हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ कोरोना सन्दर्भ – “निगेटिव रिपोर्ट का कमाल —” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल☆

श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है कोरोना सन्दर्भ में आपकी एक लघुकथा   – “निगेटिव रिपोर्ट का कमाल ”)

☆ लघुकथा ☆ निगेटिव रिपोर्ट का कमाल —” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆

(कोरोना सन्दर्भ)

10 दिन की जद्दोजहद के बाद एक आदमी अपनी कोरोना नेगटिव की रिपोर्ट हाथ में लेकर अस्पताल के रिसेप्शन पर खड़ा था।

आसपास कुछ लोग तालियां बजा रहे  थे, उसका अभिनंदन कर रहे थे।

जंग जो जीत कर आया था वो।

लेकिन उस शख्स के चेहरे पर बेचैनी की गहरी छाया थी।

गाड़ी से घर के रास्ते भर उसे याद आता रहा “आइसोलेशन” नामक खतरनाक और असहनीय दौर का वो मंजर।

न्यूनतम सुविधाओं वाला छोटा सा कमरा, अपर्याप्त उजाला, मनोरंजन के किसी साधन की अनुपलब्धता, कोई बात नही करता था और न ही कोई नजदीक आता था। खाना भी बस प्लेट में भर कर सरका दिया जाता था।

कैसे गुजारे उसने  वे 10 दिन, वही जानता था।

घर पहुचते ही स्वागत में खड़े उत्साही पत्नी और बच्चों को छोड़ कर वह शख्स सीधे घर के एक उपेक्षित कोने के कमरे में गया, जहाँ माँ पिछले पाँच वर्षों से पड़ी थी। माँ के पावों में गिरकर वह खूब रोया और उन्हें लेकर बाहर आया।

पिता की मृत्यु के बाद पिछले 5 वर्षों से एकांतवास (आइसोलेशन )भोग रही माँ से कहा कि माँ आज से आप हम सब एक साथ एक जगह पर ही रहेंगे।

माँ को भी बड़ा आश्चर्य लगा कि आख़िर बेटे ने उसकी पत्नी के सामने ऐसा कहने की हिम्मत कैसे कर ली? इतना बड़ा हृदय परिवर्तन एकाएक कैसे हो गया?  बेटे ने फिर अपने एकांतवास की सारी परिस्थितियाँ माँ को बताई और बोला अब मुझे अहसास हुआ कि एकांतवास कितना दुखदायी होता है? 

बेटे की नेगटिव रिपोर्ट उसकी जिंदगी की पॉजिटिव रिपोर्ट बन गयी।

(अनाम लेखक)

इसके आगे की कथा मैंने जनहितार्थ  लिखी

बेटे ने अपनी निगेटिव रिपोर्ट को चूमते हुए देखा कि कोरोना वायरस दो मीटर दूर खड़ा जाने की इजाजत मांग रहा है। बेटा हाथ जोड़कर बोला- तुम्हारे कारण मुझे दस दिन की तकलीफ तो हुई, पर मेरी माँ की पाँच साल की तकलीफ दूर हो गई। तुम्हारा बहुत…बहुत ” कहते बेटे की आँखों से दो बूँद धन्यवाद टपक पड़ा ।

वायरस की भी आँख भर आई बोला-” हम अति सूक्ष्म हैं तो क्या? माँ-बाप तो हमारे भी होते है।और हम उन्हे अपने साथ ही रखते हैं । खैर, अपना और अपने माँ-बाप का खयाल रखना। याद रहे दवाओं के साथ दुआएं भी लो तो इम्युनिटी जल्दी बढ़ती है। अच्छा तो अब हम चलते हैं।”

“क्या अब यहाँ  से सीधे वापिस चीन जाओगे?” बेटे ने पूछा

नहीं नहीं, इतनी जल्दी नहीं। अभी उन कुछ घरों में और जाना है, जिन घरों के माँ-बाप पाँच साल से अब तक एकांतवास (आइसोलेशन) में हैं। “

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सिंडिकेट ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 महादेव साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र दी जाएगी। 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – सिंडिकेट ??

