हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 32 ☆ व्यंग्य – अफसर की कविता-कथा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता  और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं . आज का व्यंग्य  है अफसर की कविता-कथा।  वास्तव में  अफसर की कविता – कथा  अक्सर अधीनस्थ  साहित्यकार की व्यथा कथा हो जाती है । डॉ परिहार जी की पैनी व्यंग्य दृष्टि  से ऐसा कोई पात्र नहीं बच सकता  और इसके लिए तो आपको यह व्यंग्य पढ़ना ही पड़ेगा न।  हास्य का पुट लिए ऐसे  मनोरंजक एवं सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 32 ☆

☆ व्यंग्य – अफसर की कविता-कथा ☆

 

भूल मेरी ही थी कि मैं उस शाम अपने अफसर को कवि-सम्मेलन में ले गया। दरअसल मेरी नीयत उनको मस्का लगाने की थी। कवि-सम्मेलन में मैं तो वहाँ आने की सार्थकता सिद्ध करने के लिए ‘वाह वाह’ करता रहा और अफसर महोदय अपने हीनभाव को दबाने के लिए बार बार सिर हिलाते रहे। मैं जानता था कि कविताएं उनके सिर के ऊपर से गुज़र रही थीं और कविता जैसी चीज़ से उनका दूर का भी वास्ता नहीं था।

फिर हुआ यह कि एक कवि ने एक कविता सुनायी जो कुछ इस प्रकार थी—–

‘मैं फाइल में कैद कागज़ हूँ,
फाइल ही मेरी ज़िन्दगी है।
फड़फड़ाता हूँ लेकिन मुक्ति कहाँ है?’

और मुझे लगा जैसे मेरे अफसर को किसी ने घूँसा मार दिया हो। कविता खत्म होने पर वे बड़ी देर तक ‘वाह वाह’ करते रहे। कविताएं चलती रहीं लेकिन वे सब कविताओं से बेखबर उस एक कविता को याद करके आँखें मींचे ‘वाह वाह’ करते रहे।

कवि-सम्मेलन खत्म होने पर जब हम घर लौटे तो वे रास्ते भर ‘मैं फाइल में कैद कागज़ हूँ’ दुहराते रहे। अलग होते समय उन्होंने मुझे कई बार धन्यवाद दिया। मेरी आत्मा गदगद हो गयी।

दूसरे दिन दफ्तर में दोपहर को साहब के पास मेरा बुलावा हुआ। उन्होंने बड़े आदर के साथ मुझे बैठाया। मैंने देखा, वे कुछ नयी बहू जैसे शर्मा रहे थे। मुख लाल हो रहा था। थोड़ी देर तक वे इधर उधर की बातें करते रहे, फिर कुछ और शर्माते हुए उन्होंने दराज़ से एक कागज़ निकाला और मुझे पकड़ा दिया। मैंने देखा, उस कागज़ पर एक कविता लिखी थी, इस प्रकार—–

‘टाइपराइटर की चटचट,
टेलीफोन की घनघन,
यही मेरा जीवन,
यही मेरा बंधन।
जो देखे थे सपने,
दफन हो चुके हैं,
बगीचे सभी
सूखे वन हो चुके हैं।
कहाँ खो गये हाय
वे सारे उपवन।’

इसी वज़न के तीन और छन्द थे। आखिरी पंक्ति थी, ‘खतम हो चुका है उमंगों का राशन।’

मैंने पढ़कर सिर उठाया।वे भयंकर उत्सुकता से मुझे देख रहे थे। बोले, ‘कैसी है?’

मैंने सावधानी से उत्तर दिया, ‘अच्छी है।’

वे मुस्कराये, बोले, ‘मेरी है।’

मैं पहले ही भाँप रहा था। कहा, ‘प्रथम प्रयास की दृष्टि से काफी अच्छी है। आप तो छिपे रुस्तम निकले।’

वे काफी प्रसन्न हो गये।

फिर वे रोज़ चार छः कविताएं लिखकर लाने लगे। रोज़ मेरी पेशी होती और मुझे सारी कविताएं सुननी पड़तीं। घरेलू समस्याओं का समाधान सोचते हुए मैं आँखें मींचे ‘वाह वाह’ करता रहता। मेरा काम करना दूभर हो गया। उनसे धीरे से काम की बात कही तो उन्होंने मेरा ज़्यादातर काम छिंगे बाबू को सौंप दिया। नतीजा यह हुआ कि मेरे साथियों ने मेरा नाम ‘नवनीत लाल’ और ‘ठसियल प्रसाद’ रख दिया।

मेरे अफसर महोदय अपने को पक्का कवि समझ चुके थे। कई बार मुझे दफ्तर से घर पकड़ ले जाते और बची-खुची कविताओं को वहाँ सुना डालते। एक दिन भावुक होकर कहने लगे, ‘मिसरा जी, आपसे क्या छिपाना। मेरा दिल टूटा हुआ है। ब्याह से पहले मेरा एक लड़की से ‘लव’ चलता था। माँ-बाप ने दहेज के लालच में इनसे शादी कर दी, लेकिन मेरा दिल कहीं नहीं लगता। अब भी डोर वहीं बंधी है। मेरे भीतर कवि के सब गुण पहले ही थे, आपके संपर्क ने चिनगारी का काम किया। मैं आपका बहुत आभारी हूँ।’

धीरे धीरे वे मेरे पीछे पड़ने लगे कि मैं उनको कवि सम्मेलनों में ठंसवा दिया करूँ। मैं बड़ी दौड़-धूप करके उनका नाम डलवाता। वे ‘हूट’ हो जाते तो उनके घावों पर मरहम लगाता। कहता, ‘साहब जी, समझदार श्रोता मिलते कहाँ हैं?’

एक दिन किस्मत मेरे ऊपर मुस्करायी। मेरा ट्रांसफर आर्डर आ गया। मैं अपने नगर में काफी गहरे तक स्थापित हो चुका हूँ, इसलिए मुझे पीड़ा तो काफी हुई लेकिन अफसर महोदय से छुटकारा मिलने की संभावना से प्रसन्नता भी कम नहीं हुई। लेकिन मेरे अफसर ने मुझे नहीं छोड़ा। उन्होंने मुझे ‘रिलीव’ करने से इनकार कर दिया और ऊपर लिख दिया कि मैं उनके लिए अपरिहार्य हूँ। वे मुझसे बोले, ‘मैं तुम्हें नहीं छोड़ सकता। अभी तो मेरी प्रतिभा निखर रही है, तुम चले जाओगे तो मैं फिर जहाँ का तहाँ पहुँच जाऊँगा।’ अन्ततः मेरा तबादला रद्द हो गया।

प्रभु ने एक बार फिर मेरी सुनी। अबकी बार मेरे अफसर का ही ट्रांसफर हो गया। वे बड़े दुखी हुए। मैं प्रसन्नता लिए उन्हें सांत्वना देता रहा। मैंने कहा, ‘अब कविता की दृष्टि से आप बालिग हो गये, अपने पैरों पर खड़े हो गये। अब आपको किसी के सहारे की ज़रूरत नहीं है।’  लेकिन वे मुझसे अलग होते बड़े असहाय हो रहे थे।

मैं उन्हें छोड़ने स्टेशन पर गया। वे बेहद उदास थे।चलते समय कहने लगे, ‘मिसरा जी, मेरा काम आपके बिना नहीं चल सकता। मैं आपका तबादला भी वहीं करा लूँगा। आप चिन्ता मत करना।’

और वे इन शब्दों के साथ मुझे चिन्ता के सागर में ढकेलकर चले गये।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ ईमानदार होने की उलझन ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई पुरस्कारों / अलंकरणों से  पुरस्कृत /अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। आज  प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का सार्थक  एवं सटीक  व्यंग्य   “ईमानदार होने की उलझन ।  इस व्यंग्य को पढ़कर निःशब्द हूँ। मैं श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर ही छोड़ता हूँ। अतः आप स्वयं  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। हम भविष्य में श्री शांतिलाल  जैन जी से  ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। ) 

☆☆ ईमानदार होने की उलझन ☆☆

 

एक उलझन में पड़ गया हूँ मैं.

एक छोटी सी बेईमानी करने से एक बड़ा लाभ मिलने का अवसर सामने है. उलझन ये कि बचपन में स्कूल में बालसभा में ‘ऑनेस्टी इज द बेस्ट पॉलिसी’ पर जो भाषण मैंने दिया था वो बार बार प्रतिध्वनित होकर मेरे विवेक से टकरा रहा है.

