हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 79 ☆ लघुकथा – बहुमूल्य☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  एक भावुक एवं विचारणीय लघुकथा  “बहुमूल्य। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 79 – साहित्य निकुंज ☆

लघुकथा – बहुमूल्य

मैं रोज घर से निकलते समय गाय की रोटी ले जाती और गेट के कोने में रख देती। कभी -कभी रात का बचा खाना भी रख देते।  सोचते चलो गाय के पेट में चला जायेगा। एक दिन  मैं अपना चश्मा घर पर ही भूल गई। आगे जाकर याद आया। वापस लौटी तो क्या देखती हूँ ?  5 – 6 साल के दो बच्चे मेरा रखा खाना उठा रहे थे। जैसे ही मुझे देखा तो छुपाने लगे । मैंने कहा..” क्या बात है बच्चों? आप लोग ये क्या कर रहे हैं ?”

तब लड़की बोली…” आंटी आप जो खाना रोज रख जाती है, हम लोग उठाकर ले जाते हैं। हमारे पिता को दिखता नहीं है। पिता की तबीयत भी ठीक नहीं रहती। हम रोज आपके आने का इंतजार करते हैं। जिस दिन आप नहीं आती हम लोग भूखे रह जाते है।

उनकी बातें सुनकर आंख से आंसू निकल पड़े। हम सोच में पड़ गए। बचा हुआ खाना कितना बहुमूल्य है?

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – यात्रा और यात्रा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – यात्रा और यात्रा ☆

जीवन में लोगों से आहत होते-होते थक गया था वह। लोग बाहर से कहते कुछ, भीतर से सोचते कुछ। वह विचार करता कि ऐसा क्यों घटता है? लोग दोहरा जीवन क्यों जीते हैं? फिर इस तरह तो जीवन में कोई अपना होगा ही नहीं! कैसे चलेगी जीवनयात्रा?

बार-बार सोचता कि क्या साधन किया जाय जिससे लोगों का मन पढ़ा जा सके? उसकी सोच रंग लायी। अंततः मिल गई उसे मन के उद्गार पढ़ने वाली मशीन।

विधाता भी अजब संजोग रचता है। वह मशीन लेकर प्रसन्न मन से लौट रहा था कि रास्ते में एक शवयात्रा मिली। कुछ हड़बड़ा-सा गया। पढ़ने चला था जीवन और पहला सामना मृत्यु से हो गया। हड़बड़ाहट में गलती से मशीन का बटन दब गया।

मशीन पर उभरने लगा शव के साथ चल रहे हरेक का मन। दिवंगत को कोई पुण्यात्मा मान रहा था तो कोई स्वार्थसाधु। कुछ के मन में उसकी प्रसिद्धि को लेकर द्वेष था तो कुछ को उसकी संपत्ति से मोह विशेष था। एक वर्ग के मन में उसके प्रति आदर अपार था तो एक वर्ग निर्विकार था। हरेक का अपना विचार था, हरेक का अपना उद्गार था। अलबत्ता दिवंगत पर इन सारे उद्गारों या टीका-टिप्पणी  का कोई प्रभाव नहीं था।

आज लंबे समय आहत मन को राहत अनुभव हुई। लोग क्या कहते हैं, क्या सोचते हैं, किस तरह की टिप्पणी करते हैं, उनके भीतर किस तरह के उद्गार उठते हैं, यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है अपनी यात्रा को उसी तरह बनाए रखना जिस तरह सारे टीका, सारी टिप्पणियों, सारी आलोचनाओं, सारी प्रशंसाओं के बीच  चल रही होती है अंतिमयात्रा।

अंतिमयात्रा से उसने पढ़ा जीवनयात्रा का पाठ।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – मिलन ☆ श्री हरभगवान चावला

श्री हरभगवान चावला

( ई-अभिव्यक्ति में सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी का हार्दिक स्वागत है। आज प्रस्तुत है आपकी एक समसामयिक विषय पर आधारित लघुकथा ‘मिलन’। हम भविष्य में भी ई- अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आपकी विशिष्ट रचनाओं को साझा करने का प्रयास करेंगे।)

संक्षिप्त परिचय

प्रकाशन –

  • पाँच कविता संग्रह ‘कोई अच्छी ख़बर लिखना’, ‘कुंभ में छूटी औरतें’, ‘इसी आकाश में’, ‘जहाँ कोई सरहद न हो’, ‘इन्तज़ार की उम्र’ ; एक कहानी संग्रह ‘हमकूं मिल्या जियावनहारा ।
  • सारिका, जनसत्ता, हंस, कथादेश, वागर्थ, रेतपथ, अक्सर, जतन, कथासमय, दैनिक भास्कर, दैनिक ट्रिब्यून, हरिगंधा आदि में रचनाएँ प्रकाशित ।
  • कुछ संग्रहों में रचनाएँ शामिल ।

