श्री रमेश सैनी
(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ियां सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।
आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की अगली कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य निबंध – सीमित शब्दों में सिमटते व्यंग्य का अनचाहा पक्ष’।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो # 8 – व्यंग्य निबंध – सीमित शब्दों में सिमटते व्यंग्य का अनचाहा पक्ष ☆ श्री रमेश सैनी ☆
[प्रत्येक व्यंग्य रचना में वर्णित विचार व्यंग्यकार के व्यक्तिगत विचार होते हैं। हमारा प्रबुद्ध पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ]
आज व्यंग्य के परिदृश्य में व्यंग्य की प्रमुखता देखी जा सकती है. इसे व्यंग्य का सकारात्मक पक्ष उभर कर आता है. इसके व्यंग्य पीछे की लोकप्रियता है. वैसे तो व्यंग्य सदा से व्याप्त रहा है. यह अपने आक्रोश और सहमति जताने का सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावशाली हथियार है आक्रोश को व्यक्त करने के लिए साहित्य में अपने तौर-तरीके और अनेक विधा के माध्यम हैं. व्यंग्य कहानी में भी रहता है निबंध के माध्यम से भी बाहर आता है और कविता से भी. आक्रोश अपनी प्रकृति प्रवृत्ति के साथ व्यंग्य के रुप से बाहर आता रहा है. आज हम कह सकते हैं. आक्रोश ने अपने को व्यक्त करने के लिए भाषा और भंगिमा ईजाद की है. व्यंग्य के तेवर भाषा के मुकम्मल होने पर ही प्रभावी होते हैं. इतिहास के पन्नों को पलटें तो व्यंग्य सीमित शब्दों के साथ कटाक्ष, तंज के रुप में बाहर दिखता है.इसके शब्दों की संख्या बहुत कम की रही, एक वाक्य से लेकर एक शब्द तक की. पर शब्दों अपने समय की चूलें हिला दी. इतिहास को ही बदलकर नया इतिहास को रच डाला. इस संदर्भ में महाभारत का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है. जब द्रोपदी ने दुर्योधन पर कटाक्ष कर दिया कि’ अंधे के बेटे अंधे ही होते हैं’ इस एक छोटे वाक्य ने अपने समय के परिदृश्य को बदलकर महाविनाश का महाभारत रच डाला. एक शब्द या छोटे वाक्य को हम आज के समय का व्यंग्य तो नहीं कह सकते हैं. साहित्य मैं व्यंग्य की एक अलग अवधारणा है जो अपने समय के दबे कुचले,शोषित वर्ग की विसंगतियों को केंद्र में रखकर समाज में व्याप्त पाखंड प्रपंच विद्रूपताओं ठकुरसुहाती, नैतिक मूल्यों के चित्रों को एक बड़े कैनवास पर उकेरती है. मोटे तौर इसकी शुरुआत भारतेन्दु हरिश्चंद्र के साहित्य से मान सकते हैं. भारतेंदु ने अपने अराजक काल की राजनीतिक व्यवस्था को व्यंग्य के माध्यम से तीखे और रोचक ढंग से उजागर किया है. उस समय साहित्य की मूल भाषा पद्य थी. पर गद्य का आरंभ हो चुका था। भारतेंदु अपनी रचना’अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा. में व्यवस्था पर तीखा प्रहार करते हुए कहते हैं
‘चूरन साहेब लोग जो खाता
सारा हिंद हजम कर जाता.
भारतेंदु काल के बाद गद्य में बालकृष्ण भट्ट, बालमुकुंद गुप्त आदि व्यंग्यकारों ने अपने समय की अंग्रेजी व्यवस्था पर तीखे के प्रहार किए. ये रचनाएँ साहित्य जगत में बहुत लोकप्रिय हुई. स्वतंत्रता की बाद हरिशंकर परसाई व्यंग्य में एक नया फॉर्मेट लेकर आए. जिसमें समाज की विपद्रूपताएं मानवीय प्रपंच,पाखंड, प्रवृत्तियों को अपने आलेख का विषय बनाया. लोगों ने इसे बहुत शिद्दत के साथ हाथों हाथ लिया और पूरे दिल से प्रशंसा की. लोगों ने इसे पढ़कर कहा’बहुत अच्छा व्यंग्य लिखा’. यह व्यंग्य ड्राइंग रूम में बैठकर पढ़ने वालों का ही नहीं वरन चाय की टपरे, ठेले,गुमटीओ आदि के भी लोग थे.लोगों को लगा लेखक हमारे बीच हमारे दुख दर्द हमारी कमियों की बात हमारे पक्ष में कह रहा है.और विस्तार से कह रहा है. अपने शब्दों में कंजूसी नहीं वरत रहा है. परसाई की व्यंग्य की व्यापकता ने साहित्य का सिरमौर बना दिया और यह सबसे महत्वपूर्ण विधा बन गई. जिसे भी पाठक, पत्र-पत्रिकाओं से भरपूर प्रेम मिला.और अखबारों और पत्रिकाओं में इसे पूरे सम्मान के साथ स्पेस दिया जाने लगा.