ऐसे में मेरी मदद को सिन्हा सर आगे आये. बोले – ‘यार शांति, ऑनेस्टी एक बेस्ट पॉलिसी है, मगर तुम्हारे लिये है ऐसा तो किसी ने नहीं कहा. जो कहा गया है उससे कहीं ज्यादा अनकहा है. कहा गया है – ‘द बेस्ट पॉलिसी’, अनकहा है – ‘फॉर अदर्स’. इसे एक साथ पढ़ो यार. जो नीति वाक्य मंच से कहे जाते हैं वे सुननेवालों के लिये हुआ करते हैं, वक्ताओं के लिये नहीं. होते तो ये नायक, जननायक, संत, कथावाचक, जीवन-प्रबंधन गुरु, उपदेशक, तकरीर करनेवाले धनसंचय के उस मक़ाम पर नहीं पहुँच पाते जहाँ वे आज हैं.’

‘लेकिन सर मैं तो हमेशा ही ईमानदार…’ – मैंने टोका.

‘हमेशा के लिये किसने बोला है तुम्हें ? कहाँ लिखा है ‘ऑनेस्टी इज द बेस्ट पॉलिसी फॉर एवर’. स्कूल में हम भी पढ़े हैं यार और ठीक-ठाक ही पढ़े हैं. हमने तो ऐसा कहीं नहीं पढ़ा. ईमानदारी हर पल बदलनेवाली शै है. जब तक आप आम नागरिक हैं तब तक ये बेस्ट पॉलिसी है, जब अफसर हैं तब नहीं है. जब तक आप मंच के ऊपर हैं तब तक है, नीचे उतर आये तब नहीं है. जब आप विपक्ष में हैं तब है, जब आप सत्ता में हैं तब नहीं है. जब तक आप ग्राहक हैं तब तक है, जब आप विक्रेता हैं तब नहीं है. जब आप वादी के वकील हैं तो ईमानदार तकरीरें अलग है जब आप प्रतिवादी के हैं तब की ईमानदार तकरीरें अलग हैं.’

‘बट सर,  बेस्ट से मेरा मतलब है कि…’

‘यार तुम भोत भोंठ आदमी हो, कसम से.’ – झुंझला गये वे. – ‘ये ना बेस्ट-वेस्ट कुछ नहीं होता, हर समय बेस्ट से बेटर कुछ तो होता ही है. प्रेक्टिकल बनो लाईफ में. अपने मेहरा साब से सीखो. ईमानदारी का डंका बजता है उनका. जब वे टेन परसेंट का कट बेस्ट मान कर लेते थे तब भी उनके पास फिफ़्टीन परसेंट का बेटर ऑफर तो रहता ही था. इन्फ़्लेशन बढ़ा. फिफ़्टीन परसेंट बेस्ट हुआ, एट्टीन बेटर. अनु बिटिया की शादी है सो ईमानदारी का फुट्टा एट्टीन परसेंट पर ले जाने का मन बना लिया बॉस ने. ऑनेस्ट इस कदर कि अपनी बेस्ट लिमिट को उन्होने कभी क्रॉस नहीं किया. और, हेड ऑफिसवाले रामामूर्ति सर! उनका बेस्ट वन लेक प्लस से शुरू होता है. उससे कम रिश्वत की संभावनाओं वाले केसेस में जबरजस्त ईमानदार और कड़क अफसर माने जाते हैं. ए बेटर इज आल्वेज बेटर देन द बेस्ट माय डियर शांति.’

‘और जो बचपन में पढ़ा वो ?”

‘तुमने बालसभा में भाषण दिया, शील्ड मिली, प्रमाणपत्र मिला, फोटू खिंचा, ऑनस्टी ओवर. अब भूल जाओ उसको. नैतिक शिक्षाएँ ऑप्शनल सब्जेक्ट में पढ़ाई जातीं हैं, उनके सबक भी जीवन में ऑप्शनल होते हैं. एक छोटे स्टेप से बड़े फायदे की मंज़िल तक पहुँचने का ऑप्शन अभी है तुम्हारे पास. ये राह तुम नहीं चुनोगे तो कोई और चुनेगा.’ – उन्होने कंधा थपथपाया और बोले – ‘उठो, जागो और तब तक चलते रहो जब तक तुम अपनी मंज़िल पर न पहुँच जाओ. जब तुम वहाँ पहुँचोगे तो दुनियादारी में सफल बहुत सारे लोग मिलेंगे तुम्हें. ऑल द बेस्ट.’

मैं अब भी उलझन में हूँ.

 

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, TT नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

 

 

ईमानदार होने की उलझन

एक उलझन में पड़ गया हूँ मैं.

एक छोटी सी बेईमानी करने से एक बड़ा लाभ मिलने का अवसर सामने है. उलझन ये कि बचपन में स्कूल में बालसभा में ‘ऑनेस्टी इज द बेस्ट पॉलिसी’ पर जो भाषण मैंने दिया था वो बार बार प्रतिध्वनित होकर मेरे विवेक से टकरा रहा है.

ऐसे में मेरी मदद को सिन्हा सर आगे आये. बोले – ‘यार शांति, ऑनेस्टी एक बेस्ट पॉलिसी है, मगर तुम्हारे लिये है ऐसा तो किसी ने नहीं कहा. जो कहा गया है उससे कहीं ज्यादा अनकहा है. कहा गया है – ‘द बेस्ट पॉलिसी’, अनकहा है – ‘फॉर अदर्स’. इसे एक साथ पढ़ो यार. जो नीति वाक्य मंच से कहे जाते हैं वे सुननेवालों के लिये हुआ करते हैं, वक्ताओं के लिये नहीं. होते तो ये नायक, जननायक, संत, कथावाचक, जीवन-प्रबंधन गुरु, उपदेशक, तकरीर करनेवाले धनसंचय के उस मक़ाम पर नहीं पहुँच पाते जहाँ वे आज हैं.’

‘लेकिन सर मैं तो हमेशा ही ईमानदार…’ – मैंने टोका.

‘हमेशा के लिये किसने बोला है तुम्हें ? कहाँ लिखा है ‘ऑनेस्टी इज द बेस्ट पॉलिसी फॉर एवर’. स्कूल में हम भी पढ़े हैं यार और ठीक-ठाक ही पढ़े हैं. हमने तो ऐसा कहीं नहीं पढ़ा. ईमानदारी हर पल बदलनेवाली शै है. जब तक आप आम नागरिक हैं तब तक ये बेस्ट पॉलिसी है, जब अफसर हैं तब नहीं है. जब तक आप मंच के ऊपर हैं तब तक है, नीचे उतर आये तब नहीं है. जब आप विपक्ष में हैं तब है, जब आप सत्ता में हैं तब नहीं है. जब तक आप ग्राहक हैं तब तक है, जब आप विक्रेता हैं तब नहीं है. जब आप वादी के वकील हैं तो ईमानदार तकरीरें अलग है जब आप प्रतिवादी के हैं तब की ईमानदार तकरीरें अलग हैं.’

‘बट सर,  बेस्ट से मेरा मतलब है कि…’

‘यार तुम भोत भोंठ आदमी हो, कसम से.’ – झुंझला गये वे. – ‘ये ना बेस्ट-वेस्ट कुछ नहीं होता, हर समय बेस्ट से बेटर कुछ तो होता ही है. प्रेक्टिकल बनो लाईफ में. अपने मेहरा साब से सीखो. ईमानदारी का डंका बजता है उनका. जब वे टेन परसेंट का कट बेस्ट मान कर लेते थे तब भी उनके पास फिफ़्टीन परसेंट का बेटर ऑफर तो रहता ही था. इन्फ़्लेशन बढ़ा. फिफ़्टीन परसेंट बेस्ट हुआ, एट्टीन बेटर. अनु बिटिया की शादी है सो ईमानदारी का फुट्टा एट्टीन परसेंट पर ले जाने का मन बना लिया बॉस ने. ऑनेस्ट इस कदर कि अपनी बेस्ट लिमिट को उन्होने कभी क्रॉस नहीं किया. और, हेड ऑफिसवाले रामामूर्ति सर! उनका बेस्ट वन लेक प्लस से शुरू होता है. उससे कम रिश्वत की संभावनाओं वाले केसेस में जबरजस्त ईमानदार और कड़क अफसर माने जाते हैं. ए बेटर इज आल्वेज बेटर देन द बेस्ट माय डियर शांति.’

