श्री राकेश सोहम
( श्री राकेश सोहम जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। श्री राकेश सोहम जी की संक्षिप्त साहित्यिक यात्रा कुछ इस प्रकार है –
साहित्य एवं प्रकाशन – ☆ व्यंग्यकार ☆ प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं, कथाओं आदि का स्फुट प्रकाशन ☆ आकाशवाणी और दूरदर्शन से प्रसारण ☆ बाल रचनाकार ☆ प्रतिष्ठित मासिक पत्रिका और दैनिक अखबार के लिए स्तंभ लेखन ☆ दूरदर्शन में प्रसारित धारावाहिक की कुछ कड़ियों का लेखन ☆ बाल उपन्यास का धारावाहिक प्रकाशन ☆ अनकहे अहसास और क्षितिज की ओर काव्य संकलनों में कविताएँ प्रकाशित ☆ व्यंग्य संग्रह ‘टांग अड़ाने का सुख’ प्रकाशनाधीन।
पुरस्कार / अलंकरण – ☆ विशेष दिशा भारती सम्मान ☆ यश अर्चन सम्मान ☆ संचार शिरोमणि सम्मान ☆ विशिष्ठ सेवा संचार पदक
☆ व्यंग्य – तंजखोर शब्दों की बीमारी ! ☆
(हम आभारी है व्यंग्य को समर्पित “व्यंग्यम संस्था, जबलपुर” के जिन्होंने 30 मई 2020 ‘ की गूगल मीटिंग तकनीक द्वारा आयोजित “व्यंग्यम मासिक गोष्ठी’”में प्रतिष्ठित व्यंग्यकारों की कृतियों को हमारे पाठकों से साझा करने का अवसर दिया है। इसी कड़ी में प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध लेखक/व्यंग्यकार श्री राकेश सोहम जी का एक विचारणीय व्यंग्य – “ तंजखोर शब्दों की बीमारी !”। कृपया रचना में निहित सकारात्मक दृष्टिकोण को आत्मसात करें )
कविता सृजन के मध्य कुछ शब्द व्यंग्य से निकल कर शरणागत हुए. वे उनींदे और परेशान थे. प्रतिदिन देर रात तक जागना. किसी पर पर तंज कसने के लिए अपने आप को तैयार करना. फिर अलसुबह निकल जाना. उनके चेहरों पर कटाक्ष से उपजीं तनाव की लकीरें स्पष्ट दिख रहीं थीं. व्यंग्य के पैनेपन को सम्हालते हुए वे भोथरे हो चले थे.
ये शब्द, ससमूह तकलीफों का गान करने लगे. कुछ ने कहा कि वे समाज को कुछ देने की बजाए कभी राजनीति को पोसते, और कभी कोसते है. व्यवस्थाओं पर राजनीतिक तंज और अकड़बाज़ी दिखाते-दिखाते उनकी तासीर ही अकड़कर कठोर हो चली है. वे प्रतिदिन सैकड़ों हज़ारों की संख्या में व्यंग्य के तीर बनकर निशाने से चूक जाते है. व्यवस्थाओं को सुधारने में असमर्थ पाते है. व्यवस्थाएं केवल और केवल राजनीतिक मुद्दा बन कर रह गयीं हैं. इन्हें चुनावों के दौरान भुनाया जाता है. ये शब्द प्रतिदिवस अखबारों में बैठकर केवल चटखारे बन कर रह गए है. उनके पैनेपन से, उनकी चुभन से जिम्मेदार आला दर्जे के लोग अब दर्द महसूस नहीं करते. अजीब तरह का आनंद अनुभव करते हैं. बल्कि ये लोग उम्मीद करते हैं कि अगली सुबह उन पर निशाना कसा जाएगा और वे चर्चा में बने रहने का सुख भोग पाएंगे.
कठोर मानसिकता से बीमार अनेक शब्द सीनाजोरी पर उतर आए. बहुत समझाने पर भी वे माने नहीं. मांगे मनवाने हेतु जोर आजमाईश पर उतारू हो गए. कवि विचलित हो गया. अतः उनकी इच्छा जाननी चाही. वे बोले कि उन्हें व्यंग्य से निजात दिला दी जाए और कविता में बिठा दिया जाए. उन्हें अपनी बीमार कठोरता से मुक्ति चाहिए.
‘ऐसा क्यों? कविता में क्यों बैठना चाहते है !’, कवि ने फिर पूछा. वे समवेत स्वर में बोल पड़े, ‘क्योंकि कविता स्त्रैण होती है. वह कोमल होती है. सुन्दर और सुवासित होती है. कविता में सरलता और तरलता दोनों होती है, इसलिए.’
कवि ने समझाया, ‘ऐसा नहीं है कि कविता स्त्रैण है इसलिए उसमें कठोरता का कोई स्थान नहीं है. वह कोमल है ज़रूर किन्तु कमज़ोर नहीं है. वह सबला है. आज की स्त्री पुरषोंचित सामर्थ्य जुटाने में सक्षम है. उसे अपना हक़ लेना आ गया है. ज्यादतियों के विरोध में स्वर सुनाई देने लगे है. कविता का तंज व्यंग्य की मार से कमतर नहीं है. कविता दिल से उपजती है और व्यंग्य दिमाग से. इसलिए तुम्हारी मांगें अनुचित है. व्यवस्थाओं के सुधार के लिए दिल-दिमाग दोनों चाहिए.’
व्यंग्य से पलायनवादी शब्द अपने भोथरेपन के साथ निशब्द होकर लौट गए.
© राकेश सोहम्
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