हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – “हिंदुस्तानी नीरो” ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं  (वार्षिक)  का  सम्पादन  एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी  एक विचारणीय लघुकथा –हिंदुस्तानी नीरो“.)

☆ लघुकथा – हिंदुस्तानी नीरो ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

यूक्रेनियों ने रसियन स्टॉर्म जी की यूनिट को 12 घंटे के लंबे ऑपरेशन में लगभग 1800 मीटर तक खदेड़ दिया-मोबाइल पर समाचार आ रहा था।

कोई हिंदुस्तानी नीरो नीम की छांव में लेट कर बांसुरी बजा रहा था।

हंसकर बोला – सालों से चल रहे इस भयानक युद्ध में पीछे और पीछे घिसटते हुए यूक्रेन ने यदि कुछ मीटर पीछे खदेड़ दिया तो क्या यह छोटी-मोटी कामयाबी है। ‌ उसके हौसले की दाद देनी चाहिए। कहकर हिंदुस्तानी नीरो फिर बांसुरी बजाने लगा।

कहते हैं कभी रोम जल रहा था और कोई नीरो हीरो बना बांसुरी बजा रहा था। उससे कहीं तो हिंदुस्तानी नीरो ज्यादा अच्छा निकला जो एक पिछड़ते देश को मिली छोटी सी कामयाबी पर बांसुरी बजाकर उसकी हौसला अफजाई कर रहा था।

निराशा में आशा के दो बोल भी बहुत मददगार बनते हैं। जीतने वाले की प्रशंसा तो हर कोई करता है पर हारे हुए की बैसाखी बनना छोटी-मोटी इंसानियत नहीं है।

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© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #160 – बाल कथा – “घमंडी सियार” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक अति सुंदर बाल कथा – घमंडी सियार)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 160 ☆

☆ बाल कथा- घमंडी सियार ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

उस ने अपने से तेज़ दौड़ने वाला जानवर नहीं देखा था. चूँकि वह घने वन में रहता था. जहाँ सियार से बड़ा कोई जानवर नहीं रहता था. इस वजह से सेमलू समझता था कि वह सब से तेज़ धावक है.

एक बार की बात है. गब्बरू घोड़ा रास्ता भटक कर काननवन के इस घने जंगल में आ गया. वह तालाब किनारे बैठ कर आराम कर रहा था. सेमलू की निगाहें उस पर पड़ गई. उस ने इस तरह का जानवर पहली बार जंगल में देखा था. वह उस के पास पहुंचा.

“नमस्कार भाई!”

“नमस्कार!” आराम करते हुए गब्बरू ने कहा, “आप यहीं रहते हो?”

“हाँ जी,” सेमलू ने जवाब दिया, “मैं ने आप को पहचाना नहीं?”

“जी. मुझे गब्बरू कहते हैं,” उस ने जवाब दिया, “मैं घोड़ा प्रजाति का जानवर हूँ,” गब्बरू ने सेमलू की जिज्ञासा को ताड़ लिया था. वह समझ गया था कि इस जंगल में घोड़े नहीं रहते हैं. इसलिए सेमलू उस के बारे में जानना चाहता है.

“यहाँ कैसे आए हो?”

“मैं रास्ता भटक गया हूँ,” गब्बरू बोला.

यह सुन कर सेमलू ने सोचा कि गब्बरू जैसा मोताताज़ा जानवर चलफिर पाता भी होगा या नहीं? इसलिए उस नस अपनी तेज चाल बताते हुए पूछा, “क्या तुम दौड़भाग भी लेते हो?”

“क्यों भाई , यह क्यों पूछ रहे हो?”

“ऐसे ही,” सेमलू अपनी तेज चाल के घमंड में चूर हो कर बोला, “आप का डीलडोल देख कर नहीं लगता है कि आप को दौड़ना आता भी होगा?”

यह सुन कर गब्बरू समझ गया कि सेमलू को अपनी तेज चाल पर घमंड हो गया है इसलिए उस ने जवाब दिया, “भाई!  मुझे तो एक ही चाल आती है. सरपट दौड़ना.”

