हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 56 ☆ व्यंग्य – नया भारत ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक अतिसुन्दर व्यंग्य   “ नया भारत ।  यह बिलकुल सच है कि मार्केटिंग ने न केवल फ़ास्ट मूविंग कंस्यूमर गुड्स  अपितु हमारे जीवन में भी अहम् भूमिका निभा रहे हैं। श्री विवेक जी की लेखनी को इस अतिसुन्दर  व्यंग्य के  लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 56 ☆ 

☆ व्यंग्य –  नया भारत ☆

मार्केटिंग का फंडा है जब किसी ब्रांड नेम की वैल्यू कुछ कम लगने लगे तो उसका नया अवतार प्रस्तुत करके लोकप्रियता बरकरार रखी जाती है. इसके लिये स्पार्कलिंग कलर्स में पैकेजिंग बदली जाती है, नये स्लोगन और टैग लाईन दी जाती है. हिन्दी में पढ़े उपसर्ग व प्रत्यय का भी समुचित उपयोग करके ब्रांड वैल्यू की रक्षा की जाती है.  नाम के आगे “नया ” उपसर्ग लगा देने से सब कुछ नया नया सा हो जाता है. लोग पुराने की कमियां भूल जाते हैं, और नये के स्वप्न में खो जाते हैं. इस तरह लकड़ी की हांडी बारम्बार चढ़ाई जा सकती  है. निजी क्षेत्र में तो एम बी ए पास युवा अपने इसी हुनर की मोटी तनख्वाहें पाते हैं. पूरे विश्वास से प्रोडक्ट बिना बदले ” भरोसा वही, पैकिंग नई ” का स्लोगन प्राईम टाईम पर विज्ञापन बाला बोलती है और सेल्स के आंकड़े बढ़ने लगते हैं, क्योकि जो दिखता है वही तो बिकता है. एक संस्थान का नाम उसके लोगो पर केपिटल लैटर्स में लिखा जाता था, फंड मैनेजर की  नीयत में कुछ खोट आ गई, घोटाले का क्या है,हो गया. जांच वगैरह बिठा दी गईं, पर संस्थान तो नहीं बिठाया जा सकता था, लोगो बदल दिया गया, कैपिटल लैटर्स की जगह स्माल लैटर्स में संस्था का नया नाम लिख दिया गया. फंड फिर चल निकला. आखिर हर साल इस देश में करोड़ो की आबादी बढ़  रही है, पुरानो को न सही नयो को तो नये से परिचित करवाया ही जा सकता है. फ़ास्ट मूविंग कंस्यूमर गुड्स  में एक नही अनेक प्रोडक्ट हैं,जो कभी गुणवत्ता में कम ज्यादा निकल आते हैं, कभी किसी मिलावट  के शिकार हो जाते हैं, कभी कोई कीटाणु निकल आता है पैक्ड बोटल में पर मजाल है कि सेल्स के फिगर गिर जायें, लोगो की स्मृति कमजोर होती है, विज्ञापन की ताकत और नाम के आगे “न्यू” का प्रिफिक्स बेड़ा पार करवा ही देता है. एक टुथपेस्ट के सेल्स फिगर गिरे तो उसने प्रोडक्ट में नमक, तुलसी, बबूल, जाने क्या क्या मिलाकर एक के अनेक उत्पाद ही परोस दिये. खरीदो जो पसंद आये पर खरीदो हमसे ही.

देश के मामले भी तकनीकी मनोविज्ञान के सहारे मैनेज किये जाते हैं. अभी तक गरीबी हटाओ के नारो को, अच्छे दिनों के सपनो को, सुनहरे कल के सफर के तिलिस्म को, बेहतरी के लिये बदलाव को अखबारो के फुल पेज विज्ञापनो के सहारे वोटो में तब्दील करने के ढ़ेरो प्रयोग कईयो ने कई कई बार किये हैं. पर अब कुछ बेहतर की जरूरत लग रही है. इसलिये नामुमकिन से ना हटा दिया गया है. वहां से न लेकर या में मिलाकर,  “नया” उपसर्ग जुड़ा ताकतवर  रत पूरे भरोसे और श्रद्धा  के साथ प्रस्तुत है. मेरी कामना है कि सचमुच ही मेरा भारत  दिखने में स्मार्ट, व्यवहार में गंभीर, ताकत में फौलादी  नया भारत हो जावे, तो फिर किसी को विज्ञापन में बोलना न पड़े काम खुद ही बोले आरोप लगाने से पहले आरोप लगाने वाला सौ दफा सोचे..

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 52 ☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – – व्यंग्य का सौदागर ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनके द्वारा स्व हरिशंकर परसाईं जी के जीवन के अंतिम इंटरव्यू का अंश।  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी ने  27 वर्ष पूर्व स्व  परसाईं जी का एक लम्बा साक्षात्कार लिया था। यह साक्षात्कार उनके जीवन का अंतिम साक्षात्कार मन जाता है। आप प्रत्येक सोमवार ई-अभिव्यिक्ति में श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के सौजन्य से उस लम्बे साक्षात्कार के अंशों को आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 52

☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – – – – – व्यंग्य का सौदागर  ☆ 

