हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन# 62 – हाइबन – अफीम ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक हाइबन   “अफीम । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन  # 62 ☆

☆ अफीम ☆

अफीम को काला सोना भी कहते हैं । भारत में राजस्थान और मध्यप्रदेश के सीमावर्ती जिले चित्तौड़गढ़ व  नीमच में इसकी भरपूर पैदावार होती है। समस्त प्रकार की दवाएं इसी से बनती है । इसे ड्रग का मूल स्रोत भी कह सकते हैं । इस के फल पर चीरा लगाकर इसे निकाला जाता है। जिसे अफीम लूना कहते हैं । इस फल से पोस्तादाना मिलता हैं । फल का खोल नशे में उपयोग लिया जाता हैं ।

एक फल डोड़े में 4 से 5 चीरे लगाए जाते हैं। एक बार के चीरे में 4 से 5 चीरे लगते हैं। दूसरे दिन सुबह इसी अफीम के दूध को एक विशेष प्रकार के चम्मच से एकत्रित किया जाता है।

अफीम के खेत में सामान्य व्यक्ति आधे घंटे से ज्यादा खड़ा नहीं हो सकता है। अफीम के द्रव की सुगंध से उसे चक्कर आने लगते हैं और वह बेहोश होकर गिर जाता है। मगर इस कार्य में संलग्न व्यक्ति आराम से बिना थकावट के कार्य करते रहते हैं।

अधिकांश बड़े स्मगलर इसी की तस्करी करते हैं । यह सरकारी लाइसेंस के तहत  ₹1500 से लेकर ₹2500 किलो में खरीद कर संग्रहित की जाती है, जबकि तस्कर इसी मात्रा के एक से डेढ़ लाख रुपए तक देते हैं।

खेत में डोड़ें~

अफीम लू रही हैं

दक्ष बालिका ।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 62 – भीगे रिश्ते ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  मानवीय संवेदनशील रिश्तों पर आधारित एक अतिसुन्दर एवं सार्थक लघुकथा  “भीगे रिश्ते।  इस सार्थक  एवं  संवेदनशील लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 62 ☆

☆ लघुकथा – भीगे रिश्ते

 विरोचनी बहुत प्यार करती थी अपने भैया से। न मां जाई और नहीं राखी का बंधन। परंतु जब से गांव से विवाह होकर आई थी, पति के खास दोस्त प्रधान से उसका भाई बहन का रिश्ता बन चुका था।

प्रधान पति देव का एक मात्र खास दोस्त पहली बार जब वह विरोचनी के घर आया।  वह अनायास ही वह देखती रह गई।

क्योंकि वही कद काठी वही मिलती-जुलती सूरत। जैसे उसका अपना भाई गांव में है। विरोचनी ने उसे भैया… कहा और बोली….. शायद सबसे दूर अपने गांव से यहां मुझे आपके रूप में  भाई मिल गया।

बहुत मित्रता थी श्रीकांत और प्रधान में। एक साथ आना – जाना। हमेशा दुख – सुख में शामिल होना। कभी-कभी तो ऐसा होता था कि पति- पत्नी के झगड़ों में भी प्रधान ही निपटारा करता था।

श्रीकांत भी अपने दोहरे रिश्ते से खुश था, क्योंकि विरोचनी को बहुत प्यार करता था। उसे लगता था उसे अपने भाई के रूप में उसका दोस्त मिल गया है।

प्रधान भैया अपने पारिवारिक कारणों की वजह से विवाह नहीं किए थे। और ना ही करना चाहते थे।

दोनों दोस्तों में बहुत ज्यादा प्यार था। सप्ताह में एक दिन ऑफिस से प्रधान विरोचनी और उनके दोनों छोटे बच्चों के लिए कुछ ना कुछ जरूर लेकर आता था। कभी बारिश में भीग जाए तो श्रीकांत के कपड़े पहन कर चला जाता था। कभी जरूरत पड़े तो श्रीकांत प्रधान के घर पर ही खाना खाकर आ जाता था।

ऑफिस में कुछ दिनों से लगातार उठा-पटक चल रही थी। किसी बात को लेकर बड़े अधिकारी के बीच श्रीकांत की अच्छी खासी बहस चल पड़ी। परंतु प्रधान देखता रहा कुछ भी नहीं बोला। इस बात से श्रीकांत थोड़ा चिढ़ गया और और दोस्तों के बीच मनमुटाव हो गया।

आना-जाना बंद, बातचीत बिल्कुल बंद। विरोचनी कभी अपने पति से पूछती…. कि भैया क्यों नहीं आ रहे हैं?? वह कह देता…. आजकल ऑफिस में काम बहुत हो गया है शायद इसलिए समय नहीं निकाल पा रहा।

एक दिन अचानक अस्पताल में प्रधान और श्रीकांत – विरोचनी की मुलाकात हो गई। बहन ने भैया को देखते ही कहा…. आप घर क्यों नहीं आ रहे हैं? घर आइए मैं जल्दी में हूँ, बाकी बातें घर पर होंगी। परंतु दोस्तों के बीच कोई संवाद नहीं था।

