हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 49 ☆ वायरल पोस्ट ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “किस्म किस्म के ढक्कन”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 49 – किस्म किस्म के ढक्कन ☆

भावनाओं में बह कर व्यक्ति अक्सर गलतियाँ कर जाता है। परंतु जो पूर्वाग्रह से मुक्त होकर केवल सकारात्मक ही सोचता है, वो अंधकार में भी प्रकाश की किरण ढूँढ़ ही लेता है। ऐसे लोग न केवल दूरदर्शी होते हैं वरन अपनी उन्नति के मार्ग भी प्रशस्त करते हैं। उम्मीद का दामन थामें उम्मीदवार बस भगवान को मनाते रहते हैं कि सब कुछ उनके पक्ष में हो पर होगा कैसे ?  ये तो आपका पक्षकार ही बता सकता है।

इसी तरह तत्काल जो निर्णय किए जाते हैं, वे भावनाओं से प्रभावित होते हैं किंतु कुछ समय के बाद जब हम कोई फैसला करते हैं तो वो दोनों पक्षों को ध्यान में रखकर किया जाता है। ये सही है कि उपेक्षा और अपेक्षा दोनों ही हमारे लिए घातक साबित होते हैं किंतु हम सब इनके प्रभाव से अछूते नहीं रह पाते हैं। सच कहूँ तो इनके बिना तरक्क़ी ही नहीं हो सकती है। जब तक लोभ मोह की छाया हमारे चारों ओर नहीं होगी तब तक कोई कार्य किए ही नहीं जायेंगे। लोग हाथों में हाथ धरे बैठे हुए जीवन व्यतीत कर देंगे।

अब बात आती है ऐसे अजूबों की जो समझाने पर भी कुछ नहीं समझते ,समझ में नहीं आता या अनजान बनने का ढोंग करते हैं, या वास्तव में ही नासमझ होते हैं, भगवान ही जाने। खैर ये सब तो चलता  रहेगा।  दुनिया ऐसे ही भेड़चाल चलते हुए अपना विकास करती जा रही है। मजे की बात ये है कि बोतल कोई भी हो ढक्कन तो बस एक ही कार्य करते हैं। अपना बचाव करते हुए उल्लू सीधा करना। हद तो तब हो जाती है जब चमचों की बड़ी फौज बस सिर हिलाकर अपनी सहमति  देने में ही अपना सौभाग्य समझती है।

बिना ढक्कनों के डिब्बों की पूछ परख भी नहीं होती है। उन्हीं में समान रखा जा सकता है जो इनके साथ हों। सफाई करते समय डिब्बों को भले ही बाहर से साफ कर दिया जाए किन्तु ढक्कनों को धो पोंछ कर ही इस्तेमाल करते हैं क्योंकि यही तो हैं जो वस्तुओं के असली रक्षक होते हैं। डिब्बे का समान तभी सही रह सकता है जब एयरटाइट डिब्बा हो और इस एयर को टाइट करने का कार्य ये ढक्कन ही करते हैं सो ऐसे लोगों को नमन जो इसको आदर्श बना कर जीवन एक गति से जिए जा रहे हैं।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 77 ☆ व्यंग्य – अलबेले एडमिन सरकार ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है एक सार्थक व्यंग्य  “अलबेले एडमिन सरकार“। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 77

☆ व्यंग्य – अलबेले एडमिन सरकार ☆

एडमिन तो एडमिन है। एडमिन नहीं रहेंगे तो व्यंग्य विधा का बंटाधार हो जाएगा, इसलिए ग्रुप में रहना है तो एडमिन से खुचड़ नहीं करना लल्लू। एडमिन जो कहे मान लेना, क्योंकि एडमिन सोशल मीडिया का सर्वशक्तिमान राजा होता है उसके तरकस में तरह-तरह के विषेले तीर रहते हैं,वह जब एडमिन बनता है तो अचानक उसके चमचे पैदा हो जाते हैं।उसका मोबाइल बिजी हो जाता है, उसे हर बात में सर सर कहना जरूरी है, कोई भरोसा नहीं वो किस बात से नाराज हो जाए और आपको ग्रुप से निकाल दे, इसलिए एडमिन जो कहे उसे सच  मान लो भले हर सदस्य को लगे कि ये सरासर झूठ है।अहंकारी एडमिन की आदत होती है वो किसी की नहीं सुनता। अनुशासन बनाए रखने की अपील करते करते किसी को भी निकाल देता है और किसी को भी जोड़ लेता है,वो सौंदर्य प्रेमी होता है इसलिए सुंदरता का सम्मान करता है और उनके सब खून माफ कर देता है।

दुर्भाग्यवश एडमिन को उसके अपने घर में मजाक झेलना पड़ता है और उसकी बीबी उसका मोबाइल तोड़ने की धमकी देती रहती है। बीबी बात बात में उसको डांटती है कि कैसा झक्की आदमी हैं कि दिनों रात मोबाइल में ऊंगली घिसता रहता है, घर के कोई काम नहीं करता और तिरछी ऊंगली करके घी चुरा लेता है। बाहर वालों से तो मक्खन लगी चिकनी चुपड़ी बात करता है और घर वालों के प्रति चिड़चिड़ा रहता है। इन दिनों व्यंग्य के ग्रुप बनाने का फैशन चला, एक व्यक्ति यदि दस बारह जगह एडमिन नहीं है तो कचरा व्यंंग्यकार कहलाता है।

एक व्यंग्य का घूमने वाला समूह बना था जिसमें सब अपने आपको नामी-गिरामी व्यंंग्यकार समझते थे, एक नेता टाइप का मेम्बर किसी बात पर बहस करने लगा तो उस ग्रुप के मठाधीश ने अपने तुंदियल एडमिन को आर्डर दिया कि इस नेता टाइप को तुरंत उठा कर फेंक दो ग्रुप से।‌ तुंदियल एडमिन ने उसे अर्श से फर्श पर पटक दिया। घायल नेता टाइप के उस आदमी ने विरोधियों के साथ मिलकर एक नया ग्रुप बना लिया जिसमें पुराने ग्रुप के सब मेम्बर को जोड़ लिया और सात आठ नामी-गिरामी हस्तियों को एडमिन बना दिया। ग्रुप चल निकला। लोग जुड़ते गए… अच्छा विचार विमर्श होता। जीवन में अनुशासन और मर्यादा की खूब बातें होती, फिर नेता जी टाइप का वो मुख्य एडमिन अन्य दंद- फंद के कामों में बिजी हो गया तो उसने दो बहुरुपिए एडमिन बना लिए ।वे प्रवचन देने में होशियार निकले। बढ़िया चलने लगा, समूह में नये नये प्रयोग होने लगे, और ढेर सारे लोग जुड़ते गए । अनुशासन बनाए रखने की तालीम होती रहती,नये नये विषयों पर शानदार प्रवचनों से व्यंंग्यकारों को नयी दृष्टि मिलने लगी, विसंगतियों और विद्रूपताओं पर ध्यान जाने लगा।

