हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 61 ☆ लघुकथा – बदलाव ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है  एक  समसामयिक लघुकथा  ‘बदलाव’।  वर्तमान महामारी ने प्रत्येक व्यक्ति में बदलाव ला दिया है । डॉ परिहार जी  ने इस मनोवैज्ञानिक बदलाव को बखूबी अपनी लघुकथा में दर्शाया है। इस  सार्थक समसामयिक लघुकथा के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 61 ☆

☆ लघुकथा – बदलाव

 फोन की घंटी बजी तो मिसेज़ चन्नी ने उठाकर बात की। बात ख़त्म हुई तो माँजी यानी उनकी सास ने चाय पीते पीते पूछा, ‘किसका फोन आ गया सुबे सुबे?’

मिसेज़ चन्नी ने जवाब दिया, ‘वही गीता है। कहती है अब बुला लो। कहती है अन्दर आकर झाड़ू-पोंछा नहीं करेगी, बर्तन धोकर बाहर बाहर चली जाएगी। आधे काम के ही पैसे लेगी। ‘

माँजी बोलीं, ‘बड़ी मुश्किल है। ये बीमारी ऐसी फैली है कि किसी को भी घर में बुलाने में डर लगता है। बाहर से आने वाला कहाँ से आता है, कहाँ जाता है,क्या पता। बड़ा खराब टाइम है भाई। ‘

मिसेज़ चन्नी बोलीं, ‘कहती है कि बहुत परेशान है। माँ की तबियत खराब है, उसकी दवा के लिए पैसे की दिक्कत है। ‘

माँजी कहती हैं, ‘सोच लो। हमें तो भई डर लगता है। ‘

मिसेज़ चन्नी बोलीं, ‘डर की बात तो है ही। ये बीमारी ऐसी है कि इसका कुछ समझ में नहीं आता। मैं तो टाल ही रही हूँ। कह दिया है कि एक दो दिन में बताती हूँ। बार बार रिक्वेस्ट कर रही थी। ‘

शुरू में जब गीता को काम पर आने से मना किया तो मिसेज़ चन्नी बहुत नर्वस हुई थीं। समझ में नहीं आया कि काम कैसे चलेगा। खुद उन्हें ऐसे मेहनत के काम करने की आदत नहीं। एक दिन झाड़ू-पोंछा करना पड़ जाए तो बड़ी थकान लगती है। बर्तन धोना तो पहाड़ लगता है।

राहत की बात यह है कि ये दोनों काम बच्चों ने संभाल लिये हैं। बच्चों के स्कूल बन्द हैं, व्यस्त रहने के लिए कुछ न कुछ चाहिए। मोबाइल में उलझे रहने के बजाय झाड़ू लगाने और बर्तन धोने में मज़ा आता है। इसे लेकर निक्कू और निक्की में लड़ाई होती है, इसलिए दोनों के अलग अलग दिन बाँध दिये हैं। एक दिन निक्कू बर्तन धोयेगा तो निक्की झाड़ू-पोंछा करेगी। दूसरे दिन इसका उल्टा होगा। आधे घंटे का काम एक घंटे तक चलता है। उनका काम देखकर मिसेज़ चन्नी और माँजी हुलसती रहती हैं। इनाम में बच्चों को चॉकलेट मिलती है। सब का मनोरंजन होता है।

माँजी ऐसे मौकों पर गीता को याद करती रहती हैं। महामारी फैलने से पहले गीता अपनी तुनकमिजाज़ी के लिए मुहल्ले में बदनाम थी। काम में तो तेज़ थी, लेकिन कोई बात उसके मन के हिसाब से न होने पर उसे काम छोड़ने में एक मिनट भी नहीं लगता था। मिसेज़ चन्नी का काम उसने दो बार छोड़ा था और दोनों बार उसे सिफारिश और खुशामद के बाद वापस लाया गया था।

पहली बार मिसेज़ चन्नी ने बर्तनों में चिकनाहट लगी रहने की शिकायत की थी और वह दूसरे दिन गायब हो गयी थी। फिर मिसेज़ शुक्ला से सिफारिश कराके उसे वापस बुलाया गया, और माँजी ने उसे ‘बेटी बेटी’ करके बड़ी देर तक पुचकारा। तब मामला सीधा हुआ। दूसरी बार बिना बताये छुट्टी लेने पर मिसेज़ चन्नी ने शिकायत की थी और वह फिर अंतर्ध्यान हो गयी थी। तब मिसेज़ चन्नी उसे घर से बुलाकर लायी थीं। आने के बाद भी वह तीन चार दिन मुँह फुलाये रही थी और मिसेज़ चन्नी की साँस ऊपर नीचे होती रही थी।

