हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 102 ☆ हम न मरब ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर विचारणीय व्यंग्य  ‘हम न मरब)  

☆ व्यंग्य # 102 ☆ हम न मरब ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

कानों को सुनाई पड़ा कि मैं थोड़े देर पहले मर चुका हूं। फिर किसी ने कहा कि मुझे मरे काफी देर हो चुकी है। किसी को विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं वास्तव में मर चुका हूं। सब मजाक कर रहे थे कि मैं इतने जल्दी नहीं मर सकता। डाक्टर बुलाया गया, उसने हाथ पकड़ा फिर नाड़ी देखी और बोला कि ये मरने के करीब पहुंच गए हैं, उधर से आवाज आई डाक्टर झूठ बोल रहा है, उनको मरे बहुत देर हो गई है।

मेरे हर काम में लोग शक करते हैं और अड़ंगा डालते हैं, कुछ लोगों ने मुझे मरा घोषित कर दिया है और कुछ लोग मानने तैयार नहीं हैं कि मैं वैसा ही मर चुका हूं जैसे सब मर जाते हैं, दरअसल मित्र लोग खबर मिलने पर अंतिम दर्शन को आ रहे हैं पर हाथी जैसे डील-डौल वाले शरीर को कंधा देने में कतरा रहे हैं और मजाक करते हुए यहां से कन्नी काट कर यह कहकर आगे बढ़ जाते हैं कि मैं मर नहीं सकता।

 गलती मेरी भी है कि मैं  जीवन भर से हर बात पर नखरे करता रहा, पहिचान कर भी अनजान बनने का नाटक करता रहा, पहिचान था पर ऐन वक्त नाम भूल जाता था।  धीरे धीरे शरीर फैलता रहा,वजन बढ़ता गया,वजन कम करने का प्रयास नहीं किया। मुझे नहीं मालूम था कि हाथी जैसे डील-डौल वाले को मरने के बाद कंधा देने चार आदमी भी नहीं मिलते।

जिनको बहुत पहले हजारों रुपए उधार दिये थे उनमें से तीन  खुशी खुशी कंधा देने तैयार हुए पर चौथा आदमी नहीं मिल रहा था। जब वे तीन कंधा देने तैयार हुए तो मुझे लगा कि अब उधारी दिया पैसा डूब जायेगा, क्योंकि ये तीनों जल्दी मचा रहे हैं और कंधा देने वाले चौथे आदमी की तलाश में हैं ताकि मरे हुए को जल्दी मरघट पहुंचाया जा सके। मैं सचमुच मर चुका हूं मुझे भी विश्वास नहीं हो रहा था, क्योंकि बीच-बीच में वसूली के मोह में सांस लौट लौट कर आ-जा रही थी।वे तीनों ने आते- जाते अनेक लोगों से मदद माँगी।किसी के पास समय नहीं था। चौथे आदमी को ढूंढने में विलंब इतना हो रहा था कि  मैं डर गया कि कहीं ये तीन भी धीरे धीरे कोई बहाना बना कर भाग न जाएं, इसलिए मैंने अपनी दोनों आंखें हल्की सी खोल दीं ताकि उन तीनो को थोड़ी राहत महसूस हो, मेरी आंखें खुलते ही वे तीनों इस बात से डर गये कि कहीं उधारी वाली चर्चा न चालू हो जाए, और वे तीनों भी धीरे-धीरे खिसक गये। मैं फिर बेहोश हो गया, फिर मैंने तय किया कि अब मुझे वास्तव में मर जाना चाहिए, हालांकि मैं मरना नहीं चाहता था पर आखिरी समय में दुनियादारी के इस तरह के चरित्र को देखकर मर जाना ही उचित समझा,  मैंने सोचा उधारी वसूल हो न हो,अच्छे दिन आयें चाहें न आयें….. कम से कम वे तीनों मुझे ठिकाने लगाने में ईमानदारी बरत रहे हैं, बाकी करीब के लोग दूर भाग रहे हैं, ऐसे समय जरूरी है कि मुझे तुरंत मर जाना चाहिए….  और मैं मर गया।

मैं अभी भी मरा हुआ पड़ा हूं, काफी देर हो गई है पर अभी भी कोई मानने तैयार नहीं है , और कंधा देने में आनाकानी कर रहे हैं। बड़ी मुश्किल है, वे तीनों भी फिर से आने में डर रहे होंगे क्योंकि नेताओं ने इन दिनों  ऐसा माहौल बनाकर रखा है कि लोगों के समझ नहीं आ रहा है कि सच क्या है और झूठ क्या है…..

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #105 ☆ व्यंग्य – साहब लोग का टॉयलेट ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘साहब लोग का टॉयलेट’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 105 ☆

☆ व्यंग्य –  साहब लोग का टॉयलेट

उस दफ्तर में दो टॉयलेट हैं। एक साहब लोगों का है और दूसरा क्लास थ्री और फ़ोर के लिए। साहब लोग भूलकर भी दूसरे टॉयलेट में नहीं जाते, और साहबों को छोड़कर दूसरों को पहले टॉयलेट में जाने की सख़्त मुमानियत है। क्लास थ्री या फ़ोर का कोई रँगरूट अगर भूल से साहब लोग के टॉयलेट में चला जाए तो उसकी ख़ासी लानत- मलामत होती है। ख़ुद बड़े बाबू उसकी क्लास लेते हैं।

कभी एक और दफ्तर में जाना हुआ था। वहाँ टॉयलेट के दरवाज़े पर एक पट्टिका लगी थी जिसका कुछ हिस्सा दरवाज़े के पल्ले से छिपा था। पट्टिका पर लिखा दिखायी पड़ा— ‘शौचालय अधिकारी’। देखकर चमत्कृत हुआ। यह कौन सा पद निर्मित हो गया? थोड़ा आगे बढ़ा तो पूरी पट्टिका दिखी। पूरी इबारत थी—‘शौचालय अधिकारी वर्ग’, यानी अधिकारी वर्ग के लिए आवंटित टॉयलेट था।

पहले जिन टॉयलेट्स की बात की उसके बड़े साहब अपने वर्ग के टॉयलेट में कुछ सुधार चाहते हैं। वे कहीं ऐसे नल देख आये हैं जिनमें हाथ नीचे लाते ही अपने आप पानी गिरने लगता है और हाथ हटाने पर अपने आप बन्द हो जाता है। नल खोलने या बन्द करने की ज़रूरत नहीं होती। बड़े साहब तत्काल अपने टॉयलेट में ऐसे ही नल लगवाना चाहते हैं। लगे हाथ वे पुराने फर्श को तोड़कर चमकदार टाइल्स भी लगवाना चाहते हैं ताकि टॉयलेट साहब लोग के स्टेटस के अनुरूप हो जाए। बड़े साहब की इच्छा को छोटे साहबों ने ड्यूटी के रूप में ग्रहण किया और तत्काल ठेकेदार को काम सौंप दिया गया।

लेकिन समस्या यह आयी कि टॉयलेट मुकम्मल होने तक साहब लोग ‘रिलीफ़’ पाने के लिए किधर जाएँगे। बड़े साहब का आदेश ज़ारी हुआ कि टॉयलेट मुकम्मल होने तक सभी अफ़सरान थ्री और फ़ोर क्लास वाले टॉयलेट में ही राहत पायेंगे। चार छः दिन की तो बात है।

लेकिन यह फ़रमान सुनते ही साहब लोगों के मुख मुरझा गये। थ्री और फ़ोर क्लास वाले टॉयलेट में कैसे जाएँगे?क्या अब साहब लोगों और निचली क्लास के लोगों के बीच कोई फ़र्क़ नहीं रहेगा? ‘रबिंग शोल्डर्स विथ देम!’