यह सुन कर सेमलू हंसा, “दौड़ना! और तुम को. आता भी है या नहीं? या यूँ ही फेंक रहे हो?”

गब्बरू कुछ नहीं बोला. सेमलू को लगा कि गब्बरू को दौड़ना नहीं आता है. इसलिए वह घमंड में सर उठा कर बोला, “चलो! दौड़ हो जाए. देख ले कि तुम दौड़ सकते हो कि नहीं?”

“हाँ. मगर, मेरी एक शर्त है,” गब्बरू को जंगल से बाहर निकलना था. इसलिए उस ने शर्त रखी, “हम जंगल से बाहर जाने वाले रास्ते की ओर दौड़ेंगे.”

“मुझे मंजूर है,” सेमलू ने उद्दंडता से कहा, “चलो! मेरे पीछे आ जाओ,” कहते हुए वह तेज़ी से दौड़ा.

आगेआगे सेमलू दौड़ रहा था पीछेपीछे गब्बरू.

सेमलू पहले सीधा भागा. गब्बरू उस के पीछेपीछे हो लिया. फिर वह तेजी से एक पेड़ के पीछे से घुमा. सीधा हो गया. गब्बरू भी घूम गया. सेमलू फिर सीधा हो कर तिरछा भागा. गब्बरू ने भी वैसा ही किया. अब सेमलू जोर से उछला. गब्बरू सीधा चलता रहा.

“कुछ इस तरह कुलाँचे मारो,” कहते हुए सेमलू उछला. मगर, गब्बरू को कुलाचे मारना नहीं आता था. ओग केवल सेमलू के पीछे सीधा दौड़ता रहा.

“मेरे भाई, मुझे तो एक ही दौड़ आती है. सरपट दौड़,” गब्बरू ने पीछे दौड़ते  हुए कहा तो सेमलू घमंड से इतराते हुए बोला, “यह मेरी लम्बी छलांग देखो. मैं ऐसी कई दौड़ जानता हूँ.” खाते हुए सेमलू ने तेजी से दौड़ लगाईं.

गब्बरू पीछेपीछे सीधा दौड़ता रहा. सेमलू को लगा कि गब्बरू थक गया होगा, “क्या हुआ गब्बरू भाई? थक गए हो तो रुक जाए.”

“नहीं भाई, दौड़ते चलो.”

सेमलू फिर दम लगा कर दौड़ा. मगर, वह थक रहा था. उस ने गब्बरू से दोबारा पूछा, “गब्बरू भाई! थक गए हो तो रुक जाए.”

“नहीं. सेमलू भाई. दौड़ते चलो.” गब्बरू अपनी मस्ती में दौड़े चले आ रहा था.

सेमलू दौड़तेदौड़ते थक गया था. उसे चक्कर आने लगे थे. मगर, घमंड के कारण, वह अपनी हार स्वीकार नहीं करना चाहता था. इसलिए दम साधे दौड़ता रहा. मगर, वह कब तक दौड़ता. चक्कर खा कर गिर पड़ा.

“अरे भाई! यह कौनसी दौड़ हैं?” गब्बरू ने रुकते हुए पूछा.

सेमलू की जान पर बन आई थी. वह घबरा गया था. चिढ कर बोला, “यहाँ मेरी जान निकल रही है. तुम पूछ रहे हो कि यह कौनसी चाल है?” वह बड़ी मुश्किल से बोल पाया था.

“नहीं भाई, तुम कह रहे थे कि मुझे कई तरह की दौड़ आती है. इसलिए मैं समझा कि यह भी कोई दौड़ होगी,” मगर सेमलू कुछ नहीं बोला. उस की सांसे जम कर चल रही थी. होंठ सुख रहे थे. जम कर प्यास लग रही थी.

“भाई! मेरा प्यास से दम निकल रहा है,” सेमलू ने घबरा कर गब्बरू से विनती की, “मुझे पानी पिला दो. या फिर इस जंगल से बाहर के तालाब पर पहुंचा दो. यहाँ रहूँगा तो मर जाऊंगा. मैं हार गया और तुम जीत गए.”

