हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #17 ☆ कुंठा ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “कुंठा ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #17 ☆

 

☆ कुंठा ☆

 

रात की एक बजे सांस्कृतिक कार्यक्रम का सफल का संचालन करा कर वापस लौट कर घर आए पति ने दरवाज़ा खटखटाना चाहा. तभी पत्नी की चेतावनी याद आ गई. “आप भरी ठण्ड में कार्यक्रम का संचालन करने जा रहे है. मगर १० बजे तक घर आ जाना. अन्यथा दरवाज़ा नहीं खोलूँगी तब ठण्ड में बाहर ठुठुरते रहना.”

“भाग्यवान नाराज़ क्यों होती हो?” पति ने कुछ कहना चाहा.

“२६ जनवरी के दिन भी सुबह के गए शाम ४ बजे आए थे. हर जगह आप का ही ठेका है. और दूसरा कोई संचालन नहीं कर सकता है?”

“तुम्हे तो खुश होना चाहिए”, पति की बात पूरी नहीं हुई थी कि पत्नी बोली, “सभी कामचोरों का ठेका आप ने ही ले रखा है.”

पति भी तुनक पडा, “तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि तुम्हारा पति …”

“खाक खुश होना चाहिए. आप को पता नहीं है. मुझे बचपन में अवसर नहीं मिला, अन्यथा मैं आज सब सा प्रसिद्ध गायिका होती.”

यह पंक्ति याद आते ही पति ने अपने हाथ वापस खींच लिए. दरवाज़ा खटखटाऊं या नहीं. कहीं प्रसिध्द गायिका फिर गाना सुनाने न लग जाए.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – ☆ कथा कहानी – लघुकथा ☆ पौध संवेदनहीनता की ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत है. यह एक गौरव का विषय हैं कि उन्होंने परदादा – दादा से विरासत में मिली साहित्यिक अभिव्यक्ति को न सिर्फ संजोकर रखा है बल्कि वे निरंतर प्रयास कर उस दिव्य ज्योति को प्रज्वलित कर चहुँ ओर उसका प्रकाश बिखेर रही हैं.  उनके ही शब्दों में –

“अपने मन की बात  कहने के लिए कविता और लघुकथा मेरे माध्यम हैं. ‘मन के हारे हार है , मन के जीते जीत’ पर मेरा पूरा विश्वास है. इसी मन को साहित्य – सृजन द्वारा चैतन्य और सकारात्मक बनाए रखती हूं.”

उनकी लघुकथाएं  हमारे आस पास की घटनाओं और सामाजिक पात्रों को लेकर लिखी गईं हैं. साथ ही वे सहज ही हमें कोई  न  कोई सकारात्मक समाजिक एवं शिक्षाप्रद सन्देश दे जाती हैं.  आज प्रस्तुत हैं उनकी लघुकथा “पौध संवेदनहीनता की”.  हम भविष्य में उनके साहित्य को आपसे साझा कर सकेंगे ऐसे अपेक्षा के साथ.)

 

☆  पौध संवेदनहीनता की ☆ 

 

हर तरफ वृक्षारोपण किया जा रहा था | भारत सरकार के आदेश का पालन जो करना था | बड़ी तादाद में गड्ढ़े खोदे गए,  पौधे लगाए गए और बड़े अधिकारियों ने मुस्कुराते हुए फोटो खिंचवाई | अखबारों में ज़ोर- शोर से इसका खूब प्रचार हुआ,  इसके बाद उन पौधों का क्या होगा भगवान जाने ? सरकारी आदेश का पालन हो चुका था .

लेकिन उसे इन बातों से कोई मतलब ही नहीं था | उसके आदर्श तो उसके पिता थे | उसने देखा था कि वे जब भी कोई फल खाते उसका बीज सुखाकर रख लेते थे | तरह – तरह के फलों के ढेरों बीज उनके पास इक्ठ्ठे हो जाते | जब वे बस से एक जगह से दूसरी जगह जाते तब सड़क के किनारे की खाली जमीन और घाटों में बीज फेंकते जाते | उनका विश्वास था कि ये बीज जमीन पाकर फूलें – फलेंगे और पर्यावरण सुरक्षित रहेगा | बचपन में पिता के साथ बस में सफर करते समय उसने भी कई बार खिड़की से बीज उछालकर फेंके थे |