एक दो दिन के अनुभव के बाद साहबों के बीच भुनभुन होने लगी।’इन लोगों में एटीकेट नहीं है। टॉयलेट में एक दूसरे से बात करेंगे या एक दूसरे पर हँसेंगे। एक दूसरे का मज़ाक उड़ायेंगे। वो धनीराम तो वहाँ जोर जोर से गाने लगता है। टॉयलेट का भी कुछ एटीकेट होता है। वहाँ हम इनके बगल में खड़े होते हैं तो बहुत ‘एम्बैरैसिंग’ लगता है।’रिलीफ़’ का काम भी ठीक से नहीं हो पाता। उस पर साइकॉलॉजी का असर होता है।’

टॉयलेट का काम शुरू होने के दो दिन बाद दास साहब बड़े साहब के पास जाकर बैठ गये हैं। कहते हैं, ‘सर, मेरी रिक्वेस्ट है कि लंच ब्रेक आधा घंटा बढ़ा दिया जाए।’रिलीव’ होने के लिए सिविल लाइंस तक जाना पड़ता है। यहाँ बहुत ‘अनकंफर्टेबिल’ ‘फ़ील’ होता है।’एडजस्ट’ करने में दिक्कत होती है। अटपटा लगता है। ऑफ़िस में हम साथ साथ बैठ सकते हैं, लेकिन टॉयलेट में आजू-  बाजू खड़ा होना बहुत मुश्किल है।’इट इज़ ए डिफ़रेंट फ़ीलिंग ऑलटुगैदर।’ लगता है जैसे हमारी साइज़ कुछ छोटी हो गयी हो।’
बड़े साहब सहानुभूति में सिर हिलाते हैं, कहते हैं, ‘आई कैन अंडरस्टैंड इट। यू कैन टेक मोर टाइम आफ़्टर लंच। आई वोन्ट माइंड इट। तीन चार दिन की बात है।’
दास साहब संतुष्ट होकर उठ जाते हैं। फिर भी दफ्तर में हल्का टेंशन रहता है। ज़्यादातर साहब लोग ‘रिलीव’ होने के लिए बाहर भागते हैं, लेकिन डायबिटीज़ वालों को मजबूरन दफ्तर में ही ‘रिलीव’ होना पड़ता है।

छः दिन में टॉयलेट का सुधार संपन्न हो गया। साहब लोगों ने राहत की साँस ली। बड़े साहब ने सबसे पहले नये ‘गैजेट्स’ का इस्तेमाल किया और फिर बाकी साहब लोगों ने भी उनका आनन्द लिया। छः दिन बाद आखिरकार वो ‘डिस्टर्बिंग फ़ीलिंग’ ख़त्म हो गयी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #2 – व्यंग्य के मूल तत्त्व ☆ श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी  के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में  ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ियां सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन  देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।  

आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की दूसरी कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य के मूल तत्त्व

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #2 – व्यंग्य के मूल तत्त्व ☆ श्री रमेश सैनी ☆ 

[प्रत्येक व्यंग्य रचना में वर्णित विचार व्यंग्यकार के व्यक्तिगत विचार होते हैं।  हमारा प्रबुद्ध  पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ]

साहित्य के परिदृश्य में व्यंग्य एक महत्त्वपूर्ण विधा है। व्यंग्य ही समाज में व्याप्त सभी प्रकार की बुराइयों और परिवर्तन को सामने लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रहा है। व्यंग्य की प्रासंगिकता और पठनीयता ने पाठकों के साथ.साथ लेखकों को भी अपनी ओर खींचा है। कवि हो कहानीकार हो .सभी इस विधा में अपना हाथ आजमाना चाहते हैं। उनको लगता है कि इसमें हाथ साफ़ करना सरल है सहज है। इस व्यंग्य विधा में आजमाइश के दौर में कुछ भी लिखा जा रहा है। मुश्किल यह भी है कि तकनीकी सुविधा ने इसे पाठक के पास पहुँचा दिया है। मोबाइल लेपटॉप पर लिखो और वहीं से ईमेल के माध्यम से पत्र.पत्रिकाओं तक पहुँचा दो। सम्पादक भी वहीं से अपने अख़बार में स्पेस दे देता है। कागज पर पढ़ने और कम्प्यूटर पर पढ़ने में अन्तर होता है। लेपटॉप या कम्प्यूटर में पढ़ना एक तकलीफ से गुजरना होता है। इस तकलीफ से बचने के चक्कर में अनेक रचनाएँ लेखक के नाम से अख़बार में जगह बना लेती हैं। यही व्यवस्था कहीं सुविधा देती हैतो कहीं संकट पैदा करती है।

विगत कुछ वर्षों से राजनीतिक प्रभाव की पतली परत पूरे जनमानस पर दिखाई दे रही थी और उसके प्रभाव से मुक्त होने के संकेत नज़र नहीं आ रहें हैं.। पूरा भारतीय मानस और लेखक भी मुक्त नहीं हो पा रहे हैं .वैसे व्यंग्यकारों का प्रिय विषय राजनीति और पुलिस है क्योंकि यहाँ पर विसंगतियाँ और सामाजिक दंश आसानी से दिख जाता है। नज़र को साफ़ करने के लिये काजल या सुरमा नहीं लगाना पड़ता है। कलम उठाओ और लिख डालो. इनकी प्रवृत्ति और प्रकृति पर। करोना काल ने सामाजिक,मानवीय और शासकीय स्तर पर संवेदना के केन्द्र व्याप्त विसंगतियों को उघाड़ कर रख दिया.पिछले दिनों तो ऐसा लग रहा था कि जहाँ देखो वहाँ यह सत्ता के स्तर पर व्यंग्य बगरो बसंत है.लोग भूखे प्यासे बिना संसाधन के सैकड़ों किलोमीटर भाग रहें. लोग मर रहे हैं .शासन और उसकी अव्यवस्था अस्त व्यस्त थी. प्रकृति ने व्यंग्य के लिए सभी प्रकार की विसंगतियां बुराइयां मौजूद थी.बस आपको उसे कैच करना है। लोग  ने लोंका ;कैच किया भी। लोगों ने इस पर लिखा भी. मगर मैं दावे से कह सकता हूँ कि इन व्यंग्यों ने आप को चौंकाया नहीं .आप के मस्तक पर चिन्ता की रेखाएँ नहीं खींचीं और न ही आप बेचैन दिखे और न ही आप विचलित हुए। मैं यह भी दावा करता हूँ कि इस परिदृश्य पर दसियों व्यंग्यकारों की सैकड़ों रचनाएँ मुझे अख़बारों के पन्नों पर दिखीं. जिन्हें लेखकों ने आपके मोबाइल और लेपटॉप के माध्यम से आपको पढ़वाया भी। पर काजू बादाम और किसमिस चिलगोजों के दौर में आपको एकाध रचना छोड़कर सभी स्मृति से गायब हो गयी हैं. जबकि हरिशंकर परसाई की अकाल उत्सव,.अपील का जादू या शरद जोशी की रचनाओं में जीप पर सवार इल्लियां शीर्षक मूल रहा है. जिसमें वे कांग्रेस के तीस वर्षों को याद करते हैं। उसी समय परसाई जी की रचना अपील का जादू.इसी तरह शंकर पुणतांबेकर की रचना एक मंत्री का स्वर्ग लोक में आदि उस दौर के लेखकों की महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं. जो आपके स्मृति पटल से मुक्त नहीं हो पा रही हैं। यहाँ भी साहित्य में मुक्ति का संकट है। नया तो स्वीकारना चाह रहे हैं पर पुराना हमारे मस्तिष्क पटल पर छाया हुआ है। पर ऐसा भी नहीं है कि अनेक रचनाएँ हमारे दिमाग के दरवाज़े पर दस्तक दे रही हैं। कुछ दिन पहले प्रेम जनमेजय के दो व्यंग्य ‘बर्फ का पानी’और ‘भ्रष्टाचार के सैनिक’ हमारे दिमाग पर अड्डा जमाये हैं। ‘बर्फ का पानी’ रचना अभी कालजयी रचना की प्रक्रिया से गुजर रही है। क्योंकि कालजयी रचना को प्राकृतिक रूप से पकने में समय लगता है।

किसी भी व्यंग्य रचना के निर्माण की पृष्ठभूमि में लेखक की दृष्टिए संवेदनाएं, सरोकार और वैचारिक प्रतिबद्धता का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। सुप्रसिद्ध कवि गजानन माधव मुक्तिबोध ने एक जगह कहा था ‘पार्टनर आपकी पॉलिटिक्स क्या है’ यही पॉलिटिक्स लेखक से मनुष्य का निर्माण करती है। यह बात साहित्य के साथ व्यंग्यकारों के लिये फिट बैठती है.क्योंकि व्यंग्यकार अपना राँ मेटेरियल जीवन और समाज में व्याप्त विसंगतियों से उठाता है। इस उठाने की प्रक्रिया में व्यंग्यकार के पास दृष्टि संवेदना और सरोकारों का होना ज़रूरी है। मेरा मानना है. इनकी अनुपस्थिति में व्यंग्य लेखन विकलांग दिखेगा। प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य की बहुत सी परिभाषाएँ की गई हैं पर मेरे विचार से उसकी सर्वोत्तम परिभाषा ‘जीवन की आलोचना है’ व्यंग्य भी जीवन और समाज के परिप्रेक्ष्य में ही सही परिलक्षित होता है। परसाई जी को यों ही बड़ा लेखक नहीं माना जाता है। उनमें तीनों चीज़ें आत्मसात थीं। एक दृष्टि ही है  जो समाज और जीवन में विसंगतियाँ बुराइयाँ आदि प्रवृत्तियों को पकड़ सकती है। दृष्टि को सम्पन्न करने के लिये मनुष्यता के ज़रूरी तत्त्वों को आधार मान वैचारिक प्रतिबद्धता का अनुशासन होना नितांत आवश्यक है। इस सम्बंध में मेरे पास दो उदाहरण हैं . पहला हरिशंकर परसाई की रचनाए ‘इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर’ और दूसरा डॉ.प्रेम जनमेजय की रचनाए ‘बर्फ का पानी’ बर्फ का पानी रचना पढ़ते ही लेखक की दृष्टि संवेदना और सरोकार का आभास हो जाता है.परन्तु ‘इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर’ को समझने के लिये इसकी पृष्ठभूमि को समझना ज़रूरी है।