जय प्रकाश पाण्डेय–

बहुत पहले आपने कहीं कहा था कि ” मैं व्यंग्य का सौदागर हूं”  यह बात आपने किस संदर्भ में एवं किस आशय से कही थी ?
हरिशंकर परसाई-
यह निर्विवाद था, मैंने सरकारी नौकरी छोड़ी और पूरी तरह से अपना समय लेखन को दिया और स्वतंत्र लेखक हो गया।मेरी जीविका लेखन से चलती थी, मैं लिखता रहा हूं व्यंग्य।तब तो और भी लिखता था इसलिए मैंने कहा कि व्यंग्य जो है मेरा रोज़गार है।
जय प्रकाश पाण्डेय –
अनेक महत्वपूर्ण आलोचकों के मतानुसार व्यंग्य किसी भी भाषा, समाज या समय के श्रेष्ठ लेखन का अनिवार्य गुण है जबकि एक वर्ग ऐसे लोगों का भी है जिनका मानना है कि चूंकि व्यंग्य लेखन में जीवन की संपूर्णता में चित्रित करने की क्षमता नहीं होती अत: श्रेष्ठतम व्यंग्य लेखन भी महान साहित्य की श्रेणी में परिगणित नहीं हो सकता। इस संबंध में आप क्या कहना चाहेंगे ?
हरिशंकर परसाई –
सम्पूर्ण जीवन से क्या अर्थ है, सम्पूर्ण सामाजिक जीवन तो किसी महाकाव्य या किसी एक उपन्यास तक में भी नहीं आ सकता है। कई उपन्यास हों तो शायद आ भी जावे या भी पूरा न आ पाये। जीवनी उपन्यास हो तो किसी एक व्यक्ति के जीवन, नायक के जीवन का सम्पूर्ण चित्र आ जाता है। मैंने जो व्यंग्य लिखे हैं सिलसिलेवार नहीं, खण्ड खण्ड लिखा है, निबंध, कहानी, लघु उपन्यास, कालम इत्यादि और इन सब में समाज का एक तरह से सर्वेक्षण हो गया है, एक पूरे समाज का सर्वेक्षण कर लेना भी मेरा ख्याल है कि उस समाज को एक टोटलिटी में संपूर्णता से व्यंग्य के द्वारा चित्रित करना ही है, जैसे रवीन्द्रनाथ ने कोई महाकाव्य नहीं लिखा लेकिन उनकी फुटकर कविताओं में लगभग वह सभी आ गया जो किसी एक महाकाव्य में आता है, ऐसा मेरा ख्याल है और ऐसा ही मेरे लेखन में है। तो ये दावा तो नहीं कर सकता, दास्ताएवस्की कर सकते हैं न बालजाक कर सकते हैं कि उनकी रचना में संपूर्ण जीवन आ गया है पर बहुत अधिक अंशों तक आ गया है। ये हम मान लेते हैं। मैंने सम्पूर्ण जीवन में लिखने के लिए कोई उपन्यास दो-चार – छह नहीं लिखे। मैंने खण्ड – खण्ड में जीवन को जहां जैसा देखा, उसको वैसा चित्रित किया,उस पर वैसा व्यंग्य किया। अब कालम के द्वारा समसामयिक घटनाओं पर वैसा कर रहा हूं। इस प्रकार समाज का पूरा सर्वेक्षण मेरे लेखन में आ जाता है, लेकिन मैं ये दावा नहीं कर सकता हूं कि जीवन की सम्पूर्णता या सामाजिक जीवन की सम्पूर्णता मेरे लेखन में आ गई है, वो नहीं आई है, और इतना पर्याप्त नहीं है।

……………………………..क्रमशः….

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 7 ☆ सजन रे झूठ ही बोलो” ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  व्यंग्य “सजन रे झूठ ही बोलो”।  इस  साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । श्री शांतिलाल जैन जी के व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक होते हैं ।यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता  को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 7 ☆

☆ सजन रे झूठ ही बोलो”

‘सजन रे झूठ मत बोलो…..वहाँ पैदल ही जाना है.’

अपन तो इससे असहमत हैं.

सजन झूठ क्यों नहीं बोले, बताईये भला ? सजन राजनीति में है. झूठ बोले बिना वहाँ उसका काम चल पाया है कभी. कुर्सी, पद, पोजीशन, पॉवर उसका एक मात्र ख़ुदा है और पैदल चलकर तो उस तक पहुँचा नहीं जा सकता ना. गीतकार ने बिना कुछ देखे ही लिख दिया – न हाथी है न घोड़ा है. श्रीमान ज़रा आकर देखिये तो, हाथी घोड़े अब उसकी रैलियों में निकलते हैं. पैदल तो वो तब था जब उसने राजनीति में अपना पहला कदम रखा था. उधार की बाईक पर झूठ का सहारा लेकर चढ़ा, फिर एम्बेसेडर, मारुती एट-हंड्रेड से बोलेरो और वातानुकूलित रेल से होता हुआ, चार्टर्ड प्लेन से वो तो अपने ख़ुदा तक कब का पहुँच चुका, और आप हैं कि गाना गाते ही रह गये. जो उसने 1966 में शैलेन्द्र के लिखे इस गीत पर भरोसा किया होता तो या तो गुलफाम की तरह मारा गया होता या अभी भी हीरामन की तरह कहीं बैलगाड़ी हांक रहा होता. इसीलिये वो गीतों, कविताओं, रचनाओं, बुद्धिजीवियों के झांसे में नहीं पड़ता. अलबत्ता, उन कलाकारों को जरूर साधकर रखता है जो उसके झूठ को भी सच बना कर गानों के एल्बम जारी कर सकें.

झूठ भी कितने मासूम!! रोजगार बढ़ायेगा. महंगाई कम करेगा. सबको बिजली, पानी, सड़क मिलेगी. सबके लिये सुलभ शिक्षा, स्वास्थ्य और लोक परिवहन. भ्रष्टाचार ढूंढे नहीं मिलेगा. मिनिमम गवर्नमेंट, मेक्सीमम गवर्नेंस की गारंटी. जितने मासूम झूठ हैं उससे ज्यादा मासूम उस पर भरोसा करने वाले. वो विकास का चाँद लाकर सजनिया के जूड़े में सजाने का वादा करता है. इन झूठों पर पैदल उसे नहीं जाना पड़ता, जो यकीन करते हैं – पैदल तो उनको जाना पड़ता है. वो जितनी नफ़ासत से झूठ बोलता है, ‘वी सपोर्ट अवर सजन’ उसके लिये उतना ही अधिक ट्रेंड करता है. गौर से देखिये श्रीमान, ‘सत्य के प्रयोग’ जैसी आत्मकथा के लेखक की समाधि पर, हाथों में श्रद्धा के पुष्प लेकर, वो परिक्रमा लगा रहा है. इस मासूमियत पर कौन ना मर जाये, या ख़ुदा !

सर्फ़ एक्सेल में दाग और राजनीति में झूठ अच्छे हैं. दोनों मुनाफ़ा दिलाते हैं. वो एक झूठा नारा सा गढ़ता है और करोड़ों सजनियाँ उसकी छाप का बटन दबा कर उसे उसके ख़ुदा तक पहुंचा देती हैं. वो मुफलिस सजनियों से सपोर्ट पाता है, रईसों की दौलत में इज़ाफा करने वाली पॉलिसी बनाता है. सजनियों को पता होता है कि वे छली जा रहीं हैं, मगर तब भी अभिभूत रहती हैं.  ‘सजनवा बैरी हो गये हमार’. अब बैरी हो गये हैं तो क्या सपोर्ट करना बंद दें ? कभी कभी कांस्टीट्यूएन्सी में वे गाती हुई निकल पड़ती हैं – साजन साजन पुकारूँ गलियों में. मगर क्या करें, सजन बेवफ़ा बिजी है भोपाल, जयपुर, लखनऊ, पटना या दिल्ली में. पाँच साल बाद ही आ सकेंगे. वहाँ भी वे अकेले नहीं हैं. उनके साथ झूठे खबरची हैं, झूठी ख़बरें हैं, झूठे वीडियो हैं, डॉक्टर्ड फोटो हैं, मनगढ़ंत कहानियाँ हैं, झूठ का एक पूरा सेल है, झूठे हलफ़नामे हैं, घुमावदार बयान हैं, झांसेदार आंकड़े हैं, झूठ की आकाशगंगा में विचरते बेहया सितारे हैं.