‘और जो बचपन में पढ़ा वो ?”

‘तुमने बालसभा में भाषण दिया, शील्ड मिली, प्रमाणपत्र मिला, फोटू खिंचा, ऑनस्टी ओवर. अब भूल जाओ उसको. नैतिक शिक्षाएँ ऑप्शनल सब्जेक्ट में पढ़ाई जातीं हैं, उनके सबक भी जीवन में ऑप्शनल होते हैं. एक छोटे स्टेप से बड़े फायदे की मंज़िल तक पहुँचने का ऑप्शन अभी है तुम्हारे पास. ये राह तुम नहीं चुनोगे तो कोई और चुनेगा.’ – उन्होने कंधा थपथपाया और बोले – ‘उठो, जागो और तब तक चलते रहो जब तक तुम अपनी मंज़िल पर न पहुँच जाओ. जब तुम वहाँ पहुँचोगे तो दुनियादारी में सफल बहुत सारे लोग मिलेंगे तुम्हें. ऑल द बेस्ट.’

मैं अब भी उलझन में हूँ.

 

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 27 ☆ व्यंग्य – किताबों के मेले ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा  रचनाओं को “विवेक साहित्य ”  शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य  “किताबों के मेले”.   श्री विवेक जी को धन्यवाद एक सदैव सामयिक रहने वाले व्यंग्य के लिए।  पाठक से अधिक लेखक को पुस्तक मेले की प्रतीक्षा रहती है। शायद  पुस्तक मेलों में लेखक को  अपना भविष्य और प्रकाशक को  अगले पुस्तक मेले तक उनकी अर्थव्यवस्था । गंभीर पाठकों के अलावा सस्ते दामों पर पुस्तकें तो फुटपाथ पर ही मिलती हैं। वरना तथाकथित  “सेल्फ पब्लिशिंग ” का गणित मात्र लेखक और प्रकाशक ही जानते हैं । इस व्यंग्य को पढ़कर कमेंट बॉक्स में बताइयेगा ज़रूर। श्री विवेक रंजन जी ऐसे बेहतरीन व्यंग्य के लिए निश्चित ही बधाई के पात्र हैं.  )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य  # 27 ☆ 

☆  किताबों के मेले 

कलमकार जी अपने गांव से दिल्ली आये हुये थे किताबो के मेले में. दिल्ली का प्रगति मैदान मेलो के लिये नियत स्थल है, तारीखें तय होती हैं एक मेला खत्म होता है, दूसरे की तैयारी शुरू हो जाती है. सरकार में इतने सारे मंत्रालय हैं, देश इतनी तरक्की कर रहा है, कुछ न कुछ प्रदर्शन के लिये, मेले की जरूरत होती ही है. साल भर मेले चलते रहते हैं. मेले क्या चलते रहते हैं, लोग आते जाते रहते हैं तो चाय वाले की, पकौड़े वाले की, फुग्गे वाले की आजीविका चलती रहती है. इन दिनो किताबो का मेला चल रहा है. चूंकि मेला किताबों का है, शायद इसलिये किताबें ज्यादा हैं आदमी कम. जो आदमी हैं भी वे लेखक या प्रकाशक, प्रबंधक ज्यादा हैं, पाठक कम. लगता है कि पाठको को जुटाने के लिये पाठको का मेला लगाना पड़ेगा. मेले में तरह तरह की किताबें हैं.

कलमकार जी को सबसे पहले मिलीं रायल्टी देने वाली किताबें, ये ऐसी किताबें हैं जिनके लिखे जाने से पहले ही उनकी खरीद तय होती है. इनके लेखक बड़े नाम वाले होते हैं, कुछ के नाम उनके पद के चलते बड़े बन जाते हैं, कुछ विवादों और सुर्खियो में रहने के चलते अपना नाम बड़ा कर डालते हैं. ये लोग आत्मकथा टाइप की पुस्तकें लिखते हैं. जिनमें वे अपने बड़े पद के बड़े राज खोलते हैं, खोलते क्या किताबों के पन्नो में हमेशा के रिफरेंस के लिये बंद कर डालते हैं. इन किताबों का मूल्य कुछ भी हो, किताब बिकती है, लेखक के नाम के कांधे पर बिकती है. सरकारी खरीद में बिकती है. लेखक को रायल्टी देती है ऐसी किताब. प्रकाशक भी इस तरह की किताबें सजिल्द छापते हैं, भव्य विमोचन करवाते हैं, नामी पत्रिकायें इन किताबों की समीक्षा छापती हैं.

दूसरे तरह की किताबें होती हैं बच्चो की किताबें, अंग्रेजी की राइम्स से लेकर विज्ञान के प्रयोगो और इतिहास व एटलस की, कहानियों की, सुस्थापित साहित्य की ये किताबें प्रकाशक के लिये बड़ी लाभदायक होती हैं. इन रंगीन, सचित्र किताबों को खरीदते समय पिता अपने बच्चो में संस्कार, ज्ञान, प्रतियोगिताओ में उत्तीर्ण होने के सपने देखता है. बच्चे बड़ी उत्सुकता से ये किताबें खरीदते हैं, पर कम ही बच्चे इन्हें पूरा पढ़ पाते हैं, और उनमें से भी बहुत कम इनमें लिखा समझ पाते हैं, पर जो जीवन में इन किताबो को उतार लेता है, ये किताबें उन्हें सचमुच महान बना देती हैं. कुछ बच्चे इन किताबों के स्टाल्स के पास लगी रंगीन नोटबुक, डायरी, स्टेशनरी, गिफ्ट आइटम्स की चकाचौंध में ही खो जाते हैं, वे इन किताबों तक पहुंच ही नही पाते, ऐसे बच्चे बड़े होकर व्यापारी तो बन ही जाते हैं.

कलमकार जी ज्यों ही धार्मिक किताबो के स्टाल के पास से निकले तो ये किताबें पूछ बैठी हैं  उनके आस पास सीनियर सिटिजन्स ही क्यों नजर आते हैं ?  वह तो भला हो  रेसिपी बुक्स, ट्रेवलाग, काफी टेबल बुक्स, गार्डनिंग,गृह सज्जा  और सौंदर्य शास्त्र के साथ घरेलू नुस्खों की किताबों के स्टाल का जहां कुछ  नव यौवनायें भी दिख गईं कलमकार जी को.

एक बड़ा सेक्शन  देश भर से पधारे, अपने खर्चें पर किताबें छपवाने वाले झोला धारी कलमकार जी जैसे कवियों और लेखको  के प्रकाशको का था, ये प्रकाशक लेखक को अगले एडीशन से रायल्टी देने वाले होते हैं. करेंट एडीशन के लिये इन प्रकाशको को सारा व्यय रचनाकार को ही देना होता है, जिसके एवज में वे लेखक की डायरी को किताब में तब्दील करके स्टाल पर लगा देते हैं. किताब का  बढ़िया सा विमोचन समारोह संपन्न होता है, विमोचन के बाद भी जैसे ही घूमता हुआ कोई बड़ा लेखक स्टाल पर आता है  किताब का पुनः लोकार्पण करवा कर हर हाथ में मोबाईल होने का सच्चा लाभ लेते हुये लेखक के फेसबुक पेज के लिये फोटो ले ली जाती है. ऐसा रचनाकार आत्ममुग्ध किताबों के मेले का आनन्द लेता हुआ, कोने के टी स्टाल पर इष्ट मित्रो सहित चाय पकौड़ो के मजे लेता मिलता है.