पिछले दिनों इस पर हमारे मित्र हिमांशु राय का संस्मरण भी फेसबुक पर काफ़ी चर्चित रहा। जबलपुर के आमनपुर क्षेत्र में एक काण्ड हुआ. जिसमें पुलिस की अकर्मण्यता के चलते एक मजदूर की मृत्यु हो गयी। पुलिस ने एक झूठा केस लगाकर वामपंथी विचारधारा और कम्युनिस्ट पार्टी के एक सदस्य हिमांशु राय के पिता श्री एस एन राय के ऊपर हत्या का आरोप लगाकर गिरफ़्तार कर लिया। वे परसाई जी के अनन्य मित्र थे। वे पूरे घटनाक्रम से भलीभाँति परिचित थे। उस वक़्त मध्यप्रदेश में जनसंघ की सरकार थी। उन पर केस चला। निचली अदालत से सज़ा हुई। वे उच्च न्यायालय से बरी हो गए। जिस पुलिस दरोगा ने यह केस बनाया. वह इस काम में माहिर कुटिल तथा विशेषज्ञ था। इस काम के लिये वह सम्मान से जाना जाता था । बड़े.बड़े अफसर उससे झूठे केस बनाने में उसकी मदद लिया करते थे। मातादीन का चरित्र पुलिस का सच्चा चरित्र था। मात्र बीस प्रतिशत की फेंटेसी और अस्सी प्रतिशत की सच्चाई से यह कालजयी रचना बन गयी। मगर इस रचना के निर्माण में दृष्टि संवेदना और सरोकार तत्त्व विशेष रोल का निर्वाह कर रहे थे। इस कारण यह रचना क्लासिक और कालजयी है। परसाई जी ने पुलिस के प्रपंच को देखा महसूस किया तथा उसे पाखण्ड का जन सरोकारों के तहत उजागर किया।

व्यंग्य को परखने और रचने के लिये दृष्टि होना चाहिये और यह दृष्टि व्यापक अध्ययन और अनुभव से विकसित होती है। यही संकेत देती है कि आपको किसके पक्ष में खड़े होना है . तय है शोषित के पक्ष में। दृष्टि विकसित न होने पर व्यंग्यकार हानि.लाभ का गुणा भाग करने लगता है। और इस गुणा भाग से उपजने वाले व्यंग्य में भौंथरापन आ जाता है। वह जीवन और समाज की समस्या से भागने लगता है। विसंगतियों  विडम्बनाओं भ्रष्टाचार रूढ़िवादिता आदि से किनारा काट उन चीज़ों पर केन्द्रित हो जाता है जिनके होने और न होने से व्यक्ति का जीवन प्रभावित नहीं होता।

व्यंग्यकार की संवेदना ही जीवन के रचाव को पढ़ने में समर्थ होती है। गरीब मजदूर शोषित स्त्री वर्ग की निरीहता कमज़ोरी दर्द को संवेदन ही महसूस करती है। परसाई की रचना अकाल उत्सव शरद जोशी की ‘जीप पर सवार इल्लियाँ’ अनेक रचनाएँ बनती हैं।

मकान टपकने वाली रचना पर परसाई जी लिखते हैं. मैं समझ गया कि ज्यों.ज्यों देश में इंजीनियरिंग कॉलेज़ खुलते जा रहे हैं त्यों.त्यों कच्चे पुल और तिड़कने वाली वाली इमारतें क्यों अधिक बन रही हैंए और जब हर ज़िले में कॉलेज हो जायेगा तब हम कहाँ रहेंगे

व्यंग्यकारों के पक्ष में एक बात और सामने दिखती है कि वह विकृतियों संगतियों से मुँह नहीं चुरा सकता है. भाग नहीं सकता है। यदि वह भागता है या भागने का प्रयत्न करता है. तो पक्का है कि वह गुणा भाग लाभ हानि के चक्कर में पड़ गया है। वह व्यंग्यकार कहलाने का हक़ भी खो देता है। यदि उसकी संवेदनाएँ उसके सरोकार उसकी प्रतिबद्धता भागने से रोकने का कार्य करते हैं. तभी व्यंग्यकार में मनुष्य के दर्शन होते हैं। व्यंग्यकार का भागना बहुत जटिल विचारणीय चिंता करने काम ही बेईमानी भरा  है. भागने की संभावना तलाशना ही व्यंग्यकार का कमीनापन है और उसे व्यंग्य लिखना छोड़ कर प्रेम कविताए कहानी लिखना शुरू कर देना चाहिये। क्योंकि समाज की समस्याओं से बचने और उपदेश देने की गुंजाइश यहाँ अधिक होती है।

व्यंग्यकार को संवेदनशील होने के साथ कठोर भी होना पड़ता है। उस माँ की तरह संवेदनशील जो अपनी संतान को लाड़.प्यार तो करती है और अच्छा मनुष्य बनाने के लिये कठोर दण्ड भी देती है। इस चीज़ को समझना सरल नहीं है। व्यंग्यकार की कठोरता सामाजिक और वैयक्तिक अनुशासन बनाये रखती है। वर्त्तमान समय के युवा आलोचक रमेश तिवारी का कहना है कि व्यंग्य लिखना असहमत होना है। व्यंग्य सहमति या संगति में नहीं लिखा जा सकता है। इसके लिये असहमति और विसंगति अनिवार्य है। इसे पढ़कर याद आता हैए असहमति लोकतंत्र की ख़ूबसूरती है। लोकतंत्र का प्राण है,यानी व्यंग्य लिखना मात्र असहमत होना नहीं. बल्कि यह एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल होना भी है। जिस समाज में जितना व्यंग्य और व्यंग्यकार की जितनी उपलब्धता होगी वह लोकतंत्र उतना ही मजबूत और दीर्घकालीन भी होगा। यह सब व्यंग्यकार में उपलब्ध दृष्टि संवेदना और सरोकारों से ही आता है। सरोकारों में दृढ़ता व्यंग्यकार को शोषित.पीड़ित वर्ग के प्रति जागरूक और प्रतिबद्ध भी बनाती है। व्यंग्य.रचनाकार के सरोकार समाज में ग़रीब दलित शोषित की रूढ़िवादिता भ्रष्टाचार और कूपमंडूकता के प्रति सजगए सतर्क और समर्पित भी बनाती है तथा जीवन को निकट से देखने.पढ़ने की दृष्टि भी विकसित करते हैं।

यहाँ पर मैं एक उदाहरण भी प्रस्तुत करना चाहता हूँ . जबलपुर में सन् 1961 में एक साम्प्रदायिक दंगा हुआ था. जो बढ़ता हुआ आसपास के ज़िलों तक फैल गया था। दंगा चरम स्थिति में था। उस वक़्त शहर का हर वर्ग परसाई को जानने लगा था। तब परसाई जी और उनके मित्र श्री हनुमान वर्मा मायाराम सुरजन महेन्द्र वाजपेयी रामेश्वर प्रसाद गुरु जी आदि दंगा क्षेत्र में जाते रहे और लोगों को समझाते रहे। उनकी बात का गहरा असर हुआ और दंगा शीघ्र समाप्त करने में प्रशासन को उनसे सार्थक मदद मिली। यह समाज के रचनाकार और ज़िम्मेदार लोगों के सरोकार ही थे जो खतरे की परवाह न करते हुए उन्हें दंगाग्रस्त क्षेत्रों में ले गये।

यहाँ पर अपनी बात ख़त्म करने के पहले या भी जोड़ना चाहूँगा कि व्यंग्य लिखने के पूर्व लेखक को मानवीय संवेदनाए शोषण आदि के कारणों को जानने पढ़ने के लिये उसकी भाषा व्यंग्यकार को पढ़ना आना चाहिये।

हरीश पाठक ने अपनी बात रखते हुए कहा था कि व्यंग्यकार को अपनी बात लिखने के लिये व्यंग्य की भाषा और उसके शिल्प को उसके अनुरूप रचाव करना भी आना चाहिए. क्योंकि व्यंग्य की भाषा और शिल्प अन्य विधाओं से भिन्न होता है। अतः यदि इस बात को नज़र अंदाज़ किया गया तो व्यंग्य सपाट हो जायेगा।

और अंत में एक छोटी पर मोटी सी बात है कि जीवन के मूल्य तत्त्व ही व्यंग्य के मूल तत्त्व हैं।

© श्री रमेश सैनी 

सम्पर्क  : 245/ए, एफ.सी.आई. लाइन, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर, मध्य प्रदेश – 482 002

मोबा. 8319856044  9825866402

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 68 ☆ उम्मीद कायम है … ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना उम्मीद कायम है …। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 68 – उम्मीद कायम है …

किसी घटनाक्रम में जब हम सकारात्मक पहलुओं पर ध्यान देते हैं तो स्वतः ही सब कुछ अच्छा होता जाता है। वहीं नकारात्मक देखने पर खराब असर हमारे मनोमस्तिष्क पर पड़ता है।

