हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 54 ☆ व्यंग्य – लल्लन टाप होने की रिस्क ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक अतिसुन्दर व्यंग्य   “लल्लन टाप होने की रिस्क।  श्री विवेक जी ने  शिक्षा के क्षेत्र में सदैव प्रथम आने की कवायद और अभिभावकों की मानसिकता पर तीखा व्यंग्य  किया है । साथ ही गलत तरीकों से ऊंचाइयों पर पहुँचाने का हश्र भी।  श्री विवेक जी की लेखनी को इस अतिसुन्दर  व्यंग्य के  लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 54 ☆ 

☆ व्यंग्य – लल्लन टाप होने की रिस्क ☆

“अगर आप समाज का विकास करना चाहते हैं तो आप आईएएस बनकर ही  कर सकते हैं “, यहां समाज का भावार्थ खुद के व अपने  परिवार से होता है, यह बात मुझे अपने सुदीर्घ अनुभव से बहुत लम्बे समय में ज्ञात हो पाई है. यदि हर माता पिता, हर बच्चे का सपना सच हो सकता तो भारत की आधी आबादी आई ए एस ही होती,  कोई भी न मजदूर होता न किसान, न कुछ और बाकी के जो आई ए एस न होते वे सब इंजीनियर, डाक्टर, अफसर ही होते. धैर्य, कड़ी मेहनत, अनुशासन और हिम्मत न हारना, उम्मीद न छोड़ना, परीक्षा की टेंशन से बचना और खुद पर भरोसा रखना, नम्बर के लिये नहीं ज्ञानार्जन के लिये रोज 10 या 20 घंटे पढ़ना जैसे गुण टापर बनाने के सैद्धांतिक तरीके हैं. प्रैक्टिकल तरीको में नकल, पेपर आउट करवा पाने के मुन्नाभाई एमबीबीएस वाले फार्मूले भी अब सेकन्ड जनरेशन के पुराने कम्प्यूटर जैसे पुराने हो चले  हैं.पढ़ाई के साथ साथ  तन, मन, धन से गुरु सेवा भी आपको टापर बनाने में मदद कर सकता है, कहा भी है जो करे सेवा वो पाये मेवा.

एक बार एक अंधा व्यक्ति सड़क किनारे खड़ा था. वह राह देख रहा था कि कोई आने जाने वाला उसे सड़क पार करवा दे. इतने में एक व्यक्ति ने उसके कंधे पर हाथ रखा और कहा कि कृपया मुझे सड़क पार करवा दें मैं अंधा हूँ. पहले अंधे ने दूसरे को सहारा दिया और चल निकला, दोनो ने सड़क पार कर ली. यह सत्य घटना जार्ज पियानिस्ट के साथ घटी थी. शायद सचमुच भगवान  उन्ही की मदद करता है जो खुद अपनी मदद करने को तैयार होते हैं. मतलब अपने लक को भी कुछ करने का अवसर दें, निगेटिव मार्किंग के बावजूद  सारे सवाल अटैम्प्ट कीजीए  जवाब सही निकले तो बल्ले बल्ले.

टापर बनाने के लेटेस्ट  फार्मूले की खोज बिहार में हुई है. कुछ स्कूल अपनी दूकान चलाने के लिये तो कुछ कोचिंग संस्थान अपनी साख बनाने के लिये शर्तिया टाप करवाने की फीस लेते हैं. उनके लल्लन छात्र  भी टाप कर जाते हैं.  नितांत नये आविष्कार हैं. कापी बदलना, टैब्यूलेशन शीट बदलवाना, टाप करने के ठेके के कुछ हिस्से हैं  कुछ नये नुस्खे धीरे धीरे मीडीया को समझ आ रहे हैं. यही कारण है कि बिहार में टापर होने में आजकल बड़े रिस्क हैं जाने कब मीडीया फिर से परीक्षा लेने मुंह में माईक ठूंसने लगे. जिस तेजी से बिहार के टापर्स एक्सपोज हो रहे  है, अब गोपनीय रूप से टाप कराने के तरीको पर खोज का काम बिहार टापर इंडस्ट्री को शुरू करना पड़ेगा.कुछ ऐसी खोज करनी पड़ेगी की कोई टाप ही न करे, सब नेक्सट टु  टाप हों जिससे यदि मीडीया ट्रायल में कुछ न बने तो बहाना तो रहे. या फिर रिजल्ट निकलते ही टापर को गायब करने की व्यवस्था बनानी पड़ेगी, जिससे ये  इंटरव्यू वगैरह का बखेड़ा ही न हो.

एक पाकिस्तानी जनरल को हमेशा टाप पर रहने का जुनून था. वे कभी परेड में भी किसी को अपने से आगे बर्दाश्त नही कर पाते थे. एक बार वे परेड में लास्ट रो में तैनात किये गये, पर वे कहां मानने वाले थे, धक्का मुक्की करते हुये तेज चलते हुये  जैसे तैसे वे सबसे आगे पहुंच ही गये, पर जैसे ही वे फर्स्ट लाईन तक पहुंचे कमांडिंग अफसर ने एबाउट टर्न का काशन दे दिया. और वे बेचारे जैसे थे वाली पोजीशन में आ गये. कुछ यही हालत बिहार के टापर्स की होती दिख रही है.

बच्चे के पैदा होते ही उसे टापर बनाने के लिये हमारा समाज एक दौड़ में प्रतियोगी बना देता है.सबसे पहले तो स्वस्थ शिशु प्रतियोगिता में बच्चे के वजन को लेकर ही ट्राफी बंट जाती है, विजयी बच्चे की माँ फेसबुक पर अपने नौनिहाल की फोटो अपलोड करके निहाल हो जाती है. फिर कुछ बड़े होते ही बच्चे को यदि कुर्सी दौड़ प्रतियोगिता में  चेयर न मिल पाये तो आयोजक पर चीटिंग तक का आरोप लगाने में माता पिता नही झिझकते. स्कूल में यदि बच्चे को एक नम्बर भी कम मिल जाता है तो टीचर की शामत ही आ जाती थी. इसीलिये स्कूलो को मार्किंग सिस्टम ही बदलना पड़ गया. अब नम्बर की जगह ग्रेड दिये जाते हैं. सभी फर्स्ट आ जाते हैं.

जैसे ही बच्चा थोड़ा बड़ा होता है, उसे इंजीनियर डाक्टर या आई ए एस बनाने की घुट्टी पिलाना हर भारतीय पैरेंट्स की सर्वोच्च प्राथमिकता होती है. इसके लिये कोचिंग, ट्यूशन, टाप करने पर बच्चे को उसके मन पसंद मंहगे मोबाईल, बाईक वगैरह दिलाने के प्रलोभन देने में हर माँ बाप अपनी हैसियत के अनुसार चूकते नहीं हैं. वैसे सच तो यह है कि हर शख्स अपने आप में किसी न किसी विधा में टाप ही होता है, जरूरत है कि  हर किसी को अपनी वह क्वालिटी पहचानने का मौका दिया जाये जिसमें वह टापर हो.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 51 ☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – – समर्पण  ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनके द्वारा स्व हरिशंकर परसाईं जी के जीवन के अंतिम इंटरव्यू का अंश।  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी ने  27 वर्ष पूर्व स्व  परसाईं जी का एक लम्बा साक्षात्कार लिया था। यह साक्षात्कार उनके जीवन का अंतिम साक्षात्कार मन जाता है। आप प्रत्येक सोमवार ई-अभिव्यिक्ति में श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के सौजन्य से उस लम्बे साक्षात्कार के अंशों को आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 51

☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – – – – – समर्पण  ☆ 

जय प्रकाश पाण्डेय–

आपने अपनी कोई भी पुस्तक प्रकाशित रूप में कभी किसी को समर्पित नहीं की, जबकि विश्व की सभी भाषाओं में इसकी समृद्ध परंपरा मिलती है। आपके व्यक्तित्व व लेखन दोनों की अपार लोकप्रियता को देखते हुए यह बात कुछ अधिक ही चकित और विस्मित करती है?

