हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ समाज सेवा ☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

(आज  प्रस्तुत है  डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव जी  की एक सार्थक लघुकथा समाज सेवा।  

☆ लघुकथा – समाज सेवा ☆

 मेरी परिचित का फोन आया कि क्यों यह जब तक लॉकडाउन है तब तक हम बाइयों को काम करने के लिए नहीं बुला रहे हैं तो तुम तनख्वाह दोगी क्या?

…” मैंने कहा हां नहीं तो उनका गुजारा कैसे चलेगा।”

तो वह बोली ..”नहीं मैं तो नहीं दूंगी पैसे क्या पेड़ पर लगते है ।”

फोन रख कर मैंने सोचा हां ये क्यों देंगी कल ही तो इन्होंने फेसबुक, इंस्टाग्राम और व्हाट्स एप पर एक ग़रीब परिवार के चार लोगों के बीच खाने का 1 पैकेट देते हुए फोटो अपलोड की है इनकी समाज सेवा तो पूरी हो गई ।”

 

© डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

मो 9479774486

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य #83 ☆ लघुकथा – फ्री वाली चाय ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की एक विचारणीय एवं सार्थक कविता  ‘फ्री वाली चाय। इस सार्थक एवं अतिसुन्दर लघुकथा के लिए श्री विवेक रंजन जी  का  हार्दिकआभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 83 ☆

☆ लघुकथा फ्री वाली चाय ☆

देवेन जी फैक्ट्री के पुराने कुशल प्रबंधक हैं. हाल ही उनका तबादला कंपनी ने अपनी नई खुली दूसरी फैक्ट्री में कर दिया.

देवेन जी की प्रबंधन की अपनी शैली है, वे वर्कर्स के बीच घुल मिल जाते हैं, इसीलिये वे उनमें  लोकप्रिय रहते हुये, कंपनी के हित में वर्कर्स की क्षमताओ का अधिकाधिक उपयोग भी कर पाते हैं. नई जगह में अपनी इसी कार्य शैली के अनुरूप वर्कर्स के बीच पहचान बनाने के उद्देश्य से देवेन जी जब सुबह घूमने निकले तो फैक्ट्री के गेट के पास बनी चाय की गुमटी  में जा बैठे. यहां प्रायः वर्कर्स आते जाते चाय पीते ही हैं. चाय वाला उन्हें पहचानता तो नही था किन्तु उनकी वेषभूषा देख उसने गिलास अच्छी तरह साफ कर उनको चाय दी. बातचीत होने लगी. बातों बातों में देवेन जी को पता चला कि दिन भर में चायवाला लगभग २०० रु शुद्ध प्राफिट कमा लेता है. देवेन जी ने उसे चाय की कीमत काटने के लिये ५०० रु का नोट दिया, सुबह सबेरे चाय वाले के पास फुटकर थे नहीं. अतः उसने नोट लौटाते हुये पैसे बाद में लेने की पेशकश की.

उस दिन देवेन का जन्मदिन था, देवेन जी को कुछ अच्छा करने का मन हुआ. उन्होने प्रत्युत्तर में  नोट लौटाते हुये चायवाले से कहा कि वह  इसमें से अपनी आजीविका के लिये  दिन भर का प्राफिट २०० रु अलग रख ले और सभी मजदूरों को निशुल्क चाय पिलाता जाये. चायवाले ने यह क्रम शुरू किया, तो दिन भर फ्री वाली चाय पीने वालों का तांता लगा रहा. मजदूरों की खुशियो का पारावार न रहा.

दूसरे दिन सुबह सुबह ही एक पत्रकार इस खबर की सच्चाई जानने, चाय की गुमटी पर आ पहुंचा, जब उसे सारी घटना पता चली तो उसने चाय वाले की फोटो खींची और जाते जाते अपनी ओर से मजदूरों को उस दिन भी फ्री वाली चाय पिलाते रहने के लिये ५०० रु दे दिये. बस फिर क्या था फ्री वाली चाय की खबर दूर दूर तक फैलने लगी. कुछ लोगों को यह नवाचारी विचार बड़ा पसंद आ रहा था, पर वे ५०० रु की राशि देने की स्थिति में नहीं थे, अतः उनकी सलाह पर चाय वाले ने  काउंटर पर एक डिब्बा रख दिया, लोग चाय पीते, और यदि इच्छा होती तो जितना मन करता उतने रुपये डिब्बे में डाल देते. दिन भर में डिब्बे में पर्याप्त रुपये जमा हो गये. अगले दिन चायवाले ने डिब्बे से निकले रुपयों में से अपनी आजीविका के लिये २०० रु अलग रखे और शेष रु गिने तो वह राशि ५०० से भी अधिक निकली. फ्री वाली चाय का सिलसिला चल निकला. अखबारों में चाय की गुमटी की फोटो छपी, चाय पीते लोगों के मुस्कराते चित्र छपे. सोशल मीडिया पर  फ्री वाली चाय वायरल हो गई. देवेन ने मजदूरों के बीच सहज ही  नई पहचान बना ली, अच्छाई के इस विस्तार से देवेन मन ही मन मुस्करा उठे.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 70 – लघुकथा – आंवला भात☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  आंवला/इच्छा नवमी पर विशेष लघुकथा  “आंवला भात।  हमारी संस्कृति में प्रत्येक त्योहारों का विशेष महत्व है। वैसे ही यदि हम गंभीरता से देखें तो  आंवला नवमी / इच्छा नवमी पर्व हमें पारिवारिक एकता, वृक्षारोपण, पर्यावरण संरक्षण का सन्देश देते हैं। ऐसे में ऐसी कथाएं हमें निश्चित ही प्रेरणा देती हैं।  शिक्षाप्रद लघुकथाएं श्रीमती सिद्धेश्वरी जी द्वारा रचित साहित्य की विशेषता है।  सांस्कृतिक एवं सामाजिक परिपेक्ष्य में रचित इस सार्थक  एवं  भावनात्मक लघुकथा  के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 70 ☆

