(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – दहलीज।)
“उषा, उषा अरे उषा तुम कहां हो?” अचानक आई आवाज से उषा सहम गई।
सोचने लगी आज भैया मुझे क्यों इतनी जोर-जोर से आवाज देकर बुला रहे हैं ? आज तक तो ऐसे कभी घबराए हुए देखा नहीं?
“क्या मुझसे कोई गलती हुई है भैया जो आप मुझे बुला रहे हैं ?”
तभी अचानक भैया ने आकर झकझोरा- “तू ठीक है न।”
उसके बड़े भाई अनुराग ने स्वयं को संभालते हुए कहा – “नहीं नहीं कुछ नहीं?”
“सुनो तुम अपना ख्याल रखना और घर से बाहर कोई भी काम हो तो मुझे बताना। मैं तुम्हारे सारे काम कर दूंगा?”
“क्यों भैया? मैं भी तो कर सकती हूं? आज से पहले तो भैया आपने ऐसी बात नहीं की। अचानक आपको क्या हुआ?”
“तुम तो बड़ी क्लास में आ गई हो और अपनी जिम्मेदारियां को समझ जितना बोल रहा हूं उतना ही सुन कल से तुझे स्कूल भी मैं ही छोडूंगा।”
“भैया क्या मैंने दसवीं पास करके कोई गुनाह कर लिया क्या? कक्षा में सारे लोग मेरे ऊपर हसेंगे।”
“ज्यादा सवाल मत कर तू हम दोनों भाइयों के बीच में एक लाडली बहन है।”
“हां लेकिन भैयाजी छोटे को तो कुछ नहीं बोलते हो मेरे ऊपर क्यों शासन लगा रहे हो?”
“चाचा जी और उनके पड़ोस के लड़कों किसी से भी बात मत करना। उषा तुम छोटी बहन हो लेकिन मेरी बेटी जैसी हो। बाहर की दुनिया तुम नहीं समझोगी।”
अभी अभी बाहर से वह सभी देख कर आ रहा था जो वह बताने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था।
“आजकल तो ऐसा जमाना आ गया है की तेरी सहेली कविता के साथ क्या हुआ तुझे पता नहीं है आजकल तो घर में भी लोग सुरक्षित नहीं है।”
बाहर जो भी हुआ वह डरावने सपने जैसा उसकी आंखों के सामने बार-बार आ रहा था। दिनदहाड़े बीच बाजार में एक लड़की को सरेआम लूटा गया। वही देखकर उसका मन डर गया था।
“तू अपने घर की दहलीज कभी मत पर करना वह उसे लड़के को चाहती थी । किसी के ऊपर भी विश्वास और भरोसा नहीं करना चाहिए एक बात ध्यान रखना कि घर के बड़ों की बात मानना क्योंकि हम दोनों भाई हैं और हमारे घर में कोई नहीं है तुम्हारे सिवाय और तुम्हें समझाने के लिए । कभी भी अपने घर की दहलीज को मत पार करना।”
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “मौन रामलला”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 223 ☆
🌻लघुकथा🌻 🛕 मौन रामलला🛕
बरसों से अस्पताल के चक्कर महंगे ईलाज, गाँव का झाड़ फूँक, जगह-जगह देवी देवताओं की मन्नत, करते-करते वह थक चुकी थी।
शायद उसके आँसू और हृदय की वेदना को समझने के लिए, अभी रामलला मौन है। यही कहकर सविता अपने आप को धीरज बाँधती थी।
भरा- पूरा परिवार, परिवार के ताने और शायद बच्चें की किलकारी के लिए तरसती सविता। वेदना से भरी।
पतिदेव की सांत्वना सब कुछ समय आने पर ठीक होगा। हजारों की संख्या में मंदिर में आज भक्त भगवान श्री रामनवमी का महोत्सव मना रहे थे। पूजा की थाल लिए पीछे खड़ी सविता अखियाँ बंद परंतु अश्रुं की धार अविरल बह रही थी। इतनी भीड़ में भी वह अकेली शायद प्रभु भी नहीं, मौन सिर्फ मौन।
थककर वह बैठ गई। अब तो दर्शन की चाहत भी नहीं, बस समय को जाते हुए देख रही थी। अचानक दस वर्ष का बालक सविता के आँखों को पोछते गले में बाहें डाल कहने लगा— माँ जल्दी दर्शन करो रामलला दिखने लगे। वह आवाज चारों तरफ देखने लगी। आश्चर्य से न जाने कहाँ से यह बच्चा इतनी भीड़ में आ गया। पीछे पतिदेव कंधे पर हाथ रख मुस्कुराते कहने लगे सविता यह तुम्हारा मौन रामलला।