एक दिन बहुत जोरों की बारिश हो रही थी। सर से पांव तक प्रधान भैया भीगे हुए घर आए। विरोचनी ने देखा खुश होकर दरवाजे से बोली…. अंदर आइए परंतु प्रधान ने बहाना बनाया और बोला… मैं बारिश में बहुत भीगा हुआ हूं। फर्श गीला खराब हो जायेगा। यह बच्चों का सामान और एक पॉलिथीन में कुछ खाने का पैकेट लेकर दे दिया और जाने लगे।

विरोचनी ने उसके हाव-भाव को देखकर कहा… आज सचमुच आप बारिश से भीगे हैं। अभी तक आप रिश्ते से भीगे थे।

पलट कर वापस जाने की प्रधान की हिम्मत नहीं हुई। बरसाती पहने पहने ही वह अंदर आकर कुर्सी पर बैठ गया और कह उठा… मुझे माफ करना बहन। कमरे के अंदर श्रीकांत पेपर पढ़ रहा था। आवाज सुन बाहर आ गया और बोला.. दोस्त भीगे फर्क तो अभी सूख जाएंगे।और साफ भी हो जायेगा। परंतु अभी तक जो मन सूख रहा था उसे तुमने फिर से खींचकर हरा-भरा गिला कर दिया।

विरोचनी को कुछ समझ नहीं आया। श्रीकांत ने ठहाके लगाते हुए कहा.. भैया आए हैं गरमा गरम पकोड़े और चाय का इंतजाम करो। अभी लाई.. और फिर हँसी गूँज उठी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही -लोकनायक रघु काका-4 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  एक धारावाहिक कथा  “स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही  -लोकनायक रघु काका ” का द्वितीय  भाग।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही  -लोकनायक रघु काका-4

अब तूफ़ान थम चुका था। उनके सारे सपने बिखर गये थे। वे वापस  लौट चलें थे।  अपने गाँव की उन गलियों की ओर जिसके निवासियों ने उन्हें अपार स्नेह दिया था। वहीं पर उनके अपने ने घृणा नफरत का उपहार दिया था।उन्हें प्रांगण से ‌बाहर निकलता देख रामखेलावन की जान में जान आई थी,और तुरंत मंचासीन हो अपनी कुर्सी संभाल चुके थे। प्रतियोगियों को पुरस्कृत भी किया था।  लेकिन उनके हृदय का सारा उत्साह जाता रहा था।  उन दोनों बाप बेटों के मन में अपने ही विचारों के  अंतर्द्वंद्व की  आँधियां चल रही थी।  दोनों की व्यथा अलग अलग थी। रामखेलावन सोच रहे थे कि यही स्थिति रही तो एक न एक दिन बूढ़ा बेइज्जती कर ही देगा। पिता जी के आचरण से मुझे अपमानित होना पड़ेगा। उन्होंने अपने मन‌ में झूठी शानो-शौकत तथा बड़प्पन का दंभ पाल लिया था।वे शायद यह भूल चुके थे कि वह आज जो कुछ भी है,वह रघूकाका के त्याग तपस्या व व्यवहार का परिणाम था। उसी के चलते ऊँचा ओहदा ऊँची कुर्सी मिली थी। वे आज दृढ़ निश्चय कर घर को चले थे कि अब और नहीं वे आज ही बुढऊ की ढोल खूंटी पर टांग देंगे। एक तरफ जहां रामखेलावन के‌ हृदय में आक्रोश की ज्वाला क्षोभ का लावा उबाल मार रहा था, वहीं  रघूकाका किसी हारे हुए जुआरी की तरह  ‌बोझिल कदमों से घर लौट रहे थे

ऐसा लगा जैसे ‌जीवन के जुये में एक ही दांव पर वे अपना सब कुछ अपनी ‌सारी पूँजी एक बार में ही हार बैठे हों। आज चोट बलिष्ठ शरीर पर नहीं भावुक दिल पर लगी थी। वे सोच रहे थे कि काश उस दिन अंग्रेजों की एक गोली उनके छाती में उतर गई होती तो अपमान जनक जिंदगी से सम्मानजनक मौत भली होती। इस प्रकार भावनाओं के भंवर में ‌डूबते उतराते ही रघूकाका घर  पहुँचे थे। तब तक राम खेलावन का तांगा भी घर के दरवाजे पर आ लगा था।

लालटेन की‌ पीली जलती हुई लौ की रोशनी के साये में उन दोनों बाप-बेटे का‌ सामना हुआ था।

एक ही रोशनी में बाप बेटों का रंग अलग अलग दिख रहा ‌था। रघूकाका का चेहरा जहां जूड़ी के बुखार के मरीजों की तरह पीला म्लान एवम् उतरा दीख रहा था, वहीं रामखेलावन के चेहरे की‌ भाव भंगिमा बता‌ रही थी कि आक्रोश की आग में  जलते दहकतेअंगारों सी लालिमा लिए रामखेलावन रूपी उगता सूरज आज अवश्य कहर ढायेगा ।

रघूकाका के सामने आते ही ना दुआ ना सलाम फट पड़े थे बारूद के गोले की तरह रामखेलावन – “का हो बुढ़ऊ!  काहे हमरे इज्जत के कबाड़ा करत हउआ,अब तक ई ढोल रख द, तोहार सारी कमी हम पूरा करब।”

