हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 6 – व्यंग्य – बुरी नज़र और विघ्नहरण जूता ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है उनका व्यंग्य – “बुरी नज़र और विघ्नहरण जूता” जो निश्चित ही …….. ! अरे जनाब यदि मैं ही विवेचना कर दूँ  तो आपको पढ़ने में क्या मज़ा आएगा? इसलिए बिना समय गँवाए कृपा कर के पढ़ें, आनंद लें और कमेंट्स करना न भूलें । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 6 ☆

 

☆ व्यंग्य – बुरी नज़र और विघ्नहरण जूता ☆

एक निर्माणाधीन मकान की बगल से गुज़रता हूँ तो देखता हूँ कि ऊपर एक कोने में एक पुराना जूता लटकाया गया है। जूते की तली सड़क पर चलने वालों की तरफ है। यह मकान को बुरी नज़र से बचाने का अचूक नुस्खा है। किसी अधबने मकान पर काली झंडी लहराती दिखती है तो किसी पर काली हंडी उल्टी लटकी है। मतलब यह है कि ईंट, पत्थर, सीमेंट को भी नज़र लगती है।गज़ब की होती है यह बुरी नज़र जो ईंट,पत्थर, कंक्रीट को भी भेद जाती है। क्या करती है यह बुरी नज़र? मकान में दरार कर देती है, या नींव को कमज़ोर कर देती है, या सीधे सीधे मकान को पटक देती है? आदमी पर बुरी नज़र की कारस्तानी की बात तो सुनी थी। डिठौना लगाना देखा, राई-नोन उतारना देखा। लेकिन मकानों पर बुरी नज़र का असर जानकर तो लगा कि नज़र किसी लेज़र किरण से कम नहीं।

कैसी होती है यह बुरी नज़र? क्या यह कोई स्थायी चीज़ होती है या यह ईर्ष्या या द्वेष से एकाएक उपजती है? किसी का आलीशान बंगला देखा, दिल में हूक उठी, और तीसरे नेत्र की तरह बुरी नज़र भक से चालू हो गयी। अगर यह कोई स्थायी लक्षण है तो यह कुछ खास लोगों में ही पायी जानी चाहिए। देश के कुछ आदिवासी क्षेत्रों में कुछ स्त्रियों को ‘चुड़ैल’ मानकर मार डाला गया या मारा पीटा गया। उन पर आरोप था कि उनकी बुरी नज़र या उनके तंत्र-मंत्र से गांव में दूसरों को नुकसान हुआ। दिलचस्प बात यह है कि यह आरोप किसी पुरुष पर नहीं लगा क्योंकि ‘चुड़ैल’ का नाम बताने वाले ओझा जी अक्सर पुरुष होते हैं।

मकानों पर लटकी झंडियों, हंडियों और जूतियों को देखकर लगता है कि सरकार को भी लोगों की संपत्ति की रक्षा के लिए प्रयास करना चाहिए। यह प्रयास निजी स्तर पर ही क्यों हो? इसलिए सबसे पहले तो नेत्र-विशेषज्ञों के द्वारा सबकी आँखों की जांच कराके बुरी नज़र वालों की एक फेहरिस्त बना ली जानी चाहिए। फिर इन बुरी नज़र वालों को कानूनन कोई पहचान-चिन्ह धारण करने को बाध्य किया जाना चाहिए। हो सके तो उन्हें घर से निकलने पर गांधारी की तरह आँखों पर पट्टी बांधने को कहा जाए, या कोई ऐसा चश्मा बनाया जाए जिसके काँच में बुरी नज़र के घातक तत्व को ‘न्यूट्रलाइज़’ करने की शक्ति हो, जैसे सिगरेट का फिल्टर निकोटिन को जज़्ब कर लेता है। जो भी हो, देश की संपत्ति को नुकसान से बचाने के लिए सरकार को कुछ न कुछ करना ज़रूरी है।

यह अनुसंधान का विषय है कि बुरी नज़र आँख से प्रक्षेपित कैसे होती है। विज्ञान के हिसाब से तो आँख सिर्फ एक कैमरा है, जो तस्वीर को ग्रहण तो करती है, लेकिन भेजती कुछ नहीं। लेकिन विज्ञान पर यकीन करके हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने से तो काम नहीं चलेगा। जब सयाने कहते हैं कि बुरी नज़र धनुष से छूटे बाण की तरह चलती है तो ज़रूर चलती होगी। वर्ना लोग आदमियों और घरों को बचाने का इतना पुख्ता इंतज़ाम क्यों करते? फिल्मी गीतों के हिसाब से तो आँखें विभिन्न प्रकार के घातक अस्त्रों से सुसज्जित रहती हैं जो दिल को घायल करने से लेकर जान तक ले सकते हैं। नमूने हैं —-‘ना मारो नजरिया के बान’, ‘मस्त नजर की कटार, दिल के उतर गयी पार’, और ‘अँखियों से गोली मारे, लड़की कमाल।’ नायिका की आँखों के बारे में रीतिकालीन कवि रसलीन की पंक्ति है —–‘जियत मरत झुकि झुकि परत, जेहि चितवत इक बार।’

वैसे सब लोग बुरी नज़र के उपचार के लिए जूते की तरफ नहीं भागते। बहुत से ट्रक वाले ट्रक के पीछे ‘बुरी नजर वाले तेरा मुँह काला’ लिख कर काम चला लेते हैं। फिल्मों में नायक नायिका के लिए ‘चश्मेबद्दूर’ गाकर तसल्ली कर लेता है। लेकिन फिर भी इस बला से बचने के लिए जूते का प्रयोग बहुतायत से होता है।

इतिहास के बारीक अध्ययन से पता चलता है कि जूता बद-नज़र और बददिमाग़ के इलाज का प्रभावी उपकरण रहा है। रियासतों के ज़माने में इसका प्रयोग काफी उदारता से रिआया को उसकी औकात का एहसास दिलाने के लिए किया जाता था। तब का जूता शुद्ध चमड़े का और मज़बूत होता था। उसके सामने दंड के अन्य सब उपकरण हेठे थे क्योंकि जूता चमड़ी और इज़्ज़त दोनों खींच लेता था। आजकल रबर सोल के हल्के-फुल्के जूतों का फैशन है जो सिर्फ इज़्ज़त हरने के ही काम आ सकते हैं। इसलिए जिन लोगों के लिए इज़्ज़त का कोई ख़ास महत्व नहीं है उनके लिए जूता भयकारी नहीं रहा। ग़रज़ यह कि आज के ज़माने में जूते की कीमत में भले ही वृद्धि हुई हो, लेकिन उसकी उपयोगिता में कमी हुई है। यह बात उन लोगों को ध्यान में रखना चाहिए जो बुरी नज़र को निर्मूल करने के लिए जूता लटकाते हैं।

दरअसल बुरी नज़र वालों का उपयोग भी देश के हित में हो सकता है, लेकिन जैसे हम अपने शिक्षित युवकों, इंजीनियरों, डाक्टरों का उपयोग करना नहीं जानते वैसे ही हम बुरी नज़र वालों का रचनात्मक उपयोग करना नहीं जानते। बुरी नज़र वालों को लड़ाई के मोर्चों पर भेजा जा सकता है जहाँ उनकी नज़र का इस्तेमाल दुश्मन के बंकरों को तोड़ने, पुल उड़ाने और टैंकों को बरबाद करने के लिए किया जा सकता है। यह नुस्खा कारगर होने के साथ साथ बेहद सस्ता भी है। कुछ बुरी नज़र वालों को नगर निगम के अतिक्रमण हटाने वाले दस्ते में भर्ती किया जा सकता है, जहाँ वे घंटों का काम मिनटों में करेंगे। नलकूपों की बोरिंग, मकानों के लिए नींव की खुदाई और पत्थरों को तोड़ने के कामों के लिए भी बुरी नज़र बहुत कारगर सिद्ध हो सकती है। हमारे पास ही काम की ऐसी बढ़िया तकनीक है, और हम विदेशों से मंहगे उपकरण खरीदने में लगे हैं।

विशेषज्ञों को इस काम में तुरन्त लगा देना चाहिए कि बुरी नज़र कितने स्तरों पर और कितने तरीकों से काम में लायी जा सकती है। यह भी देखा जाना चाहिए कि क्या बुरी नज़र में किसी और तत्व का संयोग करके कोई और ताकतवर चीज़ पैदा की जा सकती है। मेरे खयाल से बुरी नज़र में असीमित संभावनाएं हैं, बशर्ते कि हम इन संभावनाओं की खोज-बीन के प्रति जागरूक हों।अब तक हमने इस क्षेत्र की बहुत उपेक्षा की। परिणामतः दूसरे देश कहीं से कहीं पहुंच गये और हम पीछे रह गये। अब एक क्षण भी गंवाना आत्मघाती होगा।

 

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – #3 ☆ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रतीक हमारी पत्नी ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रतीक हमारी पत्नी”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – #3 ☆ 

 

☆ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रतीक हमारी पत्नी☆

 

उनकी सब सुनना पड़ती है अपनी सुना नही सकते, ये बात रेडियो और बीबी दोनो पर लागू होती है।रेडियो को तो बटन से बंद भी किया जा सकता है पर बीबी को तो बंद तक नही किया जा सकता।मेरी समझ में भारतीय पत्नी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सबसे बड़ा प्रतीक है।

क्रास ब्रीड का एक बुलडाग सड़क पर आ गया, उससे सड़क के  देशी कुत्तो ने पूछा, भाई आपके वहाँ बंगले में कोई कमी है जो आप यहाँ आ गये ? उसने कहा,  वहाँ का रहन सहन, वातावरण, खान पान, जीवन स्तर सब कुछ बढ़िया है, लेकिन बिना वजह भौकने की जैसी आजादी यहाँ है ऐसी वहाँ कहाँ ?  अभिव्यक्ति की आज़ादी जिंदाबाद।

अस्सी के दशक के पूर्वार्ध में,जब हम कुछ अभिव्यक्त करने लायक हुये, हाईस्कूल में थे।तब एक फिल्म आई थी “कसौटी” जिसका एक गाना बड़ा चल निकला था, गाना क्या था संवाद ही था।.. हम बोलेगा तो बोलोगे के बोलता है एक मेमसाब है, साथ में साब भी है मेमसाब सुन्दर-सुन्दर है, साब भी खूबसूरत है दोनों पास-पास है, बातें खास-खास है दुनिया चाहे कुछ भी बोले, बोले हम कुछ नहीं बोलेगा हम बोलेगा तो…हमरा एक पड़ोसी है, नाम जिसका जोशी है,वो पास हमरे आता है, और हमको ये समझाता है जब दो जवाँ दिल मिल जाएँगे, तब कुछ न कुछ तो होगा

जब दो बादल टकराएंगे, तब कुछ न कुछ तो होगा दो से चार हो सकते है, चार से आठ हो सकते हैं, आठ से साठ हो सकते हैं जो करता है पाता है, अरे अपने बाप का क्या जाता है?