पुरस्कार/सम्मान –

  • एक बार कहानी तथा एक बार लघुकथा के लिए कथादेश द्वारा पुरस्कृत ।
  • कविता संग्रह ‘कुंभ में छूटी औरतें ‘ को वर्ष 2011-12 के लिए तथा कविता संग्रह ‘इसी आकाश में’ को 2016-17 के लिए हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान

सम्प्रति  :  राजकीय महिला महाविद्यालय, रतिया से बतौर प्राचार्य सेवानिवृत्ति के बाद स्वतंत्र लेखन ।

☆ लघुकथा – मिलन ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

अस्सी वर्षीय किसान पतराम दो महीने से राजधानी के बॉर्डर पर दिए जा रहे किसानों के धरने में शामिल था। आज उसकी अठहत्तर वर्ष की पत्नी भतेरी उससे मिलने पहुंँची थी। दोनों ने जैसे ही एक-दूसरे को देखा, उनकी चेहरे की झुर्रियों में पानी यूंँ बह आया, जैसे चट्टानों के बीच झरने बह आए हों। एक नम चट्टान ने पूछा, “कैसे हो सतपाल के बापू?”

“मैं मज़े में हूंँ, तू बता, पोता-पोती ठीक हैं?” दूसरी नम चट्टान ने जवाब दिया।

“वहांँ तो सब ठीक हैं, तुम ठीक नहीं लग रहे हो।”

“मुझे क्या हुआ है? हट्टा-कट्टा तो हूंँ।”

“दाढ़ी देखी है अपनी? फ़क़ीर जैसे दिख रहे हो।”

“देखो, गाली मत दो। दाढ़ी का क्या है, मुझे कौन सा ब्याह करना है?”

“करके तो देखो, फिर बताती हूंँ तुम्हें।” भतेरी की आंँखों में उतरी तरल लालिमा देख पतराम को अपने ब्याह का दिन बरबस याद आ गया। उसने महसूस किया कि भतेरी के कंधे पर रखा उसका हाथ कांँप रहा है।

“अच्छा, अब घर कब लौटोगे?”

“जंग जीतने के बाद ही लौटना होगा अब तो, या फिर शहीद हो जायेगा तुम्हारा बूढ़ा।” भतेरी ने पतराम के मुंँह पर हाथ रख दिया।

“अच्छा एक बात बताओ, अगर मैं शहीद हो गया तो तुम क्या करोगी?”

“करना क्या है, तुम्हारा बुत लगवा दूंँगी गांँव में और शान से रहूंँगी जैसे एक शहीद की विधवा रहती है।” कहते ही भतेरी बहुत ज़ोर से हंँसी। हंँसी के इस हरे पत्थर के पीछे पानी का एक सोता था जो पत्थर के हटते ही आह की तरह फूट पड़ा। भतेरी पानी में तरबतर एक छोटी सी चिड़िया ‌होकर पतराम के सीने में दुबकी थरथरा रही थी। पतराम उसकी पीठ को थपथपाते उसे सांत्वना दे रहा था। अचानक उसने भतेरी को अपने से अलग किया, “अब हट जाओ, देखो लोग हंँस रहे हैं।” झटके से अलग होकर दोनों ने देखा- कोई नहीं हंँस रहा था, सबके चेहरों पर गर्व और आंँखों में आँसू दिपदिपा रहे थे।

(इस लघुकथा का आधार एक सच्ची घटना है। इसमें प्रयुक्त कल्पना को मेरी असीम श्रद्धा ही मानें। पूरी विनम्रता के साथ इस लघुकथा को मैं उस महान योद्धा दम्पत्ति को सादर नमन करते हुए समर्पित करता हूंँ। )

© हरभगवान चावला

सम्पर्क –  406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 76 – लघुकथा – लाल पालक…. ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत एकअतिसुन्दर सार्थक लघुकथा  “लाल पालक….। अपार्टमेंट्स  के परिवार प्रत्येक पर्व घर के पर्व जैसे मिल जुलकर मनाते हैं।  इस लघुकथा के माध्यम से रोजमर्रा की जिंदगी  के बीच उत्सव के माहौल का अत्यंत सुन्दर वर्णन किया है। एक ऐसी ही अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 76 ☆

? लघुकथा – लाल पालक …. ?

