(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक “लघुकथा – प्रायश्चित”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 168 ☆
☆ लघुकथा – प्रायश्चित ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
ए को जैसे ही पता चला बी बहुत बीमार है वह तुरंत उससे मिलने के लिए आई, “तू अपनी बहू को अमेरिका से यहां क्यों नहीं बुला लेती। वह तेरी इतनी सेवा तो कर ही सकती है।”
“वह गर्भ से है,” बड़ी मुश्किल से बी बिस्तर पर सीधे बैठते हुए बोली, ” उसने मुझे ही अमेरिका बुलाया था। ताकि मैं जच्चे-बच्चे की देखभाल कर सकूं।”
“ओह! मतलब वह नहीं आ पाएगी।”
“हां, उसकी मजबूरी है,” बी ने इशारा किया तो काम वाली लड़की चाय रख कर चली गई। तब तक ए अपने घर परिवार के दुख-सुख की बातें करती रही। तभी अचानक बी की दुखती रग पर हाथ चला गया, “काश! तूने मेरी बात मानी होती तो आज यह दिन नहीं देखना पड़ता,” ए ने कहा।
“हां यार, वह मेरी जीवन की सबसे बड़ी गलती थी,” बी ने कहा, “काश! मैंने उस समय भ्रूण हत्या न की होती तो आज मेरी बेटी भी तेरी तरह मेरी सेवा कर रही होती,” कहते हुए उसने अपने बड़े से घर को निहारा तथा काम वाली लड़की की ओर देखकर बोली, “क्या तुम मेरी बेटी बनोगी?”
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – पुराना फर्नीचर।)
अरुणा जी अपने बेटे से कह रही थी, इतना बड़ा हो गया है अपने सारे काम क्यों नहीं करता?
तेरे कपड़े रखते मैं थक जाती हूं कड़क स्वर में अपने बेटे अरुणेश को डांट रही थी।
अरुणेश ने कहा तुम मेरी अच्छी मां हो चलो कोई बात नहीं एक काम वाली तुम्हारी मदद के लिए रख देता हूं।
अरुणा जी ने कहा मुझे कामवाली नहीं बहू चाहिए,
मेरी एक सहेली विमला है जानते तो हो, मुझे कल ही पता चला कि वह तुम्हारे ऑफिस में ही काम करती है आज मैं तुम्हें टिफिन नहीं दे रही हूं ?
दोपहर का लंच तुम उसी के साथ करना उसका नाम पूजा है।
मेरा ऑफिस बहुत बड़ा है मैं कैसे किसी भी लड़की से जाकर पूछूंगा?
अरुणा जी ने कहा- दोपहर में तू अपने ऑफिस के बगल वाले रेस्टोरेंट में चले जाना।
अरुणेश ने हां कर दिया।
दोपहर में उसे भूख लगी थी, मां की आज्ञा थी वह रेस्टोरेंट में गया तभी वहां पर एक लड़की ने उसे आवाज देकर बुलाया और यहां आ जाओ, आपकी मां ने मुझे आपका फोटो भेज दिया था इसलिए मैं पहचान गई।
खाने में क्या खाओगी?
मुझे तंदूरी रोटी और पनीर कढ़ाई पसंद है वह मैंने आर्डर कर दिया है आप क्या लेंगे ?
तुमने जो आर्डर किया है उसी को खा लूंगा, बाद में मैं अपने लिए चावल मंगवा लूंगा।
खाना खाते हुए अरुणेश ने कहा यदि तुम्हारी कोई शर्त हो तो मुझे बता दो?
पूजा ने कहा मुझे तुम पसंद हो और मेरी कोई शर्त नहीं है बस एक बात मैं कहना चाहती हूं कि शादी के बाद अलग फ्लैट में रहना चाहूंगी और खाना मैं नहीं बनाऊंगी टिफिन लगा लेंगे।
मुझे घर में रोज की झिक झिक होती है मेरे और तुम्हारे दोनों के घरों में पुराना फर्नीचर है।
अरुणेश को एकाएक ऐसा लगा जैसे उसके शरीर में जान ही नहीं है एक ही क्षण में विचार करके बोला- पूजा ऑफिस में मेरी एक जरूरी मीटिंग है।
बिल मैं काउंटर में पे करते हुए जा रहा हूं।
अरे! खाना तो खत्म करो और जवाब देते जाओ?
मैं जवाब बाद में तुम्हें देता हूं और वह रास्ते भर यह सोचता रहा पुराना फर्नीचर यह बात उसे सुई की तरह चुभ गई मां इस लड़की के साथ शादी के लिए परेशान हैं…..।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख “मिलन मोशाय : 2“।)
मिलन बाबू जब धीरे धीरे वाट्सएप ग्रुप में रम गये तो उन्होंने पाया कि दोस्तों से बातचीत और हालचाल की जगह वाट्सएप ग्रुप में फारवर्डेड मैसेज पोस्ट करने का ही चलन बन गया है, त्यौहारों पर बधाई संदेशों के तूफानों से मिलन मोशाय परेशान हो गये, चार पढ़ते चालीस और आ जाते.फिर पढ़ना छोड़ा तो मैमोरी फुल, दोस्तों ने डिलीट फार ऑल का हुनर सिखाया तो फिर तो बिना पढ़े ही डिलीट फॉर ऑल का ऑप्शन बेधड़क आजमाने लगे.