आखिरकार मिसेज़ चन्नी ने गीता को बुला लिया है। बच्चे घर के काम से अब ऊबने लगे हैं। चार दिन का शौक पूरा हो गया है। पहले काम करने के लिए जल्दी उठ जाते थे, अब उठने में अलसाने लगे हैं। बुलाने के साथ गीता को समझा दिया गया है कि गेट से आकर पीछे बर्तन धो कर चली जाएगी, घर के भीतर प्रवेश नहीं करेगी। गीता तुरन्त राज़ी हो गयी है। समझ में आता है कि रोज़ी की चिन्ता ने उसकी अकड़ को ध्वस्त कर दिया है।

मिसेज़ चन्नी देखती हैं कि दो तीन महीनों में गीता बहुत बदल गयी है। चुपचाप आकर काम करके निकल जाती है। पहले जैसे आँख मिलाकर बात नहीं करती। कभी बर्तन ज़्यादा हो जाएं तो आपत्ति नहीं करती। कभी देर से पहुँचने पर मिसेज़ चन्नी ने झुँझलाहट ज़ाहिर की तो उसने कोई जवाब नहीं दिया। उसको लेकर अब मिसेज़ चन्नी के मन में कोई तनाव नहीं होता। उन्हें लगता है कि गीता को लेकर अब निश्चिंत हुआ जा सकता है। अब आशंका का कोई कारण नहीं रहा।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही -लोकनायक रघु काका-2 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  एक धारावाहिक कथा  “स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही  -लोकनायक रघु काका ” का द्वितीय  भाग।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही  -लोकनायक रघु काका-2

निम्न‌ कुल में जन्म लेने के बाद भी उन्होंने अपना एक अलग‌ ही आभामंडल विकसित कर लिया था। इसी लिए वे उच्च समाज के महिला पुरुषों के आदर का पात्र बन कर उभरे थे। मुझे आज भी वो समय‌ याद है जब देश अंग्रेजी शासन की ग़ुलामी से आजादी का आखिरी संघर्ष कर रहा‌ था। महात्मा गांधी की अगुवाई में अहिंसात्मक आंदोलन अपने चरमोत्कर्ष पर था। हज़ारों लाखों भारत माता के अनाम लाल  हँसते हुए फांसी का फंदा चूम शहीद हो चुके थे। इन्ही परिस्थितियों ने रघु काका के हृदय को आंदोलित और  उद्वेलित कर दिया था। वे भी अपनी ढ़ोल‌क ले कूद पड़े थे। दीवानगी के आलम में आजादी के संघर्ष में अपनी भूमिका निभाने तथा अपना योगदान देने। अब उनके गीतों के सुर लय ताल बदले हुए थे। वे अब प्रेम विरह के गीतों के बदले देश प्रेम के गीत गाकर नौजवानों के हृदय में देशभक्ति जगाने लगे थे। अब उनके गीतों में भारत माँ के अंतर की‌ वेदना मुख्रर हो रही थी।

इसी क्रम में एक दिन वे गले में ढोल लटकाये आजादी के दीवानों के दिल में जोश भरते जूलूस की अगुवाई ‌कर रहे थे। उनके देशभक्ति के भाव‌ से  ओत-प्रोत ओजपूर्ण गीत सुनते सुनते जनता के हृदय में देशभक्ति का ज्वार उमड़ पड़ा था। देशवासी भारत माता की जय, अंग्रेजों भारत छोड़ो के नारे लगा रहे थे। तभी अचानक उनके जूलूस का सामना अंग्रेजी गोरी फौजी टुकड़ी से हो गया। अपने अफसर के आदेश पर फौजी टुकड़ी टूट पड़ी थी।  निहत्थे भारतीय आजादी के दीवानों  पर सैनिक घोडे़ दौड़ाते हुए हंटरो तथा बेतों से पीट रहे थे। तभी अचानक उस जूलूस का नजारा बदल गया। भारतीयों के खून की प्यासी फौजी टुकड़ी का अफसर  हाथों से तिरंगा थामे बूढ़े आदमी को जो उस जूलूस का ध्वजवाहक था अपने आक्रोश के चलते  हंटरो से पीटता हुआ  पिल  पड़ा था   उस पर। वह बूढ़ा आदमी दर्द और पीड़ा से बिलबिलाता बेखुदी के आलम में भारत माता की जय के नारे लगाता चीख चिल्ला रहा था। वह अपनी जान देकर भी ध्वज झुकाने तथा हाथ से छोड़ने के लिए तैयार न था  और रघू काका उस बूढ़े का अपमान सह नहीं सके।  फूट पड़ा था उनके हृदय का दबा आक्रोश। उनकी आँखों में खून उतर आया था।