वैसे इतना आसान भी नहीं है झूठ बोल पाना. कलर चेंज करना पड़ता है, झूठ सफ़ेद कर लिया जाये तो गले उतारने में आसानी रहती है. ये ऐरे-खैरों के बस का काम नहीं है. प्रजातंत्र के मंदिर के फ्लोर पर मेज ठोक-ठोक के बोलना पड़ता है. ली हुई शपथ भूलनी पड़ती है तब जाकर हिम्मत जुटा पता है बेवफा सजन.

बहरहाल, अब कब वापस आ रहे हैं सजन ? बताया ना अभी, पांच साल बाद, कुछ नये नारे, लुभावने जुमले, मीठे झूठ, फ़रेबी वादों के साथ आपका वोट चुराने आयेंगे वे. डेमोक्रेसी इतनी आसाँ नहीं है श्रीमान, इक झूठ का दरिया है. जो जितने गहरे में डूबा वो उतना ही शीर्ष पर पहुंचा है. तो झूठ क्यों नहीं बोले, बताईये भला ?

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टी टी नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 54 ☆ व्यंग्य – हमारी आँख की कंकरी- भेड़ाघाट ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है  एक बेहतरीन व्यंग्य  ‘हमारी आँख की कंकरी- भेड़ाघाट’। यह  व्यंग्य विनम्रतापूर्वक  उन सब की  ओर से है जो दर्शनीय स्थल वाले शहरों में रहते हैं। अब इसे लिख दिया तो लिख दिया – ताकि सनद रहे और वक्त जरूरत काम आये। ऐसे अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 54 ☆

☆ व्यंग्य – हमारी आँख की कंकरी- भेड़ाघाट ☆

शुरू शुरू में भेड़ाघाट देखा तो तबियत बाग-बाग हो गयी। बड़ा रमणीक स्थान लगा। दो चार बार और देखा। फिर हुआ यह कि हमारी शादी हो गयी और हम जबलपुर में सद्गृहस्थ के रूप में स्थापित हो गये। फिर जबलपुर के बाहर से हमारे परिचित भेड़ाघाट देखने आने लगे और हमारे पास रुकने लगे। तब हमें महसूस हुआ कि वस्तुतः भेड़ाघाट उतना सुन्दर नहीं है जितना हम समझते थे। भेड़ाघाट के दर्शनार्थियों की संख्या बढ़ने के साथ उसका सौन्दर्य हमारी नज़र में निरन्तर गिरता रहा है। और अब तो यह हाल है कि कभी भेड़ाघाट जाते हैं तो ताज्जुब होता है कि इस ऊबड़खाबड़ जगह में लोगों को भला क्या सौन्दर्य नज़र आता है। मेरे खयाल से यह अनुभूति उन सभी लोगों को होती होगी जो दर्शनीय स्थानों में रहते हैं।

घर में जब कोई अतिथि आते हैं तो नाश्ते के बाद वे मुँह पोंछकर पूछते हैं, ‘हाँ भाई, जबलपुर में कौन कौन सी दर्शनीय जगहें हैं?’और मेरा कलेजा नीचे को सरक जाता है। यह भेड़ाघाट इतना प्रसिद्ध हो चुका है कि अगर मैं दाँत निकालकर कहूँ, ‘अरे भाई, जबलपुर में दर्शनीय स्थल कहाँ?’ तो पक्का लबाड़िया साबित हो जाऊँगा।

और फिर मुहल्ले के कुछ महानुभाव मेरी  चलने भी कहाँ देते हैं। मुहल्ले के दुबे जी, पांडे जी या चौबे जी मेरे अतिथि को सड़क पर रोक कर परिचय प्राप्त करते हैं। फिर कहते हैं, ‘यहाँ तक आये हैं तो भेड़ाघाट ज़रूर देखिएगा, नहीं तो घर जाकर क्या बतलाइएगा?’ मेरा मन होता है कि पांडे जी से कहूँ कि महाराज,वे घर जाकर जो कुछ भी बतायें, लेकिन मैं उनके जाने के बाद आपको ज़रूर कुछ बताऊँगा। और मैंने कई बार ऐसे उत्साही लोगों की खबर भी ली है, लेकिन सवाल यह है कि संसार में किस किस मुँह पर ढक्कन लगाऊँ?

मैं कई लोगों को भेड़ाघाट के प्रभाव के विरुद्ध संघर्ष करते और हारते देखता हूँ। एक मित्र के घर पहुँचता हूँ तो वहाँ अतिथि देवता विराजमान हैं। स्वल्पाहार के बाद वे मित्र से पूछते हैं, ‘हाँ,तो आज दिन का क्या प्रोग्राम है?’ मित्र महोदय दाँत भींचकर उत्तर देते हैं, ‘आज तो भोजन के बाद छः घंटे निद्रा ली जाए। ‘ अतिथि देव सिर हिलाकर हँसते हैं, कहते हैं, ‘उड़ो मत। मैं भेड़ाघाट देखे बिना नहीं मानूँगा। ‘ मित्र भी हँसता है, लेकिन उसकी हँसी देखकर मुझे रोना आता है।

भेड़ाघाट ने जबलपुर वालों की खटिया वैसे ही खड़ी कर रखी है जैसे ताजमहल ने आगरा वालों की खाट खड़ी कर रखी है। नगर निगम वालों ने हमारी मुसीबत लंबी करने के लिए भेड़ाघाट में नौका-विहार की व्यवस्था कर दी है। उस दिन राय साहब रोने लगे। बोले, ‘भैया, कल मेहमानों को भेड़ाघाट ले गया था। डेढ़ हजार रुपया समझो नर्मदा जी में डूब गया। अब खजुराहो देखने की जिद कर रहे हैं। बहकाने की कोशिश कर रहा हूँ, लेकिन सफलता की आशा कम है। ‘ उन्होंने ऐसी निश्वास छोड़ी कि मेरी कमीज़ थरथरा गयी।

अब पछताता हूँ कि कहाँ दर्शनीय स्थल वाली नगरी में फँस गया। मैं तो भारत सरकार से गुज़ारिश करना चाहता हूँ कि भेड़ाघाट को कहीं दिल्ली के पास स्थानांतरित कर दिया जाए ताकि जबलपुर वालों का यह ‘तीरे नीमकश’ निकल जाए  और शहर को राहत का अहसास हो। हम सरकार बहादुर के बेहद मशकूर होंगे।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 55 ☆ व्यंग्य – पादुकाओ की आत्म कथा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक अतिसुन्दर व्यंग्य   “पादुकाओ की आत्म कथा।  यह बिलकुल सच है कि पादुका का स्थान पैर ही है यदि गलती से  या जान बूझ कर  वे हाथ में आ गई तो क्या हो सकता है, आप स्वयं ही पढ़ लीजिये। श्री विवेक जी की लेखनी को इस अतिसुन्दर  व्यंग्य के  लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 55 ☆ 

