हिन्दी साहित्य- लघुकथा – मानसिकता/मंहगे दीये – डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

दीपावली पर विशेष 


डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

मानसिकता/मंहगे दीये

दीपावली से दो दिन पहले खरीदारी के लिए वो सबसे पहले पटाखा बाजार पहुंचा। अपने एक परिचित की दुकान से चौगुनी कीमत पर एक हजार के पटाखे खरीदे।

फिर वह शॉपिंग सेंटर पहुंचा, यहां मिठाई की सबसे बड़ी दुकान पर जाकर डिब्बे सहित तौली गई हजार रूपये की मिठाई झोले में डाली।

इसके बाद पूजा प्रसाद के लिए लाई-बताशे, फल-फूल और रंगोली आदि खरीदकर शरीर में आई थकान मिटाने के लिए पास के कॉफी हाउस में चला गया।

कुछ देर बाद कॉफी के चालीस रूपये के साथ अलग से बैरे की टीप के दस रूपये प्लेट में रखते हुए बाहर आया और मिट्टी के दीयों की दुकान की ओर बढ़ गया।

“क्या भाव से दे रहे हो यह दीये?”

“आईये बाबूजी, ले लीजिये, दस रूपये के छह दे रहे हैं।”

“अरे!  इतने महंगे दीये, जरा ढंग से लगाओ, मिट्टी के दीयों की इतनी कीमत?”

“बाबूजी, बिल्कुल वाजिब दाम में दे रहे हैं। देखो तो, शहर के विस्तार के साथ इनको बनाने की मिट्टी भी आसपास मुश्किल से मिल पाती है। फिर इन्हें बनाने सुखाने में कितनी झंझट है। वैसे भी मोमबत्तियों और बिजली की लड़ियों के चलते आप जैसे अब कम ही लोग दीये खरीदते हैं।”

“अच्छा ऐसा करो, दस रूपये के आठ लगा लो।”

दुकानदार कुछ जवाब दे पाता इससे पहले ही वह पास की दुकान पर चला गया। वहाँ भी बात नहीं बनी। आखिर तीन चार जगह घूमने के बाद एक दुकान पर मन मुताबिक भाव तय कर वह अपने हाथ से छांट-छांट कर दीये रखने लगा।

“ये दीये छोटे बड़े क्यों हैं? एक साइज में होना चाहिए सारे दीये।”

“बाबूजी, ये दीये हम हाथों से बनाते हैं, इनके कोई सांचे नहीं होते इसलिए….”

घर जाकर पत्नी के हाथ में सामान का झोला थमाते हुए वह कह रहा था –

“ये महंगाई पता नहीं कहा जा कर दम लेगी। अब देखों ना, मिट्टी के दीयों के भाव भी आसमान छूने लगे हैं।”

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’


 

दीपावली पर विशेष 

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा – खुशियों की फुलझड़ी – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

जय प्रकाश पाण्डेय

खुशियों की फुलझड़ी

जीवन है चलने का नाम ….. जो लोंग परेशानी भरी ज़िंदगी जीते है उनकी संवेदनाएं  मरती नहीं है, उनकी संवेदना विपरीत परिस्थतियों से लड़ने की प्रेरणा देती है और वे अन्य के लिए भी प्रेरक बन जाते है, उनकी सहज सरल बातें भी ख़ुशी का पैगाम बनकर उस माहौल में संवेदना, सेवा और सामाजिकता पैदा कर देती है, नारायणगंज शाखा में दूर – अंचल से खाता खोलने आये “रंगैया” ने भी कुछ ऐसी छाप छोडी ……..

रंगैया जब खाता खोलने आया तो बैंकवाले ने पूछा – “रंगैया, खाता क्यों खुलवा रहे हो ?”

