श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “सम्मान की आहट …..।” यह रचना सम्मान के मनोविज्ञान का सार्थक विश्लेषण करती है । इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 29☆
☆ सम्मान की आहट ….. ☆
जब भी सम्मान पत्र बँटते हैं; उथल -पुथल, गुट बाजी व किसी भी संस्था का दो खेमों में बँट जाना स्वाभाविक होता है। कई घोषणाएँ तो, सबको विचलित करने हेतु ही की जाती हैं, जिससे जो जाना चाहे चला जाए क्योंकि ये दुनिया तो कर्मशील व्यक्तियों से भरी है; ऐसा कहते हुए संस्था के एक प्रतिनिधि उदास होते हुए माथे पर हाथ रखकर बैठ गए ।
तभी सामान्य सदस्य ने कहा – इस संस्था में कुछ विशिष्ट जनों पर ही टिप्पणी दी जाती है, वही लोग आगे-आगे बढ़कर सहयोग करते दिखते हैं, या नाटक करते हैं ; पता नहीं ।
क्या मेरा यह अवलोकन ग़लत है …? मुस्कुराते हुए संस्था के सचिव महोदय से पूछा ।
वर्षो से संस्था के शुभचिन्तक रहे विशिष्ट सदस्य ने गंभीर मुद्रा अपनाते हुए, आँखों का चश्मा ठीक करते हुए कहा बहुत ही अच्छा प्रश्न है ।
सामान्य से विशिष्ट बनने हेतु सभी कार्यों में तन मन धन से सहभागी बनें, सबकी सराहना करें, उन्हें सकारात्मक वचनों से प्रोत्साहित करें, ऐसा करते ही सभी प्रश्नों के उत्तर मिल जायेंगे।
सामान्य सदस्य ने कहा मेरा कोई प्रश्न ही नहीं, आप जानते हैं, मैं तो ….
अपना काम और जिम्मेदारी पूरी तरह से निभाता हूँ । आगे जो समीक्षा कर रहा है ; कामों की वो जाने।
एक अन्य विशिष्ट सदस्य ने कहा आप भी कहाँ की बात ले बैठे ये तो सब खेल है, कभी भाग्य का, कभी कर्म का, बधाई हो; पुरस्कारित होने के लिये आपका भी तो नाम है।
आप हमेशा ही सार्थक कार्य करते हैं, आपके कार्यों का सदैव मैं प्रशंसक हूँ।
तभी एक अन्य सदस्य खास बनने की कोशिश करते हुए कहने लगा, कुछ लोगों को गलतफहमी है मेरे बारे में, शायद पसंद नहीं करते ……मुँह बिचकाते हुए बोले, मैं तो उनकी सोच बदलने में असमर्थ हूँ, और समय भी नहीं ये सब सोचने का….।
पर कभी कभी लगता है; चलिए कोई बात नहीं।
जहाँ लोग नहीं चाहते मैं रहूँ; सक्रियता कम कर देता हूँ। जोश उमंग कम हुआ बस..।
सचिव महोदय जो बड़ी देर से सबकी बात सुन रहे थे कहने लगे – इंसान की कर्तव्यनिष्ठा , उसके कर्म, सबको आकर्षित करते हैं। समयानुसार सोच परिवर्तित हो जाती है।
मुझे ही देखिये कितने लोग पसंद करते हैं.. …. हहहहहह ।
अब भला संस्था के दार्शनिक महोदय भी कब तक चुप रहते कह उठे जो व्यक्ति स्वयं को पसंद करता है उसे ही सब पसंद करते हैं।
सामान्य सदस्य जिसने शुरुआत की थी, बात काटते हुए कहने लगा शायद यहाँ वैचारिक भिन्नता हो।
जब सब सराहते हैं, तो किये गए कार्य की समीक्षा और सही मूल्यांकन होता है, तब खुद के लिये भी अक्सर पॉजीटिव राय बनती है, और बेहतर करने की कोशिश भी।
दार्शनिक महोदय ने कहा दूसरे के अनुसार चलने से हमेशा दुःखी रहेंगे अतः जो उचित हो उसी अनुसार चलना चाहिए जिससे कोई खुश रहे न रहे कम से कम हम स्वयं तो खुश होंगे।
सत्य वचन ,आज से आप हम सबके गुरुदेव हैं , सामान्य सदस्य ने कहा।
सभी ने हाँ में हाँ मिलाते हुए फीकी सी मुस्कान बिखेर दी और अपने- अपने गंतव्य की ओर चल दिए ।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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