☆ व्यंग्य – पादुकाओ की आत्म कथा ☆

मैं पादुका हूं. वही पादुका, जिन्हें भरत ने भगवान राम के चरणो से उतरवाकर सिंहासन पर बैठाया था. इस तरह मुझे वर्षो राज काज  चलाने का विशद  अनुभव है. सच पूछा जाये तो राज काज सदा से मैं ही चला रही हूं, क्योकि जो कुर्सी पर बैठ जाता है, वह बाकी सब को जूती की नोक पर ही रखता है. आवाज उठाने वाले को  को जूती तले मसल दिया जाता है. मेरे भीतर सुखतला होता है, जिसका कोमल, मृदुल स्पर्श पादुका पहनने वाले को यह अहसास करवाता रहता है कि वह मेरे रचे सुख संसार का मालिक है.   मंदिरो में पत्थर के भगवान पूजने , कीर्तन, भजन, धार्मिक आयोजनो में दुनियादारी से अलग बातो के मायावी जाल में उलझे, मुझे उपेक्षित लावारिस छोड़ जाने वालों को जब तब मैं भी छोड़ उनके साथ हो लेती हूं, जो मुझे प्यार से चुरा लेते हैं. फिर ऐसे लोग मुझे बस ढ़ूढ़ते ही रह जाते हैं. मुझे स्वयं पर बड़ा गर्व होता है जब विवाह में दूल्हे की जूतियां चुराकर जीजा जी और सालियो के बीच जो नेह का बंधन बनता है, उसमें मेरे मूल्य से कहीं बड़ी कीमत चुकाकर भी हर जीजा जी प्रसन्न होते हैं. जीवन पर्यंत उस जूता चुराई की नोंक झोंक के किस्से संबंधो में आत्मीयता के तस्में बांधते रहते हैं. कुछ होशियार सालियां वधू की जूतियां कपड़े में लपेटकर कहबर में भगवान का रूप दे देतीं हैं और भोले भाले जीजा जी एक सोने की सींक के एवज में मेरी पूजा भी कर देते हैं. यदि पत्नी ठिगनी हो तो ऊंची हील वाली जूतियां ही होती हैं जो बेमेल जोड़ी को भी साथ साथ खड़े होने लायक बना देती हैं. अपने लखनवी अवतार में मैं बड़ी मखमली होती हूं पर चोट बड़ी गहरी करती हूं.दरअसल भाषा के वर्चुएल अवतार के जरिये बिना जूता चलाये ही, शब्द बाण से ही इस तरह प्रहार किये जाते हैं, कि जिस पानीदार को दिल पर चोट लगती है, उसका चेहरा ऐसा हो जाता है, मानो सौ जूते पड़े हों. इस तरह मेरा इस्तेमाल मान मर्दन के मापदण्ड की यूनिट के रूप में भी किया जाता है. सच तो यह है कि जिंदगी में जिन्हें कभी जूते खाने का अवसर नही मिला समझिये उन्हें एक बहुत ही महत्वपूर्ण अनुभव नही है. बचपन में शैतानियो पर मां या पिताजी से जूते से पिटाई, जवानी में छेड़छाड़ के आरोप में किसी सुंदर यौवना से जूते से पिटाई या कम से कम ऐसी पिटाई की धमकी का आनंद ही अलग है.

तेनाली राम जैसे चतुर तो राजा को भी मुझसे पिटवा देते हैं. किस्सा है कि एक बार राजा कृष्णदेव और तेनालीराम में बातें हो रही थीं. बात ही बात में तेनालीराम ने कहा कि लोग किसी की भी बातों में बड़ी सहजता से आ जाते हैं, बस कहने वाले में बात कहने का हुनर और तरीका होना चाहिये. राजा इससे सहमत नहीं थे, और उनमें शर्त लग गई. तेनालीराम ने अपनी बात सिद्ध करने के लिये समय मांग लिया. कुछ दिनो बाद कृष्णदेव का विवाह एक पहाड़ी सरदार की सुंदर बेटी से होने को था. तेनाली राम सरदार के पास विवाह की अनेक रस्मो की सूची लेकर पहुंच गये, सरदार ने तेनालीराम की बड़ी आवभगत की तथा हर रस्म बड़े ध्यान से समझी. तेनालीराम चतुर थे, उन्हें राजा के सम्मुख अपनी शर्त की बात सिद्ध करनी ही थी, उन्होने मखमल की जूतियां निकालते हुये सरदार को दी व बताया कि राजघराने की वैवाहिक रस्मो के अनुसार, डोली में बैठकर नववधू को अपनी जूतियां राजा पर फेंकनी पड़ती हैं, इसलिये मैं ये मखमली जूतियां लेते आया हूं, सरदार असमंजस में पड़ गया, तो तेनाली राम ने कहा कि यदि उन्हें भरोसा नही हो रहा तो वे उन्हें जूतियां वापस कर दें, सरदार ने तेनाली राम के चेहरे के विश्वास को पढ़ते हुये कहा, नहीं ऐसी बात नही है जब रस्म है तो उसे निभाया जायेगा. विवाह संपन्न हुआ, डोली में बैठने से पहले नव विवाहिता ने वही मखमली जूतियां निकालीं और राजा पर फेंक दीं, सारे लोग सन्न रह गये. तब तेनाली राम ने राजा के कान में शर्त की बात याद दिलाते हुये सारा दोष स्वयं पर ले लिया. और राजा कृष्णदेव को हंसते हुये मानना पड़ा कि लोगो से कुछ भी करवाया जा सकता है, बस करवाने वाले में कान्फिडेंस होना चाहिये.

बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय  के निर्माण के लिए पंडित मदन मोहन मालवीय धन एकत्रित कर रहे थे,अपनी इसी मुहिम में  वे  हैदराबाद पहुंचे. वहां के निजाम से भी उन्होंने चंदे का आग्रह किया तो वह निजाम ने कहा की मैं हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए पैसे क्यों दूं ? इसमें हमारे लोगों को क्या फायदा होगा. मालवीय जी ने कहा कि मैं तो आपको धनवान मानकर आपसे चंदा मांगने आया था, पर यदि आप नहीं भी देना चाहते तो कम से कम  मानवता की दृष्टि से जो कुछ भी छोटी रकम या वस्तु दे सकते हैं वही दे दें. निजाम ने मालवीय जी का अपमान करने की भावना से  अपना एक जूता उन्हें दे दिया. कुशाग्र बुद्धि के मालवीय जी ने उस जूते की बीच चौराहे पर नीलामी शुरू कर दी. निजाम का जूता होने के कारण उस जूते की बोली हजारो में लगने लगी. जब ये बात निजाम को पता चली तो उन्हें अपनी गलती का आभास हो गया और उन्होंने अपना ही जूता  ऊंचे दाम पर मालवीय जी से खरीद लिया. इस प्रकार मालवीय जी को चंदा भी मिल गया और उन्होने निजाम को अपनी विद्वता का अहसास भी करवा दिया. शायद मियाँ की जूती मियां के सर कहावत की शुरुआत यहीं से हुयी. भरी सभा में आक्रोश व्यक्त करने के लिये नेता जी पर या हूट करने के लिये किसी बेसुरी कविता पर कविराज पर भी लोग चप्पलें फेंक देते हैं. यद्यपि यह अशिष्टता मुझे बिल्कुल भी पसंद नही. मैं तो सदा साथ साथ जोडी में ही रहना पसंद करती हूं. पर जब मेरा इस्तेमाल हाथो से होता है तो मैं अकेली ही काफी  होती हूं किसी को भी पीटने के लिये या मसल डालने के लिये. हाल ही नेता जी ने भरी महफिल में अपने ही साथी पर जूते से पिटाई कर मुझे एक बार फिर महिमा मण्डित कर दिया है.

वैसे जब से ब्रांडेड कम्पनियो ने लाइट वेट स्पोर्ट्स शू बनाने शुरू किये हैं, मैं अमीरो में स्टेटस सिंबल भी बन गई हूं, किस ब्रांड के कितने मंहगे जूते हैं, उनका कम्फर्ट लेवल क्या है, यह पार्टियो में चर्चा का विषय बन गया है.एथलीट्स के और खिलाड़ियों के जूते टी वी एड के हिस्से बन चुके हैं. उन पर एक छोटा सा लोगो दिखाने के लिये करोड़ो के करार हो रहे हैं. नेचर्स की एक जोड़ी चप्पलें इतने में बड़े गर्व से खरीदी जा रहीं हैं, जितने में पूरे खानदान के जूते आ जायें. ऐसे समय में मेरा संदेश यही है कि  दुनियां को सीधा रखना हो तो उसे जूती की नोक पर रखो. जूते तो अपने आविष्कार के बाद से निरंतर चल रहे हैं, कदम दर कदम प्रगति पथ पर बढ़ रहे हैं,  जूतो की टैग लाइन ही है,चरैवेति चरैवेति. पैरो में नही तो हाथो से चलेंगे पर चलेंगे जरूर. मै तो देश बक्ति में यही गुनगुनाती प्रसन्न रहती हूं, “मेरा जूता है जापानी, सर पर लाल टोपी रूसी फिर भी दिल है हिंदुस्तानी “.तो जूता कोई भी पहने पर दिल हिन्दुस्तानी बनाये रखें. इति मम आत्मकथा.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 22 ☆ परीक्षा की घड़ी ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं प्रेरणास्पद रचना “परीक्षा की घड़ी ।  वास्तव में श्रीमती छाया सक्सेना जी की प्रत्येक रचना कोई न कोई सीख अवश्य देती है।  समाज में कुछ प्रतिशत लोग समय की गंभीरता को क्यों नहीं समझ रहे हैं? यह प्रश्न अपने आप में गंभीर है। श्रीमती छाया जी न केवल प्रश्न उठाती हैं अपितु, उनका सकारात्मक निदान भी साझा करती हैं।  इस समसामयिक सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 22 ☆

☆ परीक्षा की घड़ी 

अचानक क्या से क्या हो सकता है;  ये तो हम सभी देख ही रहे हैं ।  इस अवधि में सभी ने अपने – अपने स्तरों पर स्वयं का अवलोकन कर अपने में सकारात्मक सुधार किए हैं । जहाँ एक ओर कुशल शिक्षक बच्चों को पढ़ाता है, तो दूसरी ओर एक गुरु अपने सभी शिष्यों को शिक्षित करता है,   और तीसरी ओर प्रकृति जब कोई पाठ पढ़ाती है,  तो परिणाम सबके अलग-अलग आते हैं ।

कारण साफ है कि सीखने वाला जिस भाव के साथ सीखेगा उसको उतना ही समझ में आयेगा । लगभग 70 दिनों से अधिक लॉक डाउन में रहने के बाद भी लोग आज भी वही गलतियाँ कर रहे हैं । ऐसा लगता है कि अनलॉक -1,  4 – 4 लॉक पर भारी पड़ रहा है। जैसे पंछी मौका पाते ही फुर्र से उड़ जाता है वैसे ही अधिकांश लोग बिना कार्य ही घूमने निकल पड़े हैं। सोशल डिस्टेंस तो मानो बीते युग की बात हो, मास्क के नाम पर कुछ भी लपेटा और चल दिये।

चारों ओर फिर से मरीज दिखने लगे, अब तो डॉक्टर ये भी नहीं पता लगा पा रहे कि ये रोग रोगियों को कैसे लगा। रोगों के लक्षण भी नहीं दिख रहे। पर कहते हैं न कि  सच्ची शिक्षा कभी व्यर्थ नहीं जाती तो कुछ लोगों ने ये ठान लिया है कि इससे निजात पाना ही है। सो अच्छाई ने पंख धारण कर उड़ान भरना शुरू कर दिया है। अब लोग न केवल खुद जागरुक हो रहे हैं वरन जो लापरवाही करते दिख रहा है उसे भी टोकते हैं। जिस प्रकार एक मॉनिटर पूरे क्लास को संभाल लेता है वैसे ही सच्चे नागरिक को स्वयं जिम्मेदार नागरिक का फर्ज निभाते हुए  सारे सुरक्षा  नियमों का पालन करना व करवाना चाहिए।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 54 ☆ व्यंग्य – लल्लन टाप होने की रिस्क ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक अतिसुन्दर व्यंग्य   “लल्लन टाप होने की रिस्क।  श्री विवेक जी ने  शिक्षा के क्षेत्र में सदैव प्रथम आने की कवायद और अभिभावकों की मानसिकता पर तीखा व्यंग्य  किया है । साथ ही गलत तरीकों से ऊंचाइयों पर पहुँचाने का हश्र भी।  श्री विवेक जी की लेखनी को इस अतिसुन्दर  व्यंग्य के  लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 54 ☆ 

