर भाग नहीं जाएँगे। अब मेहरबानी करके पैसों का तकाज़ा करने के लिए तशरीफ़ मत लाइएगा। हम खुद भिजवा देंगे।’

तब से फिर एक महीना गुज़र गया है और नवाब साहब के घर से खुशबुओं के अलावा और कुछ नहीं आया। अब फिर किसी दिन मेरा दिमाग ख़राब होगा और नवाब साहब की शाम ख़राब करने उनके दौलतख़ाने पर जा धमकूँगा।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ लोकतंत्र बनाम लाठीतंत्र ☆ श्री नवेन्दु उन्मेष ☆

श्री नवेन्दु उन्मेष

☆ व्यंग्य  ☆ लोकतंत्र बनाम लाठीतंत्र ☆ श्री नवेन्दु उन्मेष

लोकतंत्र में लोगों के विकास में लाठी की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह सर्वसत्य है कि बगैर लाठी खाये कोई आगे नहीं बढ़ता है। आगे बढ़ने के लिए लाठी खानी ही पड़ती है। स्कूल में पढ़े तब टीचर की छड़ी खाई। घर में रहे तो माता-पिता की छड़ी खाई। इससे जाहिर होता है कि लोकतंत्र में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिलेगा जिसने अपने जीवन में लाठी या छड़ी नहीं खाई हो। चाहे वह नेता हो, अभिनेता हो, पुलिस या प्रषासन का अधिकारी कभी न कभी अपने जीवन में लाठी या छड़ी अवश्य खा चुके होते हैं।

एक बार की घटना है कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में छात्रों ने आंदोलन कर दिया था। उन्हें  खदेड़ने के लिए पुलिस बुलाई गयी। पुलिस ने लाठी चलाकर आंदोलनकारी छात्रों को तो खदेड़ दिया। इसके बाद पुलिस की एक टीम एक कक्षा में घुस गई। वहां एक अध्यापक छात्रों को पढ़ा रहे थे। पुलिसकर्मियों को अपनी ओर लपकता हुआ वे बोले-मैं रीडर हूं। मैं रीडर हूं। फिर क्या था पुलिसकर्मियों ने समझा की यही लीडर है और जमकर लाठियों से उसकी धुनाई कर दी। रीडर महोदय को अस्पताल में भर्ती करना पड़ा था।

जहिर है लोकतंत्र में लाठीतंत्र ही काम करती है। कोई भी आंदोलन हो लाठीधारी खड़े रहते हैं। अपने शहर में प्रधानमंत्री या अन्य मंत्री भी आते हैं तो चौक-चैराहे पर लाठीधारी खड़े कर दिये जाते हैं। नेता वोट के वक्त लोगों को तरह-तरह के आश्वासन देते हैं। लोभ और लालच देते हैं जब सत्ता में आ जाते हैं तो उनकी खुद की जिंदगी लाठीतंत्र के सहारे चलती है। अगर जनता उनके द्वारा किये गये वादों की याद दिलाये या आंदोलन करे तो वहीं नेता जनता पर लाठी चलाने का आदेश देता है। लाठी को देखकर बड़े-बड़े के होश उड़ जाते हैं। लाठी चलाने वाले यह नहीं देखते कि कौन व्यक्ति देश में कितनी उंची कद का है। लाठी चलाने वालों ने तो महात्मा गांधी और लोकनायक जयप्रकाश नारायण पर भी लाठी चलाई।

राजनीतिक दल जब सत्ता से बाहर रहते हैं तो सरकार पर लाठी चलाने का आरोप लगाते हैं, लेकिन जैसे ही वे खुद सत्ता पर काबिज होते हैं लाठी चलवाना शुरू कर देते हैं। कोई ऐसा सत्ताधारी दल आपको नहीं मिलेगा जो यह कहे कि आज से लाठीतंत्र पर अंकुश लगाया जाता है और अब मेरे शासनकाल में लाठियां नहीं चलेंगी। राजनीतिक दल यह जानते हैं कि बगैर लाठियों के सत्ता का खेल चल ही नहीं सकता है।

लोकतंत्र में एक ओर बात देखने को मिल रहीं है कि अपने साथ लाठीधारी या बंदूकरधारी लेकर चलना गर्व की बात हो गयी है। ऐसी प्रतिष्ठा मिलने के बाद नेता जनसंपर्क वाले नहीं बल्कि जन से फर्क वाले हो जाते हैं।

