हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – या क्रियावान.. ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – या क्रियावान.. ??

बंजर भूमि में उत्पादकता विकसित करने पर सेमिनार हुए, चर्चाएँ हुईं। जिस भूमि पर खेती की जानी थी, तंबू लगाकर वहाँ कैम्प फायर और ‘अ नाइट इन टैंट’ का लुत्फ लिया गया। बड़ी राशि खर्च कर विशेषज्ञों से रिपोर्ट बनवायी गयी। फिर उसकी समीक्षा और नये साधन जुटाने के लिए समिति बनी। फिर उपसमितियों का दौर चलता रहा।

उधर केंचुओं का समूह, उसी भूमि के गर्भ में उतरकर एक हिस्से को उपजाऊ करने के प्रयासों में दिन-रात जुटा रहा। उस हिस्से पर आज लहलहाती फसल खड़ी है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 159 – गलती से सीख ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श एवं बालसुलभता  पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “गलती से सीख”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 159 ☆

☆ लघुकथा – गलती से सीख

मालती मैडम अपने बगीचे में घूम रही थी। अभी शहर से स्थानांतरण पर वह गाँव के एक स्कूल में प्रधानाध्यापिका बन कर आई थी। स्कूल के पास ही उसने मकान लिया। उस मकान में चारों तरफ आम के वृक्ष थे। अभी गर्मी की छुट्टियां चल रही थी। मकान में जब मालती मैडम का परिवार रहने आया परिवार के नाम पर सिर्फ उसके पति देव और एक काम करने वाला नौकर। उनका अपना बेटा बाहर नौकरी करता था।

आम वृक्ष पर लगे फल दिखने शुरू हो गए थे और बगीचा भी आम की खुशबू से महक उठा था। सुनने में आया था वह कभी किसी को अपने घर आने जाने देना पसंद नहीं करती थी। अक्सर गाँव के बच्चे खेलते खेलते, वहाँ आते, पेड़ पर लगे फलों पर पत्थर मारते और दो चार आम गिरते, वहीं मिल बांट कर खा लिया करते।

उनके अपने बालपन का अभिन्न अंग बन गया था। खेलते खेलते आकर वही हैंडपंप में पानी भी पी लिया करती थे। चों – चों की आवाज करती उस हैंडपंप को भी बच्चों का इंतजार रहता था। परंतु जब से मालती मैडम आई थी किसी ने कह दिया था “मैडम बहुत सख्त है। कोई नहीं जाएगा, नहीं तो सजा मिलेगी।” बच्चे सहमे वहाँ तक जाते और बस लौट कर चले आते। पर मन में बात उनकी ठहर जाती थी।

आज हिम्मत करके दो बच्चे किसी तरह बगीचे में घुसे। बाकी सब बाहर तांके खड़े थे। खिड़की से मालती देख रही थी। अनायास अपने बेटे के हाथ पर लगी चोट और पुलिस थाना से लेकर कोर्ट कचहरी तक की बात को याद कर वह सहम गई। चुपचाप अनजान बन दूसरे कमरे में चली गई। मालती को वह घटना याद आ गई जब उसका अपना बेटा छोटा था और वह एक आम के बगीचे में आम तोड़ने की सजा उसे मिली थी। मन को आज भी नम  कर रहा था और उसी के कारण वह कभी किसी बच्चे को अपने यहाँ आने नहीं देना चाहती थी।

स्कूल में भी उनका व्यवहार सख्त था। परंतु आज बच्चों की सहमे चुपचाप चलने और बाल सुलभ चंचलता को देख मन बदल गया। वह बाहर निकल ही रही थी। बच्चे भागने लगे, पर देखा मैडम स्वयं बुला रही है और बांस की लंबी लकड़ी से आम तोड़ती नजर आ रही थी। अब तक जो बच्चे बाहर खड़े थे लगभग सभी बगीचे के अंदर आ गए।

उनका उछलना कूदना आज मैडम मालती को बहुत अच्छा लग रहा था। सच!!! इंसान अपनी गलती से ही कुछ सुधार कर सिखता है और आज भी यदि इन  बच्चों को क्रूरता से भगा देती तो यह प्रसन्नता का पल खो देती। अपने जीवन को और अधिक बोझिल और अकेलापन फिर से बना लेती।

आज बरसों बाद मैडम मालती को असीम शांति और प्रसन्नता हो रही थी। आम को जेबों में भर कर हाथ हिलाते बच्चों को आज मालती खड़ी हो कर हाथ हिला रही थी। पतिदेव की आँखों में आँसू आ गए। उन्होंने धीरे से कहा “मेरा गाँव आना सार्थक हो गया।”

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – बुत युग ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – बुत युग ??

