हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 35 ☆ व्यंग्य – कुतर्क के तुर्क ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  व्यंग्य  “कुतर्क के तुर्क”।  इस बेहतरीन  समसामयिक व्यंग्य के लिए श्री विवेक रंजन जी का हार्दिक आभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 35 ☆ 

☆ व्यंग्य – कुतर्क के तुर्क ☆

नेता जी अपने युवा पोते को सिखा रहे थे कि वर्तमान में वही बड़ा नेता है जो अपने तर्क या कुतर्क के जरिये खुद को जनता के सामने सही साबित कर अपने पीछे भीड़ खड़ी कर सके। विदेश से एम बी ए युवा नेता ने जो हाल ही विदेश से वापस लौटकर पिताजी की कास्टीट्युएंसी में कुछ कर के फटाफट अपना वर्चस्व बना लेना चाहता है, अमेरिका और गल्फ के चंद उदाहरण देते हुये कहा, आप सही कह रहे हैं दादा जी यह समय दुनियां भर में कुतर्को को स्थापित करने का समय  है।

मूलभूत नैसर्गिक न्याय को भुलाकर, संविधान की मूल भावना को किनारे रखकर अपने कुतर्क के पक्ष में ढ़ूंढ़ निकाली गई किसी पंक्ति या शब्दावली  की गलत सही व्याख्या कर देश में बेवजह बड़े बड़े आंदोलन खड़े किये जा रहे हैं। अल्लारख्खा और रामभरोसे दोनो ही तर्क कुतर्क के झूले में झूलने पर विवश हैं।

बिना संदर्भ समझे युवा तुर्क वाहवाही लूटने के लिये नासमझो के बीच गजल पढ़ रहे हैं। कापी कैट का जमाना है, चूंकि किसी आंदोलन में फलां शायर की फलां गजल पढ़ी जाती थी तो ये जनाब कैसे पीछे रह जाते, गूगल भाई का माइक दबा कर जितना याद हो वे लफ्ज ही तो बोलने हैं, लीजीये पूरी गजल हाजिर है, बिना जाने बूझे, पढ़ डालिये और तालियां बजवाईये, टी वी पर सुर्खियां बटोरिये। सुनने वाले भी कहां किसी से कम हैं, उन्हें  भी कुछ खास लफ्ज ही सुनाई पड़े और पूर्वागृह से लबरेज जहर उगलने में उन्होंने देर न की।  बेचारी गजल और कब्र में बंद शायर सोशल मीडिया पर ट्रेड करने लगा।

समाज का और देश का जो नुकसान कुछ कीमती संपत्ति जलाने से हुआ उससे कही बहुत अधिक नुकसान पीढ़ियों में स्थापित लोगों के बीच बने परस्पर सामंजस्य में खटास पैदा कर, निरर्थक ध्रुवीकरण से हो रहा है। आज की  ग्लोबल होती, इंटर डिपेंडेंट दुनियां में क्या यह संभव है कि अपने अपने घरों, जातियों के संकुचित दायरों में रहकर देश, समाज चल सके ? इस संकुचन का अंत कहां है ? क्या डबल बेड पर भी अपने अपने कंबलो में सिमटन ही नेतागिरी का अंतिम लक्ष्य है ?  नही, पर यह सही तर्क उस कुतर्क के सामने बहुत छोटा है, जिसमें एक वर्ग विशेष का छद्म घमण्ड छिपा है कि उनके बाबा के बाबा के बाबा तो यहां के बादशाह थे भले ही आज वे तांगे चला रहे हों, या फिर दूसरे वर्ग की वह पीड़ा जिसके चलते संग्रहालय में रखी ५०० साल पुरानी मूर्ति को तोड़ने के जुर्म की सजा यदि तब नही दी जा सकी तो आज तो वह दी ही जानी चाहिये भले ही अपराधियो के वंशजो को दी जाये।

दर्शनशास्त्र में तर्क‍ या आर्ग्यूमेंट्स  कथनों की ऐसी श्रंखला होती है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति या समुदाय को किसी तथ्य के लिये राज़ी किया जाता है या उन्हें किसी व्यक्तव्य को सत्य मानने के लिये कारण दिये जाते हैं।  गणित, विज्ञान और तर्कशास्त्र में यह बिन्दु और अंत के निष्कर्ष औपचारिक तकनीकी भाषा में भी लिखे जा सकते हैं। कम्प्यूटर की तो सारी गणना पद्धति ही तर्क अर्थात लाजिक पर ही आधारित है। एक बंद घड़ी भी कुतर्क की भाषा में पांच मिनट तेज चलने वाली घड़ी से बेहतर कही जा सकती है, क्योकि बंद घड़ी २४ घंटो में कम से कम दो बार तो बिल्कुल सही समय बताती है। अरस्तु वे पहले दार्शनिक थे जिन्होने कुतर्को को भी सूचीबद्ध किया था।तो एक गजलगो के नाते अपना तो यही तर्क है कि शब्दो के नही भावनाओ के सही निहितार्थ समझने की जरूरत है, सबको बड़े दिल से बड़े काम करने के लिये एक जुट होना चाहिये, नेतागिरी चमकाने के चक्कर में जनता को बरगलाने के कुतर्क आज नही तो कल पकड़े ही जायेंगे।

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 7 ☆ पुनरागमन ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर व्यंग्य रचना “पुनरागमन।  यह सत्य ही है कि पुराना इतिहास  एक कालखंड के पश्चात दोहराया जाता है। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 7 ☆

☆ पुनरागमन

आगमन, पुनरागमन की प्रक्रिया कोई नयी नहीं है।  जीवन की हर गतिविधियाँ 20 साल बाद दोहरायी जाती हैं। जैसे फैशन को ही लें आजकल जो कपड़ों का चलन बढ़ रहा है वो सब पुराने इतिहास को ही दुहरा रहा है बस हमारा देखने का नज़रिया बदल गया है और उस पहनावे को आधुनिक मान लेते हैं। यही चीज खान पान के क्षेत्र में भी देखने को मिलती है। पुराने समय में भी इनोवेशन होते थे जिसके फलस्वरूप नयी – नयी वैरायटी स्वाद की श्रंखलाओं से निरंतर जुड़ती जा रही है।  आजकल हर वस्तुएँ ऑन लाइन  बुलायी जा रहीं हैं। ये भी कोई अजूबा नहीं है। लाइन में तो हम सब बरसों से लग रहे हैं। कभी राशन के लिए तो कभी यात्रा के टिकट हेतु, कभी चुनावी टिकट हेतु, बिजली के बिल जमा हेतु, बैंक में खाता ऑपरेट करने हेतु । ऐसे ही न जाने कितने कार्य हैं जहाँ लम्बी लाइन लगती है। सो बदलते परिवेश में आधुनिकीकरण हो गया और ऑन लाइन की परंपरा आ बैठी।  मन पसन्द भोजन,  कपड़े, दैनिक उपयोग की वस्तुएँ, रोजमर्रा की सभी वस्तुएँ मिलने लग गयी हैं।