गणतंत्र दिवस के लिए अपार्टमेंट सज रहा हैं ।

अपार्टमेंट का बड़ा सुंदर नजारा रहता है और वह भी जहां लगभग चालिस  परिवार एक ही छत के नीचे फ्लैटों में रहते हैं।

एक पूरा परिवार बन चुका होता है। सुबह हुआ कि अलग-अलग पेपर वाले, दूध वाले, हार्न बजाते कोई मोबाइल में गाना बजाते और कामवाली बाईयों का आना-जाना।

बस इन सभी के बीच लगातार रद्दी वालों की आवाज वह भी नहीं चूका आने के लिए!! कोई आ रहा कोई जा रहा।

बच्चों की टोली धूप में क्रिकेट खेल रही कुछ बच्चे मोबाइल कान में लगाए छत पर धूप सेंकते नजर आते। कुछ पढ़ाई करते भी दिख जाते हैं।

साथ साथ बड़े बूढ़ों की हिदायत भी चलती रहती है। कहीं पेपर पढ़ रहे हैं। कहीं सब्जी भाजी लिया जा रहा है। कुल मिलाकर बहुत सुंदर माहौल रहता है।

जया कामवाली बाई। बहुत बात करती है। माता – पिता की गरीबी की वजह से किश्चन से शादी कर ईसाई धर्म अपना ली हैं। और बातें भी “आता है” “जाता है” करती है। अपार्टमेंट में एक रिटायर्ड अफसर के यहाँ काम करती है।

सब्जी वाला अपार्टमेंट के अंदर जैसे ही आया उसने आवाज लगाईं।  झाड़ू हाथ में लेकर जया बाहर निकली। बालकनी से सीधा झाड़ू लिए ही बोली “हरी पालक है क्या?”

सब्जी वाला कुछ परेशान था। (पता चला रात में कोई बीमार चल रहा था उसके घर) उसने जोर से बोला… “नहीं पीली पालक हैं चाहिए क्या??”

इतना सुनना था, आजू-बाजू की बालकनी से सभी के खिलखिलाने की आवाज जोर हो गई। “उडा़ लो हंसी” गुस्से से जया लाल पीली हो गई और भुनभुनाते जाने लगी।

गणतंत्र दिवस के लिए मानू बिटिया के साथ कुछ बच्चे अपार्टमेंट्स सजा रहे थे।

बिटिया ने हंसकर कहा.. “जया आंटी गुस्सा मत करो हरी पालक, पीली पालक और जब वह बनेगा तो उसका रंग लाल होगा। यही तो पालक का गुण है।”

जया भी हाँ में हाँ मिलाने लगी। सच ही तो है। आखिर पालक खून भी तो बढाता है।

एक बार फिर जया के चेहरे पर मुस्कान खिल उठी। जय जय जया की लाल पालक!!!!!

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ आधुनिकता ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी  एक लघुकथा “आधुनिकता।)

☆ लघुकथा – आधुनिकता ☆

दो समवयस्क किशोर किशोरी मोबाइल पर बातचीत कर रहे थे.

किशोर ने पूछा- “क्या तुम्हारे मम्मी-पापा आफिस गए?”

किशोरी बोली-“हां क्यों?”

“मेरे भी गये-” किशोर खुश  होते हुए बोला.

“तो”

“इस बीच क्यों न कोई फिल्म देख ली जाए.”

“ओ के…ओ के नाश्ता करके फौरन निकलती हूं.” लडकी ने ज़बाब दिया.

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 58 ☆ लघुकथा – बीमा पॉलिसी ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर लघुकथा ‘बीमा पॉलिसी’।  यह सच है कि हम बीमा पालिसी के साथ ही सपने खरीद लेते हैं। उम्र के एक पड़ाव पर पहुँच कर खरीदे गए सपनों का गणित ही बदलता महसूस होता है।  एक बेहद सार्थक लघुकथा। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इसअतिसुन्दर लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 58 ☆

☆  लघुकथा – बीमा पॉलिसी

तिवारी जी डाइनिंग टेबिल पर इंकम टैक्स के पेपर फैलाए मन ही मन कुछ बडबडा रहे थे – हर साल का खटराग है बीमा पॉलिसी के पैसे भरो, हाउसिंग लोन के कागज दो और भी ना जाने क्या –क्या। पता नहीं क्या बचता है क्या नहीं – बहुत झुंझलाहट आ रही थी आज उन्हें, क्यों और किस पर ये उन्हें भी नहीं पता। बीमा कंपनियां भी, जिंदा रहते कुछ नहीं देती, स्वर्ग सिधारने  के बाद ही ज्यादा मिलेगा। जीवन भर घिसटते रहो, छोटी छोटी इच्छाओं को मारते रहो और पैसे भरते रहो, बस यह सोचकर कि कुछ हुआ तो बीमा पॉलिसी नैया पार लगा देगी। उन्हें बीमा एजेंट की बात याद आ रही थी – आपकी लाईफ सिक्योर है, सब ठीक ठाक चलता रहा तो बढिया है। अगर आपको कुछ हो जाता है तो पचास लाख आपकी पत्नी और बच्चों को मिल जाएगा। पता नहीं क्यों उन्हें एक झटका- सा लगा था यह सुनकर।