सारे बदहवास थे। इस तरह की बीमारी इससे पहले न देखी, न सुनी। उस लेटे हुए आदमी के अंग एक-एक कर धीरे-धीरे पत्थर होते जा रहे थे।

अचानक एक औरत की चीख सन्नाटे को चीरने लगी। एक आदमी बालों से पकड़कर औरत को लात, मुक्कों से बेदम मार रहा था। वह चीख रही थी, मदद की गुहार लगा रही थी। भीड़ चुप थी। आदमी ने हैवान की मानिंद चाकू से कई वार औरत पर किए।

औरत अब लोथड़ा थी। आदमी जा चुका था। भीड़ मर चुकी थी।

उधर शोर उठा, ‘अरे आदमी बुत में बदल गया, आदमी बुत में बदल गया।’ लेटा हुआ आदमी ऊपर से नीचे तक पूरा पत्थर हो चुका था।

बुत युग की यह शुरुआत थी।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 158 – बेघर ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “बेघर ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 15 ☆

☆ लघुकथा 🏚️ बेघर 🏚️

अपनी मां के साथ वेदिका एक किराए के मकान में रहती थी। मां और बिटिया की कमजोरी को देखते हुए हर जगह से उन्हें निकाल दिया जाता था और फिर दूसरे किराए के मकान में, झुग्गी झोपड़ी बनाकर रहना पड़ता था।

बचपन उसका कैसे बीता उसे ठीक से याद नहीं। थोड़ा संभलने पर समझ में आ गया उसे कि सारे रिश्ते नाते केवल पैसों का खेल होता है। पिताजी की मृत्यु के बाद कोई भी रिश्तेदार यह पूछने नहीं आया कि तुम मां बेटी कैसे अपना गुजारा करती हो या फिर किसी चीज की आवश्यकता को हम पूरा कर सकते हैं क्या? किसी तरह से वेदिका ने दसवीं की पढ़ाई कर ली गणित में  कंप्यूटर जैसा दिमाग पाई थी।

सिटी के एक किराने दुकान पर हिसाब किताब, समान का लेनदेन के लिए नौकरी करने लगी।

धीरे-धीरे यह यौवन की दहलीज चढ़ते जा रही थी। दुकानदार भी देख रहा कि वेदिका के समान लेनदेन से उसकी दुकान पर बहुत भीड़ होने लगी है। उसने एक दिन वेदिका से कहा.. अब तुम्हें कुछ और काम कर लेना चाहिए।

वेदिका इन बातों से अनजान दो-तीन वर्षों से उसके यहां काम कर रही थीं। उसने सोचा सेठ जी मुझे कुछ अच्छा काम करने के लिए कह रहे होंगे। उसने कहा ठीक है सेठ जी जैसा आप उचित समझे परंतु मुझे इस जोड़ घटाव हिसाब किताब में बहुत अच्छा लगता है। मुझे यही रहने दीजिए। सेठ जी ने कहा एक बार काम देख लो बाकी तुम्हें भी अच्छा लगेगा। मेरे यहां भी काम करते रहना। तुम्हारे लिए रहने का ठिकाना भी बन जाएगा और तुम बेघर होने से बच जाओगी। आराम से गुजर बसर करोगी अपनी माँ के साथ।

वेदिका उस जगह पर पहुंच गई। जहाँ सेठ जी ने बुलाया था। घर तो बड़ा खूबसूरत था।

सभी सुख-सुविधाओं का सामान दिख रहा था। सेठ जी के साथ चार व्यक्ति और भी बैठे हुए थे। जो देखने में अच्छे नहीं लग रहे थे परंतु वेदिका ने सोचा मुझे इससे क्या करना है मुझे तो अपना काम करना है। तभी सेठ ने कहा.. वही वेदिका है जो अब आप लोगों के साथ काम करेगी। सेठ के हाव भाव को देखकर वेदिका को अच्छा नहीं लगा। वेदिका ने कहा मुझे काम क्या करना है। सभी सेठ ने बाहर निकलते हुए कहा.. बाकी बातें अब यह बता देंगे।