गब्बरू को जंगल से बाहर जाना था. इसलिए उस ने सेमलू को उठा के अपनी पीठ पर बैठा लिया. फिर उस के बताए रास्ते पर सरपट दौड़ाने लगा, कुछ ही देर में वे जंगल के बाहर आ गए.

सेमलू गब्बरू की चाल देख चुका था. वह समझ गया कि गब्बरू लम्बी रेस का घोडा है. यह बहुत तेज व लम्बा दौड़ता है. इस कारण उसे यह बात समझ में आ गई थी कि उसे अपनी चाल पर घमंड नहीं करना चाहिए. चाल तो वही काम आती है जो दूसरे के भले के लिए चली जाए. इस मायने में गब्बरू की चाल सब से बढ़िया चाल है.

यदि आज गब्बरू ने उसे पीठ पर बैठा कर तेजी से दौड़ते हुए तालाब तक नहीं पहुँचाया होता तो वह कब का प्यास से मर गया होता. इसलिए तब से सेमलू ने अपनी तेज चाल पर घमंड करना छोड़ दिया. 

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 © ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

28-11-2021

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 8 – परिवर्तनशील सोच ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – परिवर्तनशील सोच।)

☆ लघुकथा – परिवर्तनशील सोच ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

बिल्ली को खिड़की पर देखकर मुझे बड़ी चिढ़ जाती और गुस्सा भी आता था।

बचपन में मेरे पड़ोस में रहने वाली दादी की बात याद आ जाती कि बिल्ली कहती थी कि मेरे मालिक की आंख फूट जाए जिससे मैं सारा दूध पी सकूं कुत्ता बहुत वफादार होता है वह मालिक की उम्र लंबी करने की दुआ मांगता है इसलिए कुत्ते को रोटी दिया करो बेटा।

इस दादी मां की बात मुझे हमेशा याद रहती और मुझे पता नहीं क्यों बहुत गुस्सा आता था क्योंकि वह चूहा भी खाती थी। मैं उस पर पानी डालती और हमेशा भागती रहती थी वह भी मुझे बहुत गुस्से से देखती थी। ऐसा लगता था उसकी बड़ी-बड़ी आंखें मुझे खा जाएंगी।

मैंने कभी बिल्लियों को एक रोटी भी नहीं दी मन में एक अजीब सी घृणा सी थी।  मैंने कभी उसे एक रोटी नहीं दी मुझे ऐसा लगता था कि यह बिल्ली रोज मुझे चिढ़ाने आती है। आज मुझे पता नहीं क्यों इसे देखकर बहुत दया आ रही है और इसकी म्याऊं म्याऊं में एक अजीब सा दर्द है। इसकी आंखों में आंसू भी है। रोटी बनाते-बनाते उसे बड़े ध्यान से देख रही थी। वह और दिन की अपेक्षा बहुत दुबली भी नजर आ रही थी। उसका पेट भी पिचका था और इस तरह रोटी को लालची नजरों से देख रही थी। उसे देखकर मुझे बहुत दया आई और मैंने उसे एक रोटी दे दी जिसे उसने तुरंत लपक कर एक क्षण में खा लिया। फिर मैंने उसे दूसरी रोटी दी उसे लेकर वह चली गई। सच में वक्त के साथ इंसान और उसकी सोच बदलती है समय बहुत बलवान होता है। वक्त के साथ सोच को भी परिवर्तनशील करना चाहिए।

*****

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 180 – भक्ति की पराकाष्ठा – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  भक्ति की पराकाष्ठा”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 180 ☆

  🙏 लघु कथा – भक्ति की पराकाष्ठा 🙏

शहर में बसे घनी बस्ती के बीच बहुत बड़े सामुदायिक भवन में कोरोना काल के बाद से ही सुना है निरंतर भागवत कथा का आयोजन होते चला आ रहा है।

प्रति वर्ष की अपेक्षा धीरे-धीरे भक्तों की संख्या में बढ़ोतरी होते जा रही थी। भागवताचार्य भी प्रसन्न थे। उनकी भागवत कथा में प्रतिवर्ष भक्तों की संख्या बढ़ते जा रही है।