इस चक्कर में एक बार किसी का SOS message भी डिलीट हो गया तो भेजने वाला मिलन बाबू से नाराज़ हो गया, बोलचाल बंद हो गई. पहले जब वाट्सएप नहीं था तब मिलन बाबू अक्सर त्यौहारों पर, जन्मदिन पर ,एनिवर्सरी पर, अपने दिल के करीबियों और परिचितों से फोन पर बात कर लेते थे. किसी के निधन की सूचना पर संभव हुआ तो अंत्येष्टि में शामिल हो जाते थे या फिर बाद में मृतक के घर जाकर परिजनों से मिल आते थे पर अब तो सब कुछ वाट्सएप ग्रुप में ही होने लगा. मिलन बाबू सारी मिलनसारिता और दोस्तों को भूलकर दिनरात मोबाइल में मगन हो गये और ईस्ट बंगाल क्लब के फैन्स के अलावा उनके कुछ दुश्मन, उनके घर में भी बन गये जो खुद को नज़रअंदाज किये जाने से खफा थे और उनमें नंबर वन पर उनकी जीवनसंगिनी थीं. कई तात्रिकों की सलाह ली जा चुकी है और ली जा भी रही है जो इस बीमारी का निदान झाड़फूंक से कर सके.निदान उनके कोलकाता के दुश्मन याने ईस्ट बंगाल क्लब के फैन ने ही बताया कि दादा, फिर से मिलन मोशाय बनना है तो वाट्सएप को ही डिलीट कर डालो. जब गोलपोस्ट ही नहीं रहेगी तो गोल भी नहीं हो पायेगा.आप भी खुश रहेंगे और घर वाले भी.
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है पारिवारिक विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “शिकन”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 190 ☆
🌻 लघुकथा 〰️ शिकन 〰️
माथे या ललाट पर पड़ने वाली मोटी पतली आडी़ रेखाओं को शिकन कहते हैं। आज से थोड़े पहले पुराने वर्षों में देखा जाए और सोचा जाए तो बुजुर्ग लोग बताया करते थे…. कि देखो वह साधु बाबा ज्ञानी ध्यानी आए हैं। उनके ललाट पर कई रेखाएं(शिकन) हैं। बहुत ही विद्वान और शास्त्र जानते हैं। कोई भी प्रश्न जिज्ञासा हो सभी का समाधान करते हैं।
सभी के बताए अनुसार अजय भी इस बात को बहुत ही ध्यान से सुनता था। दादी – दादा की बातों को बड़े गौर से मन में रख नौ वर्ष का बालक अपने ज्ञान बुद्धि विवेक से जान सकता था कि क्या अभी करना और क्या नहीं करना है।
परंतु बच्चों के मन में कई सवाल उठता है। पहले वह देखा करता था कि दादाजी बड़े ही खुश होकर उठते बगीचे की सैर करते और दिनचर्या निपटाकर अपने-अपने कामों में लगे सभी के साथ बातचीत करते अपना समय व्यतीत करते थे।
परंतु वह देख रहा था कि कुछ दिनों से दादा जी के माथे पर एक दो लकीरें बनी हुई दिखाई दे रही हैं।
बच्चे ने गौर से देखा और चुपचाप रहा परंतु देखते-देखते उनके माथे पर कई रेखाएँ/ शिकन बढ़ने लगी थी।
आज खाने की टेबल पर सभी भोजन कर रहे थे। दादाजी के माथे की ओर देख अजय दादी से कहने लगा… दादी – दादी देखो दादाजी अब ज्ञानी ध्यानी बनने लगे हैं। उनको भी बहुत सारी बातों का ज्ञान हो गया है। साधु संत बन जाएंगे।
दादी – दादा के चेहरे का रंग उड़ने लगा। अपने पोते की बातों का… कैसा अर्थ निकाल रहा है?
तभी दादाजी बोल उठे…. हाँ हांँ बेटा हम और तुम्हारी दादी अब साधु बनेंगे और यहाँ से दूर शहर के बाहर जो बगीचा वाला आश्रम है। वहाँ जाकर रहेंगे और वहाँ प्रभु भजन करेंगे।
बेटे बहु समझ नहीं पा रहे थे कि हमारी गुप्त योजना को मम्मी- पापा कैसे समझ गए और नन्हें अजय ने उसे जाने अनजाने ही कैसे पूरी शिद्दत से बाहर कर दिया।
तभी अजय भौंहे चढ़ा कर बोल उठा… दादाजी मेरी भी एक लकीर बन रही है। अब मैं भी आपके साथ चलूँगा क्योंकि पता नहीं कब यह बहुत सारी बन जाए आपके माथे जैसी तो आप मुझे आगे – आगे बताते जाना मैं आपसे रोज कहानी सुना करूंगा।
मैं भी एक दिन विद्वान बन जाऊंगा। दादा ने गले लगाते हुए कहा – – – नहीं नहीं बेटे अभी तुम्हारी उम्र नहीं है। शिकन – – बुड्डे होने पर बनती है। इसके लिए बुड्ढा होना पड़ता है।
अजय जिद्दमें अड़ा रहा आपको देख – देख कर मेरे माथे में भी शिकन बन जाएगी। मैं तो आपके साथ ही चलूंगा।
दादा- दादी पोते को लेकर सीने से लगाए हंसते हुए रोने लगे। शायद बेटा बहू समझ चुके थे कि अब उनके माथे में लकीरें बनना आरंभ हो जाएगी। माथे को पोंछते वह जाकर मम्मी- पापा के चरणों पर झुक गया।
ना जाने क्या सोच वह गले से लग रो पड़ा। अजय ने कहा… देखो मैं भी साधु बन गया है ना दादाजी, बता दिया तो पापा रोने लगे।
दादा दादी की आँखों से अश्रु धार बहने लगी। माथे की शिकन मिटाते वे अपने बेटे बहु को गले से लगा लिये।
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ “सरेआम” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
-भई यह घर आपने बहुत ही सही लोकेशन पर लिया है । इसकी बायीं ओर मार्केट, दायीं ओर मार्केट और बिल्कुल सीधे जाओ तो लोकल बस व ऑटो मिलने के लिए चौक ! बहुत खुशकिस्मत हो आप !