क्या बोल रहे हो अकेले में, सठिया रहे हो क्या, रिटायर होने में तो समय है अभी – पत्नी चाय बनाते हुए अपने व्यंग्य पर मुस्कुरा रही थी। तिवारी जी चिढ गये पर संभलकर बोले –  कुछ नहीं ये बीमा पॉलिसी के कागज देख रहा था – इसके हिसाब से तो कई साल पैसे भरना है, पॉलिसी  मैच्योर होने से पहले मैं चल बसा तो तुम लोगों को पचास लाख मिलेगा, वरना भरे हुए पैसे भी नहीं मिलेंगे। सोच रहा हूँ इसे बंद करवा दूँ, क्यों बेकार में तीन– चार लाख भरूँ, किसी और काम आएंगे – धीरे से बोले। काहे बंद करवा दो ? तीन – चार लाख के लिए तुम पचास लाख छोड रहे हो ? तुम्हारे बाद हमें और बच्चों को पैसा मिलेगा तो कुछ बुरा है क्या ? आडे वक्त में काम आएगा उनके। वे सकपका गए – नहीं – नहीं, अच्छा ही होगा। पत्नी जी पता नहीं समझी कि नहीं, पर तिवारी जी सोच रहे थे पचास लाख के लिए पॉलिसी मैच्योर होने से पहले ही स्वर्ग सिधारना पडेगा क्या?

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 74 – हाइबन- दुनिया की सबसे लंबी सुरंग ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है  “हाइबन- दुनिया की सबसे लंबी सुरंग। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 74☆

☆ हाइबन- दुनिया की सबसे लंबी सुरंग ☆

दुनिया की सबसे लंबी सुरंग का रिकॉर्ड भारत के नाम है । यह उत्तर भारत के लेह और मनाली हिस्से को जोड़ती है । इसे समुद्र तल से 10000 फीट की ऊंचाई पर बनाया गया है।  इस का निर्माण ऊंचीऊंची पहाड़ी की तलहटी के नीचे 9 किलोमीटर की सुरंग खोदकर किया गया है।

इस अनोखी सुरंग की अपनी अलग विशेषताएं है। यह विशेषताएं इससे अत्याधुनिक बनाती है। 3 अक्टूबर 2020 को प्रधानमंत्री द्वारा उद्घाटित इस सड़क मार्ग पर 60 मीटर पर हाइड्रेट, 150 मीटर पर टेलीफोन और 250 मीटर पर सीसीटीवी कैमरे की व्यवस्था की गई है। हर 2 किलोमीटर वाहन को मोड़ने की सुविधा दी गई है।

विशेष परिस्थितियों के लिए इसमें विशेष व्यवस्था की गई है। इसके हर एक 500 मीटर की दूरी पर विशेष निकासी व्यवस्था उपलब्ध है। 9.02 किलोमीटर लंबी विश्व की सबसे लंबी हाईवे टनल 3200 करोड़ रुपए की लागत से बनी है।

टनल का आकार घोड़े की नाल जैसा है। यह सीमा सुरक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण सुरक्षित और संक्षिप्त मार्ग है । सामरिक महत्व के मार्ग ने हमें दुनिया की दृष्टि में बहुत ऊंचा उठा दिया है।

 

लेह की चोटी~

टनल में फिसली

कार में बच्चा।

 

लेह की चोटी~

सुरंग में डरकर

चींखी युवती।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

23-12-2020

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ सपना ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ लघुकथा – सपना ☆

बहुत छोटा था जब एक शाम माँ ने उसे फुटपाथ के एक साफ कोने पर बिठाकर उसके सामने एक कटोरा रख दिया था। फिर वह भीख माँगने चली गई। रात हो चली थी। माँ अब तक लौटी नहीं थी। भूख से बिलबिलाता भगवान से रोटी की गुहार लगाता वह सो गया। उसने सपना देखा। सपने में एक सुंदर चेहरा उसे रोटी खिला रहा था। नींद खुली तो पास में एक थैली रखी थी। थैली में रोटी, पाव, सब्जी और खाने की कुछ और चीज़ें थीं। सपना सच हो गया था।

