हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 173 – दहकते अंगारे – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक लघुकथा “दहकते अंगारे ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 173 ☆

☆ लघुकथा – 👁️दहकते अंगारे 👁️ 

भोर होते ही महिमा घर का सारा काम निपटाकर, जल्दी-जल्दी जाकर, स्नान घर में कपड़े से भरी बाल्टी लेकर बैठी। जोर से आवाज आई—- “कहाँ मर गई हो??” परमा की कर्कश आवाज और दहकते लाल अंगारे जैसे आँखों की कल्पना से ही महिमा कंपकंपा उठती थी।

“अभी आई” – कहते ही वह उठी थी कि परम ने आकर पानी से भरी बाल्टी को सर से उड़ेलते हुए कहा – – – “अब तुम भीगें-भीगें ही दिन भर घर में रहोगी और घर का सारा काम करोगी।”

यह कह कर वह चला गया। आज महिमा को दिसंबर की कड़कती ठंड में पानी से भरी बाल्टी से भींग कर भी ठंड का एहसास नहीं हो रहा था।

क्योंकि आज परमा ने अपनी दहकते अंगारों से उसे देखा नहीं था। वह उसकी कल्पना से ही सिहर उठती थी।

जोर से दरवाजा बंद होने की आवाज से महिमा समझ गई की परमा अपने ऑफिस के लिए निकल चुका है।

घर में सास-ससुर एक कमरे में अपना-अपना काम कर चुपचाप बैठे थे। वह भीगे कपड़ों में ही दिन भर घर का काम करती रही। पता नहीं कब परमा आ जाए और उसे लात घूसों से सराबोर कर दे। अभी वह सोच ही रही थी कि ना जाने क्या हुआ सब कुछ अंधेरा।

धम्म की आवाज से वह जमीन पर गिर चुकी थी। होश आया पता चला वह एक अस्पताल में है। डॉक्टर, नर्स ने घेर रखा है। उसके बदन को गर्म करने के लिए दवाइयाँ और इंजेक्शन दिए जा रहे हैं। लगातार ठंड और पानी की ठंडक के कारण उसे ठंड लग चुकी थी। डॉक्टर ने  कहा – “अब कैसी हो??” महिमा ने कहा — “कोई ऐसी दवाई नहीं जिसे अपने पास रखने पर अंगारों जैसे दहकते आँखों से ठंडक दिला सके।”

बिना मौत के मौत के मुँह में जाती निर्दोष बहू को देखते सास ससुर थोड़ी देर बाद जंजीरों से बंधे परमा को लेकर पुलिस बयान के लिए आ गई। आज उसके दहकते आँखों के अंगारों से निकलते आँसू महिमा के कलेजे को मखमली ओस की ठंडक पहुंचा रहे थे।

दूसरी तरफ मुँह फेरते ही परमा बोल उठा – – – “मुझे माफ कर दो।” परंतु वह चुपचाप अपने सास ससुर का मुँह देख रही थी। जिनके दोनों हाथ बहु के सिर पर फिरते चले जा रहे थे।

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© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 130 ☆ वाह रे इंसान! ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘वाह रे इंसान!’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 130 ☆

☆ लघुकथा – वाह रे इंसान! ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

लक्ष्मी जी दीवाली-पूजा के बाद पृथ्वीलोक के लिए निकल पड़ीं। एक झोपड़ी के पास पहुँचीं, चौखट पर रखा नन्हा- सा दीपक अमावस के घोर अंधकार को चुनौती दे रहा था। लक्ष्मी जी अंदर गईं, देखा एक बुजुर्ग स्त्री छोटी बच्ची के गले में हाथ डाले निश्चिंत सो रही थी। वहीं पास में लक्ष्मी जी का चित्र रखा था उस पर दो- चार फूल चढ़े थे और एक दीपक यहाँ भी मद्धिम जल रहा था। प्रसाद के नाम पर थोड़े से खील – बतासे एक कुल्हड़ में रखे हुए थे।

लक्ष्मी जी को ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ कहानी की बूढ़ी स्त्री याद आ गई- ‘जिसने जबरन उसकी झोपड़ी हथियाने वाले जमींदार से चूल्हा बनाने के लिए झोपडी में से एक टोकरी मिट्टी उठाकर देने को कहा था।‘ लक्ष्मी जी ने फिर सोचा – ‘बूढ़ी स्त्री तो अपनी पोती के साथ चैन की नींद सो रही है, अब जमींदार का भी हाल लेती चलूँ।‘

जमींदार की आलीशान कोठी के सामने दो दरबान खड़े थे। कोठी पर दूधिया प्रकाश की चादर बिछी हुई थी। जगह- जगह झूमर लटक रहे थे। सब तरफ संपन्नता थी, मंदिर में भी खान -पान का वैभव भरपूर था। लक्ष्मी जी ने जमींदार के कक्ष में झांका, तरह- तरह के स्वादिष्ट व्यंजन खाने के बाद भी उसे नींद नहीं आ रही थी। कीमती साड़ी और जेवरों से सजी अपनी पत्नी से वह कह रहा था –‘एक बुढ़िया की झोपड़ी लौटाने से दुनिया में मेरे नाम की जय-जयकार हो गई। यही तो चाहिए था मुझे, लेकिन गरीबों पर ऐसे ही दया दिखाकर उनकी जमीन वापस करता रहा तो यह वैभव कहाँ से आएगा। एक बार दिखावा कर दिया, बस बहुत हो गया।’ वह घमंड से हँसता हुआ मंदिर की ओर हाथ जोड़कर बोला– ‘यह धन–दौलत सब लक्ष्मी जी की ही तो कृपा है।‘ 