कई विधानसभाओं में भी जब माननीय उत्तेजित होकर माइक और कुर्सी-टेबुल पटकने लगे हैं तो उन्हें मार्शल के द्वारा कंधे पर उठाकर बाहर फेंकने की कार्रवाई की जाती है। जिसे आप लाठीतंत्र का ही एक दूसरा पहलू मान सकते हैं। मैं पत्रकार रहा। समाचार संकलन के दौरान मुझे भी लाठी का सामना करना पड़ा। यह अलग बात है कि लाठीधारियों को पत्रकार बताने पर उनकी आगे की लाठी मुझपर नहीं चली। एक बार तो रांची के पत्रकारों को छोटानागपुर के तत्कालीन आईजी ललित विजय सिंह ने आश्वासन दिया था कि पत्रकारों को हेलमेट दिया जायेगा ताकि वे समाचार संकलन करते वक्त उसे पहनकर कार्य पर निकलें। यह अलग बात है कि पत्रकारों को कभी हेलमेट नहीं मिला और मैं भी बगैर हेलमेट के समाचार संकलन करता रहा।

पहले लोग कहते थे कि लाठी से भूत भी भाग जाता है। ओझा-गुणी भी लाठी या झाड़ू मारकर भूत भगाने का काम करते हैं। कई साधु महात्मा तो लाठी लेकर चलते हैं और लाठी सिर पर रखकर लोगों को आशीर्वाद भी दे देते हैं। बिहार के लोगों ने एक बार लाठी की महिमा को बखूबी पहचाना था इस लिए पटना के गांधी मैदान में तेल पिलावन, लाठी चलावन रैली का भी आयोजन किया था।

जवानी में जितना चाहें लोग उछल-कूद कर लें लेकिन बुढ़ापे में लाठी का ही सहारा होता हैं। शायद ही किसी बुजुर्ग को आपने बगैर लाठी टेके हुए अपने कदमों पर चलते हुए देखा होगा।

© श्री नवेन्दु उन्मेष

संपर्क – शारदा सदन,  इन्द्रपुरी मार्ग-एक, रातू रोड, रांची-834005 (झारखंड) मो  -9334966328

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 16 – सत्ता का नया फार्मुला ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना सत्ता का नया फार्मुला।)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 15 – सत्ता का नया फार्मुला ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

एक समय था जब सरकार जनता से बनती थी। चुनाव की गर्मी के समय एयर कंडीशनर और बारिश की फुहार जैसे वायदे करने वाले जब सरकार में आते हैं तब इनके वायदों को न जाने कौन सा लकवा मार जाता है कि कुछ भी याद नहीं रहता। अब तो जनता को बेवकूफ बनाने का एक नया फार्मूला चलन में आ गया है। चुनाव के समय S+R=JP का फार्मूला धड़ल्ले से काम करता है। यहां  S का मूल्य शराब और R का मूल्य रुपया और JP का मतलब जीत पक्की। यानी शराब और रुपए का संतुलित मिश्रण गधे तक को सिर ताज पहना सकता है। यदि चुनाव जीत चुके हैं और पाँच साल का कार्यकाल पूरा होने वाला है तब जीत का फार्मूला बदल जाता है। वह फार्मूला है PPP । यहां पहले P का मतलब पेंशन। पेंशन यानी बेरोजगारी पेंशन, वृद्धा पेंशन, विधवा पेंशन, किसान पेंशन,  आदि-आदि। दूसरे P का अर्थ है पैकेज। इस पैकेज के लाखों-करोड़ों रुपए पैकेज की घोषणा कर दे फिर देखिए जनता तो क्या उनका बाप भी वोट दे देगा। वैसे भी जनता को लाखों-करोड़ों में से कुछ मिले न मिले शून्य की भरमार जरूर मिलेगी। इसी फार्मूले के तीसरे P का अर्थ है पगलाहट। जनता को मनगढ़ंत और उटपटांग उल्टे-सीधे सभी वायदे कर दें, फिर देखिए जनता में जबरदस्त पगलाहट देखने को मिलेगी।

इतना सब कुछ हो जाने के बावजूद कुछ बुद्धिजीवी किस्म की जो जनता होती है, वो मनलुभावने वायदों में नहीं पड़ती। इन्हें पटाना सबसे टेढ़ी खीर है। ऐसों के लिए गांव-गांव और शहर-शहर में अलमारी नुमा होर्डिंग लगा दें। ऊपर लिख दें – क्या आप अपनी समस्याओं से परेशान हैं? नौकरी की जरूरत है? क्या आपको पेंशन की जरूरत है? क्या आपको खेती, स्वास्थ्य, उद्योग संबंधित समस्याएं हैं? तो इसके लिए इस अलमारीनुमा हार्डिंग को खोलिए और मिलिए उस व्यक्ति से जो आपकी समस्याओं का हल निकाल सकता है। जनता के पास समाधान कम समस्याएं अधिक होती है। हर कोई इसे आजमाने के चक्कर में हार्डिंग खोलने लगा। होर्ड़िंग में उनकी समस्याओं का समाधान करने वाले का चेहरा देखकर सब के सब दंग रह गए। माथा पीटते और अपनी किस्मत को कोसते हुए वहाँ से चले गए। वैसे क्या आप बता सकते हैं कि उस होर्डिंग में किसकी तस्वीर थी? नहीं न? उसमें किसी की तस्वीर नहीं बल्कि दर्पण लगा हुआ था। वो क्या है न कि जनता समाज का दर्पण होती है।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 252 ☆ व्यंग्य – कंछेदी का स्कूल ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम व्यंग्य – कंछेदी का स्कूल। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 252 ☆

