हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 44 – सोने के खेत…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – सोने के खेत।)

☆ लघुकथा # 44 – सोने के खेत श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

रामकिशोर ने अपनी पत्नी आशा से कहा-  इस बार हमारे खेत में गेहूं की फसल बहुत अच्छी हुई है।  भाग्यवान हमारे खेतों में सोना उगले है।

हम सभी की सारी इच्छाएं पूरी हो जाएगी तुम सब के लिए मैं बाजार से अच्छे-अच्छे कपड़े लेकर आऊंगा। बेटे की  कॉलेज की फीस अच्छे से भर सकेंगें। किसी से कर्ज भी नहीं लेना पड़ेगा।

जो भी तुम सामान खरीदना चाहोगी,मुझे बता दो मैं शहर से लेता आऊंगा। हरि शंकर के साथ ट्रैक्टर में अपनी सारी फसलें लादकर जा रहा हूं, शाम को तो मेरा इंतजार करना।

तुम्हारे लिए मैं शाम को चांदी की पायल लेकर आऊंगा और तुम छम छम कर कर मेरे लिए खेतों में रोटी लेकर आना।

पत्नी ने कहा मजाक मत करो।

तुम बस शहर से मेरे लिए एक सुंदर सी साड़ी ले आना।

रामकिशोर और हरिशंकर दोनों फसल बेचने के लिए मंडी में पहुंचते हैं।

फसल खरीदने के लिए कोई भी व्यापारी नहीं दिख रहे हैं।

फसल बेचने के लिए मंडी में कम से कम 100 लोगों की कतार लगी है।

उसने एक आदमी से पूछा की भैया इतनी भीड़ क्यों है और फसल खरीदने के लिए कोई व्यापारी नहीं दिख रहा है।

उस अनजान व्यक्ति ने कहा कि भैया मैं भी किसान हूं और अपनी फसल को अब लेकर घर की ओर जा रहा हूं और तुम भी चले जाओ यहां पर यह लोग कह रहे हैं ,कि अभी सरकार हमारा गेहूं नहीं खरीदेगी। अनाज की कीमतें तय होने के बाद ही व्यापारी और सरकारी आदमी अनाज खरीदेंगे।

इतना सुनते ही रामकिशोर हाथ पैर सुन्न पड़ गए और उसने  हरिशंकर से कहा-अब क्या होगा तुम्हारी ट्रैक्टर का में किराया कैसे दूंगा ?

ये 50 बोरे गेहूं लेकर कहां जाऊं।  इसी से मेरे घर का खर्च चलता…।

सारी उम्मीदें थी …।

उसकी आंखों के सामने अंधेरा सा छा गया और वह सोचने लगा कि मैं अपने खेत को सोना बोलता हूं पर क्या करूं जाने कब हरि की कृपा दृष्टि होगी लेकिन अब लगता है कि सरकार की कृपा दृष्टि का इंतजार मेरे खेतों को भी करना पड़ेगा और मुझे भी…।

यह सोचते सोचते उसकी आंखों के सामने अंधेरा छा जाता है और वह मूर्छित गिर पड़ता है।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 261 ☆ कथा-कहानी – कवच ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम विचारणीय व्यंग्य – ‘जीवन और भोजन। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 261 ☆

☆ कथा-कहानी ☆ कवच

बस-स्टैंड रात भर सोता नहीं। सब तरफ लगी तेज़ ट्यूबलाइट के बीच बसों के हॉर्न और यात्रियों की भाग-दौड़ गूंजती रहती है। पान की दुकानों पर लोगों के गुच्छे इकट्ठे होते और बिखरते रहते हैं। बीच-बीच में किसी बददिमाग़ आदमी से पुलिस वाले का संवाद सुनाई पड़ता है। कभी दो आदमियों या दो गुटों के बीच उठा-पटक हो जाती है, और कुछ देर के लिए वहां सोते या ऊंघते लोगों की नींद भाग जाती है।

बस-स्टैंड पर भैयालाल की चाय की दुकान रात बारह  एक बजे तक चलती है। फिर मुंह-अंधेरे ही वह हरकत में आ जाती है। भैयालाल दुकान के दोनों  छोकरों को जगा कर सरंजाम देखता घूमने लगता है। ज़्यादातर वक्त गुल्लक के बाजू में जमे रहने की वजह से उसकी  तोंद खासी बढ़कर झूलती रहती है। दुकान के खुलते ही बसों के कर्मचारी, मुसाफिर-खाने में इन्तज़ार करते यात्री और बस-स्टैंड को ही अपना घर मानने के लिए मजबूर लोग सवेरे की नींद भगाने वाले कप के लिए इकट्ठे होने लगते हैं।

और थोड़ा दिन फूटते ही दूर सड़क के किनारे लोकनाथ आता दिखायी पड़ता है, हमेशा की तरह झटका खाकर चलता हुआ और दाहिने पांव को थोड़ा  घसीटता हुआ। सवेरे बस-स्टैंड पहुंचने के बाद शाम की रोशनियां  जलने पर  ही उसका लौटना होता है। दोपहर के खाने के लिए वह रोटियों का थैला अपने साथ लाता है, जिसे वह पुरस्वानी बस सर्विस के केबिन में रख देता है।

