(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – संवाद ☆
…मुझे कोई पसंद नहीं करता। हरेक, हर समय मेरी बुराई करता है।
.. क्यों भला?
…मुझे क्या पता! वैसे भी मैंने सवाल किया है, तुमसे जवाब चाहिए।
… अच्छा, अपना दिनभर का रूटीन बताओ।
… मेरी पत्नी गैर ज़िम्मेदार है। सुबह उठाने में अक्सर देर कर देती है। समय पर टिफिन नहीं बनाती। दौड़ते, भागते ऑफिस पहुँचता हूँ। सुपरवाइजर बेकार आदमी है। हर दिन लेट मार्क लगा देता है। ऑफिस में बॉस मुझे बिल्कुल पसंद नहीं करता। बहुत कड़क है। दिखने में भी अजीब है। कोई शऊर नहीं। बेहद बदमिज़ाज और खुर्राट है। बात-बात में काम से निकालने की धमकी देता है।
…सबको यही धमकी देता है?
…नहीं, उसने हम कुछ लोगों को टारगेट कर रखा है। ऑफिस में हेडक्लर्क है नरेंद्र। वह बॉस का चमचा है। बॉस ने उसको तो सिर पर बिठा रखा है।
… शाम को लौटकर घर आने पर क्या करते हो?
… बच्चों और बीवी को ऑफिस के बारे में बताता हूँ। सुपरवाइजर और बॉस को जी भरके कोसता हूँ। ऑफिस में भले ही होगा वह बॉस, घर का बॉस तो मैं ही हूँ न!
…अच्छा बताओ, इस चित्र में क्या दिख रहा है?
…किसान फसल काट रहा है।
…कौनसी फसल है?
…गेहूँ की।
…गेहूँ ही क्यों काट रहा है? धान या मक्का क्यों नहीं?
…कमाल है। इतना भी नहीं जानते! उसने गेहूँ बोया, सो गेहूँ काट यहा है। जो बोयेगा, वही तो काटेगा।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता
☆ ☆ लघुकथा – शॉर्टकट,,, ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
(यह लघुकथा कुछ वर्ष तक पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड की पाठ्य पुस्तक में शामिल रही)
– भाई साहब , ज़रा रेलवे स्टेशन तक जाने के लिए कोई शाॅर्टकट,,,
– शॉर्टकट तो है पर ,,,
-पर क्या ? जल्दी बताइए न ।
-आप उस रास्ते से नाक पर रूमाल रख कर और दीवारों का सहारा लेकर पांव रखकर ही जा सकोगे । आपको लगेगा कि अब गिरे ,,,अब कीचड़ में फंसे ,,,कब जाने ,,,क्या हो जाए ,,,
– शॉर्टकट की ऐसी हालत क्यों ?
– क्योंकि आपकी तरह हर कोई शॉर्टकट ही इस्तेमाल करता है । बड़े रास्ते से होकर , चक्कर काट कर कोई जाना नहीं चाहता । पर ठहरिए ,,,
-हां , कहिए ।
– बुरा तो नहीं मानेंगे ?
– अरे भाई जल्दी कहो न । मुझे गाड़ी पकड़नी है । छूट जाएगी ।
-यही बात ज़िंदगी पर लागू नहीं होती ?
– सो कैसे ?
– अब देखो न । सफलता की गाड़ी हर कोई पकड़ना चाहता है और इसके लिए हर आदमी शॉर्टकट अपना रहा है । चाहे शॉर्टकट कितना ही ,,,
– बस । बस । अपने उपदेश अपने पास रखो । जनाब मुझे भी सफलता चाहिए ।
-तो चलते चलते इतना तो सुनते जाइए कि मेहनत का कोई शॉर्टकट इस दुनिया में नहीं है ।
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#5 – तीन गांठें ☆ श्री आशीष कुमार☆
भगवान बुद्ध अक्सर अपने शिष्यों को शिक्षा प्रदान किया करते थे। एक दिन प्रातः काल बहुत से भिक्षुक उनका प्रवचन सुनने के लिए बैठे थे। बुद्ध समय पर सभा में पहुंचे, पर आज शिष्य उन्हें देखकर चकित थे क्योंकि आज पहली बार वे अपने हाथ में कुछ लेकर आए थे। करीब आने पर शिष्यों ने देखा कि उनके हाथ में एक रस्सी थी। बुद्ध ने आसन ग्रहण किया और बिना किसी से कुछ कहे वे रस्सी में गांठें लगाने लगे।
वहाँ उपस्थित सभी लोग यह देख सोच रहे थे कि अब बुद्ध आगे क्या करेंगे; तभी बुद्ध ने सभी से एक प्रश्न किया, मैंने इस रस्सी में तीन गांठें लगा दी हैं, अब मैं आपसे ये जानना चाहता हूँ कि क्या यह वही रस्सी है, जो गाँठें लगाने से पूर्व थी?
एक शिष्य ने उत्तर में कहा, गुरूजी इसका उत्तर देना थोड़ा कठिन है, ये वास्तव में हमारे देखने के तरीके पर निर्भर है। एक दृष्टिकोण से देखें तो रस्सी वही है, इसमें कोई बदलाव नहीं आया है। दूसरी तरह से देखें तो अब इसमें तीन गांठें लगी हुई हैं जो पहले नहीं थीं; अतः इसे बदला हुआ कह सकते हैं। पर ये बात भी ध्यान देने वाली है कि बाहर से देखने में भले ही ये बदली हुई प्रतीत हो पर अंदर से तो ये वही है जो पहले थी; इसका बुनियादी स्वरुप अपरिवर्तित है।
सत्य है ! बुद्ध ने कहा, अब मैं इन गांठों को खोल देता हूँ। यह कहकर बुद्ध रस्सी के दोनों सिरों को एक दुसरे से दूर खींचने लगे। उन्होंने पुछा, तुम्हें क्या लगता है, इस प्रकार इन्हें खींचने से क्या मैं इन गांठों को खोल सकता हूँ?