उस रोज फिर ऐसा ही कुछ हुआ था। उस रोज पेट तो भरा हुआ था पर ठंड बहुत लग रही थी। ऊँघता हुआ वह घुटनों के बीच हाथ डालकर सो गया। ईश्वर से प्रार्थना की कि उसे ओढ़ने के लिए कुछ मिल जाए। सपने में देखा कि वही  चेहरा उसे कंबल ओढ़ा रहा था। सुबह उठा तो सचमुच कंबल में लिपटा हुआ था वह। सपना सच हो गया था।

अब जवान हो चुका वह। नशा, आलस्य, दारू सबकी लत है। उसकी जवान देह के चलते अब उसे भीख नहीं के बराबर मिलती है। उसके पास फूटी कौड़ी भी नहीं बची है। एकाएक उसे बचपन का फॉर्मूला याद आया। उसने भगवान से रुपयों की याचना की। याचना करते-करते सो गया वह। सपने में देखा कि एक जाना-पहचाना चेहरे उसके हाथ में कुछ रुपये रख रहा है। आधे सपने में ही उठकर बैठ गया वह। कहीं कुछ नहीं था। निराश हुआ वह।

अगली रात फिर वही प्रार्थना, फिर परिचित चेहरे का रुपये हाथ में देने का सपना, फिर हड़बड़ाहट में उठ बैठना, फिर निराशा।

तीसरी रात असफल सपने को झेलने के बाद भोर अँधेरे उठकर चल पड़ा वह शहर के उस चौराहे की तरफ जहाँ दिहाड़ी के लिए मज़दूर खड़े रहते हैं।

आज जीवन की पहली दिहाड़ी मिली थी उसे। रात को सपने में उसने पहली बार उस परिचित चेहरे में अपना चेहरा पहचान लिया था।

सुनते हैं, इसके बाद उसका हर सपना सच हुआ।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 
संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 75 – लघुकथा – ऊँचा आसन…. ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत एकअतिसुन्दर सार्थक लघुकथा  “ऊँचा आसन….। प्रत्येक व्यक्ति की सोच भिन्न हो सकती है किन्तु, कई बार कोई बातों बातों में जो कह जाता है वह विचारणीय हो जाता है। एक ऐसी ही विचारणीय रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 75 ☆

? लघुकथा – ऊँचा आसन …. ?

काम वाली बाई उमा का रोज आना होता था, अच्छे संपन्न परिवार में। मेम साहब और साहब भी उसकी बातों से बहुत खुश रहते थे। नाटे कद की सरल स्वभाव की सारे जहां का गम छुपाए वह बहुत मुस्कुरा कर काम करती थी। आते ही ‘किस स्टेशन पर क्या हुआ, कोरोना में कौन मरा, किसके यहां चोरी हुई, किसी की सास ने आज अपनी बहू को खूब खरी-खोटी सुनाई और आज सब्जी का ताजा भाव क्या है’।

इन सब के बीच वह अपनी भी बात कहती जाती:- ” अरे मैम साहब आज मेरा आदमी बिना रोटी खाए चला गया।  घर में आटा जो नहीं था। किसी दिन कहती – आज जी नहीं चला, बच्चों की खूब धुनाई कर कर आई हूं।” और खिलखिला कर हंस पड़ती। पर दिल की बहुत अच्छी थी उमा।

एक दिन घर में मेम साहब अकेली थी। उसको बैठा कर चाय पी रहे थे। अचानक उमा बोल पड़ी :-“मेम साहब मैं तो पढ़ी लिखी नहीं हूं, आप लोग बहुत अच्छे हैं, बहुत पढ़े लिखे लोग हैं, बताइए सभी देवी का मंदिर ऊपर ऊँची पहाड़ी पर या किसी कोने की गुफा पर क्यों बना है? जहां देखो चढ़ैया चढ़कर जाना पड़ता है या गुफा में कठिनाई से छुपकर जाना होता है।”

मेम साहब बोली – “अरे उमा उन्होंने अपना स्थान ऊँचा बनाया है। उनकी अपनी जगह है।”

जोर से उमा हंस पड़ी :-“बस यही तो होता आया है।  स्त्री को पहले भी सताया जाता था। सभी देवी घर छोड़ एकांत में ऊपर चढ़कर बैठ जाती थी और कहती- मना अब मुझे। ऊपर चढ़कर आने में तुझे कितना दर्द और बेचैनी सहनी पड़ती है। मुझ तक पहुंचने में तुझे कितना कष्ट सहना  पड़ता है। देवियों ने ऊंचे पहाड़ पर इसीलिए ऊँचा आसन बनाया अब आओ तुम मेरे पास तब पता चलेगा। नारी को पाना सहज नहीं समझो। “यह कहकर वह चलती बनी।

नारी मन उमा की बात को सोचते-सोचते ‘” क्या आज संसार बदल पाया? तब और अब मैं क्या अंतर है? “‘ इस बात को मेम साहब भी सोचने लगी। देवी और नारी की दशा और दिशा में क्या अंतर आया!!!!