वेदिका को समझते देर नहीं लगी कि वह बिक चुकी है। उसने बहुत ही धैर्य से काम की और बोली मैं अपना कुछ सामान बाहर छोड़ कर आ गई हूं। लेकर आती हूं। जैसे ही वह बाहर निकलना चाहा। किसी ने हाथ पकड़ापरंतु वेदिका की चुन्नी हाथ में आई।

और वेदिका दौड़ते हुए मकान से बाहर निकल चुकी थी। दौड़ते दौड़ते  माँ के पास आकर आँचल में छुप गई माँ को समझते देर न लगी। वह वेदिका  के सिर पर हाथ रखते हुए बोली बेटी हम बेघर ही सही बेआबरू नहीं है।

चल कहीं और चलते हैं यहां से दाना पानी उठ चुका है। वेदिका ने देखा माँ की कमजोर आंखों में एक अजीब सी चमक उठी है और मानों कह रही हो अभी तुम्हारी माँ का आँचल है तुम बेघर नहीं हुई हो।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 118 ☆ लघुकथा – धूल छंट गई ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘धूल छंट गई’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 118 ☆

☆ लघुकथा – धूल छंट गई ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

दादा जी! – दादा जी! आपकी छत पर पतंग आई है, दे दो ना !

दादा जी छत पर ही टहल रहे थे उन्होंने जल्दी से पतंग उठाई और रख ली।

हाँ यही है मेरी पतंग, दादा जी! दे दो ना प्लीज– वह मानों मिन्नतें करता हुआ बोला। लडके की तेज नजर चारों तरफ मुआयना भी करती जा रही थी कि कहीं कोई और दावेदार ना आ जाए इस पतंग का।

 वे गुस्से से बोले — संक्रांति आते ही तुम लोग चैन नहीं लेने देते हो। अभी और कोई आकर कहेगा कि यह मेरी पतंग है, फिर वही झगडा। यही काम बचा है क्या मेरे पास?  पतंग उठा – उठाकर देता रहूँ तुम्हें? नहीं दूंगा पतंग, जाओ यहाँ से। बोलते – बोलते ध्यान आया कि अकेले घर में और काम हैं भी कहाँ उनके पास? जब तक बच्चे थे घर में खूब रौनक रहा करती थी संक्रांति के दिन। सब मिलकर पतंग उडाते थे, खूब मस्ती होती थी। बच्चे विदेश चले गए और —

दादा जी फिर पतंग नहीं देंगे आप – उसने मायूसी से पूछा। कुछ उत्तर ना पाकर वह बडबडाता हुआ वापस जाने लगा – पता नहीं क्या करेंगे पतंग का, कभी किसी की पतंग नहीं देते, आज क्यों देंगे —

तभी उनका ध्यान टूटा — अरे बच्चे ! सुन ना, इधर आ दादा जी ने आवाज लगाई — मेरे पास और बहुत सी पतंगें हैं, तुझे चाहिए? 

हाँ आँ — वह अचकचाते हुए बोला।

तिल के लड्डू भी मिलेंगे पर मेरे साथ यहीं छ्त पर आकर पतंग उडानी पडेंगी – दादा जी ने हँसते हुए कहा।

लडके की आँखें चमक उठीं, जल्दी से बोला — दादा जी! मैं अपने दोस्तों को भी लेकर आता हूँ, बस्स – यूँ गया, यूँ आया। वह दौड पडा।

दादा जी मन ही मन मुस्कुराते हुए बरसों से इकठ्ठी की हुई ढेरों पतंग और लटाई पर से धूल साफ कर रहे थे।

©डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – फीनिक्स ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा – फीनिक्स  ??

