हिन्दी साहित्य- लघुकथा – ☆ सोच ☆ – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित एक सार्थक एवं सटीक  लघुकथा   “सोच”.)

☆ लघुकथा – सोच

मेहता जी बदहवास से हांफते हुए आये और बोले — “सिंह साहब मेरे साथ थाने चलिये , रिपोर्ट लिखवाना है।”

सिंह साहब ने उनकी ओर आश्चर्य से देखते हुए पूछा – “रिपोर्ट किस बात की?”

“लड़के की मोटर साइकिल चोरी हो गयी है। वह कलेक्ट्रेट किसी काम से गया था , उसने मोटरसाइकिल, वाहन स्टैंड पर खड़ी न करके बाहर ही खड़ी कर दी थी । पांच मिनिट का ही काम था , बस गया और आया । इतने में ही गाड़ी चोरी हो गयी।”

मेहता जी ने अभी दो महीने पहले ही प्राविडेंट फंड से पचास हजार रुपये निकाल कर लड़के को मोटरसाइकिल खरीदकर दी थी ।

अक्सर वाहन स्टैंड वाले  के साथ पांच -दस रुपये देने के नाम पर आम लोगों से किचकिच होते सिंह साहब ने देखी है । स्टैंड के पांच -दस रुपये बचाने के चक्कर में उसने  पचास हजार रुपये की बाइक  खो दी । यह आम लोगों की  कैसी सोच है ?

सिंह साहब  इसी सोच में डूबे मेहता जी के साथ रिपोर्ट लिखवाने थाने की ओर चल दिये ।

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #19 – भोर भई ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 19☆

☆ भोर भई ☆

लोकश्रुति है कि पृथ्वी शेषनाग के फन पर टिकी है। पाप की अधिकता होने पर धरती को टिकाए रखना एक दिन शेषनाग के लिए संभव नहीं होगा और प्रलय आ जाएगा। कई लोगों के मन में प्राय: यह प्रश्न उठता है कि विसंगतियों की पराकाष्ठा के इस समय में अब तक प्रलय क्यों नहीं हुआ?

इस प्रश्न का एक प्रतिनिधि उत्तर है, ‘धनाजी जगदाले जैसे संतों के कारण।’ तुरंत प्रतिप्रश्न उठेगा कि कौन है धनाजी जगदाले जिनके बारे में कभी सुना ही नहीं?

धनाजी जगदाले, उन असंख्य भारतीयों में से एक हैं जो येन केन प्रकारेण अपना उदरनिर्वाह करते हैं। 54 वर्षीय धनाजी महाराष्ट्र के सातारा ज़िला की माण तहसील के पिंगली गाँव के निवासी हैं।

‘यह सब तो ठीक है पर धनाजी संत कैसे हुआ?’ …’धैर्य रखिए और अगला घटनाक्रम भी जानिए।’

अक्टूबर 2019 में महापर्व दीपावली के दिनों में धनाजी को धन प्राप्ति का एक दैवीय अवसर प्राप्त हुआ।

हुआ यूँ कि शहर के बस अड्डे पर खड़े धनाजी के सामने संकट था अपने गाँव लौटने का। गाँव का टिकट था रु.10/- और धनाजी की जेब में बचे थे केवल 3 रुपये। एकाएक धनाजी ने जो देखा, उससे उन्हें अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। बस अड्डे पर किसी के गलती से  छूट गए थैले में नोटों के बंडल थे। कुल चालीस हज़ार रुपये।

चालीस हज़ार की राशि धनाजी के लिए एक तरह से कुबेर का ख़जाना था पर कुबेर का एक अकिंचन के आगे लज्जित होना अभी बाकी था।

अकिंचन धनाजी ने सतर्क होकर आसपास के लोगों से थैले के मालिक की जानकारी टटोलने का प्रयास किया। उन्हें अधिक श्रम नहीं करना पड़ा। थोड़ी ही देर में एक व्यक्ति बदहवास-सा अपना थैला ढूँढ़ते हुए आया। मालूम पड़ा कि पत्नी के ऑपरेशन के लिए मुश्किल से जुटाए चालीस हज़ार रुपये जिस थैले में रखे थे, वह यहीं-कहीं छूट गया था। पर्याप्त जानकारी लेने के बाद धनाजी ने वह थैला उसके मूल मालिक को लौटा दिया।

आनंदाश्रु के साथ मालिक ने उसमें से एक हज़ार रुपये धनाजी को देने चाहे। विनम्रता से इनाम ठुकराते हुए धनाजी ने अनुरोध किया कि यदि वह देना ही चाहता है तो केवल सात रुपये दे ताकि दस रुपये का टिकट खरीदकर धनाजी अपने गाँव लौट सके।

प्राचीनकाल में सच्चे संत हुआ करते थे। देवताओं द्वारा इन संतों की तपस्या भंग करने के असफल प्रयासों की अनेक कथाएँ भी हैं।  इनमें एक कथा धनाजी जगदाले की अखंडित तपस्या की भी जोड़ लीजिए।…और हाँ, अब यह प्रश्न मत कीजिएगा कि अब तक प्रलय क्यों नहीं हुआ?