लोकनाथ का काम यहां घूम-घूम कर विभिन्न प्राइवेट बसों के यात्रियों के लिए पुकार लगाते रहना है। वह चिल्ला-चिल्ला कर यात्रियों को विभिन्न मार्गो की तैयार बसों की सूचना और उन्हें अपनी अपनी बसों में बैठने की हिदायत देता रहता है। इस काम के लिए उसे मालिकों से रोज़ शाम को कुछ पैसे मिल जाते हैं।

इससे ज़्यादा कठिन काम के काबिल लोकनाथ नहीं है। कभी वह प्राइवेट बसों पर कुली का काम करता था। तब उसका काम सामान को रिक्शा-स्टैंड से लाकर बसों में चढ़ाने और बसों से उतार कर रिक्शा-स्टैंड तक ले जाने का था। तब वह अच्छी कमाई कर लेता था। एक दिन एक बस की छत से एक यात्री की छोड़ी हुई भारी भरकम पेटी उसके हाथों से चलती हुई उसकी टांग पर गिरी, और उसके घुटने के नीचे फ्रैक्चर हो गया। डॉक्टर ने डेढ़ महीने का प्लास्टर चढ़ाया और उसके बाद जांच कराने और एक्स-रे कराने को कहा। इतने में ही लोकनाथ की सब जमा-पूंजी खर्च हो गयी। पचीस दिन घर में पड़े रहने के बाद उसने हंसिया उठाकर प्लास्टर फाड़ डाला और वापस बस-स्टैंड पर आ गया। उसके बाद वह कोई भारी वज़न उठाने के काबिल नहीं रहा।

बस-स्टैंड तक पहुंचने के लिए लोकनाथ को करीब तीन किलोमीटर चलना पड़ता है। ट्रस्ट की ज़मीन में उगी झोपड़पट्टी में एक खोली उसकी भी है। पूरी झोपड़पट्टी पांच छः बार उजड़ चुकी है, लेकिन वह हर बार रक्तबीज की तरह वापस पैदा हो जाती है। जब नगर निगम के कर्मचारी और पुलिस वाले उसके घोंसले के तिनकों को खींच- खींच कर इधर-उधर फेंकते हैं तब वह बैठा तटस्थ भाव से देखता रहता है। जब यह फौज अपने ताम- झाम के साथ लौट जाती है तब वह अपनी पत्नी की तरफ मुड़ता है, जो ऐसे वक्त हमेशा बाहों में मुंह देकर आंसू बहाने के लिए बैठ जाती है। वह उसकी बांह पकड़कर उसे उठाता है और फिर से तिनके जमाने में लग जाता है।

लोकनाथ के तीन बेटों में से दो शादी करके उससे अलग हो चुके हैं। बहुएं बेहतर ज़िन्दगी की आकांक्षी हैं और इसीलिए वे बूढ़े सास- ससुर का बोझ ढोना नहीं चाहतीं। पंद्रह साल का छोटा बेटा स्कूल में पढ़ता है, लेकिन वह कितना पढ़ता है इसकी जानकारी हासिल करने की फुरसत लोकनाथ को नहीं है। बेटे की ज़्यादा दिलचस्पी फैशन के कपड़ों और सिनेमा में है। अपनी तरफ से वह अपने को फिल्मी हीरो बनाए रखने में कसर नहीं छोड़ता। अपनी नयी-नयी ज़रूरतों को लेकर उसकी रोज़ ही मां-बाप से किचकिच होती रहती है। लोकनाथ के मन में कहीं है कि यह लड़का भी बुढ़ापे में उसका साथ नहीं देगा, लेकिन वह इस आशंका को दिमाग में बैठने नहीं देता, न ही उसे पत्नी के सामने प्रकट करता है।

पास ही रघुबर की खोली है। रघुबर भीतर से कमज़ोर, जल्दी परेशान हो जाने वाला आदमी है। पुलिस और निगम के अमले को देखकर उसकी तबीयत बिगड़ने लगती है। शाम को अक्सर वह अपने भय और अपनी आशंकाओं को लेकर लोकनाथ के पास आकर बैठ जाता है। कहीं यह हो गया तो? कहीं वह हो गया तो? कई बार उसे भय होता है कि ट्रस्ट इस ज़मीन को किसी को बेच देगा और फिर उन्हें सिर छिपाने के लिए कोई नई जगह तलाशनी होगी।

लोकनाथ उससे कहता है, ‘ए भाई, तू अपने साथ-साथ मुझे कमजोर मत बना। अभी की सोच और अभी का इंतजाम कर। कल जो होगा उसका भी कुछ इंतजाम करेंगे। तू तो फालतू बातें सोच-सोच कर सूख ही रहा है, मुझे भी सुखाएगा। शरीर में बल तो रहा नहीं, मन का बल बचा रहने दे। यह भी टूट गया तो कुछ भी करने लायक नहीं रहेंगे।’

रघुबर सहमति में सिर तो हिलाता है, लेकिन उसकी आंखों में कोई चमक नहीं आती।

लोकनाथ कहता है, ‘देख भाई, सब चीजें मेरे तेरे खिलाफ हैं। न सरकार हमारी तरफ है, न पुलिस, न अफसर बाबू। सब रास्ते बन्द हैं। पैसे वालों की तरफ सब हैं। हवा ऐसी है कि हमारी सन्तान भी हमारी नहीं रह पाती। बड़े लोगों की दुनिया की चमक-दमक उन्हें भी हमसे खींच लेती है। वे भी इस नरक से छुटकारा चाहते हैं। इसलिए मन को मजबूत रखो और हालात का मुकाबला करो। चिन्ता करने से कोई फायदा नहीं।’