रंगैया ने बताया – “साब दस कोस दूर बियाबान जंगल के बीच हमरो गाँव है घास -फूस की टपरिया और घरमे दो-दो बछिया ….घर की परछी में एक रात परिवार के साथ सो रहे थे तो कालो नाग आके घरवाली को डस लियो, रात भर तड़फ -तडफ कर बेचारी रुकमनी मर गई …… मरते दम तक भुखी प्यासी दोनों बेटियों की चिंता करती रही …….. सांप के काटने से घरवाली मरी तो सरकार ने ये पचास हजार रूपये का चेक दिया है , तह्सीलवाला बाबु बोलो कि बैंक में खाता खोलकर चेक जमा कर देना रूपये मिल जायेगे ….. सो खाता की जरूरत आन पडी साब ! …. बैंक वाले ने पूछा – सांप ने काटा तो शहर ले जाकर इलाज क्यों नहीं कराया ?”

रंगैया बोला – “कहाँ साब! गरीबी में आटा गीला …. शहर के डॉक्टर तो गरीब की गरीबी से भी सौदा कर लेते है,वो तो भला हो सांप का … कि उसने हमारी गरीबी की परवाह की और रुकमनी पर दया करके चुपके से काट दियो, तभी तो जे पचास हजार मिले है खाता न खुलेगा …… तो जे भी गए ………… अब जे पचास हजार मिले है तो कम से कम हमारी गरीबी तो दूर हो जायेगी, दोनों बेटियों की शादी हो जैहै और घर को छप्पर भी सुधर जाहे, जे पचास हजार में से तहसील के बाबु को भी पांच हजार देने है बेचारे ने इसी शर्त पर जे चेक दियो है।”

तभी किसी ने कहा – “यदि नहीं दो तो ?……….. ”

रंगैया तुरंत बोला – “नहीं साब …… हम गरीब लोग हैं, प्राण जाय पर वचन न जाही,  …साब, यदि नहीं दूँगा तो मुझे पाप लगेगा, उस से वायदा किया हूँ झूठा साबित हो जाऊँगा ….अपने आप की नजर में गिर जाऊँगा …..गरीब तो हूँ और गरीब हो जाऊँगा …….और फिर दूसरी बात जे भी है कि जब किसी गरीब को सांप कटेगा, तो ये तहसील बाबु उसके घर वाले को फिर चेक नहीं देगा ……….”

रंगैया की बातों ने पूरे बैंक हाल में एक नयी चेतना का माहौल बना दिया ………… सब तरफ से आवाजें हुई …. “पहले रंगैया का काम करो।”

भीड़ को चीरते हुए मैंने जाकर रंगैया के हाथों सौ रूपये वाले नए पांच के पैकेट रख दिए ……. उसी पल रंगैया के चेहरे पर ख़ुशी के जो भाव प्रगट हुए वो जुबां से बताये नहीं जा सकते …… बस इतना ही बता सकते हैं कि पूरे हाल में खुशियों की फुलझड़ियां जरूर जल उठीं …… हाल में खड़े लोग कह उठे …. कि – “खुशियाँ हमारे आस -पास ही छुपी होती है यदि हम उनकी परवाह  करें तो वे कहीं भी मिल सकती है ………..”

© जय प्रकाश पाण्डेय

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा – छोटू का दर्द – डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

छोटू का दर्द

अधेड़ आयु का एक शराबी होटल में घुसते ही “ए छोटू…एक प्लेट भजिए और कड़क काली चाय देने का इधर, फटाफट.. जल्दी से”

“जी साब, अभी लाया।” फुर्ती से छोटु ने भजिए की प्लेट टेबल पर रखते हुए कहा- “चाय बन रही है साब, फिर लाता हूँ।”

“क्यों बे! ये टेबल कौन साफ़ करेगा  तेरा बाप?”

“साब, आप अपुन के बाप का नाम लेता है, मेरे को कोई मलाल नहीं इसका। अगर बाप ही ये काम कर लेता तो मैं  अभी किसी सरकारी स्कूल में पढ़ रहा होता।”

“अच्छा साब, आपका बच्चा तो पढता होगा ना?” टेबल पर पोंछा मारते हुए छोटू ने पूछा?

शराबी ने घूरते हुए कहा- “हाँ, पर तू ये सब क्यों पूछ रहा है?”

“क्योंकि साब, स्कूल जाना तो मैंने भी शुरू किया था, किन्तु बीच में ही बाप की दारू की लत के कारण पढ़ना  छोड़ना पड़ा।”

“अच्छा साब,- आपका बच्चा तो आखरी तक पढाई करता रहेगा ना?”