मेले के बाहर  फुटपाथ पर भी विदेशी अंग्रेजी उपन्यासों का मेला लगा होता है, पुस्तक मेले की तेज रोशनी से बाहर बैटरी की लाइट में बेस्ट सेलर बुक्स सस्ती कीमत पर यहां मिल जाती हैं. दुनियां में हर वस्तु का मूल्य मांग और सप्लाई के इकानामिक्स पर निर्भर होता है किन्तु किताबें ही वह बौद्धिक संपदा है, जिनका मूल्य इस सिद्धांत का अपवाद है, किसी भी किताब का मूल्य कुछ भी हो सकता है. इसलिये अपने लेखक होने पर गर्व करते और कुछ नया लिख डालने का संकल्प लिये कलमकार जी लौट पड़े किताबों के मेले से.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 28 – व्यंग्य – रजाई में राजनीति ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनका  एक चुटीला व्यंग्य  “रजाई में राजनीति”। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।) \

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 28 ☆

☆ व्यंग्य – रजाई में राजनीति  

 

जाड़े का मौसम है, हर बात में ठंड…. हर याद में ठंड और हर बातचीत की भूमिका में ठंड की बातें और बातों – बातों में ये रजाई….. वाह रजाई…. हाय रजाई… महासुख का राज रजाई।

सबकी अपनी-अपनी ठंड है और ठंड दूर करने के लिए सबकी अलग अपने तरीके की रजाई होती है। संसार का मायाजाल मकड़ी के जाल की भांति है जो जीव इसमें एक बार फंस जाता है वह निकल नहीं पाता है ऐसी ही रजाई की माया है कंपकपाती ठंड में जो रजाई के महासुख में फंस गया वो गया काम से। ठंड सबको लगती है और ठंड का इलाज रजाई से बढ़िया और कुछ नहीं है। रजाई में ठंड दूर करने के अलावा अतिरिक्त संभावनाएं छुपी रहती हैं रजाई में चिंतन-मनन होता है योजनाएं बनतीं हैं रजाई के अंदर फेसबुक घुस जाती है मोबाइल से बातें होतीं हैं जाड़े पर बहस होती है जाड़े की चर्चा से मोबाइल गर्म होता है रजाई सब सुनती है कई बड़े बड़े काम रजाई के अंदर हो जाते हैं रजाई की महिमा अपरंपार है दफ्तर में बड़े बाबू के पास जाओ तो रजाई ओढ़े कुकरते हुए शुरू में कूं कूं करता है फिर धीरे-धीरे बोल देता है जाड़ा इतना ज्यादा है कि पेन की स्याही बर्फ बन गई है जब पिघलेगी तब काम चालू होगा, अभी रजाई में घुसकर हनुमान जी जाति पर नेताओं के बयान देख रहे हैं। एक चैनल ने हनुमान जी को चीनी कह दिया एक ने जाट बना दिया किसी ने मुसलमान बना लिया, तरह-तरह के नेता और तरह-तरह की बातें।

अधिकांश आफिस के लोग ठंड के बहाने सबको टरका देते हैं और कह देते हैं कि ठंड सबको लगती है आफिस की सब फाइलें ठंड में रजाई ओढ़ के सो रहीं हैं जबरदस्ती जगाओगे तो काम बिगड़ सकता है फिर आफिस के सब लोग रजाई के महत्व पर भाषण देने लगते हैं।

ठंड से मौत के सवाल पर मंत्री जी के मुंह में बर्फ जम जाती है रजाई में घुसे – घुसे कंबल बांटने के आदेश हो जाते हैं अलाव से प्रदूषण फैलता है लकड़ी काटना अपराध है कंबल खरीदने से फायदा है कमीशन भी बनता है। रजाई के अंदर से राजनीति करने में मजा है।

जब से हमने रजाई को आधार से जुड़वाया है तब से रजाई में खुसफुसाहट सी होने लगी है रजाई हमें पहचानने लगी है शुरू – शुरू में नू – नुकुर करती थी अब पहचान गई है आधार ही ऐसी चीज है जिसमें पहचान से लेकर सेवाओं तक में होने वाली धोखाधड़ी ये रजाई पहचानने लगती है। जाड़े में रज्जो की रजाई में रज्जाक घुसने में अब डरता है क्योंकि वो जान गया है कि सरकार ने आधार को हर सेवा से जोड़ने की कवायद कर ली है। पर गंगू रजाई की बात में कन्फ्यूज हो जाता है पूछने लगता है कि यदि रज्जो की रजाई चोरी हो जाएगी तो क्या आधार नंबर की मदद से मिल जाएगी ? इसका अभी सरकार के पास जबाब नहीं है क्योंकि सरकार का मानना है कि भुलावे की खुशी जीवन में कई दफा ज़्यादा मायने रखती है। गंगू की इस बात पर सभी को सहमत होना चाहिए कि यदि कोई इन्टरनेट बैंकिंग या डिजिटल पेमेंट से रजाई खरीदता है तो उसे जीएसटी में पूरी छूट मिलनी चाहिए। हालांकि गंगू ये बात मानता है कि एक देश एक कर प्रणाली (जीएसटी) ने देश का आर्थिक चेहरा बदलने की शुरुआत तो की थी पर गुजरात के चुनाव और पांच राज्यों के चुनाव ने सबको डरा दिया है। जीएसटी और नोटबंदी ने कबाड़ा कर दिया।

जाड़े में चुनाव कराना ठीक नहीं है रजाई के दाम बढ़ने से वोट बंट जाने का खतरा बढ़ जाता है जयपुरी रजाई के दाम तो ऐसे बढ़ते हैं कि दाम पूछने में जाड़ा लगने लगता है। जैसे ही ठंड का मौसम आता है गंगू को अपने पुराने दिन याद आते हैं उसे उन दिनों की ज्यादा याद आती है जब पूस की कंपकपाती रात में खेत की मेढ़ में फटी रजाई के छेद से धुआंधार मंहगाई घुस जाती थी और दांत कटकटाने लगते थे भूखा कूकर ठंड से कूं… कूं करते हुए रजाई के चारों ओर रात भर घूमता था और रातें और लंबी हो जातीं थीं, पर पिछले दो साल से ठण्ड में कुछ राहत इसलिए मिली कि नोटबंदी के चक्कर में कोई बोरा भर नोट खेत में फेंक गया और गंगू ने बोरा भर नोट के साथ थोड़ी पुरानी रुई को मिलाकर नयी रजाई सिल ली थी नयी रजाई में नोटों की गर्मी भर गई थी जिससे जाड़े में राहत मिली थी इस रजाई से ठंड जरूर कम हुई थी पर अनजाना डर बढ़ गया था जो सोने में दिक्कत दे रहा था गंगू ने कहीं सुन लिया था कि नोटबंदी के बाद बंद हुए पुराने नोट पकडे़ जाने पर सजा का प्रावधान है। गंगू चिंतित रहता है कि भगवान की कृपा से पहली बार नोटभरी रजाई सिली और ठंड में राहत भी मिली पर ये साले चूहे बहुत बदमाशी करते हैं कभी रजाई को काट दिया तो नोट बाहर दिखने लगेंगे और रजाई जब्त हो जाएगी, फिर राजनैतिक पार्टियां इसी बात को मुद्दा बनाकर कांव कांव करेंगी, टीवी चैनल वाले दिनों रात तंग करेंगे…… खैर जो भी होगा देखा जाएगा। अभी तो ये नयी रजाई ओढ़कर सोने में जितना मजा आ रहा है उतना मजा वित्तमंत्री को मंहगी जयपुरी रजाई ओढ़ने में नहीं आता होगा।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 31 ☆ व्यंग्य – मुकुन्दी की नौकरी और मुन्नी की बदनामी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं।  कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है. आज का व्यंग्य  है मुकुन्दी की नौकरी और मुन्नी की बदनामी।  डॉ परिहार जी की पैनी व्यंग्य दृष्टि  से ऐसा कोई पात्र नहीं बच सकता जिसने अपनी बुद्धि का इस्तेमाल किसी न किसी ऐसे काम में लगाया हो जिसपर हर किसी की नजर न पड़ती हो। मुकुन्दी की नौकरी और मुन्नी की बदनामी के फ़िल्मी गीत के बीच  तालमेल बैठते आइडियाज  कितने महत्वपूर्ण हैं, इसके लिए तो आपको यह व्यंग्य पढ़ना ही पड़ेगा न।  हास्य का पुट लिए ऐसे  मनोरंजक एवं सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 31 ☆

☆ व्यंग्य – मुकुन्दी की नौकरी और मुन्नी की बदनामी ☆

 

मुकुन्दी बी.ए.पास करके फिलहाल बेरोज़गार हैं। सरकारी नौकरी के लिए बहुत हाथ-पाँव मारे, लेकिन वहाँ घुसने के लिए सूराख नहीं मिला। जहाँ गये वहाँ डेढ़ दो लाख से कम की माँग नहीं हुई। सुनने को मिला कि सरकारी नौकरी अनेक जन्मों के संचित पुण्यों का फल होती है।बिना काम देखे पूरी तनख्वाह नियमित मिलती है, ऊपरी आमदनी अलग से। ऐसी नौकरी के लिए इस जन्म में भी कुछ त्याग करना पड़े तो क्या गलत हुआ? मुकुन्दी के पास त्यागने के लिए पर्याप्त माल नहीं है, इसलिए सड़क पर हैं।