आज सवेरे जब लोकनाथ बस-स्टैंड पहुंचा तो वह हमेशा की तरह सीधे भैयालाल की दुकान पर रुका। बाहर पड़ी बेंच पर बैठकर बोला, ‘गुड मॉर्निंग, सेठ।’

भैयालाल का थोबड़ा उसे देखकर लटक गया। वह कुछ भुनभुना कर चुप हो गया।

लोकनाथ ने आवाज़ दी, ‘फटाफट चाय ला, छोकरे। एकदम गरम। फस्ट क्लास।’

भीतर से भैयालाल गुर्राया, ‘पैसे लाया है या मुफ्त में चाय पीने आया है?’

लोकनाथ गर्दन अकड़ा कर बोला, ‘ओ! एकदम कैश। हमको फटीचर समझता है? कह तो दस बीस हजार रुपया दे दूं।’

सेठ फिर भुन्नाया बोला, ‘रहने दे, रईस की औलाद।’

छोकरा चाय ले आया। लोकनाथ गुनगुनाता हुआ चाय पीता रहा। फिर उठकर उसने भैयालाल के सामने पांच रुपये फेंके, बोला, ‘ले पैसे। तू भी क्या याद करेगा।’

भैयालाल बोला, ‘और पिछले तीस रुपये?’

लोकनाथ बोला, ‘वे भी मिल जाएंगे। मुझे एक जायदाद मिलने वाली है। मिलते ही तुझे तीस की जगह तीन  सौ दे दूंगा। फिकर मत कर। तू मर जाएगा तो तेरे चीटके पर रुपये रख दूंगा और तुझे डाक से खबर कर दूंगा। नहीं दूंगा तो तू भूत बनकर रोज मेरे पास तीस रुपये वसूलने आएगा।’

भैयालाल फिर भुनभुनाने लगा और लोकनाथ उठकर इधर-उधर घूमता हुआ आवाज़ें लगाने लगा।

शाम को जब वह पैसे मांगने बसों के मैनेजरों के पास पहुंचता है तो वे भी झिकझिक करने से बाज़ नहीं आते। अक्सर कहते, ‘आज तूने हमारी बस के लिए कम आवाज लगायी। हमें तो तेरी आवाज सुनायी ही नहीं पड़ी। आज तू आया कब था, हमें तो कुछ पता ही नहीं चला।’

जवाब में लोकनाथ कहता है, ‘आप यहां एक रिकार्डर लगवा दो। शाम को रिकार्डर चला कर सबूत ले लिया करो। मैं रोज-रोज कहां तक सबूत दूं ?’

पैसे वसूल कर वह लंगड़ाता हुआ घर की तरफ चल दिया। करीब एक घंटे में वह उस इलाके में पहुंच गया जहां रोशनी के नाम पर असंख्य ढिबरियां टिमटिमाती थीं। ढिबरियों की रोशनी पर हावी अंधेरे के बीच लोगों के खांसने, रोने, हंसने, चीखने और लड़ने की आवाज़ें गूंजती थीं। कई तरफ से टीन के डिब्बों पर ताल देकर गाने के स्वर उठ रहे थे। दूर से वह किसी प्रेत-नगरी का भ्रम देती थी, सिर्फ आवाज़ों की नगरी।

लोकनाथ अपनी खोली के सामने पहुंचा तो उसने पत्नी को बाहर बैठे पाया। उसे देखकर बोली, ‘छुटका सवेरे का निकला अभी तक नहीं आया। दोपहर को रोटी भी नहीं खायी। जाने कहां चला गया मरा।’

लोकनाथ भीतर घुसता हुआ बोला, ‘तू मुझे रोटी दे। बहुत थक गया हूं ।’

रोटी खाकर वह ज़मीन पर बिछे बिस्तर पर कुहनी के बल उठंगकर बीड़ी पीने लगा। पत्नी खाना ढककर उसके पास आकर बैठ गयी, बोली, ‘तुम कैसे बाप हो? लड़का दिन भर जाने कहां घूमता रहता है और तुम कुछ फिकर नहीं करते?’

लोकनाथ बोला, ‘मैं सब सोचता हूं और सब फिकर करता हूं। मैं वह भी सोचता हूं जो तू नहीं सोचती। बहुत फिकर करके मुझे जल्दी मरना नहीं है। लोग यही तो चाहते हैं कि  तेरे-मेरे जैसे लोग फिकर में घुलें और जल्दी खतम हों। तू जाकर रोटी खा ले और सो जा। उसके लिए ढककर रख दें। जब आएगा तब खा लेगा।’

इसके बाद वह करवट बदलकर सो गया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – जीने की राह… ☆ सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा ☆

सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा

(सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार सुश्री नरेन्द्र कौर छाबड़ा जी पिछले 40 वर्षों से अधिक समय से लेखन में सक्रिय। 5 कहानी संग्रह, 1 लेख संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 पंजाबी कथा संग्रह तथा 1 तमिल में अनुवादित कथा संग्रह। कुल 9 पुस्तकें प्रकाशित।  पहली पुस्तक मेरी प्रतिनिधि कहानियाँ को केंद्रीय निदेशालय का हिंदीतर भाषी पुरस्कार। एक और गांधारी तथा प्रतिबिंब कहानी संग्रह को महाराष्ट्र हिन्दी साहित्य अकादमी का मुंशी प्रेमचंद पुरस्कार 2008 तथा २०१७। प्रासंगिक प्रसंग पुस्तक को महाराष्ट्र अकादमी का काका कलेलकर पुरुसकर 2013 लेखन में अनेकानेक पुरस्कार। आकाशवाणी से पिछले 35 वर्षों से रचनाओं का प्रसारण। लेखन के साथ चित्रकारी, समाजसेवा में भी सक्रिय । महाराष्ट्र बोर्ड की 10वीं कक्षा की हिन्दी लोकभरती पुस्तक में 2 लघुकथाएं शामिल 2018)

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा जीने की राह

? लघुकथा – जीने की राह ? सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा ?

9:25 की लोकल में आशा के विपरीत अमन को सीट मिल गई. वह बैठा ही था कि ताली पीटते हुए किन्नर रेशमा उसके सम्मुख आन खड़ी हुई- “क्या बात है अमन बाबू..  तीन-चार दिनों से दिखाई नहीं दिए… ”

“ हां, सर्दी बुखार हो गया था. वर्क फ्रॉम होम ही करता रहा. आप कैसे हो ?” अमन ने हमेशा की तरह अपनत्व जताते हुए कहा.

“ अच्छे हैं. आपको अच्छी खबर देनी थी इसलिए रोजाना आपका इंतजार करती रही….  ” रेशमा के चेहरे पर मुस्कुराहट भरी चमक उभर आई.

“हां बोलो ना… ” अमन के कहते ही वह उत्साहित हो बताने लगी- “आप हमेशा कहते थे ना कोई काम करो तो हमें काम मिल गया है. मैंने और कुसुम ने मिलकर चाय का ठेला लगा लिया है हम दोनों मिलकर चाय बनाते हैं मसाले वाली. शुरू में कुछ दिक्कतें आईं. लोग कन्नी काट निकल जाते थे. फिर धीरे-धीरे सब ठीक हो गया. अब तो हमारी चाय को लोग बहुत पसंद कर रहे हैं. अच्छी बिक्री हो रही है. अब फुटपाथ, लोकल, रिक्शे की सवारियों को रोक कर पैसे मांगने का धंधा छोड़ दिया. बहुत जी ली लोगों की फटकार. ताने, मजाक, अश्लील इशारों से भरी जिल्लत भरी जिंदगी. अब किसी के आगे हाथ नहीं फैलाएंगे….. ” कहते रहते उसके चेहरे पर स्वाभिमान के भाव आ गए थे.

“ यह तो सचमुच बहुत खुशी की बात है… ” अमन ने 50 का नोट पर्स से निकाला तो रेशमा फ़ौरन बोली – “ बस अमन बाबू, आपने मेरी जो मदद की, मुझे जीने की राह दिखाई, सहयोग दिया वह कभी नहीं भूल सकती. इसी लोकल में हर व्यक्ति हमारी तरफ हिकारत से देखता था मानो हम इंसान ही नहीं. प्रकृति ने हमारे साथ अन्याय किया यह हमारा दोष तो नहीं ना ! पर आप सबसे अलग हो. हमारे दर्द को जाना, हमारी भावनाओं को समझा, हमें हमेशा कुछ मिनट का ही सही वक्त दिया, बातचीत की. एक दोस्त की तरह हमें समझाया, आर्थिक सहयोग दिया. मैंने तो यहां तक सुना मुझसे जब आप बातें करते थे लोग कहते थे – “ किसको मुंह लगा रहे हो ? तुम्हें नहीं पता ये लोग तुम्हारे पीछे ही पड़ जाएंगे..  ” कितनी हिकारत से हमें देखते थे. आप केवल मुस्कुरा देते थे.

फिर एक दिन आपने कह दिया था – “ वे भी तो इंसान हैं. क्या उन्हें इतना भी अधिकार नहीं कि हम लोगों से बातचीत कर सकें… अपने कुछ दर्द, परेशानियां हमें सुना कर अगर वे हल्कापन महसूस करते हैं तो उसमें क्या आपत्ति है… ? दस, बीस, पच्चीस, पचास रुपए उन्हें देने से हम गरीब तो नहीं हो जाएंगे. उनके पास आय का जरिया ही कहां है..  ? समाज को उनके बारे में भी तो सोचना चाहिए… ”  आपकी बातों का असर यह हुआ कि अब लोगों ने हिकारत से देखना छोड़ दिया था और हमारी आय भी बढ़ गई. फिर कुसुम के साथ सलाह की और चाय का ठेला लगाने की योजना बना ली. वह भी इस जिल्लत भरी जिंदगी से बहुत दुखी थी. हम दोनों बहुत खुश हैं… ”

अमन ने 50 का नोट उसके हाथ में थमाया – “ इसे रखो, तुम्हारी दुकान के लिए शगुन है. और हां, जब भी समय मिला मैं चाय पीने जरूर आऊंगा….  ” रेशमा ने अमन के सिर पर हाथ रख आशीर्वादों की झड़ी लगा दी. वह नखशिख तक उन दुआओं में भीगता रहा तृप्त होता रहा.