जमींदार की बात सुन लक्ष्मी जी सोच में पड़ गईं।

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 244 ☆ लघुकथा – रील बनाम रियल लाइफ ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – रील बनाम रियल लाइफ)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 244 ☆

? लघुकथा – रील बनाम रियल लाइफ  ?

उसने कैमरा स्टैंड पर लगाया, फोकस किया और हिट गाने के मुखडे पर, अधखुले कपड़ों में बेहूदे बेढ़ब लटके झटके का डांस कैमरे में कैद किया। थोड़ी एडिटिंग करनी पड़ी, पर उसे लगता है एक बढ़िया रील बन गई। इंस्टा, फेसबुक, यू ट्यूब हर प्लेटफार्म पर प्लीज लाइक, शेयर, सब्सक्राइब की रिक्वेस्ट करते हुये रील अपलोड कर दी। उसके फालोअर हजारों में हो चुके हैं। उसने सोचा यदि यह रील हिट हो गई तो अकेले यू ट्यूब से ही इतनी कमाई तो हो ही जायेगी कि इस महीने बापू के इलाज में जो खर्च पड़ा है वह निकल जायेगा। पर वह रील के हिट्स पर भरोसा नहीं कर सकती थी। उसने रील बनाने के लिये पहने हुये कपड़े बदले और रियल लाइफ का सामना करने के लिये तैयार होकर काम पर निकल पड़ी।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #157 – “मेरी आत्मकथा – पहचानो मैं कौन हूं ?” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  रचित – “मेरी आत्मकथा -पहचानो मैं कौन हूं ?)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 157 ☆

 ☆ मेरी आत्मकथा -पहचानो मैं कौन हूं ? ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

 मैं अपने बारे में सब कुछ बताऊंगा। तब आप को मेरे बारे में बताना है । क्या, आप मेरे आत्मकथा सुनना चाहते हो ? हां, तो लो सुनो। मैं अपनी आत्मकथा सुनाता हूं।

मेरे बिना दुनिया का काम नहीं चलता है । आप भी मेरे बिना नहीं रह सकते हो। यह सुन कर आप को मेरे बारे में कुछ पता नहीं चला होगा ?

चलो ! मैं अपने बारे में और कुछ बताता हूं। मुझे सब से पहले हान राजवंश के समय खोजा गया था । मेरे खोजकर्ता का नाम काईलुन था। यह 202 ई की बात है । उस से पहले मेरे अन्य रूप का उपयोग किया जाता था। उस समय तक मुझे बांस या रेशम के कपड़े के टुकड़े के रूप में उपयोग में  लिया जाता था।

अब आपको कुछ पता चला ? नहीं । कोई बात नहीं। मैं कुछ ओर बताता हूं । इस रुप के बाद में मुझे भांग, शहतूत, पेड़ की छाल तथा अन्य रेशों की सहायता से बनाया जाने लगा। उस वक्त मैं मोटा और खुरदरा था । मुझे कई तरकीब से चिकना किया जाता था ।

मेरा आविष्कार जिस व्यक्ति ने किया था उस कोईलुन को कागज का संत कहते थे।

मैं 610 में चीन से चला था। यहां से जापान पहुंचा। मैं वही नहीं रुका। मैं ने अपनी यात्रा जारी रखी। यहां से होता हुआ 751 में समरकंद पहुंच गया। यहां मुझे बहुत प्यार और मोहब्बत मिली।

इसलिए मैंने अपनी यात्रा जारी रखी है। वहीं से 793 में बगदाद पहुंचा। यहां मेरा बहुत उपयोग किया गया। यहां से मैं 1150 में स्पेन पहुंचा। जहां सबसे पहले व्यापारिक तौर पर  मेरा निर्माण शुरू हुआ।

लोग मुझे बहुत प्यार करते थे । मेरी वजह से ही उन को बहुत सी बातें याद रहती थी।  इसलिए वे मुझे अपनी यात्रा में अपने साथ ले जाते रहे । मेरी यात्रा यहीं नहीं रुकी। यहां से इटली, फ्रांस, जर्मनी, इंग्लैंड, पोलैंड होते हुए आस्ट्रिया, रूस, डेनमार्क, नार्वे पहुंचा। इस तरह मैं धीरे-धीरे मैं पूरे विश्व में फैल गया।

पहले पहल में बहुत मोटा बनाया जाता था। धीरे-धीरे मुझ में बहुत सुधार हुआ। आजकल बहुत ही पतला बनाया जाने लगा हूं। इतना पतला कि आप मेरा अंदाज नहीं लगा सकते।