गाँव के ज़मींदार साहब ने काम बताया है।उनके पुरखों का पुराना मन्दिर है। पुराने पुजारी जी अपने गाँव जाना चाहते हैं। मुकुन्दी मन्दिर का काम  संभाल ले तो वे उसे सीधा-पिसान देते रहेंगे। कुछ चढ़ावा भी मिल जाएगा। फिलहाल मुकुन्दी का खर्चा-पानी निकलता रहेगा। नौकरी मिल जाए तो भले ही चला जाए।

मुकुन्दी मन्दिर में स्थापित हो गये। सबेरे शाम पूजा-आरती, दिन भर कुछ पढ़ना-लिखना या ऊँघना। मन्दिर के बगल में कुआँ है, इसलिए नहाने-धोने और मन्दिर की साफ-सफाई के लिए पानी की कमी नहीं है।

इस मन्दिर में ज़्यादा मजमा नहीं जुड़ता इसलिए मुकुन्दी बोर होते हैं। गाँव के लोग वैसे भी तंगदस्त होते हैं, इसलिए ज़्यादा चढ़ावा नहीं चढ़ता। ‘परसाद’ के लालच में दो चार गरीब बच्चे आरती के वक्त घंटा-घड़याल बजाने के लिए जुट जाते हैं। बाकी टाइम काटना मुश्किल होता है। मुकुन्दी के पास एक ट्रांज़िस्टर है, दिन भर उसे चालू रखते हैं।

एक दोपहर मुकुन्दी के ट्रांज़िस्टर पर ‘दबंग’ फिल्म का गाना ‘मुन्नी बदनाम हुई’ आ रहा था। गाना ऐसा कि अच्छे-भले आदमी के हाथ-पाँव फड़कने लगें। गाना तेज़ वाल्यूम में गूँज रहा था। बगल के रास्ते से गाँव के बच्चे स्कूल जाते थे। मुकुन्दी कुछ शोर-गुल सुनकर मन्दिर के पीछे गये तो देखा आठ-दस लड़के अपने बस्ते रास्ते के किनारे पटक कर गाने की धुन पर बेसुध अपने बदन को झटके दे रहे थे। मुकुन्दी बड़ी देर तक उनकी मुद्राओं का मज़ा लेते रहे। लड़के दीन-दुनिया से बेख़बर थे।

लौट कर बैठे तो मुकुन्दी के दिमाग़ में एक आइडिया कौंधा। गाँव में एक दुर्गाप्रसाद हैं जो हारमोनियम बढ़िया बजाते हैं, लेकिन गाँव में उनके हुनर का उपयोग नहीं होता। हारमोनिय म पर धूल चढ़ी रहती है। दूसरे पुत्तूसिंह ढोलक के उस्ताद हैं। उनकी ढोलक भी छठे-छमासे ही धमकती है। गाँव में गुणीजन की कदर कम होती है।

मुकुन्दी शाम को दोनों उस्तादों से मिले और ‘डील’ पक्की हो गयी। रोज़ शाम को आरती से पहले मुकुन्दी का बनाया नया भजन होगा और जो चढ़ावा आयेगा उसका बंटवारा तीनों के बीच होगा। मुकुन्दी ने ज़मींदार साहब को भी समझा दिया कि उनकी योजना सफल हो गयी तो मन्दिर के दिन फिर जाएंगे।

दो दिन बाद मन्दिर में शाम की आरती से पहले पुत्तूसिंह की ढोलक धमकने लगी। साथ में शुरू हुआ मन्दिर के पुजारी मुकुन्दीलाल रचित भक्तिरस से ओतप्रोत भजन, ‘राधा बदनाम हुई कन्हैया तेरे लिए, ललिता बदनाम हुई सांवरे तेरे लिए।’ सोने में सुहागा जैसी दुर्गा उस्ताद की हरमुनियां की धुन।

थोड़ी देर में मन्दिर में मजमा लग गया।जिसके कान में धुन पड़ी, दौड़ा आया। सारी भीड़ भक्तिरस में झूमने लगी। थोड़ी देर में आधे लोगों ने बाहर मैदान में ठुमके लगाना शुरू कर दिया। घंटों नाच-गाना चलता रहा।न गाने वाले थके, न नाचने वाले। गायन मंडली की तबियत बाग-बाग हो गयी। उस दिन चढ़ावा भी खूब चढ़ा।

दूसरे दिन से शाम होते ही जनता मुकुन्दी के मन्दिर की तरफ वैसे ही लपकने लगी जैसे चींटे गुड़ की तरफ दौड़ते हैं। सब टकटकी लगाकर बैठते जाते थे कि कब भजन शुरू हो। भजन शुरू होते ही आधे नाचने को बाहर निकल जाते और आधे भक्तिरस में झूमने लगते। बीच बीच में मुकुन्दी भी भावविभोर होकर नाचने लगते। मुकुन्दी ने फिल्मी धुनों पर दो तीन भजन और साध लिये थे, लेकिन उनकी वह ‘डिमांड’ नहीं थी जो ‘राधा बदनाम हुई’ की थी।

कुछ दिनों में मन्दिर की सूरत बदल गयी। सारा परिसर चमकने लगा। भजन के प्रसारण के लिए लाउडस्पीकर भी लग गया।परिणामतः लोग मीलों से खिंचे चले आते। गाँव के एमैले साहब ने पच्चीस हजार रुपये मन्दिर में रंगाई-पुताई के लिए दिये और मन्दिर की सड़क भी पक्की करवा दी। मन्दिर की ख्याति दूर दूर तक फैल गयी।गाँव के दूसरे मन्दिरों में भक्तों का भारी टोटा पड़ गया।

मुकुन्दी की धजा भी बदल गयी है। हाथ में पाँच हजार का मोबाइल लिए मन्दिर-प्रांगण में ठसके से घूमते रहते हैं। मोबाइल पर भक्तों की शंकाओं का समाधान करते रहते हैं। कुछ भूत-भविष्य भी बता देते हैं। दो तीन लड़के सफाई और सेवा के लिए रख लिये हैं। अब नौकरी के बारे में पूछने पर जवाब देते हैं, ‘कोई अच्छी नौकरी मिली तो सोचेंगे, वर्ना हमारी कोई गरज नहीं है।’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 26 ☆ व्यंग्य – डरने और डराने के मजे ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा  रचनाओं को “विवेक साहित्य ”  शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य  “डरने और डराने के मजे”.   श्री विवेक जी को धन्यवाद एक सदैव सामयिक रहने वाले व्यंग्य के लिए ।  कई बार बचपन में खेले जाने वाले खेल का सम्बन्ध भविष्य के खेलों से कैसे जुड़ जाता है बेशक हम उस खेल के पात्र न हो तो भी।  इस व्यंग्य को पढ़कर कमेंट बॉक्स में बताइयेगा ज़रूर। श्री विवेक रंजन जी ऐसे बेहतरीन व्यंग्य के लिए निश्चित ही बधाई के पात्र हैं.  )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य  # 26 ☆ 

☆  डरने और डराने के मजे 

 