आज वह भी यही करता है | उसके बच्चे भी देखते हैं कि सफर में जाते समय पिता के पास तरह – तरह के बीजों की एक थैली जरूर होती है | यात्रा में रास्ते भर वह खिड़की से बीज फेंकता जाता है, अपने पिता की तरह मन में इस भाव को लिए कि ये बीज बेकार नहीं जाएंगे सब नहीं पर कुछ बीज तो वृक्षों में बदल ही जाएंगे |

आज का उसका सफर पूरा हुआ और वह पहुँचता है महानगर के एक फलैट में जहाँ उसकी माँ बरसों से अकेले रह रही है | पैसों की कमी नहीं है इसलिए सर्टिफाईड कंपनी की कामवाली बाई माँ की देखभाल के लिए रख दी है | जरूरत पड़ने पर नर्स को भी बुलवा लिया जाता है | बिस्तर पर पड़े – पड़े माँ को बेड सोर  हो गए  हैं |अकेलेपन ने उसकी आवाज छीन ली है | बीमारी और अकेलेपन के कारण वह ज़िद्दी और चिडचिडी भी होती जा रही है | बूढ़ी माँ की आंखें अपने आस पास कोई पहचाना चेहरा ढूंढती है | लेकिन कोई नहीं है | वैसे तो सब दूर हैं पर मोबाईल युग में सब कुछ मुठ्ठी में है | दूर से ही सब मैनेज हो जाता है | कामवाली बाई भी आज के जमाने की है स्काइप से माँ को बेटे–बहू के दर्शन भी करा देती है | माँ समझ ही नहीं पाती कि क्या हुआ ? अचानक कैसे बेटा दिखने लगा और फिर फोन में कहाँ गायब हो गया,  उसकी समझ से परे है ये मायाजाल.  वह बात खत्म होने के बाद भी बड़ी देर फोन हाथ में लिए उलट पुलटकर देखती रहती है, बेटा कैसा आया इसमें और कहाँ गया ? माँ चाहती है दो बेटे – बहुओं में से कोई तो रहे उसके पास, कोई तो आए, लेकिन कोई नहीं आता . कामवाली बाई और नर्स की व्यवस्था कर उन्होंने माँ के प्रति अपने कर्तव्य की इतिश्री मान ली |

पिता को देख – देखकर नए पौधों को लगाने की बात तो वह सीख गया था लेकिन लगे लगाए पुराने पेड़ों को भी खाद पानी की जरूरत होती है इसे सिखाने में वे चूक गए थे | पर्यावरण संरक्षण की भावना तो पिता उसमें पैदा कर गए थे लेकिन परिवार में स्नेह और लगाव की बेल वे नहीं रोप सके थे |

अनजाने में ही सही पर वह भी अपने  बच्चों को संवेदनहीनता की यही पौध थमाता जा रहा था |

 

डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर, महाराष्ट्र – 414001

मोबाईल – 9370288414

e-mail – [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #16 ☆ साथी ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “साथी  ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #16 ☆

 

☆ साथी  ☆

 

“चल भाई  ! महफ़िल जमाते है”  रमण ने कहा तो उस ने प्याला उठ लिया. आगे-आगे रमण और पीछे-पीछे वह चलने लगा.

कुछ ही देर में महफ़िल जम गई.  एक गिलास में वह कुछ बियर  डाल लेता. दूसरे प्याले में कुछ बियर  उंडेल  देता.

“अरे भाई  ! तू बेईमानी मत करना” कहते हुए रमण कागज में रखी सेव का थोड़ा सा भाग उस के सामने रख देता और थोडा सा अपने सामने रख लेता. फिर दोनों सेव  खाते हुए मस्ती से बियर  का मजा ले रहे थे.

तभी मोहन वहाँ आ पहुँचा ,” क्यों भाई, महफ़िल जम रही है ?”

“हाँ  यार, तू भी बैठ.”

“इस कुत्ते के साथ ?”

“हाँ  यार ! यही तो मेरा वफादार साथी है. जो हर समय मेरा साथ निभाता है.” कह कर रमण और उस का साथी दोनों बारी-बारी से बियर पीने लगे .