…बहुत कठिन है आजकल लाइक्स लेना..!

…इसलिए हमने बार्टर अपनाया है। हम उनको लाइक देते हैं, वे हमको लाइक देते हैं। क्या लिखा, कैसा लिखा, इससे क्या लेना देना। बस अपना सिंडिकेट ज़िंदाबाद।

…एक बात बताओ। तुमको लाइक्स कैसे मिलते हैं?

…शब्द मेरे सखा हैं। मेरा पाठक ही मेरा सिंडिकेट है…,सच्चे लेखक ने उत्तर दिया।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – युवा शक्ति ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।  आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं। आज प्रस्तुत है आपकी कोरोना महामारी के समय की एक लघुकथा ‘‘युवा शक्ति)

☆ लघुकथा – युवा शक्ति ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल 

(संदर्भ-कोरोना)

बच्चे फुटबॉल खेल रहे थे। लॉकडाउन में अभी-अभी छूट मिली थी। इस समय पूरा ग्राउंड उनका क्रीड़ा स्थल बना हुआ था।

उनके चेहरों से टप टप पसीना बह रहा था। पर किसे परवाह थी, सब जोशीले खिलाड़ी बनकर अपने अपने करतब दिखा रहे थे।

कोई इधर से चिल्लाता – मार छोटे।

कोई उधर से चिल्लाता – मार मोटे।

मार लंगड़े – मार कुबड़े…

युवा शक्ति पूरे खेल के मैदान को मथे डाल रही थी। जीत की चिंता सभी के सामने थी और कोई किसी भी तरह किसी से हारना नहीं चाहता था। ऐसे में सबकी मास्क अपनी अपनी जगह पर कहां टिकती भला?

किसी की मास्क गले में लटकी थी तो किसी के कान में उलझी थी।

खिलाड़ी दौड़ रहे थे, गोल पर गोल कर रहे थे। ग्राउंड के आसपास दर्शक भी तालियां बजाकर खिलाड़ियों का भरपूर उत्साहवर्धन कर रहे थे। उनके मास्क भी यथावत नहीं थे। वे मास्क अपने हाथ में लेकर गोल-गोल घुमा कर चिल्ला रहे थे

– मार छोटे – मार मोटे – मार् कुबड़े – मार लंगडे –

युवा शक्ति ने कोरोना को ललकार दिया था। कोरोना के भय को उन्होंने फुटवाल सा उछाल दिया था। वहां किसी भी चेहरे पर नाम मात्र का भी कोरोना का भय शेष नहीं रह गया था।

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – जो डर गया सो मर गया ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।  आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं। आज प्रस्तुत है आपकी कोरोना महामारी के समय की एक लघुकथा ‘‘जो डर गया सो मर गया)

☆ लघुकथा – जो डर गया सो मर गया ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल 

(संदर्भ-कोरोना)

एकाएक मेरी नींद उचट गई। पूरा बदन पसीना पसीना हो गया, ऐसा लगा जैसे मुख्य दरवाजे पर एक साहीनुमा कटीला सा खतरनाक जीव दरवाजा फलांगने की असफल कोशिश कर रहा था।

पूरे परिसर में उसकी सरसराहट गूंज रही थी। उसकी शक्ल टीवी में दिखाए गए कोरोना वायरस से हुबहू मेल खा रही थी।

मैंने चीख मार दी थी। मेरे साथ पूरा घर चीखें मारने लगा।

तभी एक आदमी बगल से निकल कर उसे लाठी लेकर खदेड़ने लगा। वह जीव फिर पार्क की दीवार फांद गया। वहां पहले से ही कुछ एक आदमी खड़े थे। उन से डर कर वह खतरनाक जीव पेड़ों पर चढ़ गया। पेड़ों पर पहले से ही और भी खतरनाक जीव चढ गए थे।