बस स्वागत करो। सविता को समझते देर ना लगी। आज पतिदेव ने जो कर दिखाया। प्रभु राम को हाथ जोड़ थाली में रखा पुष्प हार पतिदेव को पहना, माथे तिलक लगा चरणों पर गिर पड़ी।
(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे।
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “– संस्मरण… –” ।)
~ मॉरिशस से ~
☆ कथा कहानी ☆ — संस्मरण… —☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆
विश्व लेखक थामस के अद्भुत संस्मरणों की चार खंडीय नवीनतम कृति को विश्व पुरस्कार प्राप्त हो रहा था। पर कृति में उसका अपना एक भी संस्मरण नहीं था। उसने तमाम अनगढ़ लोगों से उनके संस्मरण पूछ कर अपने नाम से लिखे थे। उसने कहा उसके अपने संस्मरण न हो से वह पुरस्कार छोड़ रहा है। अपने इस सच के लिए थामस को एक विशेष पुरस्कार मिला। पुरस्कार में पैसा होने से उसने उन लोगों में बाँट दिया जिनके संस्मरण थे।
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ लघुकथा – “यह घर किसका है ?”☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
अपनी धरती, अपने लोग थे। यहां तक कि बरसों पहले छूटा हुआ घर भी वही था। वह औरत बड़ी हसरत से अपने पुरखों के मकान को देख रही थी। ईंट ईंट को, ज़र्रे ज़र्रे को आंखों ही आंखों में चूम रही थी। दुआएं मांग रही थी कि पुरखों का घर इसी तरह सीना ताने, सिर उठाये, शान से खड़ा रहे।
उसके ज़हन में घर का नक्शा एक प्रकार से खुदा हुआ था। बरसों की धूल भी उस नक्शे पर जम नहीं पाई थी। कदम कदम रखते रखते जैसे वह बरसों पहले के हालात में पहुंच गयी। यहां बच्चे किलकारियां भरते थे। किलकारियों की आवाज साफ सुनाई देने लगीं। वह भी मुस्करा दी। फिर एकाएक चीख पुकार मच उठी। जन्नत जैसा घर जहन्नुम में बदल गया। परेशान हाल औरत ने अपने कानों पर हाथ धर लिए और आसमान की ओर मुंह उठा कर बोली- “या अल्लाह रहम कर। साथ खड़ी घर की औरत ने सहम कर पूछा- क्या हुआ ?”
– “कुछ नहीं।”
– “कुछ तो है। आप फरमाइए।”
– “इस घर से बंटवारे की बदबू फिर उठ रही है। कहीं फिर नफरत की आग सुलग रही है। अफवाहों का धुआं छाया हुआ है। कभी यह घर मेरा था। एक मुसलमान औरत का। आज तुम्हारा है। कल … कल यह घर किसका होगा? इस घर में कभी हिंदू रहते हैं तो कभी मुसलमान। अंधेर साईं का, कहर खुदा का। इस घर में इंसान कब बसेंगे ???”
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम और विचारणीय लघुकथा – चाबी)
☆ लघुकथा – चाबी ☆ श्री हरभगवान चावला ☆
बरसों बाद घर का मालिक घर लौटा था। घर की इमारत खंडहर में तब्दील हो गई थी। द्वार जीर्ण-शीर्ण अवस्था में था, द्वार पर लटका ज़ंग खाया ताला बूढ़ा हो चला था। इस ताले ने बरसों अपनी बेटी चाबी के लौट आने का इन्तज़ार किया था। उसे वह क्षण कभी नहीं भूला, जब घर का मालिक उसे द्वार पर लटका, चाबी को जेब में डालकर चला गया था। लंबे इन्तज़ार के बाद ताले को लगने लगा था कि उसकी चाबी सामान की भीड़ में कहीं खो गई होगी, जैसे कोई बच्ची मेले में खो जाती है। अवसाद में डूबा ताला चाबी से मिलने की आशा छोड़ चुका था। घर के मालिक ने चाबी को दाएँ हाथ की उँगलियों में थामा।
उत्कंठित चाबी चिल्लाई – मैं आ गई हूँ मेरे प्यारे पिता!