☆ व्यंग्य ☆ कंछेदी का स्कूल 

कंछेदी अपने क्षत-विक्षत स्कूटर पर मेरे घर के कई चक्कर लगा चुके हैं। ‘कुछ करो मासाब। हमें तो चैन नहीं है और आप आराम से बैठे हैं। कुछ हमारी मदद करो।’

कंछेदी कई धंधे कर चुके हैं। दस बारह भैंसों की एक डेरी है, शहर में गोबर के भी पैसे खड़े कर लेते हैं। इसके अलावा ज़मीन की खरीद- फरोख़्त का धंधा करते हैं। सड़कों पुलियों के ठेके भी लेते हैं। सीमेंट की जगह रेत मिलाकर वहाँ से भी मिर्च-मसाले का इंतज़ाम कर लेते हैं।

फिलहाल कंछेदी अंगरेजी स्कूलों पर रीझे हैं। उनके हिसाब से अंगरेजी स्कूल खोलना आजकल मुनाफे का धंधा है। अपने घर के दो कमरों में स्कूल चलाना चाहते हैं, लेकिन अंगरेजी के ज्ञान से शून्य होने के कारण दुखी हैं। मेरे पीछे पड़े हैं— ‘कुछ मदद करो मासाब। हम अंगरेजी पढ़े होते तो अब तक कहीं से कहीं पहुँच गए होते।’

अंगरेजी स्कूलों के नाम पर कंछेदी की लार टपकती है। जब भी बैठते हैं, घंटों गाना गाते रहते हैं कि किस स्कूल ने मारुति खरीद ली, किसके पास चार गाड़ियाँ हैं, किसने दो साल में अपनी बिल्डिंग बना ली।

मैं कहता हूँ, ‘तुमने भी तो दूध में पानी और सीमेंट में रेतक मिलाकर खूब पैसा पीटा है, कंछेदी। कंजूसी के मारे यह टुटहा स्कूटर लिये फिरते हो। कम से कम इस पर रंग रोगन ही करा लो।’

कंछेदी मुस्करा कर कहते हैं, ‘कहाँ मासाब! कमाई होती तो ऐसे फिरते? दिन भर दौड़ते हैं तब दो-चार रुपये मिलते हैं। स्कूटर पर रंग कराने के लिए हजार बारह-सौ कहांँ से लायें? आप तो मसखरी करते हो।’

कंछेदी बौराये से चक्कर लगा रहे हैं। अंगरेजी स्कूल उनकी आँखों में दिन-रात डोलता  है। ‘मासाब, एक बढ़िया सा नाम सोच दो स्कूल के लिए। ऐसा कि बच्चों के बाप पढ़ें तो एकदम खिंचे चले आयें। फस क्लास नाम। आपई के ऊपर सब कुछ है।’

दो-चार चक्कर के बाद मैंने कहा, ‘कहाँ चक्कर में पड़े हो। स्कूल का नाम रखो के.सी. इंग्लिश स्कूल। के.सी. माने कंछेदी। इस तरह स्कूल तो चलेगा ही, तुम अमर हो जाओगे। एक तीर से दो शिकार। जब तक स्कूल चलेगा, कंछेदी अमर रहेंगे।’

कंछेदी प्रसन्न हो गये। बोले, ‘ठीक कहते हो मासाब। के.सी. इंग्लिश स्कूल ही ठीक रहेगा। बढ़िया बात सोची आपने।’

के.सी. इंग्लिश स्कूल का बोर्ड लग गया। कंछेदी ने घर के दो कमरों में छोटी-छोटी मेज़ें और बेंचें लगा दीं। ब्लैकबोर्ड लगवा दिये। बच्चों के दो-तीन चित्र लाकर टाँग दिये। एक कमरे में मेज़-कुर्सी रखकर अपना ऑफिस बना दिया। जोर से गठियाई अंटी में से कंछेदी कुछ पैसा निकाल रहे हैं। पैसे का जाना करकता है। कभी-कभी आह भरकर कहते हैं, ‘बहुत पैसा लग रहा है मासाब।’ लेकिन निराश नहीं हैं। लाभ की उम्मीद है। धंधे में पैसा तो लगाना ही पड़ता है।

एक दिन कंछेदी आये, बोले, ‘मासाब, परसों थोड़ा समय निकालो। दो मास्टरनियों और एक हेड मास्टर का चुनाव करना है। उनसे अंगरेजी में सवाल करना पड़ेंगे। कौन करेगा? दुबे जी को भी बुला लिया है। आप दोनों को ही सँभालना है।’

मैंने पूछा, ‘उन्हें तनख्वाह क्या दोगे?’

