राजा तक खबर पहुँची कि नगर में एक गरीब आदमी के पास आईना है, जो बोलता है।सवालों के जवाब भी देता है।
राजा ने आनन फानन में सिपाहियों को बुलाकर कहा –तुम गरीब से वो आईना लेकर आओ।वह जितनी भी मोहरें माँगे उसे दे देना पर आईना जरूर ले आना।
–गरीब ने धन लेने से इंकार कर दिया ये कहकर कि — ले जाओ पर इतना याद रखना , ये केवल सच बोलता है।ऐसा सच जो बर्दाश्त की हद से बाहर होता है ।नग्न सत्य।वो तो हम गरीबों के बस की बात है।
–सिपाही आईना ले आये। राजा परम प्रसन्न। उसने तोते से पूछकर बातचीत का मुहूर्त निकलवाया और बन ठन कर आईने के सामने बैठ गया।
—बोल आईने ! लोग मुझे कामदेव कहते हैं। महिलाएं आहें भरती हैं। मुझे सपनों का राजकुमार समझती हैं जो सफेद घोड़े पर बैठकर आयेगा और उन्हें ले जायेगा।
—यह सच नहीं है।तुम्हारे मयूरासन का प्रताप है।
—मैं जहां भी जाता हूं लोग फूलों की पाँखुरियां बिछा देते हैं। जमीन पर चलने ही नहीं देते।
—झूठ। तुम्हें जमीन की एलर्जी है।
—मेरी तस्वीर की घर घर में पूजा की जाती है। मेरे लिये स्वतंत्र देवालय बनवा रखे हैं लोगों ने।
—‘झूठ। पता है पूजा उसी की करते हैं लोग जिससे खौफ़ खाते हैं।
—देख आईने। मुझे लगा था तू केवल सच बोलेगा पर तू तो मक्कार निकला।
—मैं मक्कार नहीं हूं। जब सारी दुनिया झूठ को सच और सच को झूठ समझ रही हो, तब अकेले तुम अपवाद कैसे हो सकते हो।
–राजा ने क्रोध में फुफकारते हुये आईना जमीन पर पटक दिया।
उसने देखा कि आईने के हजार हजार टुकड़े उसे देखकर ठठाकर हँस रहे हैं।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा ‘ईश्वर का शृंगार…’।)
☆ लघुकथा – ईश्वर का शृंगार… ☆
आज ईश्वर बहुत उदास थे, चुपचाप मौन, किसी से कुछ बात ही नहीं कर रहे थे, किसी की हिम्मत भी नहीं थी, उनसे पूछने की, उनसे उदासी का कारण जानने की, कुछ देर बाद पवन ने उनसे पूछा, आज आप उदास क्यों हैं, वह थोड़ी देर शून्य में देखते रहे, और थोड़ी देर बाद बोले, बहुत दिनों से पृथ्वी पर, भारतवर्ष में, वहां के लोगों के कार्य कलाप और हरकतें देख रहा हूं, जिससे मन उदास हो गया।
लोग पार्क में जाते हैं, वहां पौधों पर खिले हुए फूल तोड़ते हैं, बड़ी-बड़ी प्लास्टिक की थैलियों में भरते हैं, कुछ लोग छड़ी या डंडे लेकर जाते हैं उसमें तार का हुक फसा लेते हैं उससे डाली को खींचते हुए डाली को झुकाकर, पुष्प तोड़ लेते हैं, पौधे की तकलीफ नहीं देखते हैं। प्रकृति ने मुझे प्रार्थना की थी कि मैं उनका शृंगार करूं, मैंने प्रकृति को विभिन्न प्रकार के फूलों से भर दिया ,जो अपनी सुगंध, फिजाओं में बिखेरते थे,सभी लोग उन्हें देखकर प्रफुल्लित होते थे, परंतु लोग स्वार्थवश फूल तोड़कर मुझ पर अर्पित करते हैं, सोचते हैं इन सार्वजनिक स्थानों से की गई चोरी के फूलों से मुझे रिझाने का उनका