इसी दौरान एक महत्वाकांक्षी व्यंंग्यकारा का ग्रुप में प्रवेश हुआ। उनकी आदत थी कि वो हर बड़े व्यंंग्यकार के मेसेन्जर में घुस कर खुसुर फुसुर करती, तो बड़े नामी गिरामी ब्रांडेड व्यंंग्यकार गिल्ल हो जाते। सबको खूब मज़ा आने लगा, मुख्य एडमिन का ध्यान भंग हो गया, मुख्य एडमिन अचानक संभावनाएं तलाशने लगे। हर समूह में ऐसा देखा गया है कि मुख्य एडमिन को जो लोग पटा कर रखते हैं उन्हें ग्रुप में मलाई खाने की सुविधा रहती है। पता नहीं क्या बात हुई कि ऐन मौके पर अनुशासन सामने खड़ा हो गया और अनुशासन के चक्कर में धोखे से एक बहुरुपिए एडमिन ने उन व्यंग्यकारा को हल्की सजा सुना दी और कुछ दिन के लिए समूह से निकाल दिया, मुख्य एडमिन ने जब ये बात सुनी तो वो आगबबूला हो गया, रात को ढाई बजे सब एडमिनों को ग्रुप के बाहर का रास्ता दिखा दिया। दोनों बहुरुपिए एडमिनों ने रातों-रात एक नया ग्रुप बनाया, भगदड़ मच गई, सारे यहां से वहां हो गये। जब अकेले मुख्य एडमिन बचे तो उन्होंने बचे सदस्यों को भी बाहर कर अपने समूह का विसर्जन कर दिया। नये बने ग्रुप में धीरे धीरे मनमानी होने लगी, एडमिनों का अंहकार फूलने लगा, तो फिर यहां से कुछ लोग भागकर दूसरे ग्रुप में चले गए और कुछ ने अपने नये ग्रुप बनाकर एडमिन का सुख भोगने लगे, ऐसा क्रम चल रहा है और चलता रहेगा जब तक वाट्स अप बाबा के दरबार में एडमिनों को अपना नया दरबार लगाने की छूट मिलेगी।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
(टीप- रचना में व्यक्त विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।)
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 80 ☆ व्यंग्य – मरम्मत वाली सड़क ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक  बेहद सार्थक व्यंग्य  ‘मरम्मत वाली सड़क। सर, जब मैंने आपकी मरम्मत वाली सड़क की कल्पना की तो उसके पास ही तालाब भी नहीं मिला जिसका जिक्र है किन्तु, पता चला है उसमें मछली पालन भी हो रहा है और उससे सिंचाई भी ?इस सार्थक व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 80 ☆

☆ व्यंग्य – मरम्मत वाली सड़क

छोटा इंजीनियर और ठेकेदार सरपंच की पौर में दो खटियों पर धरे हैं। कागज पर गाँव तक एक सड़क बनी है, उसी की मरम्मत के सिलसिले में आये हैं। सबेरे से तीन चार घंटे भटकते रहे, लेकिन सड़क कहीं हो तो मिले। आजकल गाँवों में भी ढाबे खुल गये हैं जहाँ अंडा-मुर्गी से लेकर अंग्रेजी दारू तक सब मिल जाता है, सो सुस्वादु भोजन करके सरपंच की खटिया पर झपकी ले रहे हैं। गाँव की सेवा के लिए आये हैं तो और कहाँ जाएं? कहने की ज़रूरत नहीं कि ढाबे का बिल ठेकेदार साहब ने चुकाया।

सरपंच जी पधारे तो इंजीनियर साहब ने उबासी लेते हुए अपना दुखड़ा रोया—‘सबेरे से ढूँढ़ते ढूँढ़ते पाँव टूट गये। इन ससुरी सड़कों के साथ यही मुश्किल है। बन तो जाती हैं लेकिन मिलती नहीं। हमारे कागजों में साफ लिखा है कि सड़क सन चार में बनी थी। तीन साल पहले मरम्मत हुई थी, तब भी नहीं मिली थी। इंजीनियर सत्संगी साहब आये थे, ढूँढ़ ढूँढ़ कर परेशान हो गये। आखिरकार, बिना मिले ही मरम्मत करनी पड़ी।’

इंजीनियर साहब ठेकेदार साहब का परिचय कराते हैं, कहते हैं, ‘ये हमारे ठेकेदार साहब हैं। इन्हीं को मरम्मत का ठेका मिला है। ये हमारे लिए ठेकेदार नहीं, भगवान हैं, गरीबपरवर हैं, करुणानिधान हैं। कितने कर्मचारियों की बेटियों की शादी इन्होंने करायी, कितने कर्मचारियों को जेल जाने से बचाया। बड़े बड़े लोगों के ड्राइंगरूम में इनकी पैठ है। बड़े बड़े अफसरों के दफ्तर में बिना घंटी बजाये घुस जाते हैं। संकट में सब इन्हीं को याद करते हैं। डिपार्टमेंट में इनकी इज्जत बड़े साहब से ज्यादा है। बड़े साहब से क्या मिलने वाला है?

‘एक अफसर दत्ता साहब आये थे। अपने को बड़ा ईमानदार समझते थे। इनको धमकी दे दी कि ब्लैकलिस्ट कर देंगे। इनके पक्ष में पूरे डिपार्टमेंट ने हड़ताल कर दी। कहा कि दत्ता साहब भ्रष्ट हैं। उनका ट्रांसफर हो गया। फेयरवेल तक नहीं हुई। हमारे ठेकेदार साहब को कोई हिला नहीं सकता। ऐसा प्रताप है इनका। देश के विकास का तो हमें ठीक से पता नहीं, लेकिन कर्मचारियों का विकास ठेकेदारों की कृपा से ही हो रहा है।’

सरपंच जी ने श्रद्धाभाव से ठेकेदार साहब को देखा। ठेकेदार साहब ने गद्गद होकर हाथ जोड़े।

इंजीनियर साहब बोले, ‘बड़ी परेशानी होती है। यहाँ से साठ सत्तर किलोमीटर पर एक तालाब है। दो तीन साल पहले उसे गहरा करने और घाट बनाने का काम निकला था। हमारे एक साथी दो दिन तक उसे ढूँढ़ते रहे, लेकिन उसे नहीं मिलना था सो नहीं मिला। लाचार ऐसे ही काम पूरा करना पड़ा।’

सरपंच जी आश्चर्य से बोले, ‘बिना मिले ही काम हो गया? ‘

इंजीनियर साहब दुखी भाव से बोले, ‘क्या करें? एलाटमेंट हो गया तो क्या उसे ‘लैप्स’ हो जाने दें? कितनी मुश्किल से एलाटमेंट होता है। पूरे डिपार्टमेंट के पेट का सवाल है। नीचे से लेकर ऊपर तक सब एलाटमेंट का इंतजार करते हैं। तो अब सड़क न मिले तो क्या सब के पेट पर लात मार दें? ये हमारे ठेकेदार साहब कैसे पलेंगे, और ये नहीं पलेंगे तो हम कैसे पलेंगे? इसलिए मरम्मत तो होगी, सड़क को जब मिलना हो मिलती रहे।’