बचपन में मैं दरवाजे के पीछे छिप जाया करता था, जैसे ही कोई दरवाजे से निकलता मैं चिल्लाते हुये बाहर आता और इस अचानक, अप्रत्याशित हो हल्ले से, आने वाला अनायास डर जाता था. इस खेल में मुझे डराने में बड़ा मजा आता था, गलती से कही मां या पिताजी को डराने की कोशिश कर दी तो फिर जो डांट पड़ती थी उससे डरने का मजा भी अलग ही था. आशय यह है कि डरने और डराने में भी मजे हैं. आज सारे देश में यही डरने और डराने के खेल कुशल राजनीति के साथ खेले जा रहे हैं. एक हमारे जैसे नाकारा लोग हैं जिन्हें स्वयं अपने आप के लिये ही समय नही है, अपना टैक्स रिटर्न भरना हो, बिजली बिल जमा करना हो, किसी संपादक की मांग पर कोई रचना लिख भेजनी हो हम कल पर टालते रहते हैं. यदि अंतिम तिथि न हो तो शायद हमारे जैसो के कोई काम ही न हो पायें. पर भला हो उन महान समाज सेवियो का जो संविधान की रक्षा के लिये फटाफट समय निकाल लेते हैं. पत्थर, आगजनी के सामान सहित धरने आंदोलन कर डालते हैं. कोई नियम बना नहीं कि उससे किस किस को किस तरह डराया जा सकता है, इसका झूठा सच्चा पूरा हिसाब लगाकर ऐसे लोग भरी ठण्ड में भीड़ इकट्ठी कर डराने का खेल खेलने के विशेषज्ञ होते हैं . उन्हें पता होता है कि किसे डर बता कर बरगलाया जा सकता है, वे अपनी टारगेट आडियेंस को प्रभावित करने में बिना किसी कोताही के जुट जाते हैं. कहने को तो देश में सब समझदार हैं, पढ़े लिखे हैं पर जब उन्हें धर्म, भाषा, क्षेत्र के नाम पर डराया जाता है तो सब बिना सोचे समझे डरने लगते हैं. ज्यादा पढ़े लिखे लोग बिना वास्तविकता जाने समझे ट्वीटर पर अपना डर अभिव्यक्त कर डालते हैं. मजे की बात यह भी है कि वही सरकार जो आयोडीन नमक के फायदे गिनाने के लिये वातावरण निर्माण पर करोड़ो के विज्ञापन जारी करती है, बच्चो की रैली निकाल कर जागरूखता लाती है. चुनावो में मतदान करने के लिये प्रेरित करने के जन आंदोलन अभियान पर बेहिसाब खर्च करती है, प्रसिद्ध फिल्मी हस्तियों को इंडोर्स करते हुये हाथ धोने की हर छोटी बड़ी बारीकियां समझाती है, वही सरकार ऐसे कानून बनाते समय चुप्पे चाप यह मान लेती है कि सरकार के इस कदम से कोई नही डरेगा. बिना किसी पूर्व नियोजित तैयारी के सरकार नोट बंद कर डालती है, टैक्स कानून में रातो रात बदलाव कर देती है. सरकार को लगता है कर डालो जो होगा देखा जायेगा. जैसे बिना यह समझे कि दरवाजे पर आने वाला हार्ट पेशेंट भी हो सकता था बचपन मैं उसे डराकर स्वयं को बहुत तीसमारखां समझा करता था, कुछ वैसे ही सरकार भी चल रही है. या तो सरकार ने तुलसी की चौपाई पढ़ ली है ” भय बिन होई न प्रीति “. जो भी हो मैं तो यही सोचकर खुश हूं कि “डर के आगे जीत है”.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ मुझे दिल का दौरा क्यों पड़ा…. ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई पुरस्कारों / अलंकरणों से  पुरस्कृत /अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। आज  प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का सार्थक  एवं सटीक  व्यंग्य   “मुझे दिल का दौरा क्यों पड़ा….।  इस व्यंग्य को पढ़कर निःशब्द हूँ। मैं श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर ही छोड़ता हूँ। अतः आप स्वयं  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। हम भविष्य में श्री शांतिलाल  जैन जी से  ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। ) 

☆☆ मुझे दिल का दौरा क्यों पड़ा….☆☆

….इसका चिकित्सकीय कारण तो कार्डियोलॉजिस्ट ही बता सकते हैं लेकिन मनोहरबाबू ने बताया कि शांतिभैया, आप ठहरे मीन राशि के जातक. करेक्ट. ऐसे जातकों की कुंडली में राहु जैसे ही नीच घर का स्वामी होता है, वो आर्टेरीज़ ब्लॉक करना शुरू कर देता है. करेक्ट. दो दिसंबर की सुबह तीन छियालीस पर राहु नीच घर में आया और उसने आपकी डी-टू को ब्लॉक किया. करेक्ट. अगले दिन वो बारह उनपचास पर निकल भी गया. आप लक्की रहे शांतिभैया, राहु धीमा ग्रह है, वो एक दिन में एक से ज्यादा आर्टरी ब्लॉक नहीं कर पाता. करेक्ट. अब उपाय ये के बीच की ऊंगली में चांदी में पुखराज धारण करो, फिर रिजल्ट देखो. ये ईकोस्प्रिन तो आप नाली में ही फेंक दोगे. करेक्ट. नास्त्रेदमस के बाद, उनकी सी योग्यता, सिर्फ मनोहरबाबू में देखी गई है, उनको इनकरेक्ट ठहराने का दुस्साहस मैं कर नहीं सका.

सदर-ए-हकीम फिरोजभाई डिब्बावाला बोले – भाईजान, दिल के दौरे का कामियाब ईलाज है तो केवल यूनानी शिफाखाने में है. आपने ‘खमीरा आबरेशम अरशदवाला’ सेवन किया होता तो आज आपकी ये हालत नहीं होती. खैर, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है. मैं दवा-ओ-ईफा भिजवा देता हूँ, बकरी के दूध के साथ सुबे शाम लेना है. जिंदगी में कभी दिल का दौरा पड़ जाये तो नाम बदल देना मेरा. फिरोजभाई मोहब्बत बेइंतेहा रखते हैं, इस नश्वर देह के लिये का उनका नाम क्यों बदलवाना.

फूलचंद काका चार दशकों से धेनु को चिकित्सा जगत की कामधेनु बनाने पर शोधकार्य कर रहे हैं. दो शीशियों में गौमाता की लघुशंका से निर्मित अर्क लेते आये. उनका एक अदम्य विश्वास है कि गोबर से चिकित्सा के उनके महती शोधकार्य के लिए उन्हें चिकित्सा विज्ञान का नोबेल पुरस्कार लेने एक दिन स्टॉकहोम जाना पड़ेगा. इस विषय पर उन्होने कुछ पुस्तकें लिखीं हैं जो बस-स्टैंड के बुकस्टॉलों पर हसीना कानपुरी की रोमांटिक शायरी जैसी किताबों के बीच विक्रय हेतु रखी गई हैं. आप उन्हें घर बैठे वीपीपी से भी मंगवा सकते हैं. जाते जाते बोले – दवा की कोई कमी नहीं है, पूरी गौशाला तुम पर निछावर. फिलवक्त, दो शीशियाँ देखकर ही वोमिट वाली फीलिंग आ रही अगर चे पूरी गौशाला की गायों का…आई मीन… मैं बुरी तरह घबरा गया.

पवन भाई का कहना था कि मतलब कि कोई परहेज मत करो. मतलब कि डॉक्टर तो केतेई रेते हैं. मतलब कि चार दिन की जिनगी है, सब खाओ. मतलब कि मरना तो है ही एक दिन फिर खाना पीना क्यों बंद करना. मतलब कि जो होगा सो होगा. मतलब कि हार्ट अटैक तो आते जाते रेते हेंगे. मतलब कि अब मैं निकलता हूँ. मतलब कि मस्त रेना आप.

कुमार का फोन आया, बोला – जैनसाब हैदराबाद आ जाओ. नामपल्ली में हार्ट फिश प्रसादम् भी देने लगे हैं. अस्थमावाली की सिस्टर फिश. वो ना गले से आर्टरिज में होती हुई नीचे उतरती है तो ब्लॉकेज साफ करती चलती है. मैंने मना करने के लिए थोड़ा सा पॉज लिया तो बोला कुछ नहीं कहेंगे महावीर स्वामी. एक छोटी सी मछली सिर्फ एक बार जिंदा गटकना है, खाना नहीं है. सो भी ईलाज के लिए. ठीक है? ओके, टेक केयर, बाय.

दो कम अस्सी टोटकों, नुस्खों, ईलाजों को जान लेने के बाद आनेवाले कल का मंजर देख पा रहा हूँ. होल्टर, ईको, ईसीजी, टीएमटी मशीनें जंग खाने लगीं हैं. स्टूडेंट कार्डियोलॉजी में पीजी करने से बच रहे हैं. डॉ. नरेश त्रेहान अल्टरनेट जॉब की तलाश में भटक रहे हैं. वे डिसाईड नहीं कर पा रहे – फूलचंद काका से प्रशिक्षण लें कि फिरोज भाई, बीयूएमएस से?