☆ आंवला/इच्छा नवमी विशेष ☆ लघुकथा – आंवला भात ☆

पुरानी कथा के अनुसार आंवला वृक्ष के नीचे कार्तिक शुक्ल पक्ष की नवमी को आंवला वृक्ष की पूजन करने से मनचाही इच्छा पूरी होती है। आज आंवला नवमी को पूजन करते हुए कौशल्या और प्रभु दयाल अपने आंगन के आंवला वृक्ष को देखते हुए बहुत ही उदास थे। कभी इसी आंगन पर पूरे परिवार के साथ आंवला भात बनता था। परंतु छोटे भाई के विवाह उपरांत खेत और जमीन जायदाद के बंटवारे के कारण सब अलग-अलग हो गया था।

प्रभुदयाल के कोई संतान नहीं थे। यह बात उनके छोटे भाई समझते थे। परंतु उनकी पत्नी का कहना था कि “हम सेवा जतन नहीं कर पाएंगे।” छोटे भाई के तीनों बच्चो की परवरिश में कौशल्या का हाथ था।

अचानक छत की मुंडेर पर कौवा कांव-कांव की रट लगा इधर-उधर उड़ने लगा। प्रभुदयाल ने कौशल्या से कहां “अब कौन आएगा हमारे यहां सब कुछ तो बिखर गया है।” गांव में अक्सर कौवा बोलने से मेहमान आने का संदेशा माना जाता था। अचानक चश्मे से निहारती कौशल्या दरवाजे की तरफ देखने लगी। दरवाजे से आने वाला और कोई नहीं देवर देवरानी अपने दोनों पुत्र और बहूओं के साथ अंदर आ रहे थे। प्रभुदयाल सन्न सा खड़ा देखता रहा।

छोटे भाई ने कहा – “आज हमारी आंखें खुल गई भईया। मेरे बेटों ने कहा.. कि हम दोनों भाइयों का भी बंटवारा कर दीजिए क्योंकि अब हम यहां कभी नहीं आएंगे। आप लोग समझते हैं कि आप त्यौहार अकेले मनाना चाहते हैं तो मनाइए। हम भी अपने दोस्त यार के साथ शहर में रह सकते हैं। हमें यहां क्यों बुलाया जाता है।”

“मुझे माफ कर दीजिए भईया। परिवार का मतलब बेटे ने अपनी मां को बहुत खरी खोटी सुनाकर समझाया है। वह दोनों हमसे रिश्ता रखना नहीं चाहते। वे आपके पास रहना चाहते हैं। इसलिए अब सभी गलतियों को क्षमा कर। आज आंवला भात हमारे आंगन में सभी परिवार समेत मिलकर खाएंगे।”

देवरानी की शर्मिंदगी को देखते हुए कौशल्या ने आगे बढ़ कर गले लगा लिया और स्नेह से आंखे भर रोते हुए बोली -“आज नवमी (इच्छा नवमी) मुझे तो मेरे सब सोने के आंवले मिल गए। इन्हें मैं सहेज कर तिजोरी में रखती हूं।” सभी बहुत खुश हो गए।

प्रभुदयाल अपने परिवार को फिर से एक साथ देख कर इच्छा नवमी को मन ही मन धन्यवाद कर प्रणाम करते दिखें।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ फेसबुक ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी  बेंगलुरु के जैन महाविद्यालय में सह प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं एवं  साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में मन्नू भंडारी के कथा साहित्य में मनोवैज्ञानिकता, स्वर्ण मुक्तावली- कविता संग्रह, स्पर्श – कहानी संग्रह, कशिश-कहानी संग्रह विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपकी एक लम्बी कविता को इंडियन बुक ऑफ़ रिकार्ड्स 2020 में स्थान दिया गया है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आज  प्रस्तुत है, सोशल मीडिया में उलझी नई पीढ़ी के अंतर्द्वंद्व को उजागर करती  एक कहानी  फेसबुक)  

☆ कथा कहानी – फेसबुक

हेलो, कैसी हो ? अरी ! तुमने कबीर दास के रहस्यवाद को पढा है। तुम्हें पता है, हमारी परीक्षा कब है? हमें तो हमेशा पढ़ना ही है। चिंतित होकर रीना ने पूनम को कहा। बात को आगे बढ़ाते हुए कहती है, अरी! सुमन को क्या हो गया है ? क्यों वह उदास रहती है ? तुम्हें कुछ पता है ?

मुझे जहां तक पता है, राखी ने मुझसे बात करते समय सुमन का ज़िक्र किया था। लगभग चार महीने पहले सुमन के साथ एक हादसा हुआ था। तुम्हें पता है कि सुमन दिखने में तो सुंदर है ही। उसके लंबे कमर तक घने बाल, सीधी-सुडौल काया है। मानो भगवान ने उसे बहुत ही सुंदरता दी  है। सुमन को सुंदरता के साथ-साथ भगवान ने बुद्धि भी बहुत तेज़ दी है। उसे तकनीक का ज्ञान भी अत्यधिक है। वह अभियांत्रिकी की पढ़ाई कर रही है। वह हमेशा दोस्तों के बीच भी कुछ बात नहीं करती थी हमेशा  कुछ न कुछ सोचती रहती थी। वह दूसरों की तरह नहीं है। हाँ, नटखट ज़रुर है। फिर भी अपनी मर्यादा  का खयाल हमेशा रखती थी। उसने अपनी एक फोटो फेसबुक पर अपलोड किया था। उसके लिए उसे अनेक कॉमेन्टस और लाइक भी मिले थे। इसलिए वह जब भी देखो वह वोट्सएप या फिर फेसबुक के साथ ज्यादा रहना पसंद करती थी। उसकी दोस्त उसे हमेशा छेडती थी, क्या हुआ मेमसाब खेल रहे हो क्या?