© नरेन्द्र कौर छाबड़ा

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 145 ☆ लघुकथा – दौड़ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘पर्दा। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 145 ☆

☆ लघुकथा – दौड़ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

कामवाली बाई अंजू ने फ्लैट में अंदर आते ही देखा कि कमरे में एक बड़ी – सी मशीन रखी है। ‘ दीदी के घर में रोज नई- नई चीजें ऑनलाईन आवत रहत हैं। अब ई कइसी मशीन है? ‘ उसने मन में सोचा। तभी उसने देखा कि साहब आए और उस मशीन पर दौड़ने लगे। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। सड़क पर तो सुबह – सुबह दौड़ते देखा है लोगों को लेकिन बंद कमरे में मशीन पर? साहब से तो कुछ पूछ नहीं सकती। वह चुपचाप झाड़ू –पोंछा करती रही पर कभी – कभी उत्सुकतावश नजर बचाकर उस ओर देख भी लेती थी। साहब तो मशीन पर दौड़े ही जा रहे हैं? खैर छोड़ो, वह रसोई में जाकर बर्तन माँजने लगी। दीदी जी जल्दी – जल्दी साहब के लिए नाश्ता बना रही थीं। साहब उस मशीन पर दौड़ने के बाद नहाने चले गए। दीदी जी ने खाने की मेज पर साहब का खाना रख दिया। साहब ने खाना खाया और ऑफिस चले गए।

अरे! ई का? अब दीदी जी उस मशीन पर दौड़ने लगीं। अब तो उससे रहा ही नहीं गया। जल्दी से अपनी मालकिन दीदी के पास जाकर बोली – ‘ए दीदी! ई मशीन पर काहे दौड़त हो? ‘

‘काहे मतलब? यह दौड़ने के लिए ही है, ट्रेडमिल कहते हैं इसको। देख ना मेरा पेट कितना निकल आया है। कितनी डायटिंग करती हूँ पर ना तो वजन कम होता है और ना यह पेट। इस मशीन पर चलने से पेट कम हो जाएगा तो फिगर अच्छा लगेगा ना मेरा’ – दीदी हँसते हुए बोली।

‘पेट कम करे खातिर मशीन पर दौड़त हो? ’ — वह आश्चर्य से बोली। ना जाने क्या सोच अचानक खिलखिला पड़ी। फिर अपने को थोड़ा संभालकर बोली – ‘दीदी ! कइसा है ना! आप लोगन पेट घटाए के लिए मशीन पर दौड़त हो और हम गरीब पेट पाले के खातिर आप जइसन के घर रात- दिन दौड़त रह जात हैं। एक घर से दूसरे घर, एक बिल्डिंग से दूसरी बिल्डिंग —- ‘

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #189 – कहानी- मित्र की सरलता – ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय कहानी – “मित्र की सरलता) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 189 ☆

कहानी- मित्र की सरलता ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

राहुल व देवांश सड़क पर खड़े बातें कर रहे थे। तभी एक मोटरसाइकिल आकर उनके पास रूकी।

“क्यों रे! अपने आप को बहुत होशियार समझता है,” जैसे ही मोटरसाइकिल पर सवार रघु ने कहा तो राहुल उसे देख कर चौंक गया।

“क..क.. क्या?” उसके मुंह से आवाज नहीं निकल रही थी। वह डर गया था। रघुवीर उर्फ रघु उसके स्कूल का दादा था। उसकी एक गैंग थी। वह सभी पर रौब जमाता था। इसलिए सभी उससे डरते थे।

“ज्यादा होशियार बनता है क्यों?” उसने आंखें तरेर कर कहा, “यदि मैं तेरी कॉपी से जरा सा देख लेता तो तेरा बाप का क्या बिगड़ जाता? तेरी परीक्षा थोड़ी ही रुक जाती।” उसने राहुल को घुरा।

जैसे ही रघु ने यह कहा देवांश को सब माजरा समझ में आ गया। राहुल ने परीक्षा में रघु को नकल नहीं करने दी थी इस कारण वह भड़का हुआ था। उसने जब देखा राहुल कुछ नहीं बोल पा रहा है तो रघु को ओर भी तेज गुस्सा आ गया।

“अरे! बोलता क्यों नहीं? सांप सूंघ गया है क्या?”

“वो.. वो सर देख लेते!”

“सर देख लेते,” रघु ने चिढ़कर कहा, “सर की इतनी हिम्मत, मेरे सामने मैं कुछ बोलते,” कहते हुए रघु ने राहुल के सिर पर एक चपत जमा दी, “साला! साणा बनता है।”

यह देखकर देवांश को बहुत बुरा लगा। वह अपने मामाजी के यहां गांव में आया हुआ था। इसलिए वह समझ गया कि रघु की दादागिरी स्कूल के साथ-साथ बाहर भी चलती है। इसलिए उसने राहुल से कहा, “चल यार! मुझे काम है। चलते हैं,” कहने के साथ देवांश ने राहुल का हाथ पकड़ा कर खींचा।

“अबे! कहां जाता है?” रघु ने अकड़ कर कहा, “यदि कल के पेपर में देखने नहीं दिया तो ध्यान रखना हाथपैर तोड़ दूंगा।”

“जी,” राहुल ने कहा तो देवांश को एक तरकीब सुझाई दे गई। वह इस तरकीब से रघु की दादागिरी उतार सकता था, इसलिए उसने कहा, “अरे रघु भाई!”