जब हमने मकान खरीदा तब आसपास के लोगों का यही कहना था । वैसे हम इसी मकान में पिछले पांच साल से किराये पर रह रहे थे । तब छत पराई लगती थी, अब अपनी लगने लगी !
शुरू शुरू में हमने भी यह बात महसूस की थी और अब तो लोगों ने इस पर मोहर लगा दी थी ।
हम यानी आमतौर पर मैं और बेटी ही बायीं ओर की मार्केट शाम को सब्ज़ी, दूध और दूसरे जरूरी सामान लेने जाते हैं । पत्नी को बाज़ार जाने का कम ही शौक है । वह कहती है कि आप गांव में रहते थे तो आप ही जाइये सब्ज़ियां लेने ! अब पांच साल तो किसी अनजान जगह और शहर में अपनी और दूसरों की पहचान में लग ही जाते हैं और हमारी भी मार्केट वालों से जान पहचान हो गयी । इतना भरोसा तो जीत ही लिया कि यदि भूलवश कमीज़ बदलते समय पैसे डालने रह गये और दुकान पर सामान खरीदने के बाद पता चला तो दुकानदार कहने लगे कि कोई बात नहीं भाई साहब, आप सामान ले जाओ ! आप पर भरोसा है । हमारे पैसे कहीं नहीं जाते ! आ जायेंगे ! यह तो बरसों का भरोसा है और बनते बनते बनता है ! यही नहीं आस पड़ोस भी अब दिन त्योहार पर घर की घंटी बजा कर उसमें शामिल होने का न्यौता देने लगा ! हालांकि पहले पहल हमें पंजाब से होने के चलते रिफ्यूजी तक मानते रहे और यह दंश भी देश के किसी हिस्से में रहने पर झेलना ही पडता है सबको! अपने ही देश में रिफ्यूजी! फिर दिन बीतने के साथ साथ सब हंसने खेलने लगे हमसे!
अब मार्केट में सब्ज़ी की रेहड़ियां शाम के समय खूब लगती हैं, जैसे पूरी सब्ज़ी मंडी ही चलकर इस मार्केट में रेहड़ियों पर लद कर आ गयी हो ! शाम के समय खूब चहल पहल और कितने ही कुछ जाने और कुछ अनजाने चेहरे देखने को मिलते हैं ! पर एक बात मेरी समझ में न आ रही थी कि आखिर शाम के धुंधलके में या अंधेरा छा जाने पर ये रेहड़ी वाले बिजली कहां से लेते हैं ? इनकी रेहड़ियां इतनी जगमगाती कैसे हैं ?
इसका भी रहस्य खुला सिमसिम की तरह ! एक दिन हम थोड़ा जल्दी ही मार्केट चले गये । क्या देखता हूँ कि एक आदमी हर रेहड़ी वाले से बीस बीस रुपये वसूल कर रहा है, बिल्कुल फिल्मी स्टाइल में ! जैसे ही बीस रुपये हाथ में आते, रेहड़ी पर रोशनी जगमगाने लग जाती ! यह कैसा जादू है ? रेहड़ी वाले गरीब आदमी, मुंह खोलते भी डरते ! क्या करिश्मा है और बिना कनैक्शन बिजली आती कहां से है ? वैसे तो एक आम आदमी को इससे क्या लेना देना ? अरे आखें बंद कर, कानों में रुई डाल और चुपचाप सामान खरीद और सुरक्षित घर को लौट! वो लिखा रहता है न कि घर कोई आपका इ़तज़ार कर रहा है तो ऐसे में न बायें देख, न दायें, सीधा घर को देख और घर चल ! पर मुझसे रहा नहीं जा रहा था। फिल्मी हीरो तो था नहीं कि उससे भिड़ जाता! बस, अंदर ही अंदर कसमसाता रहता कि आखिर यह हफ्ता वसूली क्यों ? वे गरीब, परदेसी रेहड़ी वाले खामोश रुपये देते रहते ! देखते समझते तो और भी होंगे लेकिन वे मस्त लोग थे, सौदा सुल्फ लिया और ये गये और वो गये ! कौन क्या कर रहा है, इससे क्या मतलब ?