भीषण अग्निकांड में सब कुछ जलकर खाक हो गया। अच्छी बात यह रही कि जान की हानि नहीं हुई पर इमारत में रहने वाला हरेक फूट-फूटकर बिलख रहा था। किसी ने राख हाथ में लेकर कहा, ‘सब कुछ खत्म हो गया!’ किसी ने राख उछालकर कहा, ‘उद्ध्वस्त, उद्ध्वस्त!’ किसी को राख के गुबार के आगे कुछ नहीं सूझ रहा था। कोई शून्य में घूर रहा था। कोई अर्द्धमूर्च्छा में था तो कोई पूरी तरह बेहोश था।

एक लड़के ने ठंडी पड़ चुकी राख के ढेर पर अपनी अंगुली से उड़ते फीनिक्स का चित्र बनाया। समय साक्षी है कि आगे चलकर उस लड़के ने इसी जगह पर एक आलीशान इमारत बनवाई।

© संजय भारद्वाज 

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🕉️ श्री हनुमान साधना 🕉️

अवधि – 6 अप्रैल 2023 से 19 मई 2023 तक।

💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 💥

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #192 ☆ कथा-कहानी – बाकी सफर ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर कहानी  बाकी सफर। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 192 ☆

☆ कथा-कहानी ☆  बाकी सफर

रोज़ सुबह उठ कर उमाशंकर देखते हैं, सामने पटेल की चाय की भठ्ठी चालू हो गयी है। दूकान में काम करने वाले लड़के ऊँघते ऊँघते भट्ठी के आसपास मंडराते दिखते हैं और पटेल चिल्ला चिल्ला कर उनकी नींद भगाता नज़र आता है। तड़के से ही दो चार ग्राहक चाय की तलब में दूकान के सामने पड़ी बेंचों पर डट जाते हैं।

सड़क के इस पार उमाशंकर का मकान है और उस पार पटेल की दूकान है। उमाशंकर ऊपर रहते हैं इसलिए बालकनी से दूकान का दृश्य स्पष्ट दिखता है। उमाशंकर की पत्नी दिवंगत हुईं, बहू नौकरी पर जाती है, इसलिए कभी कोई मिलने वाला आ जाए तो बालकनी में खड़े होकर पटेल को आवाज़ देकर उँगलियाँ दिखा देते हैं और थोड़ी देर में दूकान से कोई लड़का उँगलियों के हिसाब से चाय लेकर आ जाता है।

करीब चालीस साल की सरकारी नौकरी के बाद उमाशंकर रिटायरमेंट को प्राप्त हो फुरसत की ज़िन्दगी बिता रहे हैं। मँझला बेटा रेवाशंकर साथ रहता है। दो बेटे शहर से बाहर हैं।

उमाशंकर भावुक और भले आदमी हैं। देश में गरीब असहाय बच्चों की दुर्दशा देखकर उन्हें बहुत तकलीफ होती है। समाचार-पत्रों में पत्र लिखकर वे अपनी भावनाएँ व्यक्त करते रहते हैं।
सड़क के किनारे कचरे के ढेरों पर झुके, नंगे पाँव, बीमारियों और विपत्तियों को आमंत्रित करते बच्चों को देखकर वे बहुत व्यथित होते हैं। सारे निज़ाम पर वह खूब दाँत पीसते हैं।

एक बार एक दस बारह साल का लड़का उन्हें भर दोपहर, चलती सड़क के किनारे, कचरे का थैला सिर के नीचे रखे, शायद थकान के मारे सोता हुआ दिखा। उस वक्त उन्हें लगा धरती फट जाए और उन जैसे सफेदपोशों का पूरा कुनबा उसमें समा जाए। खयाल आया कि कहाँ है वह संविधान का निर्देश जो चौदह साल तक की उम्र के बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की ताकीद करता है?

कोई बच्चों की भलाई या मदद के लिए काम करता है तो जानकर उमाशंकर का मन उस व्यक्ति के प्रति कृतज्ञता से भर जाता है। सवेरे पूजा के लिए बैठते हैं तो भगवान की मूर्ति से अक्सर कहते हैं— ‘तुमने मेरे मन में लौ तो जगायी, लेकिन मद्धी मद्धी। जुनून दिया होता तो मैं भी कुछ कर गुज़रता। जिससे भी कराना हो, कराओ। काम होना चाहिए।’

तीन-चार दिन से उन्हें पटेल की दुकान में एक नया लड़का दिखता है। इस धंधे में वह रँगरूट ही लगता है। सवेरे उठता है तो बड़ी देर तक उकड़ूँ बैठा दूसरों को काम करते देखता रहता है। लगता है सेठ भी उसके ज़्यादा पीछे नहीं पड़ता। माथे पर बाल बिखेरे वह बड़ी देर तक उनींदा बैठा रहता है। काम भी धीरे-धीरे करता दिखता है। पटेल लड़कों का मनोविज्ञान जानता है। उन्हें दूकान के वातावरण में रसने-बसने के लिए चार छः दिन का टाइम देता है।