शाम को इंजीनियर साहब और ठेकेदार साहब गाँव का निरीक्षण करने निकले। देखा, सड़कें, तालाब और बिल्डिंग बनाने की बहुत गुंजाइश है। विकास बहुत कम हुआ है इसलिए बहुत से कामों को अंजाम दिया जा सकता है। सर्वे करके रिपोर्ट बना ली जाए, बाकी काम डिपार्टमेंट में हो जाएगा। ठेकेदार साहब सहमत हैं। दफ्तर में बैठे बैठे सब काम हो जाएगा। यहाँ पैसा खर्च करने की ज़रूरत नहीं है। लौट कर साहब लोगों से बात करनी पड़ेगी।

लौट कर इंजीनियर साहब सरपंच से बोले, ‘यहाँ तो काम की बहुत गुंजाइश है। एक बार काम हो जाए तो मरम्मत चलती रहेगी। सब पलते रहेंगे।’

फिर बोले, ‘पाँच सात मजदूरों को बुला लें। कागजों पर अँगूठा लगवा लेते हैं। सड़क की मरम्मत का काम पुख्ता करना पड़ेगा। लोकल लोगों के सहयोग के बिना काम नहीं चलेगा। लेकिन हम किसी के साथ अन्याय नहीं करेंगे। अँगूठा लगाने के बदले सभी को एक दिन की मजूरी दी जाएगी। किसी का हक छीना नहीं जाएगा। जैसे हमारा पेट, वैसेइ उनका।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 48 ☆ वायरल पोस्ट ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “वायरल पोस्ट”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 48 – वायरल पोस्ट ☆

आजकल के बच्चे सेल्फी लेने में चैंपियन होते हैं। बस स्टाइल से खड़े होने की देर है , फोटो फेसबुक से लेकर इंस्टा व ट्विटर पर छा जाती है। सब कुछ योजनाबद्ध चरण में होता है। पहले से ही तय रहता है कि किस लोकेशन पर कैसे क्लिक करना है। एक प्रेरक कैप्शन के साथ पोस्ट की गई फोटो पर धड़ाधड़ लाइक और कमेंट आने लगते हैं। जितनी सुंदर फोटो उतनी ही मात्रा में शेयर भी होता है।

ये सब कुछ इतनी तेजी से होता है कि आई टी एक्सपर्ट भी हैरान हो जाते हैं कि हम लोग तो इतनी मशक्कत के बाद भी अपने ब्रांड की वैल्यू नहीं बढ़ा पाते हैं। जीत हासिल करने हेतु न जाने कितने स्लोगन गढ़ते हैं तब जाकर कुछ हासिल होता है। पर ये नवोदित युवा तो एक ही फ़ोटो से रंग बिखेर देते हैं।

ये सब कुछ तो आज की जीवनशैली का हिस्सा बन चुका है। मोटिवेशनल स्पीकर के रूप में हर दूसरी पोस्ट सोशल मीडिया में घूमती हुई दिखती है। जिसमें मोटिवेशन हो या न हो अलंकरण भरपूर रहता है। जोर शोर से अपनी बात को तर्क सहित रखने की खूबी ही आदर्श बन कर उभरती है। खुद भले ही दूसरों को फॉलो करते हों पर अपनी पोस्ट पर किसी की नज़र न पड़े ये उन्हें मंजूर नहीं होता। जबरदस्त फैन फॉलोइंग ही उनके जीवन का मुख्य सूत्र होता है। नो निगेटिवेव न्यूज को ही आदर्श मान कर पूरा अखबार प्रेरणादायक व्यक्तवों से भरा हुआ रहता है। अभिव्यक्ति के नाम पर कुछ भी पोस्ट करने की छूट किस हद तक जायज रहती है इस पर चिंतन होना ही चाहिए।

हम लोग कोई बच्चे तो हैं नहीं कि जो मन आया पोस्ट करें, अधूरी जानकारी को फॉरवर्ड करते हुए किसी को भी वायरल करना तो मीडिया के साथ भी सरासर अन्याय है। इस सबसे तो वायरल फीवर की याद आ जाती है , कि कैसे एक दूसरे के सम्पर्क में आते ही ये बीमारी जोर पकड़ लेती है। दोनों में इतनी साम्यता है कि सोच कर ही मन घबरा जाता है। बीमारी कोई भी हो घातक होती है। पर क्या किया जाए तकनीकी ने ऐसे – ऐसे विकास किए हैं कि सब कुछ एक क्लिक की दूरी पर उपलब्ध हो गया है।

खैर ये सब तो चलता ही रहेगा , बस अच्छी और सच्ची खबरें ही वायरल हों इनका ध्यान हम सबको रखना होगा।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 76 ☆ व्यंग्य – समर्थन मूल्य ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है एक समसामयिक व्यंग्य  “समर्थन मूल्य“। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 76

☆ व्यंग्य – समर्थन मूल्य ☆

सब तरह के किसान परेशान हैं। भूख हड़ताल कर रहे हैं, अपने हक की मांग के लिए हड्डी गलाने वाली ठंड में ठिठुर रहे हैं। उधर दिल्ली के बाहरी इलाके में हजारों किसान पचीस दिनों से कड़कड़ाती ठंड में डटे हुए हैं, और इधर आधा बीघा जमीन का पट्टा बनवाने के लिए लंगोटी लगाए एक किसान पटवारिन बाई के पचास दिन से चक्कर पे चक्कर लगाए जा रहा है। जब समय खराब आता है तो सब तरफ से वक्त परीक्षा लेता है किसान के पुराने पट्टे को चूहों ने कुतर दिया था, उसके घर में मंहगी संदूक होती तो चूहों की हिम्मत न होती, भूखे किसान के घर में कुछ नहीं मिला तो भूमि के पट्टे को खा गए, पता नहीं ऊपर का पन्ना कैसे छोड़ दिया,अब वो पन्ना देखकर पटवारिन कह रही है कि नई  बनवाने के लिए एफआईआर दर्ज कराओ चूहों के खिलाफ।

भटकते भटकते जब पांव की बिवाईं फट के चिल्लाईं तो बात एक टुटपुंजिया पत्रकार तक पहुंच गई। पत्रकार अखबार का ऐजेंट था, दलाली भी करता था ,इस पार्टी से उस पार्टी में कूद फांद भी करता था। पत्रकार के पास किसान को लाया गया, किसान घबराया सा आया । पत्रकार टुटपुंजिया हो और दलाल भी हो तो किसी की भी लंगोटी बेच सकता है। पत्रकार ने पटवारिन से कहा कि कुछ खर्चा पानी लेकर उस बेचारे का पट्टा बना दो बहन। पटवारिन एक न मानी बोली- समर्थन मूल्य का डेढ़ गुना तो लगेगा ही।