पता चला कि यह सरेआम बिजली चोरी प्रशासन के ध्यान में आ ही गयी और आखिरकार यह हफ्ता वसूली कुछ दिन रुकी और फिर आठवां आश्चर्य हुआ जब सुनने में आया कि उसी अधिकारी की ट्रांसफर हो गयि, जिसने यह बिजली चोरी रोकी थी ! हैं घोर कलयुग ? रेहड़ी वाले राहत की सांस भी न ले पाये कि हफ्ता वसूली फिर शुरू ! सुनने में आया कि जो बिजली कनैक्शन देने आता था, वह तो मोहरा भर था, असली बाॅस तो उस एरिया का बड़ा नेता था ! अब यह बात कितनी सच, कितनी झूठ, हम बीच बाज़ार कुछ नहीं कह सकते भाई ! हमें माफ करो !
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक “बाल कहानी – मोना जाग गई”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 167 ☆
☆ बाल कहानी – मोना जाग गई ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
मोना चकित थी। जिस सुंदर पक्षी को उसने देखा था वह बोल भी रहा था। एक पक्षी को मानव की भाषा बोलता देखकर मोना बहुत खुश हो गई।
उसी पक्षी ने मोना को सुबह-सवेरे यही कहा था,
“चिड़िया चहक उठी
उठ जाओ मोना।
चलो सैर को तुम
समय व्यर्थ ना खोना।।”
यह सुनकर मोना उठ बैठी। पक्षी ने अपने नीले-नीले पंख आपस में जोड़ दिए। मोना अपने को रोक न सकी। इसी के साथ वह हाथ जोड़ते हुए बोली, “नमस्ते।”
पक्षी ने भी अपने अंदाज में ‘नमस्ते’ कहा। फिर बोला,
“मंजन कर लो
कुल्ला कर लो।
जूता पहन के
उत्साह धर लो।।”
यह सुनकर मोना झटपट उठी। ब्रश लिया। मंजन किया। झट से कपड़े व जूते पहने। तब तक पक्षी उड़ता हुआ उसके आगे-आगे चलने लगा।
मोना का उत्साह जाग गया था। उसे एक अच्छा मित्र मिल गया था। वह झट से उसके पीछे चलने लगी। तभी पक्षी ने कहा,
“मेरे संग तुम दौडों
बिल्कुल धीरे सोना।
जा रहे वे दादाजी
जा रही है मोना।।”
“ओह! ये भी हमारे साथ सैर को जा रहे हैं,” मोना ने चाहते हुए कहा। फिर इधर-उधर देखा। कई लोग सैर को जा रहे थे। गाय जंगल चरने जा रही थी।
पक्षी आकाश में कलरव कर रहे थे। पूर्व दिशा में लालिमा छाने लगी थी। पहाड़ों के सुंदर दिख रहे थे। तभी पक्षी ने कहा,
“सुबह-सवेरे की
इनसे करो नमस्ते।
प्रसन्नचित हो ये
आशीष देंगे हंसते।।”
यह सुनते ही मोना जोर से बोल पड़ी, “नमस्ते दादा जी!”
तभी उधर से भी आवाज आई, “नमस्ते मोना! सदा खुश रहो।”
यह सुनकर मोना चौंक उठी। उसने आंखें मल कर देखा। वह बिस्तर पर थी। सामने दादा जी खड़े थे। वे मुस्कुरा रहे थे, “हमारी मोना जाग गई!”
“हां दादा जी,” कहते हुए मोना झट से बिस्तर से उठी, “दादा जी, मैं भी आपके साथ सैर को चलूंगी,” कह कर वह मंजन करके तैयार होने लगी।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख “मिलन मोशाय : 1“।)
“मिलन चक्रवर्ती ” जब अपने बचपन के कोलकाता डेज़ को याद करते हैं तो उनकी फुटबाल सदृश्य गोल गोल आंखों से आँसू और दिल से एक हूक निकलने लगती है.बचपन से ही दोस्तों के मामले में लखपति और दुश्मनों के मामले में भी लखपति रहे थे और ये दोस्तियां स्कूल और कॉलेज से नहीं बल्कि फुटबॉल ग्राउंड पर परवान चढ़ी थीं. मोहनबगान के कट्टर समर्थक, मिलन मोशाय हर मैच के स्थायी दर्शक, हूटर, चियरलीडर सबकुछ थे और उनकी दोस्ती और दुश्मनी का एक ही पैरामीटर था. अगर कोई मोहनबगान क्लब का फैन है तो वो दोस्त और अगर ईस्ट बंगाल क्लब वाला है तो दुश्मन जिसके क्लब के जीतने पर उसकी पिटाई निश्चित है पर उस बंदे को घेरकर कहां मोहन बगान क्लब की हार की भड़ास निकालनी है, इसकी प्लानिंग स्कूल /कॉलेज़ में ही की जाती थी. जब भी ये टारगेट अकेले या मात्र 1-2 लोगों के साथ सपड़ में आ जाता तो जो गोल मिलन बाबू का क्लब फुटबाल ग्राउंड में नहीं कर पाया, वो एक्सट्रा टाईम खेल यहां खेला जाता और फुटबाल का रोल यही बंदा निभाता था. यही खेल मिलन मोशाय के साथ भी खेला जाता था जब ईस्ट बंगाल क्लब हारती थी. पर दोस्ती और दुश्मनी का ये खेल फुटबाल मैच के दौरान या 2-4 दिनों तक ही चला करता था जब तक की अगला मैच न आ जाय. फुटबाल मैच उन दिनों टीवी या मोबाइल पर नहीं बल्कि ग्राउंड पर देखे जाते थे और अगर टिकट नहीं मिल पाई तो ट्रांजिस्टर पर सुने जाते थे. हर क्रूशियल मैच की हार या जीत के बाद नया ट्रांजिस्टर खरीदना जरूरी होता था क्योंकि पिछला वाला तो मैच जीतने की खुशी या मैच हारने के गुस्से में शहीद हो चुका होता था. (फुटबाल में मोशाय गम नहीं मनाते बल्कि गुस्सा मनाते हैं.)