बड़े ही जोश और भाव – भक्ति से वह कथा का वाचन कर रहे थे। बीच-बीच में श्री राधे- राधे की जयकार और मनमोहन गीत- संगीत वाद्य यंत्रों के साथ सब का मन मोह रही थी।

बैठने की समुचित व्यवस्था जो वरिष्ठ जमीन पर बैठ नहीं पा रहे थे उनके लिए पंक्ति बध्द कुर्सियां व्यवस्थित थी।

दैनिक समाचार पेपर वाले भी रोज कवरेज करके प्रकाशित कर रहे थे कि आज जनमानस का सैलाब उमड़ पड़ा।

उत्सुकता वश आज समय अनुसार भागवत कथा में शामिल होने का सौभाग्य मिला। सामने पहुंचते ही गाड़ी रखते समय जल्दी-जल्दी चलते हुए बुजुर्ग माताजी को एक सज्जन पुरुष  प्रवेश द्वार पर छोड़कर जाने लगा। वह कुछ परेशान सा दिख रहा था। सामने से उसका परिचित आकर बोले… उनके हाथ को भी पकड़े एक वरिष्ठ साथ में चल रहे थे।

आज लेट हो गए हो  बोल उठा.. हां यार सोच सोच कर परेशान हूं कि अब कल से भागवत कथा समाप्ति की ओर बढ़ रही है। क्या करें??

इसी बहाने इनको यहां चार-पांच घंटे बिठाकर चला जाता हूं। घर में आराम रहता है। दूसरा दोस्त बोल.. उठा परेशान मत हो भाई मैंने पता लगा लिया है चार किलोमीटर दूर उस मैदान पर यहां के बाद भागवत कथा होनी है।

ऐसा करते हैं एक ऑटो रिक्शा लगा देंगे और मैं और आप चार की जगह छः घंटा सबको बिठा दिया करेंगे।

अंदर जाते ही आचार्य जी अपनी कथा में श्री कृष्ण भगवान के मथुरा से चले जाने पर कैसा विलाप हो रहा है। इसका वर्णन कर रहे थे। भाव विभोर हो स्वयं आंसुओं से भरे नैनों को बार-बार पोंछ रहे थे।

पंडाल के बीच में  से निकलते देखा गया। सभी महिलाओं के पास मोबाइल दिख रहा था ।

पीछे से किसी ने कहा.. यहां भी आओ तो रोना धोना ही मचा देते हैं।

भारी मन से मैं पुष्प हार लिए श्री भागवत कथा में विराजे भगवान कृष्ण के चरणों में पुष्प अर्पित कर चुपचाप बैठी ही थी कि तभी वहां आकर एक कार्यकर्ता आचार्य जी को कुछ कह.. गया। कथा में मोड़ आ गया।

आचार्य जी कहने लगे.. कल समाप्ति भंडारा के दूसरे दिन से ही छोटी बजरिया मैदान में भागवत कथा होनी है। जो माताएं, काका, दादा नहीं जा सकते उनके लिए ऑटो रिक्शा की व्यवस्था की गई है। सामुदायिक भवन तालियों से भर उठा।

चारों तरफ नजरे घूम रही थी। अब तालियों की आवाज कहां से आ रही थी। भागवत कथा में भक्तों की उपस्थिति तो समझ आ चुकी थी।

पर भक्ति की पराकाष्ठा विचाराधीन हो चुकी थी।

जय हो श्री राधे – राधे भागवत कथा में भक्तों की जय जयकार कानों को चुभने लगी थी।

🚩🚩

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – तीन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – तीन ? ?

तीनों मित्र थे। तीनों की अपने-अपने क्षेत्र में अलग पहचान थी। तीनों को अपने पूर्वजों से ‘बुरा न देखो, बुरा न सुनो, बुरा न कहो’ का मंत्र घुट्टी में मिला था। तीनों एक तिराहे पर मिले। तीनों उम्र के जोश में थे। तीनों ने तीन बार अपने पूर्वजों की खिल्ली उड़ाई। तीनों तीन अलग-अलग दिशाओं में निकले।