आपको पता होगा कि मिस्र में नील नदी बहती है। उसी के किनारे पेपरिस नामक घास बहुतायात में पैदा होती है। इस  घास के डंठल के बाहरी आवरण रेशेदार होते हैं । इसी रेशेदार आवरण से मुझे बनाया जाने लगा।

इस के लिए वे एक विधि का उपयोग करते थे। घास के रेशे को आड़ातिरछा जमा लिया जाता था। फिर भारी चीज से दबा दिया जाता था। तब उसे सुखा लिया जाता था। सूखने पर ही मेरा उपयोग किया जाता था। इसे पेपरिस कहते थे । जो आगे चल कर पेपर कहलाया।

इस के पूर्व, अलग रूप में मेरा उपयोग होता था । रूस तथा यूनान में लकड़ी की पतले पटिए का उपयोग किया जाता था। वहीं चीन में 250  ई.पू. कपड़े के रुप में  मेरा उपयोग होता था। उस पर  ऊंट के बालों से बने ब्रश से मुझ पर लिखा जाता था।

भारत में ताड़ नामक वृक्ष पाया जाता है। इस वृक्ष के पत्ते को ताड़पत्र कहते हैं । यहां ताड़पत्र के रूप में मेरे उपयोग किया जाने लगा। भोजपत्र नामक वृक्ष एक पतली परत छोड़ता है । इसी पतली पर्त पर मेरा उपयोग किया जाता था।

प्राचीन रोम में जिस वृक्ष की छाल का लिखने के लिए उपयोग करते थे उसे लिबर कहते थे। जहां इस पत्र को रखते थे उसे लिब्रेरी कहा जाता था। यही शब्द आगे चल कर लैटिन में लाइब्रेरी बना।

यूनान में 4000 वर्ष पूर्व भेड़बकरी की खाल का उपयोग किया जाता था। इसी पर लिखा जाता था। इस पर पार्चमेंट से लिखते थे। यह लिखी हुई खाल बहुत ज्यादा सुरक्षित मानी जाती थी।

अब तो आप समझ गए होंगे कि मुझे क्या कहते हैं ? नहीं समझे  ? तो मैं बताता हूं। मुझे हिन्दी में कागज या पन्ना और अंग्रेजी में पेपर कहा जाता है । यही मेरी कहानी है।

आशा है आप को मेरी कहानी यानी आत्मकथा बहुत पसंद आई होगी।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

09-02-2021

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – चित्रांगना – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम कथा चित्रांगना ।)

~ मॉरिशस से ~

☆  कथा कहानी ☆ – चित्रांगना – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

“मेरी एक भावभीनी लघुकथा”

तरुण कवि प्रभंजय ने एक कविता में लिखा था आकाशमुखी राज्य के राजा सर्वजीत ने अपनी बेटी चित्रांगना के लिए ‘मानसरोवर’ नाम का एक तालाब बनवाया था। अपने पिता के इस उपहार से प्रसन्नचित चित्रांगना मानसरोवर में नित्य स्नान करती थी। वह जब भीगे शरीर मानसरोवर के किनारे बैठती थी तो हंस उसकी पीठ से पानी की बूँदें पी कर अपनी प्यास बुझाते थे।

चित्रांगना के मन में आता था कितना अच्छा हो कवि प्रभंजय स्वयं उसकी पीठ की बूँदों का रसपान करे। ऐसा हो तो मानसरोवर प्रेम का अलौकिक संसार बन जाता।

चित्रांगना के मन में प्रेम का यह रंग गाढ़ा होता चला जा रहा था कि उसे पता चला कवि प्रभंजय ने देश छोड़ दिया। इस सूचना से चित्रांगना के जैसे मन प्राण सूख गए। उसे अब मानसरोवर में स्नान करने की रुचि शेष न रहने से अब वह उधर जाती नहीं थी। उसकी पीठ की कोमल पानी की बूँदों को अपने कंठ में उतारने वाले रसिक हंस आ कर तट पर बैठे रहते थे और राजमहल की ओर निहारा करते थे। वे शोर करने लगते थे। पलंग पर पड़ी हुई चित्रांगना के कानों में वह आवाज पड़ती थी। वह समझ जाती थी उसी के लिए यह तड़प है। पर वह विवश थी। प्रभंजय के चले जाने से उसने मान लिया था उसका संसार नीरस, निस्तेज और निष्प्रेम हो गया है।

कालांतर में राजकुमारी चित्रांगना के लिए पड़ोसी राज्य के राजकुमार भानुप्रताप से उसके विवाह का प्रस्ताव आया तो उसने बड़ी ही आत्म व्यथा से स्वीकार किया। केवल उसके अपने अस्तित्व को पता था उसकी आत्म व्यथा क्या थी। विवाह होने पर वह अपने पति के राज्य में पहुँची। उसने डोली से उतरने पर जब तरुण माली को महल से लगे उद्यान में फूल बोते देखा तो अवसन्न रह गई। माली का चेहरा कवि प्रभंजय का चेहरा था। भ्रम हो सकता था कि कवि प्रभंजय ही यहाँ माली होता हो, लेकिन चित्रांगना कवि प्रभंजय को अलग हटा कर उसी बिंब में देखती, “वह तो कवि था।’