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा – कहानी ☆ कब्र में जीता हुआ ☆ सुश्री किरण राजपुरोहित नितिला

सुश्री किरण राजपुरोहित नितिला

(सुप्रसिद्ध राजस्थानी एवं हिंदी साहित्यकार सुश्री किरण राजपुरोहित नितिला जी का ई-अभिव्यक्ति  में हार्दिक स्वागत है।

संक्षिप्त परिचय – राजस्थानी हिन्दी की पत्रिकाओं व समाचार पत्रों में कविता, कहानी, लघुकथा, रेखाचित्र प्रकाशित राजस्थान पत्रिका में राजस्थानी कॉलम ‘सुण री सखी’ कविता कहानी के संकलनों में स्थान । लोक-संस्कृति व लोक गीतों पर लेख। चित्रकार, रेखाचित्रकार, फोटोग्राफी शौकिया जो कवर पेज और लेखों के साथ छपते हैं। यूट्यूब व इंस्टाग्राम चैनल से लोकगीत व संस्कृति के वीडियो प्रस्तुति। दूरदर्शन पर कार्यक्रम। जोधपुर, बाङमेर आकाशवाणी प्रस्तुतियां।। जै जै राजस्थान पेज से राजस्थानी में लोकरंग, आमी-सांमी व कवि सम्मेलन लाइव के संचालन सिलसिला चल रहा है। एक नया कांसेप्ट प्रायवेट नर्सिंग होम में सर्वजन साहित्यिक लायब्रेरी को स्थापित करने पर काम कर रही है। राजस्थानी साहित्य एवं संस्कृति अकादमी बीकानेर से सांवर दईया पैली पोथी पुरस्कार । वीर दुर्गादास राठौड़ सम्मान राजस्थानी संस्कृति समिति से डी लिट्,  कमला देवी सबलावत पुरस्कार, डेह सृजनगाथा सम्मान,  2 पेंटिंग प्रदर्शनी जोधपुर संभाग का पहला पेंटिंग सेमिनार का आयोजन। 

प्रकाशन – राजस्थानी कहाणी संग्रह नेव निवाळी, कांठळ (राजस्थानी),  कविता संग्रह –  ज्यूँ सैंणी तितली (राजस्थानी), झर झर निर्झर (हिंदी)

हम ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से आपकी रचनाएँ साझा करने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ कथा – कहानी ☆ कब्र में जीता हुआ ☆ सुश्री किरण राजपुरोहित नितिला ☆

उसकी याद फिर तिर आई। कांच पर जमती ओस की बूंदों सी और  उसका वजूद फिर नशे  सा छाये जा रहा है। कईं दिनों की मदहोशी, बेखयाली, बेचैनी, खलिस और बेकरारी उसकी याद के साइड इफैक्ट है  जो सालों से उसी शिद्दत से मोहते भी हैं और कचोटते भी है। वह उन इफैक्ट की बाट भी जोहता है और हल्की घबराहट से किनारा भी करता रहता है। इन सालों यही होता जा रहा है बार-बार। उसे लगता कि इस खाई में गिरते ,संभलते और उठते हुए युग बीत गए। बरसों की सीढ़ियां चढ़ते हुए दिनों की कतरनों ने उन सुखद पलों से उसका कई बार खून किया है और कई बार वह खुशी से और कई बार अनमना होकर उससे गुजरा भी है।  एक बेबसी उस पर हरदम तारी रहती और वह उसमें झूमता रहता।

उसे जिंदगी की इस करवट से यही सीन दिखाई देता है। वह चाहता है कि करवट बदले और कुछ दूसरा सीन देखकर बहल जाये। भूल जाये हमेशा वाली इन भावनाओं की तेज फुहार सी रौ को जिसने उसके वजूद को उब-चूब कर दिया है। पर यह कर नहीं पाता। बरसों से खुद में जीते हुए उसकी आत्मा पर उसके निशान पड़ चुके है। उन्हें खरोंच कर उतार नहीं सकता। जाने क्या हो? खरोंच के निशानों से डरता है वह। जाने कैसा एहसास पैदा हो और जो एहसास बचे वह जाने कैसा हो? मन ने उस नये एहसास को स्वीकार न किया तो ? नये एहसास से एलर्जी  हो गई तो किसकी गोद में जायेगा। आत्मा पर छपे उसके  निशान के संचे में नया एहसास फिट ना हुआ तो वह कहीं का न रहेगा।