अरे! नहीं मुझे खेलना पसंद नहीं है। मैं तो सिर्फ गाने सुनती हूँ। एक दिन सुमन ने फेसबुक पर गाना सुनते हुए एक रोमांस आधारित कहानी देखी और उसे वह रोमांचक होकर देखने लगी। क्यों ना हो ? उसकी उम्र का तकाज़ा भी था। वह देखने के बाद उसे भी एक बॉयफ्रेन्ड की ज़रुरत महसूस  हुई। सुमन ने अपनी सहेली सुप्रिया से अपनी मन की बात कही।

सुप्रिया ने सुमन को अपनी भावनाओं पर काबू रखने के लिए कहते हुए कहा, देखो, हमारी उम्र में यह सारी भावनाएँ सहज है। तुम सोचो क्या यह सब अभी ज़रुरी है। तुम पढ़ने में इतनी अच्छी हो मुझे लगता है कि तुम्हें आगे पढ़ने के बारे में सोचना चाहिए। जितना हो सके तुम फेसबुक मत देखना उसमें ऐसे ही कुछ न कुछ आता रहता है।

फिर भी सुमन का मन अन्य ऐसी कहानियों को पढ़ने का हो रहा था । एक दिन वह ऐसे ही बैठकर फिर से फेसबुक देख रही थी। कोई न कोई व्यक्ति उसे दोस्ती की दरख्वास्त भी भेजता रहता है। सुमन किसी अनजान व्यक्ति को भी अपना दोस्त नहीं बनाती थी। वह उनका पूरा प्रोफाइल देखकर ही उनसे दोस्ती करती थी। सुमन को सरदर्द अधिक होता था।

एक दिन उसे फेसबुक पर एक दोस्ती की दरख्वास्त आई। वह अनजान व्यक्ति ही था। उसने देखा वहां पर किसी औरत की तस्वीर थी। वह स्नायु विशेषज्ञ थी। सुमन को लगा कि अगर वह उस औरत से दोस्ती करेगी तो  उसका सर दर्द ठीक हो जाएगा। सुमन को सर दर्द की बीमारी थी। वह उस दर्द से  तंग आ चुकी थी। वह उनसे बात करेगी, और अपने सर दर्द के बारे में बतायेगी। यह सोचकर उसने दोस्ती को स्वीकार किया। फिर दोनों में बातचीत का दौर प्रारंभ हुआ। उसने बताया कि मेरा नाम टोनी है और मैं भी स्नायु का विशेषज्ञ हूँ। मैं एक पुरुष हूँ। आपकी क्या परेशानी है ? मैं आपकी मदद कर सकता हूँ। इसके लिए मुझे आपको मिलना होगा। मैं लंडन में रहता हूँ।

सुमन को उसकी बातों से अजीब लगा, फिर भी उसने बात आगे बढाई। उसे लगा कि यह डॉक्टर उसकी बीमारी दूर करने में मदद करेगा।

डॉक्टर मैं आपसे मिल नहीं सकती। क्या ऐसे ही फोन पर आप मेरी बीमारी ठीक नहीं कर सकते हो?  मैं आपको मेरे सर दर्द के बारे में सब कुछ बताऊँगी। सकुचाते हुए सुमन ने डॉक्टर से कहा।

टोनी ने भी थोडी देर के लिए सोचते हुए बताया, ठीक है, मैं अपने दोस्त जो कि इसी में माहिर है उसके साथ बात  करके बताता हूँ। वैसे आप बहुत सुंदर दिखती हो। मैं एक सर्जन हूं। दर असल मेरा दोस्त इसकी दवाई देता  है। वही सारे ऐसे ही रोगी का निदान भी करता है।

सुमन ने यह सारी बात अपनी दोस्त सुप्रिया को बताई। सुप्रिया ने उसे सचेत रहने के लिए कहते हुए कहा, देखो मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा है। आजकल कई फेसबुक पर क्राइम सुने है। हम इस व्यक्ति पर कैसे विश्वास कर ले। तुम फिर भी सोच-समझकर काम करना। मुझे लगता है कि तुम्हें उससे बात नहीं करनी चाहिए।

सुमन ने कुछ सोचकर उस वक्त सुप्रिया की बात सुनी। उसे सही भी लगा कि, कैसे किसी पर आंख मूंदकर भरोसा कर लिया जाय। टोनी ने सुमन से फेसबुक पर उसका फोन नंबर मांग लिया था। सुमन ने भी बिना सोचे-समझे अपने फोन नंबर उसे दिया था। उसके बाद ही वे दोनों बात कर रहे थे।

सुमन और टोनी के बीच फिर से बातचीत का दौर प्रारंभ हुआ। दोनों के बीच धीरे-धीरे प्यार भी हुआ।

टोनी ने सुमन से कहा कि देखो, अगर सुप्रिया नहीं चाहती कि हम दोनों बात करें तो उसे बताना मत कि हम दोनों बात कर रहे है। तुम मुझसे वादा करो कि तुम अपनी सहेली को नहीं बतााओगी। वह जिद्द पर अड गया।

ठीक है बाबा। नहीं बताऊँगी, बस। कहते हुए सुमन मुस्कुराने लगी।

सुमन भी अकेलापन काटने के लिए कोई साथी मिल गया था। टोनी अपनी जिंदगी की दास्तां सुमन को बताते हुए रोने लगा। सुमन को अच्छा नहीं लगा, फिर भी उसे सांत्वना के दो शब्द बतायें। टोनी ने जिंदगी में बहुत दुःख झेले थे।

टोनी ने अपनी जिंदगी के पहलू को बताते हुए सुमन से कहा कि, मेरी एक नौ साल की बच्ची है। मेरी पत्नी दो साल पहले एक एक्सीडेन्ट का शिकार हो चुकी है। मुझे उसकी याद आती है लेकिन मैंने हकीकत को स्वीकार कर लिया है।

सुमन को टोनी की बात सुनकर लगा कि उसे कुछ बाते स्पष्ट कर देनी चाहिए ताकि बाद में कोई भी परेशानी न हो। देखिए मुझे आपसे कह देना ठीक होगा कि, मैं आपकी पत्नी नहीं बन सकती हूं। हमारा परिवार रूढ़िग्रस्त है। उसे छोडकर आना मुश्किल है। माँ और पिताजी कई मामले में सख्त है। फिर भी मैं अपने अभिभावकों से बहुत प्रेम करती हूँ। क्षमा कीजिएगा, मैं आपके साथ नहीं आ सकती हूं। कहते हुए सुमन लंबी सांस लेती है।