पर चित्रांगना अपनी इसी टेक पर न रह सकी। यहाँ प्रभंजय का प्रतिरूप माली था। चित्रांगना के कमरे में उसी माली के हाथों पले हुए फूल पहुँचते थे।

चित्रांगना इस तरह दो प्रभंजयों को एक बना कर खुशी का अपना संसार रच ही रही थी कि उसे पता चला माली प्रभंजय नौकरी छोड़ कर शायद कहीं चला गया। चिंत्रांगना को लगा जीवन पर्यंत सोचने के लिए अपने को विवश पाती रहेगी कहीं वह स्वयं कवि प्रभंजय की कल्पना तो न थी जो वास्तविक धरातल के लिए मूर्त होती ही न हो?

© श्री रामदेव धुरंधर

04 – 12 — 2023

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 172 – कोरा कागज – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है टेलीपेथी पर आधारित सात्विक स्नेह से परिपूर्ण एक लघुकथा “कोरा कागज ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 172 ☆

☆ लघुकथा – 📋कोरा कागज 📋 

आजकल मोबाइल के इस आधुनिक युग में लाईक, डिलीट, स्टार, ब्लॉक, शेयर,ओहह यह सब करते-करते मनुष्य भावपूर्ण मन की बातें पत्र लेखन चिट्ठियों को भूल ही गया है।

पत्र सहेज कर रखना, उसे फिर से दोबारा निकाल कर पढ़ना और फिर मन लगाकर कई बार पढ़ना। चाहे वह किसी प्रकार की बातें क्यों ना हो। जाने अनजाने मन को छू जाती थीं। कोरे कागज की बातें।

माया अपने पति सुधीर के साथ रहती थी। यूं तो दोनों का प्रेम विवाह हुआ था। शादी के पहले की सारी चिट्ठियाँ माया और सुधीर ने बहुत ही संभाल, सहेज कर रखा था।

विवाह के बाद सब कुछ अच्छा चल रहा था। अचानक सुधीर का तबादला किसी बड़े शहर में हो गया।

कहते हैं नारी मन बड़ा कांचा होता है। माया को उसके जाने और अकेले रहने में कई प्रकार की बातें सता रही थी। जो भी है सुधीर को जाना तो था ही। अपना सामान समेट वह शहर की ओर बढ़ चला।

माया अपने कामों में लग गई। एक सप्ताह तक कोई खबर नहीं आई। धीरे-धीरे समय बीत गया। अब तो मोबाइल था। फिर भी सुधीर बस हाँ हूं कह… कर काम की व्यस्तता बता बात ही नहीं करता था। माया इन सब बातों से आहत होने लगी।

उसे लगा सुधीर कहीं किसी ऑफिस में सुंदर महिला के साथ – – – – – “छी छी, ये मैं क्या सोचने लगी।” उसने झट कॉपी पेन निकाला और पत्र लिखने बैठ गई।

लिखने को तो वह बहुत सारी बातें लिखना चाह रही थी। परंतु केवल यही लिख सकी – – – ‘सुधीर तुम्हारे विश्वास और तुम्हारे भरोसे में जी रही हूं। पत्र लिखकर पोस्ट करके जैसे ही घर के दरवाजे पर ताला खोलने लगी। सामने पोस्टमेन  खड़ा दिखाई दिया — “मेम साहब आपकी चिट्ठी।” आश्चर्यचकित माया जल्दी-जल्दी पत्र खोल पढ़ने लगी… सुधीर ने लिखा था.. ‘माया तुमसे दूर आने पर तुम्हारी अहमियत और भी ज्यादा सताने लगी है। मुझ पर विश्वास करना।

दुनिया की नजरों से नहीं मन की भावनाओं से देखना मैं सदैव तुम्हारे साथ खड़ा हूं। जल्दी आता हूं।’ कोरे कागज पर लिखी यह बातें..। माया पास पड़ी कुर्सी पर बैठ, अश्रुधार बहने लगी ।तभी मोबाइल की घंटी बजी उठी..

“हेलो” माया ने देखा पतिदेव सुधीर ने ही कॉल था। सुधीर ने कहा… “ज्यादा रोना नहीं जैसा तुम्हारा मन है वैसा ही यह कोरा कागज है। ठीक वैसे ही मैं भी उस पर लिखे अक्षरों का भाव हूँ। हम कभी अलग नहीं हो सकते। मन के कोरे कागज पर हम दोनों का नाम लिखा है। बस बहुत जल्दी आ रहा हूं। तुम्हें लिवा ले जाऊंगा।”

माया सुनते जा रही थी तुम मेरी कोरी कल्पना हो। रंग भरना और सहेजना, उसमें हंसना- मुस्कराना तुम्ही से सीखा है। बस विश्वास और भरोसा करना इस कोरे कागज की तरह। माया सामने लगे आईने पर अपनी सूरत देख मुस्करा उठी।

🙏 🚩🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – इस पल ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि –  इस पल  ? ?