अब रघूकाका से भी रहा नहीं गया।

उनके हृदय में पक कर मथ रहा भावनाओं का‌ फोड़ा फूट‌ पडा़ और वे भी अपने ‌ताव में आ गये और बोल पडे़ – “राम खेलावन जी, आज ई जे कुर्सी  तोहके मिलल ह, ई
एही ढोल के कमाई ह, हमें खुशी तो तब होत जब तूं सारे समाज के सामने सीना तान के कहता कि हम‌ एगो आल्हा गावे‌ वाला स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के लडिका हई, जेवन
अपने मेहनत अ इनके ‌परिश्रम के पसीना से इहा तक पहुंचल हइ,। औ अपने समाज के उदाहरन‌ बनता, लेकिन जे समाज में अपना बाप के बाप ना कहि‌ सकल उ बेटा के रिस्ता का निभाई,जा बेटा‌ तू आपन सम्मान के‌ जिनगी में सुखी रहा, हमें हमरे हाल पे छोडि दा  तू भले छूटि जईबा लेकिन  ई समाज अ ढोलक हम ना छोडि पाईब” इस ‌प्रकार रघूकाका के व्यंगबाणो ने रामखेलावन को आहत तो किया ही । निरूत्तर भी,और बह चली उस सेनानी की आंखों से अश्रु धारा और फिर एक बार लौट चलें अपनी‌ सहचरी  ढोल को कंधे पे‌ लटकाये नीम स्याह काले घने अंधेरे के बीच जीवन की पथरीली राहों पर अपने जीवन की नई राह तलाशने। उस राह पे चल पड़े उल्टे पांव जिस राह से चलकर वे घर आये थे।

उन्होंने उस नीम अंधेरी घनी  काली आज की ‌रात  अपने मन में मचलते अंतर्दद्व के साथ शिवान में खेतों बीच बने भग़्न शिवालय में ‌बिताने का निश्चय कर लिया था। आखिर वे जाते भी तो कहां ? राम खेलावन की उन्हें रोकने की हिम्मत नहीं हुई थी। वो सोच रहे थे कि कल की मंजिल सुबह की सूर्योदय के साथ नई उम्मीद के सहारे ढ़ूढ़ ही लेंगे ।
वो मंदिर के बरामदे में बैठे कुछ सोच रहे थे। गतिशील समय के साथ रात गहराती जा रही‌ थी और उसी गहराती रात के साथ रघूकाका के हृदय का अंतर्दद्व तीव्र हो चला था। उसी अंतर्दद्व में फँसे अपनी स्मृतियों डूबते चले गये थे। जब विचारों की गहनता बढ़ी तो रघूकाका के‌ स्मृतिपटल पर पत्नी का  चेहरा नर्तन कर उठा।  ऐसा लगा जैसे वे उन बीते पलों से संवाद कर उठे हो।

उन्हें पत्नी के साथ बिताए ‌पल हंसाने व रूलाने लगे थे।  सहसा उनके स्मृति में पत्नी के मृत्यु के समय का दृश्य उभर आया थाऔर जीवन के आखिरी पल में कहे पत्नी के शब्द याद आ रहे थे।

आखिरी समय में उनकी पत्नी ने प्यार से उनका हाथ थामते हुए आशा भरी नजरों से उन्हें देखते हुए कहा था “देखो जी रामखेलावन अभी बच्चा है इसे पाल पोस कर अच्छा इंसान ‌बनाना , . मेरे मरने पर इसी के‌ सहारे जीवन बिताना। अपना बुढ़ापा काटना। लेकिन दूसरी शादी मत करना।”

इसके बाद वह कुछ नहीं कह पाई क्यो कि रघूकाका ने उसको ओंठो पर अपना हाथ रख दिया।अब जीवन के आखिरी पलों में बिछोह‌ पीड़ा का भाव रघूकाका के हृदय में कटार की तरह चुभ रहे थे, जिसे सहने में वे असहाय नजर आ रहे थे। और फिर अगली सुबह उनकी पत्नी उनको रोता बिलखता छोड़ नश्वर संसार से बिदा हो गई।

क्रमशः …. 5

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

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हिंदी साहित्य – कथा-कहानी – ☆ शिक्षक दिवस विशेष – लघुकथा – स्टेटस ☆ – श्री सदानंद आंबेकर

श्री सदानंद आंबेकर 

 

 

 

 

(  श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर प्रवास श्री सदानंद आंबेकर  जी  द्वारा शिक्षक दिवस पर रचित विशेष लघुकथा  ‘स्टेटस’  हमें वर्तमान जीवन में मानवीय दृष्टिकोण के कटु सत्य से रूबरू कराती है । बंधुवर  श्री सदानंद जी  की यह लघुकथा पढ़िए और स्वयं तय करिये। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन ।

शिक्षक दिवस विशेष – लघुकथा– स्टेटस


” भाईयों और बहिनों, शिक्षक तो भगवान से भी बड़ा होता है, भगवान जन्म देता है पर शिक्षक तो मनुष्य को गढ़ता है। आज शिक्षक दिवस पर  जिन रामस्वरूप जी के सम्मान हेतु हम सब एकत्रित हैं उन्हीं ने मुझ अनगढ़ को बनाया है जिसके कारण आज मैं सफलता की इस चोटी पर हूं। यदि ये न होते तो मेरा जीवन क्या और कहां होता, इसलिये धन्य हैं ये हमारे शिक्षक । काश  मेरे घर में भी इन जैसा कोई शिक्षक होता तो मेरा जीवन सफल हो जाता।”

