हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 34 ☆ लघुकथा – जेनरेशन  गैप ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक अतिसुन्दर विचारणीय लघुकथा   “जेनरेशन  गैप”। यह अक्सर होता है हमारी वर्तमान पीढ़ी अपनी नयी पीढ़ी के बीच के  जनरेशन गैप को पाटने में पूरी  मानसिक ऊर्जा झोंक देती है फिर भी संतुष्ट नहीं कर पाती है। संभवतः प्रत्येक पीढ़ी इसी दौर से गुजरती है ? डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस प्रेरणास्पद  अतिसुन्दर शब्दशिल्प से सुसज्जित लघुकथा को सहजता से रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 34 ☆

☆  लघुकथा – जेनरेशन  गैप

समय की  रफ्तार को कोई रोक सका है भला ?  यही तो है जो चलता चला जाता है. उंगली पकडकर चलना सीखनेवाले बच्चे सडक पार करते समय कब  माता – पिता का सहारा बनने लगते हैं, पता ही नहीं चलता . तब लगता है कि बच्चे बडे और हम छोटे हो रहे हैं,  पर क्या सचमुच ऐसा होता है ? क्या जीवन की उम्र, उसके अनुभव कोई मायने नहीं रखते, बेमानी हो जाते हैं सब ?

माँ !  मुझे हॉस्टल में नहीं रहना है, घुटन होती है. जानवरों की तरह  पिंजरे में बंद रहो.

सुरक्षा के लिए जरूरी होता है, समय से आओ – जाओ.

इसे बंधन कहते हैं, जेल में कैदी के जैसे.

जेल नहीं, हॉस्टल के कुछ नियम होते हैं.

नियम सिर्फ लडकियों के लिए होते हैं, लडकों के हॉस्टल में ऐसा कोई नियम नहीं  होता, उन्हें सुरक्षा नहीं चाहिए क्या ?

माँ सकपकाई — उन्हें भी सुरक्षा चाहिए, लडकों के हॉस्टल में भी ऐसे नियम होने चाहिए. पर लडकियाँ अँधेरा होने से पहले हॉस्टल या घर  आ जाएं तो मन निश्चिंत हो जाता है.

क्यों ? क्या दिन में लडकियाँ सुरक्षित हैं ? आपको याद है ना दिन में ट्रेन में चढते समय क्या हुआ था मेरे साथ? और कब तक चिंता करती रहेंगी आप?

हाँ, रहने दे बस सब याद है – माँ ने बात को टालते हुए कहा  पर चिंता —–

पर – वर कुछ नहीं, मुझे  बताईए कि इसमें क्या लॉजिक है कि लडकियाँ को घर जल्दी आ जाना चाहिए, हॉस्टल में भी  बताए गए समय पर गेट के अंदर आओ, फिर मैडम के पास जाकर हाजिरी लगाओ. बोलिए ना !

माँ चुप रही —

बात – बात में बेटी माँ से कहती है –  आप समझती ही नहीं छोडिए , बेकार है आपसे बात करना.  आप नहीं समझेंगी आज के समय की इन मॉर्डन बातों को, यह कहकर बेटी पैर पटकती हुई चली गई. तेज आवाज के साथ उसके कमरे का दरवाजा बंद हो गया.

माँ जिसे सुरक्षा बता रही थी, बेटी के लिए वह बंधन था. माँ के लिए हॉस्टल के नियम जरूरी थे, बेटी को उसमें कोई लॉजिक नहीं लग रहा था. बेटी की नजरों में दुराचार की घटनाओं के लिए दिन और रात का कोई अंतर नहीं था, माँ की आँखों में रात में घटी  बलात्कार की अनेक घटनाएं  जिंदा थीं.  माँ की माथे की लकीरें कह रही थीं  चिंता तो होती है बेटी —-.

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 52 – नई राह ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय लघुकथा  “नई राह। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 52 ☆

☆ लघुकथा –  नई राह ☆

 

“बेटा  ! ये भगवा वस्त्र क्यों धारण कर लिए. क्या शादी नहीं करोगे ?”

“नहीं काका ! मुझे मेरे मम्मी-पापा जैसा नहीं बनाना है.”