हरिशंकर परसाई–

यह समर्पण की परंपरा बहुत पुरानी है। अपने से बड़े को, गुरु को, कोई यूनिवर्सिटी में है तो वाइस चांसलर को समर्पित कर देते हैं। कभी किसी आदरणीय व्यक्ति को,कभी कुछ लोग पत्नियों को भी समर्पित कर देते हैं हैं। कुछ में साहस होता है तो प्रेमिका को भी समर्पित कर देते हैं। ये पता नहीं क्यों हुआ है ऐसा। कभी भी मेरे मन में यह बात नहीं उठी कि मैं अपनी पुस्तक किसी को समर्पित कर दूं, जब मेरी पहली पुस्तक छपी, जो मैंने ही छपवाई थी, तो मेरे सबसे अधिक निकट पंडित भवानी प्रसाद तिवारी थे, अग्रज थे, नेता थे, कवि थे, साहित्यिक बड़ा व्यक्तित्व था, उनसे मैंने टिप्पणी तो वह लिखवाई किन्तु मैंने समर्पण में लिखा- “उनके लिए, जो डेढ़ रुपया खर्च करके खरीद सकते हैं।”

तो ये समर्पण है मेरी एक किताब में।

लेकिन वास्तव में यह है वो – उनके लिए जिनके पास डेढ़ रुपया है और जो यह पुस्तक खरीद सकते हैं,उस समय इस पुस्तक की कीमत सिर्फ डेढ़ रुपए थी।सस्ता जमाना था, पुस्तक भी करीब सवा सौ पेज की थी। इसके बाद मेरे मन में कभी आया ही नहीं कि मैं किसी के नाम समर्पित कर दूं। अपनी पुस्तक,जैसा आपने कहा कि मैंने तो पाठकों के लिए लिखा है, तो यह समझ लिया जाये कि मेरी पुस्तक मैंने किसी व्यक्ति को समर्पित न करके तमाम भारतीय जनता को समर्पित कर दी है।

……………………………..क्रमशः….

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 6 ☆ इंस्टेंट जस्टिस जिनकी यूएसपी है ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

☆ मॉम है कि मानती नहीं ☆

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  व्यंग्य “इंस्टेंट जस्टिस जिनकी यूएसपी है।  इस  साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । श्री शांतिलाल जैन जी के व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक होते हैं ।यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता  को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल #6 ☆

☆ इंस्टेंट जस्टिस जिनकी यूएसपी है

जनकसिंग पहलवान अभी-अभी देश बचाने की एक स्वस्फूर्त, स्वप्रेरित कार्यवाही संपन्न करके आ रहे हैं. सीना इस कदर फूल गया है कि शर्ट के दो बटन तो फूलन-फूलन में ही टूट गये हैं. कुछ और फूली सांसे अभी बाहर आयेंगी और नई-नकोर बनियान को भी चीर जायेंगी. गैस, गालियाँ, भभकों और लार से बना गरम लावा मुंह से अविरल बह रहा है.

उधर जख्मी को वन-जीरो-एट से अस्पताल भेजा गया है और इधर फूलती साँसों की बीच वे जितना बोल पा रहे हैं उतने में ही सबको बता रहे हैं कि कैसे उन्होंने देश के एक दुश्मन को सजा दे डाली है. साईकिल के टायर के दो फीट के टुकड़े से उन्होंने एक युवक को इतने सटाके लगाये कि इंसान था, झेब्रा दिखने लगा. वो तो लोगों ने कस कर पकड़ लिया वरना वे उसका वही हश्र करते जो कबीलों में मुल्जिम का, बरास्ते कोड़ों के, सजा-ए-मौत सुनाये जाने पर होता है.

उनकी अपनी एक अदालत है, अपना ही विधान. इसके मुंशी मोहर्रिर, वकील, पेशकार, जज, अपीलीय कोर्ट, जस्टिस, चीफ जस्टिस तक वे खुद ही खुद हैं. विधि में सनात्कोत्तर डिग्री उन्होंने वाट्सअप विश्वविद्यालय से हांसिल की है. जूरिस्प्रुडेंस के उनके अपने सिद्धांत हैं. न्याय की उनकी देवी के हाथ की तराजू में सब धान बाईस पसेरी तुलता है. उसने आँखों पर पट्टी तो नहीं बाँध रखी है मगर एक खास नज़रिये का चश्मा जरूर चढ़ाया हुआ है. वे फैसला ही नहीं देते, पेनल्टी एक्सीक्यूट भी करते हैं. इंस्टेंट जस्टिस उनकी यूएसपी है. उनका न्याय न इंतज़ार करता है, न कराता है. ज्यादातर मुकदमे वे सुओ-मोटो हाथ में लेते हैं और देश बचाने का केस हो तो टॉप प्रायोरिटी पर निपटाते हैं. ऐसा हर केस निपटाने के बाद उनको लगता है कि उन्होंने मातृभूमि के ऋण की एक ईएमआई चुका दी है. अभी काफी कुछ क़र्ज़ चुकाना बाकी है. शौर्य चक्रों से खुद को नवाजने की परंपरा भारत में रही होती तो उनके सीने पर कर्नल गद्दाफ़ी की वर्दी पर लगे मैडलों से दुगुने मैडल लगे होते. बहरहाल, आग उगलते मुंह से उन्होंने कहा – ‘……. चीनी चपटा, हमारे देश में कोरोना भेजता है. वो सटाके लगाये कि अब जिन्दगी में इधर पैर नहीं रखेगा.’ शर्ट का एक बटन और टूट गया है.

मैंने कहा – ‘पेलवान, वो लड़का तो मेघालय से यहाँ पढ़ने आया था. सामनेवाली मल्टी के पीछे एक कमरे में किरायेदार है. संगमा जेम्स जैसा कुछ नाम है उसका.’

उन्होंने मुझे घूरकर देखा. मैं बुरी तरह डर गया. अभी लावा ठंडा पड़ा नहीं है. जो उनने अपन को ही चीन का जासूस समझकर सूत-सात दिया तो…!! बोले – ‘मैंने ये बाल धूप में सफ़ेद नी करे हेंगे, आपसे ज्यादा दुनिया देखी हेगी. कौनसा लै बताया आपने ?’

‘मेघालय’

‘हाँ वोई. ये सारे लै, है, वै, हू, तू, थू चीन में ही पड़ते हैं. चपटे सब वहीं से आते हैं.’

‘पेलवान, वो भारत की ही एक स्टेट है. सेवन सिस्टर्स नहीं सुना आपने ?’

‘सिस्टर हो या ब्रदर – देश सबके ऊपर है.’ फिर बोले – ‘वाट्सअप पे आये चीनियों से सिकल मिला लेना उसकी, नी मिलती होय तो नाम बदल देना जनकसिंग पेलवान का. ….ईलाज करना जरूरी था. देश बचाना है तो इन चपटों की तो…..’.

‘मैं आपको नक्शा दिखाता हूँ ना.’