दो दिन बाद उमाशंकर ने ऊपर से चाय के लिए इशारा किया तो संयोग से वही नया लड़का लेकर आया। धीरे-धीरे लटपट चलता सीढ़ियाँ चढ़कर वह ऊपर पहुँच गया। उमाशंकर ने देखा, लड़के की उम्र दस बारह साल के करीब होगी। चेहरा सलोना और भोला था। अभी शहर की व्यवहारिकता की झाँईं उस पर नहीं उतरी थी। घुँघराले से बालों के बीच उसका चेहरा मोहित करता था। हाथ-पाँव पर भी अभी भट्ठी की तपिश से पैदा हुई सख़्ती और कालिख नहीं दिखती थी।

उमाशंकर ने उसे चार बिस्कुट दिये, कहा, ‘ले, खा लेना।’ उसने ले लिये, फिर पूछने पर अपना नाम बताया, ‘नन्दू’। बिस्कुट जेब में रखकर वह सीढ़ी उतरने लगा। उमाशंकर ने उसकी लटपट चाल देखकर पीछे से आवाज़ दी— ‘सँभलकर उतरना। लुढ़क मत जाना।’ प्यार की आँच लड़के तक पहुँची। वह पीछे देख कर हँसा, फिर धीरे-धीरे उतर गया।

फिर अक्सर नन्दू चाय लेकर आने लगा। लगता था जैसे वह जानबूझकर अपनी ड्यूटी वहाँ चाय लाने के लिए लगवाता हो।

दूसरी बार आया तो उमाशंकर ने उसे थोड़ी देर बैठा लिया, पूछा, ‘कहाँ के हो?’

नन्दू बोला, ‘सिंहपुर के। इलाहाबाद के पास है।’

उमाशंकर ने पूछा, ‘यहाँ कैसे पहुँच गया?’

नन्दू आँखें झुका कर बोला, ‘पापा अम्माँ को बहुत मारता था। मुझे और मेरी छोटी बहन गुड़िया को भी मारता था। जब वह दारू पी कर आता था तब हम लोगों को बहुत डर लगता था। उस दिन उसने अम्माँ को मारा तो मुझे बहुत गुस्सा आ गया। मैंने उसे हाथ में जोर से काट लिया। फिर डर के मारे जो भागा तो सीधा स्टेसन पहुँचा। वहाँ जो गाड़ी खड़ी थी उसी में छिप कर बैठ गया। यहाँ उतर गया।’

उमाशंकर ने पूछा, ‘इस तरह यहाँ कब तक रहेगा? घर वापस नहीं जाएगा?’

नन्दू बोला, ‘अभी तो सोच कर बहुत डर लगता है। पापा बहुत मारेगा। बाद में सोचेंगे।’

उमाशंकर ने पूछा, ‘घर की याद नहीं आती?’

नन्दू का मुँह लटक गया, आँखों में पानी की रेख खिंच गयी, बोला, ‘अम्माँ और गुड़िया की बहुत याद आती है।’

फिर उसने गिलास उठाये, बोला, ‘देर हो गयी तो सेठ ऊटपटाँग बोलेगा। फिर आऊँगा।’

फिर जब उसकी मर्जी होती आ जाता। हफ्ते में एक दिन की उसे छुट्टी मिलती थी, उस दिन आकर उमाशंकर के साथ खूब बतयाता था। एक दिन उमाशंकर ने पूछा, ‘पढ़ा लिखा नहीं?’

नन्दू बोला, ‘तीसरी तक पढ़ा था, फिर मन नहीं लगा। मास्टर जी साँटी से बहुत मारते थे। थोड़ा सा हल्ला किया नहीं कि सटासट पड़ती थी।’

फिर उसे कुछ याद आ गया। हँसते हुए बोला, ‘एक बार हमारी क्लास के पवन को जोर से साँटी मारी तो वह ऐसे पड़ गया जैसे बेहोस हो गया हो। बड़ा नाटकबाज था। मुँह से फसूकर छोड़ दिया। मास्टर जी की हालत तो डर के मारे खराब हो गयी। जल्दी-जल्दी उसके मुँह पर पानी छोड़ा तब उसने आँखेंं खोलीं। फिर हलवाई की दुकान से एक पाव जलेबी मँगा कर उसे खिलायी। बाद में पवन खूब हँसा।’

उमाशंकर को भी खूब मज़ा आया। नन्दू अब मौका मिलते ही उनके पास बैठक जमा लेता था। उसकी छठी इन्द्रिय ने जान लिया था कि अटक-बूझ में यह भला आदमी उसे अपनी छाया दे सकता है।

लेकिन नन्दू की यह बार-बार की उपस्थिति उमाशंकर के परिचितों के कान खड़े कर रही थी। जब वह आता-जाता तो आसपास के लोग उसे घूर कर देखते। यह चायवाला आवारा लड़का उमाशंकर से क्यों चिपका रहता है?