सोचते -सोचते उसका माथा अजीब सा भन्नाने लगा। हाथ बेसाख्ता उस पर चला गया जिससे उसे हमेशा से कोफत रही। सिगरेट सुलगाते वक्त वह आंखें तरेरती और धुंआ फूंकने से पहले दूर छिटक पड़ती। शुरू-शुरू में तो वह हंसा करता और चारों ओर छल्ले के धुंए से गोला बना देता  और बेसाख्ता कठोर हो कर कह उठता …‘‘ कुछ भी हो पर तुम मेरी हो ….‘‘। इसी बात पर वह मुग्ध हो जाती लेकिन इसमें वह ज्यादा समय तक न बंध पाती और धुंए की बदबू और हल्की  घुटन से आजाद होकर दूर होकर ही सांस लेती। एक चीज मोहती तो दूसरी चीज दूर धकेलती और मन पेंडुलम सा डोलता रहता।

दीवार के सहारे जाकर सांस लेकर ठेंगा दिखाते हुए हंसती तो वह बेचैन हो उठता। जाने कैसी कसमसाहट ऐड़ी-चोटी सुलगती कि वह समझ नहीं पाता कि क्या करे और क्या न करे । जो चाहता है वह उचित नहीं और चाहा ना कर पाये, रोक पाये उतना उसमें सब्र नहीं।

कितनी तड़प होती थी । उफ! न उठते चैन न बैठते चैन। पांचवे माले के पूर्वमुखी फ्लॅट से हजार गुना अधिक तपन वह अपनी शिराओं में महसूस करता। रात-रात भर बेचैनी में धुंए से कमरे को भरते हुए इधर से उधर और उधर से इधर सैकड़ों मील चला होगा। उसको पाने की तड़प में शिरा-शिरा मुंह बोलती थी। बाजुएं, नथुने, पैर तली, कांधे, कनपटी नारियल की चिटकों की तरह  चटका करती थी। कई बार उसे यह बात बताई। बहुत बार खड़े रहकर ही बता पाया । ऐसा कहते हुए वह उसके पास बैठा नहीं रह सकता। न ही उसकी तरफ देख ही सकता था।

तब गर्मी की तप्त दोपहरी में उन दोनों के बीच भांय-भांय करता वह पुराना पंखा मनहूस गिद्ध की तरह लगता। वह चाहता कि जब वो दोनों बात करे तब बीच में कोई ना होे। कम से कम वह  सांय-सांय,  भांय-भांय कतई बर्दाश्त न करेगा लेकिन वह मनहूस पंखा उन दोनों के दरम्यान हमेशा रहा। अक्सर उसे लगता कि उसकी तकदीर ऐसी ही है। जो न चाहे वह मौजूद रहता ही  है और उसके उलट जो चाहे वह उसके आसपास बना भले रहे , ललचाता रहे लेकिन प्राप्य नहीं बन पाता।

रुद्रिका से  जब पहले पहल आत्मा के तप्त प्रवाह को बेबसी से रुक-रुक कर  पीठ फेरे हुए बता रहा था। खुद जाने किस गड्डे में गिरता जा रहा था पर अचानक आकर उसने ही उबार लिया था। अपनी गर्दन के पिछवाड़े में उसने दो नथुनों की गरमाहट को और दो होठांे की तप्त सलाईयों को महसूसा ….पल भर भी न लगा उसे और इस एहसास का परिणाम पूरे बदन में दौड़ने लगा और दिल तेजी से धड़कने लगा। वह ऐसे ही महसूसते  हुए बैठा रह जाता तो ष्षायद ठीक रहता पर जाने कैसे और कब उसने उसे अपने से सटा लिया उसे पता ही न चला। पीछे से बांहें गले में डाले वह पूरी तरह से सटी हुई थी और वह ना जाने कहां -कहां की यात्रायें वह भर में कर आया और सुखद एहसासों से लबथब रहा। कोमलता के पहले एहसास से मुलाकात  का पहला वाकया उसके लिए सुखद भी था और अंजाना भी । घबराहट वैसी जैसी पहली परीक्षा में होती है। उस आनंद को बहुत देर तक देख कर आनंदित होना भी चाह रहा था और जल्दी ही पीकर खतम भी करना चाहा रहा था। सुख के वे पल उसे बहुत लंबे चाहिए थे लेकिन सब कुछ तेजी से पाने की चाह बलवती होते जा रही थी। बदन की हर शिरा में रुद्रिका के प्रेमिल एहसास का प्रमाण गूंज रहा था। अपनी चाह को अभी इस वक्त कोई नाम नहीं देना चाहता था। सीनियर सैकंडरी से लेकर आरपीएससी के परीक्षा की तैयारी तक सैकड़ों मुलाकातें, हजारों जज्बाती रेले आये कि जब बहते-बहते तिर गए।