अपने-अपने क्षेत्र में हरेक की तपस्या अखंडित रहे!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(प्रात: 4 :14 बजे, 7.11.2019)
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

(विनम्र सूचना- ‘संजय उवाच’ के व्याख्यानों के लिए 9890122603 पर सम्पर्क किया जा सकता है।)

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हिन्दी साहित्य – साहित्य निकुंज # 21 ☆ लघुकथा – छोटा सा घर ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी  की एक अतिसुन्दर प्रेरणास्पद लघुकथा  “छोटा सा घर ”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 21 साहित्य निकुंज ☆

 

☆ लघुकथा – छोटा सा घर

स्वाति जब शादी करके गई तब सब लोग किराए के मकान में रहते थे। बस हर महीने किराए की तारीख आती वहीं चर्चा उखड़ती जाने कब होगा हमारा छोटा सा घर ।मां बाबू तो कहते बेटा अब सब तुम पर ही निर्भर है हम लोगों की जिंदगी तो कट गई किराए के मकान में।

यही सब स्वाति देख रही थी मन ही मन सोच रही थी  कि मैं ही इन सबके सपने पूरा करूंगी तभी मुझे सुकून मिलेगा। स्वाति सोच रही थी लेकिन  कैसे पूरा करूं अभी मुझे यहां आए कुछ ही महीने हुए हैं। स्वाति की लिखने पढ़ने में रुचि थी। तभी घर पर राजस जी आए उनकी बाते सुनकर स्वाति को लगा इनकी साहित्य में रुचि है। लेकिन वो केवल चाय नाश्ता रखकर चली गई मन ही मन सोचने लगी इनसे बात करने का मौका लगे तो कुछ परामर्श मिल जाए। स्वाति की इच्छा जैसे पूरी होते नजर आईं वो बाबू के गांव के थे उनका ट्रांसफर हुआ था घर तलाश रहे थे उनको भी बाबू ने हमारे ही ऊपर  वाला घर दिलवा दिया। अंततोगत्वा मौका मिल ही गया। और उनकी मदद से स्वाति पत्र पत्रिकाओं में लिखने लगी। साथ ही कई संग्रह भी आ गए और तो और एक उपन्यास पर एक बड़े पुरस्कार की घोषणा हुई और उसे राष्ट्रीय स्तर का पुरस्कार मिल गया जिसमें 3 लाख की धनराशि मिली। इसके साथ ही स्वाति को प्रायमरी स्कूल में टीचिंग भी मिल गई  उसे ऐसा लगा जैसे सब एक साथ होने के लिए ही रुका था। उसने सोचा अब सभी  के मन की इच्छा पूरी करेंगे। स्वाति ने अपने पति से परामर्श किया और कुछ रकम जमा की और कुछ लोन  लेकर “छोटा सा घर” खरीद लिया। मां बाबू को जब ग्रह प्रवेश करना था तभी सरप्राइज दिया। उनकी तो खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा। स्वाति ने बताया इस मुकाम तक पहुंचने में दादा राजस  जी की अहम भूमिका है आज इनके सहयोग से ही हमने सपने बुने और आप सब के “छोटा सा घर” के सपने को पूरा किया।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 5 ☆ झूठी आधुनिकता ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे. आज प्रस्तुत है उनकी ऐसी ही सत्य के धरातल पर लिखी गई लघुकथा “झूठी आधुनिकता”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 5 ☆

☆ लघुकथा – झूठी आधुनिकता ☆ 

गणपति पूजा का अंतिम दिन। गणपति विसर्जन की धूमधाम थी, शॉर्ट्स, टी शर्ट और हाई हील सेंडिल में वह ढ़ोल की ताल पर थिरक रही थी। पास ही उसकी बड़ी बहन भी थी, जो एअर होस्टेज है। दोनों बहनें गणपति उत्सव के लिए छुट्टी लेकर घर आई हैं। वेशभूषा से दोनों  आधुनिक लग रही थीं। लड़कियों के आधुनिक पहनावे को देखकर ऐसा लगता है कि महिलाओं का विकास हो रहा है? समाज में कुछ बदलाव आ रहा है?