नहीं-नहीं, ऐसा करने से तो या गांठें तो और भी कस जाएंगी और इन्हे खोलना और मुश्किल हो जाएगा। एक शिष्य ने शीघ्रता से उत्तर दिया।
बुद्ध ने कहा, ठीक है, अब एक आखिरी प्रश्न, बताओ इन गांठों को खोलने के लिए हमें क्या करना होगा?
शिष्य बोला, इसके लिए हमें इन गांठों को गौर से देखना होगा, ताकि हम जान सकें कि इन्हे कैसे लगाया गया था, और फिर हम इन्हे खोलने का प्रयास कर सकते हैं।
मैं यही तो सुनना चाहता था। मूल प्रश्न यही है कि जिस समस्या में तुम फंसे हो, वास्तव में उसका कारण क्या है, बिना कारण जाने निवारण असम्भव है। मैं देखता हूँ कि अधिकतर लोग बिना कारण जाने ही निवारण करना चाहते हैं , कोई मुझसे ये नहीं पूछता कि मुझे क्रोध क्यों आता है, लोग पूछते हैं कि मैं अपने क्रोध का अंत कैसे करूँ? कोई यह प्रश्न नहीं करता कि मेरे अंदर अंहकार का बीज कहाँ से आया, लोग पूछते हैं कि मैं अपना अहंकार कैसे ख़त्म करूँ?
प्रिय शिष्यों, जिस प्रकार रस्सी में में गांठें लग जाने पर भी उसका बुनियादी स्वरुप नहीं बदलता उसी प्रकार मनुष्य में भी कुछ विकार आ जाने से उसके अंदर से अच्छाई के बीज ख़त्म नहीं होते। जैसे हम रस्सी की गांठें खोल सकते हैं वैसे ही हम मनुष्य की समस्याएं भी हल कर सकते हैं।
इस बात को समझो कि जीवन है तो समस्याएं भी होंगी ही, और समस्याएं हैं तो समाधान भी अवश्य होगा, आवश्यकता है कि हम किसी भी समस्या के कारण को अच्छी तरह से जानें, निवारण स्वतः ही प्राप्त हो जाएगा। महात्मा बुद्ध ने अपनी बात पूरी की।
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है ऐतिहासिक लघुकथा – बेगम हजरत महल। ये ऐतिहासिक लघुकथाएं अविस्मरणीय विरासत हैं। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 62 ☆
☆ ऐतिहासिक लघुकथा – बेगम हजरत महल ☆
निहायत खूबसूरत और नाजुक सी दिखनेवाली एक लडकी को उसके घरवाले अपनी गरीबी से परेशान हो नवाब वाजिद अली शाह के महल में छोड गए। गरीबी झेलकर आई यह लडकी महल के ठाठ–बाट आँखें फाडे देख रही थी। उसे दासी का काम दिया गया था, नवाब की बेगमों की सेवा करना। वह अपना काम कर तो रही थी लेकिन वह इसके लिए बनी ही नहीं थी। तभी तो अपनी बला की खूबसूरती और बुद्धिमानी से बहुत जल्दी नवाब वाजिद अली शाह की नजरों में खास बन गई। यही लडकी आगे चलकर अवध की बेगम हजरत महल कहलाई। बेगम जितनी सुंदर थीं उतनी ही बहादुर, खुद नवाब इनकी वीरता के कायल थे। देशभक्ति का जज़्बा तो मानों इनमें कूट- कूटकर भरा था। नवाब के सामने भी शासन के अधिकतर निर्णय बेगम ही किया करती थीं, नवाब भी उनका सम्मान करते थे। अपनी समझदारी से वे अंग्रेज़ों की कूटनीति से नवाब को बचाना चाहती थीं परंतु सन् 1856 में अंग्रेज़ों ने धोखे से नवाब वाजिद अली शाह को कलकत्ता भेज ही दिया। बेग़म इस घटना से जरा भी विचलित नहीं हुई, वह जानती थी कि इस समय उसके कमजोर पडने से शासन बिखर जाएगा। उसने दृढता से लखनऊ पर अपनी सत्त्ता कायम रखी।
सन् 1857 में बेग़म ने अपने ग्यारह साल के बेटे बिरजिस क़द्र को अवध का शासक घोषित कर दिया और स्वयं उसके नाम पर अवध में दस महीने राज किया। 10 मई सन् 1857 की बात है जब मेरठ और दिल्ली के सैनिकों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के ख़िलाफ़ विद्रोह कर दिया था। इस विद्रोह ने पूरे भारत में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ एक व्यापक स्वाधीनता आंदोलन का रूप ले लिया। इस विद्रोह की आँच लखनऊ भी पहुँच गई। अवध में बेगम ने सन् 1857 की क्रांति का नेतृत्व संभाला। सन् 1857 में अंग्रेज़ों से लड़नेवाली सबसे बड़ी सेना बेग़म की ही थी और इन्होंने ही अंग्रेज़ों का सबसे लंबे समय तक मुक़ाबला किया। इनमें देश के प्रति समर्पण की भावना ऐसी थी कि जिसे देखकर अवध की जनता ने भी पूरे जोश के साथ इनका साथ दिया। लखनऊ में आलमबाग़ की लड़ाई के दौरान अपनी सेना का उत्साह बढाने के लिए बेगम हाथी पर सवार होकर आ गईं और सैनिकों के साथ युद्ध करती रहीं। भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम का सबसे अधिक दिन चलने वाला युद्ध लखनऊ में हुआ। अपने ही भरोसेमंद सैनिकों के अंग्रेज़ों से मिल जाने से वे लखनऊ के युद्ध में हार गईं। बेगम ने तब भी हार नहीं मानी और अवध के बाहरी हिस्सों में जाकर जनता में स्वाधीनता की चेतना जगाती रहीं।