मालिक ने बाएँ हाथ में ताले को थामा कि दाएँ हाथ में थामी चाबी से उसे खोल सके। हाथ लगते ही ताला मालिक के हाथ में आ गिरा।
चाबी बार-बार चिल्ला रही थी – मैं आ गई हूँ मेरे प्यारे पिता!
भला मर चुका ताला अपनी चाबी की बेसब्र आवाज़ को कैसे सुनता?
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा ‘चोर ओटी‘। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 150 ☆
☆ लघुकथा – चोर ओटी ! ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
वह काम के लिए निकल ही रही थी कि स्वयं सेवी संस्थावालों का फोन आया कि वे आज बेटी को ले जाने के लिए आनेवाले हैं। काम से छुट्टी तो नहीं ले सकती, पहले ही बहुत नागा हो चुका है। आँसू पोंछती हुई वह काम पर निकल पड़ी। हमेशा की तरह डॉक्टर मैडम के घर समय से पहुँच गई। उसे देखते ही मैडम बोली- “संगीता जल्दी से झाड़ू-पोंछा कर दो बहू की ‘चोर ओटी’ की रस्म करनी है। “
“चोर ओटी? यह कौन सी रस्म होती है मैडम?”
मैडम हँसते हुए बोली – “ हमारे यहाँ गर्भधारण के तीन महीने पूरे होने पर घर की औरतें गर्भवती स्त्री की गोद भरती हैं। उसके बाद ही उसके माँ बनने की खबर सबको दी जाती है। इसे ही ‘चोर ओटी’ कहते हैं। अब समझ में आया संगीता?”
संगीता के चेहरे का रंग उतर गया उसने मानों हकलाते हुए कहा- हाँ—हाँ मैडम!। उसके चेहरे पर भाव आँख-मिचौली कर रहे थे। वह सोचने लगी – मेरी बेटी के भी तो तीन महीने पूरे हो गए ——? जो भी हुआ उसमें मेरी बच्ची का क्या दोष है? कितने सपने देखे थे बेटी की शादी के लिए, एक पल में सब चकनाचूर हो गए। रोज की तरह काम करने गई थी, पीछे कौन आकर बेटी के साथ जबरदस्ती कर गया, पता ही नहीं चला।
संगीता का काम में मन ही नहीं लग रहा था। जल्दी- जल्दी काम निपटाकर वह घर की ओर चल दी। रास्ते में उसने चूड़ियाँ और श्रृंगार का सामान खरीद लिया। घर आकर एक कोने में निर्जीव सी पड़ी बेटी को उठाकर उसको चूड़ियाँ पहनाई, बाल बनाएं। लाल चुनरी उढ़ाकर, माथे पर बिंदी लगाकर अंजुलि में चावल लेकर उसकी गोद भर दी। वह अपनी बेटी को खाली हाथ कैसे जाने देगी? संगीता सितारों से उसकी गोद भर देना चाहती है। वह बेटी को छाती से चिपकाए रो रही है। बलात्कार की शिकार नाबालिग बेटी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। संगीता मन ही मन कलप रही है – काश! वह भी सबको बता सकती कि उसकी बेटी माँ बनने वाली है।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विनोदपूर्ण बाल कथा– “दौड़ता भूत”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 206 ☆
☆ बाल कथा – दौड़ता भूत☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
ऊन का गोला यहीं रखा था. कहां गया? काफी ढूंढा. इधर-उधर खुला हुआ था. उसे खींच खींचकर समेटा गया. तब पता चला कि वह ड्रम के पीछे पड़ा था.
पिंकी ने जैसे ही गोले को हाथ लगाना चाहा वह उछल पड़ी. बहुत जोर से चिल्लाई, “भूत! दौड़ता भूत.”
यह सुनते ही घर में हलचल हो गई. एक चूहा दौड़ता हुआ भागा. वह पिंकी के पैर पर चढ़ा. वह दोबारा चिल्लाई, “भूत !”
