हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ उम्मीद ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

☆ उम्मीद ☆

(प्रस्तुत है  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  की एक विचारोत्तेजक लघुकथा। कहते हैं कि उम्मीद पर दुनिया टिकी है। किन्तु, डॉ कुन्दन सिंह जी नें यह सिद्ध कर दिया है कि उम्मीद पर दुनिया ही नहीं इंसानियत भी टिकी है। लघुकथा की अन्तिम पंक्ति के लिए तो मैं निःशब्द हूँ।  मैं आभारी हूँ डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का जिन्होने अपनी कालजयी लघुकथा उम्मीद को e-abhivyakti के माध्यम से आप तक पहुंचाने का सौभाग्य प्रदान किया।)

महीनों से शहर में हिंसा का नंगा नाच हो रहा था। रोज़ सबेरे सड़क के किनारे दो तीन लाशें पड़ी दिखायी देतीं। पता नहीं यह हत्या वहीं होती थी या लाश दूर से लाकर सड़क के किनारे छोड़ दी जाती थी। लोगों के मन में हर वक्त डर समाया रहता। दूकानें खुलतीं, जन-जीवन भी चलता, लेकिन किसी भी अफवाह पर दूकानें बन्द हो जातीं और लोग घरों में बन्द हो जाते। सब तरफ जले मकानों और मलबे का साम्राज्य था। लोग आत्मसीमित हो गये थे। ज़िन्दगी का हिसाब-किताब एक दिन के लिए ही होता—पता नहीं कल का सबेरा देखने को मिले या नहीं।

लोग धीरे-धीरे तटस्थ और उदासीन हो रहे थे।पहले सड़क के किनारे घायल आदमी या लाश को देखकर भीड़ लग जाती थी। लोग आँखें फैलाकर, गर्दन बढ़ाकर उत्सुकता से देखते। जो ज़्यादा संवेदनशील थे वे उसे देखकर बार-बार सिहरते। बाद में उसके बारे में दूसरों को बताते। वह दुर्घटना उनके लिए दिन भर चर्चा का विषय बनी रहती।

लेकिन हत्याओं की आवृत्ति इतनी बढ़ी कि हिंसा और हत्या के प्रति लोगों की दिलचस्पी कुन्द होने लगी। भीड़ों का आकार क्रमशः कम होने लगा। फिर धीरे-धीरे हाल यह हुआ कि लाशें सड़क के किनारे पड़ी रहतीं और लोग तटस्थ भाव से उनकी बगल से गुज़रते रहते।

स्थिति यह हो गयी कि सामने लाश पड़ी रहती और लोग दूकानों पर चाय पीते रहते या सौदा-सुलुफ लेते रहते। लेकिन इस सहजता के बावजूद सबके चेहरे पर गंभीरता रहती थी। संबंधों में ठंडापन आ गया था। गर्मी और उत्साह ख़त्म हो गये थे। लगता था जैसे सब इंसानियत के मर जाने का मातम कर रहे हों।

फिर एक दिन एक जगह भीड़ दिखायी दी। वहाँ से गुज़रने वाले उत्सुकतावश भीड़ में शामिल होते जा रहे थे, लेकिन भीड़ इतनी घनी थी कि पीछे वालों को आगे का कुछ ठीक-ठीक दिखायी नहीं दे रहा था।

एक आदमी भीड़ से अलग होकर लौटा तो पीछे से देखने का उपक्रम कर रहे एक दूसरे आदमी ने पूछा, ‘क्या हो रहा है?’

लौट रहे आदमी के चेहरे पर पुलक और आँखों में चमक थी। मुस्कराकर बोला, ‘बच्चे गेंद खेल रहे हैं।’

© कुन्दन सिंह परिहार
जबलपुर (म. प्र.)