अंग्रेज़ बेगम के साथ समझौता करना चाहते थे लेकिन वे इसके लिए तैयार नहीं हुईं। उन्हें तो अपने अवध पर एकछत्र राज्य चाहिए था। अंग्रेज़ों ने इन्हें पेंशन भी देनी चाही, लेकिन बेगम को अपनी स्वतंत्रता ही चाहिए थी और कुछ भी नहीं। वे नेपाल चली गईं, सन् 1879 में वहीं उनकी मृत्यु हो गई।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – तीन ☆
तीनों मित्र थे। तीनों की अपने-अपने क्षेत्र में अलग पहचान थी। तीनों को अपने पूर्वजों से ‘बुरा न देखो, बुरा न सुनो, बुरा न कहो’ का मंत्र घुट्टी में मिला था। तीनों एक तिराहे पर मिले। तीनों उम्र के जोश में थे। तीनों ने तीन बार अपने पूर्वजों की खिल्ली उड़ाई। तीनों तीन अलग-अलग दिशाओं में निकले।
पहले ने बुरा देखा। देखा हुआ धीरे-धीरे आँखों के भीतर से होता हुआ कानों तक पहुँचा। दृश्य शब्द बना, आँखों देखा बुरा कानों में लगातार गूँजने लगा। आखिर कब तक रुकता! एक दिन क्रोध में कलुष मुँह से झरने ही लगा।
दूसरे ने भी मंत्र को दरकिनार किया, बुरा सुना। सुने गये शब्दों की अपनी सत्ता थी। सत्ता विस्तार की भूखी होती है। इस भूख ने शब्द को दृश्य में बदला। जो विद्रूप सुना, वह वीभत्स होकर दिखने लगा। देखा-सुना कब तक भीतर टिकता? सारा विद्रूप जिह्वा पर आकर बरसने लगा।
तीसरे ने बुरा कहा। अगली बार फिर कहा। बुरा कहने का वह आदी हो चला। संगत भी ऐसी ही बनी कि लगातार बुरा ही सुना। ज़बान और कान ने मिलकर आँखों पर से लाज का परदा ही खींच लिया। वह बुरा देखने भी लगा।
तीनों राहें एक अंधे मोड़ पर मिलीं। तीनों राही अंधे मोड़ पर मिले। यह मोड़ खाई पर जाकर ख़त्म हो जाता था। अपनी-अपनी पहचान खो चुके तीनों खाई की ओर साथ चल पड़े।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(ई-अभिव्यक्ति में सुप्रसिद्ध हिंदी एवं राजस्थानी भाषा के साहित्यकार श्री मनोहर सिंह राठौड़ जी का स्वागत है। साहित्य सेवा के अतिरिक्त आप चित्रकला, स्वास्थ्य सलाह को समर्पित। आप कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं। आज प्रस्तुत है आपकी कहानी तरसती आँखें। हम भविष्य में भी आपके उत्कृष्ट साहित्य को ई-अभिव्यक्ति के पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास करेंगे।)
जीवन परिचय
जन्म – 14 नवम्बर, 1948
गाँव – तिलाणेस, जिला नागौर (राज.)
शिक्षा – एम.ए. (हिन्दी) स्वयंपाठी प्रथम श्रेणी, तकनीकी प्रशिक्षण (नेशनल ट्रेड सर्टिफिकेट), एस.एल..ई.टी. स्टेल पास।
साहित्य सृजन –
हिन्दी व राजस्थानी भाषा की सभी विधाओं में 45 पुस्तकें प्रकाशित।
30 अन्य संकलनों, संग्रहों में रचनाएं सम्मिलित।
12 पुस्तकों में भूमिकाएं लिखी। अनेक पुस्तकों की समीक्षाएं लिखी।
लगभग 350 रचनाएं हिन्दी व राजस्थानी की श्रेष्ठ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।
प्रसारण – 55 रचनाएं आकाशवाणी से प्रसारित। दूरदर्शन से प्रसारित 10 वार्त्ताओं, परिचर्चाओं में भागीदारी।
अन्य योगदान –
लगभग 65-70 साहित्यिक उत्सवों, सेमीनार में पत्र वाचन, विशिष्ट अतिथि, अध्यक्षता अथवा संयोजन ।
पिछले 25 वर्षों से होम्योपैथी, आयुर्वेदिक, प्राकृतिक चिकित्सा तथा योग शिक्षा द्वारा अच्छे स्वास्थ्य के लिए लोगों को प्रेरित।
अनेक शिक्षण संस्थाओं में राजस्थानी भाषा-संस्कृति अपनाने व जीवन में सुधार के लिए मोटिवेशन लेक्चर।
क्षत्रिय सभा झुंझुनूं का सक्रिय सदस्य रहते हुए 2 वर्ष तक गांवों में युवा वर्ग की चेतना के लिए प्रोत्साहन लेक्चर दिये।
सन् 1967 से 2008 तक केन्द्रीय सरकार की राष्ट्रीय संस्था – केन्द्रीय इलेक्ट्रॉनिकी अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (सीरी) पिलानी (जि. झुझुंनूं) में सेवा के पश्चात डिप्टी डायरेक्टर (तकनीकी) के पद से सेवानिवृत्त।
हिन्दी-राजस्थानी साहित्य सृजन के लिए विभिन्न परिचय कोशों में परिचय सम्मिलित।
Who’s who of Indian writers – साहित्य अकादमी, नई दिल्ली।
Reference Asia – who’s who -नई दिल्ली।
एशिया – पैसिफिक Who’s who (vol-vi) नई दिल्ली।
राजस्थान शताब्दी ग्रंथ लेखक परिचय कोश, जोधपुर
हिन्दी साहित्यकार सन्दर्भ कोश, बिजनौर (उत्तर प्रदेश)
राजस्थान साहित्यकार परिचय कोश, राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर
पुरस्कार/सम्मान – 30 संस्थाओं द्वारा क्षेत्रीय, राज्य व राष्ट्रीय स्तर पर) साहित्यिक योगदान के लिए, पुरस्कृत व सम्मानित।
संप्रति – पेन्टिंग, स्वास्थ्य सलाह व लेखन को समर्पित।
☆ कथा-कहानी ☆ तरसती आंखें ☆ श्री मनोहर सिंह राठौड़ ☆
गांव में यह लंबी गाड़ी तड़के ही आई थी। वैसे गाड़ियां और भी आती रहती हैं। इतनी बड़ी गाड़ी वह भी हमारे गांव के व्यक्ति की है इस अहसास से सभी का सीना चौड़ा हो रहा था। यह इतनी गहमागहमी अब सूरज के निकलने के बाद बढी है।
वैसे गांव आज जल्दी जाग गया है। जागा क्या इस घटना ने जगा दिया। सबसे पहले बिहारी की दादी उठती हैं। आठ बजे उठने वाले भी जाग गए थे। यह गाड़ी चार बजे आ लगी थी चौपाल की एक मात्र दुकान के बंद किवाड़ों के पास, यह सेठ हर गोविन्द की गाड़ी थी। चौपाल में 2-3 जगह जहां दिन में बैठकें जमती है वहां ताशपत्ती खेली जाती है। मोबाइल में नई-नई फोटुवें एक-दूसरे को दिखाई जाती हैं। यह क्रम चलता रहता है। नये पुराने किस्सों की बखिया यहीं उधेड़ी जाती है। उनमें नोन-मिर्च लगता है, जीरे का बघार लगता है फिर वह ताजा तरीन आंखों देखी जैसी, कसौटी पर कसी कथा, घर-घर की बैठकों, चूल्हे-चैकों तक पहुंच जाती है। सूरज का रथ सरकाने को दिनभर यहां कई खबरें, किस्से चलते हैं। कई बार एक खबर दिन ढलने तक लोगों के दिलों पर राज करती है। कई राज इस चौपाल की बैठकबाजों के दिलों में दफन हैं, जो कभी कभार झगड़े की नौबत आने के समय, बात टालने को उगले जाते हैं। जरा-सा उस किस्से का नाम लेते-लेते कोई समझदार या नेता टाइप व्यक्ति अपना राज खुलने के डर से उस बात को काटते हुए, उस राज उगलने वाले को आगा-पीछा समझा देता है। फिर वह आग उगलने को उद्यत व्यक्ति अपने और गांव के भले की खातिर मौन साध लेता है। यही उसकी सेहत के लिए ठीक होता है। वर्ना गुंडों का क्या भरोसा, यह मेरी मां कहा करती है। आज की यह खबर अभी घुटुरन चलत वाली स्थिति में है। गांव का भला सोचने वाले नेता, समाज सेवक जो बैठक बाज हैं, वे अभी आये नहीं हैं। ये लोग रात देर तक इन बैठकों में गांव के लोगों का भला सोचते, योजनाएं बनाते हुए इस माहौल को गुलजार रखते आए हैं। इनकी भलमनसाहत के परिणाम से, कई केस हुए, कई लोगों की जमीनें बिकी। कई लोग मुकदमों से छूटे। पुजारी बाबा हमेशा कहा करते हैं, समरथ को नहीं दोष गुसांई। यहां यह कहावत सटीक बैठती है।
हमारे गांव में तीन लोगों का वर्चस्व है। ये तीनों अलग-अलग हताई की बैठकों को आबाद करते है। लेकिन पूरे गांव के मुद्दों को निपटाने तीनों साथ देखे जाते है। इनमें पहला सोहन लाल सरपंच का गुर्गा है। यह सरपंच का सलाहकार, उसकी आंखें–उसकी पांखें यानी सब कुछ है। हेमजी अपनी बिरादरी का मुखिया माना जाता है और तीसरा कुलवीर मिस्त्री। मिस्त्री पहले काम में उलझा रहता था तब बैठक इसके घर के आगे लगी रहती। जब से बेटा नौकरी लगा, इसने काम छोड़ दिया। अब अपने मलाइदार खाने और देशी-अंग्रेजी का इंतजाम करने के जुगाड़ के साथ-साथ गांव के भले की सोचने में इस मंडली में आ मिला। गांव के भले का बार-बार इसलिए कह रहा हूं क्योकि ये लोग जब-तब किसी कांईयापन से लोगों को बरगलाने का मोहिनी मंतर जानते हैं। जब तक बात दूसरे के समझ में आती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। उस समय इनकी सलाह को मानने के अलावा कोई चाल शेष नहीं रहती। खैर आठ बजे तीनों बैठको के ये घुटे हुए अखाड़ेबाज, छुटे हुए सांढ, बिन लगाम के घोड़े, रास्ते के रोड़े आ धमके। बात नये सिरे से खुलने लगी।
सेठ दीनानाथ की लाश उनके बेटे गांव की श्मसान भूमि में जलाने लाए थे।
पहला सवाल यही उठा कि ये क्यों लाए, शहर में अंतिम संस्कार क्यों नहीं किया ? एक ने आंशका प्रकट की — कोई बड़ा रोग होगा। इसके कीटाणु यहां फैलेंगे।
इतनी दूर क्यों लाए ? सोहन लाल ने सवाल दागा, इसके जवाब में एक बुजुर्ग ने अपने अनुभव को परोसा– पहले सेठ की यहां दुकान थी। हारी-बीमारी, सगाई-विवाह, बेटी-बहू की विदाई, जच्चा-बच्चा के समय गरीब का साथी बनकर यही उधार देता था बेचारा।
दूसरे ने तीखा जवाब ठोका– ” साथी क्या बनता, एकाएक दुकान थी। पहले लोग भोले थे। जमकर ठगता रहा। इसकी उधार के पीछे गरीबों की जमीनें बिक गई।”
इस पर 2-3 लोगों ने एक साथ टोका– ” अरे चुप हो जा। पहले पूरी बात तसल्ली से सुन लो पता कुछ है नहीं, बीच में जबान पकड़ने लगा । हां काका फिर क्या हुआ ?”