☆ व्यंग्य – लल्लन टाप होने की रिस्क ☆

“अगर आप समाज का विकास करना चाहते हैं तो आप आईएएस बनकर ही  कर सकते हैं “, यहां समाज का भावार्थ खुद के व अपने  परिवार से होता है, यह बात मुझे अपने सुदीर्घ अनुभव से बहुत लम्बे समय में ज्ञात हो पाई है. यदि हर माता पिता, हर बच्चे का सपना सच हो सकता तो भारत की आधी आबादी आई ए एस ही होती,  कोई भी न मजदूर होता न किसान, न कुछ और बाकी के जो आई ए एस न होते वे सब इंजीनियर, डाक्टर, अफसर ही होते. धैर्य, कड़ी मेहनत, अनुशासन और हिम्मत न हारना, उम्मीद न छोड़ना, परीक्षा की टेंशन से बचना और खुद पर भरोसा रखना, नम्बर के लिये नहीं ज्ञानार्जन के लिये रोज 10 या 20 घंटे पढ़ना जैसे गुण टापर बनाने के सैद्धांतिक तरीके हैं. प्रैक्टिकल तरीको में नकल, पेपर आउट करवा पाने के मुन्नाभाई एमबीबीएस वाले फार्मूले भी अब सेकन्ड जनरेशन के पुराने कम्प्यूटर जैसे पुराने हो चले  हैं.पढ़ाई के साथ साथ  तन, मन, धन से गुरु सेवा भी आपको टापर बनाने में मदद कर सकता है, कहा भी है जो करे सेवा वो पाये मेवा.

एक बार एक अंधा व्यक्ति सड़क किनारे खड़ा था. वह राह देख रहा था कि कोई आने जाने वाला उसे सड़क पार करवा दे. इतने में एक व्यक्ति ने उसके कंधे पर हाथ रखा और कहा कि कृपया मुझे सड़क पार करवा दें मैं अंधा हूँ. पहले अंधे ने दूसरे को सहारा दिया और चल निकला, दोनो ने सड़क पार कर ली. यह सत्य घटना जार्ज पियानिस्ट के साथ घटी थी. शायद सचमुच भगवान  उन्ही की मदद करता है जो खुद अपनी मदद करने को तैयार होते हैं. मतलब अपने लक को भी कुछ करने का अवसर दें, निगेटिव मार्किंग के बावजूद  सारे सवाल अटैम्प्ट कीजीए  जवाब सही निकले तो बल्ले बल्ले.

टापर बनाने के लेटेस्ट  फार्मूले की खोज बिहार में हुई है. कुछ स्कूल अपनी दूकान चलाने के लिये तो कुछ कोचिंग संस्थान अपनी साख बनाने के लिये शर्तिया टाप करवाने की फीस लेते हैं. उनके लल्लन छात्र  भी टाप कर जाते हैं.  नितांत नये आविष्कार हैं. कापी बदलना, टैब्यूलेशन शीट बदलवाना, टाप करने के ठेके के कुछ हिस्से हैं  कुछ नये नुस्खे धीरे धीरे मीडीया को समझ आ रहे हैं. यही कारण है कि बिहार में टापर होने में आजकल बड़े रिस्क हैं जाने कब मीडीया फिर से परीक्षा लेने मुंह में माईक ठूंसने लगे. जिस तेजी से बिहार के टापर्स एक्सपोज हो रहे  है, अब गोपनीय रूप से टाप कराने के तरीको पर खोज का काम बिहार टापर इंडस्ट्री को शुरू करना पड़ेगा.कुछ ऐसी खोज करनी पड़ेगी की कोई टाप ही न करे, सब नेक्सट टु  टाप हों जिससे यदि मीडीया ट्रायल में कुछ न बने तो बहाना तो रहे. या फिर रिजल्ट निकलते ही टापर को गायब करने की व्यवस्था बनानी पड़ेगी, जिससे ये  इंटरव्यू वगैरह का बखेड़ा ही न हो.

एक पाकिस्तानी जनरल को हमेशा टाप पर रहने का जुनून था. वे कभी परेड में भी किसी को अपने से आगे बर्दाश्त नही कर पाते थे. एक बार वे परेड में लास्ट रो में तैनात किये गये, पर वे कहां मानने वाले थे, धक्का मुक्की करते हुये तेज चलते हुये  जैसे तैसे वे सबसे आगे पहुंच ही गये, पर जैसे ही वे फर्स्ट लाईन तक पहुंचे कमांडिंग अफसर ने एबाउट टर्न का काशन दे दिया. और वे बेचारे जैसे थे वाली पोजीशन में आ गये. कुछ यही हालत बिहार के टापर्स की होती दिख रही है.

बच्चे के पैदा होते ही उसे टापर बनाने के लिये हमारा समाज एक दौड़ में प्रतियोगी बना देता है.सबसे पहले तो स्वस्थ शिशु प्रतियोगिता में बच्चे के वजन को लेकर ही ट्राफी बंट जाती है, विजयी बच्चे की माँ फेसबुक पर अपने नौनिहाल की फोटो अपलोड करके निहाल हो जाती है. फिर कुछ बड़े होते ही बच्चे को यदि कुर्सी दौड़ प्रतियोगिता में  चेयर न मिल पाये तो आयोजक पर चीटिंग तक का आरोप लगाने में माता पिता नही झिझकते. स्कूल में यदि बच्चे को एक नम्बर भी कम मिल जाता है तो टीचर की शामत ही आ जाती थी. इसीलिये स्कूलो को मार्किंग सिस्टम ही बदलना पड़ गया. अब नम्बर की जगह ग्रेड दिये जाते हैं. सभी फर्स्ट आ जाते हैं.

जैसे ही बच्चा थोड़ा बड़ा होता है, उसे इंजीनियर डाक्टर या आई ए एस बनाने की घुट्टी पिलाना हर भारतीय पैरेंट्स की सर्वोच्च प्राथमिकता होती है. इसके लिये कोचिंग, ट्यूशन, टाप करने पर बच्चे को उसके मन पसंद मंहगे मोबाईल, बाईक वगैरह दिलाने के प्रलोभन देने में हर माँ बाप अपनी हैसियत के अनुसार चूकते नहीं हैं. वैसे सच तो यह है कि हर शख्स अपने आप में किसी न किसी विधा में टाप ही होता है, जरूरत है कि  हर किसी को अपनी वह क्वालिटी पहचानने का मौका दिया जाये जिसमें वह टापर हो.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 51 ☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – – समर्पण  ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनके द्वारा स्व हरिशंकर परसाईं जी के जीवन के अंतिम इंटरव्यू का अंश।  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी ने  27 वर्ष पूर्व स्व  परसाईं जी का एक लम्बा साक्षात्कार लिया था। यह साक्षात्कार उनके जीवन का अंतिम साक्षात्कार मन जाता है। आप प्रत्येक सोमवार ई-अभिव्यिक्ति में श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के सौजन्य से उस लम्बे साक्षात्कार के अंशों को आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 51

☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – – – – – समर्पण  ☆ 

जय प्रकाश पाण्डेय–

आपने अपनी कोई भी पुस्तक प्रकाशित रूप में कभी किसी को समर्पित नहीं की, जबकि विश्व की सभी भाषाओं में इसकी समृद्ध परंपरा मिलती है। आपके व्यक्तित्व व लेखन दोनों की अपार लोकप्रियता को देखते हुए यह बात कुछ अधिक ही चकित और विस्मित करती है?