प्रयास सफल हो जाएगा, पर मुझे दुख होता है कि मेरी ही प्रकृति को दी हुई भेंट वह निर्ममता से तोड़कर मुझ पर अर्पित करते हैं, जबकि मैं चाहता हूं कि वह अपना अहंकार,अपना क्रोध, अपनी वैमनष्यता, अपना लोभ, लालच, मुझको अर्पित करें और अच्छे इंसान बने जो एक दूसरे की मदद करें, अपने कर्मों की सुगंध से, वह संसार में अपनी सुगंध फैलाएं, सार्वजनिक उद्यानों में लगे पौधों के फूलों से मेरा श्रृंगार ना करें, पर्यावरण को बचाने के लिए पौधे लगाऐं और प्रकृति को संवारने में अपना योगदान दें।
☆ हास्य रचना ☆ अटैची की सैर☆ प्रो. नव संगीत सिंह ☆
आप सोच रहे होंगे कि ‘अटैची’ किसी देश या शहर का नाम है। अरे नहीं, यह वही ब्रीफकेस है, जिसमें कपड़े आदि रखे रहते हैं। तो जनाब, यह ढाई दशक पहले की बात है, मेरी शादी को एक हफ्ता ही हुआ था कि छुट्टियाँ खत्म हो गईं और मैं कॉलेज-टीचर की ड्यूटी के लिए पटियाला से तलवंडी साबो कॉलेज पहुँच गया। कुछ दिनों तक मैं अपनी पत्नी के साथ अपने माता-पिता के पास पटियाला में रहा।
एक दिन मेरे माता जी, जिन्हें मैं बी-जी कहता था, मेरी पत्नी के साथ तलवंडी साबो आये। मैं बस उन्हें स्टैंड पर लेने गया था। उनके पास मौजूद सामान में एक ब्रीफकेस था, जिसे कभी खोला नहीं गया था। दो-एक दिनों के बाद मैंने अपनी पत्नी से पूछा कि ब्रीफकेस में क्या है? पत्नी ने कहा, “मुझे नहीं पता, यह बी-जी का होगा।” मैंने बी-जी से पूछा तो उन्होंने कहा कि मैंने सोचा कि यह तुम्हारी पत्नी का होगा, इसलिए हम इसे ले आए। मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि उन दोनों ने चार घंटे तक बस में एक साथ यात्रा की और एक बार भी एक-दूसरे से नहीं पूछा कि अटैची किसका है! दरअसल अटैची (ब्रीफकेस) मेरा ही था, जिसमें मैंने एक्स्ट्रा कपड़े डाल कर पटियाला रखा हुआ था। खैर… इस तरह अटैची पहले तलवंडी साबो आया फिर बस का सैर-सफ़र करके वापस पटियाला चला गया।
अब हम जब भी कहीं कुछ समान वगैरह लेकर जाते हैं तो एक-दूसरे से पूछते हैं, “यह किसका है भई?… कहीं अटैची जैसी बात न बन जाए…।”
(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई प्रयोग किये हैं। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी विचारणीय लघुकथा “महबूबा“.)
☆ लघुकथा – दरियादिली ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆
एक महिला प्रतिदिन बिना नागा पार्क में प्रवेश करती। वहां मुंदी- अध मुंदी आंखों से लेटे हुए कुत्तों में जाग पड़ जाती।
उस महिला के पीछे -पीछे कम से कम दर्जन भर कुत्तों की फौज पीछे लग जाती। महिला रोटी के छोटे-छोटे टुकड़े फेकती जाती और कुत्ता समूह रोटी चट करता जाता। एक छोटा पिल्ला तो महिला की टांगों के बीच फंसा फंसा चलता। बड़े कुत्तों के कारण उसे रोटी कहां मिल पाती?