 

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, TT नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 30 ☆ व्यंग्य – अफसर के घर सत्यनारायण ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं।  कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है. आज का व्यंग्य  है अफसर के घर सत्यनारायण ।  प्रिय प्रबुद्ध पाठकों , आप कहेंगे  कि  सत्यनारायण जी की कथा तो सबके यहाँ होती है, फिर अफसर के घर की कथा अलग कैसे ?  डॉ परिहार जी की पैनी व्यंग्य दृष्टि  से भला वे  पात्र कैसे बच सकते हैं जिनके ध्यान  का केंद्र कथा वाचक से अधिक कथा आयोजक हों।  अब जब भी आप कही कथा में  जायेंगे तो अपने आप इनमें से कोई न  कोई पात्र जरूर ढूंढ लेंगे। हास्य का पुट लिए ऐसे  मनोरंजक एवं सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 30 ☆

☆ व्यंग्य – अफसर के घर सत्यनारायण ☆

 

सज्जनो! आप जो इस भवन के सामने कारों का हुजूम देख रहे हैं सो यहाँ न तो कोई ब्याह- शादी है, न किसी मंत्री का भाषण हो रहा है। यह तो आयकर अधिकारी श्री दामले के यहाँ सत्यनारायण की कथा हो रही है और ये कारें उन व्यापारियों की हैं जो श्री दामले के अधिकार-क्षेत्र में आते हैं।

श्री दामले के घर में भक्तों की भीड़ प्रति क्षण बढ़ती नदी की तरह बढ़ रही है। ये वे भक्तगण  हैं जिनको आपने कभी किसी मन्दिर में नहीं देखा होगा, लेकिन आज इनकी भक्ति देखने से ताल्लुक रखती है।

सारे अतिथि इस कोशिश में हैं कि श्री दामले उनका चेहरा देख लें और उनकी उपस्थिति दर्ज हो जाए। इसलिए लोग पच्चीस पच्चीस गज से दामले जी की ओर नमस्कार मार रहे हैं। जिनकी आवाज़ अभी तक दामले साहब के कानों तक नहीं पहुँची वे नर्वस हैं। क्या करें?

भक्तों की पत्नियाँ श्रीमती दामले को घेरकर ऐसे बैठी हैं जैसे चन्द्रमा को घेरकर तारे। जो महिलाएँ श्रीमती दामले तक नहीं पहुँच पायी हैं उनके मुख मलिन हैं। उधर पंडित जी कथा पढ़ रहे हैं और इधर महिलाएँ श्रीमती दामले के रूप, उनकी साड़ी और आभूषणों की भूरि-भूरि प्रशंसा करने में व्यस्त हैं।

एक भक्त दामले जी के छोटे पुत्र को गोद में उठाकर बाहर घुमाने ले गया है। दूसरा उनके बड़े पुत्र को किराने की दूकान से टॉफी दिलाने ले गया है। ये सारे कृत्य उस कथा के ही अंग हैं जिसके हेतु ये श्रद्धालु यहाँ इकट्ठे हुए हैं।

भक्तों की भीड़ अपेक्षा से अधिक होने के कारण प्रसाद कम पड़ने की स्थिति उत्पन्न हो गयी है। दामले साहब एक कार वाले भक्त की तरफ कुछ नोट बढ़ाकर कहते हैं, ‘लो भई, ज़रा मीठा मंगा लो।’  भक्त हाथ जोड़कर दुहरा हो जाता है, कहता है, ‘लज्जित मत कीजिए साहब। इस पुण्यकार्य में थोड़ा सा योगदान मेरा भी सही।’

और एक चमचमाती हुई कार बाज़ार की ओर बढ़ जाती है।

आरती हो रही है। सब भक्त आरती में शामिल होने के लिए कमरे में घुस आये हैं। सब एक दूसरे से ज़्यादा ज़ोर से आरती गाने की कोशिश कर रहे हैं ताकि दामले जी का ध्यान उनकी तरफ आकर्षित हो। यह भी उपस्थिति दर्ज कराने का ही एक तरीका है। जिन्होंने जीवन में कभी आरती नहीं गायी वे भी आज मजबूरी में आरती गा रहे हैं। कर्कश स्वर मीठे स्वरों पर हावी हो रहे हैं। जो नहीं गा सकते वे फिल्म अभिनेताओं की तरह आरती के शब्दों पर मुँह चला रहे हैं।

आरती के बाद आरती की थाली नीचे रखी जाती है और भक्त लोग इच्छानुसार उसमें द्रव्य डालकर प्रणाम कर रहे हैं। एक अमीर भक्त हाथ में पाँच सौ का नोट लिये बौखलाया सा इधर उधर देख रहा है और कह रहा है, ‘थाली कहाँ है भाई?’  दरअसल थाली तो ठीक उसकी नाक के सामने है लेकिन अभी दामले साहब की नज़र उसके नोट पर नहीं पड़ी है। दामले साहब घूमकर  उसके नोट को देखते हैं और वह तुरन्त नोट को थाली में छोड़कर भक्तिपूर्वक प्रणाम करता है।

अब प्रसाद लेने के लिए ठेलमठेल हो रही है। भक्तों ने सुन रखा है कि प्रसाद ग्रहण न करने के कारण कलावती कन्या के पति की नाव अन्तर्ध्यान हो गयी थी और उनका सारा धन लता-पत्र में बदल गया था। शायद इसीलिए लोग प्रसाद के लिए आतुर हो रहे हैं।

दरअसल इन भक्तजनों को दामले साहब में ही भगवान के दर्शन हो रहे हैं। उनका प्रसाद अगर ग्रहण न किया तो पता नहीं वे कब इन भक्तजनों की नैया को डुबा दें या बड़ी मेहनत से कमाये हुए इनके काले धन को धूल-पत्थर बना दें। इसी भय से, हे सज्जनो, भक्तों की यह भीड़ प्रसाद प्राप्त करने के लिए संघर्षरत है।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 25 ☆ व्यंग्य – एक ट्वीटी संवेदना अपनी भी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा  रचनाओं को “विवेक साहित्य ”  शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य  “एक ट्वीटी संवेदना अपनी भी”.  समाज में सोशल मीडिआ पर संवेदनहीनता की पराकाष्ठा को प्रदर्शित करते  हुए इस व्यंग्य को पढ़कर कमेंट बॉक्स में बताइयेगा ज़रूर। श्री विवेक रंजन जी ऐसे बेहतरीन व्यंग्य के लिए निश्चित ही बधाई के पात्र हैं.  )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य  # 25 ☆ 

☆  एक ट्वीटी संवेदना अपनी भी

 

एक बुढ़िया जो जिंदगी से बहुत परेशान थी जंगल से लकड़ियां बीनकर उन्हें बेचकर अपनी गुजर बसर कर रही थी। एक दिन वह थकी हारी लकड़ी का गट्ठर लिये परिस्थितियो को कोसती हुई लम्बी सांस भरकर बोल उठी, यमराज भी नहीं ले जाते मुझे ! बाई दि वे यमराज वहीं से गुजर रहे थे, उन्हें बुढ़िया की पुकार सुनाई दी तो वे तुरंत प्रगट हो गये। बोले कहो अम्मा पुकारा। तो अम्मा ने तुरंत पैंतरा बदल लिया बोली, हाँ बेटा जरा यह लकड़ी का गट्ठर उठा कर सिर पर रखवा दे। कहने का आशय है कि मौत से तो हर आदमी बचना ही चाहता है। जीवन बीमा कम्पनियो की प्रगति का यही एक मात्र आधार भी है,पर भई मान गये आतंकवादी भैया  तो बड़े वीर हैं उन्हें तो खुद की जान की ही परवाह नहीं, बस जन्नत में मिलने वाली की हूरो की फिकर है। तो तय है कि समूल नाश होते तक ये तो आतंक फैलाते ही रहेंगे। आज दुनिया में कही भी कभी भी कुछ न कुछ  करेंगे ही। निर्दोषों की मौत का ताण्डव करने का सोल कांट्रेक्ट इन दिनो आई एस आई एस को अवार्डेड है।

बड़ी फास्ट दुनिया है, इधर बम फूटा नही, मरने वालो की गिनती भी नही हो पाई और ट्वीट ट्रेंड होने लगे। फ्रांस के आतंकी ट्रक की बैट्रेक दौड़ पर, हर संवेदन शील आदमी की ही तरह दिल तो मेरा भी बहुत रोया। दम साधे,पत्नी की लाई चाय को किनारे करते हुये मैं चैनल पर चैनल बदलता रहा। जब इस दुखद घटना की रिपोर्ट के बीच में ही ब्रेक लेकर चैनल दन्त कान्ति से लेकर निरमा तक के विज्ञापन दिखाने लगा पर मैं वैसा ही बेचैन होता रहा तो पत्नी ने झकझोर कर मेरी चेतना को जगाया और अपनी मधुर कर्कश आवाज में अल्टीमेटम दिया चाय ठण्डी हो रही है, पी लूं वरना वह दोबारा गरम नही करेगी। चाय सुड़पते हुये  बहुत सोचा मैने, इस दुख की घड़ी में, मानवता पर हुये इस हमले में मेरे और आपके जैसे अदना आदमी की क्या भूमिका होनी चाहिये ?