अभावों के बीच ही भाव जाग्रत होते हैं। जब कुछ पाने की चाह बलवती हो तो व्यक्ति अपने परिश्रम की मात्रा को और बढ़ा देता और जुट जाता है लक्ष्य प्राप्ति की ओर। ऐसा कहना एक महान विचारक का है। आजकल सोशल मीडिया पर सबसे ज्यादा  वीडियो इन्हीं विचारों से भरे हुए होते हैं। जिसे देखो वही इन्हें सुनकर अपनी जीवनशैली बदलने की धुन में लगा हुआ है। बात इतने पर आकर रुक जाती तो भी कोई बात नहीं थी लोग तो सशुल्क कक्षाएँ  भी चला रहे हैं। जिनकी फीस आम आदमी के बस की बात नहीं होती है क्योंकि इन्हें देखने वाले वही लोग होते हैं जो केवल टाइम पास के लिए इन्हें देखते हैं। दरसल चार लोगों के बीच बैठने पर ये मुद्दा काफी काम आता है कि मैं तो इन लोगों के वीडियो देखकर बहुत प्रभावित हो रहा हूँ। अब मैं भी अपना ब्लॉग/यू ट्यूब चैनल बनाकर उसे बूस्ट पोस्ट करूंगा  और देखते ही देखते  सारे जगत में प्रसिद्ध हो जाऊँगा।

इतने लुभावने वीडियो होते हैं कि बस कल्पनाओं में खोकर सब कुछ मिल जाता है। जब इन सबसे मन हटा तो सेलिब्रिटी के ब्लॉग देखने लगते हैं बस उनकी दुनिया से खुद को जोड़ते हुए आदर्शवाद की खोखली बातों में उलझकर पूरा दिन बीत जाता है। कभी – कभी मन कह उठता है कि देखो ये लोग कैसे मिलजुल एक दूसरे के ब्लॉग में सहयोग कर रहे हैं। परिवार के चार सदस्य और चारों के अलग-अलग ब्लॉग। एक ही चीज चार बार विभिन्न तरीके से प्रस्तुत करना तो कोई इन सबसे सीखे। सबको लाइक और सब्सक्राइब करते हुए पूरा आनन्द मिल जाता है। मजे की बात,  जब डायरी लिखने बैठो तो समझ में आता है कि सारा समय तो इन्हीं कथाकथित महान लोगों को समझने में बिता दिया है। सो उदास मन से खुद को सॉरी कहते हुए अगले दिन की टू डू लिस्ट बनाकर फिर सो जाते हैं। 

बस इसी  उधेड़बुन में पूरा दिन तो क्या पूरा साल कैसे बीत जाता है पता ही नहीं चल बीतता जा रहा है। हाँ कुछ अच्छा हो रहा है तो वो ये कि मन सकारात्मक रहता है और एक उम्मीद आकर धीरे से कानों में कह जाती है कि धीरज रखो समय आने पर तुम्हारे दिन भी बदलेंगे और तुम भी मोटिवेशनल स्पीकर बनकर यू ट्यूब की बेताज बादशाह बन चमकोगे।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 101 ☆ कबड्डी खेलता डालर ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य  ‘कबड्डी खेलता डालर)  

☆ व्यंग्य # 101 ☆ कबड्डी खेलता डालर ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

रुपए की कीमत के दिनों दिन गिरने से एक रुपए वाला नोट चिंतित रहता है और चिंता की बात ये भी है कि अर्थव्यवस्था के बारे में जो दावे किए जा रहे हैं उसमें जनता को झटका मारने की प्रवृत्ति क्यों झलक रही है।

एक रुपए के नोट की चिंता जायज है, क्योंकि उसको कोई पूछता नहीं। जिनके पास एक रुपए का नया नोट है वो नोट दिखाने में नखरे पेल रहे हैं, एक रुपए का नोट दिखाने का दस रुपए ले रहे हैं। आपको जानकर यह आश्चर्यजनक लगेगा कि बहुत पहले एक डालर एक रुपए का होता था। पहले कोई नहीं जानता था कि दुष्ट डालर का रुपए से कोई संबंध भी हो जाएगा, और डालर इस तरह से रुपए के साथ कबड्डी खेलने लगेगा। पहले रुपया मस्त रहता था, कभी टेंशन में नहीं रहता था। टेंशन में रहा होता तो रुपये को कब की डायबिटीज और बी पी की बीमारी हो जाती।

पहले तो रुपया उछल कूद कर के खुद भी खुश रहता और सबको सुखी रखता था। तब रुपैया की बारह आना से खूब पटती थी दोनों सुखी थे एकन्नी में पेट भर चाय और दुअन्नी में पेट भर पकौड़ा से काम चल जाता था कोई भूख से नहीं मरता था। घर का मुखिया परिवार के बारह लोगों को हंसी खुशी से पाल लेता था। अब तो गजब हो गया, बाप – महतारी को बेटे बर्फ के बांट से तौलकर अलग अलग बांट लेते हैं ।ये सब तभी से हुआ जबसे ये दुष्ट डालर रुपये पर बुरी नजर रखने लगा…… ये साला डालर कभी भी बेचारे रुपये का कान पकड़ कर झकझोर देता है। जैसई देखा कि साहब का सीना चौड़ा हो गया, उसी दिन से टंगड़ी मार कर रुपये को गिराने का चक्कर चला दिया। डालर को पहले से पता चल जाता है कि साहब का अहंकार का मीटर उछाल पर है। जैसे ही भाषण में लटके झटके आये और हर बात पर पिछले सात दशक का जिक्र आया,  भाषण के पहले उसी दिन रुपए को उठा के पटकनी दे देता है। जो लोग ‘डालर’ पहन के भाषण सुनने जाते हैं उनकी अंडरवियर गीली हो जाती है और एलास्टिक जकड़ जाती है।

हमारे नेताओं की अपना घर भरने की प्रवृत्ति को जब डालर  जान गया तो अट्टहास करके उछाल मारने लगा। डालर ये अच्छी तरह समझ गया कि भारत में नेताओं का रूपये खाने का शौक है और भारतीय महिलाओं का सोने से प्रेम है, इस कमजोरी का फायदा उठाते हुए वो दादागिरी पर उतारू हो गया। इसी के चलते  चाहे जब रुपये को पटक कर चारों खाने चित्त कर देता है।

और भारत की तरफ व्यंग्य बाण चला कर वो कहता है कि मजबूत मुद्रा किसी भी देश की आर्थिक स्थिति की मजबूती का प्रमाण होती है तो जब रुपया लगातार गिर रहा है तो सरकार क्यों कह रही है कि हम आर्थिक रुप से मजबूत हो रहे हैं क्योंकि हमारी देशभक्ति और विकास में आस्था है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #104 ☆ व्यंग्य – नये स्कूल की तालीम….. ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘नये स्कूल की तालीम…..’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 104 ☆

☆ व्यंग्य –  नये स्कूल की तालीम

दफ्तर में अचानक हंगामा मच गया। दफ्तर का रंगरूट क्लर्क सत्यप्रकाश,ठेकेदार समरथ सिंह को बाँह पकड़कर, करीब करीब घसीटते हुए, साहब के कैबिन में ले गया। आजू बाजू बैठे क्लर्कों के मुँह यह दृश्य देखकर खुले के खुले रह गये। बड़े बाबू का मुँह ऐसा खुला कि बड़ी मुश्किल से बन्द हुआ।
सत्यप्रकाश समरथ सिंह को साहब के सामने धकेलते हुए बोला, ‘सर, ये मुझे रिश्वत दे रहे हैं। अभी पाँच सौ का नोट मेरी फाइल में खोंस दिया। मुझे बेईमान समझते हैं। हमारे माँ-बाप ने हमें भ्रष्टाचार करना नहीं सिखाया।’

समरथ सिंह परेशान था। जिस दफ्तर में उसके प्रवेश करते ही सबके मुँह पर मुस्कान फैल जाती हो और जहाँ कोई उससे ऊँचे स्वर में बात न करता हो, वहाँ ऐसी फजीहत उसके लिए कल्पनातीत थी। वह साहब से बोला, ‘अरे सर, ये फालतू का हल्ला कर रहे हैं। पाँच सौ रुपये की कोई रिश्वत होती है क्या?ये हमारा पुराना दफ्तर है। ये नये आये हैं इसलिए हमने खुशी में सोचा मिठाई खाने के लिए छोटी सी भेंट दे दें। इसमें रिश्वत देने वाली बात कहाँ से आ गयी?’

सत्यप्रकाश बिफर कर ठेकेदार से बोला, ‘क्यों!आप हमें मिठाई क्यों खिलायेंगे? आप हमारे रिश्तेदार लगते हैं क्या?’