जब कभी महिला का ध्यान उस ओर जाता तो वह रोटी के एक दो टुकड़े उसके मुंह में डाल देती।
कुत्ता समूह खुश था। बैठे ठाले रोज उनकी दीवाली थी। दर्शक उस महिला की डटकर प्रशंसा किया करते।
एक दिन उस महिला की पड़ोसन यह दृश्य देखकर बोली-‘बड़ी आई धन्ना सेठी, खुद के सास ससुर को वृद्ध आश्रम में छोड़ आई और यह इधर कुत्तों को रोटियां खिलाकर पुण्य लूट रही है।’
महिला इन सब बातों से बेपरवाह थी। उल्टे उसने कुत्तों की रोटी की व्यवस्था के लिए एक महरी रख ली थी।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – पहरा )
☆ लघुकथा – पहरा ☆ श्री हरभगवान चावला ☆
मैं दसवीं कक्षा में पढ़ती थी। मेरे शिक्षक ने कहा – सोच पर पहरा नहीं होता। जो जी में आए, लिखो। मैंने डायरी लिखना शुरू किया।
मेरी शादी तय हो गई। माँ ने कहा – औरतों को सोच पर पहरा लगाना आना चाहिए। मेरी सारी डायरियाँ जला दी गईं।
अब मेरी बेटी दसवीं में पढ़ती है और डायरी लिखती है…!
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – दुनिया
समारोह के आमंत्रितों की सूची बनकर तैयार थी। जुगाड़ लगाकर प्रदेश के एक राज्यमंत्री को बुला लिया था। शहर के प्रमुख अख़बार के संपादक और एक चैनल के एक्जिक्यूटिव एडिटर थे। सूची में कलेक्टर थे, डीएसपी थे। कई बड़े उद्योगपति, जाने-माने वकील थे। अभिनेत्री को तो बाकायदा पेमेंट देकर ‘सेलिब्रिटी इनवाइटी’ बनाया था।
‘वे सब लोग आ रहे हैं जिनके दम पर दुनिया चलती है..’ लोअर डिवीजन की क्लर्की से रिटायर हुए अपने वयोवृद्ध पिता को लिस्ट दिखाते हुए इतरा कर साहब ने कहा।
‘ देखूँ ज़रा.., पर इसमें ईश्वर का नाम तो दिखता ही नहीं कहीं जिसके दम पर..,’ पिता ने चश्मे की गहरी नजर से एक-एक शब्द ध्यान से पढ़ते हुए अधूरा वाक्य कहकर अपनी बात पूरी की थी।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी लघुकथा – जूठन।)
☆ लघुकथा – जूठन ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆
जूठन समेटकर एहतियात से पन्नी में भर रही थी। मैंने उसे बड़े गुस्से की नजरों से देखा
” मैं गुस्से में बोली यह क्या जाहिल पन है?”
तुम्हें शर्म नहीं आती है ऐसा करते हुए।
उस काम वाली बाई के ऊपर मेरी बातों का कोई असर नहीं हो रहा था। वह मेरी बातों को अनसुना सा कर रही थी।
बड़े ही इत्मीनान से वह सारी जूठन पन्नी में गांठ लगाते हुए बोली मेम साहब घर में मेरी मां बीमार है बहन और 5 साल की छोटी बेटी भी है।
उन्हें आज भरपेट खाना खिलाऊंगी आज खाने में बहुत सारे पकवान है मैं तो भगवान से यही प्रार्थना करती हूं कि आप और आपके बच्चे रोज इसी तरह खाना बनाने को काहे लेकिन वह खाना खाते कहां है प्लेट में थोड़ा सा लेते हैं यह पतीले का खाना जूठन कहां हुआ। छोड़ें में साहब आप लोग खाने की कीमत कहां समझोगे?