तालियों की गड़गड़ाहट के बीच शहर के सराफा संघ, स्टाॅक एक्सचेंज और अनेक संस्थाओं के अध्यक्ष, नगर सेठ मनोहर लाल का भाषण  पूरा हुआ।

आज शिक्षक दिवस के अवसर पर सम्मान समारोह की अध्यक्षता कर रहे सेठ मनोहरलाल ने हाथ जोडते हुये समारोह से बिदाई ली और कार की ओर बढने लगे। पंडाल से निकलते हुये उन्होंने देखा कि  रामस्वरूप जी पीछे चल रहे उनके सचिव दीक्षित से कुछ खुसुर-पुसुर कर रहे हैं।

सबके कार में बैठते ही कार चल पडी तो मनोहरलाल जी ने आगे बैठे दीक्षित से पूछा- अरे दीक्षित, वो मास्टर तुमसे क्या बात कर रहा था भाई ?

दीक्षित ने पीछे मुड कर कहा – अरे सर, आपकी बातों से प्रभावित होकर मास्टर रामस्वरूप जी ने मुझे कहा कि उनका एक बेटा है जो बाहर शासकीय हाई स्कूल में शिक्षक है और यदि हम चाहें तो आपकी बिटिया से उसके विवाह के लिये बात कर सकते हैं। उन्हें बडा अच्छा लगेगा।

एक रहस्यमय मुस्कुराहट के साथ मनोहरलाल ने कहा- पर हमें अच्छा नहीं लगेगा दीक्षित ! अरे भाई शहर के अरबपति सेठ मनोहरलाल का दामाद एक मास्टर का छोरा, वो खुद भी मास्टर !! जितने कमरे उनके घर में हैं उससे ज्यादा तो मेरे यहां बाथरूम हैं दीक्षित !! ठीक है, उन्होंने मुझे स्कूल में पढाया है पर पैसा तो मैंने अपनी मेहनत से कमाया है। भाषण देना अलग बात है, फिर सोचो लोग क्या कहेंगे मुझे, अरे आखिर हमारा भी तो कोई स्टेटस है ।

दीक्षित चेहरे पर असमंजस के भाव लिये उन्हें देखता रह गया।

©  सदानंद आंबेकर

शान्ति कुञ्ज, हरिद्वार (उत्तराखंड)

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ समझ समझकर.. ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ समझ समझकर.. ☆

प्रातः भ्रमण कर रहा हूँ। देखता हूँ कि लगभग दस वर्षीय एक बालक साइकिल चला रहा है। पीछे से उसी की आयु की एक बिटिया बहुत गति से साइकिल चलाते आई। उसे आवाज़ देकर बोली, ‘देख, मैं तेरे से आगे!’ इतनी-सी आयु के लड़के के ‘मेल ईगो’ को ठेस पहुँची। ‘..मुझे चैलेंज?… तू मुझसे आगे?’  बिटिया ने उतने ही आत्मविश्वास से कहा, ‘हाँ, मैं तुझसे आगे।’ लड़के ने साइकिल की गति बढ़ाई,.. और बढ़ाई..और बढ़ाई पर बिटिया किसी हवाई परी-सी.., ये गई, वो गई। जहाँ तक मैं देख पाया, बिटिया आगे ही नहीं है बल्कि उसके और लड़के के बीच का अंतर भी निरंतर बढ़ाती जा रही है। बहुत आगे निकल चुकी है वह।

कर्मनिष्ठा, निरंतर अभ्यास और परिश्रम से लड़कियाँ लगभग हर क्षेत्र में आगे निकल चुकी हैं। हमारी शिक्षा व्यवस्था लड़के का विलोम लड़की पढ़ाती है। लड़का और लड़की, स्त्री और पुरुष विलोम नहीं अपितु पूरक हैं। एक के बिना दूसरा अधूरा। महादेव यूँ ही अर्द्धनारीश्वर नहीं कहलाए। कठिनाई है कि फुरसत किसे है आँखें खोलने की।

कोई और आँखें खोले, न खोले, विवाह की वेदी पर लड़की की तुला में दहेज का बाट रखकर संतुलन(!) साधनेवाले अवश्य जाग जाएँ। आँखें खोलें, मानसिकता बदलें, पूरक का अर्थ समझें अन्यथा लड़कों की तुला में दहेज का बाट रखने को रोक नहीं सकेंगे।

समझ समझकर समझ को समझो।…भाई लोग, क्या समझे!