अखबारों ने इसकी जरूरत को समझ लिया था. इसकी लोकप्रियता में इसका अन्य विधाओं से अलग फॉर्मेट ,शैली,भाषा की विस्तारता आदि का महत्वपूर्ण रोल था. उस समय छोटा तो छोटा सा छोटा व्यंग्य 1500 से लेकर 3000 तब तक रहता था.इस विशालता से लेख की विषय वस्तु पूरी तरह से न्याय दिखता था इससे पाठक को पठन की निरंतरता के साथ संतोष /संतुष्टि मिलती थी. परसाई जी की रचनाओं में ‘कंधे श्रवण कुमार के कंधे’, #विकलांग श्रद्धा का दौर,’ ‘वैष्णव की फिसलन’ ‘अकाल उत्सव:, :इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर:, ‘एक लड़की चार दीवाने’आदि ऐसी रचनाओं की लंबी फेहरिस्त है.जिससे व्यंग्य की अवधारणा,महत्व, बनावट, और कलेवर को पूरी तरह से समझा जा सकता है. इसी क्रम में शरद जोशी ने पुलिया पर बैठा आदमी ,जीप पर सवार इल्लियांँ, मुद्रिका रहस्य, अतृप्त आत्माओं की रेल यात्रा,सारी बहस से गुजर कर ,आदि की फुल लेंथ की रचनाएँं ने व्यंग्य को अपनी पूर्णता के साथ समृद्ध किया है. इसी प्रकार रवीन्द्रनाथ त्यागी जी ने अपने समकालीनों के साथ कदमताल करते हुए अपने सृजन में व्यंग्य के फार्मेट को पूरा किया है. ‘धूप के धान’, ‘लैला मजनू से लेकर कबीर तक’,’ गरीब होने के फायदे’ आदि रचनाओं ने अपने व्यापक स्वरूप की सार्थकता प्रदान की. रचनाओं के स्वरूप के साथ पाठक को पढ़ने में संतुष्टि तो मिलती ही है और वह वैचारिक रूप से रूबरू भी होता है .
विश्व में वैश्वीकरण के प्रभाव ने साहित्य को भी बुरी तरह से प्रभावित किया है। वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने बाजारवाद को पैर पसारने का पूरा अवसर प्रदान किया. बाजार कब हमारे घर, द्वार, मन, मस्तिक में प्रवेश कर गया कि हमें पता ही नहीं चला. बाजार धीरे-धीरे साहित्य की जगह पर अपना कब्जा जमाने लगा अखबार, पत्र पत्रिकाओं में कहानी कविता की जगह सिकुड़ गई कहीं गई .कहीं कहीं तो विलोपित हो गई. पर व्यंग्य की लोकप्रियता, उसके सामाजिक और मानवीय सरोकार, जनपक्षधरता,ने उसको अखबार पत्र-पत्रिकाओं में बनाए रखा. फिर बाजार के प्रभाव के चलने अधिकांश पत्र पत्रिकाओ ने इन व्यंग्य स्तंभों को अपनी-अपनी शब्द सीमाओं को समेट दिया है.जिससे सिकुड़ कर रह गया. इसकी शक्ल सूरत बीमार आदमी के समान दिखने लगी है .व्यंग्य के स्वस्थ स्वरूप की अवधारणा जो हमारी अवचेतन मन में बनी हुई है वह खंडित होने लगी. उसका जो अलिखित सर्वमान्य फार्मेट है .जो अपने कथा, मित्थ फेंटेसी ,निबंध, संवाद शैली आदि के माध्यम से आता था और अपने विषय वस्तु को खुलेपन और विस्तार के साथ पाठक के समक्ष रखता था वह विलोपित सा हो गया है.अब व्यंग्य अपने आकार और गुण धर्म के साथ बौना सा दिखने लगा है. वे अपने आकार का आभास देते हैं, पर होते नहीं हैं,शिल्प का सौन्दर्य सिमटकर रह गया है. व्यंग्य जिसे हम उसकी प्रहारक, प्रभावित, और पठनीय क्षमता से जानते हैं, उसमें धुधंलापन और क्षीणता आ गई है. अब रचना पढ़ना शुरू करते खतम हो जाती है. एक झटका सा लगता है. कुछ छूटा छूटा महसूस होता है.सीमित शब्दों की अधिकांश दिलोदिमाग को तरंगित करने में असमर्थ सी लगती हैं. ऐसा लगता है कि कुछ पढ़ा ही नहीं.. प्रश्न उठता है लेखक कुछ और कहना चाहता है पर कह नहीं पाया. ऐसी रचनाएँ अमूमन आप रोज देखते होगे. उदाहरण स्वरूप, कुछ नाम जैसे ही,’बैठक चयन समिति की’,’साहब काम से गए हैं.’ ‘ये कुर्सी का कसूर है’, ‘नहीं नहीं कभी नहीं#, ‘गर्त प्रधान सड़क करि कथा’,’नेता और अभिनेता ‘आदि सैकड़ों रचनाएँ में विस्तार होने से विशालता का सागर छलकता,पर वह सिमट कर एक आंचलिक नदी का रुप लेकर रह गया. जो नदी तो कहलाती है. पर नदी की विशालता के सौन्दर्य रुप से वंचित हो गई है. इस कारण पाठक के समक्ष बोनी रचना बन कर रह जाती है.व्यंग्य की साहित्य सर्वमान्य भूमिका है पर ऐसी रचनाएँ अपने दायित्व का निर्वाह करने में शिथिल महसूस हो रही हैं.
© श्री रमेश सैनी
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≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