हम जैसे भूखे मरते लोगों का पेट तो भरेगा, और यह अच्छा खाना मिलेगा। हमारी किस्मत में ऐसा परोसा भोजन नहीं है। आप के कारण हमें यह सब अच्छी चीजें भी खाने को मिल जाती हैं।
मैं अवाक रह गई उसकी बातें सुनकर मैं स्वयं को बहुत बौना महसूस कर रही थी। उसकी आंखों में खुशी झलक रही थी।
जल्दी पहुंचने का उतावलापन उसकी आंखों में दिख रहा था। और तुरंत सारा सामान एक झोले में भरकर वह घर की ओर जाने लग गई मैं भी उसे दरवाजे में खड़ी हो कर देखती रह गई जब तक वह मेरी आंखों से ओझल नहीं हो गई।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील लघुकथा “झरोखा”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 175 ☆
☆ लघुकथा – 🏠 झरोखा 🏠☆
मन को भाए आनंदित, हर्षित, उमंग, और प्रेम से भरा बहुत ही सुंदर शब्द झरोखा। बड़े बुजुर्गों के पास बैठकर उनकी बातें सुनने में झरोखे में ही पूरी रात की चर्चा हो जाती है। मन को अति प्रेमिल रोशन करती वह रोशनदान जिसे झरोखा कहें, न जाने कितने प्रेम गीत इस झरोखे पर बने और जीवन पर आधारित कहानी बनी।
रोमांचित करता झरोखा आज नवल किशोर को बहुत ही झकझोर रहा था। एक समय था जब उसके प्रेम में पागल वह दीवानी बस झरोखे से ही उसे देखा करती। न बातचीत ना कोई संदेश न और न मोबाइल का चलन कि झटपट मैसेज लिख दिया जाए। दिन का उजाला कोई देख न ले इस बात से, वह झरोखा सिर्फ पर्दा हिलता नजर आता।
सांझ ढले दीप जले कभी टिक-टाक बिजली का बटन जब जल बुझ जाए, झरोखा अपनी कहानी बनाना शुरु करती।
यूं ही मस्ती भरी शाम रात ढलते न जाने कितना समय निकल गया। नवल किशोर बस उस झरोखे का दीदार करते रहता था।
बस एक झलक और फिर टकटकी। यही पूरे दिन रात का काम हुआ करता था। पेशे से वकील न जाने कितने केस के बारे में पढ़ता और मनन करता।
परंतु जीवन का यह झरोखा किसी जज के ऑर्डर की तरह मन की और भी व्याकुलता को बढ़ा रहा था।
आज वह ठान चुका था कि इस झरोखे पर वह जबरदस्त बिल पास करेगा। चाहे अंजाम कुछ भी हो।
नए वर्ष का जश्न गाँव, शहर, गली, मोहल्ला, सिटी सभी जगह अपने शबाब पर था। नवल किशोर खास समय के इंतजार में था। शहर में पढ़ा लिखा। भोर होते ही चल पड़ा उस झरोखे की ओर।
नए वर्ष की शुभकामना और बधाइयाँ कुछ बात कह दूंगा। द्वार खुला एक वयोवृध्द दादा जी ने दरवाजा खोला— नवल किशोर प्रणाम करके ‘नूतन वर्ष मंगलमय हो’ – – अभी वह कुछ कह भी नहीं पाया कि रंग विहीन श्वेत फटी साड़ी में लिप्त वह झरोखा में जिसे देखा करता।
आज देखते ही आँखें बाहर होने लगी। अपने आप को संभाल वह उसे देखने लगा और देखते-देखते उसकी आँखों से आँसुओं की धार बहने लगी।
हाथों में सिंदूर का डिब्बा था। मुट्ठी बंद, खोलती, बंद करती वह यही कह रही थी – – – “क्या अब भी आप???” बस इतना सुनना था उंगली से उसका मुँह बंद करते हुए नवल किशोर ने– सिंदूर ले माँथे पर लगा कहने लगा – – “अब यह झरोखा मेरे जीवन की रोशनी होगी सदा सदा के लिए। नूतन वर्ष में हमारे नये जीवन की शुरुआत करते!!!!!”