“तब क्या करोगे तुम.”

“पहले प्रकृतिस्थ बनूंगा.”

“मतलब ?”

“पहले मैं नदी से सरसता व सरलता का पाठ सीखूंगा . फिर कबूतर जैसा शांत बनूँगा. तब मेरे इस कुत्ते से वफादारी ग्रहण करूँगा.”

“मगर यह सब क्यों बेटा?”

“ताकि मम्मी-पापा की तरह नफरत व छल-कपट की तरह जीने वाले माता-पिता को एक नई राह दिखा सकू.”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

१५/०५/२०१५

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी / मराठी साहित्य – लघुकथा ☆ सुश्री मीरा जैन की हिन्दी लघुकथा ‘वृक्षारोपण’ एवं मराठी भावानुवाद ☆ श्रीमति उज्ज्वला केळकर

श्रीमति उज्ज्वला केळकर

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपके कई साहित्य का हिन्दी अनुवाद भी हुआ है। इसके अतिरिक्त आपने कुछ हिंदी साहित्य का मराठी अनुवाद भी किया है। आप कई पुरस्कारों/अलंकारणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी अब तक 60 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें बाल वाङ्गमय -30 से अधिक, कथा संग्रह – 4, कविता संग्रह-2, संकीर्ण -2 ( मराठी )।  इनके अतिरिक्त  हिंदी से अनुवादित कथा संग्रह – 16, उपन्यास – 6,  लघुकथा संग्रह – 6, तत्वज्ञान पर – 6 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  

आज प्रस्तुत है  सर्वप्रथम सुश्री मीरा जैन जी  की  मूल हिंदी लघुकथा  ‘वृक्षारोपण’ एवं  तत्पश्चात श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  द्वारा मराठी भावानुवाद वृक्षारोपण’

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सुश्री मीरा जैन 

(सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार सुश्री मीरा जैन जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है ।  अब तक 9 पुस्तकें प्रकाशित – चार लघुकथा संग्रह , तीन लेख संग्रह एक कविता संग्रह ,एक व्यंग्य संग्रह, १००० से अधिक रचनाएँ देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से व्यंग्य, लघुकथा व अन्य रचनाओं का प्रसारण। वर्ष २०११ में ‘मीरा जैन की सौ लघुकथाएं’  पुस्तक पर विक्रम विश्वविद्यालय (उज्जैन) द्वारा शोध कार्य करवाया जा चुका है।  अनेक भाषाओं में रचनाओं का अनुवाद प्रकाशित। कई अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय तथा राज्य स्तरीय पुरस्कारों से पुरस्कृत / अलंकृत । नई दुनिया व टाटा शक्ति द्वारा प्राइड स्टोरी अवार्ड २०१४, वरिष्ठ लघुकथाकार साहित्य सम्मान २०१३ तथा हिंदी सेवा सम्मान २०१५ से सम्मानित। २०१९ में भारत सरकार के विद्वानों की सूची में आपका नाम दर्ज । आपने प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट के पद पर पांच वर्ष तक बाल कल्याण समिति के सदस्य के रूप में अपनी सेवाएं उज्जैन जिले में प्रदान की है। बालिका-महिला सुरक्षा, उनका विकास, कन्या भ्रूण हत्या एवं बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ आदि कई सामाजिक अभियानों में भी सतत संलग्न । आपकी किताब 101लघुकथाएं एवं सम्यक लघुकथाएं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त मानव संसाधन विकास मंत्रालय व छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा आपकी किताबों का क्रय किया गया है.)

वृक्षारोपण 

‘अरे हरिया! तू यह क्या कर रहा है कल ही नेता जी ने यहां ढेर सारे  पौधे लगा वृक्षारोपण का नेक कार्य किया हैं ताकि हमारे गांव मे भी खूबसूरत हरियाली छा जाये और पर्यावरण शुद्ध रहे, देख अखबार में फोटो भी छपी है एक तू है कि इन पौधों को उखाड़ने में तुला  हुआ है  तेरी जगह और कोई होता तो मैं पुलिस के हवाले कर देता उन्होंने फोन कर मुझे इन पौधों की सुरक्षा का जिम्मा सौंपा है समझा, चल भाग यहां से’