साहब उसकी बात सुनकर बगलें झाँकने लगे। फिर उससे बोले, ‘तुम अपनी सीट पर जाओ। मैं इनसे बात करता हूँ।’

पाँच मिनट बाद समरथ सिंह साहब के कैबिन से निकलकर, बिना दाहिने बायें देखे, निकल गया।

थोड़ी देर में साहब के कैबिन की कॉल-बैल बजी। बड़े बाबू का बुलावा हुआ। बड़े बाबू पहुँचे तो साहब के माथे पर बल थे। बोले, ‘यह क्या तमाशा है, बड़े बाबू? पुराने आदमियों के साथ कैसा सलूक हो रहा है?’

बड़े बाबू दुखी स्वर में बोले, ‘मेरी खुद समझ में नहीं आया, सर। लड़का अभी नया है, दफ्तर के ‘वर्क कल्चर’ को अभी समझ नहीं पाया है। टाइम लगेगा।’

साहब बोले, ‘उसे समझाइए। इस तरह बिना बात के तमाशा खड़ा करेगा तो काम करना मुश्किल हो जाएगा।’

बड़े बाबू बोले, ‘सर, मैं तो पहले से ही कह रहा हूँ कि नये आदमी को फाइलें सौंपने से पहले उसे दस पन्द्रह दिन तक सिर्फ दफ्तर के नियम-कायदे समझाना चाहिए। साथ ही देखना चाहिए कि समझाने का कितना असर होता है। जब दफ्तर के सिस्टम को समझ ले तभी फाइलें सौंपना चाहिए। आप परेशान न हों। मैं उसको समझाता हूँ।’

बड़े बाबू उठते उठते फिर बैठ गये। बोले, ‘सर, मेरे दिमाग में यह भी आता है कि जैसे कुछ स्कूलों में भर्ती के समय बच्चे के माँ-बाप का इंटरव्यू लिया जाता है, उसी तरह नयी भर्ती को ज्वाइन कराते समय उसके बाप को बुलाना चाहिए। पता चल जाएगा कि बाप ने बेटे के दिमाग में ऐसा कूड़ा-करकट तो नहीं भर दिया है जिससे दफ्तर में काम करने में दिक्कत हो। बहुत से माँ- बाप लड़के को ऐसी बातें सिखा देते हैं कि वह हर छः महीने में सस्पेंड होता है या ट्रांसफर भोगता है। यह लड़का भी ऐसे ही माँ-बाप का सिखाया लगता है। फिर भी मैं उसे लाइन पर लाने की पूरी कोशिश करूँगा।’

अपनी सीट पर आकर बड़े बाबू ने सत्यप्रकाश को बुलाया, बगल में बैठाकर मुलायम स्वर में बोले, ‘भैया, आज समरथ सिंह पर तुम्हारा गुस्सा देखकर मुझे अच्छा नहीं लगा। ऐसा है कि आदमी को अपनी जिन्दगी में कई स्कूलों में पढ़ना पड़ता है। पहला स्कूल आदमी की फेमिली होती है और दूसरा वह स्कूल या कॉलेज जहाँ वह पढ़ता है। काम की जगह या दफ्तर तीसरा स्कूल होता है जहाँ जिन्दगी बसर करने की तालीम मिलती है। दफ्तर में आकर कई बार फेमिली और स्कूल की पढ़ाई को भुलाना पड़ता है क्योंकि आजकल वह शिक्षा आगे की जिन्दगी में अड़चन पैदा करती है। इसलिए तुमको हमारी सयानों वाली सलाह है कि घर-स्कूल की तालीम को भुलाकर यहाँ के तौर-तरीके सीखो ताकि जिन्दगी सुखी और सुरक्षित रहे।

‘दूसरी बात यह कि ये जो ठेकेदार हैं ये हमारे संकटमोचन हैं। आगे इन पर नाराज होने की गलती मत करना। अभी तो तुम इन पर बमकते हो, जिस दिन बहन या बेटी की शादी करनी होगी उस दिन ये ही काम आएँगे। बड़े बड़े संकटों से निकाल कर ले जाएँगे। इसलिए दुनियादार हो कर चलोगे तो तुम्हारे हाथ-पाँव बचे रहेंगे, वर्ना भारी कष्ट उठाओगे। हमारी बात पर ठंडे दिमाग से विचार करना, बाकी हम सिखाने के लिए हमेशा तैयार बैठे हैं।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #1 – व्यंग्य की ज़रूरतें ☆ श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी  के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में  ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को  हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ी सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन  देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।  

आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की प्रथम कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य की ज़रूरतें’। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #1 – व्यंग्य की ज़रूरतें ☆ श्री रमेश सैनी ☆ 

मित्रों, अपनी बात आरम्भ करने के पूर्व हरिशंकर परसाई के एक कथन का उल्लेख करना चाहूँगा – ‘‘अपनी कैफ़ियत दूँ, हँसना, हँसाना, विनोद करना, अच्छी बातें होते हुए मैंने केवल मनोरंजन के लिये कभी नहीं लिखा, मेरी रचनाएँ पढ़कर हँसी आना स्वाभाविक है – यह मेरा यथेष्ठ नहीं, और चित्रों की तरह व्यंग्य को उपहास, मखौल न मान कर एक गम्भीर चित्र मानता हूँ।’’

आज ‘व्यंग्य की ज़रूरतें’ विषय पर चर्चा हो रही है। मेरे मन में दो आशय निकले हैं – पहला व्यंग्य के लिये क्या-क्या ज़रूरी है तथा दूसरा, व्यंग्य की समाज को कितनी ज़रूरत है। अतः इन दो बिन्दुओं को लेकर मिली-जुली चर्चा कर रहा हूँ।

‘व्यंग्य की ज़रूरतें’ पर चर्चा करने के पूर्व यह जानना ज़रूरी है कि व्यंग्य की प्रकृति और प्रवृत्ति क्या है? तभी व्यंग्य की ज़रूरतों का आभास होगा। व्यंग्य कैसे अपना प्रभाव डालता है? वह प्रभाव समाज के लिये ज़रूरी कैसे हो जाता है? व्यंग्य अपने आपको कैसे रचता है? व्यंग्य का स्वभाव कैसा है…? यह सब भले पार्श्व में है, पर जानना ज़रूरी है।

आज व्यंग्य प्रचुर मात्रा में लिखा जा रहा है। अख़बार, पत्रिका, सोसल मीडिया में इसकी उपादेयता बढ़ गयी है। बहुत से अख़बारो और पत्रिकाओं से तो कहानी, निबंध तिरोहित हो गये हैं, पर व्यंग्य अंगद की भाँति पैर जमाए खड़ा है। कई अख़बारों ने व्यंग्य के पैर हिलाए, पर बाद में यथा स्थान उन्हें प्रतिष्ठित कर दिया। नये-नये लेखक अपनी-अपनी कलम घिस रहे हैं। नये विषय तलाशे जा रहे हैं, यह व्यंग्य के लिये शुभ संकेत है। इससे व्यंग्य की संभावनाओं को विस्तार मिला है। एक-दो वर्ष पूर्व तक इस पर गंभीर चर्चा नहीं होती रही, पर आज “व्यंग्य यात्रा” प्रेम जी और ललित जी के श्रम से संभव हो रही है। व्यंग्यकार अपना बेहतर दे रहा है। पाठक उसे कैसे स्वीकार कर रहा है, यह दृष्टि पटल पर स्पष्ट नहीं है। कारण इसका चेकिंग पोस्ट अर्थात् आलोचना व्यंग्य के पास नहीं है, परन्तु अब वह भी होने लगी है। बाज़ार, उपभोक्तावाद और वैश्वीकरण के प्रभाव को भी व्यंग्यकारों ने नोटिस में लिया है। प्रत्यक्ष में बाज़ार और वैश्वीकरण के द्वारा विकास दिख रहा है, पर प्रभाव की दिशा भी दिख रही है। इस विकास की प्रतिच्छाया में मानवीय छाया विलुप्त होती जा रही है। मानवीय संवेदनाएँ भौथरी होती जा रही हैं। मानवीयता मन से धीरे-धीर तिरोहित हो रही है और मानव एक वस्तु के रूप में बदलता जा रहा है।