उन्होंने झंडा झुकने नहीं दिया। उस बूढ़े को पीछे धकेलते हुए अपनी पीठ आगे कर दी थी।  आगे बढ़ कर सड़ाक सड़ाक सड़ाक  पीटता जा रहा था अंग्रेज अफसर। तभी रघु काका ने उसका हंटर पकड़ जोर से झटका दे घोड़े से नीचे गिरा दिया था । जो उनके चतुर रणनीति का हिस्सा थी। उन्होंने अपनी ढोल को ही अपना हथियार बना अंग्रेज अफसर के सिर पर दे मारा था।  अचानक इस आक्रमण ने उसको संभलने का मौका नहीं दिया। वह अचानक हमले से घबरा गया। फिर तो जूनूनी अंदाज में पागलों की तरह पिल पड़े थे उस पर  और मारते मारते भुर्ता बना दिया था उसे। उसका रक्त सना चेहरा बड़ा ही वीभत्स तथा विकृत भयानक दीख रहा था। वह चोट से बिलबिलाता गाली देते चीख पड़ा था।  “ओ साला डर्टीमैन टुम अमको मारा। अम टुमकों जिन्डा नई छोरेगा। और फिर तो उस गोरी टुकड़ी के पांव उखड़ ‌गये थें। वह पूरी टुकड़ी जिधर से आई थी उधर ही भाग गई थी और रघु काका ने ‌अपनी‌ हिम्मत से स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक नया अध्याय ‌लिख दिया था। आज की जीत का सेहरा‌ रघु काका के सिर सजा था और उनका सम्मान और कद लोगों के बीच बढ़ गया ‌था। वे लोगों की श्रद्धा का केन्द्र ‌बन बैठे थे।

लेकिन कुछ ही दिन बाद रघु काका अपने ही‌ स्वजनों-बंधुओं के ‌धोखे का शिकार बने थे। वे मुखबिरी व गद्दारी के चलते रात के छापे में पकड़े गये थे।  लेकिन उनके चेहरे पर भय आतंक व पश्चाताप का कोई भाव नहीं थे। वे जब घूरते हुए अंग्रेज अफसर की तरफ दांत पीसते हुए देखते तो उसके शरीर में झुरझुरी छूट जाती। ‌उस दिन उन पर अंग्रेज थानेदार अफसर ने बड़ा ‌ही बर्बर अत्याचार किया था। लेकिन वह रघु के‌ चट्टानी हौसले ‌‌को तोड़ पाने में ‌विफल रहा। वह हर उपाय‌ साम दाम दंड भेद अपना चुका था लेकिन असफल रहा था मुंह खुलवाने में। न्यायालय से रघु काका को लंबी ‌जेल की सजा सुनाई गई थी। उन्हें कारागृह की अंधेरी तन्ह काल कोठरी में डाल दिया ‌गया था। लेकिन वहाँ जुल्म सहते हुए भी उनका जोश जज्बा और जुनून कम नहीं हुआ। उनके जेल जाने पर उनके एकमात्र वारिस बचे पुत्र  राम खेलावन‌ के पालन पोषण की ‌जिम्मेदारी  समाज के वरिष्ठ मुखिया लोगों ने अपने उपर ले लिया था। राम खेलावन ने भी अपनी विपरित परिस्थितियों के नजाकत को समझा था और अपनी पढ़ाई पूरी मेहनत के ‌साथ की तथा उच्च अंकों से परीक्षा ‌पास कर निरंतर प्रगति पथ पर बढ़ते हुए अपने ही जिले के शिक्षा विभाग  में उच्च पद पर आसीन हो गये थे। वे जिधर भी जाते स्वतंत्रता सेनानी के पुत्र होने के नाते उनको भरपूर सम्मान मिलता जिससे उनका हृदय आत्मगौरव के प्रमाद से ग्रस्त हो गया था। वे भुला चुके थे अपने गरीबी के दिनों को।

क्रमशः …. 3

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ स्त्री ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

आज प्रस्तुत है एक सार्थक लघुकथा स्त्री । इस रचना के सन्दर्भ में श्री कमलेश भारतीय जी के ही शब्दों में “डाॅ कमल चोपड़ा के संपादन में आई संरचना के सन् 2019 के संकलन में प्रकाशित यह लघुकथा। फेसबुक ने की रिपीट। यानी इसे लिखे हो गया एक साल।” कृपया आत्मसात करें।

☆ लघुकथा : स्त्री 

वह जार जार रोये जा रही थी और फोन पर ही अपने पति से झगड़  रही थी । बार बार एक ही बात पर अड़ी  हुई थी कि आज मैं घर नहीं आऊँगी। बहुत हो गया । संभालो अपने बच्चे । मुझे कुछ नहीं चाहिए ।

पति दूसरी तरफ से मनाने की कोशिश में लगा था और वह  आँसुओं में डूबी कह रही थो कि आखिर मैं कलाकार हूं तो बुराई कहाँ  है ? क्या मैं घर का काम नहीं करती ? क्या मैं आदर्श बहू नहीं ? यदि कला का दामन छोड दूं और मन मार कर रोटियां थापती और बच्चे पालती रहूँ तभी आप बाप बेटा खुश होंगे ? नहीं । मुझे अपनी खुशी भी चाहिए । मेरो कला मर रही है । आज मेरा इंतजार मत करना । मैं नौकरी के बाद सीधे मायके जाऊँगी। मेरे पीछे मत आना ।