गांव के मुखिया की आवाज सुन हरिया ने सिर ऊपर उठाया और समझाइशी स्वर में जवाब दिया-

‘मुखिया जी! कल वृक्षारोपण के वक्त आप तो यहां थे नहीं, मैं ही था  ये गढ्ढे भी मैंने खोदे हैं नेताजी ने तो केवल अखबार में  छपने के लिए ही वृक्षारोपण किया है उसी काम को मैं अब अंजाम दे रहा हूं देखिए आपके पीछे आम, जाम, नीम, जामुन आदि के पौधे रखे हैं जिन्हें में यहां वहां से ढूंढ ढूंढ कर इन गड्ढों में लगाने के लिए लाया हूं और  इन पौधों को देखिए जिन्हे उनके साथ आए लोग आनन-फानन में पास वाले खेत से कुछ पौधे उखाड़ लाये और नेताजी के हाथों लगवाते हुए फोटो खींचा और चले गए.’

मुखिया जी की नजर जब उन पौधों पर पड़ी तो उनका तमतमाया  चेहरा लटक गया क्योंकि वे पौधे भिंडी, टमाटर ग्वारफली, मिर्ची आदि के थे.

© मीरा जैन

उज्जैन, मध्यप्रदेश

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☆ वृक्षारोपण 

(मूळ कथा – वृक्षारोपण  मूळ लेखिका – मीरा जैन   अनुवाद – उज्ज्वला केळकर)

‘अरे हरिया, काय चाललाय काय तुझं? कालच नेताजींनी इथे अनेक झाडं लावून वृक्षारोपणाचं मोठं चांगलं काम केलय. आता आपल्या गावात सगळीकडे हिरवाई दिसेल. पर्यावरण शुद्ध राहील. बघ… बघ… वर्तमानपत्रात फोटोसुद्धा आलाय आणि एक तू आहेस की लावलेली ही झुडुपं उपटायला लागला आहेस. तुझ्या जागी दूसरा कुणी असता, तर मी त्याला पोलीसांच्याच स्वाधीन केलं असतं. नेताजींनी फोन करून माझ्यावर या झाडांच्या सुरक्षिततेची जबाबदारी सोपवलीय. कळलं. चल. निघ इथून.’

गावातल्या सरपंचांचा आवाज ऐकून हरियाने मान वर केली आणि त्यांना समजवण्याच्या स्वरात उत्तर दिलं, ‘साहेब, काल वृक्षारोपणाच्या वेळी आपण काही इथे नव्हतात. मीच होतो. हे खड्डे मीच खणले आहेत. नेताजींनी केवळ वर्तमानपत्रात छापून येण्यापुरतं वृक्षारोपण केलाय. तेच काम मी आज पूर्ण करत आहे. आपल्या मागे बघा. आंबा, जांभूळ, लिंब, वडा, पिंपळ इ. झाडांची रोपं ठेवली आहेत. कुठून कुठून ती या खड्ड्यातून लावायला मी मिळवून आणलीत आणि या खड्ड्यात लावलेल्या रोपांकडे बघा. त्यांच्या बरोबर आलेल्या लोकांननी आसपासच्या शेतातून भाज्यांची झुडुपं उपटून आणलीत. नेताजींच्या बरोबर फोटो काढले. त्यांचं काम संपलं.

सरपंचांची नजर आता त्या झुडुपांकडे वळली आणि त्यांचा संतप्त चेहरा विकल झाला कारण ती भेंडी, टोमॅटो, गवार, मिरची  यांची झुडुपं होती.

‘हीही मला त्या त्या जागी नेऊन पुन्हा लावायचीत ना!’ हरिया म्हणाला आणि पुन्हा मान खाली घालून कामाला लागला.