अरे भई चाँद और मंगल पर भी तो बसेरा करना है कहाँ तक लाइनों में समय व्यर्थ करें अब तो हवा में उड़ने का समय आ गया है। वैसे भी मन की उड़ान सदियों से सबसे तेज रही है। बस कल्पना के घोड़े दौड़ाइए और चल पड़िये जहाँ जी चाहे। वैज्ञानिकों ने भी सतत परिवर्तन को स्वीकार किया है। साथ ही ये भी माना है कि गुण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को जाते हैं सो फैशन भी आता – जाता रहता नये- नये संशोधनों के साथ। संशोधन की बात पर तो संविधान संशोधन की बात याद आ गयी जिसका समय – समय पर मूल्यांकन होता रहता है  जो होना भी चाहिए क्योंकि लोग बदल रहे हैं कब तक पुराना चलेगा। नयी विचारधारा का स्वागत करना चाहिए।   तभी तो आगमन- पुनरागमन का सिद्धान्त सत्य सिद्ध होगा।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 38☆ व्यंग्य – दो कवियों की कथा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज का व्यंग्य  ‘दो कवियों की कथा ’ हास्य का पुट लिए हुए एक बेहतरीन व्यंग्य है । इस व्यंग्य में  तो मानिये किसी अतृप्त कवि की आत्मा ही समा गई हो। ऐसे  बेहतरीन व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 38 ☆

☆ व्यंग्य – दो कवियों की कथा  ☆

कवि महोदय किसी काम से सात दिन से दूसरे शहर के होटल में ठहरे हुए थे। सात दिन से इस निष्ठुर शहर में कोई ऐसा नहीं मिला था जिसे वे अपनी कविताएँ सुना सकें। उनके पेट में कविताएं पेचिश जैसी मरोड़ पैदा कर रही थीं। सब कामों से अरुचि हो रही थी। दो चार दिन और ऐसे ही चला तो उन्हें बीमार पड़ने का खतरा नज़र आ रहा था।

कविता की प्रसूति-पीड़ा से श्लथ कवि जी एक श्रोता की तलाश में हातिमताई की तरह शहर का कोना कोना छान रहे थे। आखिरकार उन्हें वह एक पार्क के कोने में बेंच पर बैठा हुआ मिल गया और उनकी तलाश पूरी हुई। वह दार्शनिक की तरह सब चीज़ों से निर्विकार बैठा सिगरेट फूँक रहा था जैसे कि उसके पास वक्त ही वक्त है।

धड़कते दिल से कवि महोदय उसकी बगल में बैठ गये। धीरे धीरे उसका नाम पूछा। फिर पूछा, ‘कविता वविता पढ़ते हो?’

वह बोला, ‘जी हाँ, बहुत शौक से पढ़ता हूँ। ‘

कवि महोदय की जान में जान आयी। उनकी तलाश अंततः खत्म हुई थी।

वे बोले, ‘कौन कौन से कवि पढ़े हैं?’

उसने उत्तर दिया, ‘सभी पढ़े हैं—-निराला, पंत,दिनकर, महादेवी। ‘

कवि महोदय मुँह बनाकर बोले, ‘ये कहाँ के पुराने नाम लेकर बैठ गये। ये सब आउटडेटेड हो गये। कुछ नया पढ़ा है?’

‘जी हाँ, नया भी पढ़ता रहा हूँ। ‘

कवि महोदय कुछ अप्रतिभ हुए, फिर बोले, ‘नूतन कुमार चिलमन की कविताएँ पढ़ी हैं?’

वह सिर खुजाकर बोला, ‘जी,याद नहीं, वैसे नाम सुना सा लगता है। ‘

कवि महोदय पुनः. अप्रतिभ हुए, लेकिन यह वक्त हिम्मत हारने का नहीं था। उन्होंने कहा, ‘उच्चकोटि की कविता सुनना चाहोगे?’

वह उसी तरह निर्विकार भाव से बोला, ‘क्यों नहीं?’

कवि महोदय ने पूछा, ‘कितनी देर तक लगातार सुन सकते हो?’

वह बोला, ‘बारह घंटे तक तो कोई फर्क नहीं पड़ता। ‘

कवि महोदय को लगा कि झुककर उसके चरण छू लें। उन्होंने उसके कंधे पर हाथ रखा, बोले, ‘आओ, मेरे होटल चलते हैं। ‘

वह बड़े आज्ञाकारी भाव से उनके साथ गया। होटल पहुँचकर कवि जी बोले, ‘तुम्हें हर घंटे पर चाय और बिस्किट मिलेंगे। सिगरेट जितनी चाहो, पी सकते हो। ठीक है?’

‘ठीक है। ‘

कवि जी ने परम संतोष के साथ सूटकेस से अपना पोथा निकाला और शुरू हो गये। वह भक्तिभाव से सुनता रहा। बीच बीच में ‘वाह’ और ‘ख़ूब’ भी बोलता रहा। जैसे जैसे कविता बाहर होती गयी, कवि महोदय हल्के होते गये। अन्त में उनका शरीर रुई जैसा हल्का हो गया। सात दिन का सारा बोझ शरीर से उतर गया।

चार घंटे के बाद कवि जी ने पोथा बन्द किया। वह उसी तरह निर्विकार भाव से चाय सुड़क रहा था। कवि जी विह्वल होकर बोले, ‘वैसे तो मैंने श्रेष्ठ कविता सुनाकर तुम्हें उपकृत किया है, फिर भी मैं तुम्हारा अहसानमंद हूँ कि तुमने बहुत रुचि से मुझे सुना। ‘

वह बोला, ‘अहसान की कोई बात नहीं है, लेकिन यदि आप सचमुच अहसानमंद हैं तो कुछ उपकार मेरा भी कर दीजिए। ‘

कवि जी उत्साह से बोले, ‘हाँ हाँ,कहो। तुम्हारे लिए तो मैं कुछ भी कर सकता हूँ। ‘

जवाब में उसने अपने झोले में हाथ डालकर एक मोटी नोटबुक निकाली। कवि जी की आँखें भय से फैल गयीं, काँपती आवाज़ में बोले, ‘यह क्या है?’

वह बोला, ‘ये मेरी कविताएं हैं। मैं भी स्थानीय स्तर का महत्वपूर्ण कवि हूँ। ‘

कवि महोदय हाथ हिलाकर बोले, ‘नहीं नहीं, मैं तुम्हारी कविताएं नहीं सुनूँगा। ‘

वह कठोर स्वर में बोला, ‘मैंने चार घंटे तक आपकी कविताएं बर्दाश्त की हैं और उसके बाद भी सीधा बैठा हूँ। अब मेरी बारी है। शर्तें वही रहेंगी, हर घंटे पर चाय-बिस्किट और मनचाही सिगरेट। ‘

कवि जी उठकर खड़े हो गये, बोले, ‘मैं जा रहा हूँ। ‘

वह शान्त भाव से बोला, ‘देखिए मैं लोकल आदमी हूँ और कवि बनने से पहले मुहल्ले का दादा हुआ करता था। मैं नहीं चाहता कि हमारे शहर में आये हुए कवि का असम्मान हो। आप शान्त होकर मेरी कविताओं का रस लें। ‘

कवि महोदय हार कर पलंग पर लम्बे हो गये, बोले, ‘लो मैं मरा पड़ा हूँ। सुना लो अपनी कविताएं। ‘

वह बोला, ‘यह नहीं चलेगा। जैसे मैंने सीधे बैठकर आपकी कविताएं सुनी हैं उसी तरह आप सुनिए और बीच बीच में दाद दीजिए। ‘

कवि महोदय प्राणहीन से बैठ गये। मरी आवाज़ में बोले, ‘ठीक है। शुरू करो। ‘

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 34 ☆ व्यंग्य – समस्या का पंजीकरण ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्या अभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  व्यंग्य  “समस्या का पंजीकरण”।  इस  बेहतरीन व्यंग्य के लिए श्री विवेक रंजन जी का हार्दिक आभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 34 ☆ 

☆ व्यंग्य – समस्या का पंजीकरण ☆

“आपकी समस्या सरकार की” अभियान में अपनी हिस्सेदारी की कठिनाई का टाइप किया हुआ प्रतिवेदन लेकर, रामभरोसे  गांव से सुबह की पहली बस से ही साढ़े दस बजते बजते जिले के दफ्तर में जा पहुंचा.