‘नक़्शे तो इनके मैं बिगाडूँगा. नक्शेबाजी करना भुला दूंगा एक एक की. और कालोनीवालों, सब कान खोलकर सुन लो रे, एक भी चीनी चपटे को अन्दर घुसने मत देना. टायर के हंटर रखो घर में.’ अपनावाला मुझे थमाते हुवे बोले – ‘कोई चीनी चपटा दिखे तो उसको वईं के वईं सलटा देना. आपसे नी बने तो मेरे कने लिआना.’

वे चले गये, मैं देख पा रहा हूँ – ज़ख्मी विधि, विधायिका, न्याय, न्यायपालिका, संगमा जेम्स और वी द पीपुल ऑफ़ इंडिया…….

 

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टी टी नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 53 ☆ व्यंग्य – लॉकडाउन में रज्जू भाई का इम्तहान ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है व्यंग्य  ‘लॉकडाउन में रज्जू भाई का इम्तहान ’। यह सच है कि  प्रत्येक मनुष्य में कोई न कोई विशेषता होती है। कभी मनुष्य  स्वप्रेरणा से अपनी  प्रतिभा निखार लेता है तो कभी उसे प्रेरित करना पड़ता है। ऐसे अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 53 ☆

☆ व्यंग्य – लॉकडाउन में रज्जू भाई का इम्तहान ☆

रज्जू भाई लॉकडाउन की वजह से बहुत परेशान हैं इतनी लंबी छुट्टी कभी ली नहीं दफ्तर बहुत प्यारा लगता है बतयाने को बहुत लोग हैं सब तरफ चहल पहल रहती है आज्ञाकारी चपरासी बार बार गुटखा तंबाकू,चाय लाने के लिए दौड़ता रहता है जूनियर लिहाज करते हैं हुकूमत का सुख मिलता है रोज़ जेब में भी थोड़ा बहुत आ जाता है

अब घर में बन्द रज्जू भाई के लिए दिन पहाड़ हो जाते हैं खाने और सोने के अलावा कोई काम नहीं सूझता फालतू से घर में मंडराते हैं बेमतलब फोन करने में समय काटते हैं पहले दफ्तर बंद होने पर दफ्तर के क्लब में शतरंज खेलने बैठ जाते थे सात बजे के बाद घर लौटते थे अब टाइम काटने की समस्या है

अब रज्जू भाई सुबह दस बजे तक घुरकते हुए सोते रहते हैं  उनके आसपास घर के काम चलते रहते हैं, लेकिन उनकी नींद में खलल नहीं पड़ता पत्नी सफाईपसंद है झुँझलाकर कहती है, ‘अरे भाई, कितनी मनहूसियत फैलाते हो दफ्तर बन्द है तो दोपहर तक सोते ही रहोगे क्या?पता नहीं कब ये दफ्तर खुलेंगे और कब यह मनहूसी छँटेगी ‘

रज्जू भाई गुस्से में कहते हैं, ‘उठ कर क्या करेंगे? कौन सा काम करना है?’

जवाब मिलता है, ‘काम क्या करोगे? कोई गुन सीखा होता तो आज काम आता जो कोई हुनर जानते हैं वे कुछ न कुछ कर रहे हैं तुमने फाइल इधर उधर सरकाना ही सीखा है और कुछ आता नहीं इसीलिए अहदी की तरह पड़े रहते हो ‘

रज्जू भाई उठ कर बैठ गये बैठे बैठे कुछ सोचते रहे  पत्नी की बात में दम नज़र आया शाम को कुछ ढूँढ़ खोज में  लग गये शादी से पहले बिगड़ी चीज़ों को सुधारने और ठोक-पीट करने का बड़ा शौक था बाद में दफ्तर में ऐसे रमे कि हर काम के लिए दूसरों पर निर्भर हो गये अब पत्नी की झिड़की सुनकर वे अपने पुराने औज़ार ढूँढ़ने में लग गये थे

रात को देर तक थर्मोकोल की शीट्स लेकर खटपट करते रहे आधी रात तक लगे रहे सबेरे बच्चों ने देखा तो खुश हो गये रज्जू भाई ने बच्चों के खेलने के लिए एक बड़ा सा मॉल बनाया था अलग अलग चीज़ों की दूकानें, सेल्समैन, बाहर खड़े गार्ड और कारों की कतार पत्नी भी खुश हुई बच्चे बोले, ‘पापा, आप तो छुपे रुस्तम निकले ‘

दूसरे दिन रज्जू भाई जल्दी उठकर काम में लग गये गैस का चूल्हा कई दिन से गड़बड़ कर रहा था उसे लेकर पत्नी बड़बड़ाती रहती थी कई बार सुधारने वाले को फोन किया था, लेकिन कोई लॉकडाउन में आने को तैयार नहीं था रज्जू भाई उसे लेकर बैठे और घंटे भर में ठीक करके दे दिया पत्नी ने खुश होकर तालियाँ बजायीं

अगले तीन चार दिन में रज्जू भाई ने अपनी कला के बहुत से नमूने पेश कर दिये धीरे चलते पंखों की स्पीड सुधर गयी और टायलेट का फ्लश ठीक हो गया पुरानी,बदरंग पेटियों को घिसकर उन पर रंग कर दिया गया और उन पर फूलों और नर्तकियों के सुन्दर चित्र बन गये इधर उधर पड़े डबलों (छोटे घड़ों) पर सुन्दर आकृतियाँ बनाकर उन्हें बैठक के कोनों में सजा दिया गया बेटी के पलंग पर बैठ कर पढ़ने के लिए एक लकड़ी की चौकी बन गयी बहुत दिन से चुप पड़ी डोरबेल भी बोलने लगी

यह सिलसिला शुरू हुआ तो चलता ही रहा रज्जू भाई घर की काया पलटने और अपनी काबिलियत सिद्ध करने में लगे रहे अब घर में उनकी इज़्ज़त बढ़ गयी थी और वे भरोसे के आदमी हो गये थे अब पत्नी हर काम में उनकी राय लेने लगी थी

एक दिन पत्नी से सामना हुआ तो रज्जू भाई ने पूछा, ‘आप अब तो हमें नालायक नहीं समझतीं?’

पत्नी हल्के से मुस्कराकर बोली, ‘नहीं, पहले जैसा नहीं अब तो बहुत सुधर गये हो ‘

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ तंजखोर शब्दों की बीमारी ! ☆ श्री राकेश सोहम

श्री राकेश सोहम

( श्री राकेश सोहम जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है।  श्री राकेश सोहम जी  की संक्षिप्त साहित्यिक यात्रा कुछ इस प्रकार है – 

साहित्य एवं प्रकाशन – ☆ व्यंग्यकार प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं, कथाओं आदि का स्फुट प्रकाशन आकाशवाणी और दूरदर्शन से प्रसारण बाल रचनाकार प्रतिष्ठित मासिक पत्रिका और दैनिक अखबार के लिए स्तंभ लेखन दूरदर्शन में प्रसारित धारावाहिक की कुछ कड़ियों का लेखन बाल उपन्यास का धारावाहिक प्रकाशन अनकहे अहसास और क्षितिज की ओर काव्य संकलनों में कविताएँ प्रकाशित व्यंग्य संग्रह ‘टांग अड़ाने का सुख’ प्रकाशनाधीन।

पुरस्कार / अलंकरण – ☆ विशेष दिशा भारती सम्मान यश अर्चन सम्मान संचार शिरोमणि सम्मान विशिष्ठ सेवा संचार पदक

☆ व्यंग्य – तंजखोर शब्दों की बीमारी ! 