दादी पास ही खड़ी थी. उन्होंने कहा, “भूत नहीं चूहा है.”
“मगर वह देखिए. ऊन का गोला दौड़ रहा है.”
तब दादी बोली, “डरती क्यों हो? मैं पकड़ती हूं उसे, ” कहते हुए दादी लपकी.
ऊन का गोला तुरंत चल दिया. दादी झूकी थी. डर कर फिसल गई.
पिंकी ने दादी को उठाया. दादी कुछ संभली. तब तक राहुल आ गया था. वह दौड़ कर गोले के पास गया.
राहुल को पास आता देख कर गोला फिर उछला. राहुल डर गया, “लगता है गोले में मेंढक का भूत आ गया है.”
तब तक पापा अंदर आ चुके थे. उन्हों ने गोला पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया. गोला झट से पीछे खिसक गया.
“अरे यह तो खिसकता हुआ भूत है,” कहते हुए पापा ने गोला पकड़ लिया.
अब उन्होंने काले धागे को पकड़कर बाहर खींचा, “यह देखो गोले में भूत!” कहते हुए पापा ने काला धागा बाहर खींच लिया.
सभी ने देखा कि पापा के हाथ में चूहे का बच्चा उल्टा लटका हुआ था.
फुलवा बैगा जनजाति से संबंध रखती थी। गर्भवती फुलवा का आठवाँ महीना शुरू हो चुका था।
पति मायो ने उसे साप्ताहिक बाजार में, साथ चलने के लिए कहा जो सात किलोमीटर दूर था। उन्हें जरूरत की लगभग सभी चीजें खरीदने बाजार जाना पड़ता था। उन्होंने आधा किलोमीटर पैदल चलकर एक ऑटो लिया।
सौदा सुलुफ खरीदने के बाद मायो ने देखा हल्की रिमझिम तेज बारिश में बदल गई। उन्होंने बहुत इन्तजार किया। टाइम पास के लिये भजिए और रंगीन जलेबी खाई।
अंधेरा घिरने लगा था बारिश में पहाड़ और जंगल का मौसम डराने लगता है। हल्की सी कालिमा और हवाओं के थपेड़े—जब लोगों का शोर थम जाता है तो जंगल बोलना शुरू कर देता है। फिर उसकी भाषा समझना आसान नहीं होता।
घर लौटना जरूरी था। जरा सी बारिश थमी तो उन्होंने एक ऑटोवाले को तैयार किया और चल पड़े। बीच में एक नाला पड़ता था। पुल पर से पानी बह रहा था अतः ऑटोवाले ने आगे जाने से इंकार कर दिया।
मायो फुलवा से बोला चल- इतना पानी तो हम पार कर लेंगे। पुल के बीच में पहुँचते ही, दोनों कुछ संभल पाते उससे पहले, पहाड़ों से होता हुआ पानी का जोरदार रेला आया और दोनों को बहा ले गया।
सुबह परिजन खोजने निकले तो बहुत दूर मायो जंगली झाड़ियों में फँसा पड़ा था। उसे निकाला गया।फुलवा की खोज शुरू हुई। पुलिस ने मृत फुलवा के शरीर को पोस्टमार्टम के लिये भेजा।
घर में शोक पसरा हुआ था ।मायो की माँ को लोग सांत्वना देने आने लगे —
बेचारी बहू भी गई और बच्चा भी। बहुत बुरा हुआ।
मालूम हुआ – पेट में लड़की तो थी – मायो की माँ बोली।
(वरिष्ठ साहित्यकारडॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा – “मंदाकिनी… “।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 15 ☆
लघुकथा – मंदाकिनी… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆
मंदाकिनी को पूरा अहसास है कि कभी भी बुलावा आ सकता है। फिर भी चेहरे पर मुस्कराहट हमेशा की तरह विराजमान। बस बातें करती जा रही है जैसे कुछ अटका हुआ है और वह उससे मुक्ति पाना चाहती हो। अपनी एक मित्र सुस्मिता के बारे में बता रही है। बहुत बीमार थी। हृदयाघात का झटका पड़ा था। ऑक्सीजन लगी हुई थी परंतु सोमनाथ यानी कि उसके पतिदेव उसे बहुत उल्टा सुल्टा सुनाये जा रहे थे। झगड़ा तो होता रहता था उनमें परंतु समय का भी लिहाज नहीं। जैसे झगड़ा सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हो, बीमारी से, उच्च रक्तचाप से और हृदयाघात से भी। यही नहीं दोनों एक दूसरे पर लांछन लगाने से पीछे नहीं हटते थे चाहे डॉक्टर नर्स आकर बार बार चेतावनी देते देते खुद परेशान क्यों न हो जाएं।
हंसते से बोली, और वह सुस्मिता, वह तो मुंह से ऑक्सीजन हटा कर सोमनाथ को दांत पीसते कहने लगी कि तुम नाली के कीड़े हो, तुमसे तो कुत्ता भी अच्छा है, खाकर दुम तो हिलाता है। तुम तो खाकर खाने को दौड़ते हो। मैंने उसे बिस्तर पर लिटाते हुए आराम करने के लिए कहा तो वह और सुनाने लगी- अरे दीदी तुम इस आदमी को नहीं जानती। इसके अंदर कितना विष भरा है, कितनी जलन भरी है। यह किसी की सफलता से खुश नहीं होता, न हो सकता है। किसी की तारीफ तो मानो इसके कानों को पिघले सीसे के समान लगती है। बस सब इसकी तारीफ करें। यह छींके भी तो लोग कहें कि वाह क्या छींक है तो यह अपनी छींक से भी खुश होता है लेकिन तारीफ करने वाले से खुश नहीं होता। और मेरी सफलता या तारीफ तो इसे ऐसी लगती है जैसे , जैसे और जब वह कहते कहते हांफने लगी तो मैंने जबरदस्ती उसके मुंह पर ऑक्सीजन मास्क लगा दिया।
सुस्मिता शांत लेट गई। उसकी सांस सहज होती जा रही थी और सोमनाथ कमरे से बाहर निकल कर बरामदे में टहलने का उपक्रम करने लगे। सुस्मिता शांत लेटी थी पर मेरे ख्यालों में बोले जा रही थी, अरे दीदी इस आदमी की क्या बताऊं, इसकी मरजी या पसंद वाला कोई नेता बड़ा मंत्री या मुख्यमंत्री नहीं बन पाता, कोई और बन जाता है तो वह इसका ऐसा जानी दुश्मन बन जाता है कि उसका नाम तक सुनना पसंद नहीं करता यह जबकि किसी भी नेता से इसका दूर दूर का कोई संबंध नहीं होता। न कभी मिला किसी से और न इसे कोई पूछता है, यह न किसी राजनीतिक दल में है, न कार्यकर्ता है, न किसी नेता से कभी मिला न कोई मतलब, फिर भी अपनी पसंद। और जो घर में है, ऑफिस में हैं उनसे भी यही आशा कि या तो इसकी तारीफ करें या इसकी पसंद के लोगों की। यह कभी ऐसा तो सोचता ही नहीं कि और लोगों की अपनी पसंद नापसंदगी होती है। यह मामूली आदमी मेरी और घर की चिंता छोड़ जब अपने पसंदीदा नेता की बेमतलब चिंता करता है तो मेरे तन बदन में आग लग जाती है। घर संभलता नहीं, देश संभालने की बात करता है।
अपने संस्मरण सुनाते सुनाते मंदाकिनी थकान सी महसूस करने लगी और उसकी आवाज़ धीमी से धीमी होने लगी। मुझे लगा उसे नींद आने लगी है। नींद में फुसफुसाने लगी अब आगे कल बताऊंगी भाईसाहब। और उसकी कल, नींद खुलने पर ही हो जाती है। मैं इसी सोच में डूबा हुआ हूं कि मंदाकिनी इतनी गंभीर कवयित्री, लेखिका इतना लिखने के बावजूद हृदय में कितना अंबार लिए हुए है। हर किसी की पीड़ा को अपनी समझ कर जीती है और परेशान रहती है। स्वार्थ तो उसे छू भी नहीं गया। औरों की पीड़ा सहते सहते अपनी पीड़ा से तो जैसे कोई सरोकार ही