हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 8 – लघुकथा – तरक़ीब ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है  उनकी लघुकथा  “तरक़ीब  ”।  हमारे जीवन में  घटित  घटनाएँ कुछ सीख तो दे ही जाती हैं और कुछ तो तरक़ीब भी सीखा देती हैं।  ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 8 ☆

 

☆ लघुकथा – तरक़ीब ☆

 

रमेश जी अपने परिवार के साथ प्लेटफार्म पर बैठे थे। गाड़ी का इंतज़ार था। दोनों बच्चे प्लेटफार्म पर धमाचौकड़ी मचाये थे। थोड़ी ही देर में उन्होंने ‘भूख लगी है’  की टेर लगानी शुरू कर दी। माँ ने टिफिन-बॉक्स खोला और बच्चों को देकर पति की तरफ भी पेपर-प्लेट बढ़ा दी।

रमेश जी के हलक़ तक निवाला पहुँचा होगा कि वे प्रकट हो गये—-तीन लड़कियाँ और दो लड़के, उम्र तीन चार से दस बारह साल के बीच। फटेहाल । करीब पांच फुट की दूरी पर जड़ हो गये। आँखें खाने पर, अपलक। जैसे आँखों की बर्छी भोजन को बेध रही हो।

निवाला रमेश जी के गले में अटक गया। मुँह फेरा तो वे मुँह के सामने आ गये। दृष्टि वैसे ही खाने पर जमी। रमेश जी के बच्चे भी उनकी नज़र देख कौतूहल में खाना भूल गये। रमेश जी गु़स्से में चिल्लाये, लेकिन बेकार। उनकी नज़र यथावत। झल्लाकर रमेश जी ने प्लेट उनकी तरफ ढकेल दी, चिल्लाये, ‘लो, तुम्हीं खा लो।’ वे प्लेट उठाकर पल में अंतर्ध्यान हो गये।

दिमाग़ ठंडा होने पर रमेश जी ने सोचा, यह तरक़ीब अच्छी है। न लड़ना झगड़ना, न चीख़ना चिल्लाना। बस खाना गले में उतरना मुश्किल कर दो । रमेश जी खीझ में हँस कर रह गये।

 

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ भूल -भुलैया ☆ – श्री सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा

श्री सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा 

 

(प्रस्तुत है श्री सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा जी  की मानवीय संवेदनाओं पर आधारित लघुकथा ‘उदासी’। हम भविष्य में श्री अरोड़ा जी से उनके चुनिन्दा साहित्य की अपेक्षा कराते हैं।)

 

☆ भूल -भुलैया☆

 

” क्या हुआ? आज फिर मुहं लटकाए बैठा है. कल तो जिंदगी के सुहानेपन के गीत गुनगुना  रहा था.”

” हाँ गुनगुना रहा था क्योंकि कल सुहावनापन था. ”

” मौसम तो आज भी वैसा ही है जैसा कल था.”

” पर आज वो तो नहीं है न! ”

” क्या कल वो थी? ”

” भले ही नहीं थी पर उसने फोन पर कहा था कि वो है.”

” ऐसा तो उसने बहुत बार कहा है? ”

” कल दिन भर मेरे सामने थी पर बात दूसरों से करती रही.”

” यह तो तुम दोनों के बीच बहुत दिनों से होता रहा है तो फिर अब मुहं लटकाने का क्या मतलब?”

” अब मैंने भी तय कर लिया है कि न तो उसका फोन सुनुँगा और न ही उसे फोन करूंगा.”

” तो फिर अब रोना कैसा. छूट्टी खराब मत कर. चल उठ, निकल. कहीं चल कर मस्ती करते हैं.”

” हाँ यही ठीक है, यही करेंगें.”

” वह बिस्तर से निकलने को हो आया कि तभी फोन की ट्यून बज उठी. उसने स्क्रीन पर नजर डाली. ट्यून की लहरों के बीच चमक  रहा  था  “नम्रता कॉलिंग.”

” मित्र ने स्विच आफ करने की ओर हाथ बढ़ाया ही था कि उसने रोक दिया और कुछ देर तक टनटनाती ट्यून को देखने के बाद मोबाईल को कान से लगा कर आत्मीयता से बोला,” हेलो नमु. गुड मॉर्निंग! कैसी हो.”