पहले ने बुरा देखा। देखा हुआ धीरे-धीरे आँखों के भीतर से होता हुआ कानों तक पहुँचा। दृश्य शब्द बना, आँखों देखा बुरा कानों में लगातार गूँजने लगा। आखिर कब तक रुकता! एक दिन क्रोध में कलुष मुँह से झरने ही लगा।

दूसरे ने भी मंत्र को दरकिनार किया, बुरा सुना। सुने गये शब्दों की अपनी सत्ता थी। सत्ता विस्तार की भूखी होती है। इस भूख ने शब्द को दृश्य में बदला। जो विद्रूप सुना, वह वीभत्स होकर दिखने लगा। देखा-सुना कब तक भीतर टिकता? सारा विद्रूप जिह्वा पर आकर बरसने लगा।

तीसरे ने बुरा कहा। अगली बार फिर कहा। बुरा कहने का वह आदी हो चला। संगत भी ऐसी ही बनी कि लगातार बुरा ही सुना। ज़बान और कान ने मिलकर आँखों पर से लाज का परदा ही खींच लिया। वह बुरा देखने भी लगा।

तीनों राहें एक अंधे मोड़ पर मिलीं। तीनों राही अंधे मोड़ पर मिले। यह मोड़ खाई पर जाकर ख़त्म हो जाता था। अपनी-अपनी पहचान खो चुके तीनों खाई की ओर साथ चल पड़े।

(‘दैनिक चेतना’ में प्रकाशित।)

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – चित्र – कथा – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कथा  “ चित्र – कथा ।)

~ मॉरिशस से ~

☆  कथा कहानी ☆ – चित्र – कथा – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

चित्रकार के रूप में उसकी अद्भुत ख्याति थी। उसने अपने चित्रों के बल पर बड़े – बड़े पुरस्कार प्राप्त किये। उसके चित्र चाहे महंगे होते थे खरीदारों की उसे कमी नहीं पड़ती थी। उसने चित्रों में कौन सा रंग नहीं भरा। उसने मनुष्य और प्रकृति के चित्र तो बहुत बनाये। बाद में वह केवल मनुष्य के आंतरिक जगत का चितेरा हुआ। विशेष कर मानवी क्रोध को वह तूलिका से स्पर्श दे तो लगता था मनुष्य का आंतरिक पक्ष बोलती सी भाषा में प्रत्यक्ष उद्भूत हो रहा है।

उसने एक चित्र – कथा का सृजन किया। कथा दस चित्रों में आधारित थी। उसने प्रथम चित्र में एक पागल का आंतरिक उद्वेलन उद्घाटित किया था। वह उसी पागल को केन्द्र में रख कर अगले चित्रों में बढ़ता चला गया था। उसने अंतिम चित्र में उस पागल के मानसिक उद्वेलन का समाधान प्रस्तुत किया था। हालाँकि यह उसके चित्रों की परंपरा नहीं थी। उसके चित्रों में आंतरिक भाव तो ऐसे ही रह जाते थे बिना किसी समाधान के।

एक पागल के आरंभिक मानसिक उद्वेलन से ले कर समाधान तक जाने वाले उस चित्रकार का बहुत बुरा हश्र हुआ। उसी रात एक पागल ने उसके घर में घुस कर उसकी हत्या कर दी। पर इस बात की गहराई में जाएँ तो यह आत्म हत्या थी। चित्रकार ने न रही अपनी पत्नी को अपने जीवन का मूल्य चुकाया था। पत्नी मनुष्य थी, चित्र नहीं। पर इस अंतर को समझना उससे छूटता चला आया था। आज की रात मानो उसके लिए विशेष हुई, तभी तो पत्नी के दिवंगत होने के बीस साल बाद चित्र और मनुष्य के उस अंतर को उसने समझा। उसे आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि यह एक दिन होना ही था। यह भाव, यह संवेदना, यह मनस्ताप और स्वयं के हाथों चित्रित यह पागल, सब के सब समन्वय की एक शक्ति बन गए थे। हत्या के इन सब के हाथ नहीं हुए, लेकिन आत्म हत्या के लिए उसके अपने हाथ तो हुए। हत्या और आत्म हत्या दोनों उसके लिए एक ही शब्द की दो परिभाषाएँ थीं।
***