काश जी पाता फिर से वही पुराना समय…! समय ने एकाएक घुमा दिया पहिया।…आज की आयु को मिला अतीत का साथ…बचपन का वही पुराना घर, टूटी खपरैल, टपकता पानी।…एस.यू. वी.की जगह वही ऊँची सायकल जिसकी चेन बार-बार गिर जाती थी.., पड़ोस में बचपन की वही सहपाठी अपने आज के साथ…दिशा मैदान के लिए मोहल्ले का सार्वजनिक शौचालय…सब कुछ पहले जैसा।..एक दिन भी निकालना दूभर हो गया।..सोचने लगा, काश जो आज जी रहा था, वही लौट आए।

काश भविष्य में जी पाऊँ किसी धन-कुबेर की तरह!…समय ने फिर परिवर्तन का पहिया घुमा दिया।..अकूत संपदा.., हर सुबह गिरते-चढ़ते शेयरों से बढ़ती-ढलती धड़कनें.., फाइनेंसरों का दबाव.., घर का बिखराव.., रिश्तों के नाम पर स्वार्थियों का जमघट।..दम घुटने लगा उसका।..सोचने लगा, काश जो आज जी रहा था, वही लौट आए।

बीते कल, आते कल की मरीचिका से निकलकर वह गिर पड़ा इस पल के पैरों में।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मार्गशीर्ष साधना 28 नवंबर से 26 दिसंबर तक चलेगी 💥

🕉️ इसका साधना मंत्र होगा – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🕉️

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈




हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – शहीद ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा ‘शहीद’।)

☆ लघुकथा – शहीद ☆

सुशीला जी ने, अपने बेटे राहुल के, शहीद होने की खबर, टीवी पर देख ली थी,  दिल धक करके रह गया, वह गश खाकर भूमि पर गिर पड़ी थी, ऐसा लगा जैसे,उसका सब कुछ विधाता ने छीन लिया है ये क्या हो गया,पर होनी थी, हो गई, और आज सेना के जवान उसके बेटे का शव लेकर उसके गांव आए थे, राहुल के दोस्त समीर ने घर का दरवाजा खटखटाया, वह घर में चुपचाप बैठी थी, सोच रही थी, अब कौन आएगा, जिसका इंतजार था जिसका इंतजार रहता था,उसके तो शहीद होने की खबर आ गई है,  फिर भी उसने, धीरे से सांकल खोली, दरवाजा खुला, तो सामने राहुल का दोस्त समीर यूनिफॉर्म में खड़ा था, समीर पास ही के गांव का था, राहुल के साथ पढा था,और दोनों एक साथ आर्मी में भर्ती हुए थे, समीर ने सुशीला के पैर छुए, और कहा, मां राहुल ने देश पर अपनी जान कुर्बान कर दी, शहीद हो गया है, सुशीला, समीर को एक टक देखती रही, और कहां मुझे टीवी पर समाचार मिल गया था, समीर ने कहा मां आज हम शहीद राहुल को लेकर आए हैं, अंतिम संस्कार के लिए, आप उसके अंतिम दर्शन कर लें, सुशीला बाहर निकली, उसने देखा, आर्मी के वाहन पर ताबूत रखा हुआ है,पीछे बहुत भीड़ थी, शायद सबको गांव में समाचार मिल गया था, वह भी साथ में, शमशान घाट पहुंची, चिता पर राहुल का शव लिटाया गया, राहुल का शव तिरंगे में लिपटा हुआ था, तिरंगा हटाकर सुशील ने राहुल का चेहरा देखा, और देखती रही, एक आंसू भी नहीं निकला, बस शव को एक टक देख रही थी, तभी पंडित जी ने कहा, मां जी शव को मुखाग्नि कौन देगा,, तो सुशीला ने कहा, मैं मैं दूंगी,,, मैं तो इंतजार कर रही थी कि मेरा बेटा मेरे शव को मुखाग्नि नहीं दे, पर विधाता ने मुझे अवसर दिया,

सज के तिरंगे में आया है मेरा लाल,कोई नजर उतारो, कोई नजर उतारो, और सुशीला ने अपने बेटे के शव को मुखाग्नि दी, गांव में शहीद अमर रहे, के नारे लग रहे थे,  सुशीला समीर का सहारा लेकर एक किनारे बैठकर बेटे की चिता को देख रही थी, कि, उसका एक सहारा था वह भी चला गया, पर, मौन थी,,तभी समीर ने कहा मां  राहुल ने खत दिया था मुझे, आपको देने के लिए कहा था, कि अगर मैं देश पर बलिदान हो जाऊं, तो मेरी मां को मेरी एक चिट्ठी दे देना, सुशील ने चिट्ठी ली और पढ़ी,