उन हजारों बार की उब-चूब ने उसे जाने कैसा बना दिया। एक अलग तरह का ही। उतार-चढ़ाव उसकी धमनियों का ही नहीं जीवन का स्थायी भाव बन गया। बचपन से लेकर अब तक कई जरुरतों  को मारते-मारते उसे खुद को ही मारने की इच्छा ने ही आरपीएससी की चाणक्य कोचिंग में ला पटका।

किसी भी काम में वह खुद को इतना झोंक देना चाहता है कि खुद को देखने-महसूसने समय ही न बचे और ना ही जरुरत। ऐसा करते वह सब कुछ बदल देना चाहता है।
और तत्काल ही उसे भुवन की याद हो आई। उसके दिल को कहीं ठौर है तो रुद्रिका के बाद भुवन की पनाह में। अपनी आहों का हिसाब जब उसे थमाता है तो भले ही वह खिल्ली उड़ाये लेकिन अंत में उसकी बातों को सीरियसली लेकर देा-चार उपदेश दे बैठता है। वह भी उसे मंजूर हो जाते है। लेकिन उसका सुकून भरी दुनिया की रंगीनियत में नहीं पांच बाई दस के उस अंधेरे कमरे में ही है। दर्द भरे उकताये हुए दिल को चैन भुवन के उस कमरे में ही मिलता है। भुवन के अपणायत की याद तीव्रता भी उसे सुकून देती है। दुनिया का एक वह कोना उसे नायाब लगता ।

……उस दिन की बात भी उसने भुवन से हूबहू कही थी। बिना लाग लपेट, बेहिचक। अपने मन की बात से लेकर, रुद्रिका की भाव-भंगिमा तक, अपनी देह के बदलावों से लेकर रुद्रिका की उफ तक का हिसाब देता रहा था। वह मुंह लुकोये सुनता रहा और उसे बरजता रहा था। बीच में कई बार टोका कि बस अब वह सुन नहीं पायेगा। लेकिन वह कहां रुका था।

….इन सालों की प्रीत को ऐसे किसी पड़ाव की आवष्यकता को दरकिनार करता रहा था। लेकिन आस-पास फड़कते होंठ उसकी नस-नस को जगा रहे थे और वह जाग रहा था। उसे खींच कर सामने लाकर अपनी बांहों में घेरा तब वह बहुत  सुंदर लगी थी। हमेशा से अलग सांवली सी लड़की इतनी सुंदर हो सकती है ये जाना उसने। निहारती रही थी वह भी….। चाहता था कि कमरे की ये निहायत ही शान्ति रुक जाये और किसी मधुर कोलाहल में वे डूब जाये। और किसी तरह का शोर दोनों के आसपास ना हो। वे केवल वही सुनें जो उनसे झंकृत होकर बिखरे। इस बिखरेपन में प्रकृति की सुंदर सुरुपता किसी मंजिल की ओर बहे जा रही थी। ये रास्ते बहुत तेजी से उंचे जा रहे थे। जैसे किसी मंजिल की तीव्र तलाश हो। पहाड़, झरने, सितार, जलतरंग से गूंजते वे पल सुंदरतम हुये बीतते रहे। सम तक पहुंच-पहुंच कर उनका फिर उंचा उठना….एक दूजे को देखते हुए उस सफर को पूरे होशोहवास में जी रहे थे। यह मधुर याद का पहला सफर हमेशा याद रहने वाला था। आंखें मूंदे किसी अनदेखी दुनिया को मन की आंखों से उतर कर देख रहा था….सुन रहा था….कुछ कानों में पड़ रहा था…..मधुर लय के साथ एक और वह लय किसी वस्तु के घूर्णन की ….सांय-सांय सी। वह सुनता रहा और बहता रहा…..थमता रहा। लगातार आती सांय-सांय ने उसे उद्ववेलित कर दिया। थम कर चेतना के टेंटेकल्स को थाम कर इधर-उधर देखा । लाईट आ गई थी और हमेशा से तेज आवाज में दौड़ते हुए अपने होने को जता रहा था वो मनहूस पंखा …………………

© सुश्री किरण राजपुरोहित नितिला 

संपर्क – 139 सी सेक्टर शास्त्री नगर, जोधपुर (राजस्थान) 342003

मो. 7568068844

 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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