हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 71 ☆ उलझनों के बीच सुलझन ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “उलझनों के बीच सुलझन”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 71 – उलझनों के बीच सुलझन

स्कूल खुलते ही सभी आक्रोशित दिख रहे हैं; एक तरफ बच्चे जो इतने दिनों से अपने अनुसार जीवन जी रहे थे उन्हें गुस्सा आ रहा है तो दूसरी तरफ शिक्षक भी धैर्य खो चुके हैं। जल्दी से अपनी पकड़ मजबूत करने हेतु उल्टे – सीधे निर्णय लेकर बच्चों व अभिवावकों पर नियंत्रण रखने की कोशिश कर रहे हैं। अक्सर ऐसा होता है बिना समय की नब्ज को पहचाने हम अधीरता के वशीभूत निर्णय कर लेते हैं, जो अप्रिय लगते हैं।

दो बच्चों के बीच हाथापाई हुई और कटघरे में आसपास बैठे सारे लोग आ गए।आनन- फानन में प्राचार्या ने बच्चों के स्कूल आने पर प्रतिबंध लगा दिया अब तो सारे अविभावक भी जोश में आकर अपने अधिकारों की माँग पर अड़ गए। एक साथ कई बैठकें रखी गयीं। औपचारिक बातचीत होने के अलावा कुछ भी निष्कर्ष नहीं निकल रहा था। सभी मानसिक उलझनों के बीच कुछ अच्छा ढूंढने की कोशिश में और उलझते जा रहे थे। अंत में ये तय हुआ कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है, लोग अपनी- अपनी जगह सही हैं; बस इतने दिनों बाद मिल रहे हैं इसलिए एक दूसरे को समझने में थोड़ा वक्त लगेगा।

जाने- अनजाने लोगों द्वारा जब ऐसा होता है तो स्थिति भयावय हो जाती है। कार्यक्षेत्रों में ऐसा होना कोई नई बात नहीं है। भय बिनु होय न प्रीत को चरितार्थ करते हुए भय का सहारा लेकर समय- समय पर लोग अपने उल्लू सीधे करते हुए नज़र आते हैं। इससे टेढ़े- मेढ़े विचारों का जन्म होता और कलह का वातावरण निर्मित हो जाता है। ऐसी तमाम उलझनों से सुलझते हुए जीना कोई आसान कार्य नहीं होता है। बड़े- बड़े गुनी लोग भी आसानी से इसकी गिरफ्त में आ जाते हैं।

आजकल छोटी सी बात को बड़ा तूल देते हुए हफ्ते भर मीडिया वाले जिसका राग अलापते हैं अंत में उसे ही सिरे से खारिज करते हुए कह देते हैं ऐसा कुछ हुआ ही नहीं था ये तो महज सोची समझी चाल थी जो सत्ता दल अपने पक्ष में करने हेतु कर रहा है। वहीं सुस्त विपक्ष भी अचानक से होश में आता है और आनन- फानन में अपने प्रवक्ता द्वारा कहलवाने लगता है हम लोगों का इसमें कोई हाथ नहीं ये तो गोदी मीडिया है। अपने पक्ष में आरोपी ही प्रायोजित साक्षात्कार करवाते हैं और माइंड चेंजिंग गेम की तरह सब कुछ मूक दर्शकों के ऊपर छोड़कर मामले को रफा – दफा कर देते हैं।

कोई भी मुद्दा हो खत्म राजनीति पर ही होता है। जब कोई रास्ता नहीं दिखता तो समस्या का राजनीतिकरण करके मामले को सलटा दिया जाता है। आश्चर्य तो तब होता है कि देश की हर घटना कैसे इससे जुड़ी होती है। क्या जन सेवक ही सबकी सेवा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। अरे भई जनतंत्र है जनता को ही जिम्मेदारी लेना सीखना होगा तभी उलझनों के बीच सुलझन निकल सकेगी।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 105 ☆ मरघट यात्रा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय  व्यंग्य ‘मरघट यात्रा).   

☆ व्यंग्य # 105 ☆ मरघट यात्रा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

मैं मर चुका था, काफी देर हो चुकी थी। किसी को विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं वास्तव में मर चुका हूं। सब मजाक कर रहे थे कि मैं इतने जल्दी नहीं मर सकता। डाक्टर बुलाया गया, उसने हाथ पकड़ा फिर नाड़ी देखी और सबको देखता रह गया …. तब भी लोगों ने सोचा कहीं डाक्टर तो नहीं मर गया। 

मेरे हर काम में लोग शक करते हैं और अड़ंगा डालते हैं,इतने देर से मैं मरा पड़ा हूं और लोग-बाग मानने तैयार नहीं हैं कि मैं वैसा ही मर चुका हूं जैसे सब मर जाते हैं, दरअसल मित्र लोग खबर मिलने पर अंतिम दर्शन को आ रहे हैं पर हाथी जैसे डील-डौल वाले शरीर को कंधा देने में कतरा रहे हैं और मजाक करते हुए यहां से कन्नी काट कर यह कहकर आगे बढ़ जाते हैं कि मैं मर नहीं सकता, गलती मेरी भी है कि मैं  जीवन भर से हर बात पर नखरे करता रहा, बहाने बनाता रहा, शरीर फैलता रहा, वजन कम नहीं किया। मुझे नहीं मालूम था कि हाथी जैसे डील-डौल वाले को मरने के बाद कंधा देने चार आदमी भी नहीं मिलते।

जिनको उधार दिया था उनमें से तीन किसी प्रकार कंधा देने तैयार हुए पर चौथा आदमी नहीं मिल रहा था। बाकी तीनों ने आते- जाते अनेक लोगों से मदद माँगी। किसी के पास समय नहीं था। चौथे आदमी को ढूंढने में विलंब इतना हो रहा था कि  मैं डर गया कि कहीं ये तीन भी धीरे धीरे कोई बहाना बना कर भाग न जाएं, इसलिए मैंने अपनी दोनों आंखें खोल दीं ताकि उन तीनो को थोड़ी राहत महसूस हो, मेरी आंखें खुलते ही वे तीनों इस बात से डर गये कि कहीं उधारी वाली चर्चा न चालू हो जाए, और वे तीनों भी भाग खड़े हुए।

तब मैंने भी सोचा कि चार दोस्तों के कंधों पर जब पांचवा सवार होता है तो वे उसे मरघट पहुंचा के ही दम लेते हैं, इसलिए उठकर बैठ जाना ही अच्छा है, और मैं उठकर बैठ गया तो सब भूत भूत चिल्लाते हुए भाग गए…….

मैं अभी भी मरा हुआ पड़ा हूं, काफी देर हो गई है पर कोई मानने तैयार नहीं है क्योंकि इन दिनों लोगों के समझ नहीं आ रहा है कि सच क्या है और झूठ क्या है…..

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #108 ☆ व्यंग्य – ‘एक पाती प्रभु के नाम’ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘एक पाती प्रभु के नाम ’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 108 ☆

☆ व्यंग्य – एक पाती प्रभु के नाम 

परम आदरणीय भगवान जी,

बैकुंठधाम।   

सेवा में निवेदन है कि मैं मर्त्यलोक में अपने घर में ठीक-ठाक हूँ।  आप तो कुशल से होंगे क्योंकि आप तो दुनिया की कुशलता के इंचार्ज हैं।  

आगे समाचार यह है कि सेवक की उम्र अब पचहत्तर पार हो गयी जो भारत की औसत आयु से 5-6 साल ज़्यादा है।  इसलिए माना जा सकता है कि यमराज के दूत कभी भी रस्सी का फन्दा घुमाते मेरी आत्मा को गिरफ्तार करने आ सकते हैं।  

इस संबंध में शिकायत यही है कि आप के यहाँ आत्मा को शरीर से निकालने के पहले कोई नोटिस की व्यवस्था नहीं है।  हमारे यहाँ बिल्डिंग गिराते हैं तो पहले नोटिस देते हैं।  बिना नोटिस दिये कोई कार्रवाई हो जाए तो कोर्ट कान पकड़ती है।  आपके यहाँ आदमी को उठाने से पहले कोई नोटिस नहीं दिया जाता।  यहाँ से कानून के बड़े बड़े खुर्राट ट्रांसफर होकर वहाँ पहुँचे हैं।  उनकी सलाह लेकर नोटिस की व्यवस्था करें ताकि आदमी अचानक ही दुनिया से रुख़्सत न हो।  

दूसरी बात यह है कि वहाँ जाने से पहले यह जानने की इच्छा है कि वहाँ बिजली, पानी और आवास व्यवस्था का क्या हाल है।  अब  यहाँ एसी और कूलर की आदत पड़ गयी है, घर में मिनरल वाटर का उपयोग होने लगा है।  घरों में टाइल्स वाइल्स लगाकर बढ़िया बना लेते हैं।  कृपया सूचित करें कि वहाँ इन सब की क्या स्थिति है।  ध्यान दें कि अब दीपक और पर्णकुटी से काम नहीं चलेगा।  जैसा यहाँ जीते रहे वैसा ही वहाँ मिले तो ठीक रहेगा।  