इसी तरह लगातार रोती बिसूरती वह ऑफिस का टाइम खत्म होते ही सचमुच अपने मायके चली गयी।

माँ  बाप ने हैरानी जताई । अजीब सी नजरों से देखा । कैसे आई ? कोई जरूरी काम आ पड़ा ? कोई स्वागत नहीं । कहीं बेटी के घर आने की कोई खुशी नहीं । चिंता, बस चिंता । क्या करेगो यहां बैठ कर ? मुहल्लेवाले क्या कहेंगे ? हम कैसे मुँह दिखायेंगे ?

शाम को पति मनाने और लिवाने आ गया । कहाँ है मेरा घर ? यह सोचती अपने रोते बच्चों के लिए घर लौट गयी । पर कौन सा घर ? किसका घर ? कहाँ खो गयी कला ? किसी घर में नहीं ?

©  कमलेश भारतीय

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ स्वाभिमान ☆ सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा

सुश्री नरेन्द्र कौर छाबड़ा

(सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार सुश्री नरेन्द्र कौर छाबड़ा जी पिछले 40 वर्षों से लेखन में सक्रिय। 5 कहानी संग्रह, 1 लेख संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 पंजाबी कथा संग्रह तथा 1 तमिल में अनुवादित कथा संग्रह। कुल 9 पुस्तकें प्रकाशित।  पहली पुस्तक मेरी प्रतिनिधि कहानियाँ को केंद्रीय निदेशालय का हिंदीतर भाषी पुरस्कार। एक और गांधारी तथा प्रतिबिंब कहानी संग्रह को महाराष्ट्र हिन्दी साहित्य अकादमी का मुंशी प्रेमचंद पुरस्कार 2008 तथा २०१७। प्रासंगिक प्रसंग पुस्तक को महाराष्ट्र अकादमी का काका कलेलकर पुरुसकर 2013 लेखन में अनेकानेक पुरस्कार। आकाशवाणी से पिछले 35 वर्षों से रचनाओं का प्रसारण। लेखन के साथ चित्रकारी, समाजसेवा में भी सक्रिय । महाराष्ट्र बोर्ड की 10वीं कक्षा की हिन्दी लोकभरती पुस्तक में 2 लघुकथाएं शामिल 2018 )

आज प्रस्तुत है आपकी लघुकथा स्वाभिमान।  स्वाभिमान लघुकथा का सुश्री माया महाजन द्वारा मराठी भावानुवाद आज के ही अंक में प्रकाशित हुआ है जिसे आप इस लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं >>>> ☆ जीवनरंग : स्वाभिमान –  सुश्री माया महाजन ☆

☆  लघुकथा – स्वाभिमान

एक सम्बन्धी की बेटी की शादी में दूसरे शहर जाने का अवसर मिला। दुल्हन को मेंहदी लगाने के लिए जो लड़की आई उसे देख एकबारगी सभी चकित रह गए। दूध सा गोरा रंग, ऊंची कद काठी, तीखे नाक नक्श लेकिन गूंगी थी। बड़े मनोयोग से वह अपने कार्य में जुट गई। सभी महिलाएं बड़ी उत्सुकता से उसे तथा उसकी कला को निहार रही थी।

अचानक एक महिला उस लड़की से कुछ बोली तो उसने लिखकर बताने का इशारा किया। उस महिला ने कागज़ पर लिखा –” आपकी बीमारी का ईलाज हमारे शहर के माने हुए वैद्यजी कर सकते हैं “।

उस लड़की ने उसी कागज़ के नीचे अपना जवाब लिखा – “असम्भव। मैं जन्म से गूंगी हूं और काफी ईलाज करवा चुकी हूं”।

महिला ने दोबारा लिखा – “एक बार आजमाने में क्या हर्ज है? शायद आप ठीक हो जाएं। तब कितनी खुश, कितनी सुखी हो जाएंगी आप”।

लड़की ने उसके नीचे लिखा – “मैं आज भी इस हाल में संसार की सबसे खुश और सुखी लड़की हूँ”।

और वह धीरे से मुस्करा दी। अपने चेहरे पर स्वाभिमान की छटा बिखेरती हुई।

 

© नरेन्द्र कौर छाबड़ा

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ लिखना-पढ़ना ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ लिखना-पढ़ना ☆

 

…..कैसा चल रहा है लिखना-पढ़ना?

…..कुछ अपना लिखता हूँ, बहुत कुछ अपना  बाँचता हूँ।

…..अपना लिखना अच्छी बात है पर अपना ही लिखा बाँचना…?

