डॉ . प्रदीप शशांक
हिन्दी साहित्य- लघुकथा – कपूत / कुमाता ? – डॉ . प्रदीप शशांक
डॉ . प्रदीप शशांक
हिन्दी साहित्य- लघुकथा – भविष्य से खिलवाड़ – सुश्री ऋतु गुप्ता
सुश्री ऋतु गुप्ता
भविष्य से खिलवाड़
(प्रस्तुत है सुश्री ऋतु गुप्ता जी की एक विचारणीय लघुकथा। आपके लेख ,कहानी व कविताएँ विभिन्न समाचार पत्रों व पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं।दैनिक ट्रिब्यून में जनसंसद में आपको लेख लिखने के लिए कई बार प्रथम पुरस्कार मिला है। आपका एक काव्य संग्रह ‘आईना’ प्रकाशित हो चुका है। )
टॉल टैक्स पर जैसे ही ट्रेफिक रूका अनगिनत बच्चे कोई टिश्यू पेपरस,कोई गाड़ी विंडोज के लिए ब्लेक जालियां, कुछ गुलाब के फूल बेचने वाले आ खड़े हुए ,उनमें कुछ बच्चे ऐसे ही भीख मांग रहे थे ;लेकिन इक बच्चा ऐसा भी था जो मिट्टी के तवे बेच रहा था। चुपचाप हर गाड़ी के पास जाकर तवे लेकर चुपचाप खड़े हो जाता। कुछ लोग उन सबको भगा रहे थे।कछ भाव ही नहीं दे रहे थे।
ज्यादातर बच्चे जिद करके समान बेचने की कोशिश कर रहे थे। भीख मांगने वाले बच्चों ने तो परेशान करके रख दिया था।लेकिन तवा बेचने वाला बच्चा चुपचाप हर गाड़ी के पास एक क्षण तवा खरीदने को कहता ,नहीं अपेक्षित जवाब मिलने पर आगे बढ जाता। तभी गाडिय़ों की कतार में खड़ी गाड़ी में से किसी नौजवान ने शीशा उतार इशारे से उसे अपने पास बुलाया। और बगैर तवा खरीदे उसे दस का नोट थमा दिया।
उसने कई बच्चों को ऐसे ही दस के नोट पकड़ा दिये। आज के जमाने में उसकी दयालुता देख एकबारगी खुशी हुई, लेकिन तुरंत उन मासूम बच्चों के भविष्य की चिंता सताने लगी। लगने लगा कि वास्तव में इनकी इतनी मजबूरी है या फिर इनके माँ-बाप को आदत हो गई है। कटोरा लेकर ऐसे खड़ा कर देते हैं ,इनको काम करने की आदत कैसे पड़ेगी। हममे से कई दयालु लोग उनको भीख देकर उनका भविष्य और अधिक असुरक्षित कर रहें है। अगर हम सब मन को थोड़ा कठोर कर उन्हें भीख की बजाए उन्हें पढ़ाने की ठान ले,अच्छे विचारों से उनका मनोबल उंचा करे ताकि वे अपने पैरों पर खड़ा होना सीखें।हम पैसों से नहीं वरन् सही मार्गदर्शक बन उनकी मदद करें।जो विकलांग हैं उनकी उनके हिसाब से अपेक्षित मदद करे।
हिन्दी साहित्य- लघुकथा – कार की वधू-परीक्षा – श्री सदानंद आंबेकर
श्री सदानंद आंबेकर
हिन्दी साहित्य- लघुकथा – अनूठी बोहनी – डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
अनूठी बोहनी —–
साँझ होने को आई किन्तु आज एक पैसे की बोहनी तक नहीं हुई।
बांस एवं उसकी खपच्चियों से बने फर्मे के टंग्गन में गुब्बारे, बांसुरियाँ, और फिरकी, चश्मे आदि करीने से टाँग कर रामदीन रोज सबेरे घर से निकल पड़ता है।
गली, बाजार, चौराहे व घरों के सामने कभी बाँसुरी बजाते, कभी फिरकी घुमाते और कभी फुग्गों को हथेली से रगड़ कर आवाज निकालते ग्राहकों/ बच्चों का ध्यान अपनी ऒर आकर्षित करता है रामदीन ।