हरिशंकर परसाई–

यह समर्पण की परंपरा बहुत पुरानी है। अपने से बड़े को, गुरु को, कोई यूनिवर्सिटी में है तो वाइस चांसलर को समर्पित कर देते हैं। कभी किसी आदरणीय व्यक्ति को,कभी कुछ लोग पत्नियों को भी समर्पित कर देते हैं हैं। कुछ में साहस होता है तो प्रेमिका को भी समर्पित कर देते हैं। ये पता नहीं क्यों हुआ है ऐसा। कभी भी मेरे मन में यह बात नहीं उठी कि मैं अपनी पुस्तक किसी को समर्पित कर दूं, जब मेरी पहली पुस्तक छपी, जो मैंने ही छपवाई थी, तो मेरे सबसे अधिक निकट पंडित भवानी प्रसाद तिवारी थे, अग्रज थे, नेता थे, कवि थे, साहित्यिक बड़ा व्यक्तित्व था, उनसे मैंने टिप्पणी तो वह लिखवाई किन्तु मैंने समर्पण में लिखा- “उनके लिए, जो डेढ़ रुपया खर्च करके खरीद सकते हैं।”

तो ये समर्पण है मेरी एक किताब में।

लेकिन वास्तव में यह है वो – उनके लिए जिनके पास डेढ़ रुपया है और जो यह पुस्तक खरीद सकते हैं,उस समय इस पुस्तक की कीमत सिर्फ डेढ़ रुपए थी।सस्ता जमाना था, पुस्तक भी करीब सवा सौ पेज की थी। इसके बाद मेरे मन में कभी आया ही नहीं कि मैं किसी के नाम समर्पित कर दूं। अपनी पुस्तक,जैसा आपने कहा कि मैंने तो पाठकों के लिए लिखा है, तो यह समझ लिया जाये कि मेरी पुस्तक मैंने किसी व्यक्ति को समर्पित न करके तमाम भारतीय जनता को समर्पित कर दी है।

……………………………..क्रमशः….

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 6 ☆ इंस्टेंट जस्टिस जिनकी यूएसपी है ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

☆ मॉम है कि मानती नहीं ☆

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  व्यंग्य “इंस्टेंट जस्टिस जिनकी यूएसपी है।  इस  साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । श्री शांतिलाल जैन जी के व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक होते हैं ।यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता  को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल #6 ☆

☆ इंस्टेंट जस्टिस जिनकी यूएसपी है

जनकसिंग पहलवान अभी-अभी देश बचाने की एक स्वस्फूर्त, स्वप्रेरित कार्यवाही संपन्न करके आ रहे हैं. सीना इस कदर फूल गया है कि शर्ट के दो बटन तो फूलन-फूलन में ही टूट गये हैं. कुछ और फूली सांसे अभी बाहर आयेंगी और नई-नकोर बनियान को भी चीर जायेंगी. गैस, गालियाँ, भभकों और लार से बना गरम लावा मुंह से अविरल बह रहा है.

उधर जख्मी को वन-जीरो-एट से अस्पताल भेजा गया है और इधर फूलती साँसों की बीच वे जितना बोल पा रहे हैं उतने में ही सबको बता रहे हैं कि कैसे उन्होंने देश के एक दुश्मन को सजा दे डाली है. साईकिल के टायर के दो फीट के टुकड़े से उन्होंने एक युवक को इतने सटाके लगाये कि इंसान था, झेब्रा दिखने लगा. वो तो लोगों ने कस कर पकड़ लिया वरना वे उसका वही हश्र करते जो कबीलों में मुल्जिम का, बरास्ते कोड़ों के, सजा-ए-मौत सुनाये जाने पर होता है.

उनकी अपनी एक अदालत है, अपना ही विधान. इसके मुंशी मोहर्रिर, वकील, पेशकार, जज, अपीलीय कोर्ट, जस्टिस, चीफ जस्टिस तक वे खुद ही खुद हैं. विधि में सनात्कोत्तर डिग्री उन्होंने वाट्सअप विश्वविद्यालय से हांसिल की है. जूरिस्प्रुडेंस के उनके अपने सिद्धांत हैं. न्याय की उनकी देवी के हाथ की तराजू में सब धान बाईस पसेरी तुलता है. उसने आँखों पर पट्टी तो नहीं बाँध रखी है मगर एक खास नज़रिये का चश्मा जरूर चढ़ाया हुआ है. वे फैसला ही नहीं देते, पेनल्टी एक्सीक्यूट भी करते हैं. इंस्टेंट जस्टिस उनकी यूएसपी है. उनका न्याय न इंतज़ार करता है, न कराता है. ज्यादातर मुकदमे वे सुओ-मोटो हाथ में लेते हैं और देश बचाने का केस हो तो टॉप प्रायोरिटी पर निपटाते हैं. ऐसा हर केस निपटाने के बाद उनको लगता है कि उन्होंने मातृभूमि के ऋण की एक ईएमआई चुका दी है. अभी काफी कुछ क़र्ज़ चुकाना बाकी है. शौर्य चक्रों से खुद को नवाजने की परंपरा भारत में रही होती तो उनके सीने पर कर्नल गद्दाफ़ी की वर्दी पर लगे मैडलों से दुगुने मैडल लगे होते. बहरहाल, आग उगलते मुंह से उन्होंने कहा – ‘……. चीनी चपटा, हमारे देश में कोरोना भेजता है. वो सटाके लगाये कि अब जिन्दगी में इधर पैर नहीं रखेगा.’ शर्ट का एक बटन और टूट गया है.

मैंने कहा – ‘पेलवान, वो लड़का तो मेघालय से यहाँ पढ़ने आया था. सामनेवाली मल्टी के पीछे एक कमरे में किरायेदार है. संगमा जेम्स जैसा कुछ नाम है उसका.’

उन्होंने मुझे घूरकर देखा. मैं बुरी तरह डर गया. अभी लावा ठंडा पड़ा नहीं है. जो उनने अपन को ही चीन का जासूस समझकर सूत-सात दिया तो…!! बोले – ‘मैंने ये बाल धूप में सफ़ेद नी करे हेंगे, आपसे ज्यादा दुनिया देखी हेगी. कौनसा लै बताया आपने ?’

‘मेघालय’

‘हाँ वोई. ये सारे लै, है, वै, हू, तू, थू चीन में ही पड़ते हैं. चपटे सब वहीं से आते हैं.’

‘पेलवान, वो भारत की ही एक स्टेट है. सेवन सिस्टर्स नहीं सुना आपने ?’