इधर दूर खड़ी इस गाड़ी के आसपास सेठ के दोनों बेटों सहित शहर से आए 4-5 लोग खड़े थे। वे अब तक इधर-उधर लोगों को अपनी स्थिति बतला रहे थे। अब इस बड़े झुंड के पास वे आ गए। हाथ जोड़े, दोषियों की मुद्रा में खड़े थे। सारी घटना उनके मुख से सुनने के बाद अफवाहों को विराम लगा।
अब सारी स्थिति स्पष्ट थी। बेटे अपने पिता का अंतिम संस्कार शहर में करना चाहते थे। सेठ ने मृत्यु पूर्व अपनी अंतिम इच्छा प्रकट की थी, मुझे मरने के बाद अपने गांव की धरती पर अग्नि को भेंट करना। बस पुत्रों मेरी यही इच्छा है।
हालांकि छोटे बेटे ने उस समय पिता को व्यावहारिक पेचीदगियां समझाई थी कि गांव छोड़े इतने वर्ष हो गए। अब हमें वहां कौन पहचानेगा ? यह सुन कर शून्य में अटकी पिता की आंखों में पीछे छूटे गांव का लहराता तालाब, पनघट, ठाकुर जी का मंदिर, पीपल बरगद का विशाल पेड़– यों पूरा गांव आंखों के आगे लहराने लगा। गांव में दिवंगत हुई पत्नी की याद ने बूढी आंखों को पनियाली बना दिया।
गांव की बैठक में बात कुरेदने को एक नौजवान ने फिर पूछा–“काका बताओ ना पूरी बात।” यह सुनते ही दो बूढ़ों ने कहा कि सेठ जी गांव की शान थे। उनका जन्मभूमि से मोह होना उचित है। यह उनका अपना गांव है। वे गांव के हितैषी थे।
वहां खड़े लोग इन बूढों को तीखी नजरों से ताकने लगे। नजरों के तीखे तीरों से बिंधने से अब वे बेचारे सकपका गए कि ऐसा उन्हें नहीं कहना चाहिए था। कुछ ज्यादा ही कह गए। अब वे संकोच में डूबे जा रहे थे।
अब तक गांव के लोगों के दो ग्रुप बन गए। एक ओर के लोग कह रहे थे — सेठ ने यहां रहते हम गरीबों का खून चूसा। हमारी गाढ़ी कमाई को हथियाता रहा। उधार में दो के चार करता रहा। यहां मकान बनवाया, शहर में मकान-दुकान की। पैसों में खेल रहा है। हम लोग वहीं के वहीं। यहां इसका मकान बंद पड़ा है। किसी को रहने तक नहीं दिया। गांव कभी लौट कर आया नहीं, यहां से जाने के बाद। अब पता नहीं किस बीमारी से मरा है। कीटाणु फैलाने बूढी मरियल रोगी लाश को यहां ले आए।
दूसरे पक्षवालों ने बात काटी –” अरे ऐसी बात नहीं है। ये इतने पैसे वाले हैं, तो वहां इन्हें क्या दिक्कत थी ? बिजली के दाह संस्कार में देर नहीं लगती। बटन दबाया और लाश छूमंतर। इतना पैसा खर्च किया, गाड़ी लेकर यहां आए है। आखिर इसे अपना गांव समझा है तभी न। हमें अपना समझा सेठ ने इसलिए आखिरी इच्छा यह प्रकट की है।”
इतने में अक्खड़ जगेसर ने कहा–” सेठों का श्मसान यहां कहां है ?”
इसके बाद लंबा मौन पसर गया। एक बोला, सही कह रहा है–ठाकुरों, जाटों, मेघवालों के अलग-अलग श्मसान थे। उनमें कोई दूसरी जाति के व्यक्ति की लाश का अंतिम संस्कार नहीं हो सकता था। कुछ लोग एक ओर बेकार पड़ी रेतली जमीन में दाह संस्कार करते आ रहे है या अपने खेतों में करते हैं। अब सेठ लोग कहां करें ? किसी ने सेठ के बेटों को सरपंच के पास भेजा। इससे पहले ये लोग अलग-अलग जातियों के मुखियाओं के पास हाथ जोड़ते-मिन्नतें करते थक गए थे। सरपंच ने इस काम में उलझना उचित नहीं समझा। चुनाव नजदीक आ रहे हैं, वह किसी वर्ग की नाराजगी मोल लेना नहीं चाहता। उसने सोचा– लाश गई भाड़ में, किसी को नाराज किया और वोट कटे। आजकल विकास के नाम पर चांदी काटने का अवसर है। इस भलमनसाहत में क्या रखा है ? आखिर उसने बला टालने को एक सक्षम व्यक्ति के पास सेठ के बेटों को भेज दिया।
दोनों बेटे हाथ जोड़े वहां पहुंचे। उसने सारी स्थिति को पहचाना। दस हजार में सौदा तय हुआ। इसने कहा कुछ देर शांत रहें। मैं अपने व्यक्तियों द्वारा माहौल बनवाता हूं।
इस बार दोनों बेटे खुशी-खुशी गाड़ी के पास लौट आए। वहां बड़ी बहू को सारा हाल कह सुनाया। अब तक ये लोग आजिजी करते तंग आ चुके थे। पिता की बीमारी के चलते कल भी ठीक से नहीं खा सके थे। आज दोपहर हो आई, अब तक चाय भी नसीब नहीं हुई। दो बार पानी गटका और मुंह पर छींटे मारने से कुछ राहत मिली बस। बड़ी बहू ने तमक कर कहा, “देवरजी और मैंने पहले ही कहा था, यहीं शहर में ही कर लो– आप नहीं माने। पिताजी की आखिरी इच्छा, आखिरी इच्छा, देख लिया न उसका नतीजा। अब क्या पिताजी देखने आते ? आखिरी इच्छा को किसने सुना ? आपको अकेले में कहा था, चुप लगा जाते। बाप के आज्ञाकारी बने हो, अब भुगतो।”
बड़ा बेटा रुआंसा हो गया। वह सभी के आगे हाथ जोड़ता थक चुका था। भूख-प्यास चिंता ने निढाल कर रखा था। बनता काम वापिस कहीं बिगड़ ना जाए, इस आशंका से घबराया हुआ वह पत्नी के आगे हाथ जोड़ते हुए बोला– भागवान अब चुप कर। काम होने वाला है। थोड़ी देर शांत रह। तू बना बनाया खेल बिगाड़ेगी।