बच्चों के साथ छुट्टे पैसों की समस्या के हल के लिए वह अपनी बाईं जेब में घर से निकलते समय ही कुछ चिल्लर रख लेता है। दाहिनी जेब आज की बिक्री के पैसों के लिए होती
खिन्न मन से रामदीन अँधेरा होने से पहले घर लौटते हुए रास्ते में एक पुलिया पर कुछ देर थकान मिटाने के लिए बैठकर बीड़ी पीने लगा। उसी समय सिर पर एक तसले में कुछ जलाऊ उपले और लकड़ी के टुकड़े रखे मजदुर सी दिखने वाली एक महिला एक हाथ से ऊँगली पकड़े एक बच्चे को लेकर उसी पुलिया पर सुस्ताने लगी।
गुब्बारों पर नज़र पड़ते ही वह बच्चा अपनी माँ से उन्हें दिलाने की जिद करने लगा। दो चार बार समझाने के बाद भी बालक मचलने लगा, तो उसके गाल पर एक चपत लगाते हुए उसे डांटने लगी कि,
दिन भर मजूरी करने के बाद जरा सी गलती पर ठेकेदार ने आज पूरे दिन के पैसे हजम कर लिए और तुझे फुग्गों की पड़ी है।। बच्चा रोने लगता है।
पुलिया के एक कोने पर बैठे रामदीन का इन माँ-बेटे पर ध्यान जाना स्वाभाविक ही था।
वह उठा और रोते हुए बच्चे के पास गया । एक गुब्बारा, एक बांसुरी और एक फिरकी उसके हाथों में दे कर सर पर हाथ रख उसे चुप कराया। फिर अपनी बाईं जेब में हाथ डालकर उसमें से इन तीनो की कीमत के पैसे निकाल कर अपनी दाहिनी जेब में रख लिए।
अचानक हुई इस अनूठी और सुखद बोहनी से प्रसन्न मन मुस्कुराते हुए रामदीन घर की ओर चल दिया।
© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
हिन्दी साहित्य- लघुकथा – संवादहीन भ्रम….. – डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
संवादहीन भ्रम…..
हृदय की बायपास सर्जरी करवा कर रामदीन कुछ दिन भोपाल में विश्राम के बाद बहु-बेटे के साथ आ गया।
ऑपरेशन के बाद सारे परिचित , शुभचिंतक वहां घर पर मिलने आते रहे। इन सब के बीच कालोनी में ही रहने वाले अपने अंतरंग मित्र शेखर की अनुपस्थिति रह-रह कर कचोटती रही।
अपने मित्रों की सूची में जब भी शेखर की बात आती, रामदीन विषाद व रोष से भर जाता। एक वर्ष बीतने को आया किन्तु इस अवधि में न तो शेखर की ओर से और न, ही रामदीन की ओर से परस्पर एक दूसरे से सम्पर्क कर वस्तुस्थिति जानने का प्रयास हुआ।
इतने अनन्य मित्र की इस बेरुखी से स्वाभाविक ही शेखर के प्रति रामदीन के मन में खीझ भरी इर्ष्या ने घर कर लिया था। समय बेसमय जब भी मित्र की याद आते ही मुंह कसैला सा होने लगता था।
वर्षोपरान्त रामदीन का पुनः मेडिकल चेकअप के लिए भोपाल जाना हुआ। वहां अस्पताल में अनायास ही शेखर से सामना हो गया, देखकर हतप्रभ रह गया।
देखा कि- शेखर अपनी पत्नी का सहारा लिए कंपकंपाते हुए डॉक्टर के केबिन से बाहर निकल रहा है।
पता चला कि, रामदीन के ऑपरेशन के समय से ही वह पार्किसंस की असाध्य बीमारी से ग्रसित चल रहा है।
विस्मित रामदीन के मन में अनजाने ही संवादहीनता के चलते मित्र शेखर के प्रति उपजे अब तक के सारे कलुषित भाव एक क्षण में साफ हो गए।
© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
हिन्दी साहित्य- लघुकथा – बाजार……. – डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
बाजार…….