© श्री रामदेव धुरंधर

15 — 01 — 24

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #159 – लघुकथा – “गंदगी” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – गंदगी)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 159 ☆

 ☆ लघुकथा- गंदगी ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

” गंदगी तेरे घर के सामने हैं  इसलिए तू उठाएगी।”

” नहीं! मैं क्यों उठाऊं? आज घर के सामने की सड़क पर झाड़ू लगाने का नंबर तेरा है, इसलिए तू उठाएगी।”

” मैं क्यों उठाऊं! झाड़ू लगाने का नंबर मेरा है। गंदगी उठाने का नहीं। वह तेरे घर के नजदीक है इसलिए तू उठाएगी।”

अभी दोनों आपस में तू तू – मैं मैं करके लड़ रही थी। तभी एक लड़के ने नजदीक आकर कहा,” मम्मी! वह देखो दाल-बाटी बनाने के लिए उपले बेचने वाला लड़का गंदगी लेकर जा रहा है। क्या उसी गंदगी से दाल-बाटी बनती है?”

यह सुनते ही दोनों की निगाहें साफ सड़क से होते हुए गंदगी ले जा रहे लड़के की ओर चली गई। मगर, सवाल करने वाले लड़के को कोई जवाब नहीं मिला।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

28-11-2021

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 7 – मूक ज्ञान ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – मूक ज्ञान।)

☆ लघुकथा – मूक ज्ञान ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

पार्टी में अचानक मंजू और माधुरी को देखकर उसकी सास कमला जी जोर से हंसते हुए बहू के गले लगती हैं और प्यार से उसके सिर पर हाथ हाथ फेरते हुए कहा- तैयार हो कर आ गई, ननद भौजाई दोनों कितनी प्यारी और सुंदर लग रही है और अपनी आंखों के काजल से दोनों को काला टीका लगाती हैं भगवान यह जोड़ी हमेशा सलामत रखें।

माधुरी को बहुत गुस्सा आता है और मन ही मन कहती है कि मैं इतना सुंदर तैयार हूं लेकिन आज मैं सिर पर पल्लू नहीं रखूंगी मैं एक पढ़ी-लिखी लड़की हूं इस घर में आकर इन लोगों ने मुझे नौकर बना दिया है चाहे कोई भी आए?

दूर से अचानक उसके पति देव उसके पास आते हैं ।

साथ में खड़े होकर कहते हैं कि चलो उधर मेरे दोस्त और यहां पर अपने रिश्तेदार भी बहुत आए हुए हैं उन सभी से मिलवाता हूँ।

अरे !यह क्या सामने से बड़े काका भी चले आ रहे हैं, गांव वाले घर के बगल में जो बड़ी अम्मा रहती हैं, वह भी दिख रही हैं?

पति अभिषेक ने दोनों को प्रणाम किया।

तभी धीरे से माधुरी ने पल्लू अपने सिर पर रखा और उनके पैर छुए। दोनों लोगों ने बड़े प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा और कहा बिटिया सदा खुश रहो ।

अभिषेक तुम्हें बहुत ही अच्छी सुंदर दुल्हन मिली है और कितनी संस्कारी है।

उनकी बातें सुनकर माधुरी मन ही मन शर्मिंदा हुई और अपने पति की आंखों में उसे उसके लिए गर्व दिखा। पतिदेव ने उसे बड़ी ही प्रशंसा भरी नजरों से देखा और धीरे से उसके  हाथ को अपने हाथ में लिया और गुलाब जामुन वाले काउंटर में गए दोनों ने साथ में मीठे का आनंद लिया।

अचानक उसे याद आया कि प्रशंसा ऐसे मिलती है। मेरी और मेरी ननद की सब लोग तारीफ कर रहे हैं । तभी वह पति से कहती है आप अपने दोस्तों से मिलिए मैं मंजू के साथ रहती हूँ।