ठीक है, कोई बात नहीं है। लेकिन तुम मेरी दोस्त तो बन ही सकती हो। अच्छा, मैं बाद में बात  करुँगा। मुझॆ कुछ काम है। यहां पर फिलहाल एक ऑपरेशन करना है। कहते हुए टोनी ने फोन काट दिया।

सुमन को भी वह व्यक्ति अच्छा लगने लगा था। दोनों फोन पर ही रोमांटिक बातें भी करते थे। सुमन को अपनी मन की भावनाओं को पूरी करने का मौका भी मिल गया था। सुमन ने सुप्रिया को अब तक यह सारी बातें नहीं बताई थी। अचानक एक दिन उसे लगा कि टोनी ने कभी भी उससे रोग के बारे में बात नहीं की है। अधिकतर सर्जन के पास ऐसे बात करने का समय भी नहीं होता।  सुमन ने बहुत बार पूछने की कोशिश भी की थी। अब उसे शक हुआ और एक दिन ऐसे ही उसने अपनी खास सहेली राखी से यह सारी बातें बताई।

राखी ने भी सुमन को समझाने की कोशिश करते हुए कहा, देखो ऐसे बहुत लोग है जो दूसरों को धोखा देते है। अच्छा तुम सुनो! मेरी एक सहेली दुबई में रहती है। अब किसी ने ऐसे ही उससे फोन पर बात की थी। वह लडका युवा भी था और वह बहुत खूबसूरत भी था। दोनों फोन पर बातचीत करने लगे। एक  हद तक रोमांटिक बातें भी करते थे। उस लडके ने जिसका नाम उसने अमन बताया था, उसने हमारी सुंदरी के कुछ चित्र मांगे। इस गधी ने उसके प्यार में भेज दिए। अमन उसका गलत फायदा उठाने लगा। जब सुंदरी ने इस बारे में मुझे बताया तो मुझे बहुत गुस्सा आया। पहले तो मैंने सुंदरी को डांटा। भगवान ने उसे सुंदरता ही दी है, दिमाग नहीं दिया।  अब तुम? पता नहीं आप लोगों को क्या हो गया है ? क्यों आप लोग बिना मर्द के जिंदगी नहीं गुज़ार सकती? बडी मुश्किल से सुंदरी ने अमन से पीछा छुडवाया है। प्लीज मेरी मां, अब तुम कुछ ऐसा मत करना कि बाद में परेशानी हो।

मैंने भी ऐसे बहुत लोगों को सुना है। सुमन ने कुछ सोचकर राखी से कहा कि अनुमान तो… उस व्यक्ति पर मुझे भी है। क्या तुम उसे फोन करके सच्चाई पता लगा सकती हो। उस व्यक्ति ने मेरे पूछने पर कई सवालों का जवाब नहीं दिया है। फोन नंबर तो लंडन का ही है। अगर हो सके तो अन्य चीजे भी मालूम कर लेना। वह तुम्हारे बारे में नहीं जानता।

अचानक  उसका मेसेज आता है,  मेरा नाम टोनी सेम है और मै न्यूरोलोजि के विभाग, हेल्थ अस्पताल में काम करता हूं। उसमें उसने अपना पूरा नाम और अस्पताल का पता दिया था फिर भी सुमन को  बुरा लगता है। वह उसकी बात का विश्वास नहीं कर पाती है।  इतना कहने के बावजूद सुमन उस पर विश्वास नहीं कर रही है।  सुमन ने तुरंत वह मेसेज राखी को भेजा।

राखी ने तुरंत पता लगाकर बताया कि टोनी नाम का कोई भी डॉक्टर वहां पर काम नहीं करता है। कोई भी सर्जन टोनी के नाम से मौजूद नहीं है।सुमन ने जो तस्वीर टोनी की भेजी थी, वह तो कोई ओर ही  है। राखी ने यह भी बताया कि वहां पर एक हेल्थ सेन्टर है, लेकिन वहां पर भी इस नाम का कोई व्यक्ति नहीं है। देखो, सुमन तुम उसका नंबर तुरंत ब्लोक कर देना। पता नहीं, कौन है यह व्यक्ति ? बुरी फँसोगी।

सुमन के मन में राखी की बातें ही गूंज रही थी। उसे भरोसा ही नहीं हो रहा था कि वह व्यक्ति किसी को धोखा दे सकता है। बार-बार उसका मन उससे बात करने को कर रहा था। एक दिन सुमन ने केविन को मेसेज करके उसके बारे में जानना चाहा। उसके बाद तो उस व्यक्ति ने सुमन को मेसेज करना और फोन करना छोड दिया। फिर से सुमन  अकेलापन महसूस करने लगी।

एक दिन अचानक एक फोन आया और कहा कि मैं आपके शहर जयपुर में आया हूँ। आपसे मिलना चाहता हूँ। सुमन भी टोनी से मिलने गई। वह देखना चाहती थी कि कौन है वह जिससे वह बात करती थी। बडी उत्सुकता से वह उसे देखती है, तो  हैरान रह जाती है। उसके सामने काले रंग का बदसूरत व्यक्ति खडा पाती  है। सुमन ने जब भी फोन पर उसे देखा बहुत ही सुंदर नवयुवक था। वह उसे देखती ही रह जाती है। उसका नाम टोनी नहीं, बल्कि डी मार्टीन था। वह बताता है कि मै माफिया से हूं। मैंने जो आपसे कहा वह सब गलत था। क्षमा करें। मेरे काम में शादी नाम की कोई गुंजाइश ही नहीं है।

सुमन  उसकी सारी बातें आराम से सुनती है। उसके साथ एक कप चाय पीकर वहाँ से निकल आती है। वह घबराते हुए  राखी से कहती है, अरी! तुमने सही कहा था। यह आदमी तो माफिया से जुडा है और देखो, उसने मुझसे अपनी पहचान छिपाई। अब तो मुझे डर लगने लगा है कि मेरे साथ यह व्यक्ति कुछ गलत तो नहीं   करेगा। उसके पास मेरे कुछ फोटो भी है। सुमन ने घर में भी किसी को यह बात नहीं बताई थी।