आज नई कविता लिखता हूँ, मित्रों के साथ बाँटता हूँ। कल से मित्रों की रचनाओं में अपनी ही कविता के अगले संस्करण बाँचता हूँ।

 

©  संजय भारद्वाज 

9 जुलाई 2020, प्रात: 9.06 बजे।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 40 ☆ लघुकथा – मैडम ! चलता है ये सब ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी स्त्री  विमर्श  पर आधारित लघुकथा  मैडम ! चलता है ये सब ।  स्त्री जीवन के  कटु सत्य को बेहद संजीदगी से डॉ ऋचा जी ने शब्दों में उतार दिया है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी  को जीवन के कटु सत्य को दर्शाती  लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 40 ☆

☆  लघुकथा – मैडम ! चलता है ये सब   

मैडम ! मैं आज पुणे आ रही हूँ, आई (माँ) एडमिट है उसका शुगर बढ़ गया है। उसे देखने आ रही हूँ। आपसे मिले बिना नहीं जाऊँगी। आप व्यस्त होंगी तो भी आपका थोड़ा समय तो लूँगी ही।

मैंने हँसकर कहा- आओ भई ! तुम्हें कौन रोक सकता है। मेरी शोध छात्रा स्नेहा का फोन था। स्नेहा का स्वभाव कुछ ऐसा ही था। इतने अपनेपन और अधिकार से बात करती कि सामनेवाला ना बोल ही नहीं पाता। दूसरों के काम भी वह पूरे मन से करती थी। आप उसे अपना काम कह दीजिए, फिर देखिए जब तक काम पूरा न हो चैन नहीं लेती, ना दूसरे को लेने देगी। परेशान होकर आदमी उसका काम पूरा कर ही देता है। मैं कभी-कभी मज़ाक में उससे कहती कि स्नेहा ! तुम्हें तो किसी नेता की टीम में होना चाहिए लोगों का भला होगा।

‘क्या मैडम आप भी’ यह कहकर वह हँस देती।

नियत समय पर स्नेहा मेरे घर के सामने थी। रिक्शा रोके रखा, उसे तुरंत वापस जाना था। चिरपरिचित मुस्कान के साथ वह मेरे सामने बैठी थी, कुछ अस्त-व्यस्त-सी लगी। हमेशा की तरह दो-तीन बैग उसके कंधे पर झूल रहे थे। मैं समझ गयी कि घर से माँ के लिए खाना बनाकर लायी होगी। हल्के गुलाबी रंग का सूट पहने थी, उस पर भी तरह-तरह के दाग-धब्बे  दिख रहे थे , वह इस सब से बेपरवाह थी। आई (माँ) को देखना है और मैडम से मिलना है ये दो काम उसे करने थे। अर्जुन की तरह पक्षी की आँख जैसा उसका लक्ष्य हमेशा निर्धारित रहता था।

स्नेहा मेरी नजर भाँप गयी। मेरा ध्यान उधर से हटाने के लिए उसने अपने शोध-कार्य के कागज मेज पर फैला दिए। अधिक से अधिक बातों को तेजी से समेटती हुई बोली- मैम ! ये किताबें मुझे मिली हैं| इनमें से विषय से संबंधित सामग्री जेरोक्स करा ली है। एक अध्याय पूरा हो गया है। आप फुरसत से देख लीजिएगा।

ठीक है, मैं देख लूँगी। घर में सब कैसे है स्नेहा ? स्नेहा के पारिवारिक जीवन की उथल-पुथल से मैं परिचित थी। ससुरालवालों ने उसके जीवन को नरक बना रखा था। मैं यह भी जानती थी कि स्नेहा जैसी जीवट लड़की ही वहाँ टिक सकती है। मेरे प्रश्न के उत्तर में स्नेहा मुस्कुरा दी, बोली-

मैडम ! शादी को सात साल पूरे होनेवाले हैं पर वहाँ कुछ नहीं बदलता। सास का स्वभाव वैसा ही है। संजय कहता है कि ‘माँ जो करती है, सब ठीक है। मैं माँ को कुछ नहीं कहूँगा।’ उन लोगों को पैसा चाहिए, कहते हैं नौकरी करो,  अपने मायके से माँगो। मुझे पढ़ने भी नहीं देते। जिस दिन मेरी  परीक्षा होती है उससे एक दिन पहले मेरी सास को घर के सारे भूले-बिसरे काम याद आते हैं  और पति को लगता है कि बहुत दिन से उसने अपने दोस्तों को घर पर दावत नहीं दी। मना करो तो गाली-गलौज सुनो। मेरी बेटी सौम्या अब छ: साल की होनेवाली है। लड़ाई-झगड़े से वह डर जाती है  इसलिए मैं घर का माहौल ठीक रखना चाहती  हूँ।