मंजू को साथ लेकर वह अपनी दूर के रिश्ते की मौसी के पास जाती है।

अरे! मौसी देखो मंजू मौसी जी मेरी मंजू कितनी प्यारी है पढ़ी लिखी है योग्य है। तुम मेरे भाई से शादी क्यों नहीं कर रही हो कोई लड़की तुम्हें मिली या नहीं। मेरे परिवार को तो अच्छे से जानती हो क्यों ना इसे हम रिश्तेदारी में बदलें।  भाई अनुज कहां है उसे तो मिलवाया ही नहीं ।

अनुज ने पैर छूकर प्रणाम किया अनुज यह मंजू है मंजू जो अनुज को प्लेट लगाकर खाना तो खिलाओ तब तक मैं मौसी को मम्मी पापा से मिलवाती हूं।

हां बेटा तुम ठीक कह रही हो आज तो मेरा भी मन कर रहा है कि मैं भी सास बनी जाती हूं कहां है तुम्हारी सास।

अचानक वह गहरी चिंता में खो जाती है मैं भरपूर दहेज दूंगी मेरे मन को क्या हुआ?

मैं अपनी भाभी की तरह इसे अपना सारा सामान दूंगी और आज ही इसका विवाह पक्का करवा देता हूं।

मेरी भाभी ने जैसे मुझे अपनी छोटी बहन बना कर रखा इस तरह में अपनी ननद को भी  बहन बनाकर रखूंगी। शादी में आए सभी रिश्तेदारों में से एक लड़के के साथ तो मैं अवश्य रिश्ता तय करके रहूंगी। उसका घर बस जाएगा। मेरे मायके के संस्कार और ससुराल की इज्जत को आगे बढ़ा कर रहूंगी। मैं सब के प्रति कितना गलत सोच रही थी पर आज मैंने यह बात जान ली कि मान सम्मान और प्रशंसा कैसे प्राप्त होती है।

संस्कार का क्या महत्व है। बड़े बुजुर्गों की इज्जत करके उनकी आंखों ने बिना कहे ही मूक ज्ञान मुझे दे दिया।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 179 – दुविधा – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर रचित एक सकारात्मक लघुकथा  “दुविधा”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 179 ☆

🎊 लघु कथा – दुविधा 🎊

संपूर्ण भारतवर्ष में रामलला जी के विराजने का जश्न मनाने के लिए तरह-तरह से तैयारी कर रहे थे, और हो भी क्यों ना 500 साल तिरपाल बंधे कुटिया में ढके, प्रभु राम की मूर्ति राह देखते – देखते आखिर वह समय आ ही गया। जब पूरे विधि- विधान, बिना रोक-टोक और कोई दुविधा बिना हमारे प्रभु का भव्य मंदिर अयोध्या में बना।

रामलला विराजने की खुशी हम सब मना रहे हैं। रामलला का विराजमान होना, राम राज्य की कल्पना और सनातनी होने का गर्व समूचा भारतवर्ष कर रहा है

ऐसे ही कृपा शंकर अपने घर परिवार के साथ उल्लास, उमंग से भगवान के मनोहर छवि को टी.वी पर देख – देख कर हर्ष मना रहे थे।

अचानक देखते- देखते रोने लगे। अब जब सभी बातों को भूलकर भगवान, अपने मंदिर में आ गए तो क्यों ना मैं भी अपनी पिछली सारी घटना एवं मतभेद को भुलाकर अपने घर लौट जाऊँ।

दुविधा में बैठे-बैठे उनकी आंखों से अश्रुं धार बह निकली। लाल गमछे से पोंछ ही देख थे,कि बहू ने आवाज़ लगाई…. बाबूजी चाय तैयार है आपके लिए लाती हूँ ।

आज पीने का मन नहीं है.. बहू!! भरे गले से कृपा शंकर ने बहु से बोला। नंदिनी घर की इकलौती बहु थी। अपने माँ – पिता सहित पूरे परिवार का बहुत ख्याल रखती थी। नंदिनी ने कहा.. बाबूजी चाय पी लीजिए। तभी तो चाचा – चाची और घर के सभी सदस्यों की अगवानी कर सकेंगे।