पत्रकार बोला – समर्थन मूल्य पर काम कर दो न सरकार।  सरकार कहने पर पटवारिन आग बबूला हो गई बोली- जानते हो कि सरकार किसे बोला जाता है,  बात का बतंगड़ बनते देख किसान गश्त खाकर गिर गया। पत्रकार ने स्थिति बिगड़ते देख पटवारिन से क्षमा मांगी बोला- मेडम आपको गलतफेहमी हो रही है, आप सरकार की प्रतिनिधि हैं और किसान की भूमि के पट्टे बनाने का आपका काम है, इसीलिए किसान की तरफ से निवेदन किया था। पटवारिन का पारा चढ़ गया था….. बोली- तुम कौन होते हो हमें हमारी ड्यूटी बताने वाले, किसान का काम है तो फिरी में थोड़े न होगा, हमारे ऊपर वाले साहबों ने हर काम के समर्थन मूल्य तय कर के रखे हैं, साहब के लघु हस्ताक्षर कराने में हमें ऐड़ी चोटी एक करनी पड़ती है और समर्थन मूल्य तुरंत देना पड़ता है । पास खड़ा एक पढ़ा – लिखा किसान बहुत देर से ये सब सुन रहा था, कहने लगा किसान का पट्टा बनाकर देना आपकी ड्यूटी है इसी बात के लिए तो सरकार आपको वेतन देती है, आज कम्प्यूटर का जमाना है हर काम आनलाइन होता है, ये बात अलग है कि आनलाइन में बैठे कर्मचारी बिना पैसे लिए काम नहीं करते, पैसे न दो तो सर्वर डाउन का बहाना बनाकर चक्कर लगवाते हैं। मेडम ये बताईए कि जब किसान की भूमि का हर काम कम्प्यूटराइज हो गया है तो ये पट्टा आप हाथ से क्यों बनाती हो, इसलिए न कि हर किसान को भूमि का पट्टा चाहिए और पट्टा बिना खर्चा पानी दिए बनेगा नहीं। ये बेचारा गरीब किसान महीने दो महीने से भटक रहा है, इसके पास पैसा नहीं है, ऐसे में ये क्या करे ? पटवारिन झट से बोल उठी कि कहीं से उधार भी तो ले सकता है, और यदि उधार नहीं मिलता तो जमीन रहन रखकर पैसा उठा सकता है। पट्टा बनवाना है तो खर्चा पानी तो लगेगा, हम बना भी देंगे तो हमारा साहब बिना पैसे लिए सील दस्तखत नहीं करेगा। पैसे के मामले में वो बड़ा … है, गरीब हो अमीर हो सबसे निर्धारित समर्थन मूल्य के भाव से हमसे वसूल करता है। तो किसान दादा पहले पैसे का इंतजाम कर लो फिर हमारे पास आना… तुम्ही बताओ घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खायेगा क्या ? और दादा तुम्हारे पुराने पट्टे को चूहे भी तो खा गए हैं। पट्टा नहीं रहेगा तो कैसे पता चलेगा कि कि तुम्हारे पास जमीन जायदाद है और तुम अन्नदाता कहलाने के पात्र हो।

किसान के पास पटवारी को देने के लिए खर्चा पानी का कोई जुगाड़ नहीं दिखा, इसलिए पत्रकार और वहां जुड़ गए पढ़े-लिखे किसानों ने तय किया कि जो किसान पटवारी और तहसीलदार से परेशान हैं, वे आमरण अनशन पर बैठेंगे  और सरकार से मांग करेंगे कि अब हर किसान को हाथ से बने भूमि के पट्टे से मुक्ति मिलनी चाहिए। किसान को कम्प्यूटराइज पट्टा निशुल्क दिया जाना चाहिए, तभी से किसानों का आंदोलन चल रहा है,  फर्क इतना है कि वो किसान कोरोना से मर चुका है जिसके पुराने पट्टे को चूहों ने कुतर दिया था।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
(टीप- रचना में व्यक्त विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।)
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 79 ☆ व्यंग्य – मेरा ग़रीबख़ाना और वे ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है आपका एक  अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘मेरा ग़रीबख़ाना और वे’। इस सार्थक व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 79 ☆

☆ व्यंग्य – मेरा ग़रीबख़ाना और वे

फोकटी मास्टर को मुहल्ले में सब जानते हैं और सब उनसे बचते हैं। उनका असली नाम लोग भूल गये हैं क्योंकि अब पीठ पीछे यही नाम चलता है। यह नाम मुहल्लेवालों ने उनका चरित्र देखकर उन्हें सर्वसम्मति से प्रदान किया है। उनके मुँह पर लोग ‘मासाब’ कह कर काम चला लेते हैं।

कहीं पान या चाय के ठेले पर हम खड़े हों तो फोकटी मास्टर अचानक मिसाइल की तरह गिरते हैं। पान-चाय के बारे में जहाँ किसी ने मुँह छुआ कि फोकटी मास्टर प्रस्ताव को तुरन्त स्वीकार करके पानवाले को बताना शुरू कर देते हैं कि कौन कौन सा मसाला, ज़र्दा, किवाम, दस नंबर, बीस नंबर उनके पान में डाला जाएगा। कई बार लोग जानबूझकर उनसे पूछने में देर कर देते हैं तो फोकटी मास्टर धीरज खोकर खुद ही पूछ लेते हैं, ‘क्यों भैया, आज चाय नहीं पिलाओगे क्या?हम इतनी देर से खड़े हैं, तुम कुछ बोल ही नहीं रहे हो।’

फोकटी मास्टर की नज़र में दूसरों का पैसा हाथ का मैल है और अपना पैसा हाथ की शोभा। दूसरों पर पैसा खर्च करने में उनकी आत्मा शरीर से बाहर निकलने लगती है। चेहरा सफेद पड़ जाता है और हाथ-पाँव ठंडे हो जाते हैं। इसीलिए वे अकेले कभी पान की दूकान पर खड़े नहीं होते। आर्डर देकर दूर खड़े हो जाते हैं, और फिर चील की तरह झपट्टा मारकर पान की पुड़िया उठा कर खिसक लेते हैं। अगर आसपास कोई परिचित न दिखा तो पैसे दे देते हैं, अगर मानुस-गंध आयी तो ‘शाम को पैसे दूँगा’ कह कर बिना अगल-बगल देखे आगे बढ़ जाते हैं। इसी तरह फ़िज़ूलखर्ची से बचकर फोकटी मास्टर ने मुहल्ले में दोमंज़िला मकान खड़ा कर लिया है।

इन्हीं फोकटी मास्टर की आवाज़ उस दिन सबेरे सबेरे मेरे घर में सुनायी दी। वह सुहानी सुबह थी और मैं नहा-धो कर प्रसन्न भाव से भजन गुनगुनाता घूम रहा था। फोकटी की आवाज़ सुनकर मेरे मुँह का स्वाद बिगड़ गया। भजन की जगह मुँह से गाली निकली। मनहूस की आवाज़ सुनी, चेहरा भी देखना पड़ेगा। दिन का सत्यानाश होगा।

फोकटी चिल्ला रहे थे, ‘अरे भाई, कहाँ हो? बाहर निकलो। देखो हम किसे लाये हैं।’

मैं उत्सुकतावश बाहर आया। बाहर आकर जो देखा उससे मेरा माथा घूम गया। फोकटी मास्टर की बगल में बड़े रोब के साथ नज्जू विराजे थे। नज्जू हमारे इलाके के मशहूर गुंडे थे। इलाके में उनकी अघोषित सरकार चलती थी और हम तथाकथित शरीफ़ लोग उनसे बाँस भर की दूरी रखते थे। मुहल्ले के इसी रत्न को फोकटी मेरे घर में ले आये थे। मैं पशोपेश में था कि इस स्थिति से कैसे निपटूँ।

फोकटी मगन थे। उनके चेहरे से खुशी के कल्ले फूट रहे थे। उनके व्यवहार से लगता था जैसे कोई मैदान मार लिया हो। गर्व से अकड़े जा रहे थे।

मैंने बैठकर पूछा, ‘आज सबेरे सबेरे इस तरफ कैसे?’