फिर वह सक्षम व्यक्ति उधर आया। इशारे से पास बुला इन्हें समझाया– बात कुछ जमती लग रही है। लोग गांव के लिए कुछ करने का कह रहे हैं। इनकी चूं-चपड़ मेट दो। स्कूल में एक कमरा सेठ जी के नाम से बनवा दें। सेठ जी होते तो वे भी बनवा देते। अब उनके नाम से बनेगा। आपके परिवार की इज्जत बढ़ेगी। हमेशा नाम अमर रहेगा।” इस विचार की तह तक जाने को दोनों भाईयों ने आंखों-आंखों में एक-दूसरे से पूछा और हामी भर ली, आखिर मरता क्या न करता वाली बात। जगेसर (वह सक्षम व्यक्ति) और सेठ के बेटों के मुख मुस्कान से खिल उठे। जगेसर कदम बढ़ाते हुए एक बार फिर भीड़ में गुम हो गया। इधर सेठ का परिवार गाड़ी के पास आया जहां ड्राईवर सुबह से अकेला खड़ा था। बहू के पास गांव की 3-4 स्त्रियां आ खड़ी हुई। इन औरतों के जेहन में सहानुभूतिपूर्वक साथ देने की भावना कम थी, असल बात की टोह लेने की जिज्ञासा ज्यादा हावी थी। खैर ! कारण कुछ भी हो इससे बड़ी बहू को अकेलेपन का दंश नहीं झेलना पड़ा।
ऐसे काम में आए हुए को अपने घर में कोई रोकने को तैयार नहीं था। अपशकुन माना जाता है। ठाकुरों और जाटों के श्मसान के बीच खाली पड़ी भूमि में यह संस्कार करवाना तय होने लगा। इसमें दोनों जातियों के लोग दबी जुबान मनाही करने लगे। जगेसर ने सेठ के परिवार द्वारा स्कूल में कमरा बनवाने का सिगूफा छोड़ा। असल में एक कमरे की सख्त जरूरत भी थी। इसके चलते बात तय होने वाली थी। इतने में एक शातिर नवयुवक खबर लाया कि जगेसर इस काम के दस हजार अलग से ले रहा है।
यकायक सारी बात वहीं बिगड़ गई। लोगों में यह दूसरी चर्चा जोर मारने लगी कि हमें पहले ही शक था जगेसर मुफ्त में किसी के घाव पर ….. तक नहीं करता, कि यह इतना धर्मात्मा बना हुआ कैसे दौड़ रहा है ? दाल में काला हमें पहले ही लग रहा था।
अब राजपूतों-जाटों के लोगों ने उस खाली पड़ी भूमि पर अंतिम संस्कार के लिए साफ मना कर दिया। कोलाहल बढ़ा।
सेठ के बेटों ने भांप लिया कि मामला फिर गड़बड़ा गया है। वे बेचारे भयभीत हो ताकने लगे। इतने में एक हितैषी ने पास आ सारी बात स्पष्ट कर दी।
भीड़ में यह बात उभर कर उछली, जो वहां खड़े हुए सभी को सुनाई दी– सेठ का परिवार यह चालाकी क्यों दिखा रहा है ? पैसे देने थे तो इस जगेसर को क्यों, सांढ घर में देते। हमें अपना नहीं समझते फिर यहां आए क्यों ?”
उस दिन एक-दो घरों में लड़की देखने मेहमान आने वाले थे, उन लोगों का काम नहीं होने की संभावना से उन्होंने अपना आक्रोश यों प्रकट किया–” ये शहरी और व्यापारी कौम बड़ी तेज होती है। ये किसी के नहीं होते। बेकार में गांव में अपशकुन कर दिया। घरों में चूल्हे नहीं जले। सभी लोग भूखे बैठे हैं। शुभकार्य भी आज के दिन टालने पडेंगे।”
दोपहर दो बजते-बजते यह स्पष्ट हो गया कि सेठ का दाह संस्कार गांव में नहीं हो सकता। भूखे-प्यासे पपड़ाये होठ लिये सभी लोग गाड़ी में फिर से सवार हुए। गांव के बूढे़-बच्चे और बहस में सक्रिय युवा, वहां चौपाल में खड़े थे। गांव में किसी आयोजन जैसा माहौल था। जगेसर और उसके साथियों के मुंह उतरे हुए थे कि रकम आते-आते खिसक कर गाड़ी में जा बैठी। बाकी लोग खुश थे कि कोई हादसा होते-होते टल गया।
जन्मभूमि में अंतिम संस्कार की आश लिए सेठ चल बसा था। उसकी लाश गाड़ी के हिचकोलों से अब ज्यादा हिलती दिखाई दे रही थी। उसे अब किसी ने नहीं पकड़ रखा था। बहू और छोटा बेटा हिकारत से पीछे छूटते गांव को देखने लगे। बड़ा बेटा अपराध बोध से ग्रसित अपनी बेबसी पर गर्दन झुकाए नीचे की ओर ताक रहा था। बड़ी बहू ने कटाक्ष करते हुए कहा, “कर दी न अंतिम इच्छा पूरी।”
गांव की चौपाल में बहस जोरों से चल पड़ी। अब कई लोगों में उत्साह चमकने लगा, वे मंद-मंद मुस्कराने लगे कि जगेसर को रुपये नहीं ठगने दिए। आज पूरे दिन चौपाल और घरों के चूल्हे-चौकों तक यह खबर हावी रहेगी।
गाड़ी दौड़ती गांव से दूर निकल चुकी थी। समय रहते आगे क्या करना है, यह दोनों बेटे सोचने लगे। ड्राईवर ने पूछा–” पहले घर चलना है या दूसरी जगह ?” इस सवाल से सभी का ध्यान टूटा। अपनी थकावट, उलझन, असमंजस की स्थिति से परेशान वे लोग बौखला उठे और तमक कर बोले — “तू चलता चल। अभी शहर ले चल। फोन से तय करते हैं, क्या करना हैं।” सभी गांव की दिशा में देखते, हारे हुए जुआरी की तरह बेबस थे। अकड़ी हुई सेठ की लाश की आँखे और ज्यादा खुली हुई मानो गांव की ओर बेबसी में तरसती हुई ताक रहीं थी।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है एक अत्यंत भावप्रवण एवं विचारणीय लघुकथा “गंगवा ”। इस भावप्रवण एवं सार्थक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। )
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 81 ☆
?लघुकथा – गंगवा ?