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ वृद्धाश्रम ☆ – सुश्री ऋतु गुप्ता

सुश्री ऋतु गुप्ता

☆ वृद्धाश्रम ☆

(प्रस्तुत है सुश्री ऋतु गुप्ता जी की जीवन में मानवीय अपेक्षाओं और बच्चों के प्रति कर्तव्य तथा बच्चों से अपेक्षाओं के मध्य हमारी के कटु सत्य पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा।)

मुझे गठिया की दिक्कत हो गई। मैं अपने घर से 10-12 किलोमीटर की दूरी पर एक केरल की आयुर्वेदिक दवाओं के लिए प्रसिद्ध आयुर्वेदिक अस्पताल से इलाज कराने लगी। सर्दियों का वक्त था। मैं वहाँ जब भी जाती, देखती कि बुजुर्गों की एक टोली अस्पताल के प्रांगण में धूप सेंकती मिलती। सब एक-दूसरे के साथ परिवार के लोगों की तरह घुल मिल कर बातें करते दिखते। शुरुआत में लगता की इनका भी इलाज चल रहा होगा। पर जब देखती की वो लोग सामने बने कमरों से निकल कर आ रहे हैं। उनके वहाँ बैठने पर एक-दो अटेंडेंट साथ रहते हैं। फिर वहाँ धार्मिक संगीत चला दिया जाता। मुझे ऑब्जर्वर के बाद मामला कुछ अलग लगा। मुझ से रहा न गया मैनें अस्पताल के एक कर्मचारी से पूछ ही लिया कि यह लोग कौन हैं? उसने जो बताया उसके बाद मेरी वहाँ जाने की हिम्मत जवाब देने लगी।

उसने बताया “मैम, अस्पताल के उस सामने वाले हिस्से में डॉक्टर साहब के भाई ने वृद्धाश्रम खोला हुआ है। वे लोग जो आप देख रही हैं न बेहद पैसे वाले घरों से हैं । इनके बच्चे इनको यहाँ रखने की मोटी रकम देकर जाते हैं । पैसा तो जरूर है पर दिल नहीं है कैसे अपने बड़ों को यहाँ पटक गये । आजकल बुजुर्गों से भीड़ हो जाती है घर में न ही उनके पास इन लोगों के लिए वक्त।” वह तो अपनी बात कह गया घृणा उसके चेहरे पर भी साफ झलक रही थी पर दर्द की मानो आदत हो गई थी। मेरी आँखें डबडबा आई सोचने पर विवश हो गई कि क्या माँ-बाप इसी दिन के लिए बच्चों को बड़ा करते हैं? क्या वे कभी वृद्ध नहीं होगें? जिन बच्चों को उंगली पकड़ कर चलना सिखाते हैं,तब थोड़ा सा हड़बड़ाते ही घबरा जाते हैं। अपनी सारी जमा पूंजी अपने लिए कंजूसी कर-कर बच्चों का भविष्य सुरक्षित करने के लिए खर्च कर देते हैं वे ही बच्चे वक्त पड़ने पर उनकी सेवा की जगह उनको वृद्धाश्रम पहुंचा आते हैं । बच्चों की तरह मासूमियत लिए उन बुजुर्गों की इस दयनीय दशा को देखना मेरे वश में न था। मेरा वहाँ और खड़ा होना मुश्किल हो गया । मैं भारी कदमों से गाड़ी में जा बैठी।

© ऋतु गुप्ता

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ अछूत ☆ – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

☆ अछूत ☆

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा प्रस्तुत यह लघुकथा  वर्तमान सामाजिक परिवेश के ताने बाने पर आधारित है। डॉ प्रदीप जी की शब्द चयन एवं सांकेतिक शैली  मौलिक है। )

इस जिले में स्थानांतरित होकर आये देवांश को लगभग एक वर्ष हो गया था । परिवार पुराने शहर में ही था । देवांश छुट्टियों में ही अपने घर आता जाता था एवं परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति करता था । केवल वेतन के सहारे उसका दो जगह का खर्च ब- मुश्किल चल रहा था । अनिवार्य आवश्यकता की पूर्ति हेतु उधारी के कुचक्र में वह उलझता ही जा रहा था ।

विगत कुछ माहों से वह अनुभव कर रहा था कि यहां पर भ्रष्टाचार की नदी का बहाव कुछ ज्यादा ही तेज है । इस नदी में यहां कार्यरत कुछ पण्डों का एकाधिकार था । ये पण्डे रोज ही भ्रष्टाचार की नदी में डुबकी लगाकर पूण्य लाभ कमा रहे थे, इसका प्रसाद भी उन्हीं के भक्तों में वितरित होता था ।