©  संजय भारद्वाज 

प्रात: 7:43 बजे, 3.9.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कथा-कहानी – ☆ अगले बरस तू जल्दी आ ☆ – श्री सदानंद आंबेकर

श्री सदानंद आंबेकर 

 

 

 

 

 

(  श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर प्रवास श्री सदानंद आंबेकर  जी  द्वारा रचित यह समसामयिक लघुकथा ‘अगले बरस तू जल्दी आ’ हमें वर्तमान जीवन के कटु सत्य से रूबरू कराती है । बंधुवर  श्री सदानंद जी  की यह लघुकथा पढ़िए और स्वयं तय करिये। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन ।

 लघुकथा  – अगले बरस तू जल्दी आ

पवित्र कैलाश  पर्वत की श्वेत चोटी पर सविता देवता की प्रथम रश्मियों के आगमन के साथ ही भगवान शिव  गुफा से बाहर आये तो देखा गणाधीश  विनायक का पृथ्वी से आगमन हो चुका है।

भोले नाथ से प्रसन्न वदन से पूछा – कहो वत्स इस बार कैसी रही पृथ्वी की यात्रा ?

पिता का चरण वंदन कर गणनाथ ने शून्य  में देखते हुये अनमने भाव से कहा – ठीक ही रही पिताश्री।

महादेव ने कुछ चिंता से पूछा – क्या बात है पुत्र कुछ अप्रसन्न दिख रहे हो? क्या इस बार भारत भू पर तुम्हारी उचित उपासना नहीं हुई?

मंगलमूर्ति ने नीची दृष्टि से ही उत्तर दिया – उपासना तो सदैव की भांति हुई किंतु इस बार उस पुण्यभूमि भारतवर्ष  एवं शेष  क्षेत्रों में स्थिति को देखकर मुझे मानव पर बहुत दया आई।

भगवान गंगाधर ने पूछा – अरे, ऐसा क्या हो गया ? सब कुशल तो है ? किसी देवता ने कोई श्राप आदि तो नहीं दिया ?

गणनाथ ने बहुत धीमे स्वर कहा – ऐसा तो लगता नहीं है, पर भारत माता के सब पुत्र बहुत कष्ट में हैं। इन दिनों पूरी धरती पर एक भयावह बीमारी चल रही है जिसके कारण भगवान ब्रह्मा की बनाई धरती पर हाहाकार मचा हुआ है। इस बार भारतवर्ष  में मेरी स्थापना भी बहुत कम स्थानों पर हुई है। इसके अतिरिक्त पूरे देश  में मुझे जलप्रलय की सी स्थिति दिखाई दी, चहुंओर असुरक्षा, महिला उत्पीडन, हत्या की अनेक घटनायें, बड़े बड़े  देश एक दूसरे से युद्ध को उद्यत दिख रहे थे। उस बीमारी के संकट के कारण गरीब मनुष्य  की तो छोड़ें पूरे संसार की अर्थव्यवस्था संकट में आ गई है। अनेकानेक लोगों के सेवा और व्यवसाय बंद हो गये हैं। कुल मिलाकर बहुत ही चिंताजनक स्थिति निर्मित दिखाई दी और जब कल अंतिम दिन बिदाई के समय भक्तों ने कहा – अगले बरस तू जल्दी आ तो मेरा मन भर आया कि ऐसी विपरीत स्थिति में मैं कैसे फिर जाऊंगा !!!!  पिताश्री ये ऐसी स्थिति क्यों हुई है ?

यह सुनकर भोलेनाथ ने गंभीर होकर उत्तर दिया – तो यह बात है , पुत्र, यह सब मानव का ही किया हुआ है, अनियमित-असंयमित जीवन, प्रकृति का दोहन, अति लालसा के कारण अपराध, इन सबकी परिणति इस रूप में है। इसके लिये मनुष्य  को स्वयं ही प्रयास करने होंगे, अपना दृष्टिकोण बदलना होगा तो हम भी उनका साथ देंगे, अन्यथा मेरी बनाई हुई व्यवस्था के अनुसार मनुष्य  को महाविनाश  के लिये तैयार रहना होगा- – –
कहते कहते भगवान शिव  की मुख मुद्रा भी गंभीर होती चली गई।   .  .  .  .  .  .  .  .  .

©  सदानंद आंबेकर

शान्ति कुञ्ज, हरिद्वार (उत्तराखंड)

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 43 ☆ लघुकथा – भारत की भी सोचो, भाई ! ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी स्त्री  विमर्श  पर आधारित लघुकथा भारत की भी सोचो, भाई !।  स्त्री जीवन के  कटु सत्य को बेहद संजीदगी से डॉ ऋचा जी ने शब्दों में उतार दिया है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी  को जीवन के कटु सत्य को दर्शाती  लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 42 ☆

☆  लघुकथा – भारत की भी सोचो, भाई !

वह अमेरिका से कई साल बाद भारत वापस आया है। मुंबई  से बी.ई. करने के बाद एम.एस. करने के लिए अमेरिका गया था। माता-पिता ने अपनी हैसियत से कहीं अधिक खर्च किया था  उसे विदेश भेजने में। जी-जान लगा दी उन्होंने, बीस लाख फीस और रहने-खाने का खर्च अलग से। नौकरी करनेवालों के लिए  इतना खर्च उठाना आसान नहीं होता फिर भी यह सोचकर कि विदेश जाएगा तो उसका भविष्य संवर जाएगा, भेज दिया। भारत में आजकल यही चल रहा है, घर- घर की कहानी है – बच्चे विदेश में और माता- पिता अकेले पडे बुढापा काट रहे हैं। इंजीनियरिंग पूरी करो, बैंक तैयार बैठे हैं लोन देने के लिए, लोन लो और एम.एस. के लिए विदेश का रुख, फिर डॉलर में सैलरी और प्रवासी-भारतीय बन जाओ।