 

© श्रीमति उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री ‘ प्लॉट नं12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ , सांगली 416416 मो.-  9403310170

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 33 ☆ लघुकथा – पंख होते तो उड जाते ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक अतिसुन्दर विचारणीय लघुकथा   “ पंख होते तो उड जाते”। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस प्रेरणास्पद  अतिसुन्दर शब्दशिल्प से सुसज्जित लघुकथा को सहजता से रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 33☆

☆  लघुकथा – पंख होते तो उड जाते

लॉन के कोने में  आम का एक घना पेड है. एक दिन पेड के बीचोंबीच एक चिडिया की आवाजाही जरा ज्यादा ही दिखी,  मैंने आम की डाल को हटा कर धीरे से देखा – अरे वाह ! चिडिया रानी घोंसला बना रही हैं, मन खुश हो गया. पक्षियों की चहल – पहल पूरे घर में रौनक ला देती है. चिडिया अपनी छोटी सी चोंच में घास – फूस, धागे का टुकडा तो कभी सुतली लेकर आती. धीरे – धीरे घोंसला बन रहा था , मैं चुपचाप जाकर उसकी बुनावट देखती कुछ पत्तों को धागे और  सुतली से ऐसे जोड दिया था मानों किसी इंसान ने सुईं धागे से सिल दिया हो, कैसी कलाकारी है इन पक्षियों में,  कौन सिखाता है इन्हें ये सब. इंसानों की दुनिया में दर्जनों कोचिंग क्लासेस हैं,जो चाहे सीख लो,  पर ये कैसे सीखते हैं ? नजरें आकाश की ओर उठ गईं.

चिडिया ने कब  घोंसला बना लिया और कब उसमें अंडे आ गए मुझे कुछ पता ही न चला.  एक दिन चूँ – चूँ   की मोहक आवाज ने लॉन को गूँजा दिया. चिडिया रानी अब नन्हें- नन्हें चूजों की माँ थी और अपना दायित्व निभा रही थीं. फुर्र से उडकर जाती और नन्हीं सी चोंच में दाने लाकर चूजों के मुँह में डाल देती. ना जाने कितने चक्कर लगाती थी वह. तीनों बच्चे चोंच  खोले चूँ- चूँ, चीं -चीं करते रहते. इनकी  मीठी आवाजों से आम का पेड  गुलजार  था और मेरा मन भी.

चिडिया रानी अब अपने बच्चॉं को उडना सिखाने लगी थी. वह उडकर पेड की एक  डाल पर बैठती और पीछे पीछे बच्चे भी आ बैठते. फिर पेड से उडकर छत की मुंडेर पर बैठने लगी. बच्चे कुछ उडते,  कुछ फुदकते उसके पीछे आ जाते. और फिर एक दिन  चिडिया ने लंबी उडान भरी, बच्चे उडना सीख गए थे, उनके पंखों में जान आ गई थी,  अब उनकी  अलग दिशाएं थीं, अपने रास्ते.  ना चिडिया लौटी, ना बच्चे. आम के पेड पर घोंसला अब भी वैसा ही था  पक्षियों के जीवन की कहानी कहता हुआ,  बच्चों को जन्म दिया, खिलाया, पिलाया, उडना सिखाया और बस. इंसानों की तरह ना अकेलापन, ना बेबसी, ना कोरोना,  ना रोना .

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 51 – नकल ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय लघुकथा  “नकल। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 51 ☆

☆ लघुकथा –  नकल ☆

 

परीक्षाहाल से गणित का प्रश्नपत्र हल कर बाहर निकले रवि ने चहकते हुए जवाब दिया, “निजी विद्यालय में पढ़ने का यही लाभ है कि छात्रहित में सब व्यवस्था हो जाती है.”

“अच्छा.” कहीं दिल में सोहन का ख्वाब टूट गया था.

“चल. अब, उत्तर मिला लेते है.”

“चल.”

प्रश्नोत्तर की कापी देखते ही रवि के होश के साथ-साथ उस के ख्वाब भी भाप बन कर उड़ चुके थे. वही सोहन की आँखों में मेहनत की चमक तैर रही थी.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

२०/०७/२०१५

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ दो-दो नाकें ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(डॉ कुंवर प्रेमिल जी  जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में लगातार लेखन का अनुभव हैं। अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। वरिष्ठतम नागरिकों ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं /महामारियों से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। आज प्रस्तुत है  उनकी एक सार्थक लघुकथा “ दो-दो नाकें”। )

☆ लघुकथा – दो-दो नाकें ☆  

एक आदमी एक  साथ आधा दर्जन बकरियाँ खरीद लाया. घास पत्ती खाकर बकरियां अपना परिवार बढ़ाने लगी. मोहल्ले के बच्चे बकरियों के छौने खिलाने लगे. पड़ोसी के घर घी – दूध की नदी बहने लगी. सुबह-सुबह महंगे दामों पर बकरी का शुद्ध दूध खरीदने वालों की कतारें लगने लगीं.