गंगाराम का नाम जाने कब गंगवा बन गया। उसे नहीं मालूम?
गंगवा के ना कोई सुधि लेने वाला था और ना ही आगे पीछे कोई रिश्तेदार।
गांव में दिनकर बाबू और गंगवा लगभग सम उम्र। दिनकर जी के यहां सालों से काम करते-करते गंगवा जाने कब उनके अपने परिवार का सदस्य बन गया था।
गंगवा को बचपन से ही कम सुनाई और बात नहीं कर पाने की वजह से कोई उसे ठीक से बात भी नहीं करता था और न ही कोई उसकी बातें सुनता था।
बिना सुने, बिना बोले ही गंगवा सबके मन के भाव को पहचान लेता था परंतु किसी ने उसकी अच्छाइयों की ओर कभी ध्यान नहीं दिया।
दिनकर बाबू के यहां काम करते-करते दोनों साथ-साथ बड़े होकर बुजुर्ग भी हो गए।
दिनकर बाबू का बेटा-बहू बाहर विदेश में रहते थे। दिनकर को कोरोना के कारण अस्पताल में रखा गया। अब कोरोना की लड़ाई जीत कर वे घर आ गए थे।
आज सुबह से ही गांव में टीकाकरण के लिए शहर से टीम आई थीं।
दिनकर बाबू क्योंकि सरकारी नौकरी से रिटायर्ड थे और सभी बातों को समझते थे। अपनी पत्नी के साथ टीका के लिए अस्पताल जाना था वे गंगवा को अपने साथ ले गए।
अस्पताल लाइन में लगे दोनों पति-पत्नी को गांव वाले अच्छी तरह से पहचानते थे और आदर सत्कार भी करते थे। दोनों ने अपना नाम आगे कर पर्ची बढ़ाया, लगभग सभी लोग लाइन से खड़े थे परंतु मेडिकल टीम ने गंगवा को पीछे करते-करते लगभग बाहर ही कर दिया।
दिनकर जी और उनकी पत्नी एक दूसरे को देखते रह गए उसके नही बोलने और नहीं सुनने की गलतफहमी हो गई थी।
तभी दिनकर बाबू ने कहां आज मुझे गांव में टीकाकरण का सबसे पहला मौका आप लोगों ने दिया है। मेरा अपना तो कोई पूछने आज तक नहीं आया और जब मुझे कोई अपना कहने वाला नहीं था गंगवा ने उस समय ‘कोरोना योद्धा’ बनकर मेरा साथ दिया।
मुझसे पहले मेरे गंगवा को टीका लगना है। यह मेरा अपना है… कह कर दिनकर बाबू की आंखों से आंसू बहने लगे।
आज मैं सभी को बताता हूं.. मेरा जो कुछ भी है मेरे मरने के बाद में सारी संपत्ति और मेरी सारी जिम्मेदारी मैं आज गंगवा को सौंप रहा हूं।
गंगवा भाव विभोर हो सब बातों को समझ रहा था।
आज वह अपने आप को रोक नहीं सका दोनों बाँहें फैलाकर दौड़ कर दिनकर जी को गले लगा लिया।
अस्पताल के कर्मचारियों ने तालियों से स्वागत किया। गंगवा आज दोनों हाथ उठा कर ऊपर ईश्वर को शायद शुक्रिया अदाकर रहा था। इस सब बातों को सुनने के लिए वह कब से तरस रहा था।
वह अब अकेला नहीं उसका अपना परिवार है। और सबसे पहले टीका ‘गंगवा बाबू’ को लगा।
दिनकर जी की बातों को बिना सुने भी गंगवा की आंखों से अश्रुं धारा बहने लगी।
(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादकश्री विजय कुमार जी की लघुकथा “युक्ति”।)
☆ लघुकथा – युक्ति ☆
प्रमोद के आगे चलने वाली कार के चालक ने अपनी कार को सड़क पर एक तरफ करके रोक दिया था, परन्तु फिर भी उसकी कार का इतना हिस्सा सड़क पर ही था कि प्रमोद बड़ी मुश्किल से अपनी बाइक को बचा पाया।
पीछे बैठे उसके दोस्त ने एकदम गुस्से से प्रतिक्रिया देते हुए कहा, “…अभी इसकी ऐसी की तैसी करता हूँ और गाड़ी हटवाता हूँ सड़क पर से…।”
दोस्त गया और कार वाले से बहस करने लगा, “भाई साहब, क्या आपने बीच सड़क में कार खड़ी कर दी है, अभी हमारी टक्कर हो जाती और चोट लग जाती…। गाड़ी एक तरफ नहीं कर सकते क्या, इतनी जगह पड़ी है..?”
कार वाला भी शायद लड़ने की मनोदशा में था, गुस्से से बोला, “तुम देख कर नहीं चल सकते क्या? नहीं करता एक तरफ क्या कर लोगे?”