मोहल्ले के बहुतेरे लोग इकट्ठे होकर चिल्ला रहे थे—मारो–

मारो सालों को—डरो मत–

ये डरने से और डराएंगे।

जो डर गया सो मर गया—अरे जो डर गया सो मर गया।

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

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हिंदी साहित्य – कथा-कहानी ☆ अतीत की खिड़की से रुपहली धूप – भाग – 2 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।)

☆ कथा-कहानी ☆ अतीत की खिड़की से रुपहली धूप – भाग – 2 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

दो चार चिठ्ठिओं के बाद एक और चिठ्ठी पूर्णिमा पढ़ रही थी …‘‘यह भी कैसी विडंबना है! सारा किया कराया मेरा है, मगर सारी मुसीबतें तुम्हें झेलनी पड़ रही है। अकेले। तुम्हें उल्टी करते देख मैं तो घबड़ा ही गया था। कहीं पीलिआ सिलिया न हो जाए! मगर भाभी ने मुझे चिकोटी काटते हुए कहा था,‘‘यह रोग तो तुम्हीं ने लगाया है।’’ अब कैसी हो? वहाँ जाकर क्या ऐसे ही सब ठीक हो गया? अच्छा, तो हमारे ही यहाँ तुमको जितनी तकलीफें हैं? मायका तो स्वर्ग का और एक नाम है – क्यों? अच्छा, मुन्ना होगा तो उसका नाम क्या रखोगी ?और अगर बेटी हुई तो? दोनों नाम सोच कर रखना …।’’

धूप के साथ छाँव, तो सुख के साथ दुख भी। अम्माजी की एक चिठ्ठी में कुछ वैसी ही बातें-। ‘‘अब इसमें मेरा क्या दोष है? मिथलेश चाची मुझे ही कोस रही थी ‘‘बहू आयी, साल बीता नहीं कि लगी लगायी नौकरी छूट गयी।’’ ‘‘मेरी ही किस्मत फूटी है, तो मैं क्या करूँ?’’

इसके जवाब में हृदयनारायण -‘‘लो, उस दिन तो तुम अपनी किस्मत पर रो रही थी। अब? वो नौकरी गयी, तभी न मैं एड़ी चोटी एक करके यहाँ से वहाँ दौड़ता रहा। देखो, पाँच महीने के अंदर मुझे लेक्चरर का पोस्ट मिल गया। अब मैं शान्ति से डाक्टरेट भी पूरा कर लूँगा। तो?

अब पूर्णिमा चिठ्ठिओं को सहेजने लगी।

‘‘क्या कर रही हो दीदी?’’

‘‘कहीं बाबूजी अम्माजी वापस आ जायें तो -?’’

‘‘चोरी तो नहीं की है, डाका तो नहीं डाला। हंगामा है क्यूॅ ?’’अनामिका खिलखिलाने लगी,‘‘बस, प्रेमपत्र ही तो पढ़ रही हूँ -’’

‘‘यह चोरी नहीं तो और क्या है?’ ’चॉदनी ने उसे कसके चिकोटी काट दी।

‘‘ऊफ् माँ! दीदी, दीदी जरा देखो न अम्माजी के मधुशाला में और कितना नशा है? इसे – इसे पढ़ो !’’

कई साल के अन्तराल के बाद की चिठ्ठी थी। तीनों संतानें हो गई थीं …….

‘‘देखिए, जल्दी जल्दी में मैं मुन्नी का फ्राक उतार ले आना भूल ही गई। छत पर पड़ा है। बंदर फाड़ न दे। मिठाई से कह कर बच्चों का ड्रेस इस्तिरी करवा दीजिएगा …’’

‘‘लो, चिठ्ठी में बंदर से लेकर धोबी सबका जिक्र है। मगर -’’अनामिका के अरमान का गुब्बारा फुस्स् हो गया, ‘‘आगे क्या है?’’