“…………………………………………..!”

मित्र ने पाया कि यह तो फिर से उसी भूल -भुलैया में खो गया है. इसके पास रुकने का  कोई फायदा नहीं है.

 

सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा

डी – 184 , श्याम पार्क एक्सटेंशन , साहिबाबाद – गाज़ियाबाद  – 201005 ( ऊ. प्र. ) – मो. 09911127277

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #5 ☆ भरोसा ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से अब आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की  शिक्षाप्रद लघुकथा  भरोसा”। ) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – #5  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ भरोसा 

 

आज बहुत अरसे बाद मेरी मुलाकात संस्कृति से हुई, उसे देखकर ऐसा लगा जैसे उसके चेहरे की रौनक चली गई हो। हेलो, हाय सामान्य औपचारिकता के बाद हमसे रहा नहीं गया हमने पूछ ही लिया …

“क्या बात है संस्कृति सब ठीक है न, आज कल तुम पहले की तरह चहकती हुई नहीं दिखाई दे रही।”

“नहीं कोई बात नहीं सब ठीक है।”

“इतने बुझे शब्दों में तो तुमने कभी उत्तर नहीं दिया था, आज क्या हो गया? अच्छा संस्कृति मैं सामने ही रहती हूँ, चलो घर बैठकर बात करते हैं।”

“अब तुम नि:संकोच मुझे बताओ, मैं तुम्हारे साथ हूँ।”

“अब कुछ नहीं हो सकता न ही कोई कुछ कर सकता है, गया हुआ समय वापस नहीं आ सकता।” इतना कहते ही संस्कृति फूट-फूटकर रोने लगी।

हमने कहा “रोओ मत, कहो मन की बात। अब बताओ.”

तुम जानती हो मेरी पक्की दोस्त ख़ुशी को, उसकी नौकरी हमारे ही शहर दिल्ली में लगी। एक रात उसका फोन आया मैं आ रही हूँ, मेरी नौकरी लग गई है बैंक में। यह सुनते ही मैं ख़ुशी से पागल हो गई और कहा – अरे तुम ज़रूर आओ.

मैंने अपने हसबेंड को बताया, ख़ुशी आ रही है। इन्होने भी कहा कोई बात नहीं आने दो तुम्हें भी सहारा मिल जायेगा नए मेहमान आने में ज़्यादा समय नहीं है। मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था बहुत बरसों के बाद दो दोस्त मन की बातें करेंगे।

ख़ुशी आई। हमने अपने हसबेंड से मिलवाया, ख़ुशी ने कहा हम आप लोगों की लाइफ को डिस्टर्ब नहीं करेंगे 15 दिनों में हमें घर मिल जायेगा, हम चले जायेंगे। हमने कहा कोई बात नहीं तुम यहां भी रह सकती हो।

एक सप्ताह बाद मेरी तबीयत ख़राब हुई मैं अस्पताल में भर्ती हो गई. डॉ. ने कहा बच्चे को खतरा है, डॉ  ने बहुत कोशिश की पर बच्चा खो दिया, पति ने गुस्से से कहा तुमने मेरे साथ बहुत ग़लत किया। मैं करीब 5 / 6 दिन भर्ती रही और यही सोचती रही बच्चा खोने में मेरी क्या गलती है?

अगले दिन घर पहुंची तो आराम करना ज़रूरी ही था, ख़ुशी मेरी बहुत सेवा करती रही, पर पतिदेव बहुत ही रुष्ट नजर आये। हमने उन्हें बहुत समझाने की कोशिश की पर कोई फर्क नहीं पड़ा। ख़ुशी ने कहा कोई बात नहीं सब ठीक हो जायेगा। इसी आशा से रोते–रोते सो गई जब आँख खुली तो कुछ आवाजें  सुनाई दी। मैं बाहर हॉल में गई तो देखा पतिदेव ख़ुशी के साथ हाथ में हाथ डाले बैठे थे। मैंने कहा ख़ुशी ये क्या?