दोस्त को एकदम से कुछ न सूझा। वह आवेश में कुछ बोलने ही वाला था कि प्रमोद ने दोस्त के कंधे को दबा कर उसे चुप रहने का संकेत देते हुए कार वाले को कहा, “बात वो नहीं है जो आप समझ रहे हैं भाई साहब. दरअसल यह चलती सड़क है, कहीं ऐसा न हो कि कोई दूसरा कार या ट्रक वाला आपकी गाड़ी को ठोक कर चला जाए और आपका खामखाह का नुकसान हो जाए। हम तो बस इसलिए…।”
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#4 – दो भाई ☆ श्री आशीष कुमार☆
दो भाई थे। परस्पर बडे़ ही स्नेह तथा सद्भावपूर्वक रहते थे। बड़े भाई कोई वस्तु लाते तो भाई तथा उसके परिवार के लिए भी अवश्य ही लाते, छोटा भाई भी सदा उनको आदर तथा सम्मान की दृष्टि से देखता।
पर एक दिन किसी बात पर दोनों में कहा सुनी हो गई। बात बढ़ गई और छोटे भाई ने बडे़ भाई के प्रति अपशब्द कह दिए। बस फिर क्या था ? दोनों के बीच दरार पड़ ही तो गई। उस दिन से ही दोनों अलग-अलग रहने लगे और कोई किसी से नहीं बोला। कई वर्ष बीत गये। मार्ग में आमने सामने भी पड़ जाते तो कतराकर दृष्टि बचा जाते, छोटे भाई की कन्या का विवाह आया। उसने सोचा बडे़ अंत में बडे़ ही हैं, जाकर मना लाना चाहिए।
वह बडे़ भाई के पास गया और पैरों में पड़कर पिछली बातों के लिए क्षमा माँगने लगा। बोला अब चलिए और विवाह कार्य संभालिए।
पर बड़ा भाई न पसीजा, चलने से साफ मना कर दिया। छोटे भाई को दुःख हुआ। अब वह इसी चिंता में रहने लगा कि कैसे भाई को मनाकर लगा जाए इधर विवाह के भी बहित ही थोडे दिन रह गये थे। संबंधी आने लगे थे।
किसी ने कहा-उसका बडा भाई एक संत के पास नित्य जाता है और उनका कहना भी मानता है। छोटा भाई उन संत के पास पहुँचा और पिछली सारी बात बताते हुए अपनी त्रुटि के लिए क्षमा याचना की तथा गहरा पश्चात्ताप व्यक्त किया और प्रार्थना की कि ”आप किसी भी प्रकार मेरे भाई को मेरे यही आने के लिए तैयार कर दे।”
दूसरे दिन जब बडा़ भाई सत्संग में गया तो संत ने पूछा क्यों तुम्हारे छोटे भाई के यहाँ कन्या का विवाह है ? तुम क्या-क्या काम संभाल रहे हो ?
बड़ा भाई बोला- “मैं विवाह में सम्मिलित नही हो रहा। कुछ वर्ष पूर्व मेरे छोटे भाई ने मुझे ऐसे कड़वे वचन कहे थे, जो आज भी मेरे हृदय में काँटे की तरह खटक रहे हैं।” संत जी ने कहा जब सत्संग समाप्त हो जाए तो जरा मुझसे मिलते जाना।” सत्संग समाप्त होने पर वह संत के पास पहुँचा, उन्होंने पूछा- मैंने गत रविवार को जो प्रवचन दिया था उसमें क्या बतलाया था ?
बडा भाई मौन ? कहा कुछ याद नहीं पडता़ कौन सा विषय था ?
संत ने कहा- अच्छी तरह याद करके बताओ।
पर प्रयत्न करने पर उसे वह विषय याद न आया।
संत बोले ‘देखो! मेरी बताई हुई अच्छी बात तो तुम्हें आठ दिन भी याद न रहीं और छोटे भाई के कडवे बोल जो एक वर्ष पहले कहे गये थे, वे तुम्हें अभी तक हृदय में चुभ रहे है। जब तुम अच्छी बातों को याद ही नहीं रख सकते, तब उन्हें जीवन में कैसे उतारोगे और जब जीवन नहीं सुधारा तब सत्सग में आने का लाभ ही क्या रहा? अतः कल से यहाँ मत आया करो।”
अब बडे़ भाई की आँखें खुली। अब उसने आत्म-चिंतन किया और देखा कि मैं वास्तव में ही गलत मार्ग पर हूँ। छोटों की बुराई भूल ही जाना चाहिए। इसी में बडप्पन है।
उसने संत के चरणों में सिर नवाते हुए कहा मैं समझ गया गुरुदेव! अभी छोटे भाई के पास जाता हूँ, आज मैंने अपना गंतव्य पा लिया।”
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर एक हृदयस्पर्शी लघुकथा। मानव जीवन अमूल्य है और हमारी विचारधारा कैसे उसे अमूल्य से कष्टप्रद बनाती है यह पठनीय है । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को एक विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 61 ☆
☆ लघुकथा – बेडियाँ ☆
मैं ऐसी नहीं थी, बहुत स्मार्ट हुआ करती थी अपनी उम्र में – वह हँसकर बोली। यह हमारी पहली मुलाकात थी और वह थोडी देर में ही अपने बारे में सब कुछ बता देना चाहती थी। वह खटाखट इंगलिश बोल रही थी और जता रही थी कि हिंदी थोडी कम आती है। हमारे परिवार में किसी के कहीं भी आने जाने पर कोई रोक – टोक नहीं थी, खुले माहौल में पले थे। शादी ऐसे घर में हुई जहाँ पति को मेरा घर से बाहर निकलना पसंद नहीं था। बहुत मुश्किल लगा उस समय, अकेले में रोती थी लेकिन क्या करती, समेट लिया अपनेआप को घर के भीतर। मेरी दुनिया घर की चहारदीवार के भीतर पति और बच्चों तक सीमित रह गई।
बच्चे बडे हो गए। बेटी की शादी कर दी और बेटा विदेश चला गया। अपनी जिम्मेदारी पूरी कर चैन की साँस ली ही थी कि पति एक दुर्घटना में चल बसे। जिनके इर्द- गिर्द मेरी दुनिया सिमट गई थी, वे सहारे ही अब नहीं रहे। अब बच्चे समझाते हैं मम्मी घर से बाहर निकलो, लोगों से मिलो, बात करो, अकेली घर में बंद मत रहो। फीकी सी हँसी के साथ बोली – अब कैसे समझाऊँ इन्हें कि चालीस साल की इन बेडियों को इतनी जल्दी कैसे काटा जा सकता है ?
मैं चुपचाप उसकी बातें सुन रही थी, मेरी आँखों के सामने एक बिंब उभर रहा था चार पैरवाले पशु का, जिसके दो पैर रस्सी से बाँध दिए गए थे।