फोकटी खुशी में अपना सिर हिलाते हुए बोले, ‘बस ऐसे ही। दो दिन पहले चौराहे पर नज्जू भाई मिल गये। हमसे कहने लगे कि हमारे लायक कोई काम हो तो बताइएगा। तो हमने सोचा कि इन्हें अपने सभी दोस्तों से मिलवा दें। जब नज्जू भाई मेहरबान हैं तो सब को फायदा मिलना चाहिए।’

मैंने धीरे से कहा, ‘अच्छा किया।’

फोकटी उमंग से बोले, ‘मैं तो नज्जू भाई की शराफत का कायल हुआ भाई। जब भी मिलते हैं, पहले ये ही सलाम करते हैं। इतने पावर वाले आदमी होते हुए भी घमंड छू नहीं गया है। ये सलाम में पहले हाथ उठा देते हैं तो हमें बड़ी शर्म लगती है। इनके सामने हम क्या हैं भई!’

नज्जू भाई पान चबाते हुए बड़ी शालीनता से बोले, ‘हमारा फर्ज बनता है। आप गुरू हैं। बच्चों को तालीम देते हैं।’

फोकटी भावविभोर होकर हाथ उठाकर बोले, ‘देखा, हम न कहते थे! इसी को कहते हैं शराफत।’

मैंने पूछा, ‘चाय तो चलेगी?’

नज्जू के कुछ बोलने से पहले फोकटी उत्साह में बोले, ‘क्यों नहीं चलेगी? नज्जू भाई पहली बार आये हैं। चाय भी नहीं पिलाओगे?’

और जिन नज्जू को देखकर मैं हमेशा कन्नी काट जाता था, उन्हीं के लिए चाय के इन्तज़ाम में लग गया।

चाय पर फोकटी बोले, ‘वह अपना कार्पोरेशन वाला मामला नज्जू भाई को समझा दो। ये तुम्हारा काम करा देंगे।’

नज्जू बोले, ‘हमें बता दीजिएगा। हम सब ठीक कर देंगे। लातों के भूत बातों से नहीं मानेंगे।’

मैंने जान छुड़ाने के लिए कहा, ‘मैं कागज़ात निकाल कर आपको समझा दूँगा।’

फोकटी बिस्कुट चबाते हुए बोले, ‘ऐसा करते हैं,एक दिन सब लोग नज्जू भाई के नेतृत्व में कार्पोरेशन चलें। मुहल्ले की जितनी समस्याएं हैं सब का एक बार में निपटारा हो जाए। क्यों नज्जू भाई?’

नज्जू भाई गंभीरता से सिर हिलाकर बोले, ‘हाँ, हाँ, कभी भी चलिए।’

फोकटी उमंग में बोले, ‘हम तो यह सोच रहे हैं कि मुहल्ले की एक कमेटी बनाकर नज्जू भाई को उसका अध्यक्ष बना दिया जाए। उनके साथ आप सेक्रेटरी बन जाइए। तब काम आसान हो जाएगा।’

मैंने घबराकर कहा, ‘पहले मुहल्ले वालों से बात कर लें। वैसे नज्जू भाई के साथ काम करने के लिए आप ही सही आदमी हैं।’

मेरी बात सुनकर फोकटी खुशी से दाँत निकालकर बोले, ‘हम तो हैं ही। जहाँ आप लोग कह देंगे, अड़ जाएंगे।’

फिर व्यस्तता से खड़े होते हुए बोले, ‘टाइम नहीं है। अभी नज्जू भाई को दो चार घरों में और ले जाना है। धीरे धीरे सब से मिला देंगे।’

फिर वे भीतर झाँकते हुए बोले, ‘भाभी जी कहाँ हैं?नज्जू भाई का उनसे भी परिचय करा देते।’

मैंने तुरन्त कहा, ‘वे अभी नहा रही हैं। टाइम लगेगा।’

फोकटी अपना सिर हिलाते हुए बोले, ‘आप कागज़ ज़रूर ढूँढ़ लीजिएगा। आप का काम हो जाएगा। मौके का फायदा उठाना चाहिए।’

फिर चलते चलते दरवाज़े पर रुककर बोले, ‘हमने तो नज्जू भाई से कह दिया है कि आपको आगे रहना है और हम सब आपके पीछे चलेंगे। मुहल्ले में ताकतवर आदमी हो और हम उसका फायदा न लें तो बेवकूफ तो हमीं हुए न! क्यों नज्जू भाई?’

नज्जू भाई अपने काले काले दाँत चमकाकर हँस दिये और फोकटी उनको अपनी बाँह में घेरकर बाहर ले गये।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 47 ☆ जागरूक लोग ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “जागरूक लोग”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 47 – जागरूक लोग ☆

कथनी और करनी का भेद किसी को भी आगे बढ़ने से रोकता ही  है। इससे आप की विश्वसनीयता कम होने लगती है। न चाहते हुए भी शोभाराम जी अपनी इस आदत से बाज नहीं आ रहे हैं। बस किसी तरह कोई उनकी बात में आया तो झट से उसे एक साथ इतने दायित्व सौंप देते हैं कि वो राह ही बदल लेता है। कार्य कोई और करे, श्रेय अपनी झोली में करना तो उनकी पुरानी आदत है। खैर आदतों का क्या है ये तो मौसम से भी तेज होती हैं , जब जी चाहा अपने अनुसार बदल लिया।

बदलने की बात हो और वक्त अपना तकाज़ा करने न पहुँचे ऐसा कभी नहीं हुआ। आरोह-अवरोह के साथ कार्य करते हुए बहुत से अवरोधों का सामना करना ही पड़ता है। अपनी विद्वता दिखाने का इससे अच्छा मौका कोई हो ही नहीं सकता। अब तो शोभाराम जी ने तय कर ही लिया कि सारे कार्यकर्ताओं को कोई न कोई पद देना है। बस उनके घोषणा करने की देर थी कि सारे लोग जी हजूरी में जुट गए। बहुत दिनों तक ये नाटक चलता रहा और अंत में उन्होंने सारे पद भाई-भतीजा बाद से प्रेरित होकर अपने रक्त सम्बन्धियों में बाँट दिए।