ख़ुशी के पहले ही पतिदेव बोल पड़े, साली है आधी घरवाली का दर्जा है।

मैंने कहा, सुबह होते मुझे तुम दिखनी नहीं चाहिए।

अगले दिन सुबह मेरे होश ही उड़ गए जब देखा ख़ुशी तो नहीं गई पर पतिदेव ने कहा संस्कृति इस घर में तुम्हारी कोई जगह नहीं है। ख़ुशी ने मुझे वह ख़ुशी दी है जो आज तक तुमसे नहीं मिली।

ख़ुशी मैंने कभी नहीं सोचा था,  तुम मेरी हंसी–ख़ुशी, सुख–चैन सब कुछ छीन लोगी।

मैंने कहा “अरे इतना सब कुछ तुम अकेले झेलती रही और कहाँ रही अब तक?”

“यहीं दिल्ली में अलग रूम लेकर रह रही हूँ मेरा तलाक हो चुका है। उन दोनों ने शादी कर ली है मौज से रहते है।”

“जहां तक मुझे याद है, तुमने लव मैरिज की थी।”

“हां सही याद है।”

“मुझे बाद में पडौसी से पता चला जब मैं अस्पताल में थी तब ही ख़ुशी ने इन्हें अपने कब्जे में कर लिया था।”

“क्या कभी शोभित मिलने नहीं आये या कुछ बोला नहीं, कोई अफ़सोस?”

“अब तो उस शख्स के बारे में सोचना भी नहीं चाहती, सोचकर धोखे की बू आती है।”

“जब जो मेरा अपना था, उसने ही भरोसा तोड़ा तो दोस्त की क्या बिसात?”

 

© डॉ भावना शुक्ल

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #7 ☆ फिर वही ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा “फिर वही”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #7 ☆

 

☆ फिर वही  ☆

 

रात के १२ बजे थे.  गाड़ी बस स्टैंड पर रुकी.

मेरे साथ वह भी बस से उतरा, ” मेडम ! आप को कहाँ जाना है ?”

यह सुन कर मुझे गुस्सा आ गया,”उन के पास” मैंने गुस्से में पुलिस वाले की तरफ इशारा कर दिया.

बस स्टैंड पर पुलिस वाला खड़ा था.

मैं उधर चली गई औए वह खिसक लिया.

फिर पुलिस वाले की मदद से मैं अपने रिश्तेदार के घर पहुँची.

जैसे ही दरवाजा खटखटाया, वैसे ही वह महाशय मेरे सामने थे, जिन्हें मैंने  गुंडा समझ लिया था. उन्हें देख कर मेरी तो बोलती ही बंद हो गई.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी – ☆ दक्षिण की वो महिला ☆ श्रीमति समीक्षा तैलंग

श्रीमति समीक्षा तैलंग 

 

(आदरणीया  श्रीमति समीक्षा तैलंग जी  व्यंग्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं।  साथ ही आप साहित्य की अन्य विधाओं में भी उतनी ही दक्षता रखती हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी एक कहानी “दक्षिण की वो महिला”। दक्षिण की वो महिला आपको निश्चित ही जिंदगी जीने का जज्बा सिखा देगी। अब यह आप पर निर्भर करता है कि आप आखिर जीना कैसे चाहते हैं?)

 

दक्षिण की वो महिला 

 

आज अस्पताल जाना हुआ। बेटे की रिपोर्ट दिखाने। दो महिलाएं पहले से बैठी थीं। एक की नाक में सीधी तरफ नथ थी। समझ गई कि दक्षिण की है। और दूसरी मराठी ही दिख रही थी।

दूसरी महिला ने बोलना शुरू किया तो पहली वाली भी मराठी में ही बात करने लगी। दोनों ही डायबिटीज की मरीज थी। लेकिन बहुत स्मार्ट।

जो दक्षिण से थीं उनकी उम्र कोई 70 साल होगी और दूसरी की 50 के आसपास। बोली डेली जिम जाती हूं। सास बीमार थी तो नहीं जा पायी। शुगर हाई की बजाय लो हो गई।

हाथ में बैंक ऑफ महाराष्ट्र का बैग था। जूट का…। यहां पॉलीथीन बैग्स पूर्ण रूप से बैन है। कोई शादियों में बंटे कपड़े के थैले लेकर भी खूब दिख जाते हैं।

बैग देखकर मैंने पूछा आप जॉब करती हैं।

बोली- मेरे पति हैं बैंक में।

तब तक पहली वाली महिला से बातचीत होने लगी। कहने लगी मुझे पुणे बिल्कुल पसंद नहीं आता फिर भी यहां रहती हूं। 2011 दिसंबर को मुंबई छोड़ दिया। जहां बेटा कहेगा वहीं रहूंगी अब।

पूछा उनसे कि क्यों नहीं पसंद?