(हम आभारी है  व्यंग्य को समर्पित  “व्यंग्यम संस्था, जबलपुर” के जिन्होंने  30 मई  2020 ‘ की  गूगल  मीटिंग  तकनीक द्वारा आयोजित  “व्यंग्यम मासिक गोष्ठी’”में  प्रतिष्ठित व्यंग्यकारों की कृतियों को  हमारे पाठकों से साझा करने का अवसर दिया है।  इसी कड़ी में  प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध लेखक/व्यंग्यकार श्री राकेश सोहम जी का  एक  विचारणीय व्यंग्य – तंजखोर शब्दों की बीमारी !।  कृपया  रचना में निहित सकारात्मक दृष्टिकोण को आत्मसात करें )

कविता सृजन के मध्य कुछ शब्द व्यंग्य से निकल कर शरणागत हुए. वे उनींदे और परेशान थे. प्रतिदिन देर रात तक जागना. किसी पर पर तंज कसने के लिए अपने आप को तैयार करना. फिर अलसुबह निकल जाना. उनके चेहरों पर कटाक्ष से उपजीं तनाव की लकीरें स्पष्ट दिख रहीं थीं. व्यंग्य के पैनेपन को सम्हालते हुए वे भोथरे हो चले थे.

ये शब्द, ससमूह तकलीफों का गान करने लगे. कुछ ने कहा कि वे समाज को कुछ देने की बजाए कभी राजनीति को पोसते, और कभी कोसते है. व्यवस्थाओं पर राजनीतिक तंज और अकड़बाज़ी दिखाते-दिखाते उनकी तासीर ही अकड़कर कठोर हो चली है. वे प्रतिदिन सैकड़ों हज़ारों की संख्या में व्यंग्य के तीर बनकर निशाने से चूक जाते है. व्यवस्थाओं को सुधारने में असमर्थ पाते है. व्यवस्थाएं केवल और केवल राजनीतिक मुद्दा बन कर रह गयीं हैं. इन्हें चुनावों के दौरान भुनाया जाता है. ये शब्द प्रतिदिवस अखबारों में बैठकर केवल चटखारे बन कर रह गए है. उनके पैनेपन से, उनकी चुभन से जिम्मेदार आला दर्जे के लोग अब दर्द महसूस नहीं करते. अजीब तरह का आनंद अनुभव करते हैं. बल्कि ये लोग उम्मीद करते हैं कि अगली सुबह उन पर निशाना कसा जाएगा और वे चर्चा में बने रहने का सुख भोग पाएंगे.

कठोर मानसिकता से बीमार अनेक शब्द सीनाजोरी पर उतर आए. बहुत समझाने पर भी वे माने नहीं. मांगे मनवाने हेतु जोर आजमाईश पर उतारू हो गए. कवि विचलित हो गया. अतः उनकी इच्छा जाननी चाही. वे बोले कि उन्हें व्यंग्य से निजात दिला दी जाए और कविता में बिठा दिया जाए. उन्हें अपनी बीमार कठोरता से मुक्ति चाहिए.

‘ऐसा क्यों? कविता में क्यों बैठना चाहते है !’, कवि ने फिर पूछा. वे समवेत स्वर में बोल पड़े, ‘क्योंकि कविता स्त्रैण होती है. वह कोमल होती है. सुन्दर और सुवासित होती है. कविता में सरलता और तरलता दोनों होती है, इसलिए.’

कवि ने समझाया, ‘ऐसा नहीं है कि कविता स्त्रैण है इसलिए उसमें कठोरता का कोई स्थान नहीं है. वह कोमल है ज़रूर किन्तु कमज़ोर नहीं है. वह सबला है. आज की स्त्री पुरषोंचित सामर्थ्य जुटाने में सक्षम है. उसे अपना हक़ लेना आ गया है. ज्यादतियों के विरोध में स्वर सुनाई देने लगे है. कविता का तंज व्यंग्य की मार से कमतर नहीं है. कविता दिल से उपजती है और व्यंग्य दिमाग से. इसलिए तुम्हारी मांगें अनुचित है. व्यवस्थाओं के सुधार के लिए दिल-दिमाग दोनों चाहिए.’

व्यंग्य से पलायनवादी शब्द अपने भोथरेपन के साथ निशब्द होकर लौट गए.

 

©  राकेश सोहम्

एल – 16 , देवयानी काम्प्लेक्स, जय नगर , गढ़ा रोड , जबलपुर [म.प्र ]

फ़ोन : 0761 -2416901 मोब : 08275087650

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 53 ☆ व्यंग्य – वेलकम बैक डियर मेड ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक अतिसुन्दर एवं समसामयिक व्यंग्य   “वेलकम बैक डियर मेड।  श्री विवेक जी  ने आज के समय का सजीव चित्रण कर दिया है।  हमें वास्तव में यह स्वीकार करना चाहिए कि हमें कोरोना के साथ ही अपने और परिवार के ही नहीं  अपितु सारे समाज और मानवता के हित में  स्वसुरक्षा का ध्यान रखना ही पड़ेगा। श्री विवेक जी की लेखनी को इस अतिसुन्दर  व्यंग्य के  लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 53 ☆ 

☆ व्यंग्य – वेलकम बैक डियर मेड ☆

 

मेड के बिना लाकडाउन में घर के सारे सदस्य और खासकर मैडम मैड हो रही हैं. मेड को स्वयं कोरोना से बचने के पाठ सिखा पढ़ाकर खुशी खुशी सवैतनिक अवकाश पर भेजने वाली मैडम ही नहीं श्रीमान जी भी लाकडाउन खुलते ही इस तरह वेलकम बैक डियर मेड करते दिख रहे हैं, मानो कोरोना की वैक्सीन मिल गई हो. मेड की महिमा, उसका महात्म्य कोरोना ने हर घर को समझा दिया है. जब खुद झाड़ू पोंछा, बर्तन, खाना नाश्ता, कपड़े, काल बेल बजते ही बाहर जाकर देखना कि दरवाजे पर कौन है, यह सब करना पड़ा तब समझ आया कि इन सारे कथित नान प्राडक्टिव कामों का तो दिन भर कभी अंत ही नही होता. ये काम तो हनुमान जी की पूंछ की तरह बढ़ते ही जाते हैं. जो बुद्धिजीवी विचारवान लोग हैं, उन्हें लगा कि वाकई मेड का वेतन बढ़ा दिया जाना चाहिये. कारपोरेट सोच वाले मैनेजर दम्पति को समझ आ गया कि असंगठित क्षेत्र की सबसे अधिक महत्वपूर्ण इकाई होती है मेड. बिना झोपड़ियों के बहुमंजिला अट्टालिकायें कितनी बेबस और लाचार हो जाती हैं, यह बात कोरोना टाईम ने एक्सप्लेन कर दिखाई है. भारतीय परिवेश में हाउस मेड एक अनिवार्यता है. हमारा सामाजिक ताना बाना इस तरह बुना हुआ है कि हाउस मेड यानी काम वाली हमारे घर की सदस्य सी बन जाती है. जिसे अच्छे स्वभाव की, साफसुथरा काम करने वाली, विश्वसनीय मेड मिल जावे उसके बड़े भाग्य होते हैं. हमारे देश की ईकानामी इस परस्पर भरोसे में गुंथी हुई अंतहीन माला सी है. किस परिवार में कितने सालों से मेड टिकी हुई है, यह बात उस परिवार के सदस्यो के व्यवहार का अलिखित मापदण्ड और विशेष रूप से गृहणी की सदाशयता की द्योतक होती है.