अब पूर्वाग्रही लोगों ने ये कहते हुए हल्ला बोल दिया कि उनके साथ दुराग्रह हुआ है। जबकि यथार्थवादी लोग पहले से ही इस परिस्थिति से निपटने की रणनीति बना चुके थे। दो खेमों में बटी हुई पार्टी अपना- अपना राग अलापने लगी। जो बात किसी को पसंद न आती उसे उस विशेष व्यक्ति की व्यक्तिगत राय कह कर पार्टी के अन्य लोग पल्ला झाड़ लेते। ऐसा तो सदियों से हो रहा है और होता रहेगा क्योंकि ऐसी ही नीतियों से ही लोकतंत्र का पोषण हो रहा है। लोक और तंत्र को अभिमंत्रित करने वाले गुरु लगातार इस कार्य में जुटे रहते हैं। लगभग पूरे साल कहीं न कहीं चुनाव होता ही रहता है। जब कुछ नहीं समझ में आता है तो दलबदलू लोग ही अपना पाँसा फेक देते हैं। और सत्ता पाने की चाहत पुनः जाग्रत हो जाती है। पार्षदों से लेकर सांसदों तक सभी सक्रिय राजनीति का हिस्सा होते हैं। आखिर जनता के सेवक जो ठहरे। नौकरशाहों पर लगाम कसने की जिम्मेदारी ये सभी हर स्तर पर बखूबी निभाते हैं। अब आवश्यकता है तो लोक के जागरूक होने की क्योंकि बिना माँगे कोई अधिकार किसी को नहीं मिलते तो भला सीधे – साधे लोक अर्थात जनमानस को कैसे मिलेंगे।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 16 ☆ व्यंग्य ☆ अभिजात्य को आम से ऊपर रखने का तिलिस्म ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  व्यंग्य  “अभिजात्य को आम से ऊपर रखने का तिलिस्म । इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 16 ☆

☆ व्यंग्य – अभिजात्य को आम से ऊपर रखने का तिलिस्म ☆

एस्केप बटन दबा दिया उसने, ज़िंदगी का.

जब की-बोर्ड की सभी ‘फंक्शन कीज’ काम करना बंद कर दे, या करे तो माल-फंक्शनिंग करे, तो रास्ता सिर्फ एस्केप बटन दबाने का ही बचता है. वही चुना हैदराबाद की ऐश्वर्या ने. ऑनलाईन पढ़ाई करने के लिये उसके पास लैपटॉप था नहीं, गुरबत में गुजर कर रहे माँ-बाप खरीद कर दे पाने की स्थिति में नहीं थे.  कई बार एफ-वन दबाया मगर हेल्प न ऑनलाईन मिली न ऑफलाईन. एजुकेशन  का सिस्टम हैंग हो गया तो उसने खुद को ही हैंग कर लिया. उसके पास न रि-स्टार्ट का ऑप्शन था न रि-बूट का. स्क्रीन ब्लैंक था, क्या करती सिवाय एस्केप के.

दिल्ली के उस कॉलेज में एडमिशन हुआ था उसका जहां कट-ऑफ निनानवे प्रतिशत से नीचे नहीं जा पाता. ‘एस्केप-की’ दबाने से पहले उसने एफ-थ्री बटन दबाया ही होगा, सर्च फंक्शन, कि मिल जाये किसी तरह रास्ता एक अदद लैपटॉप पाने का. न फॉरवर्ड सर्च काम कर सका न शिफ्ट+एफ-थ्री के साथ बैकवर्ड से खोज पूरी हो सकी. ‘नॉट-फाउंड’ ने मनोबल तोड़ कर रख दिया. जो गुरबत में जीते हैं उनकी ‘एफ़-फ़ाईव-की’ काम नहीं करती, वे न चैप्टर रि-लोड कर पाते हैं न लेसन्स रिफ्रेश. ‘इन्सपायर स्कॉलरशिप’ उसके ‘कशे’ में ‘स्टोर्ड’ थी, ‘रिट्रीव’ हो नहीं सकी. मोटीवेशन का डिवाईस ड्राईवर करप्ट हो गया था. वंचितों की लाईफ में न ऑटो-सेव न ऑटो-रिकवरी की संभावनाएँ. स्टूडेंट्स से ऑनलाइन जुड़ने को कहा जा रहा है, घरों में खाने के लाले पड़े हैं – कमाल का सिस्टम है.

शिक्षा अब एक प्रॉडक्ट है श्रीमान. ‘एड-टेक’ – एजुकेशन में नया फंडा. माँ सरस्वती ने भी इसके बारे में शायद ही सुना हो. बायजूस, वेदान्तु, मेरिटनेशन – शाहरूख जैसा ब्रांड अम्बेसेडर अफोर्ड कर पाना ऐरों-गैरों-नत्थूखैरों के बस का नहीं है. एजुकेशन की लक्झरी ओनली ऑनलाइन अवेलेबल. एजुकेशन के मॉल में फटेहालों का घुसना मना है. इंटरेंस ही लाखों में, मुफ़लिसों के ‘पासवर्ड’ इनवेलिड. दो जून की रोटी का जुगाड़ डिजिटल एजुकेशन पर भारी. न एंड्रायड न डाटा, न कनेक्टिविटी न गैजेट. जिनके लिये एजुकेशन का सिस्टम बूट ही नहीं हो पा रहा वे एफ-एलेवन से फुल-स्क्रीन तो क्या कर पायेंगे. जिंदगी का मदरबोर्ड ही जब बेमकसद हो गया हो तब शिक्षा बाय डिफ़ाल्ट बेमकसद साबित हो ही जाती है. लालच के वाइरस ने एजुकेशन का ऑपरेटिंग सिस्टम करप्ट कर दिया है. जो एंटी-वाइरस लेकर उतरेंगे सड़कों पर उनकी निष्ठा पर सवाल उठाये जाएँगे – वामपंथी, देशद्रोही, टुकड़े-टुकड़े और क्या क्या. पॉवर्टी में लर्निंग से लर्निंग-पॉवर्टी तक का सफर है श्रीमान. आवारा बाज़ार में पूअर ‘ई-वेस्ट’ हैं, जंक अपने ही देश में. दीवारों पर मुँह चिढ़ाता ‘सर्व शिक्षा अभियान’ का विज्ञापन. कभी कृष्ण और सुदामा एक ही क्लास में पढ़ा करते थे, अब अभिजात्य को आम से ऊपर रखने का तिलिस्म है.

लॉक-डाउन ने पढ़ाई का ‘की-पैड’ गरीबों की जिंदगी में डिसेबल कर दिया है. प्राईमरी स्कूल से कॉलेज-यूनिवर्सिटी तक बायो-मेट्रिक्स डिवाईसेस लगीं हैं खाये-पिये अघाये यूजर्स की उँगलियों की छाप का मिलान हो जाये तो लॉगिन कर सकेंगे आप. शेष के लिये है ना आंगनवाड़ी, खैराती स्कूल, सरकारी कॉलेज या फिर वोई एस्केप बटन. ये सेवेन्थ जनरेशन के प्रशासन के की-बोर्ड हैं इन पर से शर्म और गैरत के बटन्स गायब कर दिये गये हैं.

बहरहाल, अब तो ‘रि-सायकल बिन’ से भी डिलीट कर दी गई है ऐश्वर्या की स्टोरी. कौन बताये कि वो परिवार पर बोझ बनाना नहीं चाहती थी इसीलिये शिफ्ट+एफ-एट प्रेस करके सेफ मोड में जाने की बजाये उसने आल्ट+एफ-फोर से सारे एप्लिकेशन क्लोज़ किये और एस्केप कर गई. जब जिंदगी का एफ-टेन ही नॉन-फंक्शनल हो तो मेनुबार का कोई ऑप्शन कैसे एक्टिवेट कर पाती. उसने दुपट्टे का एक सिरा गले के इर्द-गिर्द कसते हुवे दूसरा पंखे से बांधा और लाईफ से एस्केप का बटन दबा दिया. अफसोस कि उसका यह एक्शन ‘अन-डू’ किया भी नहीं जा सकेगा.