आज जब मिलन बाबू पश्चिम मध्य रेल्वे में अधिकारी हैं तो अपने ड्राइंग रूम के लार्ज स्क्रीन स्मार्ट टीवी पर सिर्फ फुटबाल मैच ही देखते हैं. नाम के अनुरूप मिलनसारिता कूट कूट कर भरी है और अपने हर दोस्त को और हर उस ईस्ट बंगाल क्लब के फैन को भी जो कोलकाता से दूर होने के कारण अब उनका दोस्त बन चुका है, उसके जन्मदिन, मैरिज एनिवर्सरी पर जरूर फोन करते हैं. अगर उनकी मित्र मंडली के किसी सदस्य के या उसके परिवार के साथ कोई हादसा होता तो भी फोन पर बात करके उसके दुःख में सहभागी बनने का प्रयास करते रहते थे.जब कभी कोलकाता जाना होता तो कम से कम ऐसे मित्रों से जरूर घर जाकर मिलते थे. मिलन मोशाय न केवल मिलनसार थे बल्कि अपने कोलकाता के दोस्तों से दिल से जुड़े थे. ये उनकी असली दुनियां थी जिसमें उनका मन रमता था. बाकी तो बस यंत्रवत काम करना, परिवार के साथ शॉपिंग और सिटी बंगाली क्लब के आयोजन में परिवार सहित भाग लेना उनके प्रिय शौक थे.
डॉक्टर मुखर्जी की सलाह पर उन्होंने टेबल टेनिस खेलना शुरु किया जिसमें एक्सरसाईज़ भी होती थी और मनोरंजन भी. यहां बने उनके कुछ मित्रों की सलाह पर प्रोग्रसिव जमाने के चालचलन को फालो करते हुये उन्होंने स्मार्ट फोन ले डाला और जियो की सिम के दम पर वाट्सएप ग्रुप के सदस्य बन गये.
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – भीख।)
☆ लघुकथा – भीख ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆
ऑफिस जाने की बहुत जल्दी मैं गोपाल ने चौराहे पर लाल बत्ती देखे कर बहुत जोर से गुस्सा मैं बड़बड़ने लगा पता नहीं क्यों लोग चौराहे पर खड़े हो जाते हैं।
10 वर्ष का लड़का उसके स्कूटर को पूछने लगा और उसने कहा कि साहब ₹50 देकर पुण्य कमा लो।
गोपाल ने कहा मुझे अगर पुण्य कमाने का शौक होता तो मैं मंदिर में जाता यहां नहीं आता?
हरी बत्ती जलती हुई और वह गाड़ी स्टार्ट किया तभी उसके कान में एक संवाद सुनाई दिया तू भी धंधा में नया नया आया है स्कूटी की तरफ नहीं जाते हैं कार,बड़ी गाड़ी की तरफ जाते हैं वह लोग ही पैसे देते हैं यह लोग तो बस ऐसा ही ज्ञान देते हैं।
गोपाल को अपमानित सामाजिक श्रेष्ठता बौद्ध का दर्द ज्यादा दरिया दिल दिखाते हुए उसने उस लड़के को बुलाकर ₹100 दिए।
उस लड़के ने कहा बाबूजी आप ही अपना रुपया रख लो शायद आप के काम आए ऐसा कह कर जेब में डाल दिया।
अपनी भी विवशता थी और अपमान से हृदय छलनी हो गया था और उन्होंने तुरंत स्कूटर स्टार्ट करके अपने ऑफिस की ओर कूच किया।
गोपाल ने सोचा- पहले लोग भीख देने पर दुआ देते थे पर अब भिखारियों की भी तरक्की हो गई है उनका भी स्तर और ठाट बाट बढ़ गया है यह नौकरी से अच्छा धंधा है…..।
तभी उसे बॉस ने अपने केबिन में बुलाया – ऑफिस आने का यही समय है क्या?