विदेशों में तो ज्यादातर परिवार अपना काम खुद करते ही हैं, वे पहले से ही आत्मनिर्भर हैं. पर कोरोना ने हम सब को स्वाबलंब की नई शिक्षा बिल्कुल मुफ्त दे डाली है. विदेशो में मेड लक्जरी होती है. जब बच्चे बहुत छोटे हों तब मजबूरी में  हाउस मेड रखी जाती हैं. मेड की बड़ी डिग्निटी होती है. उसे वीकली आफ भी मिलता है. वह घर के सदस्य की तरह बराबरी से रहती है. कुछ पाकिस्तानी, भारतीय युवाओ ने जो पति पत्नी दोनो विदेशो में कार्यरत हैं, एक राह निकाल ली है, वे मेड रखने की बनिस्पत बारी बारी से अपने माता पिता को अपने पास बुला लेते हैं. बच्चे के दादा दादी, नाना नानी को पोते पोती के सानिध्य का सुख मिल जाता है, विदेश यात्रा और कुछ घूमना फिरना भी बोनस में हो जाता है, बच्चो का मेड पर होने वाला खर्च बच जाता है.

कोरोना के आते ही सब यकायक डर गये. बचपन में हौवा से बहुत डराया जाता था, सचमुच कोरोना हौवा के रूप में आ गया. लगा कि थाली बजाने से, दिये जलाने से, मेड को सवैतनिक अवकाश दे देने से हम कोरोना संकट से निपट लेंगें. पर लाकडाउन एक, दो, तीन, चार बढ़ते ही गये कोरोना है कि जाने का नाम ही नही ले रहा. श्रीमती जी की छिपी अल्प बचत के जमा रुपये खतम होने लगे. सरकार का असर बेकार होने लगा, डाक्टर्स थकने लगे, पोलिस वाले लाचार होने लगे, तब कोरोना के साथ जीने का फार्मूला ढ़ूंढ़ा गया. अनलाक शुरू हुआ. कुछ को लग रहा है  जैसे कर्फ्यू खतम, उन्हें समझना जरूरी है कि लाकडाउन से कोरोना से निपटने की जनजागृति भर आ पाई है , कोरोना गया नही है. अब हमारी सुरक्षा हमें स्वयं ही करनी है, पर फिलहाल तो हम इसी में खुश हैं कि मास्क के घूंघट और हैंडवाश की मेंहदी के संग हमारी कामवाली फिर से बुला ली गई है, हम सब समवेत स्वर में कह रहे हैं वेलकम बैक डियर मेड.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 21 ☆ लॉक और अनलॉक के बीच झूलती जिंदगी☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं प्रेरणास्पद रचना “लॉक और अनलॉक के बीच झूलती जिंदगी।  वास्तव में रचना में चर्चित ” हेल्पिंग  हैंड्स” और समाज एक दूसरे के पूरक हैं। यदि समाज अपना कर्तव्य नहीं निभाएगा तो लोगों का मानवता पर से विश्वास उठ जायेगा। इस समसामयिक सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 21 ☆

☆ लॉक और अनलॉक के बीच झूलती जिंदगी

जबसे रमाशंकर जी ने अनलॉक -1 की खबर सुनी तभी से उन्होंने अपने सारे साठोत्तरीय दोस्तों को मैसेज कर दिया कि अब हम लोग आपस में मिल सकते हैं ;  मॉर्निंग वॉक पर, गार्डन में व चाय की चुस्कियों के साथ चाय वाले के टपरे पर,  जो बहुत दिनों से बंद था।

सभी दोस्तों की ओर से सहमति भी मिल गयी।

अब तो सुबह 5 बजे से ही सब लोग मास्क लगा कर, दूरी को मेंटेन करते हुए चल पड़े टहलने के लिए। अक्सर ही जब वे टहल कर थक जाते तो वहाँ पास में ही बने टपरे पर बैठकर चाय बिस्किट का आनंद लेते हुए नोक झोक करते थे। पर आज तो पूरा सूना सपाटा था। कहाँ तो लाइन से अंकुरित अनाज का ठेला, ताजे फलों के जूस का ठेला व और भी कई लोग आ जाते थे।

अब क्या करें यही प्रश्न भरी निगाहें एक दूसरे को देख रहीं थीं।

रमाशंकर जी ने कहा ” हम लोगों से चूक हो गयी, हमने सबके बारे में तो सोचा पर इधर ध्यान ही नहीं गया कि ये लोग बेचारे क्या करेंगे। हमारी सुबह को सुखद बनाने वाले परेशान होते रहे और हम लोग घरों में ही रहकर लॉक डाउन का आनंद लेते रहे।

हाँ, ये चूक तो हुयी, सभी ने एक स्वर से कहा।

अब चलो वहाँ बैठे गार्ड से पूछते हैं, ये लोग कहाँ मिलेंगे ?

सभी गार्डन की देखभाल करने वाले गार्ड के पास गए तो उसने बताया कि ये लोग अपने गाँव चले गए। जहाँ रहते थे,वहाँ मकान मालिक परेशान करते थे। खाना तो समाज सेवी संस्था से मिल रहा था किंतु रहने की दिक्कत के चलते क्या करते।

गार्डन भी तो कितना अस्त- व्यस्त लग रहा है, रमाशंकर जी ने कहा।

यही तो माली काका के साथ भी हुआ। उनको भी एक महीने का वेतन तो मिल गया था, उसके बाद का आधा ही मिला। वैसे तो कोई न कोई और भी काम कर लेते थे पर इस समय वो भी बंद, रहने की दिक्कत भी हो रही थी सो वे भी चले गए, गार्ड ने बताया।

क्या किया जाए, ये महामारी बिना लॉक डाउन जाती ही नहीं, इसलिए ये तो जरूरी था, रमाशंकर जी ने कहा।

आज देखो सब लोग घूमते दिख रहे हैं, बस वही लोग जो हमारे हेल्पिंग हैंड थे वे ही नहीं हैं क्योंकि जो मदद हम घरों में रहकर कर सकते थे उस ओर हमने ध्यान नहीं दिया,  रमाशंकर जी ने कहा।

कोई बात नहीं साहब, अब भी अगर आप लोग चाहें तो सब ठीक हो सकता है। इनका पता लगाइए, ये जहाँ रहते थे उनके पास इन लोगों का मो. न. अवश्य होगा, इन्हें फिर से हिम्मत दिलाइये कि ये शहर इनका अपना है, हम लोगों से भूल हुई है, इन्हें इनका व्यवसाय स्थापित करने में  सक्षम लोग यदि थोड़ी -थोड़ी भी मदद करें तो फिर से ये शहर चहकने – महकने लगेगा, गार्ड ने कहा।

तुमने तो हम सबकी आँखें खोल दी। तुम्हें सैल्यूट है। हम लोग मिलकर अवश्य ही अपना दायित्व निर्वाह करेंगे, सभी ने एक स्वर में कहा।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ सस्ते का चक्कर ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। 

☆ व्यंग्य – सस्ते का चक्कर

(हम आभारी है  व्यंग्य को समर्पित  “व्यंग्यम संस्था, जबलपुर” के जिन्होंने  30 मई  2020 ‘ की  गूगल  मीटिंग  तकनीक द्वारा आयोजित  “व्यंग्यम मासिक गोष्ठी’”में  प्रतिष्ठित व्यंग्यकारों की कृतियों को  हमारे पाठकों से साझा करने का अवसर दिया है।  इसी कड़ी में  प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध लेखक/व्यंग्यकार डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी का  बुंदेली भाषा का पुट लिए एक  विचारणीय व्यंग्य – “सस्ते का चक्कर”।  कृपया  रचना में निहित मानवीय दृष्टिकोण को आत्मसात करें )

 

काय बड्डे, जो का हो गओ?