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा ‘विचारणीय…’।)
☆ लघुकथा – विचारणीय… ☆
मच्छरों की आपातकालीन बैठक बुलाई गई थी, उसमें विभिन्न प्रकार के मच्छर थे, एनाफ्लीस मच्छर, क्यूलेक्स मच्छर, एडीज मच्छर,जीका वायरस का मच्छर, डेंगू बुखार का मच्छर और भी कई प्रकार के मच्छर थे,जो आदमियों से परेशान हो गए थे, सभी भिन भिन कर रहे थे,आपस में बातें कर रहे थे,शोरगुल था, तभी एक बुजुर्ग मच्छर खड़ा हुआ, उसने कहा, कृपया शांत हो जाएं,आज की बैठक,आपके लिए,अपनों के लिए ही बुलाई गई है, पहले हमसे बचने के लिए, आदमी, हमसे बचाव के लिए मच्छरदानी लगा लेता था, फिर कुछ दिन बाद दवाइयां लगाने लगे कई कंपनियों की, फिर ऑल आउट,वगैरह जला देते थे, जिससे हम भाग जाते थे, परंतु अब उन्होनें नया काम किया है, मॉस्किटो नेट का जो रैकेट होता है,उसको बिजली से चार्ज करते हैं और जिससे जल कर हमारी मृत्यु हो जाती है,बहुत दुखदाई है, इससे बचाव के क्या साधन अपना सकते हैं, हमें विचार करना है, सभी मच्छर विचार कर रहे थे, पर कोई सुझाव नहीं सूझ रहा था.
तब एक बुजुर्ग मच्छर खड़ा हुआ, उसने कहा, सच है, आदमी हमें देख लेता है,और हम पर वार करता है, हमें जला देता है,मार देता है, परंतु आपको एक बात बताऊं, आदमी में अहम बहुत होता है,इस अहम के कारण खुद को नहीं देखता, आसपास देखता है, दूसरों को देखता है,खुद को नहीं देखता, आवश्यकता है कि मच्छर उससे कपड़ों से चिपके, आदमी अपने पास नहीं देखेगा,मच्छर सुरक्षित रहेंगे, क्योंकि आदमी अपने अहम के कारण खुद को नहीं देखता है, सभी लोगों ने तालियां बजा कर सुझाव का स्वागत किया.
और इनके सामने मनुष्य की एक कमजोरी आ गई ,अहम के कारण व्यक्ति अपने आप को नहीं देखता, अपने आसपास नहीं देखता,हमेशा दूसरों को देखता है,दूसरों के पास क्या है, यही देखता है,खुद के पास क्या है,नहीं देखता.
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय कथा – ‘शुभचिन्तक‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 222 ☆
☆ कहानी – शुभचिन्तक ☆
कॉलोनी में चौधरी साहब का आतंक है। वे कॉलोनी की अघोषित नैतिक पुलिस हैं। कॉलोनी में कोई भी गड़बड़ करे, चौधरी साहब उसकी पेशी ले लेते हैं। कॉलोनी के छोटे से पार्क में सुबह-शाम अपने तीन चार हमउम्रों के साथ उनकी बैठक जमती है। उस वक्त कॉलोनी के लड़के-लड़कियाँ पार्क से दूरी बना कर चलते हैं।
चौधरी साहब को सबसे ज़्यादा चिढ़ कान पर मोबाइल चिपकाये घूमते लड़कों- लड़कियों से होती है। देखते हैं तो इशारों से बुला लेते हैं, फिर शुरू हो जाते हैं— ‘आप कोई बड़े बिज़नेसमैन हैं? किसी कंपनी के डायरेक्टर या मैनेजर हैं? यह आपको घंटों बात करने की ज़रूरत क्यों होती है? पैसे खर्च नहीं होते? स्टूडेंट के लिए इतनी ज़्यादा बात करना क्यों ज़रूरी है?’