गोपाल -दोनों हाथ जोड़कर अपने बॉस से माफी की भीख मांगने लगा सर मुझे कुछ आवश्यक कार्य के कारण आज ऑफिस आने में देर हो गई…..।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “भरतांश”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 189 ☆
🌻 लघुकथा 🙏भरतांश🙏
आज त्रेता युग बीते बरसों हो गए हैं। परंतु राम भरत मिलाप की कथा जहाँ भी होती है। सभी के मन को भाव विभोर कर देता है।
द्वेष, अहंकार, घृणा, जलन, बिना वजह बुराई सब अवगुण आदमी के बहुत जल्दी उजागर होते हैं। परन्तु ममता, करुणा, दया, प्रेम, सहानुभूति, क्षमा, श्रद्धा, आदि सभी गुण मानव उभरने नहीं देता।
रथी और देव का विवाह बड़े ही धूमधाम और पारिवारिक माहौल में संपन्न हुआ। कहते हैं परिवार में सभी सदस्यों को खुश नहीं रखा जा सकता। कहीं ना कहीं चूक हो ही जाती है और यदि नहीं हुआ तो समझो उस विवाह का प्रचार जोर-शोर से नहीं होता।
रथी के भैया राघव ने कहीं कोई कसर नहीं छोड़ा था। अपनी बहन के विवाह की तैयारी में।
विवाह बहुत ही सुंदर और सादगी से संपन्न हुआ, परंतु किसी बात से असंतुष्ट रथी का पति ‘देव’ अपने ससुराल से इस कदर नफरत करने लगा कि उसने रथी का आना – जाना, बात-चीत और यहाँ तक के की राखी के पवित्र बंधन को भेजने से भी मना कर दिया।
समय बिता गया। राघव भी अपने आप में खुद्दार था। घर परिवार के लिए कहीं ना कहीं से रथी की सलामती का पता लगा लेता था, परंतु कभी कोई संबंध नहीं रखा। ताकि उसकी बहन सुखी रह सके ।
आज एक भागवत कथा पारिवारिक माहौल में संपन्न हो रहा था। सभी परिजन सुनने पहुंचे थे।ऊँचे आसन पर विराजमान पंडित आचार्य जी, भगवान ठाकुर जी की मूर्ति और भव्य पंडाल।
कथा चल रही थी… भगवान राम और भरत के मिलन की। कथा को पंडित जी ने ऐसा शमां बांध रखा था कि सभी नर नारी भाव- विभोर हो उनकी कथा श्रवण कर रहे थे।
रथी ने देखा की भैया तो कभी आगे बढ़कर कोई बात नहीं करेंगे और देव उसे कभी करने नहीं देगा। आज उसके मन में अजीब सा सवाल और भरत मिलाप की कथा का अंश हृदय में हिलोरे ले रहा था।
भरत मिलाप की कथा सुनाते पंडित जी स्वयं रो रहे थे और सारा पंडाल आँसुओं से तरबतर था।
इतनी भावपूर्ण कथा सभी शांति पूर्वक बैठे सुन रहे थे। अचानक रथी सामने से उठकर पीछे अपने भैया की ओर “भैयायययययययया” कहते हुए दौड़ पड़ी।
आँसुओं की धार से वह डूबी दौड़कर अपने भैया राघव के गले से जा लिपटी। राघव शुन्य सा ताकता रहा। कुछ बात नहीं कर पाया और कुछ बात बिगड़ न जाए। चुपचाप खड़ा रहा।
आस-पास सभी रिश्तेदारों, परिवार वालों ने रथी के इस काम को अपने-अपने तरीके से बोलना सुनना आरंभ कर दिया। परंतु रथी और राघव समझ रहे थे कि बरसों का प्यार आज भरत- मिलाप की कथा सुनकर उमड़ पड़ा। कितना भी मनुष्य कठोर क्यों न हो उसे भी पिघला देता है।
दूर खड़े देव ने देखा भाई – बहन का प्यार निश्चल। बिना कसूर के वह उसे सजा दे रहा था। कई वर्षों बाद आज उसे राम – भरत मिलाप लगने लगा।
राघव ने दूर से देखा दोनों बाहें फैला दिया। चुपचाप देव आकर उसमें समा गया। बाकी चारों तरफ पुष्प वर्षा हो रही थी। कुछ अपने इसका फायदा लेते रथी देव और राघव पर भी पुष्प वर्षा कर आनंद मना रहे थे।
आज भी मानव के मन में भरत जैसा ही करुणा प्रेम का अंश छुपा है। बस उसे समझने की जरूरत है।
बड़े बूढ़े अत्यंत प्रसन्नता पूर्वक बात करने लगे। पंडित जी ने भी जयकारा लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी ।
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी – ‘अंत्येष्टि’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 238 ☆
☆ कहानी – अंत्येष्टि ☆
अम्माँ बड़ी शान्ति से चली गयीं। रात को माला टारते टारते सोयीं और सबेरे माला पकड़े शान्त सोयी मिलीं। गड़बड़ इसलिए लगी कि साढ़े पाँच बजे बिस्तर छोड़ देने वाली अम्माँ उस दिन सात बजे तक भी हिली- डुली नहीं।
अम्माँ का छोटा बेटा महेन्द्र बातूनी है। हर आने वाले को कातर स्वर में बता रहा है, ‘क्या बतायें भैया, बिना बोले-बताये चली गयीं। न किसी को तकलीफ दी, न किसी से सेवा करायी। पुन्यातमा थीं, इसीलिए ऐसे चली गयीं। बस अब तो यही मनाते हैं कि उनका आसिरबाद हम पर बना रहे।’