बोली- जिंदगी के 28 साल नवी मुंबई वाशी में गुजारे। वहां ज्यादा अच्छा है। 10×10 के घर में रहते थे। जबकि यहां टूबिएचके…। पूरी बिल्डिंग की हालत जर्जर हो गई थी। जिनकी थी उन्होंने वाशी में ही बड़े बड़े बंगले बना लिए। कोई देखने वाला नहीं था। दीवारों में इतनी दरख्त थी कि बाहर देख लो उन झरोखों से।

बारिश में घर के अंदर छाता लेकर बैठना पड़ता था। फिर भी छोडने का मन नहीं था। जिन्होंने नहीं छोड़ा उन्हें 30 लाख मिले। खाली करा दी थी बाद में बिल्डिंग।

लेकिन बेटा माना नहीं। बुला लिया अपने पास।

फिर अपने पति के गुजरने की बात कही। बोली कमानी कंपनी में थे। बहुत बड़ी कंपनी थी। नाम था उसका और हमारी इज्ज़त थी वहां नौकरी करना। कैशियर था वो (पति)।

1973 से ही केरल छोड़ मुंबई बस गए। बहुत अच्छी कंपनी थी। एक दिन 800 वर्करों को निकाल दिया कह कर की कंपनी बंद हो गई है अब।

एक पैसा भी नहीं दिया। पेंशन तो दूर की बात है, पगार भी खा गए वो लोग।

मैं भी स्टेनो थी। जॉब करती थी। सास ने झगड़ा कर कर के मेरी जॉब छुड़वा दी थी। अब न पति है न सास।

बेटी है। चैन्नई में सेटल है। दो बच्चे हैं। जॉब करती है।

लंबी सांस लेते हुए बताने लगी कि मेरे बेटे को तीन बार ऑफर आया लेकिन उसने मना कर दिया मेरे लिए।

लेकिन अभी उसे जबर्दस्ती भेजा है। क्यों उसके आगे बढ़ने की रुकावट बनना। पिछले महीने ही गया अमेरिका। कंपनी जब तक रखेगी, रहेगा।

लेकिन मैं बहुत आध्यात्मिक हूं। वीणा वादन, शास्त्रीय गायन संगीत सब करती हूं। भजनों में जाती हूं।

एक पेपर पर पूरा टाइमटेबल बना है। उसी के हिसाब से चलती हूं। ज्यादा कुछ परवाह नहीं करती। बच्चे सीखने आते हैं, सिखाती हूं। ऐसे ही…। मतलब फ्री में…।

मलयालम, तेलुगु, तमिळ, इंग्रजी, कन्नड़ सब भाषाएं आती हैं। बस इसी में सारा समय निकल जाता है।

शुगर है लेकिन बॉर्डर के ऊपर नहीं जाने देती। डॉक्टर के यहां बहुत कम जाती हूं। अच्छा नहीं लगता। बस आज के बाद अब एक साल बाद ही आऊंगी।

मस्त जिंदगी गुजार रही हूं। किसी की चिंता नहीं…। उतने में ही डॉक्टर आ गए और मैं अंदर चली गई।

सोच रही थी कि जीना इसी का नाम है…।

 

© श्रीमति समीक्षा तैलंग, पुणे 

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – #7 – दस्तक ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  उनकी  पौराणिक कथा पात्रों पर आधारित  शिक्षाप्रद लघुकथा  “दस्तक ”। )

 

हमें यह सूचित करते हुए अत्यंत हर्ष हो रहा है कि आदरणीया श्रीमती सिद्धेश्वरी जी  को  मीन साहित्य संस्कृति मंच द्वारा  हिन्दी साहित्य सम्मान  प्राप्त  प्रदान किया  गया है ।  ई-अभिव्यक्ति की ओर से हमारी सम्माननीय  लेखिका श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ  ‘शीलु’ जी को हार्दिक बधाई। 