“क्या है?” रघु ने चौंक कर पूछा, “बोल।”

“अरे रघु भाई, राहुल की इतनी हिम्मत नहीं कि वह आपको नकल करने से मना कर सकें। मगर वह क्या है..,” कह कर देवांश रुका।

रघु का पारा चढ़ा हुआ था। उसने कहा, ” वह क्या है? बोल जल्दी।”

“इसका भाई है ना वह,” कहते हुए देवांश ने खेत की ओर इशारा किया, “उसका कहना है कि तूने किसी को नकल कराई तो तेरी खैर नहीं है।”

“उसने कहा था,” रघु बोला, “वह तो साला एक नंबर का डरपोक और मरियल है।”

यह सुनकर राहुल डर गया था। उसने झट से कहा, “नहीं-नहीं, उसने नहीं बोला था।”

“अच्छा!”

“हां तो क्या हुआ?” देवांश ने रघु को उकसाया, “अगर वाकई तुम रघु दादा हो तो उसे सबक सिखा कर बताओ तो जानू?”

रघु को कोई चैलेंज करें वह कैसे बर्दाश्त कर सकता था? उसने कहा, “तू रघु दादा को चैलेंज दे रहा है। इसका अंजाम जानता है?”

“हां-हां जानता हूं। ऐसे बहुत से दादा देखे हैं मैंने शहर में, हिम्मत हो तो उसे सबक सिखा कर बताओ तो जानू?”

यह सुनकर रघु का पारा चढ़ गया। वह झट से मोटरसाइकिल से उतरा,” तू यहां रुक सोनू, मैं भी उसे सबक सिखा कर आता हूं,” कहते हुए वह खेत की मुंडेर कूद कर विकास के पास पहुंच गया।

वहां जाकर उसने सीधे विकास का गिरेबान पकड़ा और कहा, ” क्यों रे डेढ़ फसली, दादा बनता है,” कहने के साथ रघु ने विकास का कालर पकड़ कर दो थप्पड़ जड़ दिए।

विकास कुछ समझ नहीं पाया। यह क्या हुआ? तभी पास ही चर रहे बैल की निगाहें रघु की हरकत पर चली गई। वह विकास को थप्पड़ मार रहा था।

तभी अचानक वह दौड़कर आया। उसने आते ही सिंग से रघु को उठाया। हवा में उछाल दिया। रघु इसके लिए तैयार नहीं था। वह हवा में उछला। पत्थर की मुंडेर पर जाकर गिरा।

यह सब अचानक हुआ था। वह बहुत तेजी से उछला था और पत्थर पर गिरा था। गिरते ही उसके हाथ की हड्डी टूट गई थी। विकास कुछ-कुछ सम्हल चुका था। वह चिल्लाकर बोला,” रामू! रुक जा!”

मगर रामू बैल कहां रुकने वाला था। वह गुस्से में था। उसके मालिक को कोई हाथ लगाएं, यह उसे बर्दाश्त नहीं था। रघु ने उसे थप्पड़ जड़ दिए थे इस कारण वह बहुत तेजी से चिल्लाते हुए अपना गुस्सा उतार रहा था।

दोबारा रघु की ओर तेजी से दौड़ा। यह देखकर रघु घबरा गया। उसके सामने साक्षात मोड़ तांडव कर रही थी। मगर वह उठ नहीं पा रहा था इसलिए जोर से चिल्ला पड़ा, “अरे! मार डाला! कोई बचाओ!” कह कर वह चीखा। तभी उसका मित्र सोनू वहां आ गया।

तभी विकास ने सोनू को इशारा कर दिया। वह अंदर नहीं आए। इसी के साथ विकास तेजी से रघु के पास पहुंच गया, “नहीं रामू, इसे छोड़ दो।”

मगर रामू ने तेज गर्दन हिलाकर जोर से हुंकार भरी। जैसे वह रघु को जोरदार सबक सिखाना चाहता है।

विकास रामू का गुस्सा जानता था। वह तुरंत रामू के पास गया। उसे गले से लगाते हुए बोला, “नहीं रामू, इसे छोड़ दे।”

तभी विकास में तुरंत उसके दोस्त सोनू कहा, “सोनू! इसे ले जा। नहीं तो यह बैल इसको मार डालेगा।”

सोनू तुरंत रघु के पास गया। उसको हाथ टूट चुका था। पैर में चोट आई हुई थी। उसे पकड़ कर सोनू तुरंत खेत के बाहर ले गया। इस तरह रघु अपनी जान बचा कर भाग गया।

इस घटना के बाद से रघु ने दादागिरी लगाना छोड़ दिया। वह समझ गया था कि किसी का सरल व हृदय मित्र उसे कभी भी सबक सिखा सकता है।

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

28-01-2022

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #250 – लघुकथा – ☆ एक कप कॉफ़ी… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा एक कप कॉफ़ी…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #250 ☆

☆ एक कप कॉफ़ी… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

कवितापाठ के आयोजनोपरांत उपस्थित कई व्यक्तियों से माधुरी की कविताओं के लिए उसे बधाईयाँ मिलने लगी।