ग्राम सचिव से लेकर, सरपंच जी तक ने उसे दिलासा दी थी कि अब सरकार में जनता की कठिनाई, सरकार की समस्या है. इसके लिये  विशेष अभियान चलाया जा रहा है. लोगों से उनकी कठिनाईयां इकट्ठी की जा रही हैं. अगले बरस चुनाव भी होने वाले हैं, तो लोगों को उम्मीद है कि कठिनाईयों का कुछ न कुछ हल भी मिल सकता है. किन्तु समस्या के हल के लिये सबसे पहले समस्या का पंजीकरण जरूरी था, इसी मुहिम में रामभरोसे जिला दफ्तर आ पहुंचा था. इस प्रयास में उसका पहला साक्षात्कार दफ्तर के बाहर ही हनुमान मंदिर के निकट बने चाय के टपरे पर उपस्थित पकौड़े बना रहे  स्वरोजगार युवा से हुआ. रामभरोसे ने सदैव सर्वत्र उपस्थित हनुमान जी को नमन किया. पंडित जी भी बाकायदा घंटी की ध्वनि करते उपस्थित थे, उन्होने आरती का थाल रामभरोसे की ओर बढ़ाया, तो उसने न्यौछावर कर आरती ले ली और चाय के टपरे में दफ्तर खुलने की बाट देखता चाय पीने चला गया.  चाय पीते हुये बातों ही बातों में रामभरोसे को ज्ञात हुआ कि वह युवक डबल एमए भी है.  रामभरोसे के हाथों में टंकित प्रतिवेदन देखकर, चाय के रुपये काट कर बाकी चिल्हर लौटाते हुये उसने रामभरोसे को कार्यालय के आवक विभाग की दिशा भी सौजन्य स्वरूप दिखला दी. रामभरोसे बड़ा प्रसन्न हुआ, मन ही मन वह हनुमान जी को धन्यवाद करता हुआ, आवक विभाग की ओर बढ़ चला. वहां पहुंच रामभरोसे को पता चला कि  आवक लिपिक आये ही नही हैं. प्रतीक्षा का फल हमेशा मीठा होता है, घण्टे भर की प्रतीक्षा के बाद पान चबाते हुये जब आवक लिपिक आये, तो रामभरोसे ने अपनी अर्जी प्रस्तुत कर दी. आवक लिपिक ने उसे ऊपर से नीचे तक निहारा, फिर अर्जी पढ़ी, रामभरोसे को लगा कि वह तो केवल समस्या के पंजीकरण के लिये आया था, लगता है बजरंगबली की कृपा से आज समाधान ही मिल जावेगा. पर तभी लिपिक की नजर अर्जी पर ऊपर ही टंकित पंक्ति ” आपकी समस्या सरकार की ” पर पड़ गयी.

लिपिक ने रामभरोसे के भोलेपन कर नाराजगी जाहिर करते हुये उसे ज्ञान प्रदान किया कि यह तो सामान्य अर्जियों का आवक विभाग है. इन दिनो जो यह विशेष अभियान चलाया जा रहा है उसकी पंजीकरण खिड़की तो प्रवेश द्वार के बाजू में ही बनायी गयी है,और खिड़की पर इस सूचना की तख्ती भी टांगी गई है. रामभरोसे को अपनी अज्ञानता पर स्वयं ही खेद हुआ,वह बजरंगबली से अपनी मूर्खता के लिये मन ही मन क्षमा मांगता हुआ तेजी से वापस प्रवेश द्वार की ओर लपका, वहां खिड़की के बाहर लम्बी कतार थी. रामभरोसे कतारबद्ध हो लिया. उसका नम्बर आने ही वाला था कि इंटरनेट हैंग हो गया, और सुबह से लगातार काम में जुटा आपरेटर कुर्सी छोड़ गया. रामभरोसे फिर रामनाम सुमिरन करते हुये,प्रतीक्षा के मीठे फल खाने लगा.  जब कतार की प्रतीक्षा हो हल्ले में तब्दील होते दिखने लगी तो, प्रोग्रामर को बुलाया गया उसने कम्प्यूटर बंद कर पुनः चालू कर साफ्टवेयर अपडेट किया. पर इस सब में लंच ब्रेक लग गया. खैर लंच के बाद काम शुरू होते ही रामभरोसे का नम्बर आ गया, और अपनी समस्या की कम्प्यूटर मुद्रित रजिस्ट्रेशन स्लिप पाकर रामभरोसे मुदित मन से लौट ही रहा था कि उसे थकान और भूख का अहसास हुआ. वह उसी सुबह वाले चाय के टपरे पर ही पकौड़े खाने घुस गया. डबल एमए सरोजगार युवक पकौड़ो का ताजा घान झारे से निकाल रहा था. रामभरोसे ने पकौड़े खाते हुये उस युवक के ज्ञान में संशोधन करते हुये उसे बताया कि सुबह उसने, आवक विभाग की गलत जानकारी बता दी थी, इस उपक्रम में जब रामभरोसे ने समस्या पंजीकरण कम्प्यूटर स्लिप में दर्ज अपना मोबाईल नम्बर पढ़ा तो उसे नम्बर गलत होने का अहसास हुआ, डबल जीरो की जगह ट्रिपल जीरो अंकित हो गया था, शायद आपरेटर की हड़बड़ी के चलते ऐसा हुआ हो, या की बोर्ड की खराबी भी हो सकती थी, पकौड़े खाकर  स्वयं को संतोष देता हुआ रामभरोसे बजरंगबली की मर्जी मान, फिर से लाईन में लगने जाने लगा. उसने देखा पंडित जी मंदिर में घंटी बजाते हुये नये आगंतुको की ओर आरती का थाल बढ़ा रहे थे.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 6 ☆ फॉलोअर ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर व्यंग्य रचना “फॉलोअर। भला आज की सोशल मीडिया की दुनियां में कौन फॉलोअर नहीं चाहता? आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 6 ☆

☆ फॉलोअर

आजकल  सभी अपने मन की बात इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जैसे-  ट्विटर , फेसबुक  व व्हाट्सएप पर ही करना पसंद करते हैं । जो भी जी चाहे वहाँ लिखा और बस लाइक की चाह में बैठ गए मोबाइल लेकर । अब तो हर जगह एक ही मुद्दा है मेरे इतने फॉलोवर्स हैं तेरे कितने  हैं । मजे की बात ये है कि इस सम्बंध में लोगों के आइडल  फ़िल्मी स्टार्स व सेलिब्रिटी होते हैं ; उन्ही की तर्ज पर नए- नए बने मोबाइल स्टार भी अपने फॉलो की संख्या तो कम रखते हैं व जल्दी ही लोगों को अनफॉलो कर देते हैं । बस उन्हें तो फॉलोवर्स  चाहिए ।

इस शब्द को सुनकर कहीं न कहीं फालोऑन की याद आती है कि कैसे टेस्ट क्रिकेट में पहली पारी में दूसरी टीम के कम रन होने पर पहली टीम उसे दुबारा खेलने पर मजबूर करती है और अक्सर देखने में आता कि दुबारा भी आल आउट करके विजेता बनना या मैच का ड्रा होना । खैर ये तो सब खेल – खेल में चलता ही रहता है ।