 

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 75 ☆ व्यंग्य – पागुर करती गाय का चिंतन ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है एक समसामयिक व्यंग्य  “पागुर करती गाय का चिंतन“। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 75

☆ व्यंग्य – पागुर करती गाय का चिंतन ☆

जाड़े का मौसम है। दांत किटकिटा रहे हैं। गंगू के घर वाले चिंतित हैं। गंगू अपने हक के लिए बीस दिन से दिल्ली के बार्डर की सड़क में कांप रहा है। दो डिग्री वाली कंपकंपाती लहर से हाथ पैर सुन्न हो गए हैं। सत्ता के लोग कह रहे हैं कि हम किसान के लिए लड़ रहे हैं पर विपक्ष इनको बरगला रहा है। सत्ता के लोग कह रहे हैं कि किसान गरीब है खेती करने के काबिल नहीं है, इसीलिए अब इनकी जमीनों में हमारे लोग खेती करेंगे। सरकार कह रही है, हम गंगू की आमदनी दोगुनी कर देंगे,पर गंगू जैसे करोड़ों किसानों को विश्वास नहीं हो रहा है क्योंकि वे कई सालों से हाथ मटका कर झूठ को सच की तरह से बोलने वाले और झटका मारकर वोट ठगने वालों से परेशान है।घर में पागुर करती गाय चिंतित हैं कि उसका मालिक अपने हक की मांग के लिए दर दर ठोकरें खा रहा है, वह घर से बीस दिन पहले गया था और अभी तक नहीं लौटा। कूं कूं करता मोती गंगू की याद में रात को रोने लगता है, गांव में कुत्ते के रोने को अपकुशन मानते हैं। बेचारी गाय अपने बछड़े को दूध नहीं पिला पा रही है, मालिक की याद में आंसू बहा रही है। इतने दिन में गाय अच्छी तरह समझ गयी है कि गाय और किसान राजनीति के लिए बनाए गए हैं। पिछली बार मंदसौर में गंगू का भाई गोली खाकर मरा था तब भी गाय रोयी थी, इस बात पर भी रोयी थी कि कुर्सी पकड़ नेता ने मरने वाले को एक करोड़ देने का फरमान मीडिया में सुनाया था,पर कलेक्टर ने कहा था कि किस मद से पैसा देंगे, घोषणा करना तो इनका जन्मजात अधिकार है।  गाय सोच रही है कि लोग भाषण में देश को कृषि प्रधान देश कहते हैं पर विपक्ष कुर्सी प्रधान देश कहता है, आखिर लफड़ा क्या है ? ये किसान फंदे पर क्यों लटकते हैं। पटवारी,आर आई, तहसीलदार का पेट किसानों से पलता है, नये नये कानून से इनके खर्चा पानी के भाव बढ़ते हैं।

जो नए कानून आए हैं, पागुर करती गाय सोच रही है ये किसानों के हक में नहीं है। नया कानून यह  भी कहता है कि यदि कोई कारपोरेट किसी किसान को धोखा देता है या उसे नुकसान पहुंचाता है तो वह किसान उस कारपोरेट के खिलाफ किसी कोर्ट में कोई केस नहीं कर सकता। यदि किसी देश के लोगों से कोर्ट में जाने का अधिकार ही छीन लिया जाए तो इसका मतलब है आपने पूरी कानून व्यवस्था और न्याय पाने का जो संवैधानिक अधिकार है उसे कुचल दिया है । इस नए कानून में लिखा है कि किसान कारपोरेट की शिकायत लेकर एसडीएम के पास जाएगा। एसडीएम साहब उस विशालकाय कारपोरेट चाहे वह कोई भी हो उसके खिलाफ मुकदमा सुनेंगे और फैसला देंगे।

गाय हंस रही है बेचारे एसडीएम पर। एक एसडीएम ऐसे कारपोरेट जिनके कहने से भारत सरकार नीतियां बनाती हो, कानून बदलती हो, वह उनके खिलाफ फैसला दे पाएगा? एसडीएम छोटा अफसर होता है, उसके आसपास के नेता उससे वसूली करते हैं,उसकी बीबी उससे हीरे-जवाहरात जड़े हार की मांग करती है,वह कारपोरेट से थर-थर कांपता रहता है क्योंकि कारपोरेट वाले को उसकी भी चिंता है। किसान का क्या है 14 करोड़ से ज्यादा किसान हैं इस देश में। सब ऐन वक्त पर नेतागिरी पर उतारू हो जाते हैं। आन्दोलन करने की इनकी आदत बन गई है……

अचानक इस खबर को सुनकर गाय की पागुर रुक गई, खबर आयी है कि उसका मालिक गंगू ठंड खाकर मर गया है………

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
(टीप- रचना में व्यक्त विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।)
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 78 ☆ व्यंग्य – समाज-सुधार की क्रान्तिकारी योजना ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है आपका एक  अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘समाज-सुधार की क्रान्तिकारी योजना’।  बचपन से पढ़ा था कि- जहाँ न पहुंचे ‘रवि’, वहां पहुँचे ‘कवि’। अब तक किसी ने लिखा नहीं, इसलिए लिख रहा हूँ कि – जहाँ न पहुँचे ‘सरकार’,वहाँ पहुँचे ‘व्यंग्यकार’। आशा है इस शीर्षक से कोई न  कोई, कुछ तो लिखेगा। अब इसके आगे लिखने नहीं डॉ  परिहार जी  के व्यंग्य को पढ़ने की जरुरत है। इस सार्थक व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 78 ☆

☆ व्यंग्य – समाज-सुधार की क्रान्तिकारी योजना

अभी हाल में राजधानी में एक बड़ी हृदयविदारक घटना घट गयी। तीन चार पिता अपने होनहार पुत्रों को नौकरी में लगवाने के इरादे से संबंधित डिपार्टमेंट में चालू रिश्वत के रेट का पता लगाने गये और रेट की घोषणा होने पर उनमें से दो ‘कोमा’ में चले गये और बाद में उनमें से एक की ज़िन्दगी मेंं ‘फुल स्टॉप’ लग गया।

इस दुर्घटना पर भारी हंगामा मच गया और विरोधी पार्टियों ने बात संसद में उठा दी कि सरकार रिश्वत के धक्के से मरने वालों की समस्या की तरफ पूरी तरह उदासीन है। इस तोहमत को धोने के लिए सरकार ने फटाफट एक कमेटी बना दी कि समस्या का गहराई से अध्ययन करे और तीन महीने के भीतर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करे।