मुझे याद है जब मैं छोटा था, मेरे स्कूल से लौटते समय  एक बच्चे का स्कूल के सामने ही ट्रक से एक्सीडेंट हो गया था, हम सारे बच्चे बदहवास से उसे अस्पताल लेकर भागे थे, मैं देर रात तक बस्ता लिये अस्पताल में ही खड़ा रहा था, और उस छोटी उम्र में भी अपना खून देने को तत्पर था।  थोड़ा बड़ा हुआ तो बाढ़ पीड़ीतो के लिये चंदा बटोरकर प्रधानमंत्री सहायता कोष में जमा करने का काम भी मेरे नाम दर्ज है । मेरा दिल तो आज भी वही है। जब भी आतंकवादियो द्वारा निर्मम हत्या का खेल खेला जाता है तो मेरे अंदर का  वही बच्चा मुझ पर हावी हो जाता है। पर अब मैं बच्चा नहीं बचा,दुनिया भी बदल गई है न तो किसी को मेरा खून चाहिये न ही चंदा। मुझे समझ ही नही आता कि इस स्थिति में मैं क्या करूं ?

तो आज ट्रेंडिग ट्वीट्स ने मेरी समस्या का निदान मुझे सुझा दिया है। और मैने भी हैश टैग फ्रांस वी आर विथ यू पर अपनी ताजा तरीन संवेदनायें उड़ेल दी हैं और मजे से बर्गर और पीजा उड़ा रहा हूं। हो सके तो आप अपनी भी एक ट्वीटी संवेदना जारी कर दें और जी भरकर कोसें आतंकवादियो को हा हा ही ही के साथ।

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 29 ☆ व्यंग्य – नहाने के बहाने ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं।  कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है. आज का व्यंग्य  है नहाने के बहाने।  नहाने के बहाने डॉ परिहार जी ने कई लोगों की पोल खोल दी  है । यह शोध कई लोगों की विशेष जानकारी कई लोगों  तक पहुंचा देगा ।  इस  रोग से ग्रस्त पतियों की पत्नियों  को इस  व्यंग्य से बहुत लाभ मिलेगा।  इस कड़कड़ाती सर्दी में हास्य का पुट लिए ऐसे  मनोरंजक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 29 ☆

☆ व्यंग्य – नहाने के बहाने ☆

कुछ दिन पहले एक पत्नी अपने पतिदेव के खिलाफ यह शिकायत लेकर परिवार परामर्श केन्द्र में पहुंच गयी कि पतिदेव नहाते नहीं थे। ज़ाहिर है कि इस मामले में पतिदेव की खासी किरकिरी हुई और पानी से परहेज़ की उनकी आदत जगजाहिर हो गयी। इस घटना ने हमारे देश में पतियों की पतली होती हालत को भी नुमायाँ किया। किसी समय ‘परमेश्वर’ माने जाने वाले पति की आज यह हैसियत हो गयी है कि नहाने के सवाल को लेकर तलाक की नौबत आने लगी है।

हमारे देश में स्नान की बड़ी महत्ता है। हर पवित्र और महत्वपूर्ण काम के पहले स्नान ज़रूरी होता है। दिवंगत को भी बिना स्नान दुनिया से विदा नहीं किया जाता। सबको पालने वाले भगवान को नहलाये बिना नैवेद्य नहीं चढ़ाया जाता। यह दीगर बात है कि हमारे समाज में बहुत सी जातियाँ नहाने के बाद भी पवित्र नहीं होतीं और बहुत सी बिना नहाये ही पवित्र बनी रहती हैं। कई लोग यही बता बता कर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करते हैं कि वे बिला नागा रोज़ सबेरे चार बजे नहाते हैं या जाड़ों में भी ठंडे पानी से नहाते हैं।

लेकिन सब लोग नहाने के प्रति ऐसे उत्साही नहीं होते। बहुत से महानुभाव पेट-पूजा को छोड़कर दूसरी पूजा नहीं करते और परिणामतः स्नान को  ज़रूरी नहीं मानते। कुछ लोग बुड़की (संक्रांति) की बुड़की ही स्नान संपन्न करते हैं और फिर भी शिकायत करते हैं कि ‘यह बुड़की भी मरी रोज़ रोज़ आ जाती है।’  एक और महाशय का मासूम कथन है—-‘पता नहीं लोग महीनों बिना नहाये कैसे रह लेते हैं। हमें तो पंद्रह दिन में ही खुजली चलने लगती है।’ एक ऐसे सज्जन का किस्सा भी मशहूर है

जिनका स्वेटर दीवाली पर खो गया था और जब होली पर उन्होंने नहाने के लिए कपड़े उतारे तो पता चला कि स्वेटर पहने हुए थे।

बहुत से लोग घर के सदस्यों के डर से स्नान का ढोंग करते रहते हैं। वे खास तौर से घर की महिलाओं से ख़ौफ़ खाते हैं जो नहाने के मामले में निर्मम होती हैं। ऐसे लोग स्नानगृह में पानी गिराकर और हल्लागुल्ला मचाकर बाहर आ जाते हैं। एक ऐसे ही महापुरुष की पोल उस समय खुल गयी जब वे मोज़े पहने बाथरूम में गये और मोज़े पहने ही बाहर आ गये, यानी ‘सावधानी हटी और दुर्घटना घटी’ वाला मामला हो गया।

एक गुरूजी के बारे में सुना था कि वे अपने पवित्र शरीर पर मैल का पर्याप्त संग्रह करते थे और मैल की बत्तियां उतार उतार कर भक्तों में प्रसाद रूप में वितरित करते रहते थे। यह पता नहीं चला कि भक्त इस प्रसाद का क्या उपयोग करते थे, लेकिन इसमें सन्देह नहीं कि प्रसाद के मामले में ऐसे आत्मनिर्भर गुरू विरले होते हैं।

इंग्लैंड के अपने पुराने प्रभुओं के गोरे रंग को देखकर हममें से बहुतों को रश्क होता है। हमारे देश में भी गोरे रंग के लिए ज़बरदस्त पागलपन है। हर लड़के को गोरी बीवी चाहिए। लेकिन इंग्लैंड के पुरुषों के बारे में पढ़ा कि उनमें से ज़्यादातर की अपनी साफ-सफाई में रुचि बहुत कम है। 57 फीसदी पुरूष स्नानघर में 15 मिनट से कम और 27 फीसदी 10 मिनट से कम वक्त बिताते हैं। अपने भीतरी वस्त्र बदलने में भी वे खासे लापरवाह हैं।

एक अखबार में पढ़ा कि इंडियाना में सर्दियों में नहाना कानून के खिलाफ है और बोस्टन में उस समय तक नहाना ग़ैरकानूनी है जब तक डॉक्टर इसकी सलाह न दे। पढ़ कर ख़याल आया कि हमारे देश में भी ऐसे कानून बन जाएं तो स्नान-विमुख पतियों के घर टूटने से बच जाएं। वैसे इसी अखबार में यह भी छपा है कि इज़राइल में मुर्गियों के लिए शुक्रवार और शनिवार को अंडे देना ग़ैरकानूनी है।

एक लेख में बड़ा दिलचस्प तथ्य पढ़ने में आया कि सौन्दर्य और नफ़ासत के लिए विख्यात फ्रांस में मध्यकाल में महिलाएं जीवन भर अपनी कोमल काया को पानी का स्पर्श नहीं होने देती थीं। इसके बावजूद उनका रूप और सौन्दर्य जगमगाता रहता था। पुरुष भी पूरे जीवन में एकाध बार ही स्नान करते थे। इससे सिद्ध होता है कि सौन्दर्य की सुरक्षा और अभिवृद्धि के लिए स्नान क़तई ज़रूरी नहीं है।लोग व्यर्थ ही ड्रमों पानी शरीर को घिसने और चमकाने में खर्च करते हैं। समझदार लोग स्नान की कमी को ‘परफ्यूम’ और ‘डी ओ’ की मदद से सफलतापूर्वक ढंक लेते हैं।

अंत में ‘फ़ैज़’ साहब से मुआफ़ी मांगते हुए अर्ज़ है—-

‘और भी ग़म हैं ज़माने में नहाने के सिवा,

राहतें और भी हैं ग़ुस्ल की राहत के सिवा’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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