राखी ने उसे सांत्वना देते हुए कहा, चिंता मत करना और अगर उसका कोई भी मेसेज या फिर फोन आये तो जवाब मत देना। शुक्र कर भगवान का की वो भला आदमी ही था जिससे तुम मिलने गई थी। उसने तुम्हें साफ़- साफ़ बता दिया और तुम्हें छुआ तक नहीं। वरना दुनिया बहुत खराब है। कुछ भी हो सकता है। तुम्हारी बात सुनकर लगता नहीं है कि वह  फेसबुक की फोटो का गलत इस्तेमाल करेगा। फिर भी तुम सचेत रहना। सुमन ने इस हादसे के बाद फेसबुक देखना ही बंद कर दिया था। सुप्रिया को भी कुछ नहीं बताया। उसने यह बात स्वयं तक ही सीमित कर दी थी।

कई दिनों बाद राखी को सुमन की याद आ गई। उसने सुमन को फोन करते हुए उससे टोनी के बारे में पूछा कि उसने बाद में कोई ऐसी-वैसी  हरकत तो नहीं की। तुरंत सुमन एक मिनट के लिए कुछ बाद नहीं करती। राखी समझ गई कि  सुमन परेशान हो गई है। उसने दो बार हैलो….हैलो….सुमन आर यू देयर?

हाँ, बताओ। अब तो सब समाप्त … समाप्त हो चुका है। मैं उस हादसे को याद नहीं करना चाहती हूँ। तुम भी उसके बारे में मेरे साथ या किसी और के साथ ज़िक्र नहीं करना। ये हादसा कितनी लडकियों के साथ हुआ होगा। कितनी लड़कियां मेरी तरह परेशान हुई होगी। सच में आजकल मुझे फेसबुक पर से विश्वास ही उठ गया है। कहते हुए सुमन फिर से थोड़ी देर के लिए चुप हो जाती है।

अरी! तुम भी ना फिर उसी बात पर सोचने लगी। गलती हर इन्सान से होती है। सच बताऊँ, इन्सान ही गलती कर सकता है। कहते हुए राखी उसे समझाने की कोशिश करती है। देखो, फेसबुक का ऐप जिसने भी बनाया था, उसने यह तो नहीं सोचा होगा कि लोग इसका गलत इस्तेमाल करेंगे। उसने तो सबके भले के बारे में  सोचकर ही बनाया

था। फेसबुक के द्वारा कई लोगों का अच्छा भी हुआ है। हम एक पहलू को देखकर यह तो नहीं कह सकते कि ऐसे ऐप गलत है। अच्छा सुनो, तुम्हें तो पता है कि जिंदगी में दो पहलू होते है। अच्छा और बूरा। हर कोई व्यक्ति  की सोच बुरी हो यह नहीं कह सकते। मतलब यह जिंदगी मिश्रित है। अब एक लेखिका है जिनको मैं अच्छी तरह से जानती हूं। वह अपनी पहचान का श्रेय सिर्फ फेसबुक, इन्स्ट्राग्राम जैसे ही ऐप को देती है। वह अपनी रचना लोगों के समक्ष रखती गई। लोग उसे पहचानने लगे। मुझे लगता है कि हमें किसी ऐप का इस्तेमाल किसलिए करना है, उसकी खबर होनी चाहिए। हाँ, मानती हूँ कि आज कई नवयुवक भटक गए है। भावनाओं के समुंदर में बहकर कोई भी फैसला नहीं लेना चाहिए। अब  इसके बारे में सोचना छोडकर जिंदगी में आगे क्या करना है, उसके बारे में सोचना   है। किसी भी हादसे से इन्सान की जिंदगी रुकती नहीं बल्कि इन्सान उससे सीख लेकर आगे बढना चाहिए ………समझी? अरी! तुम तो फिर भी नसीबवाली हो कि उस इन्सान ने तुम्हें बाद में परेशान नहीं किया। वरना तो लोग इतने परेशान कर देते है, व्यक्ति आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाता है। अच्छा, अब तुम पढाई के बारे में ध्यान      दो। यह सब तो आजकल एक आम बात हो गई है। अब मैं फोन रखती हूं, ज्यादा इस बारे में चिंता करने की ज़रुरत नहीं है। समझी….मेमसा’ब।  जैसे ही वह बात को खत्म करती है, तुरंत पूनम का कॉल आता है। बात ही बात में वह सुमन के बारे में पूनम को बताती है।

अच्छा इतना सब हो गया और हमें कुछ भी नहीं पता है। हम तो सिर्फ कहने के लिए दोस्त रह गए है। सुनो, तुम्हें यह सब कैसे पता चला ? माना कि अभी लिविंग टुगेदर का ज़माना है। फिर भी यह तो गलत ही है। बहुत आश्चर्य के साथ रीना अपनी सहेली पूनम को पूछती है।

मुझे राखी ने कल बताया कि सुमन के साथ सही नहीं हुआ। उसने भी तुम्हारी तरह ही कहा। एक बात बताऊँ, मुझे लिविंग टुगेदर भी सही नहीं लगता है। लडका- लडकी शादी से पहले साथ में रहते है, अगर सही नही लगा तो छोड देते है। उससे तो अच्छा है कि लडकी को मात्र एक लडके के साथ रहना चाहिए। अपने मन की किसी भी इच्छा को पूरी करने के लिए ऐसी राह अपनाना ठीक नहीं है। जब मैंने राखी  से यह बात सुनी तो बहुत बुरा लगा था।

दुनिया में ऐसा भी होता है। हमें बहुत सचेत रहना चाहिए। यह हमारी सुमन के साथ ही क्यों हुआ ? अरी! तुम्हें पता है आज लोग न उम्र देखते है ना ही और कुछ। फेसबुक पर तो उम्र भी गलत होती है। सच में पता नहीं लोगों को क्या हो गया है ? काश उसने हमसे बात की होती? पता है तुम्हें शायद लडकी को अपनी मर्यादा में रहने के लिए हमारे पूर्वज कहते थे। उनकी बात भी सही है। हम क्रोध में आकर जनरेशन गेप कहकर बडो की बात का हंमेशा गलत मतलब निकालकर उन्हीं को कोसते है।  अब, होनी को तो कोई टाल नहीं सकता। बाद में हम किस्मत को दोषी भी ठहराते है। जो भी है यह हमारी सुमन के साथ ऐसा नहीं होना था। कहते हुए रीना अपनी दोस्त से फोन पर विदा लेते हुए कहती है, अभी हमें बहुत पढना है। परीक्षा नज़दीक है, तुम पढाई पर ध्यान देना। सुमन से बाद में मिलकर बात करते है।