उसमें लिखा था, मां, मैंने पीठ नहीं दिखाई, दुश्मनों को मार कर, दुश्मन की गोली अपने सीने पर खाई है, मां मैंने उन नापाक हाथों को अपनी भारत माता के आंचल की तरफ बढ़ने नहीं दिया, मैंने उनको खत्म कर दिया, सुशीला ने अपना चेहरा उठाया, और कहा, मेरे लाल, तूने अपनी मां के दूध की लाज रख ली, तूने भारत माता का कर्ज उतार दिया, तू धन्य है पर कौन है वो, जो मां के लाल पर गोली चलाते हैं, वह भी तो किसी मां के लाल हैं, क्यों गोली चलाते हैं, उन्हें किसी ने नहीं समझाया कि तुम भी अपनी मां के लाल हो, और जो सामने खड़े हैं, वह तो तुम्हें जानते भी नहीं, तुम्हारी तो उनसे कोई दुश्मनी नहीं है, किस धर्म में लिखा है, कि धर्म की खातिर जान लो, किसी धर्म में नहीं लिखा, कि किसी का खून बहाया जाए, बंद करो यह रक्तपात, इससे किसी का भला नहीं है ,जैसे मेरा सहारा मुझसे छिन गया, जो मरे हैं वह भी तो किसी मां के लाल हैं ,उनका भी तो सहारा छिन गया, आज वह मां भी क्या सोच रही होगी, यह कैसा आतंक है, यह कैसा जिहाद है, बस करो, अब जिओ और जीने दो,अब सरहद पर खून की नदी बहाना बंद करो, और यह कहकर समीर के कंधे पर हाथ रखकर  अपने घर वापस आ गई,समीर ने कहा, मां राहुल नहीं है तो क्या हुआ, तुम्हारा दूसरा बेटा समीर तो है, वह किसी दुश्मन की नापाक  निगाहों से देश को देखने नहीं देगा, वह भी हर उसे हाथ को काट देगा, जो भारत माता की ओर बढ़ेंगे, सुशीला कुछ कहने की स्थिति में ही नहीं थी, क्योंकि उसकी सांस भी अब रुक गई थी, बेटे के साथ मां ने भी दम तोड़ दिया था, समीर चिल्लाया, मां, मां, पर मां कहां थी वह तो अपने बेटे के साथ अनंत यात्रा को निकल चली थी…

कौन समझाए इन देश के दुश्मनों को, कि जो रक्तपात तुम करते हो तो तुम्हारी गोली किसी एक को नहीं मारती, उसके साथ जाने कितनी जान चली जाती हैं, कितने घर उजड़ जाते हैं, कितनी मांगे उजाड़ जाती हैं, जिन्हें तुम जानते भी नहीं हो, उन पर गोली चलाते हो, बंद करो ये सब,ये जिहाद नहीं,दहशत गर्दी है,इससे मानवता लहूलुहान होती है,धरती को खून से नहीं सींचना है,धरती पर तो प्रेम का संदेश फैलाना है.

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 218 ☆ कहानी – एक फालतू आदमी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है वर्तमान सामाजिक परिवेश पर विमर्श करती एक सार्थक एवं विचारणीय कहानी एक फालतू आदमी। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 218 ☆

☆ कहानी – एक फालतू आदमी 

(लेखक के कथा-संग्रह ‘खोया हुआ कस्बा’ से) 

चन्दन कॉलोनी की रौनकें बहुत कुछ उजड़ गयी हैं। पाँच दस साल पहले यहाँ ख़ूब रौनक थी। शाम होते ही झुंड की झुंड लड़कियाँ कॉलोनी की सड़कों पर साइकिलें लेकर निकल पड़ती थीं, जैसे चिड़ियों के आकाश में तैरते झुंड हों। उनका अल्हड़पन और हँसी पूरी कॉलोनी को गुलज़ार कर देती थी। कॉलोनी में रहने वाले लड़कों के दोस्तों की भी खूब आवाजाही बनी रहती थी। कॉलोनी के किसी भी कोने पर उन्हें बेफिक्री से ज़ोर-ज़ोर से बतयाते हुए देखा जा सकता था। कॉलोनी में बुज़ुर्गों के चेहरे पर भी उत्साह और सुकून पढ़ा जा सकता था। लेकिन अब यह गुज़रे ज़माने की बातें थीं। पिछले पाँच दस साल में ज़्यादातर लड़के लड़कियाँ पढ़ाई या नौकरी के लिए शहर से निकल गये थे और कॉलोनी की रौनक कम हो गयी थी। लड़के लड़कियों की सोच थी कि इस शहर में उनके पंख फैलाने की जगह नहीं है, इसलिए उन्होंने उड़ जाना ही बेहतर समझा था। उनके उड़ जाने के बाद पीछे छूट गये उनके माता-पिता के चेहरे पर रीतापन नज़र आता था।

कई माता-पिता ने अपने बेटे-बहू के साथ भावी जीवन बिताने की उम्मीद में अपने मकानों में कई कमरे बना लिये थे और अब वे परेशान थे कि बड़े मकानों का वे क्या करेंगे। कुछ ने किरायेदार रख लिये थे जबकि कुछ ने किरायेदारों की झंझट में पड़ने के बजाय अकेले ही रहना बेहतर समझा था। बुज़ुर्ग अपनी सुरक्षा के प्रति बेहद सावधान हो गये थे। दरवाज़े की घंटी बजाने पर बिना पूरी ताक-झाँक और इत्मीनान के दरवाज़ा खुलना मुश्किल होता था।