‘सिस्टर हो या ब्रदर – देश सबके ऊपर है.’ फिर बोले – ‘वाट्सअप पे आये चीनियों से सिकल मिला लेना उसकी, नी मिलती होय तो नाम बदल देना जनकसिंग पेलवान का. ….ईलाज करना जरूरी था. देश बचाना है तो इन चपटों की तो…..’.

‘मैं आपको नक्शा दिखाता हूँ ना.’

‘नक़्शे तो इनके मैं बिगाडूँगा. नक्शेबाजी करना भुला दूंगा एक एक की. और कालोनीवालों, सब कान खोलकर सुन लो रे, एक भी चीनी चपटे को अन्दर घुसने मत देना. टायर के हंटर रखो घर में.’ अपनावाला मुझे थमाते हुवे बोले – ‘कोई चीनी चपटा दिखे तो उसको वईं के वईं सलटा देना. आपसे नी बने तो मेरे कने लिआना.’

वे चले गये, मैं देख पा रहा हूँ – ज़ख्मी विधि, विधायिका, न्याय, न्यायपालिका, संगमा जेम्स और वी द पीपुल ऑफ़ इंडिया…….

 

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टी टी नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 53 ☆ व्यंग्य – लॉकडाउन में रज्जू भाई का इम्तहान ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है व्यंग्य  ‘लॉकडाउन में रज्जू भाई का इम्तहान ’। यह सच है कि  प्रत्येक मनुष्य में कोई न कोई विशेषता होती है। कभी मनुष्य  स्वप्रेरणा से अपनी  प्रतिभा निखार लेता है तो कभी उसे प्रेरित करना पड़ता है। ऐसे अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 53 ☆

☆ व्यंग्य – लॉकडाउन में रज्जू भाई का इम्तहान ☆

रज्जू भाई लॉकडाउन की वजह से बहुत परेशान हैं इतनी लंबी छुट्टी कभी ली नहीं दफ्तर बहुत प्यारा लगता है बतयाने को बहुत लोग हैं सब तरफ चहल पहल रहती है आज्ञाकारी चपरासी बार बार गुटखा तंबाकू,चाय लाने के लिए दौड़ता रहता है जूनियर लिहाज करते हैं हुकूमत का सुख मिलता है रोज़ जेब में भी थोड़ा बहुत आ जाता है

अब घर में बन्द रज्जू भाई के लिए दिन पहाड़ हो जाते हैं खाने और सोने के अलावा कोई काम नहीं सूझता फालतू से घर में मंडराते हैं बेमतलब फोन करने में समय काटते हैं पहले दफ्तर बंद होने पर दफ्तर के क्लब में शतरंज खेलने बैठ जाते थे सात बजे के बाद घर लौटते थे अब टाइम काटने की समस्या है

अब रज्जू भाई सुबह दस बजे तक घुरकते हुए सोते रहते हैं  उनके आसपास घर के काम चलते रहते हैं, लेकिन उनकी नींद में खलल नहीं पड़ता पत्नी सफाईपसंद है झुँझलाकर कहती है, ‘अरे भाई, कितनी मनहूसियत फैलाते हो दफ्तर बन्द है तो दोपहर तक सोते ही रहोगे क्या?पता नहीं कब ये दफ्तर खुलेंगे और कब यह मनहूसी छँटेगी ‘

रज्जू भाई गुस्से में कहते हैं, ‘उठ कर क्या करेंगे? कौन सा काम करना है?’

जवाब मिलता है, ‘काम क्या करोगे? कोई गुन सीखा होता तो आज काम आता जो कोई हुनर जानते हैं वे कुछ न कुछ कर रहे हैं तुमने फाइल इधर उधर सरकाना ही सीखा है और कुछ आता नहीं इसीलिए अहदी की तरह पड़े रहते हो ‘

रज्जू भाई उठ कर बैठ गये बैठे बैठे कुछ सोचते रहे  पत्नी की बात में दम नज़र आया शाम को कुछ ढूँढ़ खोज में  लग गये शादी से पहले बिगड़ी चीज़ों को सुधारने और ठोक-पीट करने का बड़ा शौक था बाद में दफ्तर में ऐसे रमे कि हर काम के लिए दूसरों पर निर्भर हो गये अब पत्नी की झिड़की सुनकर वे अपने पुराने औज़ार ढूँढ़ने में लग गये थे

रात को देर तक थर्मोकोल की शीट्स लेकर खटपट करते रहे आधी रात तक लगे रहे सबेरे बच्चों ने देखा तो खुश हो गये रज्जू भाई ने बच्चों के खेलने के लिए एक बड़ा सा मॉल बनाया था अलग अलग चीज़ों की दूकानें, सेल्समैन, बाहर खड़े गार्ड और कारों की कतार पत्नी भी खुश हुई बच्चे बोले, ‘पापा, आप तो छुपे रुस्तम निकले ‘

दूसरे दिन रज्जू भाई जल्दी उठकर काम में लग गये गैस का चूल्हा कई दिन से गड़बड़ कर रहा था उसे लेकर पत्नी बड़बड़ाती रहती थी कई बार सुधारने वाले को फोन किया था, लेकिन कोई लॉकडाउन में आने को तैयार नहीं था रज्जू भाई उसे लेकर बैठे और घंटे भर में ठीक करके दे दिया पत्नी ने खुश होकर तालियाँ बजायीं

अगले तीन चार दिन में रज्जू भाई ने अपनी कला के बहुत से नमूने पेश कर दिये धीरे चलते पंखों की स्पीड सुधर गयी और टायलेट का फ्लश ठीक हो गया पुरानी,बदरंग पेटियों को घिसकर उन पर रंग कर दिया गया और उन पर फूलों और नर्तकियों के सुन्दर चित्र बन गये इधर उधर पड़े डबलों (छोटे घड़ों) पर सुन्दर आकृतियाँ बनाकर उन्हें बैठक के कोनों में सजा दिया गया बेटी के पलंग पर बैठ कर पढ़ने के लिए एक लकड़ी की चौकी बन गयी बहुत दिन से चुप पड़ी डोरबेल भी बोलने लगी

यह सिलसिला शुरू हुआ तो चलता ही रहा रज्जू भाई घर की काया पलटने और अपनी काबिलियत सिद्ध करने में लगे रहे अब घर में उनकी इज़्ज़त बढ़ गयी थी और वे भरोसे के आदमी हो गये थे अब पत्नी हर काम में उनकी राय लेने लगी थी

एक दिन पत्नी से सामना हुआ तो रज्जू भाई ने पूछा, ‘आप अब तो हमें नालायक नहीं समझतीं?’

पत्नी हल्के से मुस्कराकर बोली, ‘नहीं, पहले जैसा नहीं अब तो बहुत सुधर गये हो ‘

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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