एक दिन रेवाशंकर ने उनसे कह ही दिया, ‘पापाजी, यह चायवाला लड़का क्यों हमेशा आपके पास घुसा रहता है?’

उमाशंकर हँसकर बोले, ‘कौन? नन्दू? वह बहुत अच्छा लड़का है। मुझे उसकी बातें सुनकर बड़ा आनन्द आता है।’

रेवाशंकर बोला, ‘लेकिन ऐसे लड़कों को मुँह लगाना ठीक नहीं। ये अच्छे लड़के नहीं होते।’

उमाशंकर ने जवाब दिया, ‘अच्छा बुरा कोई जन्म से नहीं होता। परिस्थितियाँ उसे अच्छा बुरा बनाती हैं। मुझे तो यह अपराध-बोध रहता है कि हमारे देश की भावी पीढ़ी इस तरह नष्ट हो रही है और हम पढ़े लिखे लोग आँख मूँद कर अपने स्वार्थ-साधन में लगे हैं। कभी न कभी हमें इन कर्मों का फल भोगना पड़ेगा। तब यही लड़के पत्थर मार मार कर हमारा जीना हराम कर देंगे। लेकिन शायद तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।’ 

रेवाशंकर बोला, ‘प्रारब्ध की बात है। सब अपना प्रारब्ध भोगते हैं।’

उमाशंकर उत्तेजित होकर बोले, ‘यह पलायनवाद है। जिनका भाग्य जन्म से पहले ही निश्चित हो जाता हो उनका प्रारब्ध क्या होगा? जिस घर में गरीबी है, पढ़ाई-लिखाई का वातावरण नहीं है, कलह है, वहाँ बच्चे का प्रारब्ध तो पूर्वज्ञात है। कोई विरला अपवाद निकल सकता है।’

रेवाशंकर अप्रसन्न होकर बोला, ‘मैं आप से बहस करने लायक नहीं हूं, लेकिन इतना ही कह सकता हूँ कि ऐसे लड़कों की संगत आपको शोभा नहीं देती।’

उमाशंकर हँसकर बोले, ‘भैया, मैंने तुम सभी भाइयों को पढ़ा लिखा कर अपने पैरों पर खड़े होने लायक बना दिया। अब मेरा कार्यक्रम सिर्फ खाने, पीने और सोने का है या इधर-उधर गपबाज़ी करने का, जो एक तरह से निरर्थक है। मैं सोचता हूँ ऐसा कुछ करूँ जिससे जीवन में कुछ दूर तक ऐसा लगे कि मेरा जीवन उपयोगी है। मैं अपनी पेंशन से एक दो लड़कों की ज़िन्दगी सुधारने की कोशिश कर सकता हूँ। परिणाम ऊपर वाले के हाथ में है।’

रेवाशंकर कुछ नाराज़ी के स्वर में  ‘जैसा आप ठीक समझें। मैं क्या कह सकता हूँ?’ कहकर चला गया।’

नन्दू आसपास वालों का रुख भाँप कर उमाशंकर के पास आने में झिझकने लगा था। एक दिन उमाशंकर से बोला, ‘बाबूजी, यहाँ के लोगों को मेरा आपके पास आना अच्छा नहीं लगता। गुस्से से मेरी तरफ देखते हैं। मैं आपके पास नहीं आया करूँगा।’ फिर करुण चेहरा बनाकर बोला, ‘आपके पास आकर बहुत अच्छा लगता है, इसलिए आता हूँ।’

उमाशंकर उसकी पीठ पर हाथ रख कर बोले, ‘तुम इन बातों की फिक्र मत करो। जो जैसे देखता है, देखने दो। यह महीना सेठ के यहाँ पूरा करो, फिर तुम्हें स्कूल में भर्ती कराना है। घर में डंडा लेकर मैं तुम्हें पढ़ाऊँगा। तुम्हें आदमी बनाना है।’

सुनकर नन्दू हँसते-हँसते लोटपोट हो गया। बोला, ‘तो क्या मैं अभी जानवर हूँ? मेरे पूँछ कहाँ है?’