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ उसने कहा था ☆ – श्री नरेंद्र राणावत

श्री नरेंद्र राणावत

 

☆ लघुकथा – उसने कहा था ☆

 

ऐवन पिछले कुछ समय से स्वास्थ्य की परेशानियों के कारण तनाव में थी। उसे अपने जीवन की अगली राह दिखाई ही नहीं दे रही थी। मन में व्याप्त अवसाद उसे बार-बार आत्महत्या के लिए प्रेरित कर रहा था।

इसी मानसिकता में ऐवन आज आँगन में ओटले पर बैठी पैर के अंगूठे से जमीन को कुरेद जरूर रही थी, उसकी निगाह एकटक शून्य में गुम थी । एक बार तो उसके आँखों के सामने अंधेरा छा गया, फिर जो प्रकाशपुंज उठा, उसकी आँखें तो क्या, आत्मा तक चौंधिया गई।

‘ऐवन, मुझे तुम्हारे निर्णय पर कोई आपत्ति नहीं, मैं तुम्हारी किसी मजबूरी का फायदा उठाना नहीं चाहता। शायद तुम मुझे पूरी तरह समझ न पाई हो। लेकिन फिर भी इतना कहूँगा कि मैं जीवन भर सिर्फ और सिर्फ तुम्हारा इंतजार करूंगा। जब चाहो याद कर सकती हो।’

हाँ, कॉलेज में अंतिम दिन यही तो कहा था नरेंद्र ने।

नरेंद्र, जो पिछले साल भी मॉल में एक बार फिर मिला था। उसके बालों में सफेदी ने अपनी दस्तक दे दी थी, लेकिन चेहरे का ओज और वार्तालाप में अद्भुत आत्मविश्वास झलक रहा था। ऐवन सोच रही थी, उम्र की मार तो नरेंद्र पर भी पड़ी ही होगी। शायद आत्मविश्वास ही वह दवा है जो आधी बीमारी दूर कर देती है।

‘मुझे भी अब नरेंद्र के लिए जीना है, पता नहीं वह कब किस मोड़ पर मिल जाए।’

ऐवन ने सोचा और जैसे ही उठ खड़ी हुई, उसके मन मे छाये अवसाद नाम की चिड़िया अपना घोंसला छोड़ सदा के लिए उड़ चुकी थी।

 

© नरेंद्र राणावत  ✍

गांव-मूली, तहसील-चितलवाना, जिला-जालौर, राजस्थान

+919784881588

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ श्राद्ध ☆ – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा प्रस्तुत है यह सामयिक एवं बेबाक लघुकथा  “श्राद्ध”.)

 

☆ लघुकथा – श्राद्ध ☆

 

बाबूजी की तिथि पर सभी रिश्तेदारों को आमंत्रित किया गया था । श्रीमतीजी ने बाबूजी की पसन्द के सभी पकवान बनाये थे । मेहमानों को परोसते हुए कह रही थीं – “बाबूजी को मटर पनीर, आलू छोले, गोभी, पराठाँ  बहुत पसंद थे । उनकी ही पसन्द को ध्यान में रखते हुए यह सब बनाये हैं, ताकि उनकी आत्मा तृप्त हो जाये।”

वह श्रीमतीजी के इस कथन पर अंदर ही अंदर कसमसा रहा था –  जब तक बाबूजी जिंदा थे, तब तक वे श्रीमतीजी को फूटी आंख न सुहाते थे। हमेशा ताने मारा करती, बुढ़ापे में बाबूजी की जीभ कुछ ज्यादा ही चलने लगी है, उनकी रोज़ रोज की फरमाइश से में तंग आ गई हूँ।

वह उठकर छत पर आ गया। छत की मुंडेर पर बाबूजी के निमित्त निकाली गयी पत्तल वैसी ही रखी थी। उसने चारों ओर नजर घुमाई, दूर दूर तक आसमान में कौआ नजर नहीं आ रहा था। उसे बाबूजी का कथन याद आ गया जो  एक बार बाबूजी ने उससे मजाक में कहा था – बेटा, न जाने कितने दिन की जिंदगी है, मेरा मन जो खाना चाहे खिला दो। मरने के बाद मैं कौआ बनकर खाने नहीं आऊंगा।

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 16 – घड़ी ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक बेहतरीन लघुकथा “घड़ी”।  श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी  ने  इस लघुकथा के माध्यम से स्वाभिमान एवं  संयम का सन्देश देने का प्रयास किया है।)