उसे देखकर अच्छा लगा- रंग निखर गया था और शरीर भी भर गया था। उसकी माँ भी बहुत खुश थी, बार-बार कहतीं- “अमेरिका में धूल नहीं है ना ! इसे डस्ट से एलर्जी है, यहाँ था तो बार-बार बीमार पड़ता था। जब से अमेरिका पढ़ने गया है बीमार ही नहीं पड़ा, हेल्थ भी इंप्रूव हो गई। वहाँ घर, कॉलेज हर जगह एअरकंडीशन रहता  है, हीटिंग सिस्टम है, बहुत पॉश है सब कुछ वहाँ।” भारत की जैसी गंदगी नहीं है वहाँ।”

बेटा भी धीरे से बोला- आंटी ! यहाँ तो आए दिन बिजली, पानी की समस्या से ही जूझते रहो। ट्रैफिक में  घुटन होने लगती हैं उफ् कितनी भीड है इंडिया में !

बात अमेरिका की शिक्षा व्यवस्था पर होने लगी। मैंने कहा- सुना है अमेरिका में बच्चे पढाई पर ज्यादा ध्यान नहीं देते हैं । अमेरिकी राष्ट्रपति  ने अपने भाषण में भी कहा था कि सब सुविधाएं होते हुए भी अमेरिकी  युवा उच्च शिक्षा नहीं प्राप्त कर रहे हैं। जबकि दूसरे देशों के विद्यार्थी यहाँ से पढकर जाते हैं।

वह बोला- हाँ आँटी ! अमेरिका में अधिकतर चीन, जापान, भारत तथा अरब देशों के ही विद्यार्थी हैं। इनसे अमेरिका को आर्थिक लाभ बहुत होता है।

मैंने कहा- हाँ ये तो ठीक है पर —   वह तपाक से बोला- चिंता की कोई बात नहीं है, कुछ सालों बाद सब ठीक हो जाएगा । मेरे जैसे जो भारतीय विद्यार्थी वहाँ हैं, वे अमेरिका में ही बस जाएंगे। उनके बच्चे होंगे तो उनकी भारतीय सोच अलग होगी, वे पढेंगे, उच्च शिक्षा भी प्राप्त करेंगे। धीरे-धीरे अमेरिका की यह समस्या खत्म हो जाएगी। बोलते समय वह बड़े आत्मविश्वास के साथ मुस्कुरा रहा था।

मैं सोच रही थी कि अमेरिका की समस्या को सुलझाने में तत्पर आज के  भारतीय युवक  अपने देश की समस्याओं के बारे में कभी कुछ सोचते भी हैं ?

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 61 – अनंत रुप ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  एक अतिसुन्दर एवं सार्थक लघुकथा  “अनंत रुप।   अनंत चतुर्दशी के अवसर पर रचित यह रचना  पौत्र के सार्थक प्रयास से पारिवारिक मिलन को आजीवन अविस्मरणीय बना देने के कथानक पर आधारित है। इस सार्थक  एवं समसामयिक लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 61 ☆

☆ लघुकथा – अनंत रुप

आज फिर अनंत चतुर्दशी के दिन छोटे से घर पर ‘गणपति बप्पा’ के सामने दीपक जला कंपकंपाते हाथों से अपने बेटे के फोटो को देखकर आंखें भर आई। बूढ़ी आँखों से आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। पतिदेव ने गुस्से से कहा…. कब तक रोती रहोगी, वह अब कभी नहीं आएगा। हम मर भी जाएंगे तो भी नहीं आएगा। पर सयानी बूढ़ी अम्मा ने जोर से आवाज लगाई और चश्मा पोंछ कर बोली…. “आएगा। मेरा बेटा जरूर आएगा। मुझसे नाराज है पर बिछड़ा नहीं है। उसका गुस्सा होना जरूरी है पर वह हमसे दूर नहीं है।”

बारिश होने लगी थी। दीपक की लौ भी टिम टिम करने लगी। तेज हवा के चलते दरवाजा बंद करने जैसे ही बूढ़े बाबा ने हाथ बढ़ाया, दरवाजे पर हाथ किसी ने पकड़ लिया … “दादाजी” और जैसे चारों तरफ घंटी बजने लगी कंपकंपाते हाथों से छूकर आँखों से निहारा। उसी की तरह ही तो है। हाँ, यह अपना बेटा ही तो है????  परंतु दादाजी क्यों कह रहा है। आयुष ने चरण स्पर्श कर सब बातें बताई।

“पापा की डायरी से आपका नाम पता लिखकर मैं हॉस्टल से चला आया हूँ। अभी पापा को पता नहीं है। पोते ने जैसे ही कहा दादी कुछ देर सुनकर बोली…. “बेटा तुम अभी जाओ, नहीं तो कुछ अनर्थ हो जाएगा। तुम्हारे पापा बहुत ही जिद्दी हैं।” वह तो जैसे ठान कर आया हुआ था। जिद्द पकड़ ली कहा… “अभी और इसी वक्त आप मेरे साथ शहर चलेंगे। पोते की जिद से दादा दादी शहर रवाना हो गए।”