उमाशंकर भी हँसे,बोले, ‘हाँ, तू बिना पूँछ का जानवर है। तुझे पूरा इंसान बनाऊँगा। पढ़ाई से आदमी पूरा इंसान बनता है।’

उस दिन नन्दू सोया तो बड़ी मीठी नींद आयी। सपने में दिखी उसकी तरफ बाँहें फैलाती अम्माँ और हाथ बढ़ा कर पुकारती उसकी नन्हीं बहन गुड़िया, लेकिन आज उन्हें देखकर उसका मन भारी नहीं हुआ।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 117 ☆ लघुकथा – मोहपाश ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘मोहपाश । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 117 ☆

☆ लघुकथा – मोहपाश ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

मम्मी ! ‘जी पे’ का नंबर बताओ!

क्यों? किसलिए? 

पैसे चाहिए और क्या? 

सब चीजें तो हैं घर में, अब तुम्हें क्या खरीदना है? 

तुम्हें पता है ना कि अब मेरी पेंशन से ही काम चलाना है। तेरी नौकरी अभी तक नहीं लगी है और मुझे मानसी की शादी के लिए भी पैसे बचाने हैं।

वह तुम्हारी जिम्मेदारी है, तुम जानो। ‘पिन’ बता रही हो कि नहीं – बेटा तेजी से लगभग डाँटते हुए बोला।

उसकी तेज आवाज ने उसे कँपा दिया, कुछ वैसे ही जैसे पति का शव सफेद कपड़े में लिपटा देख वह काँपी थी। उसने दोनों बच्चों को बाँहों के घेरे में कसकर जकड़ लिया था। रेशमी धागों की यह जकड़न बच्चों के बड़े होने के साथ-साथ बढ़ती ही गई। जीवन के हर मोड़ पर रेशमी धागों की एक और गाँठ जुड़ जाती। वह समझती रही कि उसकी बाँहों के ये घेरे बच्चों को हर तरह से संभाले हैं पर ———- मंदिरों में बँधे मनौतियों के धागे भी ना जाने कितनों की मन्नतों को अपने में समेटे समय के साथ बेरंग हो जाते हैं।

‘पिन’ बताती क्यों नहीं मम्मी!

हैं — हूँ – उसने चौंककर बेटे की ओर देखा, वह समझ ही ना सकी रेशम की डोर कब जानलेवा रस्सियों में बदल गई।

©डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ ताकि सनद रहे ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।)

आदरणीय डॉ कुँवर प्रेमिल जी के विवाह की 50 वीं वर्षगांठ पर ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से हार्दिक शुभकामनाएं 💐 ईश्वर आप दोनों को सदैव स्वस्थ एवं प्रसन्नचित्त रखें यही हमारी मंगलकामनाएं 💐 इस शुभ अवसर पर उपहार स्वरूप आपकी ही एक लघुकथा – ‘ताकि सनद रहे’

☆ लघुकथा – ताकि सनद रहे ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

पतिदेव आज सुबह-सुबह ही उठ गए। उन्होंने चाय बनाकर अपनी धर्मपत्नी को जगाकर कहा-‘भाग्यवान, अब उठो भी—मेरे हाथ की गरमा-गरम चाय पी कर तो देखो।’

पत्नी हड़बड़ा कर उठी’-यह क्या गजब कर डाला। पूरी जिंदगी मैंने तुम्हें चाय पिलाई और आज आपने उल्टी गंगा बहाई।’

‘मैडम कोई गंगा उल्टी नहीं बही—वह तो अपना मार्ग प्रशस्त करती बहती है। आप भी मेरे घर की गंगा हो। करवट बदल कर उठो और गरमा गरम चाय का लुत्फ़ उठाओ।’

‘सारी जिंदगी मैंने आपको कोई काम नहीं करने दिया। आज नाश पीटी नींद ने कैसा बदला लिया जो–‘

‘अरे, पूरी जिंदगी तुम गंगा बनकर इस परिवार को तृप्त करती रहीं। जिस दिन से ब्याह कर आई उस दिन के बाद शहर में मायका होते हुए भी एक दिन के लिए मायके नहीं गई।’

पत्नी मुस्कुराकर बोली-‘अब बातें ही बनाओगे या चाय भी पिलाओगे’।

‘चाय की चुस्कियां लो और उसके बाद नाश्ता–मैंने गरमागरम आलू के पराठे सेंक लिए हैं। तुम्हें आलू के पराठे पसंद जो हैं -क्यों?’