यह गंभीर स्थिति है और इसी स्थिति को साहित्य की अन्य विधाओं के साथ-साथ व्यंग्य ने गंभीरता से पकड़ा है। कारण यह व्यंग्य की प्रवृत्ति है कि वह समाज में घट रही घटनाओं को गंभीरता से लेता है। कोई विसंगति, विडम्बना, अत्याचार, अन्याय आदि घटनाओं पर अपनी पैनी नज़र रखता और उन्हें पकड़ता है तथा उस पर अपने ढंग से प्रतिक्रिया करता है। यही व्यंग्य की प्रकृति है। व्यंग्य की प्रकृति महत्त्वपूर्ण तत्त्व है, जिस पर गंभीरता से विचार करना चाहिये, तभी हम व्यंग्य को भलीभाँति जान सकते हैं। यह सरल नहीं है। हमारे समक्ष हज़ारों दृश्य आते हैं और उनमें से कुछ हमारे मन को प्रभावित करते हैं तो कुछ विवश करते हैं कि हम प्रतिक्रिया त्वरित दें तो कुछ लोगों के जीवन की रोजाना की चर्या है। पर हम उसे गंभीरता से नहीं लेते हैं। पर वह हमारे जीवन में इतने गहरे तक रच-बस जाती है कि वह हमारे समाज या जीवन का अंग बन जाती है, पर है वह विकृति। जैसे भ्रष्टाचार, उस पर हम हज़ारों प्रतिक्रियाएँ देते हैं। उसका विरोध भी करते हैं, पर सुविधानुसार जब हमें नगर निगम, विद्युत विभाग, पुलिस से काम पड़ता है तब अपना काम निकालने के लिये श्रम और समय से बचने के लिये माध्यम ढूंढ़ कर पैसा दे कर अपना काम करवा लेते हैं। पर यह क्रिया भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाली है। हम समय और श्रम बचाने के लिये थोड़ी देर के लिये उसका अंग बन जाते हैं। हम भ्रष्टाचार के विकास में अपरोक्ष रूप से सहयोग करते हैं। जब उससे अलग होते हैं तो भ्रष्टाचार के विरोध में डण्डे लेकर खड़े हो जाते हैं। जबकि यहाँ पर अपने आत्मबल के साथ हमें हर परिस्थितियों में मुठभेड़ के लिये तैयार होना चाहिये। पर हम अपना स्वार्थ नहीं छोड़ पाते हैं। इसी प्रकार दहेज एक सामाजिक विकृति है। ‘दहेज’ उसका तो हम अपने-अपने ढंग से विरोध करते हैं। पर वक़्त जब आता है तो हम उसके अंग बन जाते हैं, क्योंकि हमारा उसमें स्वार्थ निहित होता है। दोनों पक्षों का क्योंकि उसमें हमारा हित और भविष्य दिखता है। इसलिये उसका अंग बनने में हम कोताही नहीं करते। यह ‘बनना’ व्यंग्य बन कर बाहर आता है। यही मानवीय प्रकृति और सामाजिक विकृति है। हम चीज़ों का विरोध करते हैं और संग खड़े होकर विसंगति को बढ़ावा देने में सहयोग भी देते हैं। यह प्रवृत्तियाँ ही ही विचारणीय हैं।

व्यंग्य और परसाई पर कमलेश्वर की एक टिप्पणी है, जिसमें एक जगह कमलेश्वर कहते हैं, ‘परसाई ने एक नवजागरण की शुरुआत की।’ हालाँकि हिन्दी में शायद मुश्किल से मंजूर किया जाता है कि नवजागरण की हमारे पास कोई परम्परा है। मुझे लगता है, नवजागरण की जो भारतीय परम्परा है, अलग वैचारिक परम्परा है, जो अंधवादिता, धर्मान्धता, आध्यात्मिकता से अलग रचनाकारों की पूरी परम्परा दिखाई देती है, जिसमें नवजागरण के रचनाकार शामिल हैं।

आज़ादी के बाद के महास्वप्न को हमारे पूर्वजों ने खण्डित होते देखा है। उस दौर को देखना उससे बाहर निकल आना और निरन्तर रचनारत रहना मामूली काम नहीं है, पर यह काम परसाई जी ने किया। एक बैशाखी है साहित्य की, जिसकी ज़रूरत सब को है और वो बैशाखी आलोचक की होती है। केवल परसाई ऐसा लेखक है पूरे हिन्दी समाज में और अन्य भाषाओं में भी, जिसे आलोचक की ज़रूरत नहीं पड़ती। परसाई ने कहा कि ‘‘मैं लेखक छोटा हूँ और संकट बड़ा हूँ। संकट पहचान कर भी परसाई ने संकट पैदा किये हैं। एक संकट उन्होंने वैचारिक जागरूकता फैलाकर स्वयं के लिये पैदा किया। अपने समय की तमाम व्यंग्यात्मक स्थितियों, विद्रूपताओं और विडम्बनाओं से वे आहत होते रहे। तब उनकी चिंता बढ़ जाती है।

उपरोक्त टिप्पणी को ध्यान में रखकर हम व्यंग्य पर आगे की बात करते हैं। व्यंग्य की संभावना को तलाशते हुए उस पर विचार करते समय यह भी ध्यान में रखना होगा कि वह अपना आकार कैसे लेता है। यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि जब हम व्यंग्य लिखते हैं तब हम संकेत करते हैं कि व्यंग्य किस पर लिखा जा रहा है। पाठक जब संकेतों की सूक्ष्मता को पकड़ लेता है तब उसे पढ़ने में अलग अनुभूति होती है। अन्यथा वह तटस्थ हो कर सोचने लगेगा। इसी तरह रचना का परिवेश व्यंग्य के लिये आवश्यक तत्त्व है। किसी बात को कहने के लिये इतिहास का सहारा लिया जाये या बात को सीधे-सीधे रचना के अनुरूप कहा जाय। वैसे आधुनिक व्यंग्य में परिवेश भी रचना के अनुरूप होता है। उसे किसी आवरण की आवश्यकता नहीं होती। इस अवधारणा से व्यंग्य की मारक क्षमता प्रभावशाली हो जाती है, जो व्यंग्य के उद्देश्य की प्रथम सीढ़ी होती है। किसी रचना में कथ्य या विषय के मूल को उजागर करने में, उसे प्रभावशाली बनाने में भाषा की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। वही रचना को एक निश्चित स्वरूप प्रदान करती है। भाषा व्यंग्य का महत्त्वपूर्ण अंग है, जिस पर लेखक को विशेष ध्यान देना चाहिये। यही वे तत्त्व हैं जो व्यंग्य को उच्चतम स्तर तक पहुँचा सकते हैं। अन्यथा अच्छी विषय वस्तु होने के बावजूद रचना का कचरा होने में देर नहीं लगती।

अगर हम परसाई, शरद जोशी या वर्तमान में ज्ञान चतुर्वेदी, प्रेम जनमेजय, हरीश नवल आदि की रचनाओं का अध्ययन करें तो पाते हैं कि इनकी भाषा सहज, सरल और आसानी से ग्राह्य होते हुए प्रभावी भी है। उसमें किसी तरह की लाग-लपेट और अनावश्यक जटिलता, क्लिष्टता का अभाव है। पाण्डित्यपूर्ण शब्दों की कमी हो, लेखक इस बात का ध्यान रखते हैं, उन्हें मालूम है कि उनका पाठक आम वर्ग से आता है उसे संस्कृतनिष्ठ शब्दों को आत्मसात करने में कठिनाई होती है। वह ऐसी भाषा की संरचना करता है जो सबके लिये सहज, सुलभ और ग्राह्य हो इससे व्यंग्य की गुणवत्ता में अत्याधिक प्रभाव बढ़ जाता है और ऐसी रचना के सौन्दर्य में भी वृद्धि होती है। रचना के विषय के साथ-साथ यह भी ज़रूरी है कि लेखक की चिन्ता किसके पक्ष में है? अगर लेखक वंचितों या शोषितों की चिन्ता छोड़ शोषकों की चिन्ता करेगा तब यह तय है कि आम पाठक भ्रमित हो उससे दूर हो जायेगा और वह लेखक की नैतिकता पर सवाल उठा सकता है। यह लेखक का बहुत बड़ा संकट है। क्योंकि विडम्बनाएँ, विषमताएँ तो सभी वर्गों में होती हैं। यह एक मौलिक और महत्त्वपूर्ण संकट है और यह सीधे तौर पर लेखक की अस्मिता से जुड़ा होता है। अतः यह ज़रूरी है कि व्यंग्यकार अपना मत स्पष्ट रखे और उसमें किसी प्रकार का भ्रम मूलक तत्त्व न हो। इसके साथ-साथ यह भी ज़रूरी है कि लेखक किस बात की स्थापना कर रहा है? लेख में उसकी स्थापना ही लेख के स्तर को बनाती है। यदि वह लेख में लिजलिजापन दिखाता है तो पाठक रचना और लेखक से विरक्त हो जायेगा यदि हम किसी बात की स्थापना करते हैं तो उसका आधार तत्त्व मजबूत और स्पष्ट होना चाहिये, इससे रचना की विश्वसनीयता बढ़ जाती है। यह लेखक, रचना और समाज के लिये अच्छा संकेत है।