देवांश की ईमानदारी की बदनामी उसके यहां आने के बाद तेजी से फैल चुकी थी । अतः वह यहां पर अछूत का जीवन व्यतीत कर रहा था । वह रोज दूर से ही नदी मैं तैरते, अठखेलियाँ करते इन लोगों को देखता रहता था । निरन्तर बढ़ते आर्थिक बोझ को कुछ कम करने के लिये उसका मन भी भ्रष्टाचार की नदी में डुबकी लगाने को प्रेरित करने लगा, लेकिन उसके आदर्श आड़े आ जाते, फिर उसे तैरना भी तो नहीं आता था क्योंकि वह इस कार्य में अनाड़ी जो था ।

आखिर एक दिन उसने सोचा कि जब सब ही भ्रष्टाचार की नदी में डुबकी लगाकर अपना जीवन सुखमय बना रहे हैं तो वह भी क्यों न किनारे पर बैठ कर लोटा -दो– लोटा लेकर, अपनी आर्थिक कठिनाइयों को कुछ कम कर ले । इसी सोच के तहत देवांश ने हिम्मत बटोरी एवं किनारे पर जाकर जैसे ही लोटा भरना चाहा, वहां पर तैर रहे पण्डों ने चिल्लाना शुरू कर दिया –

“अरे—रे — इस अछूत ने पवित्र नदी को भ्रष्ट कर दिया, पकड़ो इसे । इस घिनौने कृत्य के लिये इसे सजा अवश्य मिलनी चाहिये।”

सबके एकजुट स्वर में उसकी आवाज दबी रह गई ।

सभी भ्रष्टाचार विशेषज्ञ पण्डों ने मिलकर उसके विरूद्ध गवाही दी और उसे भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम के अंतर्गत दोषी मानते हुए निलंबित कर दिया गया ।

वह निलंबन पत्र हाथ में लिये खड़ा था। उधर वे पण्डे, नदी में पुनः उसी आनंद के साथ डुबकी लगा रहे थे, तैर रहे थे, अठखेलियाँ कर रहे थे ।

© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,म .प्र . 482002

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – लघुकथा – ☆ एक छोटी भूल ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

☆ एक छोटी भूल ☆

(प्रस्तुत है  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  की एक विचारोत्तेजक लघुकथा। )

 

हम एक शिविर में थे। शिविर बस्ती से दूर प्रकृति के अंचल में, वन विभाग की एक इमारत में लगा था। इमारत के अगल-बगल और सामने दूर  तक ऊँचे पेड़ थे। खूब छाया रहती थी।रात भर पेड़ हवा से सरसराते रहते।

उस सबेरे हम चार लोग इमारत के पास टीले पर बैठे थे। दूर दूर तक पेड़ ही पेड़ थे और हरयाली। उनके बीच से बल खाती काली सड़क। कहीं कहीं इक्के दुक्के कच्चे घर। कुछ दूर पुलियाँ बन रही थीं। वहाँ कुछ हरकत दिखायी पड़ रही थी। शायद कोई इमारत बनाने की तैयारी थी।

पटेल की सिगरेट ख़त्म हो गयी थी। उसे तलब लगी थी। करीब एक फर्लांग दूर सड़क के किनारे दूकान थी,  लेकिन पटेल अलसा रहा था।

तभी पास से एक पंद्रह सोलह साल का लड़का निकला। पुरानी, गंदी, आधी बाँह की कमीज़ और पट्टेदार अंडरवियर।

पटेल ने उसे बुलाया। पचास का नोट दिया, कहा, ‘ज़रा एक सिगरेट का पैकेट ले आओ।’

लड़का बोला, ‘साहब, मुझे काम पर पहुँचना है।देर हो जाएगी।’

पटेल बोला, ‘अरे, नहीं होगी देर। दौड़ के ले आओ।’

लड़का नोट लेकर चला गया। हम वहीं बैठे गप लड़ाते रहे।

थोड़ी देर में लड़का लौटा।उसने पटेल को पैकेट और बाकी पैसे दिये।पटेल ने पैसे जेब में डाल लिये और पैकेट खोलने लगा।

लड़का एक क्षण खामोश रहा। फिर बोला, ‘साहब, दूकान पर ठेकेदार मिल गया था। हमें वहाँ देखकर नाराज हो गया। बोला अब काम पर आने की जरूरत नहीं है। यहीं आराम करो।’

पटेल ने ओठों में सिगरेट दबाये, माथा सिकोड़कर पूछा, ‘तो?’