लड़के-लड़कियाँ चौधरी साहब से तो कुछ नहीं कहते, लेकिन घर आकर माँ-बाप के सामने उखड़ जाते हैं— ‘हम बात करते हैं तो चौधरी अंकल को क्यों तकलीफ होती है? उनके ज़माने में मोबाइल नहीं होता था, हमारे ज़माने में है तो इस्तेमाल भी होगा। और फिर जब हमारे पेरेंट्स को एतराज़ नहीं है तो वे क्यों चार आदमी के सामने टोका-टाकी करते हैं?’
उनके माता-पिता समझाते हैं, ‘चौधरी साहब बुज़ुर्ग हैं। वे सब का भला चाहते हैं। उन्हें लगता है कि तुम लोग अपने पैसे और टाइम की फिजूलखर्ची करते हो, इसीलिए वे बोलते हैं। ही मीन्स वैल। उनकी बात का बुरा नहीं मानना चाहिए।’
लेकिन लड़के-लड़कियाँ कसमसाते रहते हैं। अपनी स्वतंत्रता में यह दखलन्दाजी उन्हें बर्दाश्त नहीं होती। चौधरी साहब को देखते ही उनका माथा चढ़ता है, लेकिन उनकी उम्र का लिहाज है।
चौधरी साहब का खयाल है कि मोबाइल ने देश के लोगों को बरबाद कर दिया है। लड़के-लड़कियांँ दिन भर मोबाइल से ऐसे चिपके रहते हैं जैसे यही उनकी रोज़ी-रोटी हो। एक बार कान से चिपका सो चिपका, पता नहीं कब अलग होगा। किसी से रूबरू बात करना मुश्किल है। चौधरी साहब का सोच है कि जो कमाते नहीं उन्हें सोच समझकर खर्चा करना चाहिए।
चौधरी साहब के घर के सदस्य, ख़ासकर बच्चे, उनसे ख़ौफ़ खाते हैं। अपने मोबाइल छिपा कर रखते हैं और बात करते वक्त दरवाजा बन्द करना नहीं भूलते।
चौधरी साहब को शिकायत कॉलोनी में काम करने वाली बाइयों से भी है। अब बाइयों को भी मोबाइल का रोग लग गया है। ज़्यादातर बाइयों के हाथ में मोबाइल चमकता रहता है। चौधरी साहब को और भी तकलीफ तब होती है जब कॉलोनी में काम करने वाले मज़दूरों और मज़दूरिनों के हाथ में भी उन्हें मोबाइल दिखायी पड़ता है। उन्हें समझ में नहीं आता कि दिन भर मेहनत करके तीन चार सौ रुपये कमाने वाले लोग मोबाइल की विलासिता कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं।
चौधरी साहब के घर में विमला बाई काम करती है। स्वभाव से अच्छी है। काम के प्रति गंभीर है। चोरी- चकारी की आदत नहीं। आप घर उसके हवाले छोड़ कर आराम से घूमने-घामने जा सकते हैं। घरवाला पहले रिक्शा चलाता था, लेकिन कुछ दिन बाद शरीर जवाब देने लगा। अब सड़क के किनारे सब्ज़ी का ठेला लगाता है। दो लड़के और एक लड़की है। एक लड़का एक मोटर गैरेज में काम करता है, दूसरा साइकिल पर सब्ज़ी की टोकरी रखकर घूमता है।लड़की की शादी हो गयी है।
विमला बाई के साथ भी वही रोग है। झाड़ू लगाते लगाते कहीं से रिंग आ जाती है और वह झाड़ू बीच रास्ते में छोड़ कर दीवार से टिक कर बैठ जाती है। चौधरी साहब देखकर माथा ठोकते हैं। ज़्यादा देर बात करने की गुंजाइश दिखी तो वह कान से मोबाइल चिपकाये बाहर निकल जाती है और चौधरी साहब का ब्लड-प्रेशर बढ़ने लगता है। ज़्यादा कुछ बोलने के लिए बहू बरजती है। कॉलोनी में अच्छी बाई को पा लेना किस्मत की बात है। दूसरी बात यह है कि नयी बाई को लगाने की बात उठते ही पुरानी लड़ने पर आमादा हो जाती है।