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 16 ☆

 

☆ घड़ी ☆

 

सरोज बहुत ही होनहार और तीव्र बुद्धि वाली लड़की थी। पिताजी किराने की दुकान पर काम करते थे। माँ सिलाई-बुनाई का काम कर घर का खर्च चलाती थी। घर में बूढ़े दादा-दादी भी थे। सरोज का एक भाई भी जो बिल्कुल इन बातों से अनजान छोटा था। खेल-कूद और पढ़ाई में सरोज बहुत ही होशियार थी।

किसी तरह पिताजी अपनी गृहस्थी चला रहे थे। पास पड़ोस में सरोज आती जाती थी। और किसी के घर का सामान लाकर दे देना, बदले में थोड़े से पैसे मिल जाते थे, जिससे स्कूल का कॉपी किताब खरीद लेती थी।

एक बार स्कूल के किसी कार्यक्रम के तहत उसे दूसरे गाँव जाना था उसमें सरोज को प्रोग्राम में हाथ की घड़ी पहननी थी। जो उसके लिए खरीद कर पहनना असंभव था क्योंकि पिताजी की कमाई से सिर्फ घर का खर्च चलता था।

सरोज मोहल्ले में एक आंटी के यहां जाती थी। उसका बहुत काम करती थी। शाम को रोटी भी बना आती थी।  उसे लगा कि शायद आंटी जी उसकी मदद कर देंगी क्योंकि उनके पास हाथ की घड़ी कई प्रकार की थी, बदल बदल कर पहनती थी।

यह सोच एक दिन पहले उनके पास गई और घड़ी मांगते हुए बोली आंटी-  “जी क्या मुझे एक दिन के लिए अपने हाथ की घड़ी देंगी? मेरे स्कूल का प्रोग्राम है।“ वह सोची मैं इनका काम करते रहती हूं तो शायद दे देंगी और मन ही मन कह रही थी मैं उनकी घड़ी को बहुत संभाल कर रखूंगी प्रोग्राम के तुरंत बाद आकर लौटा दूंगी। परंतु आंटी ने सीधे कड़क शब्दों में कहा “मैं यह घड़ी नहीं दूंगी क्योंकि रात में समय देखती हूँ।“सरोज तीव्र बुद्धि वाली थी उसको समझते देर न लगी की आंटी अपनी घड़ी नहीं देंगी। वह तुरंत ही बोली – “आंटी जी समय तो आप किसी भी घड़ी से देख सकती है। टाइम तो वह भी बताएगी।“ तुरंत ही जवाब सुनकर आंटी जी बौखला गई सोची नहीं थी कि सरोज कुछ इस प्रकार बोलेगी, और उन्हें आज समय और घड़ी की कीमत का पता चल गया।

सरोज उल्टे पाँव अपने घर लौट आई। और प्रोग्राम में नहीं गई। समय आने पर घड़ी ले लेंगे सोच कर मन में संतोष कर लिया।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #15 ☆ बेबस ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “बेबस ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #15 ☆

 

☆ बेबस ☆

 

धनिया इस बार सोच रही थी कि जो 10 बोरी गेहू हुआ है उस से अपने पुत्र रवि के लिए कॉपी, किताब और स्कूल की ड्रेस लाएगी जिस से वह स्कूल जा कर पढ़ सके. मगर उसे पता नहीं था कि उस के पति होरी ने बनिये से पहले ही कर्ज ले रखा है .

वह आया. कर्ज में ५ बोरी गेहू ले गया. अब ५ बोरी गेहू बचा था. उसे खाने के लिए रखना था. साथ ही घर भी चलाना था. इस लिए वह सोचते हुए धम से कुर्सी पर बैठ गई कि वह अब क्या करेगी ?

पीछे खड़ा रवि अवाक् था. बनिया उसी के सामने आया. गेहू भरा . ले कर चला गया. वह कुछ नहीं कर सका.

“अब क्या करू ? क्या इस भूसे का भी कोई उपयोग हो सकता है ?” धनिया बैठी- बैठी यही सोच रही थी .