संपर्क:

©  डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

लेखिका व कवयित्री, सह प्राध्यापिका, हिन्दी विभाग, जैन कॉलेज-सीजीएस, वीवी पुरम्‌, वासवी परिसर, बेंगलूरु।

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 74 ☆ किस्सा दुखीराम सुखीराम का ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है आपका एक  ‘किस्सा दुखीराम सुखीराम का’।  इस विशिष्ट रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 74 ☆

☆ किस्सा दुखीराम सुखीराम का

एक गाँव में दो आदमी रहते थे। एक दुखीराम, दूसरा सुखीराम। दुखीराम गरीब था, मेहनत-मजूरी करके अपना पेट भरता था। सुखीराम धन-संपत्ति वाला, बड़ी हवेली में रहता था।

लेकिन दरअसल दुखीराम और सुखीराम दोनों ही दुखी थे। दुखीराम इसलिए कि गरीब होने के बावजूद उसे राक्षसी भूख लगती थी। रोटियों की गड्डी मिनटों में ऐसे ग़ायब होती जैसे किसी जादूगर ने अपनी छड़ी घुमा दी हो। अपना भोजन उदरस्थ कर वह परिवार के दूसरे सदस्यों के भोजन की तरफ टुकुर टुकुर निहारता बैठा रहता। कोई सदस्य नाराज़ होकर हाथ रोक कर अपनी थाली उसकी तरफ सरका देता और दुखीराम झूठा संकोच दिखाता फिर खाने में जुट जाता।

परिवार के लोग दुखीराम की विकराल भूख से परेशान थे। उसकी मजूरी अकेले उसी के लिए काफी न होती। गाँव के लोग भोज में उसे बुलाने से कतराते थे। रिश्तेदार भी उसे अपने यहाँ बुलाने से बचते थे। जिस घर में उसके चरण पड़ते वहाँ मातम छा जाता।

गाँव के दूसरे छोर पर अपनी विशाल हवेली में सुखीराम रहता था। सुखीराम सब तरह से सुखी था। किसी चीज़ की कमी नहीं थी। घर में दूध-दही की नदियाँ बहती थीं। एक ही रोना था कि सुखीराम को भूख नहीं लगती थी। घर में छप्पन भोजन तैयार होते, लेकिन सुखीराम को उनकी तरफ देखने का मन न होता। किसी तरह एकाध रोटी हलक़ से उतरती। इस चक्कर में सुखीराम ने जाने कितने चूर्ण और भस्म फाँक लिये, लेकिन भूख को नहीं जागना था, सो नहीं जागी। हवेली में सभी लोग परेशान थे। भगवान ने सब कुछ दिया, लेकिन तन में कुछ पहुँचता नहीं। ऐसी समृद्धि किस काम की?

दुखीराम और सुखीराम दोनों ही परेशान थे, एक अपनी सर्वग्रासी भूख से तो दूसरा भूख की बेवफाई से। दोनों ही चिन्ताग्रस्त थे। एक भगवान से भूख घटाने की प्रार्थना करता तो दूसरा भूख बढ़ाने की।

आखिर उनकी प्रार्थना सुनी गयी और एक रात भगवान दोनों के सपने में आये। दोनों ने अपनी अपनी व्यथा सुनायी। भगवान पशोपेश में। एक चाहे भूख कम करना, दूसरा चाहे भूख बढ़ाना। एक की भूख गरम तो दूसरे की नरम। अन्ततः उनकी प्रार्थना मंज़ूर हो गयी। दुखीराम की जठराग्नि सुखीराम के शरीर में स्थानांतरित हो गयी और सुखीराम की जठराग्नि दुखीराम के शरीर में।

दूसरे दिन उठे तो दोनों का व्यवहार आश्चर्यजनक। दुखीराम भोजन की तरफ पीठ फेर कर बैठ गया और सुखीराम दौड़ दौड़ कर भोजन पर हाथ साफ करने लगा। बड़ी मुश्किल से यह शुभ दिन आया था। दोनों के परिवार परम प्रसन्न। दोनों के परिवारों ने मन्दिर जाकर भगवान को धन्यवाद दिया और प्रसाद चढ़ाया। इस चमत्कार के बाद दोनों परिवार दीर्घकाल तक सुखी रहे।

जैसे दुखीराम सुखीराम के दिन बहुरे ऐसे ही सब के बहुरें।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ किताबें ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय एवं सार्थक लघुकथा  ”किताबें ”। )

☆ लघुकथा – किताबें ☆ 

वे पाँच थे. पाँचों मिलकर अपनी-अपनी तरह से किताबों की व्याख्या कर रहे थे.

पहला बोला- “किताबें भविष्य की निर्माणी हैं. समय की चाबी हैं. किस्मत का दरवाजा यानी खुल जा सिम- सिम हैं.”

दूसरा बोला – “दरअसल हम किताबें नहीं पढ़ते बल्कि किताबें हमें पढ़ती हैं.”

तीसरा – “समय की पहरुयें है किताबें.”

चौथा – “किताबें हूर हैं.”

पांचवा – “चलो जी, अब बहुत हो गई किताबों की चमचागिरी. कल से पेट में दाना नहीं गया है. खाली पेट किताबें नहीं पढ़ी जा सकती. ये बोरे में भरी किताबें कबाड़ी को बेचने जा रहा हूँ, ताकि भोजन का ताना बाना बुना जा सके.”

किताबें भूख की बलि चढा दी गई.