वहाँ वाहन-व्यवस्था की जानकारी दें।  यहाँ अब हवाई-यात्रा और रेल में एसी की आदत पड़ गयी।  अब रथयात्रा बर्दाश्त नहीं होगी।  स्लिप- डिस्क का मरीज़ हूँ,रथयात्रा बहुत भारी पड़ेगी।  उम्मीद करता हूँ कि वहाँ पुष्पक विमान सब को मुहैया होंगे।  

एक और धड़का चाय को लेकर लगा है।  पता नहीं वहाँ चाय मिलेगी या नहीं।  यहाँ तो सबेरे बिना चाय के ठीक से आँख नहीं खुलती।  वहाँ चाय न मिली तो भारी दिक्कत हो जाएगी।  

प्रभुजी, यहाँ भाई-भतीजावाद और ‘दस्तूरी’ का खुला खेल चलता है।  बिना दस्तूरी दिये कोई काम नहीं होता।  जितना बड़ा अफसर, उतनी बड़ी दस्तूरी।  सब प्रेम से बाँटकर खाते हैं।  आशा है वहाँ यह सब नहीं होगा।  कहीं ऐसा न हो कि पापियों को स्वर्ग और पुण्यवानों को नर्क भेज दिया जाए।  पापी लोग इसमें जुगाड़ लगाने की कोशिश ज़रूर करेंगे।  

यहाँ इमारतों, सड़कों और पुलों की हालत खराब है।  उद्घाटन से पहले ही टूट जाते हैं और अपने साथ आदमियों को भी ले जाते हैं।  आशा है वहाँ सड़कें और इमारतें मज़बूत होंगीं।  ऐसा तो नहीं कि यहाँ से गये ठेकेदारों ने वहाँ भी ठेके हथया लिये हों।  

प्रभुजी, यहाँ के नेता सब लबार हो गये हैं।  आँख के सामने काले को सफेद और सफेद को काला बताते हैं।  आशा है वहाँ ऐसा झूठ और प्रपंच नहीं होगा।   दूसरी बात यह कि यहाँ ताकतवर लोग जेल में अपनी एवज में दूसरे लोगों को भेज देते हैं।  अतः कृपया वहाँ भी जाँच करा लें कि नर्क में कुछ सीधे-सादे ‘एवजी वाले’ तो नहीं बैठे हैं।  

यहाँ जाति और धर्म का बड़ा झगड़ा है।  रोज जाति और धर्म के नाम पर लोग एक दूसरे की कपाल-क्रिया करते हैं।  अतः यह जानने की इच्छा होती है कि क्या अलग अलग धर्मों के ईश्वर भी आपस में झगड़ते हैं?वहाँ जातिप्रथा से छुटकारा मिलेगा या वहाँ भी ऊँचनीच चलेगा?

एक बात जो समझ में नहीं आती वह यह कि अलग अलग धर्म वालों को अपने अपने स्वर्ग में अपने अपने ईश्वर ही क्यों दिखायी पड़ते हैं?क्या अलग अलग धर्मों के अलग अलग स्वर्ग और नरक हैं?ये बातें सोचते सोचते मूड़ पिराने लगता है, लेकिन कहीं से कोई संतोषजनक समाधान नहीं मिलता।  

इन शंकाओं का समाधान हो जाए तो थोड़ा इत्मीनान से आपके लोक आ सकूँगा।  अब कलियुग में आप प्रकट तो होते नहीं, इसलिए मेरे सपने में आकर मेरे प्रश्नों का उत्तर दीजिएगा।  मेरे सपने में आना ओ प्रभु जी,मेरे सपने में आना जी।  (तर्ज- मेरे सपने में आना रे सजना, फिल्म राजहठ)।  आप आना ठीक न समझें तो किसी समझदार प्रतिनिधि को भेज दीजिएगा।  

चलते चलते एक प्रार्थना और।  हम यहाँ दिन भर टीवी से चिपके रहते हैं।  कभी कभी सिनेमा थिएटर भी चले जाते हैं।  टाइम कट जाता है।  वहाँ समय काटने के हिसाब से मनोरंजन के कौन से साधन हैं यह जानकारी देना न भूलिएगा।  यह बता दूँ कि यहाँ अब क्लासिकल मुसीकी और क्लासिकल डांस कोई पसन्द नहीं करता।  इसलिए नये ज़माने के हिसाब से मनोरंजन के साधन हों तभी वहाँ मन लगेगा।  बाकी आपका भजन-पूजन तो जितना बनेगा उतना करेंगे ही।  

आपका भक्त

अनोखेलाल

साकिन जम्बूद्वीप

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #5 – व्यंग्य निबंध – व्यंग्य क्या कविता का गद्य स्वरुप हैं? चिंताएं/निराकरण ☆ श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी  के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में  ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ियां सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन  देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।  

आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की अगली कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य निबंध – व्यंग्य क्या कविता का गद्य स्वरुप हैं? चिंताएं/निराकरण

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #5 – व्यंग्य निबंध – व्यंग्य क्या कविता का गद्य स्वरुप हैं? चिंताएं/निराकरण ☆ श्री रमेश सैनी ☆ 

[प्रत्येक व्यंग्य रचना में वर्णित विचार व्यंग्यकार के व्यक्तिगत विचार होते हैं।  हमारा प्रबुद्ध  पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ]

व्यंग्य एक मानवीय प्रक्रिया है. जो संवेदना के आधार पर प्रतिक्रिया व्यक्त करती है. यह शुरूआत से ही मानवीय जीवन का अंग रही है. जब भी, जहाँ भी प्रकृति के विपरीत, नियम के विरुद्ध दिखता है. व्यंग्य समाज और मानवीय जीवन में प्रतिरोध कर दे देता है व्यंग्य  से आप सामने वाले को सजग ,सतर्क और सक्रिय कर सकते है.प्राचीन भारत में धर्म ही चेतना का मूल तत्व था.धर्म के आसपास ही राजतंत्र और अन्य व्यवस्था घूमती थी जबकि उस तंत्र में भी अनेक विकृतियां रहती हैं पर अथाह शक्ति के कारण विरोध के स्वर दब जाते थे, आज भी उसका प्रभाव कम नहीं हुआ है.उस समय भी विरोध के स्वर में जन सामान्य को सचेत करने की भावना उद्दीप्त रही हैं, पर आज इसके मध्यवर्गीय रुप में परिवर्तन जरूर आया है. पूर्व  में धर्मांधता राजशाही सामांतवादी प्रवृत्तियां विकृतियां ही व्यंग्य के केंद्र में थी. भारतीय महाद्वीप में साहित्य का माध्यम पद्य था. सभी रचनाएं पद्य में रची जाती थी. व्यंग्य की बुनावट का ताना बाना का माध्यम भी कविता था. सामाजिक विसंगतियों, विडंबनाओं  विकृतियों, कुरीतियों की चर्चा सदा कविता, छंद में की जाती रहीं हैं. इस लिए हमारी भारतीय संस्कृति में जितने भी ग्रंथ मिलते हैं, वे सभी पद्य में मिलते हैं. हमारे आदि ग्रंथ वेद, पुराण, उपवेद, रामायण, रामचरित मानस सभी पद्य में हैं. तब गद्य के स्वरुप का विकास नहीं हुआ था, पद्य ही संचार का माध्यम था .तब भी कवियों के द्वारा सामाजिक विसंगतियों और विकृतियों को सफलता पूर्वक पद्य में उदघाटित किया जााता रहा हैं. इस सब में कबीर का सबसे बढ़िया उदाहरण है, कबीर ने अपने उस समय में समाज में व्याप्त कुरीतियों, विसंगतियों, धर्मांधता कठमुल्लापन को अपनी कविताओं में विषय बनाया, शायद कबीर के पहले, व्यंग्य का सार्थक उपयोग किसी अन्य कवि ने नहीं किया है, यदि किया भी है, इतनी प्रचुर मात्रा में तीखे तेवर के साथ और प्र्भावी ढंग से नहीं किया है. वे जन जन के मनोमस्तिष्क में अंदर तक धसे है. वे सबको आव्हान करते हुए कहते हैं

कबिरा खड़ा बाजार में, लिये लुकाटी हाथ।

जो घर फूंके आपना, चले  हमारे  साथ।।

अस्पृश्यता और धर्मांडम्बर पर कबीर तल्ख ढंग से कहते हैं

एक बूंद एकै मल-मूतर, एक वाम एक गूदा ।

एक जोतिथै सब उत्पन्ना, को बामन को सूदा ।।

कविता में व्यंग्य का तैवर आज भी नहीं बदला है आधुनिक कवियों ने भी कबीर की तई कविता में व्यंग्य को अपना हथियार बनाया. नारायण सुर्वे की कविता ‘दस्तावेज’का अंश है-

लेकिन क्या कोई बताएगा

             इस सदी में चांद महंगा हुआ था ?

कलकत्ते की सड़कों पर घोड़ा बन कर

              मेरी आत्मा बग्घी खींच रही थी ?

लेकिन इतना काफी है; हमें भी बदल लेने होंगे अब धुंधलाएं चश्मे

हम भी इस सदी में पैदा हुए; हमारा भी पूरा करना होगा हिसाब-किताब

इसी तरह मुक्तिबोध की एक चर्चित कविता है

          मकानों की पीठ पर ।

          अहातों की भीत पर ।

          बरगद की अजगरी डालों के फन्दों पर ।

          अंधेरे के कन्धों पर  ।

          चिपकाता कौन है ? चिपकाता कौन है ?