जोशी पड़ोसी कुछ भी बोले,  हम तो कुछ नहीं बोलेगा, हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है।

अभिव्यक्ति की आजादी और उस पर रोक लगाने की कोशिशो पर यह बहुत सुंदर अभिव्यक्ति थी।यह गाना हिट ही हुआ था कि आ गया था १९७५ का जून और देश ने देखा आपातकाल, मुंह में पट्टी बांधे सारा देश समय पर हाँका जाने लगा।रचनाकारो, विशेष रूप से व्यंगकारो पर उनकी कलम पर जंजीरें कसी जाने लगीं। रेडियो बी बी सी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रतीक बन गया।मैं  इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ रहा था,उन दिनो हमने जंगल में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शाखा लगाई, स्थानीय समाचारो के साइक्लोस्टाइल्ड पत्रक बांटे।सूचना की ऐसी  प्रसारण विधा की साक्षी बनी थी हमारी पीढ़ी। “अमन बेच देंगे,कफ़न बेच देंगे, जमीं बेच देंगे, गगन बेच देंगे कलम के सिपाही अगर सो गये तो, वतन के मसीहा,वतन बेच देंगे” ये पंक्तियां खूब चलीं तब।खैर एक वह दौर था जब विशेष रूप से राष्ट्र वादियो पर, दक्षिण पंथी कलम पर रोक लगाने की कोशिशें थीं।

अब पलड़ा पलट सा गया है।आज  देश के खिलाफ बोलने वालो पर उंगली उठा दो तो उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन कहा जाने का फैशन चल निकला है।राजनैतिक दलो के  स्वार्थ तो समझ आते हैं पर विश्वविद्यालयो, और कालेजो में भी पाश्चात्य धुन के साथ मिलाकर राग अभिव्यक्ति गाया जाने लगा है  इस मिक्सिंग से जो सुर निकल रहे हैं उनसे देश के धुर्र विरोधियो, और पाकिस्तान को बैठे बिठाये मुफ्त में  मजा आ रहा है।दिग्भ्रमित युवा इसे समझ नही पा रहे हैं।

गांवो में बसे हमारे भारत पर दिल्ली के किसी टी वी चैनल  में हुई किसी छोटी बड़ी बहस से या बहकावे मे आकर  किसी कालेज के सौ दो सौ युवाओ की  नारेबाजी करने से कोई अंतर नही पड़ेगा।अभिव्यक्ति का अधिकार प्रकृति प्रदत्त है, उसका हनन करके किसी के मुंह में कोई पट्टी नही चिपकाना चाहता  पर अभिव्यक्ति के सही उपयोग के लिये युवाओ को दिशा दिखाना गलत नही है, और उसके लिये हमें बोलते रहना होगा फिर चाहे जोशी पड़ोसी कुछ बोले या नानी, सबको अनसुना करके  सही आवाज सुनानी ही होगी कोई सुनना चाहे या नही।शायद यही वर्तमान स्थितियो में  अभिव्यक्ति के सही मायने होंगे। हर गृहस्थ जानता है कि  पत्नी की बड़ बड़  लगने वाली अभिव्यक्ति परिवार के और घर के हित के लिये ही होती हैं।बीबी की मुखर अभिव्यक्ति से ही बच्चे सही दिशा में बढ़ते हैं और पति समय पर घर लौट आता है,  तो अभिव्यक्ति की प्रतीक पत्नी को नमन कीजीये और देस हित में जो भी हो उसे अभिव्यक्त करने में संकोच न कीजीये।कुछ तो लोग कहेंगे लोगो का काम है कहना, छोड़ो बेकार की बातो में कही बीत न जाये रैना ! टी वी पर तो प्रवक्ता कुछ न कुछ कहेंगे ही उनका काम ही है कहना।

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

 

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – #2 ☆ भारत में चीन ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “भारत में चीन”

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी व्यंग्य लेखन हेतु प्रतिष्ठित ‘कबीर सम्मान’ से अलंकृत 

हमें यह सूचित करते हुए अत्यंत हर्ष एवं गौरव का अनुभव हो रहा है कि ई-अभिव्यक्ति परिवार के आदरणीय श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी को ‘साहित्य सहोदर‘ के रजत जयंती वर्ष में व्यंग्य लेखन हेतु प्रतिष्ठित ‘कबीर सम्मान’ अलंकरण से अलंकृत किया गया। e-abhivyakti की ओर से आपको इस सम्मान के लिए हार्दिक बधाई एवं शुभकामनायें।  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – #2 ☆ 

 

☆ भारत में चीन☆

 

मेरा अनुमान है कि इन दिनो चीन के कारखानो में तरह तरह के सुंदर स्टिकर और बैनर बन बन रहे होंगे  जिन पर लिखा होगा “स्वदेशी माल खरीदें”, या फिर लिखा हो सकता है  “चीनी माल का बहिष्कार करें”. ये सारे बैनर हमारे ही व्यापारी चीन से थोक में बहुत सस्ते में खरीद कर हमारे बाजारो के जरिये हम देश भक्ति का राग अलापने वालो को जल्दी ही बेचेंगे. हमारे नेताओ और अधिकारियो की टेबलो पर चीन में बने भारतीय झंडे के साथ ही बाजू में एक सुंदर सी कलाकृति होगी जिस पर लिखा होगा “आई लव माई नेशन”,  उस कलाकृति के नीचे छोटे अक्षरो में लिखा होगा मेड इन चाइना. आजकल भारत सहित विश्व के किसी भी देश में जब चुनाव होते हैं तो  वहां की पार्टियो की जरूरत के अनुसार वहां का बाजार चीन में बनी चुनाव सामग्री से पट जाता है .दुनिया के किसी भी देश का कोई त्यौहार हो उसकी जरूरतो के मुताबिक सामग्री बना कर समय से पहले वहां के बाजारो में पहुंचा देने की कला में चीनी व्यापारी निपुण हैं. वर्ष के प्रायः दिनो को भावनात्मक रूप से किसी विशेषता से जोड़ कर उसके बाजारीकरण में भी चीन का बड़ा योगदान है.

चीन में वैश्विक बाजार की जरूरतो को समझने का अदभुत गुण है. वहां मशीनी श्रम का मूल्य नगण्य है .उद्योगो के लिये पर्याप्त बिजली है. उनकी सरकार आविष्कार के लिये अन्वेषण पर बेतहाशा खर्च कर रही है. वहां ब्रेन ड्रेन नही है. इसका कारण है वे चीनी भाषा में ही रिसर्च कर रहे हैं. वहां वैश्विक स्तर के अनुसंधान संस्थान हैं. उनके पास वैश्विक स्तर का ज्ञान प्राप्त कर लेने वाले अपने होनहार युवकों को देने के लिये उस स्तर के रोजगार भी हैं. इसके विपरीत भारत में देश से युवा वैज्ञानिको का विदेश पलायन एक बड़ी समस्या है. इजराइल जैसे छोटे देश में स्वयं के इन्नोवेशन हो रहे हैं किन्तु हमारे देश में हम बरसो से ब्रेन ड्रेन की समस्या से ही जूझ रहे हैं.  देश में आज  छोटे छोटे क्षेत्रो में मौलिक खोज को बढ़ावा  दिया जाना जरूरी है. वैश्विक स्तर की शिक्षा प्राप्त करके भी युवाओ को देश लौटाना बेहद जरूरी है. इसके लिये देश में ही उन्हें विश्वस्तरीय सुविधायें व रिसर्च का वातावरण दिया जाना आवश्यक है. और उससे भी पहले दुनिया की नामी युनिवर्सिटीज में कोर्स पूरा करने के लिये आर्थिक मदद भी जरूरी है. वर्तमान में ज्यादातर युवा बैंको से लोन लेकर विदेशो में उच्च शिक्षा हेतु जा रहे हैं, उस कर्ज को वापस करने के लिये मजबूरी में ही उन्हें उच्च वेतन पर विदेशी कंपनियो में ही नौकरी करनी पड़ती है, फिर वे वही रच बस जाते हैं. जरूरी है कि इस दिशा में चिंतन मनन, और  निर्णय तुरन्त लिए जावें, तभी हमारे देश से ब्रेन ड्रेन रुक सकता है .

निश्चित ही विकास हमारी मंजिल है. इसके लिये  लंबे समय से हमारा देश  “वसुधैव कुटुम्बकम” के सैद्धांतिक मार्ग पर, अहिंसा और शांति पर सवार धीरे धीरे चल रहा था.  अब नेतृत्व बदला है, सैद्धांतिक टारगेट भी शनैः शनैः बदल रहा है. अब  “अहम ब्रम्हास्मि” का उद्घोष सुनाई पड़ रहा है. देश के भीतर और दुनिया में भारत के इस चेंज आफ ट्रैक से खलबली है. आतंक के बमों के जबाब में अब अमन के फूल  नही दिये जा रहे. भारत के भीतर भी मजहबी किताबो की सही व्याख्या पढ़ाई जा रही है. बहुसंख्यक जो  बेचारा सा बनता जा रहा था और उससे वसूल टैक्स से जो वोट बैंक और तुष्टीकरण की राजनीति चल रही थी, उसमें बदलाव हो रहा है. ट्रांजीशन का दौर है .

इंटरनेट का ग्लोबल जमाना है. देशो की  वैश्विक संधियो के चलते  ग्लोबल बाजार  पर सरकार का नियंत्रण बचा नही है. ऐसे समय में जब हमारे घरो में विदेशी बहुयें आ रही हैं, संस्कृतियो का सम्मिलन हो रहा है. अपनी अस्मिता की रक्षा आवश्यक है. तो भले ही चीनी मोबाईल पर बातें करें किन्तु कहें यही कि आई लव माई इंडिया. क्योकि जब मैं अपने चारो ओर नजरे दौड़ाता हूं तो भले ही मुझे ढ़ेर सी मेड इन चाइना वस्तुयें दिखती हैं, पर जैसे ही मैं इससे थोड़ा सा शर्मसार होते हुये अपने दिल में झांकता हूं तो पाता हूं कि सारे इफ्स एण्ड बट्स के बाद ” फिर भी दिल है हिंदुस्तानी “. तो चिंता न कीजीये बिसारिये ना राम नाम, एक दिन हम भारत में ही चीन बना लेंगें.  हम विश्व गुरू जो ठहरे. और जब वह समय आयेगा  तब मेड इन इंडिया की सारी चीजें दुनियां के हर देश में नजर आयेंगी चीन में भी, जमाना ग्लोबल जो है. तब तक चीनी मिट्टी से बने, मेड इन चाइना गणेश भगवान की मूर्ति के सम्मुख बिजली की चीनी झालर जलाकर नत मस्तक मूषक की तरह प्रार्थना कीजीये कि हे प्रभु ! सरकार को, अल्पसंख्यको को, बहुसंख्यकों को, गोरक्षको को, आतंकवादियो को, काश्मीरीयो को,  पाकिस्तानियो को, चीनियो को सबको सद्बुद्धि दो.