ढ़ोल तासे की आवाज थोड़ी कम होने पर पड़ोस की एक महिला ने पूछा- “मिनी! कब आई तुम लंदन से?”

“आज ही आई हूँ आँटी।“

“अच्छा गणपति विसर्जन के लिए आई होगी? गणपति बैठाले (स्थापना) हैं ना?”

“अरे नहीं आंटी। हम दो बहनें ही हैं, भाई तो है नहीं, इसलिए हम घर पर गणपति स्थापना नहीं करते। मॉम मना करती हैं ………………।”

नकली आधुनिकता की चादर सर्र………… से सरक गई। वास्तविकता उघड़ी पड़ी थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा,

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #22 ☆ मापदंड ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “मापदंड”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #22 ☆

 

☆ मापदंड ☆

 

“मैंने पहले ही कहा था. तुम्हें नहीं मिलेगा.” रघुवीर ने कहा तो प्रेमचंद बोले, “मगर, तुम ने यह किस आधार पर कहा था ? मैं यह बात अभी तक समझा नहीं हूँ?”

“मैं उन को अच्छी तरह जानता और पहचानता हूँ.” ‘ रघुवीर ने कहा.

“वे मेरे अच्छे मित्र है. मैं उन्हें नही जानता और तुम अच्छी तरह पहचानते हो ?” प्रेमचंद ने स्पष्टीकरण दिया,  “मेरी पुस्तक की भूमिका उन्हीं ने लिखी थी. उस का प्रकाशन भी उन्हीं ने किया था. इसलिए उस पुस्तक को पुरस्कार मिलना लगभग तय था. आखिर पुरस्कार भी वे ही दे रहे हैं.”

“हूँ.”  रघुवीर ने लंबी सांस ली. फिर धीरे से कहा, ‘”तुम बहुत अच्छा लिखते हो, इसलिए वे तुम से जुड़े हैं. मगर, वे पूरे व्यावसायिक लेखक हैं. अपना अच्छाबुरा अच्छी तरह समझते हैं. इसलिए तुम्हारी पुस्तक को…..”

“इस से उन्हें क्या फायदा मिलेगा ?”  प्रेमचंद ने बात बीच में काट कर पूछा तो रघुवीर ने कहा, “मेरे भाई, यह नया जमाना है. यहां अधिकांश वही होता है जो तुम्हारी फितरत में नहीं है. यानी तू मेरी पीठ खुजा, मैं तेरी पीठ खुजाता हूं.”

“मतलब !”  प्रेमचंद ने आंखें और हाथ ऊंचका कर पूछा तो रघुवीर ने कहा, “जिन का नाम पुरस्कार के लिए घोषित हुआ है उन्हों ने पहले इन को पुरस्कृत व सम्मानित किया था. इसलिए तुम्हारा…” कह कर रघुवीर ने भी आंखें मटका दी.

यह सुन कर प्रेमचंद ने रघुवीर के सामने हाथ जोड़ कर कह दिया,  “वाह ! महाप्रभु ! आप और वे धन्य है. उन्हें और आप को अपनी पूछपरख का पता तो हैं. हम अनाड़ी ही भले.”  कह कर वे चुपचाप एक नई रचना लिखने के लिए अपने कक्ष में चले गए.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 22 – रंगोली की दिवाली ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक अतिसुन्दर  एवं भावुक लघुकथा “रंगोली की दिवाली”

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 22 ☆

 

☆ रंगोली की दिवाली ☆

 

रामप्रताप अपने उसूलों के पक्के शिक्षक। सारा जीवन अनुशासन जाति धर्म को मानते हुए, अपने हिसाब से जीने वाले व्यक्ति थे। कड़क मिजाज के होने के, कारण उनकी धर्मपत्नी शांति देवी भी कभी मुंह खोल कर उनका विरोध नहीं कर सकती थी, चाहे वह सही हो या गलत अपने पतिदेव का ही साथ देती आई। शांति देवी जैसा नाम वैसा ही उनका स्वभाव बन चुका था।