            हड़ताली पोस्टर……..।’

इसी तरह धर्मांधों पर कवि कुमार विकल की तीखी कविता

             मजहब एक भद्र गोली है

             जो हर धर्मग्रंथ में पाकीजगी के नकाबों में

             छिपी रहती है

             और कभी आरती

             कभी कलमा

             कभी अरदास बनकर

             आम आदमी की प्रतिज्ञाओं में

             घुसपैठ कर जाती है

             ताकि वह इस दुनिया को और गालियां

             बुदबुदाते हुए

             एक नर्कनुमा जिंदगी में रीत जाए ।

व्यंग्य में कविता का स्वतंत्र अस्तित्व रहा है चाहे प्राचीन हिंदी साहित्य हो या आधुनिक हिंदी साहित्य. स्वतंत्रता के बाद प्रमुखतः काका हाथरसी माणिक वर्मा, निर्भय हाथरसी, हुल्लड़ मुरादाबादी का स्मरण किया जाता है. ये सब मूलतः मंचीय कवि थे. इन्होंने सदा मंच के साथ ही साहित्य का भी सम्मान रखा. काका हाथरसी, और हुल्लड़ मुरादाबादी की रचनाओं में हास्य का पुट अधिकता से था. पर माणिक वर्मा की कविता का स्वर व्यंग्य का रहा है. अतः यह कहना ठीक नहीं है या जल्दबाजी होगी कि व्यंग्य, कविता का गद्य स्वरुप है. व्यंग्य का गद्य रुप काफी समय के बाद आया है आधुनिक काल के आरंभ में रुढ़िवादिता के साथ साथ आधुनिकता का मोहपाश भी अपने पैर पसार चुका था. समाज में व्याप्त विद्रूपता की वजह से व्यंंग्य के पोषक तत्वों के कारण व्यंग्यकारों को फलने फूलने का पूरा पूरा अवसर मिला. स्वतंत्रता के पूर्व भारतेंदु हरिश्चंद्र प्रतापनारायण मिश्र और बालमुकुद गुप्त और उनके समकालीनों ने थोक में व्यंग्य लिखना शुरू किया, वह भी गद्य में. जिन्हें अखबारों में जगह मिली, पाठकों ने खुले मन से स्वीकार किया. उन रचनाओं का केंद्र बिंदु अंग्रेजी शासन की नीतियां और समाज में व्याप्त कुरीतियां, बुराइयां थीं. उस लेखन की नयी शैली थी. अन्यथा यह सब काम कवि और कविता ही करते थे. स्वतंत्रता आंदोलन के उत्तरार्ध हरिशंकर परसाई ने लिखना शुरू किया. पहले उन्होंने कहानियां लिखीं. पर उससे उन्हें संतोष नहीं मिला .फिर उन्होंने लेख लिखे. पाठकों की प्रतिक्रिया प्रोत्साहन करने वाली थीं, पाठक और पत्रिकाओं को उनके लेखों में राजनैतिक और सामाजिक चेतना की चिंगारी की रश्मि दिखी. एक नया तैवर, एक नयी शैली, शब्दों के नये अर्थ दिखे. बस यहीं से व्यंंग्य में गद्य की स्थापना का समय आरंभ हो गया. परसाई जी ने अकाल उत्सव, मातादीन चांद पर, हम बिहार से चुनाव लड़ रहे है. वैष्णव की फिसलन, विकलांग श्रद्धा का दौर आदि सैकड़ों रचनाओं से साहित्य समाज में हलचल मचा दी थी. हिंदी व्यंग्य के बारे में हरिशंकर परसाई का मानना था, ‘सही व्यंग्य व्यापक परिवेश को समझने से आता है ।व्यापक सामाजिक, आर्थिक राजनैतिक परिवेश की विसंगति, मिथ्याचार, असामंजस्य, अन्याय, आदि की तह में जाना,कारणों का विश्लेषण करना, उन्हें सही परिप्रेक्ष्य मे देखना, इससे सही व्यंंग्य बनता है, जरूरी नहीं, कि व्यंग्य मे हंसी आए. यदि व्यंग्य चेतना को झकझोर देता है।विद्रूप को सामने खड़ा कर देता है आत्म साझात्कार कराता है, सोचने को बाध्य करता है. व्यवस्था की सड़ांध को इंगित करता है. और परिवर्तन की ओर प्रेरित करता है., तो वह सफल व्यंग्य है. जितना व्यापक परिवेश होगा, जितनी गहरी विसंगति होगी और जितनी तिलमिला देने वाली अभिव्यक्ति होगी, व्यंग्य उतना ही सार्थक होगा.उपरोक्त विचार के साथ ही व्यंग्य के गद्य स्वरूप को मजबूत धरातल मिला, गद्य में व्यंग्य के फैलाव का प्रमुख कारण यह है कि जीवन की आपाधापी की कठिन परिस्थितियों के समय, समाज में फैली विद्रूपता, विसंगति,विडम्बना, भ्रष्टाचार, अंधविश्वास, विकृत सामाजिक रुढ़ियां, बुराईयां, विकृत प्रवृतियां,  ठकुरसुहाती, संवेदनहीनता, स्वार्थलोलुपता, आदि को लेखक निर्भीक खुलकर पाठक के सामने लाता है. पाठक यह सब अपने आसपास देखता है. और उसे अपनी ही लगती है. जिससे वह रोज जूझता है. उसे लगता है. किसी को उसकी समस्या से चिंता है. रचना में उसे अपनी मौजूदगी दिखती है. इससे व्यंंग्य  को पसंद करता है. और पसंद  करता है व्यंग्य के गद्य फार्म को. क्योंकि उसे इस फार्म में पढ़ने और समझने में आसानी होती है.समय को व्यंंग्य ने पहचानाा,और पाठक ने व्यंग्य को हाथों हाथ लियाा. उस समय परसाई के साथ साथ व्यंग्य को केंद्र में रख कर सामाजिक राजनीतिक, विकृतियों को उघाड़ने का काम शरद जोशी, रवीन्द्रनाथ त्यागी, नरेन्द्र कोहली, श्रीलाल शुक्ल, के पी सक्सेना, सूर्यबाला, शंकर पुण्ताम्बेकर, लतीफ घोंघी, अजातशत्रु लक्ष्मीकांत वैष्णव, श्रीबाल पाण्डेय आदि ने बखूबी किया. और व्यंग्य को गद्य के स्वरुप में स्थापित किया और व्यंग्य  कविता के साथ साथ गद्य के अस्तित्व के में आ चुका था.इसके बाद व्यंग्य के इस रुप ने पाठक और लेखकों को आकर्षित किया . आज गद्य मे व्यंग्य का स्वरुप अधिक मुखर है, और पद्य में अलग उपस्थिति दर्ज करा है. ऐसा कहना ठीक नहीं होगा. कि व्यंग्य कविता का गद्य रूप है. पहले साहित्य और विचार का माध्यम ही कविता था, परअब स्थिति बदल चुकी है. आज व्यंग्य गद्य और पद्य दोनों में स्वतंत्र रूप से प्रभावी है वे एक दूसरे पर अवलम्बित नहीं है.

© श्री रमेश सैनी 

सम्पर्क  : 245/ए, एफ.सी.आई. लाइन, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर, मध्य प्रदेश – 482 002

मोबा. 8319856044  9825866402

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 104 ☆ डर ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है भाई – भाई और पिता के संबंधों पर आधारित एक विचारणीय  व्यंग्य ‘डर).   

☆ व्यंग्य # 104 ☆ डर ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

ट्रेन फुल स्पीड से भाग रही है।

– कहां जा रहे हैं?

– प्रयागराज… अस्थि विसर्जन के लिए।

थोड़ी देर में दोनों भाई खर्चे के तनाव में लड़ पड़े। 

हमने समझाया- देखो भाई, जमाना बदल गया है, रिश्तों का स्वाद हर रोज बदलता है; कभी मीठा, कभी नमकीन कभी खारा…

– पिता के अस्थि विसर्जन के लिए जा रहे हो तो छोटी-छोटी बातों में लड़ना नहीं चाहिए।

– आपका कहना सही है, पर ये छोटा भाई नहीं समझता ,जब पिताजी जिंदा रहे तब उनसे बात बात में खुचड़ करता था।

– हमें एक मुहावरा याद आ गया, ‘जियत बाप से दंगमदंगा, मरे हाड़ पहुंचावे गंगा….  