‘‘भूलिएगा नहीं। बाबूजी की दवा रात में दे दीजिएगा। और अम्माजी रोज रोज पूड़ी कचौड़ी न बनायें। अब इस उमर में बाबूजी के लिए ये सब ठीक नहीं हैं। वैसे आपका मना करना भी तो शोभा नहीं देगा। लगेगा मैं सीखा पढ़ा कर आयी हूँ। मगर ख्याल रहे उनको दिल की बीमारी है। ….’’

‘‘दिल का हाल सुने दिलवाला -उसका क्या होगा, नायिके ?’’

‘‘कल सारी रात छुटकी रोती रही -’’दोनों भाभिओं ने ननद की ओर देखा -‘‘शायद पेट में दर्द हो रहा था। पेट में गैस वैस हो गया था -’’

‘‘छिः!’ ’सशक्त विरोध पक्ष में चाँदनी -‘‘अब यह सब नहीं पढ़ना है। वह मेरे पेट में दर्द था या कान में – कैसे मालूम ?’’

‘‘हाँ, हाँ, तुझे तो आज तक सब याद है!’’ बड़ी भाभी ने ननद की खिंचाई की।

‘‘बन्दर और दवा से लेकर गैस तक सब हैं। मगर -‘दोस्त दोस्त ना रहा, प्यार प्यार ना रहा….’। कहाँ सोचा था ‘फूलों के रंग से दिल की कलम से कुछ बातें लिखीं होगी…’’

इतने में बेल बजी। तीनों चोर जोर से चौंक गयीं -‘‘अरे बापरे! कितना बजा? अल्मारी बन्द कर।’’ दोनों देवरानियॉ जल्दी जल्दी चिठ्ठियॉ सहेजने लगीं।

चाँदनी ने बरामदे से देखा, ‘‘अम्मा और बाबूजी आये हैं।’’

पूर्णिमा ऑचल के नीचे एक पुलिंदा दबा कर भागी नीचे – दरवाजा खोलने। इसके पास मानिनी की चिठ्ठियां थीं।

उधर अनामिका के हिस्से में हृदयनारायण की पत्रावली आ गयीं। उन्हें सिल्क के कपड़े में लपेट कर झट से अपने बिस्तर के नीचे दबा दिया।

दो तीन दिन ऐसे ही बीत गये…। फिर एक दिन शाम की चाय के बाद तीनों की महफिल जम उठी। चोरी करना आसान है। मगर चोरी का सामान लौटाना सचमुच मुश्किल काम होता है। अब चिठ्ठिओं को यथास्थान यथावत् रखना भी तो था। सबने सोचा अम्माजी जब बाथरुम जायेंगी तो सबकी पुनः स्थापना कर दी जायेगी। तभी अनामिका ने पूछा, ‘‘दीदी, तुमने भी अम्माँजी की बाकी चिठ्ठियॉ पढ़ ली कि नहीं ?’’

‘‘हाँ, कुछ कुछ……’’

‘‘देखो न, बुआजी की शादी के समय अम्मां को शायद एक नीले रंग की पटोला साड़ी बहुत ही पसन्द आ गयी थी। मगर इतने ढेर सारे खर्च को देखते हुए बेचारी ने मन की साध मन में ही दबा ली। बाबूजी को किसी से पता चल गया था। एक चिठ्ठी में उसी बात का अफसोस कर रहे थे कि मैं तुमको वह साड़ी पहना न सका। उसके बाद भी इतनी सारी चीजें खरीदी गयीं – उससे महॅँगी भी – मगर गृहस्थी के बजट में उसका फिर नाम न आया। बाबूजी माताजी को वही साड़ी पहनाना चाहते थे।’’

‘‘हाँ रे! उसी तरह माताजी की एक चिठ्ठी में भी है’’