मोहल्ले वालों में फिर शीघ्र ही बकरी मालिक से मतभेद बढ़ने लगा. उसकी  संपन्नता मोहल्ले वालों से देखी नहीं जा रही थी.

वे सब बकरी मालिक से बोले- भाई जी, बकरियों ने हमारी नींदे खराब कर दी है. उनके मल मूत्र की गंध ने हमारा सुख चैन छीन  लिया है. आप शीघ्र ही इसका कोई उपाय कीजिए.

बकरी वाला पूरी निडरता से बोला-  बकरियां तो गांधी बाबा के पास भी थीं. उनकी बकरियों से तो किसी को भी शिकायतें  नहीं रहीं. मेरी बकरियों की दुर्गंध आपको कैसे आने लगी. आपके पास दो दो नाकें है क्या?

बकरी मालिक और पड़ोसियों के बीच एकाएक गांधीजी आ खड़े हुए तो सबकी बोलती बंद हो गयी.

आज भी गांधी बाबा इसी तरह हरिजनों -गिरीजनों के बीच उनकी लाठी बनकर खड़े हो जाएं तो क्या कीजिएगा?

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल
एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ लाठी ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(डॉ कुंवर प्रेमिल जी  जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में लगातार लेखन का अनुभव हैं। अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। वरिष्ठतम नागरिकों ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक कई महामारियों से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है। आज प्रस्तुत है  उनकी एक अतिसुन्दर  एवं सार्थक लघुकथा “ लाठी ”। )

☆ लघुकथा – लाठी ☆  

“यह किसकी लाठी है?”

“मेरे दादाजी की  है जी.”

“और यह लाठी ?”

“दादाजी के दादाजी की है जी. ”

“और उस कोने में  रखी वह लाठी?”

“दादा जी के दादाजी के दादाजी की है जी.”

“अजीब देश है तुम्हारा जी, जहां देखो जिसके हाथ में देखो, लाठी मिलेगी. बिना लाठी यहां के लोग चल नहीं सकते है क्या? ”

“ठीक कहा है जी आपने, इन सभी लाठियों के ऊपर है गांधी बाबा की लाठी.”

“वही पुरानी सी पतली सी लाठी!”

“हां वही पुरानी पतली सी लाठी, जिसने अंग्रेजों की कमर तोड़ दी थी…… अरे एक युग हांक दिया था उस लाठी ने जी. ”

“वह तो मैंने अखबारों में पढ़ा था. लाठियों की  पीढ़ियां देखने मिल गई. कभी कुछ लिखने लायक हुआ तो लाठियों पर पी.एच.डी. जरूर करूंगा. काश! गांधी बाबा हमारे देश में पैदा हुए होते, मेरे ऊपर एक कृपा करना, देश लौटते समय एक लाठी मुझे भी भेंट कर देना.”

एक विदेशी पर्यटक इस देश का मेहमान बना था. जाते समय वह एक लाठी लेकर अपने देश चला गया.

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल
एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ कहानी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆  लघुकथा – कहानी

‘यह दुनिया की सबसे लम्बी कहानी है। इसे गिनीज बुक में दर्ज़ किया गया है,.’ जानकारी दी जा रही थी।

वह सोचने लगा कि पहली श्वास से पूर्णविराम की श्वास तक हर मनुष्य का जीवन एक अखंड कहानी है। असंख्य जीव, अनंत कहानियाँ..। हर कहानी की लम्बाई इतनी अधिक कि नापने के लिए पैमाना ही छोटा पड़ जाए।…फिर भला कोई कहानी दुनिया की सबसे लम्बी कहानी कैसे हो सकती है..?