हरिनिवास पंडित शहर के मध्य में जूते-चप्पलों का एक भव्य शो रुम चला रहे हैं।
सामने ही इस्माइल मियां पूजन सामग्री की दुकान खोले बैठे हैं।
ठाकुर बलदेव सिंग की किराना दुकान पुरे क्षेत्र में प्रसिद्द है, समीप ही संपत राय महाजन ने फल-फूल तथा सब्जियों की भरी दुकान सजा रखी है।
इधर दलित दयाराम की सोने-चांदी की दुकान अलग ही चमचमा रही है।
रामकृष्ण सर्राफ बिस्किट, बेकरी आयटम व चिप्स /कुरकुरे थोक में बेच रहे है, थोड़े आगे ही नुक्कड़ पर हरी प्रसाद हरिजन की हॉटल/ भोजनालय में खाने वालों की दिनभर भीड़ लगी रहती है।
इस बार निगम के चुनाव में भारी बहुमत से विजयी, सत्संगी- शारदा देवी नगर के महापौर पद को सुशोभित कर रही है और कृषि उपज मंडी के मुख्य आढ़तिया पद को सरदार प्रीतम सिंग जी।
उधर गांव के अधिकांश खेतों को शहरी लोग संभालने लग गए हैं, तो ग्रामीण युवक शहरों में इधर-उधर दुकानों में काम कर रहे हैं।
स्थिति यह है कि, शहर गांव की तरफ और गांव शहर की तरफ दौड़ लगा रहे हैं।
बाजार के ये सारे सुखद दृश्य देख कर रामदीन को ये लगता है कि, हमारा देश सामाजिक समरसता की ओर तेजी से बढ़ रहा है।
किन्तु समाज के मौजूदा हालात देखकर रामदीन को यह भी लगता है कि,
इस नव विकसित बाजारू परिदृश्य के बावज़ूद जातीय, सामाजिक एवं सांप्रदायिक सद्भाव कहीं पीछे छूटता जा रहा है, जिसके बारे में सोचने का किसी के पास समय नहीं है।
बदलते परिवेश में एक ओर रामदीन प्रसन्न है तो दूसरी ओर खिन्न भी।
© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
हिन्दी साहित्य- लघुकथा – लायक – डॉ भावना शुक्ल
डॉ भावना शुक्ल
लायक
आज अचानक माँ का फ़ोन आया “सोनी घर आ गई है ।कह रही अब वह नहीं जायेगी ।”
पर बेटा ” आशू फोन करके मना रहा है पर इसका कहना है अलग रहेंगे तो ही मैं वापस आउंगी ।”
आशू का कहना है “मैं माता-पिता को नहीं छोड़ सकता।रहेंगे तो साथ ही रहेंगे।”
यह सब सुनकर हमसे नहीं रहा गया हम उसे समझाने चले गए।
सब याद आने लगा जब हमने रिश्ता बताया था और माँ ने सब देखकर चन्द दिनों में सोनी की शादी कर दी थी।और माँ शादी करके निश्चिन्त हो गई थीं।परंतु कुछ दिनों बाद से ही माँ का फोन आता रहता सोनी खुश नहीं है आये दिन छोटी -मोटी बात पर विवाद होता रहता है ।आशू तो बस माँ का ही दामन थामे है उसे कुछ दिखाई नहीं देता।
हमने भी फोन पर कहा..” यह क्या कह रही हो ।कुछ नही होता धीरे-धीरे सब ठीक हो जायेगा।”
वह बोली “मैं बहुत एडजेस्ट कर रही हूँ दीदी।”
होली का त्यौहार था उन सबको भी बुला लिया। सास, पति, नन्द सभी आये और सबका समझौता करवा दिया। सभी खुश थे और सबसे ज्यादा हम खुश थे, हमने ही शादी करवाई थी ।जब सब चलने लगे माँ ने सोनी से कहा…” बेटा अब अच्छे से रहना छोटी-छोटी बाते तो होती रहती है इतना सुनते ही सोनी बोली .. सास की और इशारा करके “इनका मुंह बंद रहे तो सब ठीक है।”