लड़का बोला, ‘हमारी आज की मजूरी चली गयी, साहब।’

पटेल अपना असमंजस छिपाने के लिए माचिस जलाकर सिगरेट सुलगाने लगा।

आधे मिनट हम सब खामोश बैठे रहे। फिर पटेल उठ कर खड़ा हो गया, बोला, ‘चलो,नाश्ते का वक्त हो गया।’

हम सब उस लड़के से आँखें चुराते धीरे धीरे इमारत की तरफ बढ़ने लगे।

लड़का वहीं खड़ा हमें देखता रहा। इमारत में घुसने से पहले हमने घूम कर देखा। वह हमारी तरफ देखता वहीं खड़ा था।

 

© कुन्दन सिंह परिहार
जबलपुर (म. प्र.)

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ ठगी ☆ – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

☆ ठगी ☆ 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा प्रस्तुत यह लघुकथा  भारत के लोकतन्त्र के महापर्व  “चुनाव” की पृष्ठभूमि  पर  रचित कटु सत्य को उजागर करती है। )

“काय कलुआ के बापू, इत्ती देर किते लगाये दई । वा नेता लोगन की रैली तो तिनै बजे बिला गई हती ना । दो सौ रुपैया तो मिलइ गए हुइहें?”

रमुआ कुछ देर उदास  बैठा रहा, फिर उसने बीवी से कहा – “का बताएं इहां से तो वो लोग लारी में भरकर लेई गए थे और कही भी हती थी कि रैली खतम होत ही दो सौ रुपइया और खावे को डिब्बा सबई को दे देहें, मगर उन औरों ने हम सबई को ठग लऔ। मंत्री जी की रैली खतम होवे के बाद ठेकेदार ने खुदई सब रुपया धर लओ और हम  सबई को धता बता दओ । हम  ओरें  शहर से गांव तक निगत निगत आ रए हैं । लौटत में बा लारी में भी हम औरों को नई बैठाओ । बहुतै थक गए हैं । आज की मजूरी भी गई और कछु हाथे न लगो,अब तो तुम बस एकइ लोटा भर पानी पिलाए देओ – ओई से पेट भर लेत है ।”

रमुआ की बीवी ऐसे ठगों को बेसाख्ता  गाली बकती हुई अंदर पानी लेने चली गई ।

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,म .प्र . 482002

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ सर्जिकल स्ट्राइक ☆ – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

सर्जिकल स्ट्राइक 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा प्रस्तुत यह लघुकथा एक सत्य घटना पर आधारित है। उनकी इस लघुकथा का शीर्षक अपने आप में एक सार्थक, सामयिक एवं सटीक शीर्षक है।)

महानगर के अस्पताल में गहमा गहमी मची थी।

एक हिन्दू परिवार तथा एक मुस्लिम परिवार में उनके पतियों की किडनी खराब हो जाने के कारण किडनी प्रत्यारोपण की सख्त आवश्यकता थी । दोनों ही परिवारों के रिश्तेदार, परिचित बारी बारी से अपना ब्लड टेस्ट करवा चुके थे, किंतु ब्लड ग्रुप मैच न होने के कारण उनमें निराशा बढ़ती जा रही थी ।

उदासी भरे वातावरण में दोनों की पत्नियां एक दूसरे से आपस में चर्चा कर रही थीं । चर्चा के दौरान उन्हें ज्ञात हुआ कि संयोगवश उनका ब्लड ग्रुप एवं किडनियां एक दूसरे के पतियों से मैच हो रही थीं । उन्होंने आपस में चर्चा की ।