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

 

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – #1 ☆ बाबा ब्लैक शीप ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के हम हृदय से आभारी हैं,  जिन्होने हमारे आग्रह पर साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य” शीर्षक से लिखना स्वीकार किया। आप वर्तमान में अतिरिक्त मुख्य  इंजीनियर के पद पर म.प्र.राज्य विद्युत मंडल, जबलपुर में कार्यरत हैं। संभवतः आपको साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखन की कला शिक्षा के क्षेत्र में ख्यातिनाम माता-पिता से संस्कार में मिली है। आपने साहित्य की लगभग सभी विधाओं में लेखन कार्य किया है। आप समय के साथ स्वयं को  डिजिटल मीडिया में ढाल कर एक प्रसिद्ध ब्लॉगर की भूमिका भी निभा रहे हैं। आप काई साहित्यिक सम्मनों से पुरुस्कृत / अलंकृत हैं । श्री विवेक रंजन जी की साहित्यिक यात्रा की विस्तृत जानकारी के लिए  >> श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  << पर क्लिक करने का कष्ट करें। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “बाबा ब्लैक शीप”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – #1 ☆ 

 

☆ बाबा ब्लैक शीप ☆

 

कष्टो दुखो से घिरे  दुनिया वालो को बाबाओ की बड़ी जरूरत है. किसी की संतान नहीं है, किसी की संतान निकम्मी है, किसी को रोजगार की तलाश है, किसी को पत्नी पर भरोसा नही है, किसी को वह सब नही मिलता जिसके लायक वह है, कोई असाध्य रोग से पीड़ित है तो किसी की असाधारण महत्वाकांक्षा वह साधारण तरीको से पूरी कर लेना चाहता है, वगैरह वगैरह हर तरह की समस्याओ का एक ही निदान होता है ” बाबा”.  इसलिये  हमें एक चेहरे की तलाश है, जो किंचित कालिदास की तरह का गुणवान हो, कुछ वाचाल हो, टेक्टफुल हो, थोड़ा बहुत आयुर्वेद और ज्योतिष जानता हो तो बात ही क्या,  हम उसे बाबा के रूप में महिमा मण्डित कर सकते हैं, कोई सुयोग्य पात्र मिले तो जरूर बताईये.

यूँ बचपन में हम भी बाबा हुआ करते थे ! हर वह शख्स जो हमारा नाम नहीं जानता था हमें प्यार से बाबा कह कर पुकारता था. इस बाबा गिरी में हमें लाड़, प्यार और कभी जभी चाकलेट वगैरह मिल जाया करती थी. यह “बाबा” शब्द से हमारा पहला परिचय था. अच्छा ही था. अपनी इसी उमर में हमने “बाबा ब्लैक शीप” वाली राइम भी सीखी थी.  जब कुछ बड़े हुये तो बालभारती में सुदर्शन की कहानी “हार की जीत” पढ़ी.  बाबा भारती और डाकू खड़गसिंग के बीच हुये संवाद मन में घर कर गये. “बाबा” का यह परिचय संवेदनशील था, अच्छा ही था. कुछ और बड़े हुये तो लोगों को राह चलते अपरिचित बुजुर्ग को भी “बाबा” का सम्बोधन करते सुना. इस वाले बाबा में किंचित असहाय होने और उनके प्रति दया वाला भाव दिखा. कुछ दूसरे तरह के बाबाओ में कोई हरे कपड़ो में मयूर पंखो से लोभान के धुंयें में भूत, प्रेत, साये भगाता मिला तो कोई काले कपड़ो में शनिवार को तेल और काले तिल का दान मांगते मिला. कुछ वास्तविक बाबा आत्म उन्नति के लिये खुद को तपाते हुये भी मिले पर इन बाबाओ पर भी तरस खाने वाली स्थिति थी.

फिर बाबा बाजी वाले बाबाओ से भी रूबरू हुये. जिनके रूप में चकाचौंध थी. शिष्य मंडली थी. बड़े बड़े आश्रम थे. लकदक गाड़ियों का काफिला  था. भगवा वस्त्रो में चेले चेलियां थे. प्रवचन के पंडाल थे. पंडालो के बाहर बाबा जी के प्रवचनो की सीडी, किताबें, बाबा जी की प्रचारित देसी दवाईयां विक्रय करने के स्टाल थे. टी वी चैनलो पर इन बाबाओ के टाईम स्लाट थे. इन बाबाओ को दान देने के लिये बैंको के एकाउंट नम्बर थे. कोई बाबा हवा से सोने की चेन और घड़ी  निकाल कर भक्तो में बांटने के कारण चर्चित रहे तो कोई जमीन में हफ्ते दो हफ्ते की समाधि लेने के कारण, कोई योग गुरु होने के कारण तो कोई आयुर्वेदाचार्य होने के कारण सुर्खियो में रहते दिखे.  बड़े बड़े मंत्री संत्री, अधिकारी, व्यापारी इन बाबाओ के चक्कर लगाते मिले. ही बाबा और शी बाबा के अपने अपने छोटे बड़े ग्रुप आपकी ही तरह हमारा ध्यान भी खींचने में सफल रहे हैं.

बाबाओ के रहन सहन आचार विचार के गहन अध्ययन के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि किसी को बाबा बनाने के लिये  प्रारंभिक रूप से कुछ सकारात्मक अफवाह फैलानी होगी. लोग चमत्कार को नमस्कार करते आये हैं. अतः कुछ महिमा मण्डन, झूठा सच्चा गुणगान करके दो चार विदेशी भक्त या समाज के प्रभावशाली वर्ग से कुछ भक्त जुटाने पड़ेंगे. एक बार भक्त मण्डली जुटनी शुरु हुई तो फिर क्या है, कुछ के काम तो गुरु भाई होने के कारण ही आपस में निपट जायेंगे, जिनके काम न हो पा  रहे होंगे  बाबा जी के रिफरेंस से मोबाईल करके निपटवा देंगे.

हमारे दीक्षित बाबा जी को हम स्पष्ट रूप से समझा देंगे कि उन्हें सदैव शाश्वत सत्य ही बोलना है, कम से कम बोलना है.  गीता के कुछ श्लोक, और  रामचरित मानस की कुछ चौपाईयां परिस्थिति के अनुरूप बोलनी है. जब संकट का समय निकल जायेगा और व्यक्ति की समस्या का अच्छा या बुरा समाधान हो जावेगा तो  बोले गये वाक्यो के गूढ़ अर्थ लोग अपने आप निकाल लेंगे. बाबाओ के पास लोग इसीलिये जाते हैं क्योकि वे दोराहे पर खड़े होते हैं और स्वयं समझ नहीं पाते कि कहां जायें, वे नहीं जानते कि उनका ऊंट किस करवट बैठेगा, यह तो कोई बाबा जी भी नही जानते कि कौन सा ऊंट किस करवट बैठेगा, पर बाबा जी, ऊंट के बैठते तक भक्त को दिलासा और ढ़ाड़स बंधाने के काम आते हैं. यदि ऊंट मन माफिक बैठ गया तो बाबा जी की जय जय होती है, और यदि विपरीत दिशा में बैठ गया तो पूर्वजन्मो के कर्मो का परिणाम माना जाता है, जिसे बताना होता है कि  बाबा जी ने बड़े संकट को सहन करने योग्य बना दिया, इसलिये फिर भी बाबा जी की जय जय. बाबा कर्म में हर हाल में हार की जीत ही होती है भले ही भक्त को बाबा जी का ठुल्लू ही क्यो न मिले. बाबा जी पर भक्त सर्वस्व लुटाने को तैयार मिलते हैं भले ही बाबा ब्लैक शीप ही क्यो न हों.

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – ☆ उन्हें सिर्फ भीख मांगने का अधिकार है, वोट का नहीं ☆ – सुश्री समीक्षा तैलंग

सुश्री समीक्षा तैलंग 

 

(अबू धाबी से सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री समीक्षा तैलंग जी का e-abhivyakti में हार्दिक स्वागत है। आप हिन्दी एवं मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं में पारंगत हैं और इसके साथ ही व्यंग्य की सशक्त हस्ताक्षर हैं। सुश्री समीक्षा जी के साहित्य की समीक्षा सुधि पाठक ही कर सकते हैं। अतः यह जिम्मेवारी आप पर। प्रस्तुत है सुश्री समीक्षा जी का तीक्ष्ण व्यंग्य “उन्हें सिर्फ भीख मांगने का अधिकार है, वोट का नहीं”।)

 

☆ उन्हें सिर्फ भीख मांगने का अधिकार है, वोट का नहीं ☆

 

उस दिन राह से गुजरते हुए एक तरफ विशाल और सिद्ध कहा जाने वाला शिव मंदिर सरेराह आ ही गया। सरेराह दुकानें भी थीं, भिखारी भी, नेता भी, फूलवाले, प्रसाद बेचने वाले और हमारे जैसे आम लोग भी। चलते फिरते सब एक दूसरे से भिड़ रहे थे। मतलब, राह में कोई भी किसी से भिड़ सकता है, मिल सकता है और खरीद भी सकता है। खरीदफरोख्त का बाजार ऐसे ही थोड़े बुना है। बुनने के बाद भुनाना यही परिपाटी है इस बाजार की। भिड़ने की जुगलबंदी में मिलना कम होता जा रहा है। कोई किसी से भी भिड़ जाने को तैयार है। स्वार्थ या निस्वार्थ दोनों ही भावों में…। भाव गिरने गिराने में भी भिडंत तो होती ही है। भिडंत न हो तो भाव वहीं का वहीं ठहर जाता है। ठहरा हुआ भाव भी किसी काम का नहीं। उसे भी न पूछेगा कोई…। उसका भाव वही है जो पुरानी चप्पल का है। पहन तो सकते हैं पार्टी के लायक नहीं। मतलब भाव बढ़ने में भिड़ंत का अमूल्य योगदान है। अमूल्य होना हर किसी के बस की बात नहीं। जैसे सोने का भाव पीतल तो कतई नहीं ले सकता। सोने के गहनों में पीतल मिलाने के बाद भी गहने सोने के ही कहे जाते हैं।

वे अमूल्य नहीं थे। उनके जन्म का भी कोई मूल्य नहीं था। लोगों के हिसाब से वे धरती पर भार हैं। या भार बना दिये गये हैं। लेकिन धरती का गुरुत्वाकर्षण उतना ही लग रहा था। फिर वो भार हो या आभार। लगने वाले बल का वस्तु की दिशा और दशा से कोई फर्क नहीं पडता। वो बल भेदभाव नहीं करता। उसकी मंदिर के सामने कटोरा लेकर बैठा भिखारी मंदिर में अभिषेक करता उस नेता की भांति दिख रहा था। उसकी झोली पसरी हुई थी। मेरी आंखें हर उस भीख मांगने वाले को भिखारी ही समझती है। मंदिर के सामने एक लाईन में बैठे भिखारी भी दान करने वाले को देवता ही समझता है। उसके रोटी और कपड़े की व्यवस्था का जिम्मा उसी दानदाता पर है। सरकार पर नहीं। मंदिर की घंटियां बजाने वाला नेता खुद भिखारी होते हुए लाईन से बैठे भिखारियों को नजरंदाज करता है। क्योंकि वह दुआओं का नहीं बल्कि वोट का भूखा है। उसे पता है कि लाईन में बैठे भिखारी उसकी वोटर लिस्ट में नहीं। इसीलिए उसके लिए किसी तरह के वादे या दावे की भी जरूरत नहीं। उसके लिए मकान की व्यवस्था करना बेमानी है। समय और पैसा नष्ट करने वाली स्कीम है। इसीलिए वह उनके लिए कोई स्कीम तैयार नहीं करता। क्योंकि उसमें आवक नहीं है। मकान न होते हुए भी उन भिखारियों का वंश बढ़ता चलता है। बेहाल सी फटे कपड़ों में लिपटी वह स्त्री देह किसके वंश की वृद्धि कर रही है उसे पता भी नहीं। हर चलता फिरता राहगीर उस देह पर अधिकार समझता है। लेकिन बढ़े हुए वंश पर कोई दावा नहीं ठोकता। उन पागल, मंदबुद्धि देह पर बिन पैसों का व्यापार इसी तरह चलता रहता है। उनकी नजरों में सड़कों पर रतजगा करने वाले किसी शख्स को न्यौते की दरकार नहीं।

© समीक्षा  तैलंग ✍  

अबु धाबी (यू.ए.ई.)