एक अच्छे व्यंग्य के लिये समकालीन संदर्भ अत्यंत महत्त्व रखता है, क्योंकि सम्पूर्ण व्यंग्य का आधार बिन्दु समकालीन संदर्भ ही होता है। यदि व्यंग्य आज की विद्रूपता, विडम्बना, विषमता, घटनाएँ, चरित्र, प्रकृति, प्रवृत्ति पात्र को विषय बनाता है तो पाठक उससे आसानी से जुड़ जाता है और वह व्यंग्य के सफ़र में हमसफ़र बन जाता है। उसे किसी भी प्रकार का अतिरिक्त श्रम नहीं करना पड़ता और वह व्यंग्य से सामंजस्य स्थापित कर लेता है। उसकी सामंजस्यता ही व्यंग्य को समझने में उपयोगी होती है  जो व्यंग्य के प्रभाव का आशातीत विस्तार कर देती है। पाठक व्यंग्य के विषय के इतिहास से अनभिज्ञ है तो रचना में शुष्कता का तत्त्व बढ़ जायेगा और यह भी हो सकता है कि उस रचना से पाठक दूर हो जाये। इसी कारण पूर्व में कहा जाता रहा है कि व्यंग्य शाश्वत नहीं है। उसकी उम्र कम होती है। लेखक को अधिक दूर तक नहीं ले जा पाता। पर यह भी सही है कि कुछ प्रवृत्तियाँ, विडम्बनाएँ, विषमताएँ, भ्रष्टाचारी चरित्र शाश्वत होते हैं, जो हर समय नये-नये रूपों में मिलते हैं। तब हर समय का पाठक सहज ही उससे सामंजस्य बैठा लेता है और वह रचना शाश्वतता को प्राप्त कर जाती है। तब व्यंग्य के लिये यह ज़रूरी हो जाता है कि वह यह चुनाव करे कि समकालीन संदर्भ के साथ-साथ उपरोक्त तत्त्व उसमें निहित हों। व्यंग्य को बारीक़ी स देखा जाये तो यह आसानी से समझ में आ जाता है कि व्यंग्यकार कितना संवेदनशील है। व्यंग्य की संवेदनशीलता ही व्यंग्य के स्वास्थ्य को ठीक रखती है। संवेदना ही व्यंग्य का बीज तत्त्व है। उससे ही रचना का अंकुरण और विस्तार और प्रभाव समझ में आता है। लेखक व्यंग्य के पात्र के प्रति संवेदनहीन, निष्ठुर, कठोर, तीखे तेवर के साथ खड़ा होता है तो रचना पाठ्य तो होगी, पर प्रभावी नहीं। पर अगर उसमें भारतीय सांस्कृतिक प्रवृत्ति के अनुरूप करुणा के अंश मिला दिये जायें तो व्यंग्य का आकर्षण बढ़ जाता है; क्योंकि भारतीय समाज अनेक विडम्बनाओं, मूल्यों के साथ भी करुणा के पक्ष में स्वभावतः खड़ा दिखता है। यह भारतीय समाज का महत्त्वपूर्ण पक्ष है, जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।

परसाई, शरद जोशी के यहाँ तो करुणा का संसार विस्तार से फैला पड़ा है। इसी आधार पर रचना स्मृति में देर और दूर तक बनी रहती है। वर्तमान में एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण प्रेम जनमेजय की जनसत्ता में प्रकाशित व्यंग्य रचना, ‘बर्फ़ का पानी’, जिसमें अंत करुणा से होता है – जिसने भी यह रचना पढ़ी होगी उसके ज़ेहन में उस रचना ने स्थायी स्थान ज़रूर बनाया लिया होगा। ऐसी रचना गाहे-बगाहे याद आती है तो मन में तरंगे दौड़ जाती हैं। व्यंग्य रचना में शिल्प का अत्यंत महत्त्व होता है। व्यंग्य का शिल्प अलग प्रकार का होता है जिसे कहानी, निबंध या किसी अन्य विधा में रख सकते हैं। व्यंग्य के तेवर अलग होते हैं। इसी बात को लेकर परसाई रचनाओं पर आलोचकों का ध्यान नहीं गया और परसाई जी ने भी इस उपेक्षा का कोई नोटिस नहीं लिया। वे अनवरत रचनारत रहे बिना किसी चिन्ता के। इसके पीछे संभवतः मूल कारण उनका अपना विशिष्ट शिल्प ही था जो आलोचकों के लिये नया संकट लेकर आया था। यह सभी बातें व्यंग्य को पाठक के बीच में विश्वसनीयता पैदा करती हैं। किसी भी चीज़ की शुद्धता बनाये रखने के लिये विश्वसनीयता का विस्तार आवश्यक है। यह रचना और लेखक दोनों के लिये ज़रूरी है। सृजन के समय इस तत्त्व का ध्यान रखना बहुत ज़रूरी है। इसके लिये रचना और रचनाकार का आचरण कैसा है, विचार क्या है महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह सब समाज में ज़रूरी माने जाने वाले मुख्य मुद्दे हैं। इन्हीं के अनुरूप व्यंग्य का विस्तार और विश्वसनीयता को आधार मिलता है।

‘व्यंग्य की ज़रूरतें’ के और भी आयाम हैं, जिन पर चर्चा अभी इस आलेख में संभव नहीं है। हमारे पास जो समय है, उस पर यह चर्चा महत्त्वपूर्ण है, मगर इस बात पर भी विचार करना होगा कि व्यंग्य समाज के लिये कितना ज़रूरी है। मेरा ख्याल है कि जिस समाज में हम रह रहे हैं, उसमें पनप रही नयी-नयी प्रवृत्तियों, विडम्बनाओं, बढ़ती विषमताओं, बदलती सोच और मूल्यों का गिरता ग्राफ़, बेशर्मी का हद तक विस्तार, सामाजिक भय, बाज़ारवाद, उपभोक्तावाद से संचालित आर्थिक तंत्र से लोगों में बढ़ती दूरियाँ, शिक्षा का औघड़पन, स्वार्थ में बदलती मानवीयता, विस्तार पाती संवेदनशून्यता, दरकते पारिवारिक रिश्ते, सामाजिक परिवेश और आचरण को चेलेंज करता आधुनिक युवा वर्ग, तकनीकी विकास से आयी विद्रूपताओं का समझ कर उनसे सचेत करने वाली व्यंग्य ही वह विधा जो इन नकारात्मक प्रवृत्तियों से आगाह कर त्वरित और सार्थक प्रतिक्रिया भी व्यक्त करती है। और कहना ही होगा कि ऐसी प्रतिक्रियाएँ असरदार भी होंगी। इसके मूल में व्यंग्य की संरचना और उसका तीखा तेवर जो सत्ता और समाज को सोचने पर मजबूर कर देता है। मन को विचलित कर देता है।

 

© श्री रमेश सैनी 

सम्पर्क  : 245/ए, एफ.सी.आई. लाइन, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर, मध्य प्रदेश – 482 002

मोबा. 8319856044  9825866402

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 67 ☆ संचालन ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “संचालन”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 67 – संचालन

इतना तीखा और कर्कश स्वर होने के बाद भी उन्हें संचालन का दायित्व दे दिया गया था। हर वाक्य में आँय  का प्रयोग भी अखर रहा था। गूगल पर गोष्ठी थी जिसका यू ट्यूब पर वीडियो देखते हुए मन बार – बार व्यथित होता परन्तु सबकी चर्चाएँ सुननी थी, सो मन मार कर न जाने कितनी बार उससे दूर जाने की सोच कर भी हो न जा पाए। 

जैसे ही एक वक्ता का पाठ पूर्ण होता तो  संचालन का अनचाहा स्वर फिर से हृदय को भेद देता।

क्या करें आजकल डिजिटल माध्यम में गाहे- बगाहे कार्यक्रमों की बरसात हो रही है। संयोजक, आयोजक, प्रायोजक, वक्ता। यदि कुछ नहीं है तो वो श्रोतागण हैं। 

अच्छे कार्यक्रमों को सुनने की चाहत के साथ इसे स्वीकार करना ही होगा ऐसा मैं नहीं कह रही ये तो जाने माने संयोजक ने कहा जैसे गुलाब के साथ कांटे।

काँटे और गुलाब की दोस्ती का इतना सुंदर प्रयोग पहली बार देखा है।

सदैव ऐसा होता है कि पौधे के सारे फूल   तोड़कर  हम  उपयोग में ले लेते हैं पर उसका रक्षक काँटा अकेला रहकर  तब तक इंतजार करता है जब तक कली पुष्प बनकर पुष्पित और पल्लवित न  होने लगे किन्तु फिर वही चक्र चलने लगता है पुष्प रूपवान बन जग की शोभा बढ़ाने हेतु डाल से अलग हो जाता है,  शूल पुनः अकेला  यही सोचता रह जाता है कि आखिर उसकी भूल क्या थी …….।

बहुत हुआ तो खेतों की बाड़ी  या राह रोकने हेतु इसका प्रयोग कर लिया जाता है किन्तु  उसमें  भी  लोग  नाक  भौं  सिकोड़ते हुए  बचकर निकल जाते हैं,  साथ ही अन्य लोगों को भी सचेत करते हैं अरे भई काँटे  हैं इनसे दूर रहना। खैर ये तो डिजिटल संचालक हैं सो पसंद न आने पर आगे बढ़ जाने की पूरी छूट का फायदा यहाँ से उठा ही लेते हैं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 100 ☆ लेंब्रेटा का लफड़ा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य  ‘लेंब्रेटा का लफड़ा)  

☆ व्यंग्य # 100 ☆ लेंब्रेटा का लफड़ा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