– छोटा भाई बोला… हम इनसे कहे थे कि बबुआ के हाड़ गांव की नदिया मे सिरा देओ, खर्चा बचेगा।

– काहे झूठ बोलते हो छोटे भाई… तुम्हीं ने तो कहा था कि बबुआ की हड्डी गंगा-जमुना संगम में डालने से हड्डी पानी में जल्दी घुल जाएगी, नहीं तो हड्डी कोई वैज्ञानिक के हाथ पड़  जाएगी तो बाप की हड्डी से फिर वही बाप बनाकर खड़ा कर देगा, तो और मुश्किल हो जाएगी।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #107 ☆ व्यंग्य – ‘एक सपूत का कपूत हो जाना’ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  एक सपूत का कपूत हो जाना। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 107 ☆

☆ व्यंग्य – ‘एक सपूत का कपूत हो जाना’

गप्पू लाल पप्पू लाल के सुपुत्र हैं। बाप की नज़र में गप्पू लाल सुपुत्र होने के साथ साथ ‘सपूत’ भी हैं क्योंकि वे घर के बाहर भले ही साँड़ की तरह सींग घुमाते हों, घर में गऊ बन कर रहते हैं। बाप के सामने इतने विनम्र और आज्ञाकारी बन जाते हैं कि बाप कुछ पूछते हैं तो इस तरह मिनमिनाकर जवाब देते हैं कि शब्द कान तक नहीं पहुँचते। कई बार बाप गुस्सा हो जाते हैं। कहते हैं, ‘क्या बकरी की तरह मिमियाता है। साफ साफ बोल।’ गप्पू लाल और ज़्यादा सिकुड़ जाते हैं। पुत्र की इस आज्ञाकारिता को देखकर पप्पू लाल गद्गद हो जाते हैं।

गप्पू लाल अपने लिए रूमाल भी नहीं ख़रीदते। चड्डी बनयाइन भी पिताजी ही ख़रीदते हैं। कपड़े-जूते जो बाप पसन्द कर लेते हैं, स्वीकार कर लेते हैं। बाप की अनुमति के बिना कहीं नहीं जाते। जहाँ के लिए बाप मना कर देते हैं, वहाँ नहीं जाते। जिस लड़के या लड़की को बाप दोस्ती के लायक नहीं समझते, उससे दोस्ती नहीं करते। अगर दोस्ती हो गयी तो उसे कभी घर नहीं बुलाते।

पप्पू लाल बड़े  किसान हैं। काफी ज़मीन है। आटा-चक्की और तेल-मिल है। गप्पू उनके इकलौते पुत्र हैं। तीन बेटियाँ शादी करके विदा हो चुकी हैं। गप्पू लाल तीस पैंतीस किलोमीटर दूर शहर में बी.ए. पढ़ रहे हैं। पढ़ने में सामान्य हैं लेकिन ज़्यादा पढ़ कर करना भी क्या है?

बाप की छत्रछाया में पल कर गप्पू लाल सयाने हो गये। ओठों पर मूँछों की रेख उभर आयी। बाप की नज़र में वे शादी के काबिल हो गये। पैसे वाली पार्टियाँ बाप को घेरने लगीं। जो सीधे गप्पू लाल तक पहुँचते उनसे गप्पू शर्मा कर कह देते, ‘बाबूजी जानें। हम क्या बतायें।’

पप्पू लाल ने एक दो जगह दहेज की अच्छी संभावनाओं को समझते हुए लड़की को देखने की सोची। पत्नी से बोले, ‘गप्पू तो अभी नालायक है। वह क्या लड़की देखेगा। हम तुम चल कर देख लेते हैं।’ गप्पू ने सुना तो मिनमिनाकर रह गये।

पप्पू लाल पत्नी को लेकर गये और दो तीन जगह देखकर एक जगह लड़की पसन्द कर आये। गप्पू लाल फोटो देखकर संतुष्ट हो गये। कॉलेज के दोस्तों को दिखाया। हर वक्त तकिये के नीचे रखे रहते थे।

शादी धूमधाम से हो गयी। पप्पू लाल बहू के साथ पर्याप्त माल-पानी लेकर लौटे। गप्पू लाल बीवी पाकर मगन हो गये। लेकिन बाप से उनका सुख नहीं देखा गया। एक दिन कुपित होकर बोले, ‘हो गयी शादी वादी। अब वापस कालेज जाकर पढ़ लिख। दिन रात बहू के पास घुसा रहता है। बेशरम कहीं का।’

गप्पू लाल गाँव से शहर खदेड़ दिये गये।  उनके ताजे ताजे बसे सुख के संसार में नेनुआँ लग गया। अब कॉलेज में पढ़ने में मन नहीं लगता था। किताब के हर पन्ने पर प्रिया का मुख बैठ गया था।

एक दिन कॉलेज में दो दिन की छुट्टी घोषित हो गयी। गप्पू लाल घर पहुँचने का बहाना ढूँढ़ रहे थे। सिर पर पैर रखकर भागे। दुर्भाग्य से एक दिन पहले हुई तेज़ बारिश के कारण शहर और गाँव के बीच के नाले में पूर आ गया था। रास्ता बन्द था। गप्पू ने एक मल्लाह के हाथ जोड़े और उसकी डोंगी पर बैठकर नाले की उत्ताल तरंगों पर उठते गिरते तुलसीदास की तरह आधी रात को घर पहुँचे। विरह-व्यथा में वे उस दिन जान पर खेल गये। घर पहुँचकर दरवाज़ा खटखटाया तो नींद में पड़े ख़लल से कुपित पिताजी ने दरवाज़ा खोला। दरवाज़े पर पुत्र को देखकर उन्होंने डपट कर पूछा, ‘इस वक्त कहाँ से आया है?’ गप्पू लाल मिनमिनाकर चुप हो गये।

पिताजी बोले, ‘अब आधी रात को सारे घर को जगाएगा। यहीं सोजा।’ उन्होंने गप्पू को अपने पास सुला लिया। गप्पू मन मसोसकर रह गये।

सबेरे पिताजी ने नाश्ता-पानी के बाद फिर शहर खदेड़ दिया। बोले, ‘तेरी अनोखी शादी हुई है क्या?बीवी के बिना नहीं रहा जाता?आगे इस तरह आया तो दरवाजे से ही भगा दूँगा।’

गप्पू लाल भारी मन से बैरंग वापस हो गये।

बहू डेढ़ दो महीने रहकर मायके विदा हो गयी। पप्पू लाल अब उसे दुबारा जल्दी नहीं बुलाना चाहते थे। वजह यह थी कि समधी साहब ने दहेज में एक ट्रैक्टर देने का वादा किया था जो अभी तक पूरा नहीं हुआ था। समधी साहब ने कहा था कि नंबर लगा है, जल्दी आ जाएगा। पप्पू लाल को डर था कि कहीं धोखाधड़ी न हो जाए, इसलिए वे चाहते थे कि अब बहू ट्रैक्टर के पीछे पीछे ही आये।

बहू को गये तीन चार महीने हो गये। समधी साहब बार बार विदा के बारे में पूछते। पप्पू लाल जवाब देते कि अभी मुहूर्त नहीं है। फिर यह भी पूछ लेते कि ट्रैक्टर कब तक मिलने की उम्मीद है। समधी साहब बात को समझ रहे थे, लेकिन मजबूर थे।

एक दिन समधी साहब का पत्र आया। पप्पू लाल पढ़कर आसमान से गिरे। समधी साहब ने लिखा था, ‘कुँवर साहब आये। चार दिन रहे। बहुत अच्छा लगा। इसी प्रकार आना जाना बना रहे।’

पप्पू लाल दो क्षण तो हतबुद्धि बैठे रहे, फिर गुस्से में फनफनाकर पत्नी से बोले, ‘यह देखो। यह जोरू का हमें बिना बताये ससुराल पहुँच गया। लिखा है कुँवर साहब आये थे। यह नालायक कुँवर नहीं, सुअर है।’

गुस्से में पागल शहर दौड़े गये। गप्पू की पेशी हुई—‘क्यों रे कुलबोरन!हमें बिना बताये ससुराल पहुँच गया?कुछ शर्म हया बाकी है या नहीं?’

गप्पू लाल ने मिनमिनाकर जो बताया उसका मतलब यह निकला कि वह तो घूमने बाँदकपुर गया था। वहाँ से ससुराल पास था, सोचा कुछ देर के लिए हो लें।

पप्पू लाल बोले, ‘हमें पढ़ाता है!कहाँ बाँदकपुर और कहाँ ससुराल। कुछ देर के लिए गये और चार दिन पड़े रहे। आगे हमसे बिना बताये गया तो हमसे बुरा कोई न होगा।’

आज्ञाकारी पुत्र ने सिर झुका लिया। डेढ़ दो महीने फिर बीत गये। पप्पू लाल बिना ट्रैक्टर हथियाये बहू को नहीं लाना चाहते थे। एक बार बाजी हाथ से गयी तो गयी। बेटे से इस मामले में सहयोग की कोई उम्मीद नहीं थी। अभी से बहू के लिए दीवाना हो रहा था।

फिर एक पत्र आ टपका। मज़मून वही कि कुँवर साहब फिर आये, बहुत अच्छा लगा। पन्द्रह दिन से टिके हैं। अभी कुछ दिन और रहेंगे। इसी तरह मेलजोल बना रहे।

पप्पू लाल माथा पकड़ कर बैठ गये। यह लड़का कंट्रोल में नहीं है। ऐसे ससुराल की तरफ भाग रहा है जैसे दुनिया में सिर्फ इसी की शादी हुई हो।

पत्नी से बोले, ‘इस लौंडे ने तो नाक कटा दी। उधर वाले क्या सोचते होंगे। लगता है घरजमाई बन कर बैठ जाएगा।’

पत्नी ने सलाह दी, ‘भलाई इसी में है कि लालच छोड़कर बहू को बुला लो। इकलौता लड़का है। हाथ से निकल गया तो बुढ़ापे में कौन सहारा देगा?’
पप्पू लाल ने सुनकर अनसुनी कर दी।