 

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हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – ☆ एक्जिट पोल में खोल ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(प्रस्तुत है  श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  का एक सामयिक व्यंग्य।  एक्ज़िट पोल और इस व्यंग्य की समय सीमा आज तक ही है ।  इसलिए सामयिक हुआ न।  तो फिर पढ़िये और शेयर करिए। )

 

☆ एक्जिट पोल में खोल ☆

 

बेचारा गंगू बकरियां और भेड़ चराकर जंगल से लौट रहा था और ये चुनावी सर्वे का बहाना करके गनपत नाहक में गंगू को परेशान कर रहा है, जब गंगू ने वोट नहीं डाला तो इतने सारे सवाल करके उसे क्यों डराया जा रहा है? गंगू की ऊंगली पकड़ कर बार बार देखी जा रही है कि स्याही क्यों नहीं लगी? परेशान होकर गंगू कह देता है लिख लो जिसको तुम चाहो। गंगू को नहीं मालुम कि कौन खड़ा हुआ और कौन बैठ गया। गंगू से मिलकर सर्वे वाला भी खुश हुआ कि पहली बोहनी बढ़िया हुई है।

सर्वे वाला भैया आगे बढ़ा।  एक पार्टी के सज्जन मिले, गनपत भैया ने उनसे भी पूछ लिया। काए भाई किसको जिता रहे हो? सबने एक स्वर में कहा – वोई आ रहा है क्योंकि कोई आने लायक नहीं है। इस बार ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी, एक साथ हजारों की संख्या में एक ही जगह सर्वे का मसाला मिल गया।

तब तक फुल्की वाला वहीं से निकला, बोला -कौन जीत रहा है हम क्यों बताएं, हमने जिताने का ठेका लिया है क्या?  पिछली बार तुम जीएसटी का मतलब पूछे थे तब भी हमने यही कहा था कि आपको क्या मतलब   …..! गोलगप्पे खाना हो तो बताओ… नहीं तो हम ये चले।

अब गनपत को प्यास लगी तो एक घर में पानी मांगने पहुँचे तो मालकिन बोली –  फ्रिज वाला पानी, कि ओपन मटके वाला …….

खैर, उनसे पूछा तो ऊंगली दिखा के बोलीं – वोट डालने गए हते तो एक हट्टे-कट्टे आदमी ने ऊंगली पकड़ लई, हमें शर्म लगी तो ऊंगली छुड़ान लगे तो पूरी ऊंगली में स्याही रगड़ दई। ऐसी स्याही कि छूटबे को नाम नहीं ले रही है। सर्वे वाले गनपत ने झट पूछो – ये तो बताओ कि कौन जीत रहो है। हमने कही जो स्याही मिटा दे, वोईई जीत जैहै।

पानी पीकर आगे बढ़े तो पुलिस वाला खड़ा मिल गया, पूछा – “कयूं भाई, कौन जीत रहा है ……?”

वो भाई बोला – “किसको जिता दें आप ही बोल दो।” गनपत समझदार है कुछ नोट सिपाही की जेब में डाल कर जैसा चाहिए था बुलवा लिया। पुलिस वाले से बात करके गनपत दिक्कत में पड़ गया। पुलिस वाले ने डंडा पटक दिया बोला – “हेलमेट भी नहीं लगाए हो, गाड़ी के कागजात दिखाओ और चालान कटवाओ।”

कुछ लोग और मिल गए हाथ में ताजे फूल लिए थे, गनपत ने उनसे पूछा “ये ताजे फूल कहां से मिल गए ……उनमें से एक रंगदारी से बोला – “चुरा के लाए है बोलो क्या कर लोगे …….. सुनिए तो थोड़ा चुनाव के बारे में बता दीजिये ……?”

बोले – “तू कौन होता बे…. पूछने वाला। सबको मालूम है हमारा कमाल, बसूलने का हमारा हक है, सब की ऐसी तैसी कर के रहेगें।”

नेता जी नाराज नहीं होईये हम लोग आम आदमी से चुनाव की बात कर एक्जिट पोल बना रहे हैं।“

“सुन बे आम आदमी का नाम नहीं लेना।”

आगे बढ़े तो कालेज वाले लड़के  मिल गए, जब पूछा कि – “चुनाव …..मतलब ?”

कई लड़के हंसते हुए बोले – “फेंकू के चान्स ज्यादा हैं बाकि इस बार लफड़ा है।“

थक गए तो घर पहुंचे, पत्नी पानी लेकर आयी, तो पूछा – “काए  किसको जिता रही हो …..?” पत्नी बड़बड़ाती हुई बोली – “तुम तो पगलाई गए हो  …! पैसा वैसा कुछ कमाते नहीं और राजनीति की बात करते रहते हो। कोई जीते कोई हारे  तुम्हें का मतलब …………..”

फोन आ गया, “हां हलो ,हलो ……कौन बोल रहे हैं ? अरे भाई बताओ न कौन बोल रहे हैं “

आवाज आयी – “साले तुमको चुनाव का सर्वे करने भेजा था  और तुम घर में पत्नी के साथ ऐश कर रहे हो ………..”

“नहीं साब, प्यास लगी थी पानी पीने आया था, बहुत लोगों से बात हो गई है,”

“निकलो जल्दी … बहस लड़ा रहे हो, बहाना कर रहे हो ……….”

काम वाली बाई आ गई, उससे पूछा तो उसने पत्नी से शिकायत कर दी कि “साहब छेड़छाड़ कर रहे हैं …….”

घर से निकले तो पान की दुकान वाले गज्जू से चुनाव के रिजल्ट पर चर्चा छेड़ दी,  गज्जू गाली देने में तेज था.  मां-बहन से लेकर भोपाली गालियों की बौछार करने लगा, आजू बाजू वाले बोले   “बढ़ लेओ भाई, काहे दिमाग खराब कर रहे हो ………..”

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – ☆ जीडीपी और दद्दू ☆ – श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

(प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध वरिष्ठ  साहित्यकार  श्री रमेश सैनी जी  का   एक बेहतरीन व्यंग्य। श्री रमेश सैनी जी ने तो जीडीपी नाम के शस्त्र का व्यंग्यात्मक पोस्टमार्टम ही कर डाला। यह बिलकुल सही है कि जी डी पी एक ऐसा शस्त्र है  जिसकी परिभाषा/विवेचना सब अपने अपने तरीके से करते हैं। यह तय है कि श्री सैनी जी के पात्र दद्दू जी के जी डी पी  से तो अर्थशास्त्री भी हैरान-परेशान  हो जाएंगे ।)

 

☆ जीडीपी और दद्दू ☆

चुनाव के दिन चल रहे हैं और इसमें सभी दल के लोग जीतने के लिए अपने अपने हथियार भांज रहे हैं. उसमें एक हथियार है, जीडीपी. अब यह जीडीपी क्या होता है. हमारे नेताओं को इससे कोई मतलब नहीं. जीडीपी को समझना उनके बस की बात भी नहीं है. उन्हें तो बस उसका नाम लेना है. हमने कई नेताओं से बात करी. उन्हें जीडीपी का फुल फॉर्म नहीं मालूम. पर बात करते हैं जीडीपी की. वैसे हमारे नेताओं का एक तकिया कलाम है कि जनता बहुत समझदार है. इस जुमले से नेता लोग अपनी कमजोरियों को बहुत ही चतुराई से बचा ले जाते हैं. वे जीडीपी का मतलब भी नहीं समझते हैं. हमारी जनता में से हमारे दद्दू हैं. उनको भी जीडीपी का फुल फॉर्म नहीं मालूम है. किंतु जीडीपी के बढ़ाने में उनका अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष योगदान है, वे अनेक प्रकार से इस प्रयास में लगे हुए हैं.

हमारे दद्दू कहते हैं कि- ठजीडीपी हमारी जीवन शैली है. जीडीपी याने जीवन ढलुआ प्रोग्राम”. इस शैली से अच्छे-अच्छे अर्थशास्त्री जीडीपी में गच्चा खा गए.

दद्दू कहते हैं जब खूबसूरत स्वप्न सुंदरी कहती है- इस लावण्य साबुन से नहाइए. सभी कहते हैं कि जवानी के दिनो में सुंदरी की बात नहीं टालना चाहिए. दद्दू ने भी नहीं टाली और उन्होंने वह लावण्य साबुन खरीदा और नहाने लगे. उन्हें उस साबुन से बहुत प्रेम था. वे सपने में भी साबुन के बहाने स्वप्न सुंदरी को देखते. हमारे दद्दू की नजर साबुन के रैपर बनी स्वप्न सुंदरी की फोटो और उस बट्टी पर बराबर बनी रहती. दादी ने बताया कि साबुन की बट्टी तो उनकी सौतन हो गयीं थी. वे स्वप्न सुंदरी को खुश करने के लिए साबुन की बट्टी खरीदते हैं. उसे किसी को हाथ नहीं लगाने देते. उसे रोज उपयोग करते हैं. जब आधी से कम हो जाती है. तो उसे शौचालय के बाहर में रख देते हैं. जब उससे भी आधी हो जाती और हाथ में पकड़ में नहीं आती है. तब उसे नयी बट्टी में चिपका देते और इस तरह उनका काम चलता. वे उस साबुन से इतना प्यार करते कि नहाते वक्त उस बट्टी को ले जाते, उसे प्यार भरी नजरों से निहारते और बिना साबुन लगाये नहा लेते. इस तरह वे एक महीने  में चार बट्टी की जगह एक बट्टी से काम चला लेते और तीन साबुन बचा कर जीडीपी की ग्रोथ में देश की सेवा करते.

देश की जीडीपी बढ़ाने में हमारे दद्दू का अनेक प्रकार से अतुलनीय योगदान रहा है. वे नया पैजामा सिलवाते. उसे शादी विवाह में पहन कर अपनी शान बखारते, बारात में सबसे आगे चलते, जिससे सबकी नज़र उनके पैजामे पर पड़ सके. जब थोड़ा पुराना हो जाता तो उसे बाजार हाट पहन कर जाते. जब पैजामा नीचे से फटने लगता तो उसे फेंकते नहीं, वरन उसे घुटने के थोड़ा ऊपर से कटवा कर पैताने के दो थैले सिलवा लेते, और ऊपर के हिस्सा से चड्डी का काम लेते. उन्होंने जीवन भर नया थैला नहीं खरीदा और न ही उन्होंने अपने लिए नयी चड्डी भी नहीं खरीदी. इस तरह वे साल में चार थैले और चड्डी बिना खरीदे काम चला लेते. जब थैले फट जाते तो उसे काट छांट कर रुमाल बना लेते और चड्डी के फटने से उसका फर्श पोछने वाला पोछा बन जाता इस तरह वे पैजामे की जान निकलने तक उपयोग करते हैं. अगर कोई घर का सदस्य उनके लिए चड्डी ले आता तो उसे धन्यवाद देने के बजाय इतनी डाँट पिलाते कि उसका दिन का खाना खराब हो जाता था. वे नये थैले, चड्डी और रुमाल खरीदना, पैसे की बरबादी समझते.