इन्हीं में सोशल मीडिया की सुर्खियों में रहने वाले बहुचर्चित कवि विदेह जी ने भी प्रशंसा करते हुए माधुरी से अगले एक आयोजन में शिरकत करने के बहाने फोन नंबर माँगा

अपनी प्रशंसा से अभिभूत माधुरी ने भी सहज भाव से उन्हें अपना नंबर दे दिया।

सहेली उर्मि ने फोन नंबर देने पर चिंता जताते हुए माधुरी को सचेत किया कि, “इस व्यक्ति से बच के रहना, महिलाओं के बारे में इसकी सोच ठीक नहीं है।”

अभी घर पहुँची ही थी कि, मोबाइल की घंटी बज उठी—-

“हेलो- मैं विदेह बोल रहा हूँ, माधुरी जी, क्या बताऊँ, मैं तो अभी तक आपकी कविताओं में डूबा हूँ… अद्भुत, बहुत सुंदर लिखती हैं आप, और इन्हें प्रस्तुत करने का आपका अंदाज और भी अधिक प्यारा है। सच कहूँ तो इन कविताओं जैसे ही बल्कि इनसे कहीं अधिक सुंदरता प्रभु ने आपको प्रदान की है।”

“जी, शुक्रिया विदेह जी।”

“शुक्रिया से काम नहीं चलेगा माधुरी जी, कभी हमारे साथ बैठकर एक कप कॉफ़ी पीने का सौभाग्य देना होगा आप को।”

“जी, आइए घर पर आपका स्वागत है, इसी बहाने आप मेरे परिवार से भी मिल लेंगे।”

“माधुरी जी! अब हमारे और कॉफ़ी के बीच में परिवार कहाँ से आ गया?”

“पर मेरी जानकारी के अनुसार तो आप भी चाय-काफ़ी सहित अच्छी-खासी घर गृहस्थी वाले इंसान हैं!”

“तो उससे क्या फर्क पड़ता है माधुरी जी?”

“फर्क पड़ता है आदरणीय! क्या आप ये बताएँगे कि, आपकी पत्नी घर में आपको कॉफ़ी पीने का अवसर नहीं देती या फिर, — वे सुंदर नहीं है?”

“नहीं, ऐसी बात नहीं, वो– वो ऐसा है कि”…..

“कि, अब आपको अपनी पत्नी में दूसरी स्त्रियों जैसी सुंदरता नजर नहीं आती है !”

“आप मुझे गलत समझ रही हैं, मेरा आशय यह नहीं था”

“आशय मैं अच्छी तरह से समझ रही हूँ आपका महोदय !”

” विदेह जी, जैसे आपको घर से बाहर सुंदरता दिख रही है, वैसे ही बाहर वाले यदि आपकी पत्नी में भी सुंदरता देखने लग गये तो?”

“ये क्या बकवास करने लगी आप?”

“क्यों……? लगी न चोट जब पत्नी पर आई तो।”

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 43 – शौक…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – शौक।)

☆ लघुकथा # 43 – शौक श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

विमला जी आज सुबह से काम को लेकर बड़ी परेशान थी।

कुछ बड़बड़ा रही थी और काम पर लगी थी।

मालती उसके साथ रोज नाच गाने में लगी रहती है।

ऐसा लगता है दोनों को कि बस जीवन में नाच गाना ही है…।

आज अच्छे से खबर लेती हूं..।

चलो अच्छा है याद तो आएगी।

काम करने भी जाना है दीदी के घर?

दीदी थोड़ा सा समय नाच गा लेती हूं खुश हो जाती हूं तो तुम्हारा क्या बिगड़ता है तुम भी आया करो, फ्रेश हो जाओगी।

तुम दोनों की तरह फुर्सत में नहीं हूं मुझे घर में बहुत काम  हैं।

घर में तो कोई  बच्चे  नहीं हैं, दिनभर नाच गाने में लगी रहती है।

झुमरी ने गुस्से से बोला-

देखो दीदी तुम किसी की जब तक परिस्थिति नहीं जानती हो तो उसके बारे में कुछ भी मत कहा करो।

सब घरों का काम छोड़ कर उसी के घर में काम करना।

ठीक है दीदी तुमसे तो वह दीदी लाख गुना अच्छी हैं ।

थोड़ी देर यदि खुश रहती हैं तो तुम्हारा क्या बिगड़ जाता है?

उनके बाल बच्चे नहीं हैं।

ऐसा उन्हें ताने मत दिया करो।

उनकी एक बिटिया है, जो गूंगी  है।

बहुत होशियार है दीदी उसको पढ़ाती हैं।

झुमरी की बातें विमला के मन में एक घाव कर गई ।

अच्छा चल कल से मैं भी नाचने आऊंगी……।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – देवी – देवता – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “– देवी – देवता –” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी ☆ — देवी – देवता — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

लड़के ने लाल को पीला बनाने जैसा जादू सीख लिया। उसने अपनी माँ से कहा इस जादू से लोगों को आकर्षित करके वह धनवान हो जाएगा। माँ ने गलत मान कर कहा मेहनत की रोटी खाओ। पर बेटे ने माँ को डाँट कर अपने मन की पूरी कर ली और वाकई लखपति बन गया। माँ दुनिया के रेले – मेले में खो गयी, लेकिन बेटे ने ऐसी व्यवस्था कर दी थी उसकी माँ देवी थी और वह देवी – पुत्र हुआ।
***
© श्री रामदेव धुरंधर

04 – 10 — 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आदत ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – आदत ? ?