मैडम ! इससे अच्छा ये लोग होने देना नहीं चाहते , इससे बुरा मैं होने नहीं दूँगी। गर्भ ठहर गया था। मैं दूसरा बच्चा नहीं चाहती। ये मुझे उसमें अटकाना चाहते थे। मेरी पढ़ाई-लिखाई सब चौपट। मैंने तय किया……….. मैं ऐसा नहीं होने दूँगी। मुझे किसी भी हालत में नेट परीक्षा पास करनी है, पीएच.डी. का काम पूरा करना है। मुझसे नजरें बचाती हुई धीरे से बोली-  मैंने कल एबॉर्शन करवा लिया है , मजबूरी थी , नहीं तो किसे अच्छा लगता है यह सब ? फिर बात बदलने के लिए बोली- छोड़ो ना मैडम ये सब चलता रहता है। डबडबाई आँखों को पोंछती स्नेहा फिर हँस पड़ी  थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ आत्मकथा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ आत्मकथा ☆

अनंत बार जो हुआ, वही आज फिर घटा। परिस्थितियाँ पोर-पोर को असीम वेदना देती रहीं। देह को निढाल पाकर धूर्तता से फिर आत्मसमर्पण का प्रस्ताव सामने रखा। विवश देह कोई हरकत करती, उससे पूर्व फिर बिजली-सी झपटी जिजीविषा और प्रस्ताव को टुकड़े-टुकड़े कर फेंक दिया। फटे कागज़ का अम्बार और बढ़ गया।

किसीने पूछा, ‘आत्मकथा क्यों नहीं लिखते?’… ‘लिखी तो है। अनंत खंड हैं। खंड-खंड बाँच लो’, लेखक ने फटे कागज़ के अम्बार की ओर इशारा करते हुए कहा।

 

©  संजय भारद्वाज 

प्रात: 4:27 बजे, 19.8.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन# 59 – हाइबन – मेनाल का झरना ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक हाइबन   “मेनाल का झरना। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन  # 59 ☆

☆ मेनाल का झरना ☆

बेगू जिला चित्तौड़गढ़ में स्थित मेनाल राजस्थान की सीमा पर बहता एक खतरनाक झरना है। जहां झरने के ऊपर बहती नदी में नहाने के दौरान बहुत ध्यान रखना पड़ता है । वहां पर कभी-कभी नदी में अचानक और बहुत सारा पानी एक साथ आ जाता है । इस दौरान नदी में अठखेलियां करते कई व्यक्ति अचानक बहकर गहरे झरने की खाई में गिर कर मर जाते हैं।।कई चेतावनी के बावजूद हर साल इस झरने में घटना घटती रहती है।

झरने के पास शिव मंदिर का बहुत सुन्दर और भव्य प्रांगण बहुत ही दर्शनीय है। यहां प्रांगण के पास ही झरने को देखने के लिए दर्शक दीर्धा बनी हुई है। मगर फिर भी लोग झरने के ऊपर से बहती उथली नदी में अठखेलियां करने चले जाते हैं।

इस मंदिर की एक अन्य विशेषता भी है । मंदिर के चारों ओर की दीवारों पर कामदेव की मूर्तियां उकेरी हुई है। कहते हैं कि प्राचीन समय में यहां के मंदिर पर कामकला की शिक्षा दी जाती थी । यह पुराने समय का प्रसिद्ध मानव जीवन मूल्यों की शिक्षा देने वाला प्रमुख स्थल था । इस मंदिर की भव्यता को इस प्रांगण की विशालता और स्थापत्य कला के बेजोड़ नमूनों से समझा जा सकता है।

‘काम’ की मुर्ति~

झरने में गिरते

नवदम्पति।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ ककनूस ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ ककनूस ☆

‘साहित्य को जब कभी दफनाया, जलाया या गलाया जाता है, ककनूस की तरह फिर-फिर जन्म पाता है।’

उसकी लिखी यही बात लोगों को राह दिखाती  पर व्यवस्था की राह में वह रोड़ा था। लम्बे हाथों और रौबीली आवाज़ों ने मिलकर उसके लिखे को तितर-बितर करने का हमेशा प्रयास किया।

फिर चोला तजने का समय आ गया। उसने देह छोड़ दी। प्रसन्न व्यवस्था ने उसे मृतक घोषित कर दिया। आश्चर्य! मृतक अपने लिखे के माध्यम से कुछ साँसें लेने लगा।

मरने के बाद भी चल रही उसकी धड़कन से बौखलाए लम्बे हाथों और रौबीली आवाज़ों ने उसके लिखे को जला दिया। कुछ हिस्से को पानी में बहा दिया। कुछ को दफ़्न कर दिया, कुछ को पहाड़ की चोटी से फेंक दिया। फिर जो कुछ शेष रह गया, उसे चील-कौवों के खाने के लिए सूखे कुएँ में लटका दिया। उसे ज़्यादा, बहुत ज़्यादा मरा हुआ घोषित कर दिया।