कल तक तो बड़ी-बड़ी डींगें हाँकत रहे! आज इते दुबके बैठे हो। रामू ने जगदीश से कहा।

जगदीश बोला: कुछ मत पूछो रामू। किस्सू भैया का दाँव उल्टा पड़ गया। जिस नेता को ये अपना सगा समझते थे, उन्होंने ही कन्नी काट ली। जिनकी दम पर ये उछल कूद मचाते रहते थे, उन्होंने ही अपना हाथ खींच लिया, बस इतना पता चलते ही अगले दिन बजरंगी महाराज ने चढ़ाई कर दी। चार-छह लठैत-कट्टाधारी साथ में लाये और चौराहे वाला मकान खाली करवा दिया। किस्सू भैया की एक न चली। भीगी बिल्ली बने सिकुड़े खड़े रहे।

रामू बोला: हमाई जा समझ में नईं आबे कि जब लड़बे-झगड़बे की औकातई नैयाँ तो औरों के दम पे।  जे किस्सू भैया काय इतरात रहे। कछु अपनी भी दम  भी भओ चहिए।

जगदीश बोले: बात तो आपने सही कही रामू , लेकिन किस्सू भैया पार्षद की टिकिट के जुगाड़ में लगे हैं। अपना दबदबा बढ़ाने के चक्कर में मौका पाकर अपने से कमजोरों पर रौब झाड़ने लगते हैं। अब इस बार जब इनके नेता जी ने खुद ही पार्टी बदल ली तो सारे समीकरण बदल गए।  भला ऐसे समय में किस्सू जैसे छुटभैयों के चक्कर में कोई अपनी लुटिया क्यों डुबोयेगा। आखिर किस्सू भैया के नेता जी को भी तो नई पार्टी में अपनी साख जमाना है। वैसे सही बात तो ये है कि किस्सू के पास कोई दमदारी या धन-दौलत तो है नहीं। जीवन भर चमचागिरी ही करते आये हैं। दो-चार बड़े नेताओं से परिचय क्या हो गया, टिकट की दावेदारी ठोकने लगे।

रामू बोला: तो अब का बचो है इनके पास?

किस्सू भैया ने पानी पी-पीकर जितनो कोसो है दूसरी पार्टी वालों खें, अब वे इन्हें अपने पास तक नें बिठेंहें, टिकट की बात तो बहुत दूर की है। इनकी ओछीं हरकतें, चाहे जब मार-पीट, लड़ाई-झगड़े और जा कलई की बेइज्जती कम है का। इनकी पार्टी वाले भी इन्हें टिकट देबे की पहलऊँ सौ बार सोचहें। बेचारे किस्सू भैया। का सोचत रयै और का हो गओ। अब तो तुम्हाये किस्सू न घर के रहे नें घाट के, तुम्हईं बताओ हम सही कै रये की नईं।

जगदीश: अरे भाई, मैं क्या बताऊँ। मैं कोई नेता-वेता तो हूँ नहीं। पड़ोसी होने के नाते साथ में उठना-बैठना तो पड़ता ही है न। अब कल से सीधे दुकान ही जाया करूँगा और अपना धंधा में अपना ध्यान लगाऊँगा।

रामू: और जो किस्सू भैया ने तुम्हें ओई चौरस्ते बारे मकान खें सस्ते में दिलाबे की बात कही ती, अब ओ को का करहो?

जगदीश: अरे रामू भैया, अब छोड़ो उस बात को, अब जो पैसे हमने उन्हें दिए थे, वे तो डूबे ही समझ लो, कोई लिखा पढ़ी तो की नहीं थी। और फिर किस्सू जैसे लोगों से पैसे वापस लेना टेढ़ी खीर है।

हमें तो इस विपदा की घड़ी में  कोई रास्ता ही सुझाई नहीं दे रहा है।

रामू: अच्छा तुम्हईं बताओ जगदीश भैया कि हमनें तुम्हें कितनी बार समझाओ रहो कि अपनी दुकान की तरफ ध्यान लगाओ लेकिन तुमने लालच के चक्कर में एकऊ नें मानी। अब खुदई भुगतो और घर बारों को भी अलसेट में डालो। अब हमारी एक सलाह मानो, आज के बाद तुम भूल खें भी बो किस्सू के पास नें जईयो, गए तो बो उल्टे चार-छह लात-घूँसे मार खें भगा देहे और यदि तुमने थाने में रिपोट लिखबा भी दई तो ओ के डर से तुम्हें कोई गवाह तक नें मिलहे।

जगदीश: अरे भाई, आप भी न, सांत्वना और समझाने की जगह हमें डरा रहे हो। कोई उपाय हो तो वह बताओ।

रामू: सुनो जगदीश भैया, किस्सू को पैसा देने के पहले  तुमने हमसे पूछी रही का? कोई सलाह लई रही का? अब तुम उनके चंगुल में फँस गए हो तो अब हम का बताएँ तुम्हें। अब तो बस उन पैसों खें भूलई जाओ और भगवान के ऊपर छोड़ दो। कायसें के कभऊ किस्सू खें  सद्बुद्धि आई तो बो लौटा भी सकत है।

जगदीश: काश रामू, मैंने अपनी घरवाली की बात मान ली होती तो ये दिनन देखना न पड़ते। अब तो वो महीनों रोज सौ-सौ सुनाएगी। पैसों की अलग चिंता और अब बीवी के दिनरात ताने, कहाँ फँस गया मैं रामू!

रामू: और ले लो सस्ते में मकान। सस्ते का चक्कर होता ही ऐसा है जिसमें अक्सर लुटिया डूबतई है। भैया हम भले और हमारी मजदूरी भली। हम तो घरें जात हें, पेट में चूहे कूद रयै हें।

और  बैठ लो अपने किस्सू भैया के संगे। हमारी मानो तो अब ओ से सौ गज दूरई रहियो!!! जाते जाते एक और सलाह दे गया रामू..

यहाँ जगदीश के दिमाग में किस्सू भैया, नेता जी, बजरंगी महाराज, मकान, डूबे पैसे, रामू के कटाक्ष, और बीवी के ताने चलचित्र की भाँति दिखाई दे रहे थे। जगदीश अब किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में था।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ मैं भी पोते का दादा हूँ ☆ श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

(हम आभारी है  व्यंग्य को समर्पित  “व्यंग्यम संस्था, जबलपुर” के जिन्होंने  30 मई  2020 ‘ की  गूगल  मीटिंग  तकनीक द्वारा आयोजित  “व्यंग्यम मासिक गोष्ठी'”में  प्रतिष्ठित व्यंग्यकारों की कृतियों को  हमारे पाठकों से साझा करने का अवसर दिया है।  इसी कड़ी में  प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध लेखक/व्यंग्यकार श्री रमेश सैनी जी का  एक समसामयिक एवं विचारणीय भावप्रवण व्यंग्य – “मैं भी पोते का दादा हूँ”।  कृपया  रचना में निहित मानवीय दृष्टिकोण को आत्मसात करें )