इस कहानीकार का हर कहानीकार को नमस्कार।

 

# दो गज की दूरी, है बहुत ही ज़रूरी।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(प्रातः 6:30 बजे, 26.5.2019)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 
मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 32 ☆ लघुकथा – दूरदर्शिता ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक  “ बोधपरक लघुकथा – दूरदर्शिता ”। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस प्रेरणास्पद लघुकथा को सहजता से रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 32☆

☆  बोधपरक लघुकथा – दूरदर्शिता 

पानी से लबालब भरे एक तालाब में दो मछलियां रहती  थीं – दूरदर्शी और नुक्ताचीनी  , दोनों अच्छी दोस्त थीं पर स्वभाव में एक दूसरे के विपरीत. दूरदर्शी गंभीर स्वभाव की थी और हर काम सोच- समझकर किया करती थी. नुक्ताचीनी आलसी थी और हर बात को हँसकर हवा में उडा देती थी. उसका कहना था जो होगा देखा जाएगा. दूरदर्शी बहुत कोशिश करती थी उसे समझाने की, सही रास्ते पर लाने की लेकिन वह तो अपनी मर्जी की मालिक थी.

एक दिन दूरदर्शी तालाब की दीवार से सटी आराम कर रही थी तभी उसने दो मनुष्यों को आपस में बात करते सुना —‘ इस तालाब में बहुत मछलियां होंगी कल सबेरे आकर जाल डालेंगे, खूब कमाई होगी ‘. दूरदर्शी ने जल्दी से जाकर अन्य  मछलियों को सारी बात बताई और बोली हम सबको दूसरे तालाब में चले जाना चाहिए, नहीं तो जाल में फँस जाएंगे. यह सुनकर नुक्ताचीनी हँसकर बोली – अरे ये तो ऐसे ही डराती रहती है, जरूरी नहीं है कि कल वो आदमी जाल लेकर आ ही जाएं,कल की कल देखेंगे और यह कहकर वह तेजी से  गहरे पानी में चली गई.  दूरदर्शी क्या करती,वह चुप रही और सुबह होने का इंतजार करने लगी.

सुबह तालाब में ऊपर आकर उसने नजर दौडाई, देखा,  दो आदमी जाल लिए चले आ रहे थे. वे तालाब में जाल डालने की तैयारी करने लगे.वह  तेजी से अपनी सखियों से बोली – जल्दी से सब निकल चलो यहाँ से,  मछुआरे आ गए हैं. नुक्ताचीनी ने अब भी उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया. मछुआरों ने जाल डाला और नुक्ताचीनी उसमें फँस गई. वह बेबस निगाहों से अपनी सखियों की ओर देख रही थी पर अब पछताए होत क्या जब चिडिया चुग गई खेत ?

दूरदर्शी  मछली अपनी दूरदर्शिता से दूसरे  तालाब  में अन्य सखियों के साथ जीवन का आनंद उठा रही थी. सच ही है दूरदर्शिता जीवन में बहुत से संकटों से हमें बचा लेती है.

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 50 – काँच की दीवार ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय लघुकथा  “काँच की दीवार । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 50 ☆

☆ लघुकथा –  काँच की दीवार  ☆

 

“लड़कियों को छूट देना, मन चाही जगह जाने देना, ज्यादा रोका टोकी नहीं करना, अच्छे कालेज में पढ़ाना, मनचाहा मोबाइल देना – इन्ही सब वजह से लड़कियां बिगड़ जाती है. मैंने तुझे कहा था की मोना को ज्यादा लाड़ प्यार मत कर. बिगड़ जाएगी. यह उसी का नतीजा है कि तेरी लड़की ने भाग कर दूसरी जाति के लड़के से शादी कर ली. एक मेरी लड़की टीना को देख….,” मोहन अपने छोटे भाई के जले पर नमक छिटक रहे थे.

तभी मोहन जी के लडके ने आ कर कहा, “पापाजी ! मामाजी का फोन है. कह रहे है कि टीना ने ही मोना की शादी का बंदोबस्त किया था.”

मोहन जी को लगा कि अभी-अभी वे जिन शब्दों से अपने स्वाभिमान रूपी कांच की दीवार खड़ी कर रहे थे उसे उन की लड़की मोना के व्यवहार रूपी पत्थर से चकनाचूर हो गई.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

०४/०८/२०१५

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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