रामप्रताप और शांति देवी के एक बेटा था। जिसका नाम सुधीर था। बड़ा होने पर वह पढ़ाई के सिलसिले में बाहर चला गया था। दीपावली की साफ सफाई चल रही थी। रामप्रताप की पुस्तकों की अलमारी साफ करते समय शांति देवी के हाथ एक पत्र लग गया। बहुत पुरानी चिट्ठी थी, उनके बेटे के हाथ की लिखी हुई, लिखा था: पिताजी मैंने एक गरीब अपने से छोटी जाति की कन्या जिसका नाम ‘रंगोली’ है, शादी करना चाहता हूँ। हम दोनों साथ में पढ़ते हैं, और शायद नौकरी भी साथ में ही करेंगे। आपका आशीर्वाद मिले तो मैं रंगोली को साथ लेकर घर आ जाऊं। यदि आपको पसंद हो तो मैं घर आऊंगा। अन्यथा मैं और रंगोली यहाँ पर कोर्ट मैरिज कर लेंगे। शांति देवी पत्र को पढ़ते-पढ़ते रोने लगी। क्या? हुआ जो अपनी पसंद से शादी कर लिया, खुश तो है क्यों नहीं, आने देते, माफ क्यों नहीं कर देते, अनेक सवाल उसके मन पर आने लगे। पत्र को हाथ में छुपा कर अपने पास रख ली, और सारा काम करने लगी।

दिन बीता दीपावली भी आई और त्यौहार भी खत्म हो गया। परन्तु, खुशियाँ जैसे रूठ गई थी। दोनों इस चीज को समझते थे। दो-चार दिन बाद एक दिन सुबह चाय पीते-पीते शांति हिम्मत कर अपने पति से बोली “आज मुझे बेटे बहू की बहुत याद आ रही है। माफ कर दीजिए ना उन्हें, घर बुला लीजिए” परन्तु रामप्रताप कुछ नहीं बोले। अपने आप गुमसुम घर से निकल गए। उनके मन में कुछ और बातें चल रही थी। जो वह शांति देवी को बताना नहीं चाह रहे थे। जाते-जाते कह गए मैं शाम को देर से आऊंगा। तुम खाना खाकर अपना काम कर लेना, मेरा इंतजार नहीं करना। दिन में खाना खाकर शांति देवी अपने कमरे में सोने चली गई।

संध्या समय अंधेरा हो आया था। सोचा चल कर दिया बत्ती लगा ले, और यह कब तक आएंगे, जाने कहाँ गए हैं? सोचते-सोचते अपने काम पर लग गई। भगवान के मंदिर में आरती का दिया लगा रही थी तभी, बाहर से अंग्रेजी बाजे की आवाज आई। लग रहा था जैसे दरवाजे पर ही बज रहा हो। जल्दी-जल्दी चल कर उसने दरवाजा खोला। सामने गेट पर बहुत बड़ी सुंदर सी रंगोली सजी हुई थी, और शहनाई और बाजे बज रहे थे। उसे कुछ समझ नहीं आया। रंगोली के बीचो-बीच थाली में दिए की रोशनी दीपक लिए उसकी बहू’ रंगोली ‘सोलह श्रृंगार कर खड़ी थी। साथ में बेटा भी था।

रामप्रताप ने कहा – “दीपावली नहीं मनाओगी!! रंगोली का स्वागत कर लक्ष्मी को अंदर ले आओ।“

आज भी शांति देवी मुँह से कुछ ना बोली।

बस मुस्कुराते हुए आँखों से आँसू बहाते पूजा की थाली लेकर अपने रंगोली का स्वागत कर उसे अंदर ले आई। दीपावली का त्यौहार फिर से आज रोशन हो गया। बहुत खुश हो अपने पति से बोली – “मैं आज तक आपको समझ ना पाई दीपावली की बहुत-बहुत शुभकामनाएं और बधाई।” यह कहते हुए वह अपने पति के चरणों पर झुक गई।

शुभ दीपावली!

 

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हिन्दी साहित्य- दीपावली विशेष – लघुकथा – ☆ आगे क्या होगा ? ☆ – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित एक सार्थक एवं सटीक  लघुकथा   “आगे क्या होगा ? ”.)

 

☆ लघुकथा – आगे क्या होगा ?

