डॉ. ऋचा शर्मा
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक अतिसुन्दर विचारणीय लघुकथा “जेनरेशन गैप”। यह अक्सर होता है हमारी वर्तमान पीढ़ी अपनी नयी पीढ़ी के बीच के जनरेशन गैप को पाटने में पूरी मानसिक ऊर्जा झोंक देती है फिर भी संतुष्ट नहीं कर पाती है। संभवतः प्रत्येक पीढ़ी इसी दौर से गुजरती है ? डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस प्रेरणास्पद अतिसुन्दर शब्दशिल्प से सुसज्जित लघुकथा को सहजता से रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 34 ☆
☆ लघुकथा – जेनरेशन गैप ☆
समय की रफ्तार को कोई रोक सका है भला ? यही तो है जो चलता चला जाता है. उंगली पकडकर चलना सीखनेवाले बच्चे सडक पार करते समय कब माता – पिता का सहारा बनने लगते हैं, पता ही नहीं चलता . तब लगता है कि बच्चे बडे और हम छोटे हो रहे हैं, पर क्या सचमुच ऐसा होता है ? क्या जीवन की उम्र, उसके अनुभव कोई मायने नहीं रखते, बेमानी हो जाते हैं सब ?
माँ ! मुझे हॉस्टल में नहीं रहना है, घुटन होती है. जानवरों की तरह पिंजरे में बंद रहो.
सुरक्षा के लिए जरूरी होता है, समय से आओ – जाओ.
इसे बंधन कहते हैं, जेल में कैदी के जैसे.
जेल नहीं, हॉस्टल के कुछ नियम होते हैं.
नियम सिर्फ लडकियों के लिए होते हैं, लडकों के हॉस्टल में ऐसा कोई नियम नहीं होता, उन्हें सुरक्षा नहीं चाहिए क्या ?
माँ सकपकाई — उन्हें भी सुरक्षा चाहिए, लडकों के हॉस्टल में भी ऐसे नियम होने चाहिए. पर लडकियाँ अँधेरा होने से पहले हॉस्टल या घर आ जाएं तो मन निश्चिंत हो जाता है.
क्यों ? क्या दिन में लडकियाँ सुरक्षित हैं ? आपको याद है ना दिन में ट्रेन में चढते समय क्या हुआ था मेरे साथ? और कब तक चिंता करती रहेंगी आप?
हाँ, रहने दे बस सब याद है – माँ ने बात को टालते हुए कहा पर चिंता —–
पर – वर कुछ नहीं, मुझे बताईए कि इसमें क्या लॉजिक है कि लडकियाँ को घर जल्दी आ जाना चाहिए, हॉस्टल में भी बताए गए समय पर गेट के अंदर आओ, फिर मैडम के पास जाकर हाजिरी लगाओ. बोलिए ना !
माँ चुप रही —
बात – बात में बेटी माँ से कहती है – आप समझती ही नहीं छोडिए , बेकार है आपसे बात करना. आप नहीं समझेंगी आज के समय की इन मॉर्डन बातों को, यह कहकर बेटी पैर पटकती हुई चली गई. तेज आवाज के साथ उसके कमरे का दरवाजा बंद हो गया.
माँ जिसे सुरक्षा बता रही थी, बेटी के लिए वह बंधन था. माँ के लिए हॉस्टल के नियम जरूरी थे, बेटी को उसमें कोई लॉजिक नहीं लग रहा था. बेटी की नजरों में दुराचार की घटनाओं के लिए दिन और रात का कोई अंतर नहीं था, माँ की आँखों में रात में घटी बलात्कार की अनेक घटनाएं जिंदा थीं. माँ की माथे की लकीरें कह रही थीं चिंता तो होती है बेटी —-.
© डॉ. ऋचा शर्मा
अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.
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