अपने अपने रिश्तेदारों के आरंभिक विरोध के बावजूद अत्यंत साहसिक कदम उठाते हुए एक दूसरे के पतियों को अपनी किडनी दान कर धर्म सम्प्रदाय की कट्टरपंथी सोच पर जबरदस्त सर्जिकल स्ट्राइक कर दोनों परिवार के मध्य रक्त सम्बंध भी स्थापित कर इंसानियत की मिसाल कायम कर दी ।

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,म .प्र . 482002

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ फर्ज़ ☆ – सुश्री ऋतु गुप्ता

सुश्री ऋतु गुप्ता

फर्ज़

(प्रस्तुत है सुश्री ऋतु गुप्ता जी की जीवन में मानवीय अपेक्षाओं और फर्ज़ (कर्तव्य) के मध्य हमारी व्यक्तिगत सोच पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा। )

आज संजय का इंटरव्यू था एक जानी मानी कंपनी में। एमबीए किया था उसने मार्केटिंग में। पूरा आत्मविश्वास से भरा हुआ था, बल्कि उसने तो भविष्य के सपने भी बुनने शुरू कर दिये थे, उस कंपनी को लेकर। इसी कंपनी में उसका बड़ा भाई विशाल भी वाइस प्रेसीडेंट था जो कि अपनी ईमानदारी व वफादारी के लिए मशहूर था।संजय को पूरा विश्वास था कि उसके भाई का इतना ऊँचा ओहदा है कि  उसका तो तुरंत सेलेक्शन हो ही जाएगा।

बड़े रोब के साथ कंपनी में चले जा रहा था।मैनेजर की पोस्ट के लिए इंटरव्यू था 5 लोग आये हुए थे। तीन तो पहले ही रांउड में बाहर हो गए। संजय और एक दूसरा लड़का और बचे थे।संजय को पहले बुलाया गया,वह यह देख बड़ा खुश हुआ कि इस बार इन्टरव्यू लेने वालों में उसका भाई भी था। उसने यहाँ अपने भाई का अलग रूप देखा, उसके भाई ने तो सवालों की झड़ी लगा दी। वह सकपका गया। पर उसके बाहर आने के बाद भी उसको विश्वास था कि चयन तो उसी का होने वाला है। फिर दूसरे बंदे को अंदर बुलाया गया और उसको वहीं चयनित होने की सूचना दे दी गई। संजय निराश व गुस्से से भरा घर लौट आया यह सोच कर कि भाई को खूब खरीखोटी सुनायेगा।

जब शाम को भाई लौटा संजय भाई पर बरस पड़ा। विशाल छोटे भाई के गुस्से का बुरा न मान हँसते हुए उसे समझाने लगा, ” देख संजू मैं भाई होने से पहले एक इंसान व कंपनी का जिम्मेदार कर्मचारी पहले हूँ । इस नाते जो बंदा इस ओहदे के लायक था, मैनें उसे यह पद दे दिया। अगर भाई का फर्ज निभाना ही होगा तो मैं घर पर अब निभाऊंगा। देख मेरे भाई मेरी उंगली पकड़ कर आगे बढ़ना छोड़,अब तू बड़ा हो गया है तेरे ऊपर और जिम्मेदारियां भी आने वाली हैं। तू समझने की कोशिश कर मेरे भाई। मैं तैरा भला नहीं चाहूंगा तो और कौन चाहेगा। “संजय काफी देर तक तो परेशान रहा फिर एहसास होने लगा कि उसका भाई सही ही तो बोल रहा है।अब उसे अपने बलबूते पर ही आगे बढ़ना चाहिए।

© ऋतु गुप्ता

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – * दरार * – डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

दरार

डॉ कुंवर प्रेमिल जी का e-abhivyakti में स्वागत है। 
(विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में लगातार लेखन। अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन)