जब चाँदनी के भैया लोग छोटे थे, तो इन्हें और दादा दादी को लेकर बाबूजी और अम्मां केदारनाथ बद्रीनाथ की यात्रा पर गये थे। पर गौरीकुंड पहुंचकर दादी की तबिअत काफी खराब हो गई। सो बाबूजी वहीं बैठे माँ की सेवा करते रहे। मजबूरन अम्माजी को बच्चों को लेकर दादाजी के साथ आगे चले जाना पड़ा। बस, वही बात अम्मांजी को सालती रही कि जिसकी इच्छा इतनी थी वही जा न सका। फिर दोबारा उधर का कार्यक्रम बन भी न सका।’’

तीनों चुप बैठी कुछ सोच रही थीं ……

आखिर पूर्णिमा बोली,‘‘क्यों रे छोटी, हम भी तो अपने सास ससुर के लिए कुछ कर सकती हैं। क्यों न बाबूजी और अम्माजी को एकसाथ फिर वहीं ले चलें। आज ही मैं तेरे बड़े भैया से बात करती हूँ।’’

‘‘हाँ, दीदी, और मैं अम्मा के लिए वही पटोला सिल्क की साड़ी खरीदूँगी। नीले रंग की।’’

अचानक चाँदनी उठ खड़ी हुई और दोनों भाभिओं के गाल चूम लिये …

कुछ दिनों बाद…

रेल टिकट को देख कर हृदयनारायण हॅँसने लगे, ‘‘यह तो मेरी कब की इच्छा थी। चलो, बेटे बहुओं ने पूरी कर दी। मैं तो भाई भाग्यवान हूँ -’’

‘‘और अम्मां, आप यही साड़ी पहन कर दर्शन करने जाइयेगा!’’ अनामिका ने सास के हाथों में वह साड़ी रख दी।

‘‘अरे! यह तू कैसे ले आई? सालों पहले ऐसी ही एक साड़ी पर मेरा मन आ गया था। मगर तेरे बाबूजी क्या करते? वो हो नहीं पायी। फिर भी, अब इस उमर में इसे पहनूँ ? छिः! लोग क्या कहेंगे?’’

‘‘नहीं अम्माँजी, आपको पहननी पड़ेगी! मन की साध अधूरी क्यों रहे? पूरी कर लीजिए …!’’

अचानक हृदयनारायण कुछ सोचने लगे, ‘‘मुन्ने की अम्मां, यह बताओ हम दोनों की असाध एक साथ इन्हें कैसे मालूम पड़ गयीं ? तुमने तो कभी कुछ नहीं बताया?’’

‘‘पागल हैं क्या? मैं क्यों बताने गयी?’’

‘‘तो?’’ हृदयनारायण दोनों बहुओं की ओर एकटक देखने लगे, ‘‘तुम लोगों को कैसे मालूम हुआ -?’’

दोनों अपराधी ऑँचल से मुँह दाब कर हॅँस रही थीं। चाँदनी ने ऑँखें नीची कर ली।

मानिनी के मन में क्या हुआ कि अचानक उठ कर गयीं और अपनी ड्रेसिंग टेबुल की अल्मारी को खोल कर उन्होंने देखा। बस, उल्टे पाँव सिर पीटते हुए वापस आ गयीं, ‘‘छिः! सत्यानाशी! तुम दोनों ने हमारी चिठ्ठी पढ़ी थी?’’

‘‘जाकर थाने में खबर करो!’’ हृदयनारायण चिल्लाकर बेटे को बुलाने लगे, ‘‘मुन्ना !जरा छत से बन्दर भगानेवाली लाठी तो लेते आ -’’

दोनों चोर घूँघट में मुँह छुपा कर हँसते हुए भाग खड़ी हुईं…।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी

नया पता: द्वारा, डा. अलोक कुमार मुखर्जी, 104/93, विजय पथ, मानसरोवर। जयपुर। राजस्थान। 302020

मो: 9455168359, 9140214489

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – कथा-कहानी ☆ अतीत की खिड़की से रुपहली धूप – भाग – 1 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।)

☆ कथा-कहानी ☆ अतीत की खिड़की से रुपहली धूप – भाग – 1 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