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 7 ☆

 

☆ दस्तक ☆

 

मिस अर्पणा सिंग’ स्कुल की अध्यापिका। नाम भी सुन्दर दिखने में औरों से बहुत अच्छी। सख्त और अनुशासन प्रिय। सभी उनके रूतबे से डरते थे। किसी की हिम्मत नहीं होती कि बिना परमिशन के उनके स्कूल या घर में कोई दस्तक दे। घर परिवार में भी उसी प्रकार रहना, न किसी  का आना जाना और न ही स्वयं किसी के घर मेहमान बनना। इसी वजह से  सब लोगों ने उनका नाम बदल दिया ‘मिस अपना सिंग’ । उनको कोई पसंद भी नहीं करता था। बस स्कूल की गरिमा और उनका कड़क जीवन यापन ही उन्हें अच्छा लगता था।

किसी ने आज तक उनसे उनके बारे में जानने की कोशिश नहीं की। जानता भी कौन? किसी से उनकी बात ही नहीं  होती थी। समय बीतता गया। कब तक अकेली सफर करती। एक दिन अचानक पाँव फिसल जाने के कारण पैर की हड्डी टूट गई। जैसे उन पर दुखों का पहाड़ आ गया। जैसे तैसे पड़ोसी अस्पताल ले जा कर प्लास्टर लगवा कर ले आये। फिर घर पर अकेली अपनी काम वाली बाई के साथ पड़े रहना।

स्कूल में कुछ बच्चे खुश पर कुछ उदास थे। पर उनके पास जाने की हिम्मत किसी की नहीं हो रही थी। पता चला दरवाजे से ही बाहर भगा दिया तो? पर सब की बातों से बेखबर एक उनके कक्षा का विद्यार्थी जिसका नाम ‘अनुज’ था जो बहुत ही शरारती और अपने चंचल स्वभाव के कारण सब का मनोरंजन करता रहता था। सिंग मेडम कभी टेबिल के उपर तो कभी क्लास रूम के बाहर कर देती थीं। उसे अपनी अध्यापिका को देखने और मिलने जाने का मन हुआ।

चुपके से सब बच्चों के साथ जा पहुँचा मेडम के घर। दरवाजे पर दस्तक दिया।  दरवाजा अधखुला और हाथों में पेपर लिए मेडम चश्मे से दरवाजे पर देख कर बोली. कौन? क्या काम है? बस क्या था बाकी बच्चे अनुज को छोड़कर भाग खड़े हुए। परन्तु अनुज हिम्मत कर बोला…. “मेडम जी मैं, आपका अपना अनुज”।

अपना अनूज सुनते ही अध्यापिका की आँखें भर आईं। बड़ी मुश्किल से अपनी भावना को दबाते हुए उसे अन्दर बुलाकर पूछी.. “कैसे आना हुआ?” अनूज ने बड़े डर से बताया “आप को देखने आया था। सब कोई आना चाहते हैं। क्या सब को बुला लूं?”  मेडम ने हां में सिर हिलाया। अनुज दौड़ कर बाहर चला गया।

आज अध्यापिका ‘मिस अपना सिंग’ को अपने नाम से ज्यादा अच्छा ‘अपना अनुज’ कहना  लग रहा था। उनके दिल पर किसी ने ‘दस्तक’ जो दे दिया है। जैसे उन्हें सारे जहां की खुशी मिल गई हो।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ पौराणिक कथाओं पर आधारित कथा – सालिगराम☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी  की लघुकथाओं का अपना संसार है। आज प्रस्तुत है उनकी पौराणिक कथाओं पर आधारित  कथा – शालिग्राम । )

 

☆ पौराणिक कथाओं पर आधारित कथा – शालिग्राम ☆

 

बरसात का मौसम, मौसमी फलों की बहार। बाजार निकलने पर ठेलों पर काले काले जामुन। सभी का दिल खाने को होता है। जामुन देख हम भी आपको एक पुरानी कथा बता रहे हैं। आप सभी जानते होंगे फिर भी मुझे आप सब के साथ साझा करना अच्छा लग रहा है ।

एक ऋषि का आश्रम जहाँ बहुत सारे शिष्य शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। गांव का एक अनपढ उसे भी गुरूकुल जाने का मन हुआ और साधु संत बनने की इच्छा जागी। माँ से बात कर वह एक दिन पहुंच गया आश्रम  बहुत ही भोला भाला जैसा कोई कह दे मान जाता था। गुरुजी ने उसे रखने से इंकार किया परंतु उसकी सच्ची श्रद्धा देखकर उसे अपने आश्रम में रख लिया।

उन्होंने पूछा “क्या जानते हो?”