फॉलो मी शब्द भी बहुत प्रचलित है कोई न कोई किसी न किसी को फॉलो अवश्य करता है। हमारे अपने कई रोल मॉडल होते हैं जिनके अनुयायी बनकर जीवन जीना आसान होता है । वैसे भी भेड़ चाल का अपना ही मजा होता है बिना दिमाग लगाए बस मौज उड़ाते रहो यदि गलती एक गड्ढे में गिरा तो उसी के पीछे सब उसी में गिर कर चीखते चिल्लाते रहते हैं । हाँ इतना अवश्य है कि गिरने वाले  इतने सारे लोग होते हैं कि गड्डा भर जाता है और वे एक दूसरे की पीठ पर चढ़कर बाहर आने के लिए  एड़ी चोटी का जोर लगा देते हैं और कुशल चमचे अति शीघ्र ऊपर आ जाते हैं और बन जाते हैं मोटिवेशनल लीडर । जैसे ही लेखनी ने प्रेरणा रूपी आग ऊगली बस फॉलोअर बनने लगे ।

आजकल सबसे ज्यादा पोस्ट  भी बस मोटिवेशनल ही होती है हर व्यक्ति मोटिवेशन चाहता है । सच मानिए जैसे ही पूरा वीडियो देखा उसे लाइक शेयर और कॉमेंट किया तो ऐसा लगता है कि बस पूरी एनर्जी मेरे अंदर  आ गयी है । और  हम निकल पड़ते हैं दूसरे को ज्ञान बाँटने और हाँ अपने फॉलोअर बनाने के लिए फिर पोस्ट को स्पॉन्सर करते हैं । लोगों को व्हाट्सएप पर मैसेज भेज कर उन्हें अपनी पोस्ट पढ़ने हेतु  प्रेरित करते हैं और करना भी चाहिए क्योंकि किसी को प्रेरित करना आज के समय में बहुत बड़ा कार्य है । जहाँ एक तरफ लोग बिना स्वार्थ के किसी की पोस्ट पर लाइक तक नहीं करते वहीं दूसरी ओर लोगों को जाग्रत करने की बात ही कुछ और ही होती है ।

आज के  इलेक्ट्रॉनिक युग में लोकप्रिय होने से कहीं ज्यादा जरूरी है लोकप्रिय होने का दिखावा करना क्योंकि जो दिखता है वही बिकता है । इस तथ्य को सभी कम्पनियों द्वारा समय – समय पर सिद्ध किया जाता रहा है । और तो और अब तो  नेता व दलों का चुनाव भी ये प्रचार के स्लोगन ही निर्धारित करते हैं । आखिर शब्दों की शक्ति को  कौन नहीं जानता । शब्द तो ब्रह्म होते हैं ।  और जहाँ सच्चे शब्द वहाँ समझो जीत पक्की । बस हर क्षेत्र में फॉलो मी का ही खेल चल रहा है । कोई किसी से पिछाड़ी नहीं होना चाहता सभी अगाड़ी बन अपने – अपने स्वार्थ की गाड़ी चलाते रहना चाहते हैं तो बस आप भी जुट जाइये अपने फॉलोवर्स बढ़ाने की जद्दोजहद में और बन जाइये  इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सुपर स्टार ।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 37☆ व्यंग्य – उधार देने का सुख ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज का व्यंग्य  ‘उधार देने का सुख ’  एक बेहतरीन व्यंग्य है और शायद ही कोई हो जिसका इस व्यंग्य के पात्रों से सामना न हुआ हो।आप भी आत्मसात कीजिये । ऐसे  बेहतरीन व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 37 ☆

☆ व्यंग्य – उधार देने का सुख ☆

उनसे मेरा परिचय सिर्फ सलाम-दुआ तक ही था क्योंकि मुझे मुहल्ले में आये थोड़े ही दिन हुए थे। बुज़ुर्ग आदमी थे। उस दिन वे सबेरे सबेरे अचानक ही मेरे घर में आ गये। बैठने के बाद उन्होंने कमरे में चारों तरफ नज़र दौड़ायी। बोले, ‘वाह, बहुत सुन्दर। आपकी रुचि बहुत अच्छी है।’

मुझे अच्छा लगा। मैंने कहा, ‘जी,यह सब मेरी पत्नी का योगदान है। मेरा योगदान तो इसे यथासंभव बिगाड़ने में रहता है।’

वे हँसे और देर तक हँसते रहे। फिर बोले, ‘आपकी आयु अब कितनी हुई?’ मैंने मुँह बनाकर कहा, ‘आप तो दुखती रग छू रहे हैं। पचास पार हो गया।’ उन्होंने भारी आश्चर्य प्रकट किया, बोले, ‘आप तो बहुत तरुण दिखते हैं। आपको देखकर भला कौन कहेगा कि आप तीस से ज़्यादा हैं?’

यह भी अच्छा लगा। यह ऐसी तारीफ है जिसे सुनकर बूढ़ा सन्यासी भी पुलकित हो जाता है। मैं ठहरा सामान्य सद्गृहस्थ।

वे फिर बोले, ‘आपका बेटा बड़ा मेधावी है। बड़ा होशियार है। ‘मैंने सचमुच मुँह बनाकर कहा,’ नीट में तीसरी बार बैठ रहा है। ‘ वे थोड़ा अप्रतिभ हुए, लेकिन हारे नहीं। बोले, ‘लेकिन उसमें प्रतिभा ज़रूर है और एक दिन वह ज़रूर प्रकाशित होगी। ‘ मैंने कहा, ‘आपके मुँह में घी-शक्कर।’

और थोड़ी देर बैठकर, कुछ नैवेद्य ग्रहण करके उन्होंने विदा ली। दहलीज पार करके दो चार कदम चले होंगे कि ऐसे लौट पड़े जैसे एकाएक कुछ याद आ गया हो। बोले, ‘आपके पास पाँच सौ रुपये पड़े होंगे क्या? एक आदमी को देना है। कल बैंक से निकालना भूल गया। आज बैंक खुलते ही आपको लौटा दूँगा।’

मैंने ‘कैसी बातें करते हैं’ वाले पारंपरिक वाक्य के साथ उन्हें राशि अर्पित कर दी।

उसके बाद बैंक रोज़ खुलते और बन्द होते रहे, लेकिन वे पैसे देने नहीं आये। करीब एक हफ्ते बाद वे फिर आ गये। बैठकर आधे घंटे तक मुहल्ले-पड़ोस और शहर की बातें करते रहे। फिर उठे और उसी अदा से दहलीज से लौट आये। बोले, ‘वह आपका पैसा कुछ झंझटों के कारण नहीं दे पाया। दो तीन दिन में ज़रूर दे दूँगा। आप निश्चिंत रहिएगा।’ मैंने बुदबुदाकर ‘कोई बात नहीं’ कहा।

तीन चार महीने बाद एक दिन पीएच.डी. उपाधि मिलने के कारण मेरा अभिनन्दन हुआ। उस दिन जीवन में पहली बार अभिनन्दन का सुख जाना। उस दिन पता चला कि लोग अभिनन्दन के लिए इतने लालायित क्यों रहते हैं कि अभिनन्दन का खर्च ओढ़ने को भी तैयार रहते हैं।

अभिनन्दन ग्रहण करके कुछ अतिरिक्त प्रसन्नता के मूड में स्कूटर पर लौट रहा था कि रास्ते में उन्होंने आवाज़ दी। कहने लगे, ‘कहाँ से आ रहे हैं?’ मैंने उन्हें अभिनन्दन के बारे में बताया तो उन्होंने मुक्तकंठ से बधाई दी। मैंने चलने के लिए स्कूटर स्टार्ट की तभी वे बोले, ‘वह जो आपका पैसा है, उसकी आप फिक्र मत कीजिएगा। जल्दी ही दे दूँगा।’