आखिर मौका मिल ही गया। घर में और कोई नहीं था। दोपहर के भोजन के बाद सास ससुर अपनी भतीजी को एम0 ए0 पास करने की बधाई देने चाचाजी के घर गये हुए हैं। बच्चों को स्कूल से लौटने में अभी देर है। मौका देख कर दोनों बहुओं ने माताजी की ड्रेसिंग टेबुलवाली अल्मारी खोली। ननद चाँदनी भी मैके आयी हुई हैं। कहती रह गयी, ‘‘भाभी, यह ठीक नहीं कर रही हो -। छिः!’’

‘‘इसमें छिः करने का क्या है ?’’ बड़ी भौजाई पूर्णिमा मुस्कराने लगी।

‘‘अम्माजी की चिठ्ठिओं को तुम लोग पढ़ोगी?’’ चाँदनी असमंजस में है कि इस षडयंत्र में उसे भागीदार बनना चाहिए या नहीं!

छोटी अनामिका कुछ मुँहफट है, ‘‘देखें तो सही – उस जमाने की स्टाइल क्या थी। बाबूजी चिठ्ठी की शुरुआत में अम्माजी को कौन सा सम्बोधन करते थे! और चिठ्ठी के अंत में -’’

‘‘छिः! भाभी!’’चाँदनी लाल हो गई।

‘‘तू तो ऐसे शर्मा रही है, जैसे खाली गंगा नहाने से ही तू और तेरे भाई अम्माजी के पेट में आ गये थे -’’। छोटी के मुँह में कुछ नहीं अटकता।

‘‘जाओ। मैं कुछ नहीं जानती। मरे। दोनों जने मिलकर।’’ ननद भागी। मगर फिर दरवाजे से झाँक कर देखने लगी ……

आखिर अल्मारी के भीतर – माँ की दीवाली बनारसी जो एक एक परत से फटने लगी थी – उसके नीचे पीतल के पान के डब्बे के अंदर मिल गया वह गुप्तधन!

‘‘हाय रे दइया! देखें देखें!’’ छोटी ऐसे उछली कि अल्मारी के खुले हुए पल्ले से पैर पर चोट लग गयी -‘‘उफ्!’’

‘‘पाप का फल हाथों हाथ! शर्म नहीं आती सास ससुर की चिठ्ठी पढ़ते हुए ?’’ चाँदनी फिर भाभिओं के पास फर्श पर बैठ गयी।

दो रंगीन रेशमी रुमालों में लपेटे हुए चिठ्ठिओं की दो गड्डियाँ। एक जो हृदय नारायण ने अपनी पत्नी को लिखी थीं। दूसरी वें जिनमें मानिनी ने उनको अपने आवेगों से अभिसिक्त किया था। तो जासूसी शुरू हो गई। पहले – पति का प्रेमपत्र पत्नी के नाम ……

‘‘यह क्या? सिर्फ डैश -! कोई संबोधन नहीं?’’बड़ी ने पहली वाली गड्डी के नीचे से सबसे पहला खत निकाला।

‘‘न प्रिये, न डार्लिंग। कुछ नहीं?’’अनामिका झुककर देखने लगी।

‘‘उस जमाने में ऐसा ही होता रहा।’’ चाँदनी मानो खुश हो गई।

‘‘तुझे कैसे मालूम? तू क्या साठ साल की नवेली है?’’ बड़ी ने अपनी गोद में बंडिल को सँभालते हुए कहा,‘‘वैसे तेरे वाले तुझको कौन सा संबोधन करते हैं ?’’

‘‘धत्। मैं क्यों बताऊँ ? तुम ही पूछ लेना अपने नंदोई से -’’

‘‘पढ़ो न दीदी। क्या साइगल की फिल्म में तुम हिमेश रेशमिया की बात कर रही हो ?’’