पन्द्रह दिन बाद फिर पत्र आया। लिखा था—‘कुँवर साहब बेटी अंजना को विदा कराके ले गये हैं। कह रहे थे कि आपसे पूछ लिया है। सकुशल पहुँच गये होंगे। कुशल समाचार दें।’

पप्पू लाल बदहवास शहर भागे। शाम को थके हारे, उदास लौटे। पत्नी को बताया, ‘उस बेशरम ने पहले ही एक किराये का मकान ले लिया था। हमें बताया नहीं था। तीन चार दिन में आएगा। बिलकुल ढीठ हो गया है। उसकी हिम्मत तो देखो।’

फिर समधी साहब को पत्र लिखा—

‘परमप्रिय समधी साहब, आपका पत्र मिला। चि.गप्पू लाल और बहू सकुशल पहुँच गये हैं। चिन्ता की कोई बात नहीं।
ट्रैक्टर मिलते ही खबर करें। खबर मिलते ही मैं यहाँ से ड्राइवर भेज दूँगा। आप पर पूरा भरोसा है। अपने वचन की रक्षा करें ताकि हमारे संबंध और गाढ़े हों।

                                    आपका समधी,

                                      पप्पू लाल’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #4 – 21वीं सदी का व्यंग्य : दिशा और दशा ☆ श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी  के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में  ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ियां सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन  देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।  

आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की अगली कड़ी में आलेख ‘21वीं सदी का व्यंग्य : दिशा और दशा

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #4 – 21वीं सदी का व्यंग्य : दिशा और दशा ☆ श्री रमेश सैनी ☆ 

[प्रत्येक व्यंग्य रचना में वर्णित विचार व्यंग्यकार के व्यक्तिगत विचार होते हैं।  हमारा प्रबुद्ध  पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ]

व्यंग्य लेखन हड़बड़ी का नहीं, जिम्मेदारी का है – रमेश सैनी

 21वीं सदी के व्यंग्य पर बात करने के लिए हमें  बीसवीं सदी के व्यंग्य के परिदृश्य  को आधार बनाना पड़ेगा .तब हम 21वीं सदी में अब तक के परिदृश्य  और भविष्य के व्यंग्य की संभावना पर बात कर सकते हैं.क्योंकि अभी 21वीं सदी के दो ही दशक गुजरे हैं। और उसमें मुकम्मल बात नहीं हो सकती है.हां उसकी संभावना पर हम अब तक हुए लेखन पर बात कर सकते हैं.भारतीय जीवन दर्शन और परंपरा आशावादी दृष्टिकोण ले लेकर आगे बढ़ती है. हमारे जीवन में निराशा का भाव बहुत कम होता है. हमारे जीवन या समाज के सामने दुर्दिन, कष्ट, दुख आएं पर हम उन से विमुख नहीं होते हैं. हम उनका सामना करते हैं. वरन उन दिनों की दशा पर एक ही सकारात्मक दृष्टिकोण तय कर लेते हैं. कि यह सब कुछ पहले से ही नियति ने तय कर रखा था. जब नियति द्वारा सब कुछ तय है. तब घबड़ाना क्यों ?फिर विश्वास करते हैं कि ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’. इस विश्वास के सहारे हमारे जीवन और समाज में संघर्षों के दिनों में उर्जा बढ़ जाती है. इस काल में हमारा जीवन  अर्निभाव से सहज, सरल, सतत गति से चलता रहता है.

भारतीय साहित्य और राजनीति में जब काल के हिसाब से गणना करते हैं. तब स्वभाव या प्राकृतिक रूप से दो कालखंड हमारे सामने दृष्टिगत होते हैं .पहला काल खंड स्वतंत्रता के पहले अर्थात 1947 के पूर्व और दूसरा काल खण्ड स्वतंत्रता के बाद अर्थात 1947 के बाद का. इन दोनों की अपनी विशेषता है. पहला कालखंड नवजागरण संघर्ष और अपनी भारतीयता को बचाने का था. अपनी मुक्ति का संघर्ष का समय था. जिसमें समाज के प्रत्येक वर्ग का सहयोग और योगदान था. जिसमें जीवन और समाज में व्याप्त विसंगतियां विडम्बनाएं हमारे समक्ष अमूर्त रूप में थी. उस समय हमारे समक्ष स्पष्ट लक्ष्य था. अंग्रेजी शासन से मुक्ति. मुक्ति संघर्ष के समय में  भी समाज बहुत सारी मे विसंगतियां विडम्बनाएं जैसे जात-पात, छुआछूत अंधविश्वास, जमीदारी प्रथा, आदि समाज में घुन की भांति थी.पर सब मुक्ति संघर्ष के सामने सामाजिक चेतना से बाहर थी  इसी कारण उस समय के परिदृश्य में लेखन के केन्द्र में सिर्फ राष्ट्रवाद था।उस समय का अधिकांश व्यंग्य राजनीति और तत्कालीन विदेशी सत्ता के विरोध में था. इन व्यंग्य  का असर सत्ता पर उस वक्त आसानी से अनुभव किया जा सकता था.

स्वतंत्रता के बाद भारतीय साहित्य में आमूल परिवर्तन देखा जा सकता है. भारतीय जनमानस का ध्यान समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, पाखंडवाद, ठकुरसुहाती, नौकरशाही, अवसरवादी, बेरोजगारी, अकाल, गिरते नैतिक मूल्य, धार्मिक कट्टरता,अंधविश्वास आदि विद्रूपताएं विडंबनाएं विसंगतियां ,बुराइयां आदि दिखने लगी थी ,जबकि यह पहले से व्याप्त थी. पर इसे पूर्व में अनदेखा किया गया. इन  विसंगतियों को उस वक्त के व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई शरद जोशी रवीन्द्रनाथ त्यागी,आदि व्यंग्यकारों ने निर्डरता से समाज के सामने उजागर किया. सामाजिक और मानवीय सरोकारों के प्रति प्रतिबद्ध लेखन से एक नया शिल्प आया और इन लेखकों को व्यंग्यकारों के रुप में पहचाना गया. इन व्यंग्य लेखों के माध्यम से साहित्य में इन लेखकों को व्यंग्यकारों की रूप में स्वीकार्यता मिली. इसमें भी कोई संदेह नहीं है. उस समय केवल व्यंग्यकारों ने मानवीय सरोकारों, संवेदना के साथ अपनी लेखक की  जिम्मेदारी का ईमानदारी से निर्वाह किया था .यह बात रेखांकित करने की बात है इन व्यंग्यकारों की एक लंबी फेहरिस्त है जो अपनी सामाजिक मानवीय सरोकारों और संवेदना के साथ समाज और जीवन के प्रति प्रतिबद्ध रहे.

21वीं सदी के आरंभ में भी सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियां  लगभग बीसवीं सदी के समान है इसमें कोई खास बदलाव नहीं हुआ है. समाज में आज भी गरीबी, भूख, अकाल, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संकट, भ्रष्टाचार, अपहरण ,बलात्कार, उपभोक्तावाद आतंकवाद आदि ने उन सभी विसंगतियों का विस्तार किया है, पर बीसवीं सदी के उत्तरार्ध के लेखकों ने 21वीं सदी में भी इन विसंगतियों को अपनी दृष्टि से ओझल नहीं होने दिया.पर नई पीढ़ी विशेषकर 21वीं सदी के आरंभ की पीढ़ी जिन्होंने कुछ वर्षों पहले लेखन अपना आरंभ किया है.उनकी दृष्टि में ये विसंगतियां और बुराईयां गौड़ थी. पर उपरोक्त बुराईयों के साथ-साथ भारतीय जीवन और समाज में के परिदृश्य में धीरे-धीरे बहुत बदलाव दिख रहा था. जिसे हम महसूस कर सकते थे. राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य में धीरे-धीरे परिवर्तन हो रहा था. शिक्षा और स्वास्थ्य में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ.लोगों की जीवन शैली बदल गई.संयुक्त परिवार टूट कर एकल हो गए . इंटरनेट, बेबसाइट, फेसबुक आदि सोशल मीडिया ने सूचना माध्यम को सहज बना दिया.यह हमारी सामाजिक संरचना में प्रवेश कर गया. तकनीकी क्रांति ने लोगों की सोचने समझने की क्षमता को प्रभावित किया. इस तकनीकी प्रभाव ने लोगों को तकनीक का पराधीन बना दिया. इंटरनेट, वेबसाइट, सर्च इंजन सूचना के महत्वपूर्ण स्त्रोत हो गए.इसका प्रभाव लेखकों पर भी पड़ा. इस कारण लेखक धीरे-धीरे बाहर की दुनिया से अलग होने लगा.और वह मानवीय संवेदनाएं, सरोकार, आर्थिक,सामाजिक, राजनैतिक विसंगतियां  लेखन के विषय छूटने लगे वैश्वीकरण, निजीकरण, बाजारवाद, के मायावी संसार में  लेखक भी फंस कर रह गया. इस सदी के प्रारंभ की रचना देखें .तो आप खुद अनुभव करेंगे कि रचनाओं के विषय बदल गए हैं.मानवीय सामाजिक राजनैतिक विसंगतियों से बचकर लिखने लगा है.उसमें उसका अपना गुणा भाग रहता है.वह रचनाओं के माध्यम से अपना नफा नुकसान का बहीखाता रखता है.आज का व्यंग्यकार  बहुत डरा हुआ है.वह बहुत संभलकर और सावधानी से लिख रहा है.वह ऐसे विषय पर लिखता है. जिसका सामाजिक राजनैतिक और मानवीय सरोकारों से कोई संबंध नहीं रहता है.इसका सबसे बढ़िया उदाहरण है.पिछले दिनों बाजार में  प्याज बहुत महंगी हो गई .सभी शहरों में ₹150 से लेकर ₹200 तक बिकी. बहुत से लेखकों ने प्याज की महंगाई पर व्यंग्य लिखें. जबकि उस वक्त भी  बहुत सी ऐसी सामाजिक और राजनीतिक विसंगतियां थी .जिस पर लेखक मौन रहा है.उसने साहस नहीं दिखाया. शाहीनबाग था, ,किसान आत्महत्या कर रहे थे. लड़कियों पर बलात्कार हो रहे थे नेताओं द्वारा धार्मिक प्रपंच कर रहे थे,आदि. पर   इन पर व्यंग्यकारों के लेख नहीं आए.  क्योंकि इस पर लिखना एक रिस्क लेना था.चाहे वह रिस्क सत्ता से हो या समाज से.