बहुत ही सीधे शब्दों में उसने सब बात बता कर गुरु जी से कहा “आप जो काम देंगे वह मैं अवश्य पूरा करूंगा। बदले में मुझे खाना दे दिया कीजिए।”

गुरुजी शालिग्राम प्रभु के बहुत भक्त थे और बड़े छोटे भिन्न-भिन्न प्रकार के  शालिग्राम की स्थापना कर रखे थे। आश्रम में पूरा दिन उनको नहलाना, पूजा करना, टीका चंदन लगाना, फिर जो भी मिले प्रसाद स्वरूप सब को बाँट कर खाना बस बाकी समय भगवान का आराधना कर बैठे रहना वह सब से देखता था। उसको बड़ा सहज लगता था कि बस बैठे-बैठे खाना मिलता है।

एक दिन गुरुजी पास के गांव में शास्त्रार्थ करने गए। जाते समय बाकी शिष्यों को साथ ले गए परंतु इस शिष्य को समझा गए कि “हमारे आते तक सब शालिग्राम भगवान की सेवा करना, नहलाना, चंदन तिलक लगाना और जो भी मिले सब तुम्हारा होगा खा लेना।” शिष्य बड़ा खुश हो गया दो दिनों तक बहुत जमकर खाया भूल गया कि भगवान का भी कुछ काम करना है। तीसरे दिन एकादशी व्रत था। किसी ने कुछ खाने का सामान नहीं लाया पूजा-पाठ तो दूर भूख सताने लगी।

आश्रम के बाहर निकल कर देखा जामुन के पेड़ पर खूब सारे जामुन लगे हैं।  किन्तु, पहुँच से सब बाहर हैं। पत्थर बड़े बड़े थे । उसे निशाना नहीं बन रहा था उसने सोचा इतने सारे शालिग्राम है तो पत्थर ही है बस एक एक उठा जामुन पर दे मारा और भगवान की इच्छा जामुन भी खूब गिरते गए। सब शालिग्राम ऊपर मारने से पास में नदी बह रही थी पानी में जा गिरे। जब पेट भर गया तो उसे ध्यान आया कि गुरु जी आने वाले हैं अब शालिग्राम ढूँढेंगे तो कहाँ से दूँगा। उसने सोचा क्यों ना जामुन में टीका चंदन लगाकर उसी जगह रख दिया जाए। उसने वैसा ही किया। बड़े छोटे जामुन को जगह के अनुसार चंदन लगा कर रख दिया फूल पत्ती चढ़ाकर स्वयं पूजन में बैठ गया। गुरुजी आने पर देखते हैं कि फूल तो ज्यादा मात्रा में चढ़े हैं और पूजन भी विधिवत हो गया है। बहुत खुश हुए दूसरे दिन गुरुजी स्नान कर अपने सभी शालिग्राम को स्नान कराने के लिए उठाया तो देखा कि उठाए देखा कि माखियाँ भिनक रही हैं और शालिग्राम पिचके सूखे गीले पड़े हैं। उन्हें समझते देर न लगी।  फिर भी बुला कर शिष्य को पूछा उसने जवाब दिया “पुनि पुनि चंदन पुनि पुनि पानी ठाकुर गवागे हम का जानी।” उसने कहा आप ही ने उन्हें रोज नहलाने और चंदन टीका के लिए कह गए थे। बार-बार नहलाने से शायद ऐसे हो गए हैं। आपके शालिग्राम और कहीं गए। हमें कुछ नहीं मालूम शिष्य के भोलेपन से गुरुजी को समझते देर न लगी कि जामुन तोड़कर खुद खाया और जामुन को ही रख दिया है पूजा पाठ करके। पर क्या करें ऊपर से कड़क होते गुरु जी ने कहा जाओ  नदी में सब शालिग्राम नहा रहे हैं। सबको निकाल कर ले आओ।