 

सुषमा ने बहू को अपने  लड़के के साथ हाथ में हाथ दिये बाहर जाते देखा तो वह बड़बड़ाई – ‘ बहु को देखो कैसे सलवार सूट में मटकती हुई जा रही है । आजकल तो सिर पर पल्ला लेने का रिवाज ही नहीं है । हमारे समय में तो सिर से जरा सा पल्ला खिसकने पर हमारी सास हमें काफी खरी खोटी सुना देती थी । ‘

सुरेश  ने अपनी पत्नी को बड़बड़ाते हुए सुना तो वह बोले – ” अरी भागवान , क्यों अपना खून जला रही हो । अब तुम्हारा जमाना नहीं रहा , जमाना बदल गया है और बदलते जमाने के साथ हमें भी बदलना होगा इसी में हमारी भलाई है । ”

रामेश्वरी नें कुछ सोचते हुए कहा – ” आज की बहुएं सलवार सूट और जींस टाप पहन रही हैं। जब ये 25 -30 वर्ष बाद सास बनेंगी , तब इनकी बहुएं क्या पहनेंगी ?

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 4 ☆ मसीहा कौन ? ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे. आज प्रस्तुत है उनकी ऐसी ही प्रेरणास्पद एवं अनुकरणीय लघुकथा “मसीहा कौन ?”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 4 ☆

 

☆ लघुकथा – मसीहा कौन ? ☆ 

 

“उतरती है कि नहीं ? नीचे उतर, तमाशा करवा रही है सबके सामने” ।

“मैं नहीं उतरूंगी’, वह सोलह – सत्रह वर्षीय नवविवाहिता रोती हुई बोली।

“घर चल तेरे को कोई कुछ नहीं बोलेगा” आवाज में नरमी लाकर बस की खिड़की के पास नीचे खड़ी औरत बोली। “बस चलनेवाली है जल्दी कर…… उतर……. उतर नीचे, सुन रही है कि नहीं?” उस औरत के आवाज में फिर से तेजी आने लगी थी।

“चलने दे बस को, मैं नहीं उतरूंगी, वह लड़की दृढ़ता से बोली। इतना कहकर उसने बस की खिड़की का शीशा तेजी से बंद कर दिया।” नीचे खड़ी औरत ने फोन मिलाया और थोड़ी देर में ही एक पुरुष वहाँ आ गया।

औरत बोली – “ये तो बस से नीचे उतर ही नहीं रही। सरेआम फजीहत करवा रही है।”

“उतरेगी कैसे नहीं हरामखोर। इसका तो बाप भी उतरेगा।” उस आदमी ने खिड़की का शीशा जोर से भड़भड़ाकर अपनी भाषा में उसे धमकाना शुरू किया।

“बाप शब्द सुनते ही लड़की ने खिड़की खोलकर काँपते स्वर में कहा – बाप को बीच में क्यों लाते हो ? कुछ भी कर लो मैं वापस नहीं चलूंगी।”

इतना सुनते ही वह आदमी भड़क गया – “साली, तेरा यार बैठा है वहाँ जो खसम को छोड़कर जा रही है। उतर जा, नहीं तो हड्डी – पसली एक कर दूँगा।” लड़की बस से उतरने को कतई तैयार नहीं थी। बस के चलने का समय हो रहा था। नीचे खड़ा आदमी तनाव में था। ऐसा लग रहा था कि वह उस लड़की को हाथ से निकलने देना ही नहीं चाहता था। साथ खड़ी औरत से चिल्लाकर बोला – “जा बस में से इसका सामान उतार ला, फिर देखें कैसे जाती है।” औरत तेजी से बस में चढ़कर सामान उतारने लगी। उसने लड़की का भी हाथ पकड़कर खींचना चाहा। लड़की की ढीठता और अन्य यात्रियों को देखकर वह जबर्दस्ती ना कर सभी और सामान लेकर तेजी से बस से उतर गई। लड़की सीट पर लगी रॉड को कसकर पकड़े थी। मानो वही उसका सहारा हो। वह रोती रही पर अपनी जगह से टस से मस न हुई।

कंडक्टर आ गया। और उसने बस चलने का संकेत देने के लिए घंटी बजाना शुरू कर दिया। उस आदमी का पारा चढ़ गया। बंदूक की गोलियों सी दनादन गलियाँ उसके मुँह से निकलने लगी – “साली, आना मत लौटकर इस घर में। वापस आई तो टुकडे – टुकडे कर दूंगा। धंधा करने जा रही हैं हरामजादी।”