कमेटी ने तीन महीने के बजाय छः महीने में अपनी 848 पेज की रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें समस्या के हर पहलू का बारीकी से अध्ययन किया गया। रिपोर्ट में कहा गया कि भारत के संविधान में नागरिकों को जो मौलिक अधिकार दिये गये हैं उनमें नौकरी में बराबरी का अधिकार और जिन्दा रहने का अधिकार शामिल हैं, लेकिन रिश्वतखोरी इन दोनों को चाँप कर बैठ गयी है। कमेटी ने माना कि हमारे महान मुल्क में रिश्वतखोरी एक संस्था का रूप ले चुकी है और हमारे राष्ट्रीय वजूद में कुछ ऐसे पैवस्त हो गयी है जैसे मजनूँ के वजूद में लैला पैवस्त हो गयी थी। हालत ये है कि अगर इस ज़हरीले काँटे को निकालने की कोशिश की गयी तो काँटे के साथ मरीज़ की जान निकलने का ख़तरा पैदा हो सकता है।

कमेटी ने बड़ी चिन्ता के साथ लिखा कि रिश्वतखोरी ने हमारे मुल्क में बड़े पैमाने पर गैरबराबरी और अन्याय पैदा कर दिया है। जिनके पास रिश्वत देने के लिए पैसा है वे अच्छी अच्छी नौकरियाँ हथया लेते हैं और इस मुल्क के जो सपूत प्रतिभाशाली लेकिन गरीब हैं वे नौकरी के कारवाँ को गुज़रते हुए देखते रह जाते हैं। नौकरियों के सिकुड़ने के साथ उन्हें हासिल करने के रेट इतने ऊँचे हो गये हैं कि काला पैसा कमाने वाले पुरुषार्थी ही उन्हें क्रय कर पाते हैं।

कमेटी ने लिखा कि समस्या का दूसरा पहलू यह है कि जिनके पास रिश्वत का पैसा पहुँचता है वे अपनी औलादों के लिए अच्छी नौकरियाँ खरीद लेते हैं और इस तरह उनकी आगे आने वाली पीढ़ियों का भविष्य सुनहरा और सुरक्षित हो जाता है। जिन बापों के पास नौकरियाँ खरीदने के लिए पैसा नहीं होता या जिन्होंने अपनी नौकरी में मौकों का फायदा नहीं उठाया, उनकीऔलादें कुछ दिनों के लिहाज के बाद उन्हें खुल्लमखुल्ला नाकारा और नालायक कहने लगती हैं, जिससे परिवार और समाज में अशान्ति का वातावरण पैदा होता है।

समस्या पर पूरा विचार करने के बाद कमेटी इस नतीजे पर पहुँची कि आम आदमी को रिश्वतखोरी से होने वाले नुकसान से बचाने के लिए कुछ ऐसे कदम उठाये जाएं कि साँप भी मर जाए और लाठी भी सलामत रहे, यानी रिश्वतखोरी की संस्था भी बची रहे और आम आदमी में उसके धक्के को झेलने की ताकत पैदा हो सके। इस लिहाज से कमेटी ने कई बहुमूल्य सुझाव दिये, जिनमें से ख़ास ख़ास नीचे दिये गये हैं—–

रिश्वत-ऋण की व्यवस्था करना:-

कमेटी ने यह क्रांतिकारी सुझाव दिया कि जिस तरह मँहगी शिक्षा को झेलने के लिए छात्रों को शिक्षा-ऋण की व्यवस्था की गयी है, उसी तरह रिश्वत देने के लिए ऋण की व्यवस्था की जाए ताकि कोई नागरिक ज़िन्दगी के अच्छे मौकों से महरूम न रहे। शिक्षा-ऋण की व्यवस्था इसलिए की गयी है कि ऊँची फीस की वसूली मेंं बाधा न पड़े और छात्रों का दिमाग विरोध की दिशा में न भटके। इसी तरह रिश्वत-ऋण की व्यवस्था सब राष्ट्रीयकृत बैंकों में हो।

इसके लिए प्रक्रिया ऐसी होगी कि व्यक्ति ऋण-आवेदन मेंं रिश्वत देने के उद्देश्य, रिश्वत लेने वाले कर्मचारी/अधिकारी का नाम और विभाग, तथा माँगी गयी रकम का ब्यौरा देगा। साथ ही फार्म पर रिश्वतखोर कर्मचारी/अधिकारी इस बात की तस्दीक करेगा कि उल्लिखित रकम सही है। वह यह वचन भी देगा कि जिस काम के लिए रिश्वत ली जा रही है वह एक समय-सीमा के भीतर पूरा होगा। यह इसलिए ज़रूरी है कि रिश्वत की रकम ज़ाया न हो। यदि रिश्वतखोर अफसर समय-सीमा में काम नहीं करता तो फिर उस पर आई.पी.सी. के तहत रिश्वतखोरी और चारसौबीसी की कार्यवाही की जा सकेगी। वादा पूरा करने पर उसके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं होगी।

कुछ वर्गों के लिए ऋण मेंं सब्सिडी:-

कमेटी ने यह सुझाव दिया कि कुछ वर्गों को रिश्वत-ऋणों मेंं सब्सिडी की सुविधा दी जाए। ये वर्ग विद्यार्थी, महिलाएं, वरिष्ठ नागरिक, और गरीबी-रेखा से नीचे वाले हो सकते हैं। इनके द्वारा लिये जाने वाले रिश्वत-ऋणों का पचास प्रतिशत भार सरकार के द्वारा वहन किया जाए।

अन्य क्षेत्रों में विस्तार:-

कमेटी ने यह सुझाव दिया कि कालान्तर मेंं इस ऋण सुविधा का विस्तार दहेज आदि के क्षेत्रों में भी किया जाए, अर्थात दहेज देने के लिए भी बैंक ऋण प्राप्त हो।
वजह यह है कि सारी वीर-घोषणाओं और कानूनों के बावजूद हमारे धर्म-प्रधान देश में दहेज-प्रथा दिन-दूनी रात-चौगुनी फल-फूल रही है और दहेज की रकम हजारों से बढ़कर करोड़ों में पहुँच गयी है। बैंकों से दहेज-ऋण प्राप्त होने लगे तो जो लोग अपनी कन्या की ‘स्तरीय’ शादी करना चाहते हैं उनकी मुराद पूरी होगी और शादी के बाद लड़कियों को होने वाले कष्ट कम होंगे। तब शादी के दरमियान कन्या के पिता को अपनी पगड़ी वर के पिता के चरणों में रखने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी, और इस तरह के दृश्य भारतीय फिल्मों से गायब हो जाएंगे।

सावधानियाँ:-

कमेटी ने यह भी टिप्पणी की कि रिश्वत-ऋणों के क्रियान्वयन में पर्याप्त सावधानियाँ बरती जाएं। ऐसा न हो कि रिश्वत देने वाले और लेने वाले आपस में गुप्त समझौता करके बैंकों और सरकार का मुंडन करने लग जाएं। इस लिए हर बैंक में छानबीन समिति बनायी जाए जो रिश्वत-ऋणों पर कड़ी नज़र रखे और उनका सही उपयोग सुनिश्चित करे।

कमेटी ने अन्त में लिखा कि उसे पूरा भरोसा है कि इन क्रान्तिकारी कदमों से भारतीय समाज की बहुत सी बुराइयों का अन्त हो सकेगा और आम आदमी सुकून की ज़िन्दगी जी सकेगा।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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