एक माँ ने अपनी बच्ची को रंग-बिरंगी पेंसिलें लाकर दीं तो मुन्नी फौरन चित्रकारी करने बैठ गई। सर्वप्रथम उसने एक प्यारी सी नदी बनाई। नदी के दोनों किनारों पर हरे-भरे दरख्त, एक हरी-भरी पहाड़ी, पहाड़ी के पीछे से ऊगता सूरज और एक प्यारी सी हट। बच्ची खुशी से नाचने लगी थी। तालियाँ बजाते हुए उसने अपनी मम्मी को आवाज लगाई -‘ममा देखिये मैंने कितनी प्यारी सीनरी बनाई है।’

चौके से ही मम्मी ने प्रशंसा कर बच्ची का मनोबल बढ़ाया। कला जीवंत हो उठी।

थोड़ी देर बाद मुन्नी घबराई हुई सी चिल्लाई – ‘ममा गज़ब हो गया, दादा-दादी के लिए तो इसमें जगह ही नहीं बन पा रही है।’

ममा की आवाज आई- आउट हाउस बनाकर समस्या का निराकरण कर लो। दादा-दादी वहीं रह लेंगे।’

मम्मी की सलाह सुनकर बच्ची एकाएक हतप्रभ होकर रह गई। उसे लगा कि सीनरी एकदम बदरंग हो गई है। चित्रकारी पर काली स्याही फिर गई है। हट के बीचों-बीच एक मोटी सी दरार भी पड़ गई है।

© डॉ कुँवर प्रेमिल
एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – * लंगोटी की खातिर * – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

 

लंगोटी की खातिर 

            आदिवासी जिले में भ्रमण के दौरान बैगाओं की दयनीय स्थिति देख प्रशांत का मन द्रवित हो गया  । क्योंकि आदिवासी समाज के विकास एवं उन्नति हेतु सरकार के द्वारा आजादी के बाद से ही विभिन्न योजनाओं  के अंतर्गत करोड़ों रुपये खर्च किये जा चुके हैं ।

बैगाओं की इस स्थिति हेतु उसने वहां के आदिवासी विकास अधिकारी से पूछ ही लिया — ” आजादी के 65 वर्षों के बाद भी आदिवासियों के तन पर सिर्फ लंगोटी ही क्यों ? ”

अधिकारी ने जवाब दिया — ” यदि हम आदिवासियों को लंगोट के स्थान पर पेंट शर्ट पहना देंगे तो हममें और उनमें क्या अंतर रह जावेगा ? उनकी पहचान नष्ट हो  जावेगी , फिर हम विदेशी पर्यटकों को बैगा आदिवासी कैसे दिखावेंगे और वे उनकी लंगोटी वाली  वीडियो फ़िल्म , फ़ोटो कैसे उतारेंगे ? अतः उनकी पहचान बनाये रखने  उन्हें लंगोटी में ही रहने देने के लिए सरकार द्वारा करोड़ों रुपये खर्च किये जा रहे हैं । इसमें आदिवासियों का विकास हो या न हो , हमारा तो हो रहा है । ” कहते हुये उन्होंने बेशर्मी से ठहाका लगाया ।

© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,म .प्र . 482002

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – * वात्सल्य * – डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता

वात्सल्य

(डॉ . मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की एक लघुकथा   ‘वात्सल्य ’)

 

आठ माह पूर्व उसके बेटे कृष्ण का निधन हो गया था।
उसकी मां निरंतर आंसू बहा रही थी, उस बेटे के लिये जो उससे बात नहीं करता था,उसे गालियां देने व उस पर हाथ उठाने से तनिक गुरेज़ नहीं करता था,जिसने कभी अपने घर में कदम नहीं रखने दिया।
यह सब देख कर सपना हैरान थी।वह स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख पायी और उसने उससे पूछ ही लिया…आप किसका मातम मना रही हैं?  वह बेटा…जिसने पिता के देहांत के पश्चात् अपनी विधवा मां की जायदाद हड़प कर रोने-बिलखने को छोड़ दिया और कभी बीमारी में भी  उसका हाल पूछने नहीं आया।
वह बेटा जिसने अपने बच्चों को कभी उससे बात तक नहीं करने दी और उसकी ज़िन्दगी को बद से बदतर बना डाला।
मां ने उस बेटे को कैसे माफ कर दिया… यह समझना उसके वश की बात नहीं थी।

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

Please share your Post !

Shares
image_print