☆ मैं भी पोते का दादा हूँ ☆

कोरोना का लाकडाउन चालू है.. बाजार बंद हैं. चारों तरफ मातमी सन्नाटा है. पुलिस जगह जगह मुस्तैद है. आवाजाही पूर्णतया बंद है. कुछ बहादुर लोग नियमों को तोड़ने के लिए सड़क पर घूमते नज़र आ रहे हैं. ये लोग शेखी बघारने निकलते हैं. पुलिस के पास भी इनका इंतजाम है. कहीं पर ऊठक बैठक हो रही है, कहीं पर कान पकड़कर कसरत कराई जा रही है. कहीं पर लोग अपने पिछवाड़े पर हाथ रखकर दौड़ते नजर आ रहे हैं और जो लोग बच जाते हैं. वे फोन पर परिचितों को आँखों देखा हाल सुना रहे हैं. ये सब किस्से घरों में आम है. मै भी घर पर बैठा बैठा बोर हो रहा हूँ. बाहर घूमने की तलब बढ़ गई है. मुझे याद है, शहर में दंगे फसाद के समय दुस्साहस कर घुस जाता था. मुझे रोमांच लगता था. अभी भी मेरा मन बाहर जाने के लिए भड़भड़ा रहा है. सोचा चौराहे तक का चक्कर लगा आऊं. जैसे ही बाहर निकलने के लिए कदम बढ़ाए कि पीछे से आवाज आई.

“आप कहाँ चल दिए”-बेटे ने टोंका

” वैसे ही! थोड़ा माहौल का जायजा ले लूँ.”

“ठीक है, बाहर दुनिया ठीक चल रही है. सरकार ने जायजे के लिए पुलिस का बढ़िया इंतजाम कर रखा है. आप बिलकुल चिंता न करें. आपको अपनी उम्र का ख्याल रखना चाहिए. सरकार आप लोगों की चिंता में परेशान है. इतनी चेतावनी और एडवाइजरी जारी कर रही है पर आप लोग मानते ही नहीं.” – बेटे ने चिड़चिड़ा कर कहा.

“बेटा! अपनी उम्र का ख्याल रखता हूँ. यह इंडिया है दूसरे लोग भी हमारे बालों का ख्याल रखते हैं.” मैंने कहा.

तब उसने कहा- “आप लोग भी अपने बालों से बेज़ा फायदा उठाने में बाज नहीं आते” उसकी बात सुनकर मन खिन्न हो गया मैं वापस आकर सोफे पर बैठ गया. मुझे उदास बैठा देखकर बेटे ने फिर कहा “देखिए ! आपको मैं रोक तो नहीं पाऊंगा. अत: आप पूरी सावधानी के साथ चौराहे तक जाएं और दस मिनट में लौट के आज जाएं.” मैं खुश हो गया और जाने के लिए बाहर निकलने लगा. पीछे से आवाज आई – “दादू आप कहां जा रहे हैं. मेरे लिए कुछ फल ले आना. यह आवाज मेरे पोते कृष्णा की थी. मैं खुश था और इशारे से कहा-” हां ठीक ले आऊंगा”

मैं स्कूटी से चौराहे के पास पहुंचा है. सामने पुलिस ही पुलिस नजर आ रही थी. मुझे दूर से ही देख कर एक जवान पुलिस वाले ने इशारा किया. “रुक जाओ”. मैं उसके पास जाकर रुक गया. मुझे पास आते देख, वह पीछे हट गया. फिर उसने दूर से ही मेरा ऊपर से नीचे तक मुआयना  किया.  उसकी नजर मेरे सर पर गई. सिर पर पूरे सफेद बाल  देखते ही उसने हाथ जोड़कर कहा -“अंकल कहां जा रहे हैं?”

“बेटा ! पोते के लिए फल लेने निकला हूँ” मैंने कहा.

“आप भी अंकल! अरे मोहल्ले में फल वाले निकलते होंगे” उसकी मिठास भरी आवाज मुझे अंदर तक ठंडा कर गई. पुलिस का यह रूप देखकर मैं चकित हो गया. मैंने सोचा यह करोना  किसी से कुछ भी करवा सकता है. पुलिस वालों के सामने गरीब, अमीर ,जवान और बुड्ढे सब बराबर है. सच्चा समाजवाद यहीं है. ये लोग सिर्फ मनीपावर से डरते हैं.

“बेटा बहुत दिन से नहीं आया है. बच्चे जिद करने लगे तो निकलना पड़ा.”

” आपको अपना ख्याल रखना चाहिए करोना सबसे ज्यादा आप बुजुर्गों को असर करता है.”

मैं शर्मिंदा होगया  उसकी बात सुनकर कहा”आप ठीक कह रहे हो।“

“अच्छा ऐसा करो! अंकल आप यहां से दाएं मुड़ जाइए और आगे फलों के ठेले मिल जाएंगे

“मैंने उसे धन्यवाद कहा आगे से दायें मुड़ गया. थोड़ा आगे बढ़ने पर दो-तीन फलों के ठेले दिखने लगे. मैं पहले ही ठेले पर रुक गया. ठेले पर पहले से ही तीन-चार लोग खड़े थे. मैं थोड़ी दूरी पर सोशल डिस्टेसिंग बना कर खड़ा हो गया. मैं देखा एक ने फलों को चुनकर अलग किया और उससे पूछा-” क्या भाव है ?” भाव सुनकर वह ठिठका और फलों को छोड़कर आगे बढ़ गया. ठेले वाले ने आवाज लगाई- “कुछ कम कर दूंगा”  पर वह नहीं रुका. दूसरा भी उसको देख कर आगे बढ़ गया. उसने फिर आवाज लगाई-” ले लो यह सब ताजे हैं” वे दोनों आगे बढ़ गए और अगले के पास रुक गए. इस बीच तीसरे ने कुछ फल चुन लिए थे. जैसे ही उसने भाव पूछा. उसका  भी मूड बदल गया और कहा- “अभी नहीं लेना है” यह कह वह भी आगे बढ़ गया. उन सब के जाने से ठेला वाला निराश और हताश हो गया.