अम्माँ अपने पुश्तैनी मकान में महेन्द्र के साथ रहती थीं। महेन्द्र की कस्बे में जनरल गुड्स की दूकान थी। बड़े वीरेन्द्र और मँझले नरेन्द्र नौकरी पर बाहर थे। दो बेटियाँ शीला और मीना भी कस्बे से बाहर अपने-अपने घर में थीं। सन्तानों में शीला दूसरे नंबर पर और मीना चौथे नंबर की थी। पति की मृत्यु के बाद अम्माँ का ज़्यादातर वक्त पूजा-पाठ में ही गुज़रता था। घर छोड़कर कहीं ज़्यादा दिन रहना उन्हें सुहाता नहीं था। इसीलिए दोनों बड़े बेटों के घर में भी वे ज़्यादा टिकती नहीं थीं। कहती थीं, ‘यहाँ तो दुआरे पर खड़े हो जाओ तो घंटा आधा-घंटा बतकहाव हो जाता है। दूसरी जगह अजनबियों के सामने मुँह खोलना मुश्किल हो जाता है। पता नहीं किस बात पर बेटे-बहू का मुँह फूल जाए। इसलिए अपने घर से अच्छी कोई जगह नहीं।’
अम्माँ के पति दूरदर्शी थे। कस्बे से तीन चार किलोमीटर दूर करीब पन्द्रह एकड़ ज़मीन अम्माँ के नाम कर गये थे। कहते थे, ‘मैं नहीं चाहता कि मेरे न रहने पर तुम्हें बेटों के आगे हाथ फैलाना पड़े। लेकिन सँभल कर रहना। समय खराब है। किसी के कहने पर बिना समझे-बूझे कोई लिखा-पढ़ी मत करना। जायदाद साधु-सन्तों का भी दिमाग खराब कर देती है।’
अम्माँ की उम्र बढ़ने के साथ बेटे चिन्तित रहने लगे थे, खासकर बड़े वीरेन्द्र। पन्द्रह सोलह साल पहले उत्तराधिकार कानून में संशोधन हो गया है। अब पिता-माता की संपत्ति में बेटियाँ बराबर की हकदार हो गयी हैं। वीरेन्द्र नये कानून पर दाँत पीसते हैं। कहते हैं यह नया कानून परिवारों की समरसता को खंड-खंड कर देगा।
अम्माँ से इस संबंध में कुछ कह पाना मुश्किल था। उनके कान तक यह बात पहुँच चुकी थी कि लड़कियों को अब संपत्ति में हक मिल गया है और वे बेटियों को उनके हक से वंचित करने के बारे में सोच भी नहीं सकती थीं। वीरेन्द्र दोनों छोटे भाइयों तक अपनी पीड़ा पहुँचा चुके थे और उधर भी लालच का बीजारोपण हो चुका था। अब बहनें भाइयों की नज़र में प्रतिद्वन्द्वी बन गयी थीं। लेकिन बहनें अपने भाइयों की मानसिकता में हो रहे परिवर्तनों से बेखबर थीं।
दिन गुज़रने के साथ भाइयों की बेकली बढ़ रही थी। एक ही रास्ता था कि अम्माँ बेटों के नाम संपत्ति का वसीयतनामा कर दें, लेकिन अम्माँ से धोखे में कोई काम करा लेना मुश्किल था। कहीं दस्तखत करने के मामले में वे बड़ी सतर्क थीं। कागज़ को खुद पढ़ने की कोशिश करती थीं। मन नहीं भरता था तो पति के दोस्त गोकुल प्रसाद से पूछने की बात करती थीं। गोकुल प्रसाद तीनों भाइयों को फूटी आँख नहीं सुहाते थे क्योंकि वे खरे आदमी थे। स्वर्गीय मित्र की पत्नी को धोखा देना वे पाप समझते थे।
बेटों की इसी ऊहापोह के बीच में अम्माँ अचानक चल बसीं। सब बेटे बेटियों के जुटते जुटते शाम हो गयी, इसलिए अम्माँ की अन्तिम यात्रा दूसरे दिन के लिए टल गयी। जैसा कि स्वाभाविक है, बेटियाँ अम्माँ के अचानक चले जाने से बहुत दुखी थीं। अमूमन बेटियों का माँ-बाप से लगाव ताज़िन्दगी रहता है और उनके लिए रिश्तों की अहमियत ज़मीन- ज़ायदाद से ज़्यादा होती है। बेटियाँ किसी भी कीमत पर आजीवन मायके से जुड़ी रहना चाहती हैं।
बेटियाँ दुख में डूबी थीं लेकिन उनके भाइयों में कुछ अजीब सी बेचैनी थी, जो दूसरों की नज़र में अम्माँ के विछोह के कारण हो सकती थी। बड़े वीरेन्द्र इधर-उधर घूम कर कोने में पड़ी कुर्सी पर बैठकर बार-बार जैसे गहरी सोच में डूब जाते थे। कोई आवाज़ लगाता तो जैसे नींद से जागते। दोनों छोटे भाई भी उन्हीं के आसपास मँडराते थे। बार-बार आँखें मिलतीं जैसे किसी बात पर कोई सहमति बन रही हो।
रात को ग्यारह बजे बड़े भैया ने सबसे कहा, ‘अब सब लोग जाकर आराम कर लो। अब रोने धोने से क्या फायदा? अपनी तबियत मत खराब करो। हम तीनों भाई अम्माँ के पास बैठे हैं।’
बड़े भैया ने सबको जबरन अम्माँ के कमरे से बाहर कर दिया। अब उस कमरे में सन्नाटा था। नींद की ज़रूरत सबको थी, अन्यथा सुबह का काम आगे कैसे बढ़ेगा?