क्या कहा?? जैसे कृपा शंकर को कोई खजाना मिल गया हो।

नंदिनी ने कहा हाँ.. आज अभी सभी आ रहे हैं। हम सब मिलकर भगवान श्री राम लाल की पूजा अर्चना करेंगे। चाय की प्याली एक ही घूंट में खत्म कर, कृपा शंकर जल्दी-जल्दी भगवा धोती, कुर्ता, गमछा डाल। देहरी की तरफ निहारने लगे।

कंपकंपाते हाथों से नंदनी के सिर पर हाथ रखते हुए कहा.. मेरे जीवन की अंतिम साँसों में बसी दुविधा को आज तुमने मिटा दिया ।रामलला तुम्हें सदैव कृपा दृष्टि बनाए रखें।

बाबूजी और नंदिनी को ही सिर्फ मालूम था कि – – तकिये के नीचे लिखा हुआ पत्र क्या था? जो भी हो आज सारा परिवार एकत्रित होकर रामलाल विराजने  की खुशी मना रहा है।

कृपा शंकर और दया शंकर दोनों भाई ऐसे मिले जैसे राम भरत मिलाप हो।

🚩🚩जय जय श्री राम 🚩🚩

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

 

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ मेरी सच्ची कहानी – वर्दी… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा वर्दी…’।)

☆ लघुकथा – वर्दी… ☆

थाने के सामने, मेन रोड पर स्टॉपर लगाकर, वाहनों की चेकिंग की जा रही थी, सब इंस्पेक्टर नितिन दास, सब इंस्पेक्टर निधि तिवारी और अन्य स्टाफ वहां मौजूद था.  सभी लोग वाहनों को रोककर, हेलमेट की चेकिंग कर रहे थे. जो हेलमेट नहीं पहने थे, उनका चालान भी किया जा रहा था. बार-बार उच्च न्यायालय के आदेश पर लगातार चेकिंग की जा रही थी. तभी बुलेट पर एक युवक, बिना हेलमेट के वहां से निकला, उसको पुलिस स्टाफ ने रोक लिया.

सब इंस्पेक्टर नितिन दास ने उससे कहा कि – आप हेलमेट नहीं पहने हो, आपका चालान होगा. उसने कहा, मैं कभी नहीं चालान देता, और ना ही मेरा कभी चालान हुआ है, क्या तुम मुझे नहीं जानते?

सब इंस्पेक्टर ने कहा इसमें जानने न जानने की कोई बात नहीं है, लगातार चेकिंग चल रही है,और वाहन चालक की सुरक्षा के लिए हेलमेट आवश्यक है.

अगर आप हेलमेट नहीं पहने हो तो आपका चालान होगा.

वह युवक एकदम उग्र हो गया उसने कहा – तुम मुझे नहीं जानते हो क्या? तुम्हें अपनी वर्दी अच्छी नहीं लग रही है, मैं तुम्हारी वर्दी उतरवा दूंगा.

 नितिन दास ने उसको रोका आप अपशब्द मत कहो, चालान होगा, और कहा कि – बुलेट साइड में खड़ी कर दो.

 मैं टी आई  साहब को बताता हूं,सब इंस्पेक्टर ने टी आई को सब कुछ बताया,वो थाने से बाहर निकल कर आए, और युवक से कहा,क्या कहा इनकी वर्दी उतरवा दोगे? भाई इन्होंने ये वर्दी अपनी मेहनत से हासिल की है, अपना पसीना बहाया है, किसी की मेहरबानी से वर्दी नहीं मिली है.हम तो नौकरी के बाद नेता बन सकते हैं, पर इस जन्म  में अब आप पुलिस वाले नहीं बन सकते, इतनी मेहनत आप से नहीं हो पाएगी.

नितिन, इनको गिफ्ट दो. नितिन एक पेपर लाकर मोटर साईकिल पर चिपका देता है. 

पेपर पर हेलमेट बना है. 

टी आई ,ये चेकिंग हम आप लोगों की सुरक्षा के लिए कर रहे हैं, आपका परिवार आपकी प्रतीक्षा करता है, आप सुरक्षित रहें, हमारी यही कोशिश है.

नितिन,भाई का चालान काट दो.

युवक चालान के पैसे देता है,और कहता है – सर मुझे माफ कर दीजिए.

 सब लोग मुस्करा देते हैं. 

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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