दद्दू बचपन में दाँत साफ करने के लिए दाँतौन का उपयोग करते, जो आसानी से मिल जाती थी और दातौन न मिलनेपर राख या कोयले से काम चला लेते. फिर जमाना आया. टूथपेस्ट और ब्रश का. जब पेस्ट खतम होने लगता तो टयूब को हथौड़ी से पीट पीट कर कचूमर निकाल कर पेस्ट बाहर निकल लेते. इतने से वे चुप नहीं बैठते, जब पूरा टयूब पिचक जाता या यों कहें उसकी जान ही निकल जाती है तो फिर वे टयूब को कैंची से काट कर, दो फांक कर देते और ब्रश से पूरी सफाई कर एक दिन का काम चला लेते. इसी तरह ब्रश के बाल घिस जाते तो उससे साईकिल साफ करने का काम लेते. जब ब्रश के बाल पूरी तरह खराब हो जाते तब ब्रश के बालों वाला सिरा काट कर शेष डंडी से पैजामे और चड्डी का नाड़ा डालने का काम ले लेते.

इस सबसे उन्हें बहुत संतोष मिलता. इस तरह से बचत कर देश की आर्थिक स्थिति में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते. उनका मानना था कि पैसा कमाना सरल है, पर पैसा खर्च करना कठिन है. इसे संभाल कर करना चाहिए.

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रमेश सैनी

मोबा. 8319856044  9825866402

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ सवाल एक – जवाब अनेक – 10 ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

 

 

 

“सवाल एक – जवाब अनेक (10)”

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के एक प्रश्न का  विभिन्न  लेखकों के द्वारा  दिये गए विभिन्न उत्तरआपके ज्ञान चक्षु  तो अवश्य ही खोल  देंगे।  तो प्रस्तुत है यह प्रश्नोत्तरों की श्रंखला। 

वर्तमान समय में ठकाठक दौड़ता समाज घोड़े की रफ्तार से किस दिशा में जा रहा है, सामूहिक द्वेष और  स्पर्द्धा को उभारकर राजनीति, समाज में बड़ी उथल पुथल मचा रही है। ऐसी अनेक बातों को लेकर हम सबके मन में चिंताएं चला करतीं हैं। ये चिंताएं हमारे भीतर जमा होती रहतीं हैं। संचित होते होते ये चिंताएं क्लेश उपजाती हैं, हर कोई इन चिंताओं के बोझ से त्रास पाता है ऐसे समय लेखक त्रास से मुक्ति की युक्ति बता सकता है। एक सवाल के मार्फत देश भर के यशस्वी लेखकों की राय पढें इस श्रृंखला में………

तो फिर देर किस बात की जानिए वह एकमात्र प्रश्न  और उसके अनेक उत्तर।  प्रस्तुत है  इंदौर से श्री सुधीर कुमार चौधरी,  जबलपुर से श्री रमेश सैनी, बैंगलोर से श्री अरुण अर्णव खरे, जबलपुर से डॉ कुन्दन सिंह परिहार, मुंबई से श्री शशांक दुबे,बावनकर एवं देवास से श्री प्रदीप उपाध्याय की ओर से  –  

सवाल :  आज के संदर्भ में, क्या लेखक  समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?

इंदौर से श्री सुधीर कुमार चौधरी जी का जबाब ___

वस्तुतः साहित्य किसी भी समाज का सेफ्टी वाल्व होता है ।साहित्य समाज के आक्रोश ,कुंठा और तनाव को अभिव्यक्त करता है ।साहित्य समाज के संस्कारों को सहेजता है। साहित्य सामाजिक मूल्यों ,आदर्शों और सिद्धांतों का शिल्पी और रक्षक दोनों ही  होता है। साहित्य के धरातल पर सामाजिक आस्था और विश्वास अंकुरित होते हैं। साहित्य के दर्पण में समाज का चेहरा प्रतिबिंबित होता है।

लेखक अपनी कलम के स्टैथोस्कोप से समाज की धड़कनों का लेखा-जोखा रखता है ।इसमें तनिक भी अनियमितता  अनुभव करने पर वह साहित्य की दवाओं से  इसका उपचार प्रारंभ कर देता है। समाज की नब्ज पर लेखक का सदैव हाथ होता है ।वह समाज की दिनचर्या और आचार व्यवहार पर कड़ा नियंत्रण रखता है। समाज की दिशा निर्धारित करता है ।लेखक की कलम समाज की लगाम को खींच कर रखती है।

साहित्य के पन्नों में समाज स्पंदित होता है ।लेखक समाज की आवाज को मुखरित करता है। वस्तुतः साहित्य समाज का ऊर्जा कोष होता है। लेखक इस ऊर्जा कोष का सजग र्चौकीदार होता है ।लेखक समाज की सीमा पर तैनात वह सिपाही होता है जो उसकी सांस्कृतिक ,चारित्रिक और भाषाई संपदा की रक्षा करता है ।संस्कृति और संस्कारों पर होने वाले हमले की रक्षा कलम की तलवार ही करती है।साथ ही कलम समाज की उच्छृंखलता और विवेक हीनता पर नियंत्रण भी रखती है।समाज को दिग्भ्रमित और दिशाहीन होने से बचाती है ।कलम समाज का परिष्कार और निर्माण के साथ साथ इस पर नियंत्रण भी रखती है।

समाज और साहित्य की सह जीविता से मानवता उन्नत और समृद्ध होती हैं ।लेखक की कलम छैनी  और नश्तर दोनों की ही भूमिका का निर्वाह करती है। एक और कलम समाज को गढ़ती  है वहीं दूसरी और सामाजिक विसंगतियों और विरोधाभासों के  उन्मूलन के लिए वह नश्तर बन जाती है।कलम के नियंत्रण से विहीन समाज पतनशील हो जाता है ।कलम की ऊर्जा से समाज सत्य सदैव गतिशील रहता है ।लेखक की कलम  लगाम बनकर समाज को नियंत्रित करती हैं।

– श्री सुधीर चौधरी, इंदौर 

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जबलपुर से श्री रमेश सैनी जी का जबाब ____

पिछले 50- 60 वर्षों में समाज में काफी परिवर्तन हुआ है. पहले समाज के प्रेम, भाईचारा, मोहल्ले बंदी एक दूसरे से सहयोग की भावना, छोटे-बड़ों में परस्पर सम्मान आदि महत्वपूर्ण तत्व थे,पर अब  समाज में बहुत बड़ा परिवर्तन आया है आज व्यक्ति का सम्मान उसकी गुणों की अपेक्षा उसकी आर्थिक संपन्नता और सत्ता शक्ति से नापा जाता है. समाज में व्याप्त राजनीति ने भी बहुत बड़ा परिवर्तन किया है. भारतीय समाज की संस्कृति, संस्कार को भी राजनीति ने बहुत प्रभावित किया है. पहले लोग जीवन मूल्य और समाज के अनुशासन को मानते थे. जब लोग इन मूल्यों और अनुशासन के विपरीत आचरण करते थे, और लेखक इन पर संकेत करता था तो उसका प्रभाव होता था. उस समय को कुछ हद तक थोड़ा नियंत्रण/लगाम लेखक कह सकते हैं. यह इसलिए कह सकते हैं कि समाज में लेखक का सम्मान होता था. पर आज आधुनिक तकनीक, बाजारवाद और वैश्वीकरण ने समाज के मूल स्वरूप में सेंध मार दी है.समाज धीरे धीरे बिखरने लगा है, लोगों के आचरण में अनेक मुखौटों ने जगह ले ली है. लेखक भी इससे अछूता नहीं है. लेखक भी समयानुसार अपना आचरण तय करता है. अतः उसका प्रभाव भी कम पड़ा है. अब उसके हाथ से लगाम खिसकने लगी है. इसी का असर है कि सत्ता स्तर पर भी राज्यसभा में मानद सदस्यों का मनोनयन भी उसके गुणों/विशेषज्ञता की वजह से नहीं, व्यक्ति सत्ता के कितने नजदीक है, इससे किया जाता है. यह समाज के बदलते मूल्यों का प्रतिफलन है. आज लेखक के नियंत्रण में कुछ नहीं है. हाँ  यह जरूर है कि पुराने इतिहास को देखकर भ्रम पाले है कि वह घोड़े की लगाम/आंख है.

– श्री रमेश सैनी, जबलपुर  

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बैंगलोर से श्री अरुण अर्णव खरे जी का जबाब ___

बड़ा ट्रिकी प्रश्न है । घोड़ा मनुष्य के सम्पर्क में आने वाला सबसे पहला जानवर है अतएव मनुष्यों से दोस्ती का उसका बहुत पुराना इतिहास है । भारतीय इतिहास में सत, त्रेता और द्वापर युगों में घोड़ों के प्रशिक्षण और उनकी युद्ध में उपयोगिता को लेकर अनेक वृतांत हैं । सूरज के रथ में सात घोड़े हैं । महाभारत में पाण्डवों ने अपने अज्ञातवास का समय विराट नगर में अश्वों की सेवा में ही व्यतीत किया था । नकुल को अश्व विद्या में निपुणता हासिल थी । महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक को इतिहास में नायकों जैसा स्थान हासिल है । रानी लक्ष्मीबाई को भी उनके अश्व ने तब तक अंग्रेज़ों के हाथों में नहीं पड़ने दिया था जब तक उसमें जान थी । मतलब यह घोड़ा आदि काल से मनुष्यों का सबसे अच्छा मित्र और वफ़ादार रहा है ।

यहाँ सवाल घोड़े की आँख को लेकर है । सवाल  आख़िर घोड़े की आँख ही क्यों ? घोड़े की आँख में ऐसा क्या है जो इस सवाल की ज़रूरत पड़ी ।  शायद ज़मीन पर रहने वाले सभी जानवरों में घोड़े की आँख सबसे बड़ी होती है । घोड़ा दिन और रात के समय में भी आँखें खुली रखता है । घोड़े की आँख सुदूर की चीज़ों को भी सटीकता पूर्वक देख सकती है ।

प्रश्न के उत्तर की तलाश में घोड़े की ऑँख को लेकर इतने विस्तार में जाना ज़रूरी लगा । लेखक का समाज के प्रति दायित्व भी घोड़े की आँख के समान अधिक है । समाज के सभी पक्षों पर सतत नज़र रखना अच्छे सृजन के लिए ज़रूरी है तभी कोई भी लेखक समाज के उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है ।

आज के परिवेश में जब समाज में विघटन बढ़ रहा है, इतिहास की ग़लत व्याख्या हो रही है, मनगढ़न्त और आधारहीन तथ्यों को आधार बनाकर मनचाहा खेल खेला जा रहा है तब लेखक के लिए लगाम लगाने का काम करना भी आवश्यक प्रतीत हो रहा है । लेखक ही ग़लत तथ्यों को सही परिप्रेक्ष्य में समाज के सामने ला सकता है और भ्रम फैलाने वाले प्रयासों पर लगाम लगा सकता है ।