सपने में आज वो पुराना लेंब्रेटा स्कूटर क्यों आया, समझ न आया, सपने में आया तो आया पर ये क्या है कि दिन भर हर बात में याद आया।  हालांकि अपने जमाने में लेंब्रेटा स्कूटर के जलवे थे। कितनी सारी फिल्मों में हीरो हीरोइन गीत गाते लहराते,आंख मिलाते निकल जाते थे। कल्लू की शादी प्रदर्शनी की फोटो की दुकान में रखी पुराने लेंब्रेटा के ऊपर बैठकर उतरवायी फोटो को देखकर ही हो पाई थी। ऊंचे लोगों के लिए लेंब्रेटा बढ़िया ‌ स्कूटर थी, छकौड़ी बताता था कि लेंब्रेटा के कारण अभिताभ हीरो बन पाये थे। इस तरह लेंब्रेटा दिन भर कोई बहाने दिमाग में बैठी रही। पुराने लेंब्रेटा स्कूटर ने दिन भर इतना तंगाया कि मित्र को फोन करना ही पड़ा।  मित्र को वो टूटी फूटी बेकार सी लेंब्रेटा स्कूटर दहेज में मिली थी। तीस साल से वे धो -पोंछ कर उस स्कूटर को चकाचक रखते थे, ऊपर से चमकती थी अंदर से टीबी पीड़ित थी, हर बार स्टार्ट करने में दो बाल्टी पसीना बहा देती थी, कभी कभार स्टार्ट होती थी तो गन्नाके भगती थी, कभी कभी मित्र मेरे को भी पीछे बैठाकर घुमा देते थे, पर उस समय ये बात समझ नहीं आयी कि मित्र की पत्नी के बैठते ही वो अंगद का पांव बन जाती थी। मित्र की पत्नी जीवन भर उसमें बैठकर घूमने के लिए तरसती रही, पर जब वो बैठतीं तुंरत बंद हो जाती।  लाख कोशिशों के बाद भी स्टार्ट न होती। ये बात अलग है कि उसके घर में घुसते ही एक बार चिढ़ाने के लिए स्टार्ट होती फिर फुस्स हो जाती। उस पुरानी लेंब्रेटा ने पति-पत्नी के खूब झगड़े कराये, उसके कारण पति को कई दिन भूखे रहना पड़ता था।

अंत में हारकर मित्र ने औने-पौने दाम में कबाड़ के भाव एक कबाड़ी को बेच दिया था। हमने सोचा कि वो लेंब्रेटा में हम कभी कभी बैठ लेते थे इसलिए प्रेमवश सपने में धोखे से आ गयी हो,मन नहीं माना तो  मित्र को फोन लगाया।  वहां से आवाज आई, मित्र अभी पत्नी से लड़ाई चल रही है, उसने दहेज में दिये लेंब्रेटा स्कूटर को मुख्य मुद्दा बना लिया है और उसी लेंब्रेटा स्कूटर की वापसी की मांग कर रही है।अब आप बताओ कि कि इतने साल पहले कबाड़ के भाव लेकर कबाड़ी क्या उसे वापस करेगा। कबाड़ी कौन था, कहां से आया था,ये भी तो याद नहीं…… मित्र पूछ रहा है कि आप बताएं कि इस समस्या का समाधान कैसे होगा ?

हम सबके ऊपर छोड़ रहें हैं कुछ बढ़िया सा लिखकर बताएं।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #103 ☆ व्यंग्य – बड़े साहब, छोटे साहब….. ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘बड़े साहब, छोटे साहब…..’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 103 ☆

व्यंग्य –  बड़े साहब, छोटे साहब

बड़े साहब अपने कमरे में चीख रहे थे और उनकी चीखें कमरे को पार करके पूरे दफ्तर में गूँज रही थीं। सुनकर दूसरे साहब लोग एक दूसरे की तरफ देखकर मुस्करा रहे थे और बाबू लोग फाइल में नज़र गड़ाये मुस्कान दबा रहे थे।

बात यह थी कि एक नासमझ आदमी अपने काम को लेकर साहब के कमरे में घुस गया था और उसने दफ्तर की परंपरा के अनुसार नोटों का एक बंडल साहब की सेवा में प्रस्तुत कर दिया था। साहब इसी बात पर भड़क कर चीख रहे थे। कह रहे थे, ‘मुझे रिश्वत देता है? मुझे भ्रष्ट समझता है? अभी पुलिस को बुलाता हूँ। जेल में सड़ जाएगा। मुझे समझता क्या है?’

आदमी पसीना पोंछता हुआ बाहर निकला। उसे शायद अपना कसूर समझ नहीं आ रहा था। पसीना पोंछते वह बाहर के दरवाजे की तरफ बढ़ गया। तभी छोटे साहब के कमरे से निकलकर चपरासी उसकी तरफ लपका। पास जाकर आदमी से मीठे स्वर में बोला, ‘परेशान मत होइए। सब ठीक हो जाएगा। आपको छोटे साहब बुलाते हैं।’
छोटे साहब ने आदमी को प्रेमपूर्वक कुर्सी पर बैठाया। चपरासी ने ठंडा पानी पेश किया। छोटे साहब बोले, ‘शान्त हो जाइए। आराम से बैठिए। हम तो बड़े साहब का बिहेवियर देखकर बहुत दुखी हैं।जनता के साथ यह कैसा बिहेवियर है? जनता बड़ी उम्मीद लेकर आती है, उसकी उम्मीद पर पानी नहीं फेरना चाहिए। आपने कुछ पैसे- वैसे का ऑफर दे दिया तो भड़कने की कौन सी बात है? उनको नहीं चाहिए तो भलमनसाहत से मना कर देना चाहिए। इसमें चिल्लाने की क्या जरूरत है?’

छोटे साहब आगे बोले, ‘यह साहब अभी पन्द्रह दिन पहले ही आये हैं, इसीलिए आप धोखा खा गये। साहब अपने को ईमानदार समझते हैं। इसी ईमानदारी के चक्कर में तीस साल की नौकरी में पैंतीस ट्रांसफर झेल चुके हैं। शटलकॉक बने हुए हैं। यहां भी छः महीने से ज्यादा नहीं टिकेंगे। हम कब तक ऐसे अफसर को झेलेंगे? पूरे दफ्तर का वातावरण बिगड़ जाता है। वर्क कल्चर पर असर पड़ता है।’

साहब थोड़ा रुककर फिर बोले, ‘वो हरयाना में एक आईएएस खेमका जी हैं। उनके भी चौबीस साल की सर्विस में इक्यावन ट्रांसफर हो चुके हैं, यानी एक जगह औसतन छः महीने भी नहीं टिक पाये। हर सरकार उनसे छड़कती है। उन्हें भी ईमानदारी की बीमारी है। हमारे साहब को उन्हीं का भाई समझो। यह लोग अपने को राजा हरिश्चंद्र समझते हैं। अब राजा हरिश्चंद्र बनोगे तो राजा हरिश्चंद्र की तरह फजीहत भी भोगोगे।’

साहब फिर बोले, ‘ऐसे ही लोगों के लिए गोस्वामी जी ने लिखा है— सकल पदारथ हैं जग माहीं, करमहीन नर पावत नाहीं। इनके सामने मौके ही मौके हैं, लेकिन इनके हाथ खाली के खाली हैं। मुट्ठी बाँधे आये थे और हाथ पसारे चले जाएँगे। बाल-बच्चे कोसेंगे कि इतने बड़े पद पर रहते हुए भी उनके लिए कुछ नहीं किया। नाते- रिश्तेदार भी भकुरे रहते हैं क्योंकि उनका कुछ भला नहीं होता। दफ्तर वाले दिन गिनते रहते हैं कि कब उनका ट्रांसफर या रिटायरमेंट हो। अब बताइए, ऐसी ईमानदारी से क्या फायदा?’
साहब आगे बोले, ‘भैया, आईएएस, आईपीएस का पद बड़े भाग्य से मिलता है। इसे ईमानदारी के चक्कर में ‘वेस्ट’ नहीं कर देना चाहिए। अपना उसूल है सेवा करो और मेवा खाओ। अपने देश की धरती रत्नगर्भा है। यहां रत्न भरे पड़े हैं, लेकिन रत्नों को पाने के लिए जमीन को खुरचना पड़ता है। सही ढंग से खुरचोगे तो झोली हमेशा भरी रहेगी।’
अन्त में साहब बोले, ‘आप निश्चिंत होकर जाइए। आपका काम कराने की गारंटी मैं लेता हूँ। जो नोट आप बड़े साहब को दे रहे थे वे इस तरफ सरका दें। हम दस बीस कागजों के बीच आपका कागज रखकर बड़े साहब के दस्तखत करा लेंगे। उन्हें भनक भी नहीं लगेगी। हमारा चपरासी इस काम में एक्सपर्ट है। और जो खर्चा लगेगा, आपको बता देंगे। पैसे का ज्यादा मोह मत रखिएगा। पैसे को हाथ का मैल समझिए। त्याग की भावना हो तो कोई काम रुकता नहीं। इस बात को सब लोग समझ लें तो कोई दिक्कत न हो। आप अब यहाँ मत आइएगा, आर्डर आपके घर पहुँच जाएगा।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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