इतना सुनते ही उन्होंने विदा का सामान पटका और बेटे को बोली …”चल बेटा अब इसको यहीं रहने दे ये हमारे लायक नहीं है।”
© डॉ भावना शुक्ल
हिन्दी साहित्य- लघुकथा – मानसिकता/मंहगे दीये – डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
दीपावली पर विशेष
डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
मानसिकता/मंहगे दीये
दीपावली से दो दिन पहले खरीदारी के लिए वो सबसे पहले पटाखा बाजार पहुंचा। अपने एक परिचित की दुकान से चौगुनी कीमत पर एक हजार के पटाखे खरीदे।
फिर वह शॉपिंग सेंटर पहुंचा, यहां मिठाई की सबसे बड़ी दुकान पर जाकर डिब्बे सहित तौली गई हजार रूपये की मिठाई झोले में डाली।
इसके बाद पूजा प्रसाद के लिए लाई-बताशे, फल-फूल और रंगोली आदि खरीदकर शरीर में आई थकान मिटाने के लिए पास के कॉफी हाउस में चला गया।
कुछ देर बाद कॉफी के चालीस रूपये के साथ अलग से बैरे की टीप के दस रूपये प्लेट में रखते हुए बाहर आया और मिट्टी के दीयों की दुकान की ओर बढ़ गया।
“क्या भाव से दे रहे हो यह दीये?”
“आईये बाबूजी, ले लीजिये, दस रूपये के छह दे रहे हैं।”
“अरे! इतने महंगे दीये, जरा ढंग से लगाओ, मिट्टी के दीयों की इतनी कीमत?”
“बाबूजी, बिल्कुल वाजिब दाम में दे रहे हैं। देखो तो, शहर के विस्तार के साथ इनको बनाने की मिट्टी भी आसपास मुश्किल से मिल पाती है। फिर इन्हें बनाने सुखाने में कितनी झंझट है। वैसे भी मोमबत्तियों और बिजली की लड़ियों के चलते आप जैसे अब कम ही लोग दीये खरीदते हैं।”
“अच्छा ऐसा करो, दस रूपये के आठ लगा लो।”
दुकानदार कुछ जवाब दे पाता इससे पहले ही वह पास की दुकान पर चला गया। वहाँ भी बात नहीं बनी। आखिर तीन चार जगह घूमने के बाद एक दुकान पर मन मुताबिक भाव तय कर वह अपने हाथ से छांट-छांट कर दीये रखने लगा।
“ये दीये छोटे बड़े क्यों हैं? एक साइज में होना चाहिए सारे दीये।”
“बाबूजी, ये दीये हम हाथों से बनाते हैं, इनके कोई सांचे नहीं होते इसलिए….”
घर जाकर पत्नी के हाथ में सामान का झोला थमाते हुए वह कह रहा था –
“ये महंगाई पता नहीं कहा जा कर दम लेगी। अब देखों ना, मिट्टी के दीयों के भाव भी आसमान छूने लगे हैं।”
© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
दीपावली पर विशेष
हिन्दी साहित्य- लघुकथा – खुशियों की फुलझड़ी – श्री जय प्रकाश पाण्डेय
जय प्रकाश पाण्डेय
खुशियों की फुलझड़ी
जीवन है चलने का नाम ….. जो लोंग परेशानी भरी ज़िंदगी जीते है उनकी संवेदनाएं मरती नहीं है, उनकी संवेदना विपरीत परिस्थतियों से लड़ने की प्रेरणा देती है और वे अन्य के लिए भी प्रेरक बन जाते है, उनकी सहज सरल बातें भी ख़ुशी का पैगाम बनकर उस माहौल में संवेदना, सेवा और सामाजिकता पैदा कर देती है, नारायणगंज शाखा में दूर – अंचल से खाता खोलने आये “रंगैया” ने भी कुछ ऐसी छाप छोडी ……..