अब शाम होते ही बुज़ुर्ग अपना मोबाइल लेकर बैठ जाते थे और घंटों बेटों-बेटियों और नाती-पोतों से बात करने में मसरूफ रहते थे। यही सुकून पाने का बड़ा ज़रिया था। मोबाइल पर आवाज़ के अलावा प्रियजन को बात करते हुए देखा भी जा सकता था, जो बड़ी नेमत थी। बात ख़त्म होने के बाद भी बुज़ुर्ग बड़ी देर तक फोन पर हुई बातों को ही उठाते-धरते रहते थे।

कॉलोनी में अब बहुत कम लड़के- लड़कियाँ बाकी रह गये थे। अब वहाँ वे ही लड़के रह गये थे जो पढ़ाई-लिखाई में कोई तीर नहीं मार पाये थे या जिनके लिए अपना शहर छोड़ पाना मुश्किल था। ऐसे लड़के-लड़कियांँ अब शहर में ही कोई नौकरी या छोटा-मोटा धंधा खोजते थे।

ऐसे ही लड़कों में नीलेश था जो अपने दोस्तों की तुलना में पीछे छूट गया था। पढ़ाई में वह लाख सिर मारने के बाद भी औसत ही रहा था और इसीलिए न कोई दीवार तोड़ सका, न लंबी उड़ान भर पाया। शहर को न लाँघने का एक कारण यह भी था कि उसे शहर से बहुत प्यार था। अपना शहर छोड़ने के लिए जो बेरुखी चाहिए उसे वह पैदा नहीं कर पाया था। उसने अपने शहर में एम.बी.ए. की कक्षाओं में भी प्रवेश लिया था लेकिन वह दुनिया भी उसे थोथी लगी। उसकी समझ में नहीं आया कि हर वक्त अंग्रेज़ी में ही बातचीत क्यों की जाए या क्लास में टाई लगाकर जाना क्यों ज़रूरी हो। अन्त में वह उस कोर्स को छोड़ कर वापस अपनी दुनिया में आ गया।

कॉलोनी के कोने पर एक छोटा सा पार्क भी था जो बुज़ुर्गों के लिए वरदान था। सुबह-शाम कॉलोनी के बुज़ुर्ग वहाँ इकट्ठे हो जाते थे। बातें ज़्यादातर अपने अपने बच्चों के बारे में ही होती थीं। ज़्यादातर बुज़ुर्गों को इस बात का गर्व था कि उनके बच्चे अच्छी संस्थाओं या मोटी तनख्वाह वाली नौकरियों में पहुँच गये थे। जिनके बच्चे देश से बाहर निकलकर अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड जैसे देशों में नौकरी पा गये थे वे अपने को वी.आई.पी. समझते थे।

नीलेश पार्क के इस जमावड़े से बचता था क्योंकि उसे बुलाकर बुज़ुर्ग ऐसे सवाल करते थे जो उसके लिए तकलीफदेह थे। वही सवाल कि अब तक वह कहीं निकल क्यों नहीं पाया, और फिर अपने बच्चों का उदाहरण देते हुए ढेर सारी नसीहतें। नीलेश के लिए जवाब देना मुश्किल हो जाता। किसी तरह उनसे पीछा छुड़ाता।

बुज़ुर्गों में सबसे ज़्यादा परेशानी उसे वर्मा जी से होती है। उसे देखते ही वे आवाज़ देकर बुलाते हैं। फिर पहला सवाल— ‘क्यों कुछ जमा, या ऐसे ही भटक रहे हो?’ फिर लंबा भाषण— ‘आदमी में एंबीशन होना चाहिए। बिना एंबीशन के आदमी लुंज-पुंज हो जाता है। कुछ दिन बाद वह किसी काम का नहीं रहता। सोसाइटी पर ‘डेडवेट’ हो जाता है। एंबीशन पैदा करो तभी कुछ कर पाओगे।’ फिर वे अपने बेटे का उदाहरण देने लगते हैं जो नीलेश का दोस्त है, लेकिन मुंबई में एक कंपनी में ऊँचे पद पर बैठा है।

वैसे नीलेश अपनी ज़िन्दगी से संतुष्ट है। नौकरी नहीं है लेकिन पिता की हार्डवेयर की दूकान पर बैठकर उन्हें कुछ राहत दे देता है। रोज़ शाम को बूढ़े दादाजी की बाँह पकड़कर उन्हें कुछ देर टहला लाता है। दो बड़ी बहनों की ससुराल आना-जाना होता रहता है और मुसीबत या ज़रूरत में एक दूसरे की मदद होती रहती है। कहीं लंबा रुकना पड़े तो नौकरी का दबाव न होने के कारण तनाव नहीं होता। रिश्तो का रस पूरा मिलता रहता है।