मैं चला तो आया लेकिन मेरे मूड का नाश हो गया। घर आकर मैंने निश्चय किया कि पाँच सौ रुपये से भले ही ग़म खाना पड़े, लेकिन इस बला को ख़त्म करना ही होगा।

दूसरे दिन शाम को मैं उनके घर गया। वे बड़े प्रेमभाव से मिले। कुछ बातचीत के बाद मैंने उनसे कहा, ‘मैं एक बात कहने आया हूँ। मैं देख रहा हूँ कि मेरा पैसा देने में आप कुछ दिक्कत महसूस कर रहे हैं। इंसानियत के नाते मैं चाहता हूँ कि आप उस कर्ज को भूल जाएं। एक दूसरे की इतनी मदद तो करनी ही चाहिए।’

वे मेरी बात सुनकर रुआंसे हो गये। बोले, ‘आप कैसी बातें करते हैं? मैंने आज तक किसी का कर्ज नहीं रखा। आपका पैसा नहीं चुकाऊँगा तो मेरी आत्मा मुझे धिक्कारेगी। हमारे घर में देर होती है, अंधेर नहीं होता। आप ऐसा करने के लिए मुझे विवश न करें।’ उन्होंने मेरी तरफ देखकर हाथ जोड़ दिये। मैं उनके पाखंड को देखकर कुढ़कर चला आया।

महीने भर बाद वे फिर घर आ गये। बड़ी देर तक मौसम और राजनैतिक स्थिति की चर्चा करते रहे। फिर उठे, दहलीज तक गये और कुछ याद करके लौट पड़े। तभी मैं पर्दा उठाकर तीर की तरह भीतर भागा और बाथरूम में घुसकर मैंने भीतर से सिटकनी चढ़ा ली।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ सब कुछ फ्रेंडली है यहाँ फ्रेंड के सिवा ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। आज  प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का सार्थक  एवं सटीक  व्यंग्य   “ व्यंग्य – सब कुछ फ्रेंडली है यहाँ फ्रेंड के सिवा ।  हाँ इतना अवश्य कहना होगा कि- सर अगली बार ऑथर फ्रेंडली  पब्लिशर्स पर अवश्य प्रकाश डालने का कष्ट करियेगा। कई ऑथर्स अपनी बुक्स लेकर ऑथर फ्रेंडली पब्लिशर्स तलाश रहे हैं। इस व्यंग्य को पढ़कर निःशब्द हूँ। मैं श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर ही छोड़ता हूँ।  अतः आप स्वयं  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। हम भविष्य में श्री शांतिलाल  जैन जी से  ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। ) 

☆☆ व्यंग्य – सब कुछ फ्रेंडली है यहाँ फ्रेंड के सिवा ☆☆

इन दिनों आप एक छोटा सा सेफ्टी पिन खरीदने जाईये, आपको साड़ी फ्रेंडली मिलेगा. हेयर फ्रेंडली शैम्पू, नोज फ्रेंडली नथ, होंठ फ्रेंडली लिप-ग्लॉस, सामानों की दुनिया में इतना दोस्ताना माहौल पहले शायद ही कभी देखा गया. पिछले दिनों वाईफ और मैं एक तवा ख़रीदने गये. दुकानदार ने कहा – रुकिये मैडम, हम आपको होम-मेकर फ्रेंडली तवे दिखाते हैं.  मुझे लगा कि फ्रेंडली तवे शायद मांजने नहीं पड़ते, या कि उन पर गरम किये बिना ही रोटियां सेंकी जा सकती हैं, हो सकता है फ्रेंडली तवे झक्कास गोरे-गोरे से दीखते हों. दुश्मन तो अब तक का, घर का तवा भी नहीं था जो बरसों पहले किसी लुहार से माँ ने खरीदा था. तवा तवे जैसा ही था, मगर था महंगा. जब हवाला दोस्ती का दिया गया हो तो क्या तो बार्गेन का करना और क्या मन में महंगे का मलाल रखना. होम-मेकर खुश थी सो ले लिया.

रफ़्ता रफ़्ता दोस्ताना इंसानों से सामानों में शिफ्ट होता जा रहा है. किसी पुराने दोस्त के मिलने से चेहरे पर चमक पर आये न आये, स्किन फ्रेंडली साबुन से घिसने से जरूर आ जाती है. आदमी का दर्द बांटनेवाला भी कोई हो न हो कपड़ों का हमदर्द हाज़िर है. और हाँ, ‘यारों से बने हम’ की टैग लाईन में दोस्ती का पैगाम भले दिया हो मगर एक रिस्क भी है. इस मादक रसायन को पिलाने के बाद चार-यार अपने दोस्त को नाली में अकेला छोड़कर भी जा सकते हैं. उमर बीत जाती है सच्चा साथी खोजते-खोजते, मिल नहीं पाता, कोल्ड क्रीम में मिल जाता है – आपकी त्वचा का सच्चा साथी. जब ‘योर्स फ्रेंडली गैस’ की बात चले तो बिना हलचल मचाये, आसानी से, बे-आवाज, पेट से खिसकती गैस मत समझियेगा श्रीमान, ये एचपी की रसोई गैस की टैग लाइन है. इस गैस पर पकनेवाला भोजन भी फ्रेंडली होता जा रहा है. हार्ट फ्रेंडली डाईट, किडनी फ्रेंडली प्रोटीन, लीवर फ्रेंडली फ़ूड. जुबाँ फ्रेंडली व्यंजन तो बेशुमार हैं, नहीं हैं तो बस एक अदद हमजुबाँ फ्रेंड नहीं है.

फ्रेंडली माहौल सिर्फ सामान की दुनिया में ही नहीं है, पप्स एंड पेट्स की दुनिया में भी है. जो लोग पेरेंट्स के लिये स्पेस नहीं निकाल पाते वे भी डॉग फ्रेंडली मकान जरूर बनवा लेते हैं, पप्पीज के लिये गुलाटियाँ फ्रेंडली लॉन, लॉन में थोड़ी थोड़ी दूर पर फ्रेंडली खम्बे, कुत्तों के फ्रेश होने की फ्रेंडली फेसिलिटी, डॉग फ्रेंडली हाउस में हाउस फ्रेंडली डॉग्स.

ये फ्रेंडलीनेस सस्ती नहीं है श्रीमान. माल जितना ज्यादा फ्रेंडली, उतनी ऊँची कीमत. भ्रम में पड़ जाते हैं आप कि सामान के जरिये दोस्ती बेची जा रही है या दोस्ती के जरिये सामान. बाज़ार है कि खामोशी से दोनों बेच रहा है. अब तो भगवान भी आपको फ्रेंडली किसम के लाने हैं. गणेश अब सिंपल गणेश नहीं रहे, वे ईको फ्रेंडली मोड में आने लगे हैं. लक्ष्मीजी के लिये ईको फ्रेंडली पटाखे और मंदिरों में दर्शन फ्रेंडली ऊँची दर पे टिकट. फिर, तुलसीदासजी को ही कब पता था कि एक दिन उनकी हनुमान चालीसा वोटर फ्रेंडली साबित होगी.

धोखे भी कम नहीं हैं इस ट्रेंड में श्रीमान. हम आस लगाये रहते हैं कॉमन-मैन फ्रेंडली बजट की, निकलता है कंपनी फ्रेंडली. हर पाँच साल में लाते हैं एक गरीब फ्रेंडली सरकार, निकलती है कार्पोरेट फ्रेंडली. हर तवा तवे जैसा और हर सरकार सरकारों जैसी, सारा खेल मार्केटिंग का है श्रीमान.