अब वह श्रुतियों में लोगों के भीतर पैदा होने लगा। लोग उसके लिखे की चर्चा करते, उसकी कहानी सुनते-सुनाते। किसी रहस्यलोक की तरह धरती के नीचे ढूँढ़ते, नदियों के उछाल में पाने की कोशिश करते। उसकी साँसें कुछ और चलने लगीं।

लम्बे हाथों और रौबीली आवाज़ों ने जनता की भाषा, जनता के धर्म, जनता की संस्कृति में बदलाव लाने की कोशिश की। लोग बदले भी  लेकिन केवल ऊपर से। अब भी भीतर जब कभी पीड़ित होते, भ्रमित होते, चकित होते, अपने पूर्वजों से सुना उसका लिखा उन्हें राह दिखाता। बदली पोशाकों और संस्कृति में खंड-खंड समूह के भीतर वह दम भरने लगा अखंड होकर।

फिर माटी ने पोषित किया अपने ही गर्भ में दफ़्न उसका लिखा हुआ। नदियों ने सिंचित किया अपनी ही लहरों में अंतर्निहित उसका लिखा हुआ। समय की अग्नि में कुंदन बनकर तपा उसका लिखा हुआ। कुएँ की दीवारों पर अमरबेल बनकर खिला और खाइयों में संजीवनी बूटी बनकर उगा उसका लिखा हुआ।

ब्रह्मांड के चिकित्सक ने कहा, ‘पूरी तन्मयता से आ रहा है श्वास। लेखक एकदम स्वस्थ है।’

अब अनहद नाद-सा गूँज रहा है उसका लेखन।

अब आदि-अनादि के अस्तित्व पर गुदा है उसका लिखा, ‘साहित्य को जब कभी दफनाया, जलाया या गलाया जाता है, ककनूस की तरह फिर-फिर जन्म पाता है।’

(असीम आनंद दिया इस कृति ने। माँ सरस्वती को दंडवत प्रणाम।)

©  संजय भारद्वाज 

14 अगस्त 2020, रात्रि 3:25 बजे।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही  -लोकनायक रघु काका-1 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  एक धारावाहिक कथा  “स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही  -लोकनायक रघु काका ” का प्रथम भाग।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही  -लोकनायक रघु काका-1

अलाव घास फूस तथा‌ लकडी  के उस ढेर को कहते हैं जो जाड़े के दिनों में दरवाजों पर जलाया जाता है, जिससे लोग हाथ सेकते हैं जिसके अलग अलग भाषाओं में अनेक नाम हैं, जैसे कौड़ा, तपनी,  तपंता, धूनी आदि। यही वो जगह है जहां  कथा-कहानियों की अविरल धारा बहती थी। यहीं गीता,  रामायण, महाभारत की कथाओं  का आकर्षण खींच लाता था। अगर अलाव न होते तो आज सारी दुनियां मुंशी प्रेमचंद की कालजयी रचनाओं से  वंचित ही‌ रहती और कफ़न जैसी काल जयी रचना का जन्म न हो पाता। शायद  इस कथा का जन्म भी यहीं हुआ था। इसका उद्गम स्थल भी अलाव ही है। ‌– सूबेदार पाण्डेय

हमारे बगल वाले गांव के ही रहने वाले थे रघु काका। उन्होंने अपने जीवन में बहुत सारे उतार चढ़ाव देखे थे। हमारे दादा जी जब कभी अलाव के पास बैठ रघु काका के बहादुरी की चर्चा छेड़ते तो लगता जैसे वे उनके साथ बीते दिनों की स्मृतियों में कहीं खो जाते। क्योंकि वे उनके विचारों के प्रबल समर्थक थे और इसके साथ हम बच्चों के ज़ेहन में रघू काका का व्यक्तित्व तथा उनके निष्कपट व्यवहार की यादें बस‌ जाती। तभी वे हमारे लोक कथा के नायक बन उभरे।

यद्यपि आज वो हमारे बीच नहीं रहे। दिल की लगी गहरी भावनात्मक चोट ने उन्हें विरक्ति के मार्ग पर ढकेल दिया। लेकिन वे और उनका चरित्र हमारी स्मृतियों में बसा हुआ आज भी कहानी बन कर पल रहा है।अब जब कभी स्मृतियों के झरोखे खुलते हैं, तो उनकी यादें  बरबस ही ताजा हो उठती हैं। उनके द्वारा बचपन में सुनाये गये गीतों के स्वर लहरियों की ध्वनितरंगे  कानों में मिसरी सी घोलती गूँज उठती है। उनका प्रेम पगा व्यवहार संस्मरण बन जुबां ‌पे मचल उठता है।