मोबाइल, कंप्यूटर क्रांति ने सिर्फ मनुष्य को नहीं बदला है, वरन उसमें उपभोक्ता संस्कृति ने विस्तार में सहयोग कर मनुष्यता को ही बदल दिया है. इसका प्रभाव लेखन पर बहुत सरलता से देखा जा सकता है.जीवन और समाज में व्याप्त विसंगतियों को धीरे धीरे ढका जा रहा है.एक नयी आभासी दुनिया का सृजन किया जा रहा है. एक नए प्रकार का लेखन  सामने आ रहा है  जिसे हम यथार्थवाद  कह सकते हैं. इसके दुष्प्रभाव से साहित्य में यथार्थवाद की स्वीकार्यता बढ़ती जा रही है. यथार्थवाद ने हमारी वैचारिक शक्तियों को कमजोर सा कर दिया है,हमारी सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्यों को पीछे कर दिया है.उपभोक्ता संस्कृति से उपजे बाजारवाद ने इसमें आग में घी का काम किया है. इसके प्रमाण में एक ही बात कहना चाहता हूँ. इस समय के महत्वपूर्ण व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी भी बाजारवाद की शक्तिशाली भुजाओं से अपनों को नहीं बचा सके.विगत दिनों उनका उपन्यास “हम न मरब” में भारतीय ग्रामीण क्षेत्र की परंपरागत गालियों की भरमार थी. इसे हम सार्वजनिक, परिवार के साथ बैठकर पढ़ नहीं सकते  हैं.जबकि इन गालियों से बचा जा सकता था.इन गालियों ने उपन्यास का बाजार बना दिया. लोगों ने इस संबंध में उनसे पूछा, तब उनका उत्तर था-“जिस पृष्ठभूमि में यह उपन्यास लिखा गया, उस क्षेत्र का परिवेश और पात्र इसी भाषा (गालियों वाली) का उपयोग करते हैं.इसे हम परिवार के बीच में जोर से बोल कर नहीं पढ़ सकते हैं क्योंकि हमारी सामाजिक और पारिवारिक मर्यादा भी है. जिनको हमें बचाए रखना पड़ता है.यथार्थवादी लेखन ,कहीं नहीं कहीं हमारी मूल्यों को नीचे ले जा रहा है. इसी तरह  बाजार को  सामने रखकर  उन्होंने  मार्फत लेखन के बहाने  एक हमारे समय के महत्वपूर्ण और महान लेखक की छवि को यथार्थ वाद से धूमल करने  का प्रयास किया.अब प्रश्न उठता है  यथार्थवादी लेखन के माध्यम से आने वाली  पीढ़ी और 21वीं सदी को हम क्या परोस रहे हैं.यह चिंतनीय और विचारणीय है.

तकनीक और सूचना के विस्तार ने लेखकों को  पाठक  तक पहुंचने का रास्ता आसान कर दिया है अब लेखक को जो प्लाट क्लिक किया उसे फटाफट लिखा और हड़बड़ी में व्हाट्सएप या फेसबुक में डाल दिया .जबकि व्यंग्य हड़बड़ी का लेखन नहीं है वरन जिम्मेदारी का है. पर लेखक आत्ममुग्धता वह लाइक ,अच्छी ,बढ़िया, सहमत आदि टिप्पणियों का इंतजार करता है. फिर इन टिप्पणियों को देख लेखक गदगद हो जाता है. पर यहां पर उसका नुकसान भी हो रहा है क्योंकि यहाँ लेखक और पाठक के बीच का संपादक गायब है और  टिप्पणियाँ मुंह देखी होती है..लेखक में इतना संयम भी नहीं है.कि वह अपनी रचना का संपादन खुद कर सकें. इन माध्यमों से लेखक आत्ममुग्धता का शिकार हो रहा है.इससे व्यंग्य की गुणवत्ता पर सवाल उठने लगे हैं. यह लेखक और व्यंग्य के लिए चिंता का विषय है.

आज व्यंग्य बहुतायत से लिखा जा रहा है अखबारों पत्रिका में व्यंग्य स्तंभ जरूरी हो गया है पर उन्होंने पर कतर दिए है. अखबार और पत्रिकाओं ने लेखों को शब्द सीमा तक सीमित कर दिया .एक तरह  व्यंग्य का बोनसाई बना दिया है. जो सुंदर और आकर्षक होते हैं. पर उनमें से उनकी आत्मा सुगंध और स्वाद गायब है.पर लेखक छपास के मोह में अपनी आत्मा से समझौता कर रहा है.अब तो वन लाइनर व्यंग्य का इंतजार हो रहा है.

इन सबके बावजूद व्यंग्य की उपरोक्त विसंगतियों के समांतर समाज में व्याप्त विसंगतियों प्रकृति और प्रवृत्तियों पर भी व्यंग्यकारों की दृष्टि है. और वे विसंगतियों को केंद्र में रख कर अपने लेखकीय दायित्व का निर्वाह कर रहे हैं. अभी 21वीं सदी सदी का मात्र दो दशक बीता है. इस समय में  21वीं सदी का पूरी तरह मूल्यांकन नहीं कर सकतेहैं. जो बीत गया है. वह भी पूरा 21वी सदी का सच नहीं है हां 21वीं सदी तकनीक के माध्यम से आगे बढ़ रही है और व्यंग्यकार की दृष्टि सब पर बराबर है.जोकि व्यंग्य के लिए आवश्यक है.  अभी समय पहले ही व्यंग्ययात्रा के संपादक वरिष्ठ व्यंग्यकार डॉक्टर प्रेम जनमेजय की एक रचना आई थी “बर्फ का पानी” यह रचना आश्वस्त करती है कि भविष्य में व्यंग्य साहित्य की महत्वपूर्ण रचनाओं में से एक होगी .इसी तरह व्यंग्य में एक नये शिल्प के साथ ललित लालित्य ने धमाकेदार उपस्थिति दर्ज की है.

भविष्य के गर्भ में क्या है यह अभी कह नहीं सकते. पर जो अभी दिख रहा है.इस आधार पर  समाज में व्याप्त विसंगतियों और विडम्नाओं  के विरोध में रहकर आज का व्यंग्यकार अपने पूर्वजों की परम्परा से मुंह नहीं मोड़ेगा. क्योंकि वह पहले से अधिक साधन सम्पन्न है.

*?*

© श्री रमेश सैनी 

सम्पर्क  : 245/ए, एफ.सी.आई. लाइन, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर, मध्य प्रदेश – 482 002

मोबा. 8319856044  9825866402

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 116 ☆ व्यंग्य  – पक्ष विपक्ष और हिंडोले ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा रचित एक विचारणीय व्यंग्य पक्ष विपक्ष और हिंडोले । इस विचारणीय विमर्श के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 116 ☆

? व्यंग्य  – पक्ष विपक्ष और हिंडोले ?

विसंगति … क्या विपक्ष का अर्थ केवल विरोध ?

पत्नी मधुर स्वर में भजन गा रहीं थीं . “कौन झूल रहे , कौन झुलाये हैं ? कौनो देत हिलोर ? … गीत की अगली ही पंक्तियों में वे उत्तर भी दे देतीं हैं . गणपति झूल रहे , गौरा झुलायें हैं , शिव जी देत हिलोर.” … सच ही है  हर बच्चा झूला झूलकर ही बडा होता है . सावन में झूला झूलने की हमारी सांस्कृतिक विरासत बहुत पुरानी है . राजनीति के मर्मज्ञ परम ज्ञानी भगवान कृष्ण तो अपनी सखियों के साथ झूला झूलते , रास रचाते दुनियां को राजनीति , जीवन दर्शन , लोक व्यवहार , साम दाम दण्ड भेद बहुत कुछ सिखा गये हैं .  महाराष्ट्र , राजस्थान , गुजरात में तो लगभग हर घर में ही पूरे पलंग के आकार के झूले हर घर में होते हैं . मोदी जी के अहमदाबाद में  साबरमती तट पर विदेशी राजनीतिज्ञों के संग झूला झूलते हुये वैश्विक राजनीती की पटकथा रचते चित्र चर्चित रहे हैं . आशय यह है कि राजनीति और झूले का साथ पुराना है .