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 69 ☆ लघुकथा – कोठे की शोभा ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं उनकी एक सार्थक लघुकथा  “कोठे की शोभा। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 69 – साहित्य निकुंज ☆

☆ लघुकथा – कोठे की शोभा ☆

हर वर्ष की तरह इस बार भी कालेज में डांस कंपटीशन  हुआ । हर बार की तरह   प्रतिभाओं की भी कोई कमी नहीं थी।  परन्तु  स्निग्धा उन सबसे अलग साबित हुई । उसके  नृत्य ने सबका मन मोह लिया ।इतनी छोटी सी उम्र में उसके पांवों की थिरकन और वाद्यों की सुरताल के साथ उनका सामंजस्य अदभुत था । निर्णायको ने एक मत से उसे विजेता घोषित करने में जरा भी देर नहीं की । कालेज का खचाखच भरा हाल इस निर्णय पर देर तक तालियों की गड़गड़ाहट से गूंजता रहा । इतना ही नहीं उसे अंतर्विश्वविद्यालयीन  प्रतियोगिता के लिए भी नामांकित कर दिया गया ।

पुरस्कार देते समय मंच पर जज महोदय ने कहा ‘बेटा  ! इस अवसर पर हम चाहते हैं कि आपकी माता जी को भी सम्मानित किया जाय क्योंकि आपकी इस प्रतिभा को निखारने में उनका योगदान निश्चय ही सबसे अधिक रहा होगा ।यदि वे यहां उपस्थित हों तो उन्हें भी मंच पर बुलाइए । उस महान हस्ती से हम भी  मिलना चाहेंगे । ”

तभी  नीचे से आवाज आईं ,” सर , स्निग्धा  डांस इसलिए अच्छा करती है , क्योंकि इनकी माता जी किसी कोठे की शोभा हैं । वे स्निग्धा के किसी कार्यक्रम में नहीं जातीं क्योंकि ,  कोठे की शोभा कोठे में ही शोभा देती है।”

जजों के साथ ,सारा कक्ष इस सूचना से हतप्रभ था ।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ मौत से ही मुहब्बत निभायेंगे हम – क्रमश: भाग 4 ☆ सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

☆ जीवनरंग ☆ मौत से ही मुहब्बत निभायेंगे हम – क्रमश: भाग 4 ☆ सौ. गौरी सुभाष गाडेकर ☆

अचलाने अभिजितला दाखवली ती आत्महत्येची बातमी.

क्षणभर त्याचा चेहरा गंभीर झाला. पण लगेचच दोन्ही हात वर करून तो ‘हेss’ म्हणून ओरडला. अगदी सुजयसारखंच.

“अभि?”

“अग अचला, ही बातमी खरीच  दिसतेय.आता तर आपला चित्रपट….. ”

“अभि……”तिच्या आवाजातला तिरस्कार त्याला आरपार भेदून गेला.

मग दर एक-दोन दिवसांआड अशा बातम्या  येऊ लागल्या.

अचलाला तर तिसऱ्या पानावरचा  वरचा उजवा कोपरा बघायचा धसकाच बसला. अभिजित तिची नजर चुकवू लागला.

त्या दिवशी रात्री मात्र अचलाने ठामपणे सांगितलं, “अभिजित,मला तुझ्याशी महत्त्वाचं बोलायचं आहे.”

“मी दमलोय.”

“मला एस्क्युजेस नकोयत. मी काय सांगणार आहे, ते तुला ऐकावंच लागेल.”

“ठीक आहे. लवकर आटप.”

“आतापर्यंत अकरा दुणे बावीस मुलांनी आत्महत्या केल्यायत. कसल्यातरी खुळचट कल्पनांवर विश्वास ठेवून.”

“सत्य आणि सिनेमा यातला फरक न कळण्याएवढी लहान ती नक्कीच नव्हती.”

“सत्य आणि सिनेमा यातला फरक समजण्याएवढी मोठी होती ती मुलं. पण खरी बातमी आणि खोटी बातमी यातला फरक ओळखू शकली नाहीत. निदान पहिल्या जोडीला तरी ती बातमी खरी वाटली. नंतरच्यांनी त्यांच्यावर विश्वास  ठेवला. कॉम्पिटिशनचं युग आहे ना हे !आमचं प्रेमही त्यांच्याइतकंच उत्कट आहे, हे दाखवायचा मोह झाला असणार त्यांना.”

“असेलही.”अभिजितने खांदे उडवले.

“पण कोणत्याही परिस्थितीत तू तुझी जबाबदारी टाळू शकत नाहीस.”

“म्हणजे? “अभिजित तुच्छतेने काही बोलला, की अचला सरळ तिथून निघून जात असे. आज मात्र त्याच्या ‘म्हणजे’मधली तुच्छता लक्षातच न आल्यासारखी  ती बोलत राहिली.

“तू प्रेस कॉन्फरन्स घे आणि सांगून टाक. सांगून टाक की ती पहिली बातमी खोटी होती. सांगून टाक, की चित्रपटाचा शेवट हाही एक स्टंटच आहे. चित्रपट ओरिजनल वाटावा म्हणून केलेला. वास्तवाच्या जगात त्याला काहीही अर्थ नाही, स्थान नाही. तेव्हा कोणीही तो चित्रपट गांभीर्याने घेऊ नये. पाहिजे तर तो चित्रपट ‘ऍडल्ट’ करून टाका.”

“झालं तुझं बोलून?”

“हे सगळं उद्याच्या उद्या झालं पाहिजे.”

“हे बघ, अचला. या गोष्टी माझ्या हातात नाहीत.नवीनभाईच काय ते ठरवू शकतील.”

“मग बोल त्यांच्याशी. समजाव त्यांना. म्हणावं, पैशापेक्षा माणसाचं आयुष्य कितीतरी पटीने मौल्यवान आहे. की  मी बोलू त्यांच्याशी?”

“तू नको. मीच बघतो.”

पण तो नवीनभाईंशी काहीच बोलला नाही. नवीन चित्रपटांची सिटींग्ज चालू होती. अशी काहीतरी मुर्खासारखी स्टेप घेऊन  तो स्वतःच्या पायावर कुऱ्हाड मारून घेणार नव्हता.

ही कालची गोष्ट. आज मात्र अचलाने निश्चयच केला. आज कोणत्याही परिस्थितीत ती अभिजितला कन्फेशन द्यायला लावणार होती. प्रेम म्हणजे काय, याची जाणीवही नसणाऱ्या त्या निरागस, कोवळ्या प्रेमिकांना अपील करायला लावणार होती.

© सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

संपर्क –  1/602, कैरव, जी. ई. लिंक्स, राम मंदिर रोड, गोरेगाव (पश्चिम), मुंबई 400104.

फोन नं. 9820206306

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 51 ☆ लघुकथा – चकनाचूर सपनें ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है मानवीय संवेदनाओं और स्त्री विमर्श पर आधारित  उनकी लघुकथा ‘चकनाचूर सपनें। ऋचा जी के ही शब्दों में –  “महिलाओं  के  शोषण का यह रूप भी समाज में देखने को मिलता है  । भावनात्मक शोषण  का यह रूप बहुत भयावह होता है क्योंकि अपने ही परिवारजनों द्वारा होने वाले इस कृत्य की  कहीं शिकायत  भी  नही  की जाती   है ।  माँ  पुत्र मोह में  बेटियों के भविष्य का विचार नहीं करती।”डॉ डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को  संस्कृति एवं मानवीय दृष्टिकोण और स्त्री विमर्श परआधारित लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 51 ☆

☆  लघुकथा – चकनाचूर सपनें

दिन भर मशीन की तरह वह एक के बाद एक घर के  काम निपटाती जा रही  थी। उसका चेहरा भावहीन था, सबसे बातचीत भले ही कर रही थी पर आवाज में कुछ उदासी थी। जैसे मन ही मन झुंझला रही हो। उसके छोटे भाई की शादी थी। घर में हँसी मजाक चल रहा था लेकिन वह उसमें शामिल नहीं थी,  शायद वह वहाँ रहना ही नहीं चाहती थी।  कुमुद ऐसी तो नहीं थी, क्या हो गया इसे? मैंने उसकी अविवाहित बडी बहन से पूछा, अरे कोई बात नहीं है, बहुत मूडी है। उसने बात टाल दी। मुझे यह बात खटक रही थी कि दो बडी बहनों के रहते छोटे भाई की शादी की जा रही है। कुमुद के मन में भी शायद ऐसा ही कुछ चल रहा हो? लडकियाँ खुद ही शादी करना ना चाहें तो बात अलग है पर जानबूझकर उनकी उपेक्षा करना? उनकी भी तो कुछ इच्छाएं, कुछ सपने होंगे? खैर छोडो, दूसरे के फटे में पैर कौन अड़ाए ?

शादी के घर में रिश्तेदारों का जमावड़ा हो और आपस में निंदा – पुराण ना हो, ऐसा कभी हो सकता है क्या? महिला संगीत चल रहा था और साथ में महिलाओं की खुसपुसाहट भी – जवान बहनें बिनब्याही बैठी हैं और छोटे भाई की शादी कर रहे हैं माँ – बाप। बड़ी तो अधेड़ हो गई है, कुमुद के लिए तो देखना चाहिए। ढोलक की थाप के साथ नाच – गाने तो चल ही रहे थे, निंदा रस भी खुलकर बरस रहा था। अरे कुमुद ! अबकी तू उठ, बहुत दिन से तेरा नाच नहीं देखा, ससुराल जाने के लिए थोडी प्रैक्टिस कर ले – बुआ ने हँसते हुए कहा। भाभी अब कुमुद के लिए लड़का देखो, नहीं तो यह भी कोमल की तरह बुढ़ा जाएगी नौकरी करते- करते, फिर कोई दूल्हा ना मिलेगा इसे। ढोलक की थाप थम गई और बात चटाक से लगी घरवालों को। नाचने के लिए उठते कुमुद के कदम मानों वहीं थम गए लेकिन चेहरा खिल गया। ऐसा लगा मानों किसी ने तो उसके दिल की बात कह दी हो । वह उठी और दिल खोलकर नाचने लगी।

कुमुद की माँ अपनी ननद रानी से उलझ रही थीं – बहन जी आपको रायता फैलाने की क्या जरूरत थी सबके सामने ये सब बात छेड़कर। इत्ता दान दहेज कहाँ से लाएं दो – दो लडकियों के हाथ पीले करने  को। ऐरे – गैरे घर में जाकर किसी दूसरे की जी- हजूरी करने से तो अच्छा है अपने छोटे भाई का परिवार पालें। छोटे को सहारा हो जाएगा, उसकी नौकरी भी पक्की ना है अभी। कोमल तो समझ गई है ये बात, पर इस कुमुद के दिमाग में ना बैठ रही। खैर समझ जाएगी यह भी —

कुमुद मगन मन नाच रही थी। ढोलक की थाप और तालियों के शोर में माँ की बात उसे  सुनाई नहीं दे रही थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ जगह ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

( संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में लगातार लेखन का अनुभव हैं। अब तक ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। वरिष्ठतम  साहित्यकारों ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय एवं सार्थक लघुकथा  ”जगह”। )

☆ लघुकथा – जगह ☆ 

उसके पास कुल  जमा ढाई कमरे ही तो हैं.  एक कमरे में बहू बेटा सोते हैं तो दूसरे में वे बूढ़ाऔर बूढ़ी. उनके  हिस्से में एक पोती  भी है जो पूरे पलंग पर लोटती रहती है. बाकी बचे आधे कमरे में उनकी रसोई और उसी में उनका घर गृहस्थी का सामान  ठूंसा पड़ा रहता है.

“कहीं दूसरा बच्चा आ गया तो…” पलंग पर दादी अपनी  पोती  को खिसकाकर देखती है.

“बच्चे के फैल पसरकर सोने से हममें से एक को जागना पड़ता है” – दादा कहता है.

“दूसरे बच्चे के आने पर तो हम दोनों को ही जागना पड़ेगा” – दादी बोलती है.

“तब तो हमारे लिए पलंग पर जगह ही नहीं बचेगी”.- दोनों एक साथ बोलते हैं.

“भागयवान सारा झगड़ा इस जगह का ही तो है. जब तीसरी पीढ़ी जगह बनाती है, तो पहली जगह गँवाती है”.

“न जाने कैसी  हवा चली है कि आजकल बहुएं बच्चों को अपने पास नहीं सुलाती, वरना थोड़ी जगह हम बूढा-बूढ़ी को भी नसीब न हो जाती”.

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares