हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/Memories – #6 – सरदार ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(यह एक संयोग ही है की आज के ही दिन श्री आशीष कुमार जी की पुस्तक ‘पूर्ण विनाशक’  का विमोचन है। श्री आशीष जी को उनकी इस नवीनतम कृति की सफलता के लिए हार्दिक शुभकामनायें।

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे उनकी लेखमाला  के अंश  “स्मृतियाँ/Memories”।  आज के  साप्ताहिक स्तम्भ  में प्रस्तुत है एक  अत्यन्त  भावुक एवं मार्मिक  संस्मरण सरदार।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/MEMORIES – #6 ☆

 

सरदार

 

मैंने अपनी अभियांत्रिकी सूचना प्रौद्योगिकी से सन 2000 से लेकर 2004 तक की थी । इस दौरान मैंने अपनी जिंदगी के 4 साल उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में व्यतीत किये और बहुत कुछ सिखने को मिला । मैं अभियांत्रिकी के सूचना प्रौद्योगिकी की बात नहीं कर रहा बल्कि जिंदगी ने बहुत कुछ सिखाया । अलग अलग तरह के लोगो से वास्ता पड़ा सबकी सोच को समझने की कोशिश की । उस दौरान ये भी समझ में आया की कैसे किसी की संस्कृति, रहन सहन, उसका क्षेत्र और उसके माता पिता, भाई बहन आदि का उसके विचारो, प्रकृति और चरित्र पर प्रभाव पड़ता है । अभियांत्रिकी में शुरू का 1 महीना तो जान पहचान आदि में ही बीत जाता है ।

धीरे धीरे मेरी भी मेरी शाखा सूचना प्रौद्योगिकी के बाक़ी साथियो से जान पहचान और कुछ से दोस्ती भी शुरू हो गयी एक लड़का जो की सरदार जी थे हमेशा कक्षा में देर से आता था कभी कभी तो आता भी नहीं था एक दिन हमारी व्यक्तित्व विकास (Personality Development) का व्याख्यान (lecture) था उसमे अध्यापिका ने बोला के आज आप सब लोग अपना परिचय (Introduction) दीजिये । तो सब साथी अपना परिचय ऐसे दे रहे थे ‘My Name is….’ और हमारी अध्यापिका सबको Ok Ok बोल रही थी । कुछ देर बाद सरदार जी का नंबर आया उन्होंने अपना परिचय My name is …….से शुरू नहीं किया बल्की ‘I am … ‘ से शुरू किया । अध्यापिका ने बोला वैरी गुड जब हमे कोई अपना परिचय देने को बोले तो हमे I am and name बताना चाहिए ना की शुरुवात ही my name is  से करनी चाहिए । क्योकि सामने वाला आपके बारे में पूछ रहा है ना कि केवल आपका नाम । उसके बाद कक्षा के सब छात्र अपना परिचय ‘I am …’ से ही देने लगे । सरदार जी ने जो अपना नाम बताया था वो मेरे दिमाग पर छप गया वो नाम था ‘राजविंदर सिंह रैना’

धीरे धीरे राजविंदर और मेरी अच्छी दोस्ती हो गयी । फिर अभियांत्रिकी के दूसरे साल में मैं और राजविंदर कमरा साथी (Roommate) बन गए । मैं राजविंदर को बोला करता था यार तुम्हे तो Modeling में जाना चाहिए था तो वो हमेशा बोलता ‘नहीं यार Modeling के लिए तो बहुत कम उम्र से तैयारी करनी पड़ती है और मैं तो बूढ़ा हो गया हूँ’ तो  जवाब में बोलता ‘तुम्हारा नाम है राजविंदर सिंह रैना मतलब तुम्हारे नाम में राजा भी है और शेर भी, और ना ही राजा कभी बूढ़ा होता है ना ही शेर’ इस बात पर राजविंदर बहुत हँसा करता था । राजविंदर में ये विशेषता थी की वो अपनी बातो से किसी रोते हुए को भी हँसा सकता था ।

इंजीनियरिंग में लड़के रात रात भर जागते है कुछ पढ़ाई करते है कुछ खुराफ़ात । हमारे कमरे से करीब 100 मीटर की दूरी पर एक चाय की टपरी थी जिसे एक बाप और दो बेटे चलाते थे । बाप और एक बेटा सुबह से रात तक चाय की टपरी संभालते थे और दूसरा बेटा रात से सुबह तक । ऐसे वो ‘गुप्ता जी’ की चाय की टपरी 24X7 खुली रहती थी । कॉलेज की परीक्षाओ के समय हम लोग रात को कभी भी गुप्ता जी की चाय की टपरी पर चाय पीने चले जाते थे कभी रात्रि में 11:30 कभी रात्रि में 2:00 कभी सुबह 5:00 आदि आदि । रात के समय गुप्ता जी की चाय की टपरी पर काफी रिक्शा वाले भी बैठे रहते थे क्योकि वो बेचारे अपना घर चलाने के लिए रात में भी रिक्शा चलाते थे क्योकि रात मे पैसे थोड़े ज्यादा मिल जाते थे धीरे धीरे मेरी और राजविंदर की उन रिक्शावालों से भी अच्छी पहचान हो गयी थी ।

अब अगर हम लोगो को अपने घर (Hometown) जाना हो तो हम लोग रात को गुप्ता जी की चाय की टपरी पर से ही रिक्शा लेते थे क्योकि ज्यादातर ट्रेन मेरे और राजविंदर के Hometown के लिए रात में ही चलती थी तो घर जाते समय हम लोग पहले गुप्ता जी के यहाँ चाय पीते फिर वही से रिक्शा में बैठ कर रेलवे स्टेशन चले जाते । सामान्य तौर पर हम लोग ट्रेन का टिकट कई दिन पहले ही बुक करा लेते थे पर कभी कभी अचानक भी जाना पड़ता था ऐसे ही एक बार राजविंदर को अचानक अपने घर जम्मू जाना था सर्दी का समय था उसकी  ट्रेन  करीब रात के 12:30 पर बरेली आती थी । हम लोग रात 10:00 बजे के करीब गुप्ता जी की चाय की टपरी पर पहुंचे हमने चाय पी, फिर मैंने राजविंदर से पूछा ‘यार तेरा ट्रेन में टिकट बुक नहीं हुआ है तो टिकट और रास्ते के लिए पैसे है या नहीं ?’ तो राजविंदर ने कहा ‘Don’t worry यार 500 रूपये है’ मैंने कहा ‘ठीक है’ फिर हमे गुप्ता जी की चाय की टपरी पर ही एक जानने वाला रिक्शावाला मिल गया राजविंदर उस रिक्शा में बैठ गया मैंने उसे विदा किया और वापस कमरे की तरफ चल दिया ।

मैं घर आ कर सो गया अगले दिन मुझे मेरे एक मित्र ने बताया की रात को करीब 3:00 बजे राजविंदर का फ़ोन आया था उस समय सन 2001 में मेरे पास मोबाइल फ़ोन नहीं हुआ करता था तो राजविंदर का फ़ोन उस दोस्त के पास आया था जिसके पास उस समय मोबाइल फ़ोन था मैंने उस दोस्त से घबरहाट और उत्सुकता से पूछा ‘क्या हुआ इतनी रात को उसने फ़ोन क्यों किया था ?’

उस दोस्त ने कहा ‘यार वो बिना टिकट यात्रा कर रहा था T.C. ने पकड़ लिया था तो किसी स्टेशन से फ़ोन कर के T.C. को ये confirm करा रहा था की वो स्टूडेंट है ताकि T.C. उसे छोड़ दे ‘ मैंने बोला ‘नहीं यार ऐसा कैसे हो सकता है जब वो गया था तो उसके पास 500 रूपये थे उतने में स्लीपर का टिकट आराम से आ जाता’ उस दोस्त ने कहा ‘पता नहीं यार’ । जब राजविंदर अपने घर से वापस आया तो सबसे पहले मैंने उससे यही पूछा ‘यार तेरे पास तो टिकट के लिए पैसे थे फिर बिना टिकट यात्रा क्यों कर रहे थे ?’ तो वो बोला ‘यार वो रामलाल चाचा वो जिनकी रिक्शा में बैठकर मैं स्टेशन तक गया था उनकी बच्ची बहुत बीमार थी और उनके पास डॉक्टर को दिखाने के पैसे नहीं थे इसलिए मैंने 500 रूपये उन्हें दे दिए थे’ मैं मन में सोच रहा था की जो किसी और की परेशानी मे अपने पास के सारे पैसे किसी जरूरतमंद को देदे और बिना टिकट यात्रा करता हुआ पकड़ा जाये शायद उसी को सरदार बोलते हैं। दिल से सलाम है राजविंदर को ।

रस : वीर

 

© आशीष कुमार  

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #3 – हृदय का नासूर… ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से अब आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की  शिक्षाप्रद लघुकथा  “हृदय का नासूर…। ) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – #3  साहित्य निकुंज ☆

 

हृदय का नासूर…

 

‘ मां क्या हुआ? इतनी दुखी क्यों बैठी हो?”

 

“बेटा क्या बताये आजकल लोग कितनी जल्दी विश्वास कर लेते है। सब जानते है अपनों पर विश्वास बहुत देर में होता है फिर भला ये कैसे कर बैठी अनजान पर विश्वास।

 

“मां कौन?”

 

“प्रिया और कौन?”

 

“ओह्ह …प्रिया आंटी सोहन अंकल की बेटी!”

 

“हाँ हाँ वही …”

 

“क्या हुआ?”

 

“अभी-अभी फोन आया प्रिया का तो वह बोली …दीदी बहुत गजब हो गया मैं कहे बिना नहीं रह पा रही हूँ पर आप किसी से मत कहना मन बहुत घबरा रहा है।

 

“अरे तू बोलेगी अब कुछ या पहेलियां की बुझाती रहेगी।“

 

“हाँ हाँ बताती हूँ …”

 

“एक दिन बस स्टेण्ड पर एक अजनबी मिला बस आने में देर हो रही थी और मैं ऑटो करने लगी तभी एक लड़का आया और बहुत नम्रता से बोला मुझे भी कुछ दूरी तक जाना है प्लीज मुझे भी बिठा लीजिये मैं शेयर दे दूँगा। मैं न जाने क्यूँ उसके अनुरोध को न टाल पाई और ठीक है कह कर बिठा लिया। अब तो रोज की ही बात हो गई वह रोज उसी समय आने लगा और न जाने क्यों? मैं भी उसका इन्तजार करने लगी। हम रोज साथ आने लगे और एक अच्छे दोस्त बन गए। उसने कहा “एक दिन माँ से मिलवाना है।”

 

हमने कहा…”हम दोस्त बन गए है अच्छे पर मेरी शादी होने वाली है हम ज़्यादा कहीं आते जाते नहीं न ही किसी से बात करते है पता नहीं आपसे कैसे करने लगे?”

 

वह बोला “…कोई बात नहीं फिर कभी …”

 

कुछ दिन बीतने पर वह दिखाई नहीं दिया हमे चिंता हो गई तो हमने फोन किया तो उसकी मम्मी ने उठाया वह बोली …”पापाजी बहुत बीमार है ऑपरेशन करवाना है अभि पैसों के इंतजाम में लगा है बेटा आते ही बात करवाती हूं।”

 

थोड़ी देर बाद अभि का फोन आया वह बोला “क्या बताये? पापा को अचानक हॉर्ट में दर्द हुआ और भर्ती कर दिया। अब ऑपरेशन के लिए कुछ पैसों की ज़रूरत है 50 मेरे पास है 50 हजार की ज़रूरत है।

 

हमने कहा …”कोई बात नहीं हमसे ले लेना।”

 

वह बोला “नहीं … हमने कहा हम सोच रहे तुम्हारे पापा हमारे पापा।“ और अगले दिन उसे पैसा दे दिया। कुछ दिन बाद कुछ और पैसों से हमने मदद की। वह बोला…”हम तुम्हारी पाई-पाई लौटा देंगे। मुझे नौकरी मिल गई है हमें कंपनी की ओर से बाहर जाना है दो माह बाद आकर या तुम्हारे अकाउंट में डाल देंगे। कुछ दिन वह फोन करता रहा बातें होती रही एक दिन उसके फोन से किसी और दोस्त का फोन आया और वह बोला…

 

“मैं बाथरूम में फिसल गया पैर टूट गया है चलते नहीं बन रहा मैं जल्दी आकर तुम्हारा क़र्ज़ चुकाना चाहता हूँ।

 

हमने कहा “कोई बात नहीं …कुछ दिन बाद बैंक में डाल देना।“

 

बोला “ओके.”

 

दो चार दिन बाद हमने मैसेज किया “प्लीज पैसा भेजो।“

 

तब उसके दोस्त का फोन आता है “एक दुखद सूचना देनी है गलती से अभि की गाड़ी के नीचे कोई आ गया और एक्सिडेंट हो गया तो उसे पुलिस ले गई है। वह आपसे एस एम एस से ही बात करेगा आज मैं   यह फोन उसे दे दूँगा।“

 

हमने कहा…”हे भगवन ये क्या हो गया बेचारे की कितनी परीक्षा लोगे।”

 

कुछ समय बाद उसका मैसेज आया “मैं ठीक हूं जल्द ही बाहर आ जाऊंगा”।

 

तब हमने कहा …”आप अपने दोस्त से कहकर मेरा पैसा डलवा दो मेरी शादी है मुझे ज़रूरत है।”

 

वह बोला “ठीक है …”

 

फिर हमने कई बार मैसेज किया कोई जबाब नहीं आया।

 

तब मैं बहुत परेशान हो गई और सोचने लगी एक साथ उसके साथ जो घटा वह वास्तव में था या सिर्फ़ एक नाटक था।

 

तब मन में एक अविश्वास का बीज पनपा और हमने उसका नंबर ट्रेस किया तो वह नंबर भारत में ही दिखा रहा था। यह जानकर मन दहल गया और वह दिन याद आया जब वह बहुत अनुरोध कर रहा था होटल चलने की कुछ समय बिताने की लेकिन हमने कहा “नहीं हमें घर जाना है यह सही नहीं है तुम्हारे साथ मेरा दोस्त रुपी पवित्र रिश्ता है।“

 

दीदी बोली… “बेटा पैसा ही गया इज्जत तो है। बेटा अब पछताये होत क्या जब… ।”

 

“अब अपने आप को कोसने के सिवा कोई चारा नहीं है दीदी। यह तो अब हृदय का नासूर बन गया है।”

 

© डॉ भावना शुक्ल

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #5 ☆ जनरेशन गेप ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। श्री ओमप्रकाश  जी  के साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  शिक्षाप्रद लघुकथा “जनरेशन गेप ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #5 ☆

 

☆ जनरेशन गेप  ☆

 

पापाजी  उसे समझा रहे थे ,” सीमा बेटी ! अब तुम्हारी सगाई हो गई है . अब इस तरह यार दोस्तों के साथ घूमने जाना, सिनेमा देखना, शापिंग करना ठीक नहीं है ?….” पापाजी उसे आगे कुछ समझते कि सीमा ने उन्हें बीच में रोकते हुए कहा , ” पापाजी ! आप भी ना , १७ वी सदी की बातें कर रहे है.  हम नई पीढ़ी के लोग हैं. ऐसी पुरानी बातों में विश्वास नहीं करते हैं .”

अभी सीमा अपने पिताजी को जनरेशन गेप पर कुछ और लेक्चर सुनाती कि उस के मोबाइल के वाट्सएप्प पर एक सन्देश आ गया. जिसे पढ़- देख कर सीमा ‘धम्म’ से जमीन पर बैठ गई .

“क्या हुआ ?” सीमा के चेहर पर उड़ती हवाईया देख कर पापाजी ने पूछा तो सीमा ने अपना मोबाइल आगे कर दिया. जिस में एक फोटो डला हुआ था और  नीचे लिखा था , ” सीमा ! मैं इतना भी आधुनिक नहीं हुआ हूँ कि अपनी होने वाली बीवी को किसी और के साथ सिनेमा देखते हुए बर्दाश्त कर जाऊ. इसलिए मैं तुम्हारे साथ मेरी सगाई तोड़ रह हूँ.”

यह पढ़- देख कर पापाजी के मुंह से निकल गया , “बेटी ! यह कौन सा जनरेशन गेप है ? मैं समझ नहीं पाया ?”

शायद  सीमा भी इसे समझ नहीं पाई थी.  इसलिए चुपचाप रोने लगी .

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – #4 – वातानुकूलित संवेदना ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में प्रस्तुत है एक ऐसी  ही लघुकथा  “वातानुकूलित संवेदना”।)

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – #4 ☆

 

☆ वातानुकूलित संवेदना ☆

 

एयरपोर्ट से लौटते हुए रास्ते में सड़क किनारे एक पेड़ के नीचे पत्तों से छनती तीखी धूप-छाँव में साईकिल रिक्शे पर सोये हुए एक व्यक्ति पर अचानक नज़र पड़ी।

लेखकीय कौतूहलवश गाड़ी रुकवाकर उसके पास पहुँचा।

देखा – वह खर्राटे भरते हुए गहरी नींद सो रहा था।

समस्त सुख-संसाधनों के बीच मुझ जैसे अनिद्रा रोग से ग्रस्त सर्व सुविधा भोगी व्यक्ति को जेठ माह की चिलचिलाती गर्मी में इतने इत्मिनान से नींद में सोये इस रिक्शेवाले की नींद से कुछ ईर्ष्या सी होने लगी।

इस भीषण गर्मी व लू के थपेड़ों के बीच खुले में रिक्शे की सवारी वाली सीट पर धनुषाकार, निद्रामग्न रिक्शा चालक के इस कारुण्य दृश्य को आत्मसात कर वहाँ से अपनी लेखकीय सामग्री बटोरते हुए वापस अपनी कार में सवार हो गया

अनायास रिक्शेवाले से मिले इस नये विषय पर एक कहानी  बुनने की उधेड़बुन मेरे संवेदनशील मस्तिष्क में उमड़ने-घुमड़ने लगी।

घर पहुंचते ही सर्वेन्ट रामदीन को कुछ स्नैक्स व कोल्ड्रिंक का आदेश दे कर अपने वातानुकूलित कक्ष में अभी-अभी मिली कच्ची सामग्री के साथ लैपटॉप पर एक नई कहानी बुनने में लग गया।

‘गेस्ट’ को छोड़ने जाने और एयरपोर्ट से यहाँ तक लौटने  की भारी थकान के बावजूद— आज सहज ही राह चलते मिली इस संवेदनशील मार्मिक कहानी को लिख कर पूरी करते हुए मेरे तन-मन में एक अलग ही स्फूर्ति व  उल्लास है।

रिक्शाचालक पर तैयार मेरी इस सशक्त दयनीय कहानी को पढ़ने के बाद मेरे अन्तस पर इतना असर हो रहा है कि, इस विषय पर कुछ कारुणिक काव्य पंक्तियाँ भी खुशी से मन में हिलोरें लेने लगी है।

अब इस पर कविता लिखना इसलिए भी आवश्यक समझ रहा हूँ कि – हो सकता है, यही कविता या कहानी इस अदने से रिक्शे वाले के ज़रिए मुझे किसी प्रतिष्ठित मुकाम तक पहुंचा दे।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – #5 निःशब्द ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी  की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  उनकी  एक भावुक एवं मार्मिक  लघुकथा  “निःशब्द ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 5 ☆

 

☆ निःशब्द ☆

दामोदर एक साधारण व्यक्ति। कद काठी सामान्य । थुलथला बदन और पान के शौकीन। मुंह से चारों तरफ से पान गिरना। गरीबी के कारण बुढापा जल्दी आ गया था। 50-52 साल के परन्तु लगते 70 साल के। प्लंबर का काम, घर घर जाकर काम करना जो उन्हें बुला ले। बेटे के नालायक निकल जाने के कारण दामोदर टूट चुके थे। पत्नी और बिना ब्याही बिटिया घर पर। रोजी से जो कुछ भी मिलता अपनी पत्नी को पूरा का पूरा ले जाकर दे देना।

अपने लिए कभी किसी से मांगने नहीं जाते। खुशी से दे दे तो गदगद हो जाना और यदि मेहनताना कम मिले तो कुछ कहना ही नहीं बस चलते बनना। उनके इस व्यवहार के कारण, सिविल एरिया पर नल सुधारना, पाईप बदलना छोटे-छोटे काम के लिये सिर्फ़ दामोदर का ही नाम होता था। सब काम बहुत मन लगाकर करना।

लगभग 3-4 महिने से दामोदर कहीं भी दिखाई नहीं दे रहे थे। सभी एक दूसरे से पूछते पर कहीं गांव में रहने के कारण उनका पता कोई नहीं जान रहा था। सिर्फ एक मोबाइल नंबर दे रखा था उसने।

अचानक एक दिन  किचन का नल खराब हो जाने से, उस नम्बर पर काल करने से उधर से आवाज आई…. “कौन साहब बोल रहे हैं?”

“दामोदर जी घर पर है क्या?…..” बात शुरू करना चाहते थे। परन्तु उनकी पत्नी  इतना ही बोल सकी, “वे अब इस दुनिया में नहीं रहे। एक माह पहले उनका देहांत हो गया।”

फोन पर “हैलो, हैलो….. ” की आवाज आती रही। पर उत्तर पर ‘निःशब्द ‘ कुछ बोल न सके। लगा शायद फोन आज डेड हो गया है।

सब कुछ दामोदर के लिए निःशब्द हो गया।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 5 – दो पिताओं की कथा ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा – “दो पिताओं की कथा ” जो निश्चित ही आपको  यह सोचने पर मजबूर कर देगी कि बदलते सामाजिक परिवेश में दोनों पिताओं में किसका क्या कसूर है? कौन सही है और कौन गलत? इससे भी बढ़कर प्रश्न यह है कि इस परिवेश में समाज की भूमिका क्या रह जाएगी? ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 5 ☆

 

☆ दो पिताओं की कथा☆

 

कस्बे के एक समाज के प्रमुख सदस्यों की बैठक थी। समाज के एक सदस्य रामेश्वर प्रसाद की बेटी ने घर से भाग कर अन्तर्जातीय विवाह कर लिया था। अब लड़की-दामाद रामेश्वर प्रसाद के घर आना चाहते थे लेकिन रामेश्वर भारी क्रोध में थे। उनके खयाल से बेटी ने उनकी नाक कटवा दी थी और उनके परिवार की दशकों की प्रतिष्ठा धूल में मिल गयी थी।

बैठक में इस प्रकरण पर विचार होना था। समाज के एक सदस्य किशोरीलाल एक माह पहले अपनी बेटी का विवाह धूमधाम से करके निवृत्त हुए थे। लड़के वालों की मांगें पूरी करने में वे करीब दस लाख से उतर गये थे। इस बैठक में वे ही सबसे ज़्यादा मुखर थे।

रामेश्वर प्रसाद को इंगित करके वे बोले, ‘असल में बात यह है कि कई लोग अपने बच्चों को ‘डिसिप्लिन’ में नहीं रखते, न उन्हें संस्कार सिखाते हैं। इसीलिए ऐसी घटनाएं होती हैं। हमारी भी तो लड़की थी। गऊ की तरह चली गयी।’

रामेश्वर प्रसाद गुस्से में बोले, ‘यहाँ फालतू लांछन न लगाये जाएं तो अच्छा। हम अपने बच्चों को कैसे रखते हैं और उन्हें क्या सिखाते हैं यह हम बेहतर जानते हैं।’

समाज के बुज़ुर्ग सदस्यों ने किशोरीलाल को चुप कराया। फिर समस्या पर विचार-विमर्श हुआ। यह निष्कर्ष निकला कि लड़कों लड़कियों के द्वारा अपनी मर्जी से दूसरी जातियों में विवाह करना अब आम हो गया है, इसलिए इस बात पर हल्ला-गुल्ला मचाना बेमानी है। रामेश्वर प्रसाद को समझाया गया कि गुस्सा थूक दें और बेटी-दामाद का प्रेमपूर्वक स्वागत करें। अपनी सन्तान है, उसे त्यागा नहीं जा सकता। रामेश्वर प्रसाद ढीले पड़ गये। मन में कहीं वे भी यही चाहते थे, लेकिन समाज के डर से टेढ़े चल रहे थे।

यह निर्णय घोषित हुआ तो किशोरीलाल आपे से बाहर हो गये। चिल्ला चिल्ला कर बोले, ‘हमारी लड़की की शादी में दस लाख चले गये,  हम कंगाल हो गये, और इनको मुफ्त में दामाद मिल गया। या तो इनको समाज से बहिष्कृत किया जाए या फिर समाज मेरे दस लाख मुझे अपने पास से दे।’

वे चिल्लाते चिल्लाते माथे पर हाथ रखकर बिलखने लगे और समाज के सदस्य उनका क्रन्दन सुनकर किंकर्तव्यविमूढ़ बैठे रहे।

 

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #4 ☆ उपहार ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। श्री ओमप्रकाश  जी  के साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  शिक्षाप्रद लघुकथा “उपहार ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #4 ☆

 

☆ उपहार ☆

 

नन्ही परी का जन्मदिन मनाया जा रहा था .

उस की प्यारी टीचर भी आई हुई थी.

जैसे ही परी ने मोमबत्ती को फूंक मारा वैसे ही सभी ने एक स्वर में कहा , ” हैप्पी बर्थ डे टू यू …………… हैप्पी बर्थ डे टू परी, ” और सभी बारी-बारी से परी को केक खिलाने लगे .

अंत में पापा ने परी से पूछा , “ बोलो ! तुम्हें कौन सा उपहार चाहिए ?”

यह सुनते ही परी ने टीचर की तरफ देखा. टीचर ने मम्मी की पेट की तरफ इशारा कर दिया.

इसलिए परी ने तपाक से कहा, ” पापा ! मुझे यह बेबी चाहिए .”

यह सुन कर मम्मी-पापा दंग रह गए.

कहीं परी ने उन की बात तो नहीं सुन ली थी कि वे इस बच्ची को दुनिया में नहीं आने देंगे.

वे क्या बोलते. चुप हो गए .

और परी बार-बार यही दोहरा रही थी ,” पापा ! मुझे यह बेबी चाहिए.”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – #3 – सुहाग की चूड़ी……☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में प्रस्तुत है एक ऐसी  ही लघुकथा  “सुहाग की चूड़ी…… ”।)

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – #3  ☆

 

☆ सुहाग की चूड़ी…… ☆

 

हमेशा की तरह आज भी गुलशेर अहमद चूड़ियां लेकर फेरी पर निकला था। पिछले 15-20 वर्षों से हफ्ते-दस दिनों के अंतर से आसपास के सभी गांवों में उसके चक्कर लगते रहते हैं। हर एक गाँव में उसने कुछ ठीये बना रखे हैं, जहाँ से चूड़ी बेचने की उसकी अटपटी कलात्मक आवाज सुन मुहल्ले की सभी महिलाएं जुट जाती है।

बेटी-बहू से ले कर बूढ़ी तक सभी गुलशेर मियाँ को ‘गुलशेर भाई’ के नाम से संबोधित करती हैं।

प्रायः होटल से खाना खाने के बाद मुफ्त की मुट्ठी भर सौंफ-मिश्री व 2-4 दांत खुरचनी तथा किलो-पाव किलो सब्जी की खरीदी के बाद मुफ्त की मिर्ची-धनिया लेने की परिपाटी जैसे ही यहां भी भाव-ताव की झिकझिक के साथ निर्धारित चूड़ियाँ पहनने के बाद सुहाग के नाम पर फोकट की एक चूड़ी की मांग इन महिलाओं की सदा से बनी रहती है।

आज गुलशेर मियाँ के द्वारा किसी को भी सुहाग की अतिरिक्त चूड़ी नहीं मिलने से नाराज वे सब शिकायत करने लगी-

क्या गुलशेर भाई – हमेशा तो आप एक चूड़ी अपनी ओर से देते हो फिर आज क्यों नहीं….

मेरी बहनों! बूढ़ा हो रहा हूँ, अब पहले जैसी भागदौड़ नहीं हो पाती मुझसे,  यूँ ही एक-एक कर दिन भर में सौ-डेढ़ सौ चूड़ियां ऐसे ही निकल जाती है, ऊपर से कांपते हाथों से ज्यादा टूट-फुट हो जाती है सो अलग। फिर मैं आप बहन बेटियों से ज्यादा मुनाफा भी तो नहीं लेता हूँ, अब आप ही बताएं ऐसे में मेरी गृहस्थी कैसे चलेगी?

पर भैया सुहाग की एक चूड़ी तो सब जगह देते हैं!

सच बात तो ये है मेरी बेन – वो सुहाग की नहीं भीख की चूड़ी होती है।

भीख की चूड़ी! ये क्या कह रहे हो गुलशेर भाई आप?

अच्छा ये बताओ मुझे क्या, आपके सुहाग की कोई  कीमत नहीं है जो उनके नाम से मुफ्त की एक चूड़ी की मांग करते रहते हैं आप सब। फिर ये जो चूड़ियां पहनी है आपने, क्या ये आपके सुहाग की चूड़ियां नहीं है? मुफ्त की एक चूड़ी के बिना क्या आप सुहागिन नहीं समझी जाएंगी? और मांग कर फोकट में बेमन से मिली चूड़ी।

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – #4 गटागट गोली ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी  की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  उनकी  एक भावुक एवं मार्मिक  लघुकथा  “गटागट गोली ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 4 ☆

 

☆ गटागट गोली’☆

 

बड़े-बड़े मकानों के बीच एक झोपडी नुमा घर। घर में सभी चीजों का अभाव। विधवा माँ अपने दो बच्चों के साथ रहती थीं। गरीबी की लाचारी के कारण पहले ही बुढ़ापे ने घर कर लिया था। पर बच्चों के कारण जी रहीं थीं। दोनों बच्चियों को लेकर जाये कहाँ? कैसे भी काम करके किसी का सामान उठा, किसी की मालिश और किसी के बर्तन माँज कर गुजारा कर रही थीं।

सभी की नजर उसके झोपड़ी घर पर ही थी कि कब इसे लेकर आलीशान मकान बना ले। पर वो बेचारी बच्चों का मुँह देखकर अपना जीवन यापन कर रहीं थीं। बारिश आते ही गली, सड़क और घर एक जैसा हो जाता था। सारी नालियों का गंदा पानी उसके घर समा जाता था।

माँ  के काम पर जाने के बाद बच्चे आसपास ही खेलते रहते थे। गिर जाते, चोट लग जाती, पेट दुखता या फिर बुखार। सब की एक ही दवाई पास वाले परचून के दुकान वाले अंकल जी की मीठी दवाई। उससे उनका विश्वास था या यूँ कहें कि दवाई का भ्रम बना गया था। और सहन शक्ति ज्यादा हो गई थी कुछ भी दर्द सहने की।

एक दिन बहुत  जोरों की आधी तुफान आया उन्हें पता नहीं था मां कितने बजे वापस आयेगी। शाम ढले मां वापस आई। बदन बुखार से तप रहा था और सारा शरीर भीगा हुआ। जैसे तैसे कर सब आधे सुखे आधे गीले पर सो लिए।

सुबह बच्चे तो उठे पर मां सोती ही रही। बहुत देर उठाने के बाद भी जब मां नहीं उठी। तो बच्चे जाकर अंकल जी से बोले—अंकल जी मां कुछ बोल नहीं रही है। आप मीठी वाली दवाई दे दो खाकर उठ जायेगी। परचून वाले अंकल जी समझ गये। मामला कुछ गड़बड़ है। घर जाकर देखने पर पता चला मां तो सदा के लिए इस दुनिया से जा चुकी हैं। सभी पड़ोस के एकत्रित हुए अंतिम संस्कार के लिए ले जाया गया। अनाथ आश्रम वाले आकर दोनों बच्चियों को साथ ले गए। वहां पर सभी बच्चों ने सवाल किया? उत्तर में वे इतना ही बताती। मां ने न मीठी गोली नहीं खाई इसलिये भगवान के घर चली गई। खा लेती तो इस दूनिया से नहीं जाती।

दूकान वाले अंकल जी की मीठी दवाई और कुछ नहीं एक *गटागट की मीठी गोली * होती थीं। ???????

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी – ☆ लाठी ☆ – डॉ उमेश चंद्र शुक्ल

डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल  

 

(डॉ उमेश चंद्र शुक्ल जी की  यह लघुकथा  वैसे तो पितृ दिवस पर ही प्रकाशित होनी थी किन्तु, मुझे लगा कि इस कथा का विशेष दिन तो कोई भी हो सकता है। जीवन के कटु सत्य को प्रस्तुत करने के लिए डॉ उमेश जी की लेखनी को नमन।) 

 

☆ लाठी ☆ 
(एक अविस्मरणीय लघुकथा)
मैं पढ़-लिखकर नौकरी करने लगा । माँ-पिताजी ने अपना लंबा अमावस्यायी उपवास तोड़ा । उनके चेहरे पर झुर्रियों की इबारत एकाएक धूमिल पड़ गई ।
मेरी शादी कर दी गई । उन्हें प्यारी-सी बहू मिल गई । मुझे पत्नी मिल गयी । साल भर के बाद ही वे दादा-दादी बन गये । उन्हें बचपन मिल गया, लेकिन तभी दूर शहर में मेरा स्थानांतरण हो गया । मैं कछुआ हो गया।
कभी-कदा पत्रों की जुबान सुनता था कि धुंध पड़ी इबारत पर मौसम, आयु प्रभाव डाल रही है और लिखावट गहराती जा रही है । अब उन्हें राह चलते गड्ढे नज़र आने लगे हैं । उन्हें अब जीने का चाव भी नहीं रहा, यह बात नहीं थी, पर अक्सर वे कहते – ” बहुत जी लिए ।”
मेरे अपने परिवार के प्रति ज़िम्मेदारी बढ़ती गई । फिर भी मैंने उन्हें एक दिन पत्र लिखा- “बच्चों की फ़ीस, ड्रेस, टैक्सी, बस घर का किराया, महँगी किताबें-कापी के बाद रोज़ के ख़र्चे ही वेतन खा जाते हैं, कुछ बचता ही नहीं । अब बताइये, आपको क्या दूँ ?”
माँ-पिताजी ने जवाब में आशीर्वाद लिखा । फिर लिखा – बुढ़ापे का सहारा एक लाठी चाहिए । ख़रीद सकोगे ? दे सकोगे ?”
© डॉ.उमेश चन्द्र शुक्ल
अध्यक्ष हिन्दी-विभाग परेल, मुंबई-12

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