मैं सोच रहा था कि पक्ष और विपक्ष राजनीति के झूले के दो सिरे हैं . तभी पत्नी जी की कोकिल कंठी आवाज आई “काहे को है बनो रे पालना , काहे की है डोर , काहे कि लड़ लागी हैं ? राजनीती का हिंडोला सोने का होता है , जिसमें हीरे जवाहरात के लड़ लगे होते हैं , तभी तो हर राजनेता इस झूले का आनंद लेना चाहता है . राजनीति के इस झूले की डोर वोटर के हाथों में निहित वोटों में हैं . लाभ हानि , सुख दुख , मान अपमान , हार जीत के झूले पर झूलती जनता की जिंदगी कटती रहती है . कूद फांद में निपुण ,मौका परस्त कुछ नेता उस हिंडोले में ही बने रहना जानते हैं जो उनके लिये सुविधाजनक हो . इसके लिये वे सदैव आत्मा की आवाज सुनते रहते हैं , और मौका पड़ने पर पार्टी व्हिप की परवाह न कर  जनता का हित चिंतन करते इसी आत्मा की आवाज का हवाला देकर दल बदल कर डालते हैं .  अब ऐसे नेता जी को जो पत्रकार या विश्लेषक बेपेंदी का लोटा कहें तो कहते रहें , पर ऐसे नेता जी जनता से ज्यादा स्वयं के प्रति वफादार रहते हैं . वे अच्छी तरह समझते हैं कि ” सी .. सा ” के राजनैतिक खेल में उस छोर पर ही रहने में लाभ है जो ऊपर हो . दल दल में गुट बंदी होती है . जिसके मूल में अपने हिंडोले को सबसे सुविधाजनक स्थिति में बनाये रखना ही होता है . गयाराम  जिस दल से जाते हैं वह उन्हें गद्दार कहता है , किन्तु आयाराम जी के रूप में दूसरा दल उनका दिल खोल कर स्वागत करता है और उसे हृदय परिवर्तन कहा जाता है. देश की सुरक्षा के लिये खतरे कहे जाने वाले नेता भी पार्टी झेल जाती है.

किसी भी निर्णय में साझीदारी की तीन ही सम्भावनाएं होती हैं , पहला निर्णय का साथ देना, दूसरा विरोध करना और तीसरा तटस्थ रहना. विरोध करने वाले पक्ष को विपक्ष कहा जाता है.  राजनेता वे चतुर जीव होते हैं जो तटस्थता को भी हथियार बना कर दिखा रहे हैं . मत विभाजन के समय यथा आवश्यकता सदन से गायब हो जाना ऐसा ही कौशल है . संविधान निर्माताओ ने सोचा भी नहीं होगा कि राजनैतिक दल और हाई कमान के प्रति वफादारी को हमारे नेता देश और जनता के प्रति वफादारी से ज्यादा महत्व देंगे . आज पक्ष विपक्ष अपने अपने हिंडोलो पर सवार अपने ही आनंद में रहने के लिये जनता को कचूमर बनाने से बाज नही आते .

मुझ मूढ़ को समझ नहीं आता कि क्या संविधान के अनुसार विपक्ष का अर्थ केवल सत्तापक्ष का विरोध करना है ? क्या पक्ष के द्वारा प्रस्तुत बिल या बजट का कोई भी बिन्दु ऐसा नही होता जिससे विपक्ष भी जन हित में सहमत हो ? इधर जमाने ने प्रगति की है , नेता भी नवाचार कर रहे हैं . अब केवल विरोध करने में विपक्ष को जनता के प्रति स्वयं की जिम्मेदारियां अधूरी सी लगती हैं . सदन में अध्यक्ष की आसंदी तक पहुंचकर , नारेबाजी करने , बिल फाड़ने , और वाकआउट करने को विपक्ष अपना दायित्व समझने लगा है .लोकतंत्र में संख्याबल सबसे बड़ा होता है , इसलिये सत्ता पक्ष ध्वनिमत से सत्र के आखिरी घंटे में ही कथित जन हित में मनमाने सारे बिल पारित करने की कानूनी प्रक्रिया पूरी कर लेता है . विपक्ष का काम किसी भी तरह सदन को न चलने देना लगता है . इतना ही नही अब और भी नवाचार हो रहे हैं , सड़क पर समानांतर संसद लगाई जा रही है . विपक्ष विदेशी एक्सपर्टाइज से टूल किट बनवाता है , आंदोलन कोई भी हो उद्देश्य केवल सत्ता पक्ष का विरोध , और उसे सत्ता च्युत करना होता है . विपक्ष यह समझता है कि सत्ता के झूले पर पेंग भरते ही झूला हवा में ऊपर ही बना रहेगा , पर विज्ञान के अध्येता जानते हैं कि झूला हार्मोनिक मोशन का नमूना है , पेंडलुम की तरह वह गतिमान बना ही रहेगा . अतः जरूरी है कि पक्ष विपक्ष सबके लिये जन हितकारी सोच ही सच बने , जो वास्तविक लोकतंत्र है .

पारम्परिक रूप से पत्नियों को  पति का कथित धुर्र विरोधी समझा जाता है . पर घर परिवार में तभी समन्वय बनता है जब पति पत्नी झूले दो सिरे होते हुये भी एक साथ ताल मिला कर रिदम में पेंगें भरते हैं .यह कुछ वैसा ही है जैसा पक्ष विपक्ष के सारे नेता एक साथ मेजें थपथपा कर स्वयं ही आपने वेतन भत्ते बढ़वा लेते हैं . मेरा चिंतन टूटा तो पत्नी का मधुर स्वर गूंज रहा था ” साथ सखि मिल झूला झुलाओ . काश नेता जी भी देश के की प्रगति के लिये ये स्वर सुन सकें .  

 © विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 70 ☆ चिंतन परक ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “चिंतन परक”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 70 – चिंतन परक

हमारे हर निर्णय, अवलोकन ,लेखन, सरोकार व सब कुछ जो हम करते हैं, पूर्वाग्रह से आधारित होते हैं। ग्रह और नक्षत्रों के बारे में तो हम सभी जानते हैं और उनसे प्रभावित हुए बिना भी नहीं रह पाते हैं किंतु इस पहले से निर्धारित किए हुए विचारों क्या करें…? 

अधिकांश लोग ये मानते हैं  कि फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाला, सूट बूट टाई पहने हुए व्यक्ति ही नौकरशाह हो सकता है। इसी तरह कारपोरेट सेक्टर में अंग्रेजी पहनावा ही सभ्य होने की निशानी है। महिलाओं की तो बात ही निराली है उनके लिए भी ड्रेस कोड निर्धारित कर दिए गए हैं। आमजीवन में मिली जुली  बोली, नई वेश भूषा तेजी के साथ बढ़ रही है। मौसम के अनरूप न होने पर भी हम लोग विदेशी परिधानों का मोह नहीं छोड़ पा रहे हैं। सुशिक्षित होने की इस निशानी को ढोते हुए हम  इक्कीसवीं सदी के  तकनीकी ज्ञान से प्रशिक्षित लोग बिना सोचे समझे  भेड़ चाल के अनुगामी बनें जा रहे हैं। अब हमारा मन धरती पर नहीं चाँद और मंगल पर लगने लगा है। तरक्की होना अच्छी बात है किंतु देश काल की सीमाओं से परे जा, हवाई उड़ानें, विदेशी धरती, उनका पहनावा और अंतरराष्ट्रीय बोलियाँ ही मन भावन लगने लगें तब थोड़ा ठहर कर ध्यान तो देना ही चाहिए।

मजे की बात है कि घर में माता- पिता का कहना हम लोग भले ही न मानते हों किन्तु काउंसलिंग करवाकर हर निर्णय लेना  लाभकारी होता है इसकी जड़ें हमारे मनोमस्तिष्क में गहरी पैठ बनाए हुए हैं। पहले लोग ये मानते थे कि कोई प्रेम पूर्वक आग्रह करे तो उसका न्योता नहीं ठुकराना चाहिए परंतु अब तो सारी परिभाषाएँ एक एजेंडे के तहत पहले से ही निर्धारित कर दी जाती हैं। किसे आगे बढ़ाना है, किसे घटाना है सब कुछ सोची समझी चाल के तहत होता है। वैसे भी किसी को मिटाना हो तो उसके संस्कारों व नैतिक मूल्यों पर प्रहार करना चाहिए ऐसा  पूर्वकाल से आतताइयों द्वारा किया जाता रहा है क्योंकि वे जानते हैं कि किसी को लंबे समय तक गुलाम बनाने हेतु ऐसा करना होगा।

खैर हम सब चिन्तन प्रधान देश के सुधी नागरिक हैं जो अपना भला- बुरा अच्छी तरह समझते हैं। सो पूर्वाग्रह न पालते हुए सही गलत का निर्णय स्वविवेक व तात्कालिक परिस्थितियों के अनुरूप करते हैं।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #106 ☆ व्यंग्य – ‘मोहब्बतें’ और आर्थिक विकास ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘’मोहब्बतें’ और आर्थिक विकास’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 106 ☆