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – सृजन ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ संजय दृष्टि – सृजन ☆

(माँ शारदा की अनुकम्पा से जन्मी एक लघुकथा)

जल शांत था। उसके बहाव में आनंदित ठहराव था। स्वच्छ, निरभ्र जल और दृश्यमान तल। यह निरभ्रता उसकी पूँजी थी, यह पारदर्शिता उसकी उपलब्धि थी।

एकाएक कुछ कंकड़ पानी में आ गिरे। अपेक्षाकृत बड़े आकार के कुछ पत्थरों ने भी उनका साथ दिया। हलचल मची। असीम पीड़ा हुई। लहरें उठीं। लहरों से मंथन हुआ। मंथन से सृजन हुआ।

कहते हैं, उसकी रचनाओं में लहरों पर खेलता प्रवाह है। पाठक उसकी रचनाओं के प्रशंसक हैं और वह कंकड़-पत्थर फेंकनेवाले हाथों के प्रति नतमस्तक है।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 15 – सच्ची मोहब्बत ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक बेहतरीन लघुकथा “सच्ची मोहब्बत”।  श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी की कलम को इस बेहतरीन लघुकथा के माध्यम से  युवाओं को वैवाहिक निर्णय लेने के समय भावनाओं का सम्मान रखने का अभूतपूर्व संदेश देने के लिए  बधाई ।)

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 15 ☆

 

☆ सच्ची मोहब्बत ☆

 

मोहब्बत कहते ही लगता है कि एक दूसरे के प्रति अटूट प्यार विश्वास और समर्पण की भावना। मोहब्बत किसी से कहीं भी हो सकती है, बस दिल पर गहरा असर हो। गांव के मोहल्ले में एक छोटा सा परिवार सभी के साथ रहता था। माँ-बाप मजदूरी करते और बिटिया नंदिनी  और हाथ पैर से अपंग भाई। नंदिनी  बहुत सुंदर पढ़ाई लिखाई में तेज और समझदार थी। कहते हैं मजबूरी सब सिखा देती है, ऐसे ही नंदिनी  समय से पहले समझदार और अपने कर्तव्य समझने लगी थी। भाई की कमजोरी और माँ-बाप की लाचारी से नंदिनी को सब सीखना पड़ा। स्कूल के साथ-साथ थोड़ा बहुत सबका काम करती थी। पैसे और खाने का सामान मिलने पर उनका खर्च चलने लगा था। शिक्षा पूरा होते ही नंदिनी  एक स्कूल की टीचर बन गई। अब थोड़ी राहत हुई। मां बाप भी खुश भाई के इलाज के लिए थोड़े पैसे भी बचा लेती थी। पर मन ही मन नंदिनी  भाई को लेकर बहुत परेशान रहती थी। पास पड़ोस में सभी नंदिनी  से कहते शादी कर लो नंदिनी  पर वह तो घर से बंधी हुई थी। कहती मेरी जिम्मेदारी को देखते हुए कौन मुझसे शादी करेगा। परंतु कहीं ना कहीं सब बातों से आहत होती थी। एक दिन अचानक पिताजी को लकवा यानि कि पैरालिसिस लग गया और बिस्तर पर आ लगे। माँ बेचारी बेटी को लेकर रो-रोकर दिन काटने लगी। एक दिन स्कूल से नंदिनी आई घर में कुछ मेहमान बैठे थे। पता चला नंदिनी की शादी की बात चल रही है। बिल्कुल सादे लिबास में भी नंदिनी का रूप चमक रहा था। मेहमानों के जाने के बाद पिताजी इशारे से बेटी को कहने लगे लड़का अच्छा है, शादी कर ले। नंदिनी ने गुस्से से कहा आप सब के कारण में शादी नहीं कर पाऊंगी। रात में सोचते सोचते नंदिनी के पिता जी सदा-सदा के लिए शांत हो गए। अब तो जैसे घर में बेचैनी का माहौल बनने लगा। भाई भी बहन की परिस्थिति को समझ सकता था। पर हाथ पैर से लाचार कुछ नहीं कर पा रहा था। बस रो लेता था। एक दिन नंदिनी स्कूल से लौटी। माँ  ने चाय के साथ उसको एक रजिस्टर्ड लिफाफा पकड़ा दिया। खोलकर नंदिनी ने पढ़ी। आँखों से आँसू गिरने लगे। स्टांप पेपर पर लिखा था –