रंगैया जब खाता खोलने आया तो बैंकवाले ने पूछा – “रंगैया, खाता क्यों खुलवा रहे हो ?”
रंगैया ने बताया – “साब दस कोस दूर बियाबान जंगल के बीच हमरो गाँव है घास -फूस की टपरिया और घरमे दो-दो बछिया ….घर की परछी में एक रात परिवार के साथ सो रहे थे तो कालो नाग आके घरवाली को डस लियो, रात भर तड़फ -तडफ कर बेचारी रुकमनी मर गई …… मरते दम तक भुखी प्यासी दोनों बेटियों की चिंता करती रही …….. सांप के काटने से घरवाली मरी तो सरकार ने ये पचास हजार रूपये का चेक दिया है , तह्सीलवाला बाबु बोलो कि बैंक में खाता खोलकर चेक जमा कर देना रूपये मिल जायेगे ….. सो खाता की जरूरत आन पडी साब ! …. बैंक वाले ने पूछा – सांप ने काटा तो शहर ले जाकर इलाज क्यों नहीं कराया ?”
रंगैया बोला – “कहाँ साब! गरीबी में आटा गीला …. शहर के डॉक्टर तो गरीब की गरीबी से भी सौदा कर लेते है,वो तो भला हो सांप का … कि उसने हमारी गरीबी की परवाह की और रुकमनी पर दया करके चुपके से काट दियो, तभी तो जे पचास हजार मिले है खाता न खुलेगा …… तो जे भी गए ………… अब जे पचास हजार मिले है तो कम से कम हमारी गरीबी तो दूर हो जायेगी, दोनों बेटियों की शादी हो जैहै और घर को छप्पर भी सुधर जाहे, जे पचास हजार में से तहसील के बाबु को भी पांच हजार देने है बेचारे ने इसी शर्त पर जे चेक दियो है।”
तभी किसी ने कहा – “यदि नहीं दो तो ?……….. ”
रंगैया तुरंत बोला – “नहीं साब …… हम गरीब लोग हैं, प्राण जाय पर वचन न जाही, …साब, यदि नहीं दूँगा तो मुझे पाप लगेगा, उस से वायदा किया हूँ झूठा साबित हो जाऊँगा ….अपने आप की नजर में गिर जाऊँगा …..गरीब तो हूँ और गरीब हो जाऊँगा …….और फिर दूसरी बात जे भी है कि जब किसी गरीब को सांप कटेगा, तो ये तहसील बाबु उसके घर वाले को फिर चेक नहीं देगा ……….”
रंगैया की बातों ने पूरे बैंक हाल में एक नयी चेतना का माहौल बना दिया ………… सब तरफ से आवाजें हुई …. “पहले रंगैया का काम करो।”
भीड़ को चीरते हुए मैंने जाकर रंगैया के हाथों सौ रूपये वाले नए पांच के पैकेट रख दिए ……. उसी पल रंगैया के चेहरे पर ख़ुशी के जो भाव प्रगट हुए वो जुबां से बताये नहीं जा सकते …… बस इतना ही बता सकते हैं कि पूरे हाल में खुशियों की फुलझड़ियां जरूर जल उठीं …… हाल में खड़े लोग कह उठे …. कि – “खुशियाँ हमारे आस -पास ही छुपी होती है यदि हम उनकी परवाह करें तो वे कहीं भी मिल सकती है ………..”
© जय प्रकाश पाण्डेय