मैंने कुछ तरबूज और अच्छे फल चुनकर उससे कहा -“तौल दो” उसने तौलने के लिए तराजू और बांट उठाएं. उसके गले में लटका चांद तारा वाला लॉकेट दिख गया. मुझे बिजली का करंट सा लग गया. टी व्ही पर आती हुई खबरें दिमाग में घूम गई .जमाती लोग बसों में यहां वहां थूक रहे हैं. कोई ठेला वाला थूक लगाकर फल और सब्जी बेच रहा है. तो कोई दरवाजे और हैंडलों में थूक लगा रहा है. ठेले वाले को देख मुझे टी व्ही वाले चित्र नज़र आने लगे. मैं सहम गया. मन में भय व्याप्त हो गया. अनेक विचार आने लगे. और कुछ सोच कर आगे बढ़ गया. मुझे बढ़ता देख ठेले वाले ने आवाज लगाई -“बाबू जी ! क्या हो गया? बाबू जी, सब ताजे फल हैं. उसकी आवाज सुनकर, मैं रुक गया, कहां -“हां ताजे हैं, मैं अभी लौट कर आता हूँ. और आगे बढ़ गया. ठेला वाला मेरा चेहरा देखता रहा फिर कुछ पल रुक कर कहा- “कोई बात नहीं बाबू जी”, फिर हाथ जोड़कर कहा- “बाबू जी जय श्रीराम”. जय श्रीराम सुनकर मैं भीतर तक कांप गया. मुझे जय श्रीराम का जवाब देते नहीं बना. मैं अपनी गाड़ी वहीं खड़ी कर  ठेले वाले के पास आया. मैं कुछ देर उसे देखता रहा. फिर उससे पूछा- “कब से यह काम कर रहे हो” व्हाट्सएप और सोशल मीडिया से खबरें आ रही थी कि कुछ लोग मजबूरी के चलते अपना धंधा बदलकर फल और सब्जियों का ठेला लगाने लगे हैं, क्योंकि लाकडाउन में इन्हीं चीजों को बेचने की अनुमति थी. उसने कहा- “बाबूजी मैं अच्छा टेलर हूँ. मेरी छोटी दुकान है. पर लाकडाउन की वजह से वह बंद है. पेट पालने के लिए कुछ काम तो करना था. यह ठेला किराए पर लेकर फल बेचने लगा. मैं कुछ कहता, उसके पहले वह फिर बोला – बाबूजी ! यह नया धंधा है. मुझे कुछ समझ में नहीं आता. टेलर हूँ. इसलिए आदमी को नाप लेता हूँ. पर आदमी को तौल नहीं पाता. मैं कुछ देर उसे देखता रहा. फिर कहा-” तुम तो मुसलमान हो, फिर जय श्रीराम. मेरी बात सुनकर उसकी आंखें पनीली हो गई. -” हां! मुसलमान हूँ और एक इंसान भी. साथ में दो छोटे बच्चों का बाप भी हूँ. मैं उनको भूखा भी नहीं देख सकता. उसकी आंखें और बातें मुझे अंदर तक गीला कर गयीं. मैंने फल उठाएं उसे दो सौ का नोट दिया और आगे बढ़ गया. उसने पीछे से आवाज लगाई  -“बाबूजी बाकी पैसे” मैंने कहा -“तुम रख लो. मैं भी पोते का दादा हूँ.

© रमेश सैनी 

जबलपुर 

मोबा. 8319856044  9825866402

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 52 ☆ व्यंग्य – मांगो सबकी खैर ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय व्यंग्य   “मांगो सबकी खैर।  श्री विवेक जी का यह कथन अत्यंत सार्थक है – “हम फकीर कबीर पर डाक्टरेट करके अमीर तो बनना चाहते हैं किन्तु महात्मा कबीर के सिद्धांतों से नही मिलना चाहते.” यह कटु सत्य विश्व के सभी महात्माओं के लिए सार्थक लगता है। श्री विवेक जी की लेखनी को इस अतिसुन्दर  व्यंग्य के  लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 52 ☆ 

☆ व्यंग्य – मांगो सबकी खैर ☆

महात्मा कबीर बजार में खड़े सबकी खैर मांगते हैं  ! पर खैर मांगने से करोंना  करुणा करे तो क्या बात होती.

निर्भया को, आसिफा को,दामिनी को  खैर मिल जाती तो क्या बात थी.मंदसौर हो, दिल्ली हो बंगलौर हो मुम्बई हो ! ट्रेन हो उबर, ओला हो ! हवाई जहाज हो ! शापिंग माल हो हर कहीं जंगली कुत्ते तितलियों के पर नोंचने पर आमादा दिखते हैं. हर दुर्घटना के बाद केंडल मार्च निकाल कर हम अपना दायित्व पूरा कर लेते हैं, जिसे जिस तरह मौका मिलता है वह अपनी सुविधा से अपनी पब्लिसिटी की रोटी सेंक लेता है, जिससे और कुछ नही बनता वह ट्वीट करके, संवेदना दिखाकर फिर से खुद में मशगूल हो जाता है. जिसके ट्वीटर पर एकाउंट नही है वे भी व्हाट्सअप पर इसकी उसकी किसी न किसी की कविता को हरिवंशराय बच्चन की, जयशंकर प्रसाद  या अमृता प्रीतम की रचना बताकर कम से कम पोस्ट फारवर्ड करने का सामाजिक दायित्व तो निभा ही लेता है. पर स्त्री के प्रति समाज के मन में सम्मान का भाव कौन बोयेगा यह यक्ष प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाता है.

खैर मांगने से किसान के इंजीनियर बेटे को नौकरी मिल जाती तो क्या बात थी. खैर मांगने से मजदूर की मजबूरी मिट जाती तो क्या बात थी ।खैर मांगने से रामभरोसे को जीवन यापन की न्यूनतम सुविधायें मिल जातीं तो क्या बात थी.और तो और खैर मांगने से नेता जी को वोट ही मिल जाते तो क्या बात होती. वोट के लिये भी किसी को गरीबी हटाओ के नारे देने पड़े, किसी को फुल पेज विज्ञापन देना पड़ा कि हम सुनहरे कल की ओर बढ़ रहे हैं, किसी को फील गुड का अहसास टी वी के जरिये करवाना पड़ा तो किसी को पंद्रह लाख का प्रलोभन देना पड़ा. अच्छे दिन आने वाले हैं यह सपना दिखाना पड़ा. सलमान की तरह शर्ट भले ही न उतारनी पड़ी हो पर सीने का नाप तो बताना ही पड़ा, चाय पर चर्चा करनी पड़ी तो खटिये पर चौपाल लगानी पड़ी. वोट तक इतनी मशक्कत के बाद मिलते हैं, खैर मांगने से नहीं. दरअसल अबकी बार जब महात्मा कबीर से मेरी मानसिक भेंट होगी तो मुझे उन्हें बतलाना है कि आजकल  बिन मांगे मोती मिले मांगे मिले न खैर.

सच तो यह है कि हम महात्मा कबीर से एकांत में मिलते ही तो नही. जिस दिन महात्मा कबीर से हम अलग अलग अकेले में गुफ्तगू करने लगेंगे, सबको हर व्यंग्यकार में महात्मा कबीर नजर आने लगेगा. जिस दिन हर बंदा महात्मा कबीर के एक दोहे को भी चरित्र में उतार लेगा उस दिन महात्मा कबीर फिर प्रासंगिक हो जायेंगे. पर हम फकीर कबीर पर डाक्टरेट करके अमीर तो बनना चाहते हैं किन्तु महात्मा कबीर के सिद्धांतों से नही मिलना चाहते.

क्योकि महात्मा कबीर ढ़ाई अक्षर प्रेम के  पढ़वा देगे, वे हमारे साथ बुरा देखने  निकल पड़ेगे और हमें अपना दिल खोजने को कह देगे. यदि कहीं महात्मा कबीर ने याद दिला दिया कि जाति न पूछो साधु की तब तो चुनाव आयोग के ठीक सामने धर्मनिरपेक्ष देश में  जाति के आधार पर सरे आम जीतते हारते हमारे कैंडिडेट्स का क्या होगा ? इसलिये  हमें तो महात्मा कबीर के चित्र पसंद है जिसका इस्तेमाल हम अपनी सुविधा से अपने लिये करके प्रसन्न बने रह सकें.महात्मा कबीर पर पीएचडी की जाती है, महात्मा कबीर के नाम पर सम्मान दिया जाता है, महात्मा कबीर पर गर्व किया जाता है उन पर भाषण  और निबंध लिखा  जाता है.हमने उन्हें पाठो में सहेजकर प्रश्न पूंछने उत्तर देने और नम्बर बटोरने का टापिक बना छोड़ा है.  सब करियेगा पर उससे पहले मेरे कहने से ही सही कभी एकांत में महात्मा कबीर के विचारों से अपनी एक मीटिंग फिक्स कीजीये. उनके विचार मालुम न हो तो गूगल से निसंकोच पूछ लीजियेगा.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

Please share your Post !

Shares
image_print