बस खचाखच भरी थी। हिलने – डुलने की गुंजाईश भी नहीं थी। कंडक्टर ने अंतिम बार घंटी बजाई और बस चल पड़ी। बस चलते ही यात्रियों ने चैन की साँस ली। हर किसी को ऐसा लग रहा था कि अगर आज ये लड़की डरकर या दबाव में आकर चली गई तो इसकी खैर नहीं। शायद लड़की भी यह जानती थी। बस के चलते ही उसके पपडाए होठों पर राहत नजर आई। वह आँखें बंदकर सिर सीर से टिका कर बैठ गई। चेहरे पर चोट के निशान साफ दिख रहे थे। उसकी आँखे बंद थीं पर चेहरा सब कुछ बयां कर रहा था। भयानक तूफान को झेलकर वह निकली थी।

खे बंदकर वह आगे आनेवाले तूफान से लड़नेकी ताकत अपने भीतर जुटा रही थी। लड़ाई उसने जीत ली थी, ना मालूम कितनी लड़ाईयाँ जीवन में उसे अभी लड़नी बाकी हैं ? सच है स्त्री अपनी मसीहा स्वयं ही है।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा,

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – आदत ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – लघुकथा – आदत 

….. पापा जी, ये चार-चार बार चाय पीना सेहत के लिए ठीक नहीं है। पता नहीं मम्मी ने कैसे आपकी यह आदत चलने दी? कल से एक बार सुबह और एक बार शाम को चाय मिलेगी। ठीक है!

…. हाँ बेटा ठीक है…., ढीले स्वर में कहकर मनोहर जी बेडटेबल पर फ्रेम में सजी गायत्री को निहारने लगे।  गायत्री को भी उनका यों चार-पाँच बार चाय पीना कभी अच्छा नहीं लगता था। जब कभी उन्हें चाय की तलब उठती, उनके हाव-भाव और चेहरे से गायत्री समझ जाती।  टोकती,…. इतनी चाय मत पीया करो। मैं नहीं रहूँगी तो बहुत मुश्किल होगी।  आज पी लो लेकिन कल से नहीं बनेगी दो से ज्यादा बार चाय।

पैतालीस साल के साथ में कल कभी नहीं आया पर गायत्री को गए पैंतालीस दिन भी नहीं हुये थे कि ….! …. तुम सच कहती थी गायत्री, देखो जो तुम नहीं कर सकी, तुम्हारी बहू ने कर दिखाया…., कहते-कहते मनोहर जी का गला भर आया।  जाने क्यों उन्हें हाथ में थामी फ्रेम भी भीगी-भीगी से लगी।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

रात्रि 11:21 बजे, 21.9.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #21 ☆ मजबूरी ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “मजबूरी”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #21 ☆

 

☆ मजबूरी ☆

 

सिपाही के हाथ् देते ही गौरव की चिंता बढ़ गई. जेब में ज्यादा रूपए नहीं थे, “क्या हुआ साहब?” उस ने सिपाही को साहब कह दिया. ताकि वह खुश हो कर उसे छोड़ दे.

“गाड़ी के कांच पर काली पट्टी क्यों नहीं है?” सिपाही बोला,  “चलिए! साहब के पास” उस ने दूर खड़ी साहब की गाड़ी की ओर इशारा किया.

“साहब जी! अब लगवा लूंगा.”

“लाओ 3500 रूपए. चालान बनेगा.” सिपाही ने कहा.

“साहब! मेरे पास इतने रूपए नहीं है” गौरव बड़ी दीनता से बोला .

“अच्छा!” वह नरम पड़ गया, “2500 रूपए और गाड़ी के कागज तो होंगे?”

गौरव खुश हुआ, “हाँ साहब कागज तो है, मगर रूपए नहीं है” कहते हुए उस ने सभी कागज सिपाही को दे दिए.

सिपाही ने कागजात देख कर कहा “अरे ! ड्राइवरी लाइसेंस तो एक्सपायर हो गया.”

“जी साहब! नवीनीकरण के लिए दे रखा है.” कहते हुए गौरव ने अपना दूसरा लाइसेंस सिपाही को पकड़ा दिया. उसे देख सिपाही मुस्करा दिया.

“जेब में कितने रूपए है?”

गौरव ने जेब में हाथ डाला, “साहबजी ! 200 रूपए है.”

सिपाही ने रूपए ले कर चालान काट दिया. फिर बोला, “क्या करें साहब,  हमारी भी मजबूरी है. हमें एक निश्चित राशि एकत्र करने का लक्ष्य दिया जाता है, उसे एकत्र करना होता है. इसलिए” कहते हुए सिपाही मुस्करा दिया.

गौरव ने चालान देखा, “अरे ! यह तो मोटरसाइकल का चालान है” कह कर वह मुस्कराया. फिर चुपाचप चल​ दिया.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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