घर के दरवाजे पर जैसे ही पहुँचे बैंड बाजा बजने लगा। उन्होंने कहा…. “यहाँ क्या हो रहा है आयुष बेटा?” आयुष ने कहा… “दादा दादी आप अंदर तो चलिए यह आपका ही घर है। सारी प्लानिंग मम्मी- पापा ने मिलकर किया है।”  बेटे बहू ने भी माँ बाबूजी को घर के अंदर ले गए। बेटे ने कहा… “पिता जी आपकी बात और मेरी बात दोनों की जीत हो गई। परंतु, मेरे बेटे ने अनंत डिग्री के साथ अपनी खुशियों को लौटा लाया और उसने किसी की नहीं सुना। मेरी सारी गलतियों को क्षमा करें।” यह कह कर वह पिताजी से लिपट कर खुशी से रो पड़ा। पिताजी भी पुरानी बातें भूल बेटे को गले लगा गणपति बप्पा की जय जयकार करने लगे। बूढ़ी अम्मा कभी बेटे और कभी अपने पतिदेव को निहार कर गणपति बप्पा के अनंत रूप को प्रणाम कर मुस्कुराने लगी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ छुट्टी… ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ छुट्टी…☆

…माँ, हंपी का छोटा भाई संडे को पैदा हुआ है।

….तो!

…पर संडे को तो छुट्टी रहती है न?

माँ हँस पड़ी। बोली, ‘जन्म को कभी छुट्टी नहीं होती।’

फिर बचपन ने भी स्थायी छुट्टी ले ली, प्रौढ़ अवस्था आ पहुँची।

…काका, वो चार्ली है न..,

…चार्ली?

… आपके दोस्त खन्ना अंकल का बेटा, चैतन्य।

…क्या हुआ चैतन्य को?

…कुछ नहीं बहुत बोर है। इस उम्र में धार्मिक किताबें पढ़ता है, रिलिजियस चैनल देखता है, कल तो सत्संग भी गया था, कहते हुए एबी ठहाके मारकर हँसने लगा।

…लेकिन अभिजीत, सबको अपना रास्ता चुनने का हक है न।

…बट काका, अभी हमारी उम्र ऐश करने की है, मस्ती कैश करने की है। बाकी बातों के लिए तो ज़िंदगी बाकी पड़ी है।

हृदयविदारक समाचार मिला गत संडे को दुर्घटना में एबी के गुजर जाने का।

उसने लिखा, …’काल को छुट्टी नहीं होती।’

©  संजय भारद्वाज 

19.5.2019, रात्रि 3:52 बजे।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही -लोकनायक रघु काका-3 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  एक धारावाहिक कथा  “स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही  -लोकनायक रघु काका ” का द्वितीय  भाग।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही  -लोकनायक रघु काका-3

अब देश स्वतंत्रत हो गया था, रघु काका जैसे लाखों अनाम शहीदों की कुर्बानी रंग लाई थी तथा रघु काका की ‌त्याग तपस्या सार्थक ‌हुई, उनकी सजा के दिन पूरे हो चले थे,आज उनकी रिहाई का दिन था।  जेलके मुख्य द्वार के सामने आज बड़ी ‌भीड़ थी, लोग अपने नायक को अपने सिर पर बिठा‌अभिनंदन करने को आतुर दिख रहे थे। उनके बाहर आते ही वहां उपस्थित अपार जनसमूह ने हर हर महादेव के जय घोष तथा करतलध्वनि से मालाफूलों से लाद कर  कंधे पर उठा अपने दिल में बिठा लिया था । लोगों से इतना प्यार और सम्मान पा छलक पड़ी थी रघु काका की आँखें।

इस घटनाक्रम से यह तथ्य बखूबी‌साबित हो गया कि जिस आंदोलन को समाज के संभी वर्गों का समर्थन मिलता है, वह आंदोलन जनांदोलन बन जाता है, जो व्यक्तित्व सबके हृदय में बस मानस पटल पर छा जाता है , वह जननायक बन सबके दिलों पर राज करता है।

इस प्रकार समय चक्र मंथर गति से चलता रहा चलता रहा,और रघु काका जेल में बिताए यातना भरे दिनों  अंग्रेज सरकार  द्वारा मिली यातनाओं को भुला चले थे। और एक बार फिर अपने स्वभाव के अनुरूप कांधे पर ढोलक टांगें जीविकोपार्जन हेतु घर से निकल पड़े थे,यद्यपि उनके पुत्र राम खेलावन अच्छा पैसा कमाने लगे थे। वो नहीं चाहते थे कि रघु काका अब ढोल टांग भिक्षाटन को जाएँ । क्योंकि इससे उनमें हीनभाव पैदा होती लेकिन रघु तो रघु काका ठहरे। उन्हें लगता कि गांव ज्वार की गलियां, बड़े बुजुर्गो का प्यार, बच्चों की‌ निष्कपट हँसी अपने ‌मोह पाश  में बांधे अपनी तरफ खींच रहीं हों। इन्ही बीते पलों की स्मृतियां उन्हें अपनी ओर खींचती और उनके कदम चल पड़ते गांवों की गलियों की ओर।