मेरे दृष्टिकोण से लेखक की भूमिका दोनों रूपों में ज़रूरी है .. घोड़े की ऑंख के रूप में जागरूकता फैलाने के लिए और लगाम के रूप लें ग़लत बातों को रोकने के लिए ।

– श्री अरुण अर्णव खरे, बैंगलोर 

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जबलपुर से डाॅ कुंदन सिंह परिहार जी का जबाब ___

लेखक समाज के घोड़े की आँख भी है और लगाम भी।दोनों का अपना अपना महत्व है।आँख का काम देखना है और लगाम का काम नियंत्रण करना। लेखक समाज की आँख है क्योंकि वह सामान्य व्यक्ति की तुलना में स्थितियों को अधिक सूक्ष्मता और स्पष्टता से देख-परख सकता है।लेकिन यह आँख तभी ठीक ठीक देख और दिखा सकती है जब इस आँख के पीछे सही दृष्टि, नीर-क्षीर विवेक और वैज्ञानिक सोच हो।पीलियाग्रस्त, पूर्वाग्रह से पीड़ित आँख, जिसे अंग्रेजी में ‘जांडिस्ड आई’ कहते हैं, न खुद चीज़ों को सही परिप्रेक्ष्य में देख सकती है, न समाज को सही दिखा सकती है।जो खुद सही मार्ग न देख सके, वह समाज को सही मार्ग कैसे दिखाएगा?लेकिन सिर्फ देखना ही काफी नहीं होता।कभी कभी आँख दिखाना और तरेरना भी ज़रूरी होता है, अन्यथा सीधी-सादी आँख की कोई परवाह नहीं करता।

लेखक समाज की लगाम या वल्गा तभी बन सकता है जब उसकी समाज में पैठ और समाज पर प्रभाव हो।इसके लिए लेखक को ‘स्व’ से निकलकर ‘पर’ तक आना पड़ता है।इसके लिए समाज से जुड़ना होता है और अपनी चिंता से ज़्यादा समाज की चिंता करनी होती है।इसके लिए लेखक को लेखक के अलावा ‘सोशल एक्टिविस्ट’ बनना पड़ता है।सिर्फ अपने खोल में दुबक कर कागद कारे करते रहने से काम नहीं चलता।

भूतकाल में अनेक लेखकों का समाज पर काफी प्रभाव रहा है।अकबर के नवरत्नों में ‘आईने अकबरी’के रचयिता अबुल फजल, महान गायक तानसेन और अपने दोहों के लिए  आजतक लोकप्रिय ‘रहीम’ थे।तुलसीदास आज भी  भारत के हर घर में उपस्थित हैं क्योंकि उन्होंने रामकथा लिखने के अतिरिक्त समाज के लिए एक आचरण-संहिता प्रस्तुत की।

देश में अनेक कवियों और लेखकों का पर्याप्त सम्मान रहा है तथा समाज और शासन ने उनकी बात सुनी है।इनमें सुभद्राकुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, दादा माखनलाल चतुर्वेदी, मैथिलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह ‘दिनकर’,नागार्जुन,केदारनाथ अग्रवाल जैसे कवि रहे हैं।हाल के वर्षों में जब तक परसाई जी स्वस्थ थे, उनका कद और सम्मान  देखते ही बनता था।अन्त तक नगर के छात्र अपनी समस्याओं पर उनकी राय लेने के लिए उन्हें घेरे रहते थे।जबलपुर के उन्नीस सौ साठ  के सांप्रदायिक दंगों के समय दंगों को शांत करने में परसाई जी और उनके मित्रों की भूमिका महत्वपूर्ण रही।

लेखक अपना कच्चा माल समाज से उठाता है, इसलिए उसे उसी परिमाण में समाज को लौटाना होगा।तभी समाज उसे अपने ऊपर लगाम डालने की अनुमति देगा।आज लेखक समाज से और समाज लेखक से विमुख है।सब तरफ ‘अहो रूपं,अहो ध्वनि’ का शोर है।लेखक ‘नार्सिसस कांप्लेक्स’ से ग्रस्त है, आत्मप्रचार और आत्मप्रशंसा में सारे वक्त मसरूफ है।अब हर लेखक के हाथ में आइना है,जिसके पार देखने की उसे फुरसत नहीं है।सारा वक्त अपनी नोंक-पलक संवारने में ही बीतता है।व्यवस्था की जांच-परख करने के बजाय लेखक सरकारी पुरस्कारों और सम्मानों के लोभ में ऐसा फंसा है कि व्यवस्था के सामने वह दयनीय और हीनता-बोध से ग्रस्त है।जिस लेखक को उसका पड़ोसी ही न जानता हो,वह समाज की लगाम के रूप में कितना प्रभावी हो सकता है यह समझा जा सकता है।

– डॉ कुन्दन सिंह परिहार, जबलपुर

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मुंबई से श्री शशांक दुबे जी का जबाब ___

आज  यदि लेखक यह मानकर चल रहा है कि वह समाज के घोड़े की लगाम है, तो इसका मतलब यह है कि वह खुशफहमी के संसार में जी रहा है. साहित्य समाज में व्यापक स्तर पर हलचल पैदा करने में असमर्थ है. जब इलेक्ट्रोनिक चैनलों और सोशल मीडिया का दायरा इतना बढ़ा नहीं था और जब अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम लेखनी हुआ करती थी, तब लेखक में समाज को प्रभावित करने की, उनकी सोच में परिवर्तन लाने की थोड़ी बहुत  क्षमता होती थी. यह क्षमता भी सीमित थी, क्योंकि तब का समाज भी हर किसी लेखक की कही बात का अनुसरण नहीं करता था. अलबत्ता पढ़ा लिखा मध्यवर्ग आज़ादी से पहले गणेश शंकर विद्यार्थी और आजादी के बाद सत्तर के दशक में राजेन्द्र माथुर और अस्सी के दशक में प्रभाष जोशी जैसे साहसिक पत्रकारों की लेखनी से प्रभावित होकर अपने विचार गढ़ता रहा. तब कलम की ताकत थी और लेखक भी इतने ईमानदार थे. आज जो लेखन किया जा रहा है, वह समाज सुधार या जन उद्धार के लिए नहीं किया जा रहा. आज का लेखन महज यश की प्रार्थना के लिए है.  हालांकि इसमें भी अवलोकन के अलावा चिंताएँ हैं, मनोरंजन है, पीड़ाएँ हैं, आक्रोश हैं, खुशियां हैं, लेकिन यह सभी महज अपनी बात को रेखांकित करने के लिए, अपनी बात को प्रभावी बनाने के लिए, अपनी मामूली सी बात में वजन पैदा करने के लिए.  लोक कल्याण की कम है. कहीं है भी तो वह लोक तक पहुँचने और उनका मानस बदलने में असमर्थ है. कहना न होगा, लेखक घोड़े की आँख ही है, लगाम नहीं.

– श्री शशांक दुबे, मुंबई 

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देवास से श्री प्रदीप उपाध्याय जी का जबाब ___

आज के संदर्भ में लेखक समाज के घोड़े की खुली आँख है।लेखक का काम किसी बात को नियंत्रित करना नहीं है,वह किसी बात को होने से रोक भी नहीं सकता, वह राह दिखा सकता है।इस परिप्रेक्ष्य में हम कह सकते हैं कि लेखक समाज के घोड़े की लगाम नहीं है।हाँ,वह अपनी चौकस दृष्टि से समस्त विसंगतिपूर्ण स्थिति को उजागर कर सकता है।अपनी खुली आँख से ही वह अच्छे-बुरे की पहचान कर सकता है।अतः वह समाज के घोड़े की आँख के समान ही है।यहाँ यह भी जरूरी है कि ये आँखें ऐसी न हो जिसे चमड़े का पट्टा चढ़ाकर तीस डिग्री तक ही देखने को मजबूर किया गया हो।लेखक को अपनी आँख का दायरा घोड़े की आँख के समान एक सौ अस्सी डिग्री तक विस्तारित रखना चाहिए, साथ ही उसमें इतनी दूरदृष्टि होना चाहिए कि जो उसके सामने घटित न भी हो रहा हो, वह भी पूर्वभास और पूर्वानुमान के साथ उसकी दृष्टि में तीन सौ साठ डिग्री तक समाहित हो जाए।
लेखक की इसी दृष्टि के कारण हमेशा शक्ति सम्पन्न वर्ग, सत्ता पक्ष और शोषक समाज को कष्ट पहुँचता आया है और अभिव्यक्ति की आजादी पर येनकेन प्रकारेण रोक लगाने के प्रयास होते आए हैं।बुद्धिजीवी वर्ग पर दबाव, डर,लोभ,प्रलोभन द्वारा ऐसा वातावरण उत्पन्न किया जाता रहा है कि वह भी घोड़े की दोनों आँखों पर चढ़े दो चमड़े के पट्टे जिन्हें घोड़ा ऐनक, अंग्रेजी में Blinders या Blinkers कहते हैं, के समान चष्मे लगा लेता है जिससे कि वह अपने  आसपास और पीछे कुछ भी नहीं देख पाए।अपने चालक की इच्छानुरूप सिर्फ एक सीधी राह ही चलता चला जाए।
लेखक को बिना किसी दबाव के अपनी क्षमताओं को पहचानना चाहिए और बिना किसी लोभ-लालच,प्रलोभन, दबाव या डर के घोड़ा ऐनक को छोड़कर समाज के घोड़े की आँख के समान अपनी दृष्टि और दृष्टिकोण रखना चाहिए।तभी वह समाज के हित में अपना सच्चा योगदान दे सकता है।लेखक घोड़े की लगाम तो हो ही नहीं सकता है क्योंकि लगाम हमेशा दूसरों के हाथ ही होती है।लेखक गलत-सही की पहचान करा सकता है, सही दिशा ज्ञान करा सकता है,उचित राह दिखा सकता है।अतः मेरे मत में लेखक समाज के घोड़े की आँखें ही हैं।

– श्री प्रदीप उपाध्याय, देवास 

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हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – ☆ बच्चूभाई की शौर्यगाथा ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(प्रस्तुत है  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी का एक बेहतरीन व्यंग्य।  डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी के Sense of Humour को दाद देनी पड़ेगी। व्यंग्य में हास्य का पुट  देकर अपनी बात पाठक  तक पहुंचाने  की कला में  परिहार जी का कोई सानी  नहीं ।  यह  उनकी अपनी मौलिक शैली  है और इसके लिए उनकी लेखनी को नमन।)

☆ बच्चूभाई की शौर्यगाथा  ☆

बच्चूभाई की एक ही हसरत है —-एक शेर मारने और उस पर पाँव रखकर फोटो खिंचाने की। बच्चूभाई के दादा और पिता मशहूर शिकारी रहे। उनके पास कई पुराने, पीले पड़े फोटो हैं जिनमें उनके दादा या पिता मृत शेर पर पाँव धरे खड़े हैं। हाथ में बंदूक और चेहरे पर गर्व है। बच्चूभाई के पास अब भी उनकी दो बंदूकें और कुछ कारतूस हैं। वे कभी कभी उनकी सफाई करके तेल वेल लगा देते हैं और आह भरकर उन्हें कोने में रख देते हैं।

वीरों के वंशज बच्चूभाई एक दफ्तर में क्लर्क हैं। दिन भर कलम से फाइल पर निशाना लगाते रहते हैं। शिकार पर प्रतिबंध लग गया है। अब शेर मारें तो कैसे, और फोटो कैसे खिंचे?