शिष्य गुरु जी की बात मानकर नदी चला गया और खुशी-खुशी लौट आया। यह थी शालिग्राम और जामुन की कहानी।

रामायण में शालिग्राम का वर्णन करते तुलसीदास बताते हैं कि एक समय था नल और नील दोनों भाई ऋषि के आश्रम में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। बहुत ही चंचल चपल चतुर सभी ऋषियों को हमेशा तंग करना उनका काम था। आश्रम में सभी ऋषि मुनि उनकी दुष्टता से परेशान थे। कहीं भी मौका मिलता सभी के शिवलिंग और शालिग्राम भगवान को नदी में फेंक दिया करते थे। पूजन के समय पर जब अपनी जगह पर शिवलिंग ना पाकर सभी दुखित हो जाते थे। एक दिन ब्रह्म ऋषि आश्रम में तपस्या कर रहे थे। दोनों भाई नल और नील आकर उनका शिवलिंग उठाकर नदी पर फेंक आए। उन्होंने दोनों को श्राप दे दिया ‘जाओ आज के बाद तुम जिस पत्थर को भी या चीज को भी नदी में बहाओगे नदी के ऊपर तैरने लगेगा। ‘ नल नील की शैतानियां बंद हो गई क्योंकि कुछ भी डाल देते तो वह नदी पर और किनारे आ जाता। उन्होंने नादानी में न जाने कितने बानर और ऋषि-मुनियों को उठाकर नदी में फेंका था। फिर क्या था जब भगवान को नदी में डाल देते थे उनका सामान एक किनारे लग जाता था। इसकी वजह से दोनों बहुत व्याकुल थे परंतु प्रभु की इच्छा जब रामावतार में प्रभु राम सीता माता की खोज करने वानर भालू के साथ विराट और अथाह समुद्र को पार करने का और लंका जाने के लिए बहुत ही आशंकित थे कि इतना बड़ा समुद्र कैसे पार किया जाएगा। परंतु तभी उनको विभीषण जी ने बताया कि “प्रभु आपके वानर सेना में नल और नील दो ऐसे वानर हैं जिनके द्वारा फेंके गए पत्थर और चट्टानें पानी पर तैरने लगते हैं इस प्रकार हम इस पर बांध बनाकर जा सकते हैं।”

इसका वर्णन रामायण की निम्न चौपाई में इस प्रकार है:-

 

“नाथ नील नल कपि दो भाई लरिकाई ऋषि आशीष पाई।

तिन्ह के परस किए गिरी भारे तरिहहीं जलधि प्रताप तुम्हारे।”

 

बस फिर क्या था नल नील प्रभु का नाम लिख लिख कर समुद्र पर पत्थर फेंकते गए और रामेश्वरम के ऊपर जो पुल का निर्माण हुआ है वह बन गया। नल नील के द्वारा बनाया गया पुल आज भारतीय संस्कृति को देखने को मिल रहा है। उनका श्राप वरदान बना और आज भारत अखंड में एक रामेश्वरम पुल है।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #6 ☆ सिंदूर ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा “सिंदूर”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #6 ☆

 

☆ सिंदूर ☆

 

मोहन ने सभी तरह के प्रयास किए, मगर मोहनी उस के जाल में नहीं फंसी.

“आप से दस बार कह दिया कि मैं अपने पति रमण जी के अलावा किसी और के बारे में सोच भी नहीं सकती हूँ.”

मोहन भी पूरा जिद्दी था.  “आप चाहे जो सोचे. मगर एक बार मेरे नाम की ही सही.  एक चीज आप को पहनना ही पड़ेगी. हम आप से प्रेम करते है .”

मगर मोहनी ने कभी कोई चीज नहीं ली.

वही मोहन आज उज्जैन से आया था.  ” लीजिए रमण जी ! आप ने उज्जैन की प्रसिद्ध चीज – यह सिंदूर मंगाया था.”

“अरे हाँ , मोहन जी लाइए.” कह कर रमण ने सिंदूर अपनी पत्नी मोहनी को पकड़ा दिया.

मोहनी के तन-मन में आग लग गई,” नहीं चाहिए मुझे सिंदूर,” कहते हुए मोहनी चीख उठी और सिंदूर की डिब्बी जोर से एक और फेंक दी.