विमला बाई का अपने गाँव से रिश्ता अभी छूटा और टूटा नहीं। तीन बहनें हैं जो आस-पास के गाँवों में ब्याही हैं। दो भाई गाँव में ही हैं। चाचाओं, बुआओं, मौसियों से रिश्ते जीवित हैं। मन ऊबता है तो कहीं भी फोन लगा कर बैठ जाती है। फिर सुध नहीं रहती। कहाँ-कहाँ की खोज खबर लेती रहती है। कान से सुनी बातें दृश्यों में परिवर्तित होकर आँखों के सामने तैरती जाती हैं। मोबाइल छोड़ने का मन नहीं होता। जब बात बन्द होती है तब मन में कसक होती है कि बहुत पैसा खर्च हो गया। लेकिन यह मलाल अल्पजीवी ही होता है। काम से फुरसत मिलते ही मन फिर कहीं उड़ने को अकुलाने लगता है।
विमला बाई काम भले ही दो तीन घरों में करती हो, लेकिन उसकी पैठ कॉलोनी के कई घरों में है। कई घरों में वह कभी न कभी काम कर चुकी है। लेकिन उसे पता है कि घरों की मालकिनों से उसके संबंध एक सीमा तक ही हैं। उसके बाद उनके रास्ते अलग-अलग हैं। मालकिनें जिस आत्मीयता से एक दूसरे से बात और व्यवहार करती हैं वैसी उसके लिए नहीं है। कई बार वह काम करते-करते चौधरी साहब की बहू के सामने अपने दुखड़े लेकर बैठ जाती है, लेकिन पाँच दस मिनट बाद ही वह महसूस करती है कि उसकी दुनिया में उनकी दिलचस्पी नहीं है। उनके सुख- दुख उसके सुखों-दुखों से भिन्न हैं।
घर में उसकी बातें सुनने वाला कोई नहीं होता। पति रात को थका हुआ आता है और खाना खा कर सो जाता है। लड़के कभी जल्दी तो कभी आधी रात को आते हैं। उन्हें भी माँ से बात करने की फुरसत नहीं होती। बस कॉलोनी की बाइयाँ ही हैं जो इत्मीनान से उसकी बात सुनती हैं। उनके साथ खूब मन के पन्ने खुलते हैं। एक दूसरे को अपनी व्यथा सुना कर हल्की हो जाती हैं। चौधरी साहब के घर पहुँचते-पहुँचते विमला बाई किसी दूसरी बाई के साथ सामने पुलिया पर बैठक जमा लेती है और खिड़की से झाँकते चौधरी साहब कुढ़ कर बहू से कहते हैं, ‘लो देख लो, जम गयी बैठक। हो गया तुम्हारा काम।’
दिवाली-होली को विमला बाई को गाँव जाना ही है। गयी तो फिर हफ्ते भर तक वापस आने का नाम नहीं लेती। ऐसा ही गाँव से जुड़ी सभी बाइयों के साथ होता है। बाइयों के ग़ायब होते ही उनकी मालकिनों का मूड बिगड़ जाता है। सब को अपना जोड़ों का दर्द, स्पोंडिलाइटिस और डायबिटीज़ याद आने लगता है। जब तक बाइयाँ पुनः प्रकट नहीं होतीं, घर में खासा तनाव रहता है। बाइयों की खीझ घर के बच्चों पर उतरती है।
विमला बाई के गाँव के घर में अभी माँ है। सयानी होने के बावजूद हाथ-पाँव दुरुस्त हैं। अभी भी संपन्न लोगों के घरों में टानकटउआ करके थोड़ा बहुत कमा लेती है। फालतू बैठे उसे चैन नहीं पड़ता।