मायूसी से कहते हैं, ‘लगता है यह हसरत मेरे साथ चिता पर चली जायेगी। ऊपर जाऊँगा तो पिताजी और दादाजी को क्या मुँह दिखाऊँगा?’

मैंने कहा, ‘मुँह दिखाने की छोड़ो। मुँह तो तुम्हारा यहीं रह जाएगा। कहते हैं ऊपर तो सिर्फ आत्मा जाती है। आत्मा के मुँह कहाँ होता है?’

बच्चूभाई कहते हैं, ‘कुछ भी हो। शेर नहीं मारूँगा तो मुझे मुक्ति नहीं मिलेगी। मेरी आत्मा यहीं भटकती रहेगी।’

एक दिन बच्चूभाई मिले तो बहुत खुश थे। बोले, ‘जुगाड़ जम रहा है। एक वनरक्षक को पटा लिया है। वह इंतजाम कर देगा। कह रहा था सिर्फ खाल लेकर आने देगा। बाकी वहीं छोड़ कर आना होगा।’

मैंने कहा, ‘तुमने बंदूक चलायी तो है नहीं। शोभा के लिए रखे रहे। अब कैसे चलाओगे?’

बच्चूभाई कहते हैं, ‘तुमको बताया था न, कि स्कूल में एन.सी.सी. लिये था। तब तीन चार बार चलायी थी।’

मैंने कहा, ‘तुम्हें शिकार का अनुभव नहीं है। कहीं शेर की जगह कोई आदमी मत मार देना। और जहाँ तक मेरा सवाल है, तुम्हारे घर में बंदूक तो है, मेरे घर में वह भी नहीं। कैसे शिकार करोगे?’

बच्चूभाई मेरे कंधे पर हाथ रखकर बोले, ‘उसका भी इंतजाम कर लिया है। नगली गाँव के पुराने शिकारी रुस्तम लाल मेरे पिताजी के बड़े अच्छे दोस्त थे।उन्हें साथ ले जाएंगे।’

मैंने कहा, ‘तुम्हारे पिताजी के समय के हैं तो उनके हाथ-पाँव काँपते होंगे। वे तुम्हारे किस काम आएंगे?’

बच्चू बोले, ‘अमाँ यार, उनसे तो सिर्फ गाइडेंस चाहिए। बाकी हम खुद कर लेंगे।’

बच्चू बहुत उत्साह में थे।शिकार का दिन तय हो गया। बताया कि वनरक्षक मचान बनवा देगा। एक बकरे का इंतज़ाम भी हो गया, जिसका मिमियाना शेर को ठिये तक बुलायेगा। एक जीप का प्रबंध भी कर लिया गया।

बच्चू ने मुझसे कहा, ‘कैमरा ले चलने की जिम्मेदारी तुम्हारी है। तीन चार फोटो खींचना, खास तौर से शेर पर पाँव रखकर खड़े होने वाली।’

एक दोपहर रुस्तम लाल आ गये। बुढ़ा गये थे, लेकिन धज पूरी शिकारी की थी —-जंगल बूट, जुराबें, नेकर, जरकिन और आगे की तरफ झुकायी हुई चमड़े की गोल टोपी। हाथ में बंदूक और छाती पर कारतूसों की माला।

कहने लगे, ‘इस सरकार ने शेर के शिकार पर रोक लगाकर ठीक नहीं किया। अब हम बहादुर लोग अपनी वीरता कहाँ दिखाएं? चिड़ियों, खरगोशों को मारकर संतोष करना पड़ता है, लेकिन उसमें वह थ्रिल कहाँ जो शेर के शिकार में है।’

मैंने कहा, ‘आप फौज में भर्ती क्यों नहीं हो गये? वहाँ वीरता दिखाने के काफी मौके मिल जाते।’

वे बोले, ‘हमारी काफी ज़मीन ज़ायदाद है। ज़मींदारी छोड़कर फौज में जाते तो यहाँ का काम कौन देखता?’

मैंने कहा, ‘तो फिर आप डाकुओं, आतंकवादियों से निपटने में सरकार की मदद कीजिए।’

वे नाराज़ हो गये, बोले, ‘आप तो मज़ाक करते हैं। मैं शेर के शिकार की बात करता हूँ और आप डाकुओं से निपटने की। मैं तो शिकारी हूँ। मुझे डाकुओं को मारने से क्या लेना देना?’

थोड़ी देर में बच्चूभाई तैयार होकर आ गये। मैंने देखा तो पहचान नहीं पाया —–ब्रीचेज़, जंगल बूट, जरकिन, सिर पर टोपी। सब पिताजी की पुरानी पेटी से निकाले हुए।सिर्फ चाल से ही पता चलता था कि शिकारी असली नहीं है। फाइलें देखते देखते कमर कुछ झुक गयी थी।

बंदूकें और सर्चलाइट लेकर हम चल पड़े। जहाँ से जंगल शुरू होता था वहाँ से एक बूढ़ा देहाती हमारे साथ हो लिया। उसने एक बकरा जीप में रख लिया। ठिये पर पहुँचते पहुँचते शाम हो गयी।

देखा, एक पेड़ पर बढ़िया मचान बना था। बच्चूभाई  मुँह उठाकर चिंतित स्वर में बोले, ‘मचान तक कैसे चढ़ेंगे?’

देहाती हंसने लगा। बच्चूभाई शर्मा गये।

बकरे को थोड़ी दूर एक पेड़ से बाँध दिया गया। उसने अपनी मिमियाने की ड्यूटी शुरू कर दी।फिर हम लोग मचान पर चढ़े। देहाती ने सहारा देकर बच्चूभाई को चढ़ाया, फिर भी उनकी ब्रीचेज़ फट गयी। शहर में होते तो तुरंत बदलनी पड़ती। यहां ज़रूरी नहीं था। रुस्तम लाल भी सहारा लेकर कांपते कांपते ऊपर चढ़े। बंदूकें, कारतूस, सर्चलाइट, खाना-पीना भी ऊपर पहुँचाया गया।

जीप वाला और देहाती सबेरे आने की कह कर चले गये।

अब हम थे और जंगल की रात और सन्नाटा। मेरी हालत खराब हो रही थी, और बच्चू की भी। हम शहर के लोग ऐसे सन्नाटे के आदी कहाँ हैं?वहाँ तो रात को बिजली चले जाने से घबराहट होने लगती है, यहाँ रात भर पेड़ों और जंगली जानवरों की आवाज़ों के बीच रहना था। रुस्तम लाल बैठे बैठे झपकी ले रहे थे।

रात गुज़रती गयी। करीब एक बज गया। वनरक्षक ने बच्चूभाई को पक्का आश्वासन दिया था कि शेर यहाँ आएगा। बकरा अपनी मिमियाने की ड्यूटी निष्ठा से कर रहा था। हम बीच बीच में सर्चलाइट से उसे देख लेते थे।

एकाएक पौधों के चटकने की आवाज़ आयी। हमने सर्चलाइट डाली, और हम भय और आश्चर्य से जड़ हो गये। सचमुच एक शेर चला आ रहा था, इत्मीनान और निश्चिंतता के साथ चलता हुआ। रुस्तम लाल चौकन्ने हुए। उन्होंने जल्दी से बंदूक बच्चूभाई को थमायी। बकरा अब डर के मारे फटी आवाज़ में मिमिया रहा था।

शेर ने बकरे की तरफ देखा भी नहीं। वह आराम से चलता हुआ मचान के पास आ गया। बच्चूभाई भय या उत्तेजना के मारे बंदूक लिये मचान पर खड़े हो गये। मैं बराबर सर्चलाइट डाल रहा था।

एकाएक शेर ने ज़ोर की दहाड़ मारी। पूरा जंगल उसकी दहाड़ से काँप गया। उसके दहाड़ते ही बच्चूभाई ने कलाबाजी खायी और मय बंदूक के सीधे नीचे शेर के चरणों में जा गिरे। हमारे प्राण हलक में आ गये।

बच्चूभाई मुर्दे की तरह निस्पंद, आँखें बंद किये, शेर के पाँवों के पास पड़े थे। मचान की ऊँचाई तो ज़्यादा नहीं थी लेकिन शायद डर के मारे बेहोश हो गये थे।

रुस्तम लाल अपनी बंदूक संभाल रहे थे। इतने में शेर बोला, ‘ए बूढ़े, बंदूक रख दे, नहीं तो मैं तेरे इस बहादुर साथी को हलाल करता हूँ।’

हम शेर को आदमी की तरह बोलते  सुनकर स्तब्ध रह गये। एकदम चमत्कार। रुस्तम लाल ने बंदूक नीचे रख दी।

शेर ने अपना एक पंजा बच्चूभाई की छाती पर रखा और मुँह उठाकर बोला, ‘फोटो खींचो।’

मैंने फट से कैमरे का बटन दबाया। फोटो खिंच गयी।

शेर रुस्तम लाल को संबोधित करके बोला, ‘सुन बूढ़े! मैं जानता हूँ तू पुराना पेशेवर हत्यारा है। तेरे जैसे लोगों ने हमारे वंश का बहुत नाश किया है। अब तो बुढ़ा गया है, राम नाम ले।’

रुस्तम लाल सन्नाटे में थे।

शेर फिर बोला, ‘बहादुर है तो फिर ऊपर मचान पर बैठकर बंदूक से क्यों मारता है? बड़ा सूरमा है तो नीचे उतरकर बिना बंदूक के मुझसे कुश्ती लड़। मेरे पास नाखून हैं तो तू भी एकाध छुरी ले ले।’

रुस्तम लाल मुँह पर दही जमाये, सिर झुकाये बैठे थे।

शेर बोला, ‘मैं तो जा रहा हूँ। इस बेचारे बकरे को फालतू ही यहाँ लाकर मरवाने को बाँध दिया। मैं तुम लोगों के फेर में आकर इसे नहीं मारूँगा। तुम लोग दो हत्याएं करना चाहते थे।’

अब तुम लोग मचान के किनारे दूसरी तरफ मुँह करके बैठ जाओ। ज़रा भी हरकत की कि मैंने तुम्हारे दोस्त पर झपट्टा मारा। दस मिनट बाद पीछे मुड़ कर देखना।’

हम मचान के किनारे दस मिनट बेवकूफों जैसे बैठे रहे। दस मिनट बाद पीछे मुड़ कर देखा तो शेर का कहीं अता-पता नहीं था।

हम जल्दी जल्दी नीचे उतरे। देखा, बच्चूभाई लेटे लेटे आँखें मुलमुला रहे थे।उन्हें सही-सलामत देखकर हमारी जान में जान आयी।

मैंने पूछा, ‘ज़्यादा चोट तो नहीं आयी?’

वे उठकर बैठ गये। हाथ पाँव थथोलकर बोले, ‘थोड़ी सी आयी है, कोई चिन्ता वाली बात नहीं है। लेकिन यह शेर तो हमको पट्टी पढ़ा गया। अब फोटो का क्या होगा?’