“अबे छुटके, सवाल पे सवाल आखिर तेरा मतलब क्या है?”

“माफ़ करना साब,  पर आपको ऐसी हालत में देख कर मुझे लगा कि, कहीं मेरी तरह आपके बच्चे को भी स्कूल छोड़कर किसी होटल – वोटल में…….”

छोटू अभी अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि, शराबी का एक झन्नाटेदार हाथ उसके गाल पर पड़ा।

“अबे साले  तूने तो आज मेरा पूरा नशा ही उतार दिया रे..”

यह कहते हुए फिर अचानक द्रवित हो छोटू के कंधे पर एक पल के लिए हाथ रखा और सिर झटकते हुए होटल से बाहर निकल कर अपने घर की राह पकड़ ली।

छोटू चांटा खाने के बाद भी खुश था।

इसलिए कि, शायद अब उस आदमी का बच्चा अपनी पढाई पूरी कर सकेगा।

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा – डस्टबिन – डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डस्टबिन

विवाह सम्बन्ध के लिए आये परिवार में अलग से परस्पर बातचीत में नवयुवती शीला ने युवक मनोज से पहला सवाल किया”

आपके घर में भी डस्टबिन तो होंगे ही, बताएंगे आप कि, उनमें सूखे कितने हैं और गीले कितने?

समझा नहीं मैं शीला जी, डस्टबिन से आपका क्या तात्पर्य है!

तात्पर्य यह है मनोज जी कि–

आपके परिवार में कितने बुजुर्ग हैं? इनमें सूखे से आशय-जो कोई काम-धाम करने की हालत में नहीं है पर अपनी सारसंभाल खुद करने में सक्षम है और गीले डस्टबिन से मेरा मतलब अशक्त स्थिति में बिस्तर पर पड़े परावलंबी व्यक्ति से है।

तुम्हारा मतलब,  बुजुर्ग डस्टबिन होते हैं?

हाँ, सही समझे, यही तो मैं कह रही हूँ।

ओहो! कितनी एडवांस हैं आप शीला जी, आपके इन सुंदर नवाधुनिक क़विचारों ने तो मेरे ज्ञानचक्षु ही खोल दिये।

अब मैं आपके ही शब्दों में बताता हूँ, यह कि–

हाँ, है मेरे घर में, सूखे और गीले दोनों तरह के डस्टबिन जो हमारी गलतियों, भूलों, कमियों व अनचाहे दूषित तत्वों को अपने में समेटते-सोखते हुए अपने आशीष भावों से सदैव हमारे स्वास्थ्य, सुख एवं समृद्धि की कामना करते रहते हैं।

ये वही डस्टबिन हैं जिनकी वजह से मेरा घर-परिवार व आसपास का संसार शुरू से स्वच्छ और सुंदर बना हुआ है।

शीला जी, मेरी राय मानो तो,- आप इन गीले सूखे पचड़ों में पड़ने की बजाय कोई नितांत डस्टबिन रहित घर-वर अपने लिए ढूंढ लें, शायद सभी मनचाहे सुख प्राप्त हो जाएं।

हाँ एक समस्या हो सकती है,वो है – ” घर के कूड़े-कचरे की”

पर चिंता न करें, समय के साथ आखिर एक दिन आपको भी तो डस्टबिन में तब्दील होना ही है, तभी इस समस्या के निदान के साथ साफ-सफाई के बारे में भी सोच लेना।

अच्छा, चलता हूँ शीला जी, बाय…..