रघू काका ने पराधीन भारत माता की अंतरात्मा की पीड़ा, बेचैनी की  छटपटाहट को बहुत ही नजदीक से अनुभव किया था। वे भावुक हृदय इंसान थे। वो उस समुदाय से आते थे, जो अब भी यायावरी करता जरायम पेशा से जुड़ा हुआ है। जहां आज भी अशिक्षा, नशाखोरी, देह व्यापार गरीबी तथा कुपोषण के जिन्न का नग्नतांडव देखा जा सकता है। सरकारों द्वारा उनके विकास की बनाई गई हर योजना उनके दरवाजे पहुँचने के पहले ही दम तोड़ती नजर आती हैं। उनके कुनबों के लोगों का जीवन आज भी आज यहाँ तो कल वहाँ सड़कों के किनारे सिरकी तंबुओं में बीतता है। ढोल बजाकर, गाना गाकर, भीख मांग कर खाना तथा आपराधिक गतिविधियों का संचालन ही उस समुदाय का पेशा था। उसी समुदाय की उन्हीं परिस्थितियों से धूमकेतु बन उभरे थे रघू काका जिनका स्नेहासिक्त  जीवन व्यवहार उन्हें औरों से अलग स्थापित कर देता है। वे तो किसी और ही मिट्टी के बने थे। वे भी अपनी रोजी-रोटी की तलाश में वतन से दूर साल के आठ महीने टहला करते। बहुत दूर दूर तक उनका जाना होता।

लेकिन वे बरसात के दिनों का चौमासा अपने गांव जवार में ही बिताते। वो बरसात के दिनों में गांवों-कस्बों में घूम घूम आल्हा कजरी गाते सुनाते। ईश्वर ने उन्हें अच्छे स्वास्थ्य का मालिक बनाया था। शरीर जितना स्वस्थ्य हृदय उतना ही कोमल चरित्र बल उतना ही निर्मल। बड़ी बड़ी सुर्ख आंखें, घुंघराले काले बाल  रौबदार घनी काली मूंछें, चौड़ा सीना लंबी कद-काठी, मांसल ताकतवर भुजाओं का मालिक बनाया था उन्हें। बांये कांधे पर लटकती ढोल थामें दांये कांधे पर अनाज की गठरी ही उनकी पहचान थी। वे बहुत ज्यादा की चाह न रख बहुत थोड़े में ही संतुष्ट रहने वाले इंसान थे। वे भले ही चौपालों में गीत गा कर पेट भरते रहे हो, लेकिन हृदय दया से परिपूर्ण था और हम बच्चों के तो वो महानायक हुआ करते थे।  लोकगायक होने के नाते वे भावुक हृदय के मालिक थे।

वो बरसात में जब हमारे चौपालों में आल्हा या कजरी गीतों के सुर भरते तो मीलों दूर से लोग उनकी आवाज़ सुन उसके आकर्षण से बंधे खिंचे चले ‌आते और  चौपालों में भीड़ मच जाती। वे भावों के प्रबल चितेरे थे। कभी आल्हा-ऊदल केशौर्य चित्रण करते जोश में भर नांच उठते तो कभी कजरी गीतों में राम की विरह वेदना का चित्रण करते रो पड़ते। अथवा सुदामा द्रोपदी के चीर हरण कथा सुना लोगों को रोने पर विवश कर देते। वे जब कभी रामचरितमानस की चौपाइयों में बानी जोड़ ‌गाते———–

लछिमन कहां जानकी होइहै, ऐसी विकत अंधेरिया ना।
घन घमंड बरसै चहुओरा, प्रिया हीन तरपे मन मोरा।
ऐसी विकट अंधेरिया ना।।

(अरण्यकांड रामचरित मानस )से

तो उनकी भाव विह्वलता से सबसे ज्यादा प्रभावित महिला ‌समाज ही‌ होता और उसके ‌बाद चौपालों में बिछी चादर पर कुछ पलों में ही अन्नपूर्णा और लक्ष्मी दोनों ही बरस पड़ती। गांवों घरों की‌ महिलाएं अन्न के रूप में स्नेह वर्षा से उनकी झोली भर देती। जिसे बाजार में बेच वे नमक तेल लकड़ी तथा आंटे का प्रबंध कर लेते और उनकी गृहस्थी की गाड़ी ‌आराम से चल जाती। वे जब भी बाजार से लौटते तो हम बच्चों के लिए रेवड़ियाँ तथा नमकीन का उपहार लाना कभी भी नहीं भूलते। हम बच्चों से मिलने का उनका अपना खास अंदाज था। वे जब हमारे झुण्डों के करीब होते तो खास अंदाज में ‌ढ़ोलक पर थाप देते।  हम बच्चों का झुंड उस ढ़ोलक की चिर परिचित आवाज के ‌सहारे आवाज की दिशा में दौड़ लगा देते,उनकी तरफ कोई गले का हार बन उनसे लिपट जाता तो कोई पांवों में जंजीर बन।  इसी बीच शरारती बच्चा उनके हाथ का थैला छीन भागता तो दौड़ पड़ते उसके पीछे पीछे और नमकीन का थैला ले सबको बराबर बराबर बांट देते ।

क्रमशः …. 2

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

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