सिंदूर की डिब्बी सीधे मोहन के शरीर पर गिरी और वे पूरे लाल हो गए. मानो वे मोहनी के क्रोध में नहा गए हों .

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – #5 – छोटा मुंह बड़ी बात….. ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में प्रस्तुत है एक ऐसी  ही शिक्षाप्रद लघुकथा  “छोटा  मुँह बड़ी बात….. ”।)

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – #5 ☆

 

☆ छोटा मुँह बड़ी बात….. ☆

 

पांच वर्षीय मेरा चुलबुला पोता दिव्यांश स्कूल व अपने गृहकार्य के बाद अधिकांश समय मेरे कमरे में ही बिताता है। कक्ष में बिखरे कागज व पत्र-पत्रिकाएं ले कर पढ़ने का अभिनय करते हुए बीच-बीच में वह मुझसे कुछ-कुछ पूछता भी रहता है।

आज दोपहर फिर एक पत्रिका खोल कर पूछता है — “दादू ये क्या लिखा है? ये वाली कविता पढ़कर मुझे सिखाओ न दादू! ये कविता भी आपने ही लिखी है न ?”

“नहीं बेटू–ये मेरी कविता नहीं है।”

“फिर भी आप पढ़ कर सुनाएं मुझे।””

टालने के अंदाज में मैंने कहा- “बेटू जी आप ही पढ़ लो, आपको तो पढ़ना आता भी है।”

“नहीं दादू! मुझे अच्छे से नहीं आता पढ़ना। आप ही सुनाइए।”

“इसीलिए तो कहता हूँ बेटे कि, पहले खूब मन लगा कर अपनी स्कूल की पढ़ाई पूरी कर लो, फिर बड़े हो कर अच्छे से कविताएं पढ़ना और सब को सुनाना भी।”

बड़े हो कर नहीं दादू! मुझे तो अब्बी छोटे हो कर ही कविता पढ़ना और सुनाना भी है, आप तो पढ़ाइए ये कविता।”

“आपसे सीख कर अभी छोटा हो कर ही कविता सुनाते-सुनाते फिर जल्दी मैं बड़ा भी हो जाऊंगा”।

पोते को कविता पढ़ाते-सुनाते हुए मैं खुश था, आज उसने अपनी बाल सुलभ सहजता से  जीवन में बड़े होने का एक सार्थक  सूत्र  मुझे दे दिया था।

“छोटे हो कर कविता सुनाते-सुनाते बड़े होने का।”

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – #6 गौरव ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी  की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  उनकी  एक भावुक एवं मार्मिक  लघुकथा  “गौरव ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 6 ☆

 

☆ गौरव ☆

 

माता पिता ने अपने इकलौते बेटे का नाम रखा गौरव।

मां हमेशा कहती बेटा जैसा नाम रखा है, वैसा कुछ काम करना। बस छोटे से बाल मन में ये बात घर कर गई थीं।

धीरे-धीरे बड़ा हुआ गौरव।  गौरव ने बारहवीं कक्षा अच्छे नम्बरों से पास करने के बाद देश सेवा में जाने की इच्छा बताया। आर्मी बटालियन का पेपर, फिर ट्रेनिंग के बाद सिलेक्शन हो गया। और एक दिन बाहर बार्डर पर तैनात हो गया।

हमेशा मां की बात मानने वाला गौरव भारत माँ की निगरानी, रक्षा करते नहीं थकता था। माँ  शादी की बात करने लगी। वह हँस कर कहता मुझे अभी भारत माता की सेवा करनी है। माता-पिता भी कुछ न कहते।

एक दिन सुबह सब कुछ अनमना सा था। माँ को समझ नहीं आ रहा था। दरवाजे पर एक सिपाही आया देख पिता जी बाहर आकर पूछे क्या बात हैं? उसने बड़े ही दर्द के साथ बताया कि गौरव भारत मां की रक्षा करते शहीद हो गया।

माँ समझ गई। रो रो कर कह उठी “मेरा गौरव मेरी बात का इतना बड़ा मान रखेगा।  मैं जान न सकी। गौरव इतना महान बनेगा।” माँ का रूदन रूक ही नहीं रहा था।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

Please share your Post !

Shares
image_print