आज महाशिवरात्रि का पर्व है, सबेरे से ही लोग-बाग जुट पड़े हैं भगवान शिव का जलाभिषेक करने। शिवबराती बन शिव विवाह के साक्षी बनने।  महाशिवरात्रि पर पुष्प अर्पित करने मेला अपने पूरे यौवन पर था। पूरी फिजां में ही दुकानों पर छनती कचौरियो जलेबियों की तैरती सौंधी सौंधी खुशबू जहाँ श्रद्धालु जनों की क्षुधा को उत्तेजित कर रही थी तो  कहीं बेर आदि मौसमी फलों ‌से दुकानें पटी पड़ी थीऔर कहीं घर गृहस्थी के सामानों से सारा बाज़ार पटा पड़ा था, तो कहीं जनसमूह भेड़ों ,मुर्गों,  तीतर, बुलबुल के लड़ाई का कौशल देखने में मशगूल था।  कहीं लोक कलाकारों के लोक नृत्य तथा लोकगीतों की स्वरलहरियां लोगों के बढ़ते कदमों को अनायास रोक रही थी। इन्ही सबके बीच मंदिर प्रांगण से गाहे-बगाहे उठने वाले हर-हर महादेव के जयघोष की तुमुल ध्वनि वातावरण में एक नवीन चेतना एवं ऊर्जा का संचार कर रही थी।

उन सबसे अलग -थलग पास के प्रा०पाठशाला पर कुछ अलग‌‌ ही ऱंग बिखरा पड़ा था। महाशिवरात्रि के अवकाश में विद्यालय में वार्षिक सांस्कृतिक प्रतियोगिता चल‌ रही थी, निर्णायक मंडल के मुख्य अतिथि जिले के मुख्य शिक्षाधिकारी श्री राम खेलावन को बनाया गया था। क्योंकि उनके ऊंचे पद के साथ एक स्वतंत्रता सेनानी का पुत्र होने का सम्मान भी जुड़ा था, जो उस समय मंचासीन थे। प्रतियोगिता में उत्कृष्ट प्रदर्शनकर्ता को संम्मानित भी राम खेलावन के हाथों होना था। प्रतियोगिता में एक से बढ़ कर एक धुरंधर प्रतियोगी अपनी कला प्रदर्शित कर‌ रहे थे।

ऐसे में सर्वोच्च प्रतिभागी का चयन मुश्किल हो रहा था।  एक कीर्तिमान स्थापित होता असके अगले पल ही‌ टूट जाता। उसी मेले में सबसे अलग-थलग जमीन पर आसन
ज़माये अपनी ढोल की थाप पर रघूकाका ने आलाप लेकर अपनी सुर साधना की‌ मधुर तान छेड़ी तो जनमानस विह्वल हो आत्ममुग्ध हो गया। उनकी आवाज़ का जादू तथा भाव प्रस्तुति का ज्वार सबके सिर चढ़ कर इस कदर बोल उठा कि वाह बहुत खूब, अतिसुंदर, अविस्मरणीय, लोगों के जुबान से शब्द मचल रहे थे कि तभी आई प्राकृतिक आपदा में सब ऱंग में भंग कर दिया।सब गुड़गोबर हो गया। पहले लाल बादल फिर उसके बाद तड़ित झंझा तथा काले मेघों के साथ ओलावृष्टि ने वो तांडव मचाया कि मेले में भगदड़ मच गई। जिसे जहां ठिकाना मिला वहीं दुबक लिया। उसी समय अपनी जान बचाने रघूकाका भी भाग चलें पाठशाला की तरफ। पाठशाला प्रांगण में घुसते ही सबसे पहले मंचासीन रामखेलावन से ही रघु काका की नजरें चार हुई थी,। लेकिन दो अपरिचितों की तरह रघु काका को देखते ही रामखेलावन ने अपनी निगाहें चुरा ली थी।  उनके कलेजे की धड़कन बढ़ गई, मुंह सूखने लगा कलेजा मुंह को आ गया। वे अज्ञात ‌भय तथा आशंका से थर-थर कांप रहे थे।  पसीने से तर-बतर बतर हो गये। उन्हें डर था कि कहीं ‌यह बूढ़ा मुझसे अपना रिश्ता सार्वजनिक कर के अपमानित न कर दे। इसलिए इन परिस्थितियों से बचने हेतु शौच के‌ बहाने रामखेलावन विद्यालय के ‍पिछवाडे छुप आकस्मिक परिस्थितियों से बचने का‌ प्रयास कर रहे थे।

रघु काका की अनुभवी निगाहों ने रामखेलावन के‌ हृदय में उपजे भय तथा अपने प्रति‌उपजे‌ अश्रद्धा के भावों को पहचान लिया था ।वो लौट पड़े थे।  थके थके पांवों बोझिल कदमों से मेले की तरफ़। दिल पे लगी आज की भावनात्मक चोट अंग्रेजों द्वारा दी गई यातना की चोट से ज़्यादा गहरी एवम् दुखदायी, जिसने आज उनके सारे हौसलों को तोड़ कर अरमानों का गला घोट दिया था।

क्रमशः …. 4

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

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