‘‘होली के ठीक पहले तुम चली गयी। जरा रुक जाती तो क्या बिगड़ जाता? भैया (स्साला!) आये और लिवा गये। कुछ तो कह सकती थी। शादी के बाद पहली होली है! यहीं रहना चाहिए था। उस साले से शर्म लग रही थी तो अपनी भाभी से कहना चाहिए था।

‘‘खैर, अब यहाँ मेरी भाभी मुझे रोज ताना मार रही है,-‘बलम गयो कलकत्ता, अब केसे खेलूँ होरी ?’’

इसी तरह नव दंपति की अनर्गल बातें। कुछ दिल की, तो कुछ समस्यायें भी। फिराक साहब की दो एक पंक्तियाँ। और अन्त में –

‘‘जाते समय मैके के नाम पर तुम इतनी खुश थी कि मुझे गुस्सा आ रहा था। सोचा था कमरे से सूटकेश उठाने के पहले तुम्हे दोनों बाहों में भींच कर एक जोरदार – वो ले लूँ। मगर तुम तो माँ और भाभी को प्रणाम करने के लिए रसोई में जा खड़ी रही।’’

‘‘तो बाबूजी ने चिठ्ठी में कुछ दिया कि नहीं? ’’अनामिका झाँक कर पढ़ने गयी, तो पूर्णिमा के सिर से उसका सर टकरा गया,‘‘उई माँ !’’

‘‘अच्छा हुआ। जैसा पाप वैसा ताप!’’ चाँदनी दोनों भाभिओं को उलाहना देने लगी।

अनामिका ने पूर्णिमा के हाथ से चिठ्ठी छीन ली,‘‘छिः! नाटक का अंत ऐसा ? यह वह कुछ नहीं। सिर्फ डैश और नीचे तुम्हारा -’’

‘‘तुम्हारा क्या ?’’

‘‘दिल का राजा! हृदयेश्वर!’’

‘‘ऐ भाभी, ससुर का नाम ले रही हो ?’’

‘‘नाम कहाँ लिया ? नारायण थोड़े ही कहा। मैं ने तो सिर्फ हृदयेश्वर कहा। क्यों?’’

‘‘अम्माजी ने इसका जबाब क्या भेजा ?’’

उनकी चिठ्ठिओं की बंडल के नीचे से पूर्णिमा ने मानिनी की पहली चिठ्ठी निकाल ली, ‘‘चालीस साल हो गये – कितने करीने से इन चिठ्ठिओं को सॅँभाल कर रक्खा है’’

‘‘इनके बेटों को कुछ सीखना चाहिए। मैके जाओ तो पूछते तक नहीं। एकबार फोन क्या कर लिया, बस।’’    

‘‘आपकी चिठ्ठी मिली। चरणस्पर्श -।’’हाय रे दइया!’’ मानो अनामिका की चाय में मक्खी पड़ गई। ‘‘उस जमाने में तो गाने होते थे -‘‘पहला पहला प्यार है, जिआ बेकरार है। आ जा मोरे बालमा, तेरा इन्तजार है !’’

‘‘अरे मुई! चिठ्ठी के अंत में तो देख। दूसरे पन्ने पर -’’

‘‘अरे बाप रे! ये -?’’

‘‘क्या है भाभी?’ ’चाँदनी के मन में द्वन्द्व। नारी का स्वाभाविक कुतूहल और बेटी के फर्ज में।

पूर्णिमा ने चिठ्ठी के दूसरे पन्ने को दिखाया। आखिरी हिस्से में  – सुन्दर से होंठ के निशान। धनुष की तरह।

‘‘यानी अम्माँजी ने होठों पर लिपस्टिक लगाकर – ’’अनामिका ने ऑँचल से मुँह ढक लिया।

‘‘छिः! चुड़ैल कहीं की! तुम लोग यह क्या कर रही हो ?’’चाँदनी ने छोटकी की पीठ पर एक मुक्का जड़ दिया।

पूर्णिमा ने हॅँसते हुए पढ़ा, नीचे लिखा है -‘‘ आपने जो कहा था – बाकी रह गया। अब इसीसे जितनी बार चाहे ……..’’