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा – माँ की नज़र – श्री सदानंद आंबेकर

श्री सदानंद आंबेकर 

माँ की नज़र
अपनी बेटी अंजलि के आठवी की परीक्षा में प्रावीण्य सूची में आने की खुशी में सुधीर जी ने अपने घर पर आस-पास के लोगों की एक छोटी सी घरेलू पार्टी का आयोजन आज शाम को किया था।
रविवार का दिन था सो सुबह से ही घर के तीनों सदस्य व सुधीर की माताजी भी व्यवस्थाओं में जुटे थे।
इस गहमागहमी में बेटी को आराम से बैठ कर टी वी देखते पाकर वे गुस्सा होकर बोले- ”तुम्हारे ही लिये हमने ये कार्यक्रम रखा है और तुम काम में माँ को थोड़ा हाथ बंटाने की जगह आराम से बैठकर टी वी देख रही हो ? जाओ और मम्मी को रसोई में मदद करो।”
शोर सुनकर अंजलि की माँ बाहर आई और पति को कहा- “क्यों उसके पीछे पड़े रहते हो, अभी वह छोटी है फिर बड़ी होकर तो ताउम्र गृहस्थी में खटना ही है” – कहकर स्नेह भरी नजर बेटी पर ड़ालकर रसोई में चली गई। बेटी ने भी सुना और वैसे ही बैठी रही।
कुछ देर बाद नहाने के पूर्व सुधीर जी को याद आया कि नहाने का साबुन खत्म हो गया है। उन्होंने फिर बेटी को आवाज दी और कहा कि चेलाराम की दुकान से नहाने के साबुन की दो टिकिया जल्दी से ला दो और पैसे माँ से ले लेना।
यह सुनते ही उनकी  पत्नी फिर रसोई से बाहर आई और कहा-”सुनो, बिटिया अब बड़ी हो गई है, उसे यूं अकेला-दुकेला चाहे जहाँ बाहर मत भेजा करो, कुछ आया समझ में……..? आप खुद जाओ”….
अंजलि ने अपनी माँ की तरफ उलझन भरी निगाहों से देखा मानो उसकी दोनों बातों का मतलब समझना चाह रही हो फिर पहले की तरह चुपचाप टी वी देखने लगी।

©  सदानंद आंबेकर

(श्री सदानंद आंबेकरजी हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में अभिरुचि।  गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर प्रवास।)

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा – जवाब – श्री सदानंद आंबेकर

श्री सदानंद आंबेकर 

 

 

 

 

 

लघुकथा- जवाब

 

“जिसने जीवन बांटा है वो सुख के पल भी बांटेगा,

जीवन में जो दुःख आयेंगे, वो दिन भी वह ही काटेगा…..”

 

तेजी से भागती हरिद्वार अहमदाबाद एक्सप्रेस में कच्चे कंठ से यह गाना सुनाई दिया, धीरे-धीरे गाने के बोल साफ होने लगे। थोड़ी देर बाद एक छोटी-सी लड़की पत्थर की दो चिप्स उंगलियों में फंसाकर ताल देकर गाना गाते हुये आगे निकल गई। डिब्बे के दूसरे छोर पर पहुँच  कर उसने हाथ फैलाकर पैसे मांगना शुरू  किया। मेरे पास जब वो आई तो उसे ध्यान से देखा, आठ-नौ साल की लड़की, मैली से जीन्स टी शर्ट  पहने सामने खड़ी थी। चेहरे पर भिखारियों का भाव न होकर छिपा हुआ अभिजात्य दिख रहा था। उसकी मासूमियत देखकर उसे भिखारी मानने का मन नहीं करता था। उसके हाथ पर पैसे रखते हुये सहज भाव से मैंने पूछा – “स्कूल में पढ़ती हो?”

उसने झिझकते हुये कहा- “पढ़ती थी, चौथी कक्षा में।”

मैंने फिर प्रश्न किया- “फिर अब ये काम क्यों करती हो?”

जवाब में उसने सूनेपन से कहा- “पिताजी का देहांत हो गया है।”

मेरी उत्सुकता ने फिर प्रश्न  दागा- “फिर अब घर कौन चलाता है?”   ……

उसने विरक्त भाव से मुझे देखा, पैसे जेब में रखे, गाना शुरू किया और आगे चल दी –

 

“जिसने जीवन बांटा है वो सुख के पल भी बांटेगा,

जीवन में जो दुःख आयेंगे, वो दिन भी वह ही काटेगा…..”

 

मुझे जैसे मेरे प्रश्न  का जवाब मिल गया था।

©  सदानंद आंबेकर

(श्री सदानंद आंबेकरजी हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में अभिरुचि।  गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर प्रवास।)

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