… पापा जी, ये चार-चार बार चाय पीना सेहत के लिए ठीक नहीं है। पता नहीं मम्मी ने कैसे आपकी यह आदत चलने दी? कल से एक बार सुबह और एक बार शाम को चाय मिलेगी। ठीक है!

..हाँ बेटा ठीक है.., कहते-कहते मनोहर जी बेडसाइड टेबल पर फ्रेम में सजी गायत्री को निहारने लगे। गायत्री को भी उनका यों चार-पाँच बार चाय पीना कभी अच्छा नहीं लगता था। जब कभी उन्हें चाय की तलब उठती, उनके हाव-भाव और चेहरे से गायत्री समझ जाती। टोकती,..इतनी चाय मत पिया करो। मैं नहीं रहूँगी तो बहुत मुश्किल होगी। आज पी लो लेकिन कल से नहीं बनेगी दो से ज़्यादा बार चाय।

पैंतालीस साल के साथ में कल कभी नहीं आया पर गायत्री को गये अभी पैंतालीस दिन भी नहीं हुए थे कि..!

…तुम सच कहती थी गायत्री, देखो जो तुम नहीं कर सकी, तुम्हारी बहू ने कर दिखाया.., कहते-कहते मनोहर जी का गला भर आया। जाने क्यों उन्हें हाथ में थामी फ्रेम भी भीगी-भीगी सी लगी।

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️💥 श्रीगणेश साधना सम्पन्न हुई। पितृ पक्ष में पटल पर छुट्टी रहेगी।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 42 – बुढ़ापा…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – बुढ़ापा।)

☆ लघुकथा # 42 – बुढ़ापा  श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

अम्मा क्या हो गया? आज सुबह जल्दी उठकर तुम खाना बना रही हो। अम्मा से पूछा अमित ने।

बेटा आज तुम्हारे दादा-दादी का श्राद्ध है।

तभी बहू अवंतिका भी आ गई उसने कहा क्या हो गया मां बेटे हल्ला मचा रहे हो ये श्राद्ध क्या होता है ?

बेटे जो हमारे पूर्वज भगवान के पास चले गये, या जिंदा नहीं है। पितृ पक्ष  मे धरती पर आते हैं उनके पसंद के  पकवान बनाकर ब्राह्मण को भोजन कराते और रुपया वस्त्र देकर विदा करते हैं। इसी को श्राद्ध कहते हैं।

बहू ने कहा – क्या माँ यह सब  दिखावा करके उनकी आत्मा को शांति मिलती है? पता नहीं बहू लेकिन मैंने सोचा तुम्हारे टिफिन के लिए भी कुछ अच्छा बना देती हूं और इसी बहाने ऐसा सोचो कि हम लोग अच्छे पकवान बनाकर खा लेते हैं।

नवमी और अमावस्या के दिन मेरी मां और सास भी बनाती थी।

सुन बेटा अमित मुझे कुछ पैसे दे देना तुम लोग तैयार हो जाओ नाश्ता कर लो तुम्हारे लिए टिफिन पैक कर दिया है।

तभी बहू ने कहा – माँ मैं खीर तो ले जाऊंगी पर पूरी की जगह मुझे रोटी दे दो और थोड़ा ही रखना मुझे ज्यादा तेल का खाना पसंद नहीं है।

इतना सब जब आपने बनाया है तो पैसे लेकर क्या करेंगे।

बेटा बाजार से जलेबी रसगुल्ला और समोसे भी लाऊंगी।

तो ऐसा क्यों नहीं कहती मां कि आपका खाने का मन है और दादा दादी सास का बहाना कर रही हैं।

तभी पिताजी को जोर से गुस्सा आ गया उन्होंने कहा बहू और अमित तुम लोगों के पैसों की  कोई जरूरत नहीं है। देखो कमला जितना हो सके तुम उतना ही ढंग से श्राद्ध करो और पूजा भी अब हमें कमी कर देनी चाहिए क्योंकि अब यह हमारे ऊपर एहसान कर रहे हैं। हमारे मरने  के बाद श्राद्ध का  नाटक मत करना।  

अमित ने कहा मां आपको क्या चाहिए? आप बताओ मैं बाजार से लाता  हूँ। थोड़ी देर बाद ऑफिस चला जाऊंगा।

नहीं बेटा रहने दो? अवंतिका बहू  सच बोल रही है। फालतू फिजूल खर्ची करने की कोई जरूरत नहीं है।

तू मेरा भी श्राद्ध,  कर्मकांड और ब्राह्मण को बुलाकर भी कुछ मत देना, ज्यादा खर्च मत करना क्योंकि श्राद्ध तो श्रद्धा से होती है…।

उनकी आंखों से आंसू बहने लगते हैं।

अच्छा है बेटा जो हमारे जमाने में हमारे माँ-बाप हमें ज्यादा नहीं पढ़ा पाये, नहीं तो मुझे लगता है कि यह संस्कार जिंदा नहीं रहते।

हे प्रभु किसी को बुढ़ापा न देना ये बहुत लाचारी से भरा होता है।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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