“मैं अपने होशो हवास से लिख रहा हूं। मैं नंदिनी के माँ और भाई को आजीवन अपने साथ रखूंगा। और किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं होने दूंगा। बस नंदिनी मेरी जीवन साथी बन जाओ।”

*तुम्हारा सुधांशु*

नंदिनी बार-बार पढ़ रही थी *तुम्हारा सुधांशु* जैसे उसकी सच्ची मोहब्बत हो। खुशी से आँसू गिर रहे थे। चेहरे पर बहुत प्यारी हँसी। माँ और भाई समझ नहीं पा रहे थे। नंदिनी ने आँसू पोंछ कर माँ से कहा शादी की तैयारी करो। माँ और भाई ने कोई सवाल नहीं किया। बस खुशी के मारे मोहल्ले में बताने दौड़ चली। भाई अपनी खुशी गाना गाकर कर रहा था। सुधांशु को *सच्ची मोहब्बत* मिल गई।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 14 – लघुकथा – बालवर्ष का लाभ ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है  उनकी  लघुकथा  “बालवर्ष का लाभ”।  यदि हमारे भीतर मानवता जीवित है तो हम आज ऐसे  परजीवी न होते . यह  भी मत भूलिए  कि  जरूरतों और समय ने बच्चों को समय पूर्व ही वयस्क बना दिया है.)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 14 ☆

 

☆ लघुकथा – बालवर्ष का लाभ ☆

 

और फोटोग्राफर भरी दुपहरिया में पसीना-पसीना हुए घूम रहे थे। उद्देश्य था बालवर्ष के सिलसिले में कुछ खस्ताहाल, संघर्षशील बच्चों के इंटरव्यू और चित्र छापना। ढाबे में काम करने वाले एक छोकरे का इंटरव्यू लेकर लौटे थे और दूसरे की तलाश में थे। दूसरा भी मिल गया, चौराहे पर बूट-पॉलिश करता हुआ।। लेखक का चेहरा खिल गया।

लेखक ने उसके सामने बैठकर अपना खाता खोला, दुनिया-भर के प्रश्न पूछ डाले। नाम? उम्र? कहाँ से आये हो? कहाँ रहते हो? कैसे रहते हो? कितना कमा लेते हो? माँ-बाप की याद आती है? भाई-बहन की याद आती है? घर की याद आती है?

लड़का निर्विकार भाव से सवालों के जवाब देता रहा। माँ-बाप और भाई-बहन के बारे में पूछते हुए लेखक ने उसकी आँखों में झाँका कि शायद गीली हो गयीं हों। लेकिन लड़के की आँखें रेत जैसी सूखी और चेहरा सपाट था।

लेखक ने हाथ बढ़ाया, ‘अच्छा भई श्यामलाल, चलते हैं।’

लड़का वैसे ही निर्विकार भाव से बोला, ‘एक बात कहना है साहब।’

लेखक उत्साह से बोला, ‘बोलो, बोलो।’

लड़का बोला, ‘साहब, इसी तरह पाँच छः बाबू लोग हमसे बातचीत करके हमारा फोटो खींच ले गये। हर बार हमारा आधे घंटे का नुकसान होता है। इतनी देर में दो आदमियों को निपटा देता।’

लेखक का मुँह उतर गया। उसने जेब से बीस रुपये का नोट निकालकर बढ़ाया, कहा, ‘यह लो श्यामलाल अपना हर्जाना।’

लड़के ने नोट मोड़कर लापरवाही से कान पर खोंस लिया।

लेखक जाने के लिए मुड़ने लगा कि लड़का बोला, ‘एक बात और साहब।’

लेखक बुझे-बुझे स्वर में बोला, ‘कहो।’

लड़का बोला, ‘साहब, यह बाल बरस किसके कल्यान के लिए मनाया जा रहा है?’

लेखक ने जवाब दिया, ‘बच्चों के कल्याण के लिए, तुम्हारे कल्याण के लिए।’

लड़का बोला, ‘पर साहब, यह जो आप लिख लिखकर छपवा रहे हैं, उससे तो आपका कल्यान हो रहा है। हम तो जहाँ के तहाँ बैठे हैं।’

अब लेखक और फोटोग्राफर लड़के की तरफ पीठ करके जल्दी-जल्दी ऑटो को आवाज़ दे रहे थे।

 

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )

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