कंछेदी बोले, ‘पाँच पाँच हजार देंगे। हेड मास्टर को छः हजार दे देंगे।’

मैंने कहा, ‘पाँच हजार में कौन तुम्हारे यहाँ मगजमारी करेगा?’

कंछेदी बोले, ‘ऐसी बात नहीं है मासाब। मैंने दूसरे स्कूलों में भी पता लगा लिया है। अभी पाँच हजार से ज्यादा नहीं दे सकते। फिर मुनाफा होगा तब सोचेंगे। अभी तो गाँठ का ही जा रहा है।’

नियत दिन मैं स्कूल पहुँचा। कंछेदी बढ़िया धुले कपड़े पहने, खिले घूम रहे थे। दफ्तर के दरवाज़े पर एक चपरासी बैठा दिया था। मेज़ पर मेज़पोश था और उस पर कलमदान, कुछ कागज़ और पेपरवेट। जंका-मंका पूरा था।

मैंने कंछेदी से कहा, ‘तुमने कमरों में पंखे नहीं लगवाये। गर्मी में बच्चों को भूनना है क्या?’

कंछेदी दुखी हो गये— ‘फिर वही बात मासाब। आपसे कहा न कि कुछ मुनाफा होने दो। अब तो मुनाफे का पैसा ही स्कूल में लगेगा। जेब से बहुत पैसा चला गया।’

इंटरव्यू के लिए आठ महिलाएँ और तीन पुरुष थे। उनमें से दो रिटायर्ड शिक्षक थे। कंछेदी हम दोनों के बगल में, टाँग पर टाँग धरे, ठप्पे से बैठे थे।

उम्मीदवार आते, हम उनके प्रमाण- पत्र देखते, फिर सवाल पूछते। जब हम सवाल पूछने लगते तब कंछेदी भौंहें सिकोड़कर प्रमाण- पत्र उलटने पलटने लगते। जब उम्मीदवार से हमारे सवाल-जवाब चलते तो कंछेदी जानकार की तरह बार-बार सिर हिलाते।

कोई सुन्दर महिला-उम्मीदवार कमरे में घुसती तो कंछेदी की आँखें चमकने लगतीं और उनके ओंठ फैल जाते। वे मुग्ध भाव से बैठे उसे देखते रहते। जब वह इंटरव्यू देकर बाहर चली जाती तो कंछेदी बड़ी उम्मीद से हमसे कहते, ‘ये ठीक है।’ हम उनसे असहमति जताते तो वे आह भरकर कहते, ‘जैसा आप ठीक समझें।’

कंछेदी का काम हो गया। दो शिक्षिकाएँ नियुक्त हो गयीं। एक रिटायर्ड शिक्षक को हेड मास्टर बना दिया।

कंछेदी बीच-बीच में मिलकर स्कूल की प्रगति की रिपोर्ट देते रहते। स्कूल की प्रगति उत्साहवर्धक थी। पंद्रह बीस बच्चे आ गये थे, और आने की उम्मीद थी।

कंछेदी अपनी योजनाएँ भी बताते रहते। कहते, ‘अगले साल से हम किताबें स्कूल में ही बेचेंगे। यूनीफॉर्म भी हम खुद ही देंगे। टाई बैज भी। अब मासाब, धंधा किया है तो मुनाफे के सब रास्ते निकालने पड़ेंगे। दिमाग लगाना पड़ेगा। आपका आशीर्वाद रहा तो साल दो साल में स्कूल मुनाफे की हालत में आ जाएगा।

कंछेदी का स्कूल दिन-दूनी रात- चौगुनी तरक्की कर रहा है। भीड़ दिखायी पड़ने लगी है। रिक्शों के झुंड भी दिखाई पड़ने लगे हैं। कंछेदी स्कूल की बागडोर पूरी तरह अपने हाथों में रखे हैं।

कंछेदी पूरे जोश में हैं। धंधा फायदे का साबित हुआ है। उन्हें पूरी उम्मीद है कि वे जल्दी ही एक मारुति कार खरीदने में समर्थ हो जाएँगे। कहते हैं, ‘मासाब, बस चार छः महीने की बात और है। फिर एक दिन आपके दरवाजे पर एक बढ़िया मारुति कार रुकेगी और उसमें से उतरकर आपका सेवक कंछेदीलाल आपका आशीर्वाद लेने आएगा।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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