वर्मा जी का बेटा प्रशान्त नीलेश का दोस्त है। शहर आने पर नीलेश को ज़रूर याद करता है। नीलेश की सरलता और उसका औघड़पन उसे अच्छा लगता है। स्वभाव विपरीत होने के कारण उसकी तरफ आकर्षण महसूस होता है। लेकिन प्रशान्त की ज़िन्दगी में फुरसत नहीं है। सारे वक्त जैसे उसके कान कहीं लगे होते हैं। लैपटॉप हर वक्त उसके आसपास होता है। मोबाइल पर व्यस्तता इतनी होती है कि उसके साथ वक्त गुज़ारने के लिए आये दोस्तों को ऊब हो जाती है। लेकिन वर्मा जी को अपने बेटे की व्यस्त ज़िन्दगी से कोई शिकायत नहीं है। उनके हिसाब से कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है।

नीलेश के बारे में उसके दोस्तों और कॉलोनी वालों की धारणा बन गयी है कि वह फालतू है, उसके पास कोई काम धंधा नहीं है। इसलिए उससे कॉलोनी के ऐसे कामों में भी सहभागिता की उम्मीद की जाती है जिनमें उसकी कोई रुचि नहीं होती। कई बार उसे ऐसे मामलों में चिढ़ महसूस होने लगती है।

ऐसे ही उपेक्षा-अपेक्षा के बीच एक रात नीलेश के मोबाइल पर रिंग आयी। प्रशान्त था, आवाज़ घबरायी हुई। बोला, ‘अभी अभी पापा का फोन आया था। मम्मी को शायद पैरेलिसिस का अटैक आया है। वहाँ और कोई नहीं है। पापा बहुत परेशान हैं। तू पहुँच जा तो मुझे थोड़ा इत्मीनान हो जाएगा। मैंने बंसल हॉस्पिटल को फोन लगाकर एंबुलेंस के लिए कह दिया है। पहुँचती होगी। मैं सुबह दस बजे फ्लाइट से पहुँच जाऊँगा।’

नीलेश ने टाइम देखा। एक बजा था। वह बाइक उठाकर निकल गया। वहाँ वर्मा जी बदहवास थे। काँपते हुए इधर-उधर घूम रहे थे। बार-बार माथे का पसीना पोंछते थे। नीलेश को देख कर उनके चेहरे पर राहत का भाव आ गया। थोड़ी देर में एंबुलेंस आ गयी और मरीज़ अस्पताल पहुँच गया। चिकित्सकों की देखरेख में मामला नियंत्रण में आ गया। वर्मा जी, थके और बेबस, पत्नी की बेड की बगल में बैठे रहे।

प्रशान्त के पहुँचने तक नीलेश वहाँ रुका रहा। प्रशान्त करीब ग्यारह बजे, बहुत परेशान, वहाँ पहुँचा। माँ को ठीक-ठाक देखकर उसके जी में जी आया। वर्मा जी बेटे को देखकर रुआँसे हो गये। बड़ी देर के दबे भाव चेहरे पर प्रकट हो गये। प्रशान्त ने नीलेश का हाथ पकड़कर कृतज्ञता का भाव दर्शाया।

नीलेश का काम ख़त्म हो गया था। शायद अब कुछ नाते-रिश्तेदार या इष्ट-मित्र आकर मामला सँभाल लें। उसने प्रशान्त से विदा ली। चलते वक्त वर्मा जी की तरफ हाथ जोड़े तो उन्होंने कृतज्ञता से हाथ जोड़कर माथे से लगा लिये। आज वे नीलेश को कोई नसीहत नहीं दे सके।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 243 ☆ लघुकथा – स्माइली 😊☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – स्माइली।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 243 ☆

? लघुकथा – स्माइली 😊 ?

हिन्दी, अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, चाइनीज, बंगाली, मराठी, तेलगू …, जाने कितनी भाषायें हैं। अनगिनत बोलियां और लहजे हैं।  पर दुनियां का हर बच्चा इन सबसे अनजान, केवल स्पर्श की भाषा समझता है।  माँ के मृदु स्पर्श की भाषा, मुस्कान की भाषा। मौन की भाषा के सम्मुख क्रोध भी हार जाता है। प्रकृति बोलती है चिड़ियों की चहचहाहट में, पवन की सरसराहट में, सूरज की बादलों से तांक झांक में।

वह इमोजी साफटवेयर बनाता है। उसकी  वर्चुअल दुनियां बोलती है इमोजी के चेहरों की भाषा में। उसे बिल्कुल अच्छी नहीं लगती गुस्से वाली लाल इमोजी, और आंसू टपकाती दुख व्यक्त करते चेहरे वाली इमोजी। मिटा देना चाहता है वह इसे। सोचता है, क्या करना होगा इसके लिये। क्या केवल साफ्टवेयर अपडेट? या बदलनी होगी व्यवस्था। सोचते हुये जाने कब उसकी नींद लग जाती है। गालों पर सुनहरी धूप की थपकी से उसकी नींद टूटती है, बादलों की की ओट से सूरज झांक रहा था खिड़की से मुस्करा कर। स्माइली वाली इमोजी उसे बहुत अपूर्ण लगती है इस मनोहारी अभिव्यक्ति के लिये, और वह जुट जाता है और बेहतर स्माइली इमोजी बनाने में।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