‘चलो, आप बड़े वो हो, मेरी नींद का फायदा उठाकर आज गृहस्थी की ड्यूटी में मेरी गैर हाजिरी लगवा दी। आपकी चाय ने तो मेरे शरीर में मस्ती सी घोल दी है।’

पति ने शरारती अंदाज में कहा-‘देखो जी, आज हमारी शादी की पचासवीं वर्षगांठ है। आज मैं दिन भर तुम्हें झूला झुलाऊंगा और फूलों के बिस्तर पर शयन कराऊंगा। ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आए। कम से कम एक दिन के लिए पति को भी पत्नी बन कर देखना चाहिए।’

तब तक पत्नी जी सो चुकी थीं और खर्राटे भरने लगी थीं। उनके चेहरे पर आत्म संतोष छलका पड़ रहा था।

पतिदेव भी पूरे उत्साह के साथ चाय के बर्तन धोने चले गए थे।

🔥 🔥 🔥

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #181 – लघुकथा – निष्क्रियता के बीज… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “निष्क्रियता के बीज…”)

☆  तन्मय साहित्य  #181 ☆

लघुकथा – निष्क्रियता के बीज… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

साहब कोई काम है क्या पेड़-पौधों की छँटाई, साफ-सफाई या और भी कुछ घर के काम?

कुछ वर्ष पूर्व तक बारिश के महीने-पंद्रह दिन बाद से ही हाथ में खुरपी-कटर लिए दरवाजे दरवाजे ये काम करने वाले मजदूर नजर आ जाते थे।

घर के बाहर लगे पेड़ पौधों के बीच उगी घास की सफाई के लिए पिछले कई दिनों से ऐसे काम करने वाले की बाट जोह रहा था। थक हार कर काम करने वाले किसी बंदे को खोजने के लिए बाहर निकला। पास के ही मोहल्ले में एक व्यक्ति सफाई करते दिखने पर पास जा कर पूछा मैंने,-

“मेरे यहाँ यही काम करना है, करोगे?”

सुनकर पहले तो उसके माथे पर तनाव की लकीरें उभरी, फिर कुछ सोचते हुए कहा “ठीक है साहब कर दूँगा।”

“एक डेढ़ घंटे का काम है, क्या लोगे?”

साब!  “1 घंटे का काम हो या थोड़े ज्यादा का मजदूरी दिन भर की लगेगी पूरे पाँच सौ रुपये।”

“पाँच सौ रुपये! आश्चर्य से मैंने प्रश्न किया।”

“हाँ साहब, ये बाबूजी भी तो दे रहे हैं, देखो – इस इतने से काम के!”

“वैसे तो अब ये सब काम धाम करना नहीं जमता हमें, पर इनके यहाँ बहुत पहले से यह सब करता आया हूँ तो उनके बुलाने पर मजबूरी में आना ही पड़ता है।”

“काम-धाम करना नहीं जमता तो फिर तुम्हारी गृहस्थी कैसे चलती है?”

“सरकार देती है न हमें, कूपन पर एक रुपए किलो में सभी प्रकार के अनाज, घासलेट, साथ में रहने को घर, मुफ्त बिजली-पानी के संग और भी बहुत सारी सुविधाएँ। तो नकदी के लिए हम लोग राशन का कुछ हिस्सा बाहर बेच देते हैं और बाकी का घर की दाल रोटी के लिए बचा लेते हैं, इसके अलावा इधर-उधर के अन्य शौक पूरे करने के लिए घरवाली लोगों के यहाँ बर्तन व झाड़ू-पोंछा कर के कमा लाती है।”

बिना पेंशनधारी सेवानिवृत्त मैं बोझिल कदमों से घर लौटते हुए सोच रहा हूँ, –

मुफ्त की ये सरकारी सुविधाएँ गरीबों का स्तर सुधारने की है या उन्हें अकर्मण्य बनाने की!

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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