 

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, TT नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 5 ☆ बात का बतंगड़ ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है बातों बातों में ही एकअतिसुन्दर व्यंग्य रचना “बात का बतंगड़। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 5 ☆

☆ बात का बतंगड़

निष्ठावान होते हुए भी चमनलाल जी अक्सर उदास रहते कि उनकी पूछ – परख कम होती है । जो भी काम करते उन्हें घाटा होता है  तो वहीं उनके परम मित्र शिकायती लाल जी भी यही रोना रोते कि उनको परिश्रम का फल नहीं  मिल रहा है ।  चौपाल पर बैठे धरमू लाल जी और लोगों के आने की राह देख रहे थे तभी उनका पोता सोनू आया , उसने पूछा –  “बाबा चैली  कहाँ रखी है ?”

उन्होंने कहा – “क्या करोगे ?”

“बाबा दादी को सुलगानी है  कह रहीं थीं,  पूस निकल जाए तो बुढ़ऊ और एक बरस जी जाय।”

ठेठ  बघेली में उन्होंने कहा- “कहि देय लुआठी  जलाय लेंय, कल लाय के देव चैली ।”

धरमू लाल जी मन में बुदबुदाते हुए बोले – “कउनउ चेली त मिलबय नहीं करय या बुढ़िया और आगी लगावत ही।”

तभी किशोर चन्द्र जी आ गए, उन्होंने मिली – जुली बोली में कहा-  “अपना सुनन बकरी और शेर के किस्सा –   अभी तक तो शेर और बकरी एक घाट में पानी पी लें उतना ही सुना था अब शेर को बकरी खा गयी चारो ओर हल्ला हो रहा है ।”

“अब का करी किशोरी कलयुग है कौन किसको खा ले पता ही नहीं चलता । जिसकी लाठी उसकी भैस । पहले तो बड़ी मछली छोटी को खाती थी अब तो बड़े- छोटे का लिहाज बचा ही नहीं  । पहले मर्यादा  पुरुषोत्तम राम के गुणगान होते थे अब तो राम शब्द राजनीति का अखाड़ा बन गया है ।  कहते हैं राम का नाम लेकर नल नील ने त्रेता युग में  सागर  बाँध दिया  और हम कि उन्हें टेंट में बैठाये हुये मंदिर निर्माण की प्रतीक्षा में हैं।”

“अरे छोड़ो धरमू इन सब  से आम आदमी को क्या लेना देना उसे तो दो जून की रोटी मिले बस इतना ही बहुत था कुछ बरस पहले तक । पर अब तो स्मार्ट फोन  भी चाहिए  आखिर इक्कसवीं  सदी के गरीब का  भी तो कोई रुतबा होना चाहिए।”

किशोरी लाल जी मुस्कुराते हुए बोले “जियो ने तो जिया दिया, अब दाल रोटी का और जुगाड़ हो जाय तो आराम से बैठो और रोटी तोड़ो ।  पाँच बरस में एक बार अच्छी  सरकार बना दो और चैन की बंशी बजाओ।”

“अरे  बंशी नहीं दिखायी दिया सुना है  बालीबुड  में सपने पूरे करने गया है।” तभी और लोग भी चर्चा में सम्मलित होने के लिए एकत्र हो गए ।

आज तो चौपाल अपने पूरे रंग में थी  पास में अलाव जला लिया गया । गाँव के सबसे बुजुर्ग कक्का जी  अपनी अनुभवों की गठरी से एक रोचक किस्सा सुनाने लगे कि कैसे मैट्रिक में उन्होंने अपने गाँव का और प्रदेश का नाम रोशन किया, ये किस्सा जब तब न जाने कितनी बार सुना चुके थे पर लोग भी हर बार ऐसे सुनते जैसे पहली बार हो ।

किस्सा वही लालटेन  में पढ़ने से शुरू होता और  खेत – खलियान में काम करते हुए  गुड़ की डली और मटर की फली पर पूरा होता ।  बात इतनी लंबी खिचती कि जब तक काकी  की याद में आँसू न बह जाए तब तक कक्का जी बोलते रहते फिर धीरे से अपने गमछे से आँसू पोछते हुए लाठी टेकते हुए चल देते राम ही राखे कहते हुए ।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 33 ☆ व्यंग्य – कौन बनेगा महापुरुष ? ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनका एक बुंदेलखंडी कविता “ग्राम्य विकास”। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 33

☆ व्यंग्य – कौन बनेगा महापुरुष?  

“ना.. साहब, सुने हैं कि जे नये कलेक्टर साब ज्यादई तेज तर्रार हैं, सब अफसरों को परेशान कर रिये हैं ” – – गंगू पूछ रहा है।

मालिश करते हुए बीच बीच में गंगू ऐसे कई सवाल पूछ लेता है… वो भी ऐसे ऐन वक्त पर जब वो गर्दन चटकाने की तैयारी में गर्दन पकड़ कर खड़ा होता है।

गंगू हमको साहब इसीलिए कहता रहता है क्योंकि हम स्किल डेवलपमेंट ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर हैं एवं जिले के कलेक्टर से लेकर सभी विभागों के अफसरों के साथ उठते बैठते हैं। ये आदिवासी पिछड़ा जिला है अफसरों के लिए पनिशमेंट सेन्टर कहलाता है। यहां हर विभाग के अफसर को भ्रष्टाचारी, दारूखोर और चरित्रहीन होना जरूरी है क्योंकि पिछड़ेपन के कारण मनोरंजन के भी कोई साधन नहीं हैं, सब अफसर बंगलों में अकेले रहते हैं और फेमिली शहर में रखते हैं। इस जिले में सब टाइम पास करने आते हैं।

जब से नया कलेक्टर आया है लोग उसे झक्की कलेक्टर कहते हैं, क्योंकि वो जिले का विकास चाहता है, अफसरों को सुधारना चाहता है, अफसरों के अंदर गांधी दर्शन भरना चाहता है। कई दिनों से मुझे भी परेशान किए है, कहता है कि – 150 साल के अवसर पर अपने प्रशिक्षण संस्थान में अफसरों के लिए गांधी दर्शन के प्रशिक्षण आयोजित करें। कलेक्टर चाहता है कि अफसर गांधीवादी बन जायें तो विकास सही ढंग से होगा।

राजनीति सब जगह हावी रहती है, शहर के छुटभैया नेता प्रशिक्षण संस्थान का नाम बदलकर दीन दयाल संस्थान करना चाहते हैं और कलेक्टर है कि संस्थान में गांधी दर्शन के प्रशिक्षण करवाना चाहता है। अफसर नहीं चाहते कि वे कलेक्टर के हिसाब से गांधीवादी बने। अफसर अपने हिसाब से कभी गांधीवादी तो कभी सत्ताधारी पार्टीवादी बनना चाहते हैं।

अफसरों का गांधीवादी चिंतन अलग होता है। एक आला अफसर पूछ रहा था कि- “गांधी जी महापुरुष थे कि महात्मा थे ?” दूसरा अफसर कहता है- “गांधी महात्मा कहलाते थे इसलिए उनको महात्मा गांधी कहा जाता है।” जब उनसे पूछा गया कि- “वे महात्मा गांधी क्यों कहलाते हैं ?”तो उनका सीधा जबाब था कि- “भारत के महापुरुष रवींद्र नाथ टैगोर के मुंह से एक बार गांधी के लिए ‘महात्मा’ शब्द निकल गया था तो वे महात्मा गांधी कहलाने लगे, तो जय बोलो महात्मा गांधी की……. । महापुरुषों की बात ही अलग होती है।”