☆ व्यंग्य –  ‘मोहब्बतें’ और आर्थिक विकास

मैं अभी तक इस मुग़ालते में था कि भाववाचक संज्ञा का बहुवचन नहीं होता, लेकिन मरहूम यश चोपड़ा की फिल्म ‘मोहब्बतें’ का नाम सुनकर लगा कि शब्दों का हमारा ज्ञान बहुत सीमित है। अब आगे ऐसी फिल्में आएंगीं जिनके नाम ‘इश्कें’, ‘तबियतें’ और ‘नफरतें’ होंगे।

बहरहाल,आपसे गुफ्तगू करने का अपना मकसद कुछ और ही है। जो बात कुछ दिनों से शिद्दत से मुझे खल रही है वह यह है कि हमारे देश के विकास में योगदान देने वाले बहुत से तत्वों का ज़िक्र तो होता है, लेकिन एक ख़ास चीज़ जिसे पूरी तरह नज़रअंदाज़ किया जाता है और जिसका  हमारे देश की बहबूदी में अहम योगदान है, वह ‘मोहब्बत’ है। दूर क्यों जाएं, ताजमहल को लें, जिसने हिन्दुस्तान को दुनिया के नक्शे पर खड़ा किया और मुल्क के लिए करोड़ों रुपयों की कमाई का सिलसिला बनाया। ताजमहल के लिए सरकार का टूरिज़्म विभाग या पुरातत्व विभाग कितना भी  क्रेडिट ले, लेकिन हकीकत यही है कि ताजमहल शाहजहाँ और मुमताज की पाक मोहब्बत का नतीजा है। इसलिए ताजमहल की वजह से देश की झोली में जो भी पैसा आ रहा है वह शुद्ध प्यार-मुहब्बत की कमाई है। न शाहजहाँ-मुमताज का प्यार परवान चढ़ता, न मुल्क के लिए स्थायी मोटी कमाई का ज़रिया बनता। मोहब्बत तुझको मेरा सलाम।

हिन्दुस्तानी फिल्में शुरू से ही प्यार- मोहब्बत की कमाई पर पलती रही हैं। प्यार- मोहब्बत ने फिल्मों को कितनी कमाई दी इसका लेखा-जोखा ज़रूरी है। तभी लोगों को पता चलेगा कि करोड़ों में खेलने वाले फिल्म उद्योग को उसकी वर्तमान ऊँचाइयों तक पहुँचाने में मोहब्बतों का कितना बड़ा योगदान है।

पुरानी फिल्मों के हीरो प्यार को ही खाते- पीते और ओढ़ते-बिछाते थे। उन दिनों आशिक के बारह घंटे माशूक का मुँह देखने और बारह घंटे चाँद को घूरने में खर्च होते थे। प्यार का काम बहुत आराम और इत्मीनान से होता था। बिखरे बाल, बढ़ी दाढ़ी, फटे कपड़े और चेहरे पर बदहवासी सच्चे आशिक के ट्रेडमार्क होते थे। उन दिनों के आशिक त्यागी और बेहद शरीफ होते थे। आजकल के आशिकों की तरह रकीब के पीछे बन्दूक लेकर नहीं पड़ जाते थे। प्रेमिका को कोई दूसरा डोली में बैठाकर ले जाता था और आशिक मियाँ, जंगल की ख़ाक छानते, विरह-गीत गाते रहते थे। यकीन न हो तो दिलीप कुमार की फिल्म ‘देवदास’ देख लीजिए।

बीच में फिल्मवालों को भ्रम हुआ कि मारपीट वाली फिल्में ज़्यादा चल सकती हैं, लेकिन उन्हें जल्दी ही अपनी गलती महसूस हो गयी और वे वापस प्यार-मोहब्बत की पुख्ता ज़मीन पर लौट आये। अब जितनी फिल्में बन रही हैं उनमें से तीन-चौथाई का ताल्लुक दिल के कारोबार से है। जो हीरो ‘मार्शल आर्ट’ में माहिर माने जाते थे वे आजकल नज़र का मोटा चश्मा लगाकर ‘आर्ट ऑफ लव’ के पन्ने पलट रहे हैं।

इस बात पर ग़ौर फरमाया जाए कि मोहब्बत शुरू से देश के विभिन्न महकमों को मज़बूत करने में अपना योगदान देती रही है। एक ज़माना था जब प्रेमपत्र कबूतरों के मार्फत भेजे जाते थे। तब कबूतरों का कारोबार अच्छा ख़ासा पनपता होगा। मेरी दृष्टि में प्रेमपत्र की डिलीवरी के मामले में कबूतर, पोस्टमैन या टेलीफोन से ज़्यादा भरोसेमन्द होता है क्योंकि वह हमेशा महबूबा के कंधे पर बैठता रहा है, पोस्टमैन की तरह उसने कभी महबूबा के वालिद या अम्माँ के हाथ में ख़त नहीं सौंपा। कई पोस्टमैन तो रकीबों को ख़त सौंप देते हैं।

जब डाक का ज़माना आया तब प्रेमपत्रों  ने डाकतार विभाग को काफी काम मुहैया कराया। कागज़ और रोशनाई की बिक्री भी इश्क की बदौलत काफी बढ़ी क्योंकि ख़त बीस बीस पेज के लिखे जाते थे और उनमें काफी स्याही खर्च होती थी। कई आशिक लाल स्याही से ख़त लिखते थे और डींग मारते थे कि ‘ख़त लिख रहा हूँ ख़ून से, स्याही न समझना।’  उन दिनों आशिक- माशूक काफी रोमांटिक और नाजुक होते थे। आहें भरने, तारे गिनने और ख़त लिखने में काफी वक्त ज़ाया होता था। उन दिनों वाहनों का चलन कम था, प्रेमपत्रों को ढोने का काम पैदल ही होता था। यह कल्पना सिहराने वाली है कि कंधे पर प्रेमपत्र ढोने वाले पोस्टमैनों की हालत कैसी होती होगी।

अब टेलीफोन और इंटरनेट के कारोबार में भी इश्क अपना भरपूर योगदान दे रहा है। देश में मोबाइल का उत्पादन और उसकी खपत तेज़ी से बढ़ी है। इसमें प्रेमियों का कितना योगदान है यह अध्ययन का विषय है। मोबाइल के आने से प्रेमियों का सरदर्द ज़रूर कम हुआ है। लैंडलाइन के ज़माने में जब महबूब का प्रेम-सन्देश आता था तभी बगल के कमरे में पिताजी दूसरा चोंगा उठाकर सारी गुफ्तगू सुन लेते थे, भले ही वह उनके सुनने लायक न रही हो।

तब टेलीफोन-बूथ वाले, आशिकों के इंतज़ार में आँखें बिछाये रहते थे क्योंकि वे लंबी बात करते थे और कभी हिसाब देखने की घटिया बात नहीं करते थे। किसी पब्लिक टेलीफोन-बूथ में  आशिक का प्रवेश हो जाए तो बाहर खड़े लोगों की इंतज़ार करते करते हालत ख़राब हो जाती थी।

यह खुशी की बात है कि प्रेम में निहित संभावनाओं पर लोगों की नज़र जाने लगी है। जिस देश में प्यार-व्यार को तिरछी नज़र से देखा जाता था उसमें ‘वेलेंटाइन डे’ मनाया जाने लगा है, यद्यपि अभी भी दकियानूसी लोग आशिक- माशूकों को खुलेआम प्यार का इज़हार करते देख मारपीट पर उतर आते हैं। ऐसे ही लोगों की वजह से अभी ‘डेटिंग’ जैसी प्रथा शुरू नहीं हो पायी है। सरकार को चाहिए कि प्यार के इन दुश्मनों से सख्ती से निपटे ताकि प्यार बन्द कमरों से निकल कर खुली हवा में साँस ले सके।

मेरा सुझाव है कि प्यार की एक वेबसाइट बनायी जानी चाहिए जिसमें मुल्क के जाँबाज़ आशिक-माशूकों के बारे में तफ़सील से जानकारी हो। अभी कितने लोगों को मालूम है कि लैला-मजनूँ, हीर-राँझा, शीरीं-फ़रहाद, सोहनी- महिवाल और सस्सी-पुन्नू किस देश के और किस जाति के थे, और इश्क के अलावा वे और क्या कारोबार करते थे?इस वेबसाइट में उन सभी जगहों का अता-पता होना चाहिए जो प्यार के लिए आदर्श हैं, जहाँ प्यार के मार्ग में कोई रोड़े नहीं हैं और जहाँ प्यार को पुष्पित-पल्लवित होने के लिए उपयुक्त वातावरण है।

सरकार को भी चाहिए कि वह प्यार में छिपी व्यापार की असीम संभावनाओं को पहचाने और प्यार करने वालों को वे सभी सुविधाएँ मुहैया कराए जिनके वे हकदार हैं। प्यार करने वालों के लिए ऐसी जगहों पर ख़ास होटल और रेस्ट-हाउस बनाए जाने चाहिए जहाँ की ज़मीन प्यार के हिसाब से मौजूँ है। अभी तो मुंबई में प्यार करने वाले जोड़ों को पुलिस मैरिन-ड्राइव से खदेड़ रही है, जिस पर मैं अपना सख़्त एतराज़ दर्ज़ कराना चाहता हूँ।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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