मैंने कहा, ‘जो फोटो मैंने खींची है उसी को ड्राइंगरूम में टाँग लेना। वह एक दुर्लभ फोटो होगी। मुझे ज़रूर इस फोटो पर इनाम मिलेगा।’

बच्चूभाई नाराज़ होकर बोले, ‘तुम्हें हमेशा मज़ाक सूझता है। मेरी हसरत तो धरी की धरी रह गयी।’

फिर बोले, ‘लेकिन क्या यह मेरी बहादुरी नहीं है कि छाती पर शेर का पंजा रखा होने के बाद भी मैं जिन्दा रहा?’

मैंने कहा, ‘सो तो है। यह बात तुम गर्व से लोगों को बता सकते हो।’

हम फिर किसी तरह मचान पर चढ़कर सुबह का इंतज़ार करते करते सो गये। बकरा अब बेमतलब मिमिया रहा था। बच्चूभाई को उसके मिमियाने पर गुस्सा आ रहा था।

सबेरे जीप उस देहाती को लेकर आ गयी और हम अपना सामान समेटकर मय बकरे के चल दिये।

एक मोड़ पर वह वनरक्षक हमारा इंतज़ार करता मिल गया। जीप रुकने पर उसने बच्चूभाई से रहस्यमय आवाज़ में पूछा, ‘हो गया?’

बच्चूभाई संत की तरह गंभीर मुद्रा में बोले, ‘नहीं। मुझे रात को मचान पर बैठे बैठे ज्ञान हुआ कि जीवहत्या पाप है। इसलिए मैंने अपना इरादा बदल दिया। आपको सहयोग के लिए धन्यवाद।’

© कुन्दन सिंह परिहार
जबलपुर (म. प्र.)

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ सवाल एक – जवाब अनेक – 9 ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

 

 

 

“सवाल एक – जवाब अनेक (9)”

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के एक प्रश्न का  विभिन्न  लेखकों के द्वारा  दिये गए विभिन्न उत्तरआपके ज्ञान चक्षु  तो अवश्य ही खोल  देंगे।  तो प्रस्तुत है यह प्रश्नोत्तरों की श्रंखला। 

वर्तमान समय में ठकाठक दौड़ता समाज घोड़े की रफ्तार से किस दिशा में जा रहा है, सामूहिक द्वेष और  स्पर्द्धा को उभारकर राजनीति, समाज में बड़ी उथल पुथल मचा रही है। ऐसी अनेक बातों को लेकर हम सबके मन में चिंताएं चला करतीं हैं। ये चिंताएं हमारे भीतर जमा होती रहतीं हैं। संचित होते होते ये चिंताएं क्लेश उपजाती हैं, हर कोई इन चिंताओं के बोझ से त्रास पाता है ऐसे समय लेखक त्रास से मुक्ति की युक्ति बता सकता है। एक सवाल के मार्फत देश भर के यशस्वी लेखकों की राय पढें इस श्रृंखला में………

तो फिर देर किस बात की जानिए वह एकमात्र प्रश्न  और उसके अनेक उत्तर।  प्रस्तुत है  पुणे से श्री हेमन्त बावनकर, जबलपुर से श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव , बीकानेर से डॉ. अजय जोशी  एवम मुंबई से श्री संजीव निगम की ओर से  –  

सवाल :  आज के संदर्भ में, क्या लेखक  समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?

पुणे से श्री हेमन्त बावनकर जी का जबाब ___
लेखक बाज की आँख की तरह समाज को आईना दिखाता है

जनाब पहले तो यह तय करें कि आज के संदर्भ में आप किस लेखक की बात कर रहे हैं? उस लेखक की जो दिन रात दिमाग में विचारों के घोड़े दौड़ाते हुए हृदय, मस्तिष्क और कलम में सामंजस्य बैठाकर सकारात्मक साहित्य की रचना कर रहा है या उस लेखक की बात कर रहे हैं जो सोशल मीडिया में कट-पेस्ट-फॉरवर्ड कर तथाकथित साहित्य की रचना कर रहा है या कि शब्दों में कुछ हेरफेर कर दूसरों की रचना अपने नाम से प्रकाशित कर रहा है। कुछ ऐसे लेखक भी हैं जो उस समाज के घोड़े की आँख हैं जिनकी आँख के ऊपर कवर लगा होता है, नाक की सीध में चलते हैं, किसी न किसी के अंधभक्त हैं, उनकी लगाम उनके हाथ में भी नहीं होती है, शब्दों के चाबुक चलाते रहते हैं। कुछ लेखक तो सम्मान की दौड़ में किसी भी स्तर तक जा सकते हैं। और भी किस्म किस्म के लेखक है जिनकी व्याख्या करने से शब्द सीमा के बाहर शब्दों के घोड़े दौड़ने लगेंगे।

मुद्दे की बात इतनी सी है जनाब कि मैं तो सिर्फ पहले किस्म के लेखक की नब्ज़ जानता हूँ। वह समय पड़ने पर समाज के घोड़े की आँख का उपयोग बाज के आँखों की मानिंद करता है और व्यंग्य जैसी विधा से लगाम लगा कर समाज को आईना दिखाने में कोई गुरेज नहीं करता।

– हेमन्त बावनकर, पुणे

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जबलपुर से श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी का जबाब ___

लेखक की भूमिका तो समाज के घोड़े की आँख, लगाम से आगे मस्तिष्क की भी है  

लेखक समाज के घोड़े की आंख या लगाम मात्र नही , दरअसल वह भी समाज का ही हिस्सा होता है . लेखन कर्म से  वही जुड़ता है जो अपेक्षाकृत अधिक संवेदनशील व जागरूख होता है . वह परिवेश में घट रही घटनाओ का मूक साक्षी भर नही होता जहां वह अच्छाई का समर्थक व प्रशंसक होता है . वहीं कुरीतियो और बुराई पर लेखक अपनी कलम से हर संभव वार करता है  . इस सबके साथ ही अनेक बार स्वयं लेखक भी समाज सापेक्ष कमजोरियो से ग्रसित भी होता है , तब वह भी यहां वहां चारे पर मुंह मारने से बाज नही आता . किन्तु  उसका चैतन्य लेखन समाज के घोड़े की आंख का तटस्थ युग दृष्टांत  होता है .  वह अपने लेखन की चाबुक से समाज के घोड़े को सही राह पर चलाये रखने सतत प्रयत्नशील रहता है . वह यथा संभव लगाम खींच कर समाज को सही मार्ग दिखाने का यत्न करता नजर आता है . यदि समाज को केवल एम एफ हुसैन के घोड़े में ही चित्रित करना हो तो लेखक की भूमिका समाज के घोड़े की आंख , लगाम ,या सरपट भागते  पैरों   से अधिक घोड़े के मस्तिष्क की हैं .

– विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

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बीकानेर से डॉ. अजय जोशी जी का जबाब ___
लेखक समाज की ना आँख है ना लगाम 

मुझे लगता है कि लेखक समाज घोड़े की ना तो आंख है और ना ही लगाम। देश की जनसंख्या में युवा वर्ग सर्वाधिक है। यही समाज का बड़ा हिस्सा है। इस वर्ग को लिखे गए किसी तरह के  साहित्य से कोई खास  लेना देना ही नही है। उनका एक बड़ा वर्ग आपने रोजगार और काम धंधे को ढूंढने और परिवार के भरण पोषण की जुगाड़ में संघर्ष कर रहा है तो दूसरा वर्ग अपनी अलग मस्ती में मस्त है। उसका अपना एक अलग संसार है। उसको खाने पीने और मौज मस्ती करने से ही फुरसत नही है।वह बढ़िया से बढ़िया कपड़े पहनता है,जूते पहनाता है, महंगी और बढ़िया गाड़ियों में घूमता है। अपनी गर्लफ्रैंड के साथ होटलों और रेस्ट्रोरेंट में मजे करता है और पार्टियां करता है। बहुत से युवा नशे की चपेट में भी है उनको दीन दुनिया से कोई लेना देना ही नही है। युवाओं का बड़ा वर्ग फेसबुक, व्हाट्सएप, यूट्यूब, इंस्टाग्राम जैसे सोसल मीडिया की आभासी दुनिया में व्यस्त और मस्त है। उसका अधिकांश समय इसमें ही बीतता है। इस सब के बीच उसके पास लेखक द्वारा लिखे गए को ना तो गंभीरता से पढ़ने का समय  है और ना ही अमल करने में उसकी कोई रुचि। पढ़ने की रुचि और प्रवर्ति निरन्तर समाप्त हो रही है इसलिए वह लेखक के लिखे साहित्य की आंख से देखने का ना तो वो सोचता है और ना ही देखता है। यह पीढ़ी किसी बंधन को स्वीकार करने को भी तैयार ही नही है इसलिए लेखक के लिखे को घोड़ की लगाम को स्वीकार करने के लिए वह कतई तैयार ही नही है। युवा वर्ग का एक बहुत छोटा वर्ग पढ़ता लिखता है और गंभीर भी है लेकिन वह अन्य युवाओं को प्रभावित करने की स्थिति में नही है।युवा वर्ग के आलवा जो पीढ़ी है वह अब इस स्थिति में रही ही नही कि वो लेखक के लिखे को आंख के रूप में देख सके और लगाम के रूप में स्वीकार कर सके। दूसरी तरफ आज जो लिखा जा रहा है वह ना तो आंख की तरह दृष्टि देने में सक्षम है और ना ही समाज को इतना प्रभावित कर पाता है कि समाज उसको लगाम की तरह स्वीकार करे।

– डॉ. अजय जोशी, बीकानेर

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मुंबई से श्री संजीव निगम जी का जबाब ___

साहित्यकार समाज को एक सच्ची दृष्टि दे तो वही लगाम की तरह सार्थक होगी 

क्या ही मस्त सवाल रखा है सामने, आज के संदर्भ में। ये ठकाठक दौड़ता समाज वाकई घोड़े की रफ्तार से दौड़ रहा है। इस समाज पर  साहित्य ही लगाम का काम कर सकता है लेकिन अफसोस की बात यह है कि जीवन और समाज के बाकी क्षेत्रों की तुलना में साहित्य धीरे धीरे पीछे छूटता जा रहा है। हालांकि साहित्य आज भी उससे जो अपेक्षा है वह काम कर रहा है पर वह समाज पर वैसा असर नहीं छोड़ पा रहा है जो एक लगाम से अपेक्षित होता है। लेकिन हम कह सकते हैं कि साहित्य समाज के घोड़े की आंख जरूर है। अच्छे, बुरे को आज भी सही से देखता है और दिखाता है। अब ये समाज के विवेक पर है कि वह उन दृश्यों को देख कर अपने अंदर क्या सुधार करना चाहता है। आज का समाज सलाह पर तो फिर भी ध्यान दे देता है पर कोई बंधन स्वीकार नहीं करता है। साहित्य को भी इसी के अनुरूप चलना होगा, तभी वह कुछ मायनों में सार्थक हो पाएगा। साहित्यकार यदि एक सच्ची दृष्टि दे सके तो वह भी आज नहीं तो कल एक लगाम का काम करेगी।

– संजीव निगम, मुंबई

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