दो अफसरों के बीच नशे में महात्मा और महापुरुष शब्दों के चक्कर में लड़ाई हो गयी….. एक कहता कि महात्मा और महापुरुष में कोई अन्तर नहीं है, महात्मा गांधी महापुरुष थे। दूसरे का मत था कि जिसके पास महान आत्मा होती है वे महात्मा होते हैं और जो सब पुरुषों में बड़े होते हैं वे महापुरुष कहलाते हैं। पहले वाले ने तर्क दिया ऐसे में तो स्त्री…., महापुरुष बन ही नहीं सकती, एक महिला अफसर सब सुन रही थी बोली – “बड़ी अजीब बात है, महापुरुषों में सिर्फ पुरुषों का अधिकार है”। इसलिए महिला ने बताया कि उसने अपने बेटे का नाम ‘महापुरुष’ रखा है , धोखे से उसकी सिंह राशि निकल आयी, ज्योतिषी कहता है कि महापुरुष नाम के लड़के की राशि का स्वामी सूर्य होता है सूर्य तेज होता है इसलिए हमारा महापुरुष किसी के सामने झुकता नहीं। महापुरुष नाम के लड़के में सभ्यता और ईमानदारी कूट कूट कर भरी होती है इसलिए ये आगे चलकर महापुरुष बन सकता है। मेडम की बात सुनकर चिड़चिड़े स्वाभाव के तीसरे अफसर को मुंह खोलने का अच्छा मौका मिल गया, कहने लगा – “इसका मतलब हमारे नये कलेक्टर की भी सिंह राशि है और उनका ग्रह स्वामी सूर्य होगा तभी वे तेज तर्रार हैं और महापुरुष बनने के जुगाड़ में हैं।”

गांधी जी सत्य के पुजारी थे, अफसर को भी सत्य बोलना पड़ता है क्योंकि उसे अपने कमीशन रेट के बारे में सच सच बतलाना पड़ता है, ठेकेदार भी अफसर के सत्य से प्रभावित रहता है और सच्चाई के साथ निर्धारित कमीशन गांधी की तस्वीर के सामने इमानदारी से अदा कर देता है। सारे कार्य नियम से होते हैं। गांधीजी भी नियम के पाबंद थे, अफसर भी पाबंद हैं। नया कलेक्टर गांधीवाद को अफसरों के ऊपर लादना चाहता है। कलेक्टर उन्हें गांधीवादी बनने पर जोर दे रहा है। जिस ढंग से कलेक्टर चाहता है उस ढंग से अफसर वैसा नहीं बनना चाहते। अफसर गांधीवादी क्यों बनेंगे…… अफसरवाद और गांधीवाद दो विरोधी चीजें हैं। अफसर अफसर होता है और महापुरुष बेचारा महापुरुष ही तो होता है।

यदि गांधी जी महापुरुष थे और गांव का विकास चाहते थे तो अफसर भी तो गांव के विकास के बहाने अपना विकास चाहते हैं। अफसरों का भाग्य इतना तेज दौड़ता है कि इधर सड़क बननी चालू हुई उधर बुलडोजर से उचकी गिट्टी साहब के बंगले में तब्दील हो जाती है। अभी तक अफसरों का जितना विकास हुआ है उसमें गांव की सड़क, बांध और ग्रामीण विकास योजनाओं ने अफसरों की खूब मदद की है।

“कलेक्टर को महापुरुष बनने का शौक है तो वे क्यों नहीं गांधी दर्शन के प्रशिक्षण लेते, हम सबको प्रशिक्षण में काहे फंसा रहे हैं?”

मैंने कहा – “इसमें फंसने की क्या बात है कलेक्टर का सोचना सही है कि सब अफसर गांधी दर्शन को समझकर देश की समस्याएं हल कर सकते हैं।”

मेरी बात से कई अफसर भड़क गए कहने लगे – “देश की समस्याओं को हल करने का ठेका हमीं लोगों ने लिया है क्या? देश का और जनता का सबसे ज्यादा शोषण नेता कर रहे हैं। देश के नेता तो असली गांधीवादी बन नहीं सके और कलेक्टर चाहते हैं कि अफसर गांधीवादी बनें।”

मुझे उनके तर्क कुछ ठीक लगे। नेता अगर गांधीवादी होते तो देश की यह हालत न होती। गांधीवाद का नाम लेकर देश को इस हाल में पहुंचा दिया कि मेरे पास शब्द ही नहीं बचे। गांधीवाद की सबकी परिभाषाएं अलग अलग हैं, हर पार्टी ऐन वक्त में गांधीवादी बन जाती है।  150 वें साल में गांधी पर इतने प्रयोग हो रहे हैं, जिनकी कोई गिनती ही नहीं है।  ऐसे में राजनीतिक पार्टियों के लिए गांधीवाद रबर के समान है चाहे जब खींचकर महापुरुष बना दिया, चाहे जब छोड़कर महात्मा बना दिया और चाहे जब छोड़ कर अपना स्वार्थ सिद्ध कर लिया।

गांधी महापुरुष थे इसलिए गांधी के नाम पर सारी पार्टियां चुनाव लड़तीं हैं, गांधी की समाधि पर कसम खातीं हैं। चुनाव जीतने के बाद गांधी को भूल जातीं हैं। नये जमाने के अनुसार आजकल वही नेता महापुरुष बन पायेंगे जो झूठ को सच की तरह बोलते हैं और गंभीर होने का नाटक करते हैं या फिर रंगदारी करते हैं। सत्ता गांधीवाद की विरोधी होती है गांधीवाद को भूलकर ही सत्ता को बचाया जा सकता है। वैसे भी सत्ता और गांधीवाद की दो नावों पर पैर रख कर चलना किसी जोखिम से कम नहीं है।

सत्ता और गांधी एक साथ नहीं चल सकते। सब अफसर यदि महापुरुष बनने के चक्कर में गांधीवादी बन गए तो सरकार कौन चलाएगा। सरकार को अफसरों से मिलकर चलाया जाता है। अफसर यदि नाराज हो गए तो सरकार चलना कठिन है, इसलिए गांधीवाद का दिखावा दोनों को करना पड़ता है। कब कौन नेता या अफसर महापुरुष बन जाए, कोई ठिकाना नहीं है। तभी तो गंगू कौन बनेगा करोड़पति स्टाइल में अभिताभ की नकली आवाज में पूछ रहा है- “कौन बनेगा महापुरुष?”

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ मौन- व्रत ☆ डॉ. सतिंदर पाल सिंह बावा

डॉ सतिंदर पल सिंह बावा 

(डॉ सतिंदर पाल सिंह बावा जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है।  डॉ सतिंदर जी मूलतः पंजाबी लेखक हैं । आपकी पंजाबी आलोचना में  विशेष रुचि है। आपकी एक पुस्तक पंजाबी  भाषा में प्रकाशित हुई है। वर्तमान में आप  वोह फ्रेड्रिक जेम्सोन के संकल्प राजनीतिक अवचेतन पर पंजाबी में एक आलोचनात्मक पुस्तक लिख रहे हैं। आपने हाल  ही में “नक्सलबाड़ी लहर से सम्बंधित पंजाबी उपन्यासों में राजनीतिक अवचेतन” विषय पर पंजाबी विश्वविद्यालय से पीएच डी की डिग्री प्राप्त की है। पंजाबी में आपके कुछ व्यंग्य सुप्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई है। हिन्दी में व्यंग्य लिखने के आपके  सफल प्रथम प्रयास  के लिए हार्दिक बधाई एवं शुभकामनायें। आज प्रस्तुत है आपकी  प्रथम सामयिक एवं सार्थक व्यंग्य रचना “मौन – व्रत”। हम भविष्य में आपके ऐसे ही सकारात्मक साहित्य की अपेक्षा करते हैं। )