विमला गाँव जाती है तो निहाल हो जाती है। रिश्तेदारों और बचपन की सहेलियों से मिलकर शहर की फजीहत और तनाव भूल जाती है। दुनिया भर की बातें होती हैं। सहेलियों से मिलकर बचपन फिर लौट आता है। एक हफ्ता कब गुज़र जाता है पता नहीं चलता। लौटते मन खिन्न होता है। सामने दिखती है वही थोड़े से पैसों के लिए बड़े लोगों की सेवा और घर की नीरस दिनचर्या। लेकिन ज़िन्दगी का शिकंजा ऐसा है कि निकल भागने का कोई रास्ता नहीं है।
विमला बाई गाँव से लौटती है तो कॉलोनी के कई घरों से राहत की ठंडी साँस निकलती है। मनहूस लगते दृश्य फिर सुहाने हो जाते हैं। फूलों में खुशबू लौट आती है। प्राणिमात्र के लिए फिर प्रेम का अनुभव होने लगता है।
विमला बाई के लौटने पर एक-दो दिन तक चौधरी साहब का मुँह फूला रहता है। अमूमन विमला बाई से गप लगाने वाले चौधरी साहब एक-दो दिन तक उससे बात नहीं करते। उनकी नज़र में गाँव का यह मोह फालतू है। उनकी समझ में नहीं आता कि गाँव में ऐसा क्या है जो विमला बाई जैसी स्त्रियों को बाँधे रखता है। जो शहर में है वह गाँव में कहाँ? विमला बाई को जाना ही है तो एक-दो दिन में सब से मिल-मिला कर वापस आ जाए। हफ्ते भर तक वहाँ क्या करना है? चौधरी साहब को रिश्ते के शादी-ब्याह में किसी गाँव जाना पड़ता है तो एक दिन में ही बोर हो जाते हैं। पूरा वक्त उबासियाँ लेते और ऊँघते बीतता है। गाँव की ज़िन्दगी की धीमी रफ्तार से एडजस्ट करना मुश्किल होता है।
एक-दो दिन की नाराज़ी के बाद चौधरी साहब कुर्सी खींचकर उपदेशक की मुद्रा में विमला बाई के सामने बैठ जाते हैं। कहते हैं, ‘विमला बाई, सँभल जाओ। न तुम मोबाइल पर टाइम और पैसा बर्बाद करना बन्द करती हो, न बार-बार गाँव जाना। मेरा सारा समझाना फालतू जाता है। इतने सारे नाते रिश्ते पालने से क्या मिलता है? पैसा बचाओ और जिन्दगी बेहतर बनाने की कोशिश करो। ये नाते रिश्ते किसी काम नहीं आते, पैसा ही काम आता है।’
विमला बाई उनकी बात सुनकर कुछ देर सिर झुका कर ज़मीन कुरेदती है, फिर चौधरी साहब की आँखों में झाँक कर जवाब देती है, ‘बाबूजी, आप ठीक कहते हैं, लेकिन मैं पागल नहीं हूँ। आपकी बात पर खूब सोचती हूँ। मैं यह सोचती हूँ कि पैसा आराम दे सकता है, परेशानियाँ कम कर सकता है, लेकिन खुशी नहीं दे सकता। खुशी तो रिश्तों-नातों से ही मिलती है। बगल में आदमी न हो तो लोग पैसा लूट कर चले जाते हैं। यहाँ कितने ही लखपती करोड़पती लोग हैं जो अकेले पड़े सड़ रहे हैं। उनके बेटे बाप की संपत्ति के लिए एक दूसरे की जान ले रहे हैं। आखिर में रिश्ते ही काम आते हैं, पैसा बेकार हो जाता है। रिश्ते में जो खुशी है वह पैसे में कहाँ?’
चौधरी साहब निरुत्तर होकर उसका मुँह देखते रह गये।