नहीं। और इसीलिए विवाह का सोचा तक नहीं। मां बाप जब तक जीवित रहे उनकी सेवा करती रही। भाई कोई था नहीं। एक बहन थी सो ब्याह करके अपनी दुनिया में बस गई। अपनी बीमारी की बात भी उसने किसी को नहीं बताई। मुझे भी कहां बताया। मैं अपने एक मित्र को देखने आया था, तब उसका कमरा खुला था सो मैंने देख लिया। अंदर जाकर देखा तो आंख मिलाने से कतरा रही थी। मुझे भी, … मेरे मुंह से इतना ही निकला तो उसकी आंख से एक आंसू ढुलक गया। भाभी को नाहक तकलीफ होती इसीलिए…. और वाक्य अधूरा छोड़ दिया। मैं गुस्से में मुंह फुलाकर स्टूल पर बैठा रहा कुछ बोला नहीं। धीरे से बोली अच्छा होता मुझे आप यहां देख ही न पाते। मेरी आंखों में आंसू तैर रहे थे पर बड़ी मुश्किल से रोक पा रहा था। आखिर उसका था कौन, भाई, मित्र, पिता, माता सब मिलकर एक मैं। डॉक्टर से पता चल गया था कि लास्ट स्टेज का कैंसर है। पर उसने मुझे अहसास तक नहीं होने दिया। भाई साहब होनी को कोई टाल नहीं सकता। आप मेरी बात सुन लीजिए, वही आपका आखरी अहसान होगा। मैंने सहमति सूचक निगाह से देखा तो सुनाने लगी, वो मेरी एक सहेली सुष्मिता, आप नहीं जानते, उसकी बहुत याद आ रही है। मैंने कहा जिसकी कहानी तुम कल सुना रही थी।
वह कहानी नहीं भाईसाहब, मनुष्य जीवन का एक ऐसा हिस्सा है जिसे मैं शब्द ही नहीं दे पाई। उसके पति और उसके बीच के संबंध की एक बानगी कल आपको सुनाई थी। मेरी हैरानी की बात यह है कि सुस्मिता उसके साथ रह कैसे रही है, कहती है पति को प्यार भी करती है। क्या स्त्री पुरुष के साथ रहने की विवशता को प्यार की संज्ञा दी जा सकती है। थोड़ी देर कुछ नहीं बोली तो मेरा ध्यान उसकी ओर गया तो देखा कि पंखे को घूर रही है। पर वह है कहां?
निर्जीव आंखें हैं। मैं सोच रहा हूं कि वास्तव में औरों के लिए जिया जा सकता है।
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – परवाह का रंग।)
“अरे तुमने सुना कमला वो तुम्हारे पड़ोसी सोनी जी का बेटा विदेश जा रहा है? माँ बाप को वृद्धाश्रम भेजकर। कितना आज्ञाकारी बनता था, भाई ऐसी औलाद से तो ईश्वर बच्चा ही न दे।” एक सांस में पूरी खबर सुना दी रेखा भाभी ने कमला को।
कमला धीरे से बोली – “आपको किसने कहा? किससे पता चली ये बात?”
“बस तुम्हें ही खबर नहीं, सारा मोहल्ला थू -थू कर रहा है अभी तो सुनकर आ रही हूँ।”
“भाभी सुनी हुई बात हमेशा सच हो जरूरी नहीं! अभी थोड़ी देर पहले फोन पर आंटी से मेरी बात हुई है। उन्होंने बताया कि उनका बेटा ट्रेनिंग के लिए विदेश जा रहा है। अपनी बिटिया के पास रहने के लिए जा रही हैं। आप स्वयं समझदार हैं? आपकी बहू और बेटे के बारे में भी तो लोग जाने क्या क्या कहते हैं…। अफवाहों पर यकीन ना करें तो अच्छा रहेगा बाकी आप स्वयं सोच लो…।”
“अच्छा चलो! यह सब बात छोड़ देते हैं। कमला एक कप चाय तो पिला दो। क्या करूँ ? आदत से मजबूर हूँ। लेकिन तुमने बहुत अच्छी बात कही अब मैं अपने घर परिवार के रिश्ते को मजबूत करूंगी। जा रही हूँ कमला। बहू के घर के कामों में उसकी मदद करती हूं। तभी तो परवाह का रंग चढ़ेगा।”