☆ व्यंग्य  –  मौन- व्रत ☆

पहले हमारा उपवास में कोई विश्वास नहीं था, लेकिन जब से नया युग शुरू हुआ है, हमने इन परिस्थितियों से निपटने के लिए उपवास रखने शुरू कर दिये हैं, क्योंकि हमारा मानना है कि यदि किसी युग की धारणा व विचारधारा को समझना है, तो उस युग के महा प्रवचनों को व्यावहारिक रूप से आत्म सात करके ही समझा जा सकता है। अतः हमने अपनी समकालिक स्थितिओं को समझने को लिये ही उपवास रखने शुरू किये हैं। उपवास से यहाँ हमरा अर्थ खाने वाले खाद्य पदार्थों का त्याग नहीं है। वैसे भी, नए-युग के समर्थकों ने खाद्य व स्वादिष्ट पदार्थों पर प्रतिबंध लगा कर उपवास जैसी स्थिति तो पहले से ही बना रखी है। दूसरा, भाई हम भोजन के बिना तो जीवत नहीं रह सकते क्योंकि खाने को देख कर हम से कंट्रोल नहीं होता, इस लिए हम ने उपवास तो रखा है लेकिन उस को मौन-व्रत के रूप में रखा है।

अब, जब चारों ओर शोर शराबा हो रहा है, तो आप में से कोई सज्जन पूछ सकता है कि अब कौन मौन-व्रत रखता है? यह तो आउट डेटेड फैशन है क्योंकि यह कौन-सा महात्मा गांधी का युग है कि हम उपवास करके या मौन रहकर अपना विरोध प्रगट करें? लेकिन भई हम तर्क से सिद्ध कर सकते हैं कि आज भी भारत में मौन-व्रत उतना ही कारगर हथियार है जितना कि ब्रिटिश सरकार के समय था।

जब मौन शब्द के साथ व्रत शब्द जुड़ जाता है तो यह एक नए अर्थ में प्रवेश कर जाता है। जिस तरह विज्ञापनों में छोटा-सा सितारा ‘शर्तें लागू’ कहकर सच मुच दिन में तारे दिखा देता है उसी तरह, मौन के साथ व्रत शब्द जुड़ कर कड़े नियमों में प्रवेश कर जाता है। जिस में ‘मन की मौत’ की घोषणा भी शामिल होती है। हालांकि हमने लम्बी चुप्पी साध रखी है, लेकिन हमारे मन की मृत्यु नहीं हुई है! जैसे कि आम तौर पर मौन-व्रत रखने से होता है कि मन में जो संकल्प-विकल्प उठते हैं, उन पर नियंत्रण हो जाता है। पर भाई मन तो मन है जो हर समय नामुमकिन को मुमकिन बनाने के लिए हमेशा संघर्षशील और चलायमान रहता है।

जिस क्षण से हम ने मूक रहने का दृढ़ संकल्प लिया है, उस दिन से ही कई बार हमारी चुप्पी पर सर्जिकल स्ट्राइक हो चुके हैं लेकिन मजाल है जो हमने अपनी चुप्पी तोड़ी हो। पहले, हम समझते थे कि हमारे पड़ोसी ही हमारी चुप्पी को लेकर दुखी रहते हैं, लेकिन अब ऐसा लगता है कि इस नए दौर में सारा देश ही हमारी चुप्पी से खफ़ा है, हमें लगता है कि हमारी चुप्पी का राष्ट्रीकरण हो चुका रहा है। कभी-कभी हमें यह भी लगता है कि हमारी चुप्पी का वैश्वीकरण किया जा रहा है। चूंकि अब तो विदेशों में भी लंबे चौड़े लेख केवल हमारी चुप्पी पर ही प्रकाशित होते हैं। आफ्टर आल हम भी भाई ग्लोबल नागरिक हैं और थोड़ी बहुत खबर तो हमें भी रखनी ही पड़ती है।

हमारी प्यारी पत्नी तो हमारी चुप्पी से बेहद दुखी हो गई. पहले तो हमारे बीच नोक-झोक का तीसरा महा युद्ध चलता ही रहता था। कभी-कभी तो संसदीय हंगामा भी हो जाता था। लेकिन अब उसकी हालत बहुमत वाली विजेता पार्टी की तरह हो गई है, जहाँ विरोध की सभी संभावनाएं समाप्त हो गई हैं। इन परिणामों के आकलन के बाद उन्होंने कई बार शीत युद्ध का प्रस्ताव रखा है, परंतु हमने उसका जवाब ही नहीं दिया क्योंकि हमने तो मौन-व्रत रखा हुआ है।

आजकल हमारी चुप्पी पर कई तरह की बातें की जा रही हैं। कल ही की तो बात है कि हमारे पड़ोसी हम से कहने लगे क्या बात है बड़बोला राम जी आजकल बहुत गुम-सुम से रहने लगे हो? हम क्या बताते कि आंतरिक और बाहरी दबाव के कारण हमारी बोलती बंद है। हम ने उनको कोई जवाब नहीं दिया और आगे बढ़ गए क्योंकि हम ने तो ‘एक चुप सौ सुख’ मंत्र धारण कर रखा था।

चूंकि हम चुप हैं इसलिए हमें अपनी सुरक्षा के लिए किसी भी प्रार्थना सभा में शामिल होने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि हमें इस बात का ज्ञान हो गया है कि जब तक हम चुप हैं हम सुरक्षित हाथों में हैं, हम देश प्रेमी हैं, देशभक्त हैं और देश के विकास में चुप रह कर हम बहुत बड़ा योगदान दे रहे हैं क्योंकि हमारा मानना है के यह योगदान भी किसी ‘शुभ दान’ या ‘गुप्त दान’ से कम नहीं है। इधर हमने अपना मुँह खोला नहीं; उधर से आक्रमण शुरू हुए नहीं कि यह देश-द्रोही है, गद्दार है, देश के विकास में बाधा डालता है, अन्यथा हमें नक्सली समर्थक ही कहना शुरू कर देंगे।

भले ही हम महात्मा गांधी के शांति संदेश से बहुत प्रभावित और प्रेरित हैं, लेकिन अब हमने शांति का प्रचार करना भी बंद कर दिया है, क्योंकि हमें अब डर लगता है कि पता नहीं कब हमें कोई यह कह दे कि ऐसी बातें करनी है तो भाई साहिब आप पाकिस्तान चले जाओ, वहाँ आप की ज़्यादा ज़रूरत है। इस लिए तो भई हमने मौन-व्रत रखा है। लेकिन चुप्पी के साथ साथ; हमारी सूक्ष्म दृष्टि में बहुत अधिक वृद्धि हुई है। अब हम जगह-जगह सरकारी बोर्डों का अर्थ खूब समझने लगे हैं, जैसे ‘बचाव में ही बचाव है’ , ‘आपकी सुरक्षा परिवार की रक्षा’ आदि।

अब आप कहेंगे हम बहुत विरोधाभासी बातें कर रहे हैं। लेकिन जब यह युग ही विरोधी विचारधारा का है, तो हम इसके प्रभाव से कैसे मुक्त हो सकते हैं! लेकिन हमने अपनी सूक्ष्म दृष्टि से आप के मन की बात भी जान ली है कि आप हम से क्या पूछना चाहते हैं। अरे महाराज! भूल गए! हमने तो मौन-व्रत रखा हुआ है।

 

©  डॉ सतिंदर पल सिंह बावा

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