पहाड़ सी रात कट गयी और भोर हो गयी। अम्माँ की बेटियों को चैन कहाँ? हाथ-मुँह धो कर दोनों अम्माँ के कमरे में पहुँचीं। अब अम्माँ के दर्शन थोड़ी देर और होंगे। जन्मदायिनी और सन्तान के सुख के लिए हर मुसीबत झेलने वाली ममतामयी माँ का प्यारा मुख हमेशा के लिए लोप हो जाएगा।
अम्माँ के शरीर पर करुण दृष्टि फेरती शीला अचानक चौंकी। अम्माँ के बाएँ हाथ का अँगूठा नीला था, जैसे किसी ने स्याही लगायी हो। पास ही एक कपड़े का गीला टुकड़ा पड़ा था। उसमें भी स्याही लगी थी, जैसे अँगूठे को उससे पोंछा गया हो। शीला ने मीना का ध्यान उस तरफ खींचा। दोनों परेशान होकर बड़े भाई के पास दौड़ीं। वीरेन्द्र आये, चिथड़े को उठाकर हाथ में दबा लिया और बोले, ‘कुछ नहीं है। रात भर ज़मीन पर सोयी हैं तो अँगूठा नीला पड़ गया है। फालतू बातों में वक्त बर्बाद मत करो। आगे की तैयारी करो।’
उन्होंने अम्माँ का कपड़ा खींच कर बायाँ हाथ ढक दिया, किन्तु दोनों बहनों के मन में यह बात बराबर घुमड़ती रही। कुछ ठीक ठीक समझ में नहीं आ रहा था।
अन्ततः अम्माँ अपने घर-द्वार का मोह छोड़कर रुख़सत हो गयीं। सचमुच दुखी तो बेटियाँ ही थीं। बेटे किसी और उधेड़-बुन में लगे थे।
सभी बेटे-बेटियाँ तेरहीं तक वहाँ रहे। दोनों बहनों के ज़ेहन में लगातार अम्माँ का नीला अँगूठा कौंधता था। तीनों भाई उनसे नज़र बचाते फिरते थे। ऊपर से मिठास थी, लेकिन भीतर कुछ गड़बड़ था।
तेरहीं के दूसरे दिन तीनों भाई सकुचते हुए बहनों के पास पहुँचे। बड़े बोले, ‘छोटे ने बताया है कि उसे अम्माँ की अलमारी में वसीयतनामा मिला है जिसमें उनकी जायदाद हम तीनों भाइयों में बाँटी गयी है। हम तो चाहते थे कि उनकी जायदाद में सबका हिस्सा हो, लेकिन जैसी उनकी मर्जी। उनकी इच्छा के हिसाब से चलना पड़ेगा। हमने छोटे से कहा है कि सबको फोटोकॉपी निकाल कर दे दे। किसी को शिकायत न हो।’
बहनों ने सुना तो भौंचक्की रह गयीं। बड़ी ने पूछा, ‘कहांँ है वसीयतनामा?’
छोटे ने दूर से वसीयतनामा दिखाया, कहा, ‘यह अम्माँ का अँगूठा लगा है। दो गवाहों के दस्कत हैं।’
बड़ी ने पूछा, ‘किसके दस्कत हैं?’
जवाब मिला, ‘गनेश और पुरसोत्तम के दस्कत हैं। उनके सामने ही अँगूठा लगाया गया।’
गनेश और पुरुषोत्तम छोटे के लँगोटिया यार थे।
छोटी बहन बोली, ‘लेकिन अम्माँ तो दस्कत कर लेती थीं। फिर अँगूठा क्यों लगवाना पड़ा?’
छोटा हाथ उठाकर बोला, ‘हम बताते हैं। एक-डेढ़ महीने से अम्माँ के हाथ काँपने लगे थे। बहुत कमजोर हो गयी थीं। बर्तन उठाती थीं तो छूट जाता था। दस्कत करने में दिक्कत होती थी। इसलिए अँगूठा लगाना पड़ा।’
बड़ी बोली, ‘इन गवाहों को बुलवाओ। मुझे कुछ पूछना है।’
छोटा, ‘मैं देखता हूँ’ कहकर ग़ायब हो गया। दोनों बहने संज्ञाशून्य वहाँ बैठी रहीं। आधे घंटे बाद छोटा लौटकर बोला, ‘वे दोनों एक शादी में बाहर गये हैं। आएँगे तो मैं आपसे फोन पर बात करा दूँगा। लेकिन मैं आपको बताता हूँ कहीं कोई गड़बड़ नहीं है।’
बड़ी देर तक चुप रहने के बाद अचानक शीला बड़े भाई के सामने फट पड़ी— ‘दादा, आपने यह सब प्रपंच क्यों किया? हमें जमीन जायदाद का लालच नहीं है। आप कहते तो हम वैसे ही लिख कर दे देते।’
सुनकर बड़े भैया भिन्ना गये। क्रोध में बोले, ‘मैंने क्या किया है? मुझे तो पता भी नहीं था कि अम्माँ क्या लिख गयी हैं। मैं परपंच क्यों करूँगा? मुझ पर इलजाम लगाने की जरूरत नहीं है।’
वे फनफनाते हुए बाहर निकल गये।
शीला के पति सास की ग़मी में नहीं आ सके थे। दिल के मरीज़ थे। लेकिन फोन करके पत्नी से हालचाल ले लेते थे। उस दिन उनका फोन आया, ‘सब ठीक-ठाक निपट गया?’
उनकी पत्नी ने जवाब दिया, ‘सब ठीक से हो गया। एक अंत्येष्टि तेरह दिन पहले हुई थी, एक आज हो गयी।’
पति घबरा कर बोले, ‘कौन चला गया?’
पत्नी ने जवाब दिया, ‘कोई नहीं गया। उस दिन आदमी की अंत्येष्टि हुई थी, आज रिश्तों की हो गयी।’