ऐसी ही चिठ्ठियॉँ …….इसी तरह अतीत की खिड़किआँ खुलती रहीं …..और ये तीनों – ननद और देवरानियाँ – अपनी अपनी मुठ्ठि्ओं में उजली धूप को उठा कर – हॅँसी ठिठोली करती हुई – एक दूसरे पर लुटाती रहीं …

क्रमशः …

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी

नया पता: द्वारा, डा. अलोक कुमार मुखर्जी, 104/93, विजय पथ, मानसरोवर। जयपुर। राजस्थान। 302020

मो: 9455168359, 9140214489

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 111 ☆ लघुकथा – लड़कियां खेलती क्यों नहीं दिखतीं ? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक लघुकथा लड़कियां खेलती क्यों नहीं दिखतीं ?। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 111 ☆

☆ लघुकथा – लड़कियां खेलती क्यों नहीं दिखतीं ? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

रविवार के दिन उसने साइकिल निकाली और चल पड़ा स्टेडियम की ओर। फुरसत की सुबह उसे अच्छी लगती है, हर दिन से कुछ अलहदा। ‘आज मनीष को भी साथ ले चलता हूँ’- उसने सोचा। वह तो अब तक बिस्तर में ही अलसाया पड़ा होगा। उसने आवाज लगाई – मनीष! जल्दी आ नीचे, स्टेडियम चलते हैं।

‘अरे नहीं यार! संडे की सुबह कोई ऐसे खराब करता है क्या?‘ मनीष ने बालकनी में आकर अलसाए स्वर में कहा।

तू नीचे आ जल्दी, आज तुझे लेकर ही मैं जाऊँगा। रुका हूँ तेरे लिए।

आता हूँ यार! तू कहाँ पीछा छोड़ने वाला है।

‘अरे! यहाँ तो  बहुत लोग आते हैं’ – स्टेडियम  में जॉगिंग करने और टहलने वालों की भीड़ देखकर मनीष बोला।

सब तेरी तरह आलसी थोड़े ही ना हैं। हर उम्र के लोग दिखाई देंगे तुझे यहाँ। बहुत अच्छा लगता है मुझे यहाँ आकर। ऐसा लगता है कि सब कुछ जीवंत हो गया है। लडकों को क्रिकेट खेलते देखकर अपना समय याद आ  जाता है। मजे थे यार! उस उम्र के,  साइकिल उठाई और चल दिए स्टेडियम में या कभी घर के पास वाले मैदान में क्रिकेट खेलने के लिए – वह तेज गति से चलता हुआ बोलता जा रहा था।

मनीष मानों कहीं और खोया था, उसकी नजर स्टेडियम की भीड़ को नाप – जोख रही थी। कहीं लड़के क्रिकेट खेल रहे थे तो कहीं फुटबॉल। उन्हें देखकर वह कुछ गंभीर स्वर में बोला – ‘कितने लड़के  खेल रहे हैं ना यहाँ?‘

‘हाँ, हमेशा ही खेलते हैं, इसमें कौन सी नई बात है?’ 

‘हाँ, पर लड़कियां खेलती हुई क्यों नहीं दिखाई दे रहीं? रविवार की सुबह है फिर भी?’

उसकी नजर पूरे स्टेडियम का चक्कर लगाकर खाली हाथ लौट आई।

©डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – स्रष्टा- ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

हम श्रावणपूर्व 15 दिवस की महादेव साधना करेंगे। महादेव साधना महाशिवरात्रि तदनुसार 18 फरवरी तक सम्पन्न होगी।

💥 इस साधना में ॐ नमः शिवाय का मालाजप होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ भी करेंगे 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – स्रष्टा-  ??

“विचित्र अवस्था हो गई है मेरी। हर कोई दिगम्बर दिखाई देने लगा है। हरेक अपनी प्राकृतिक अवस्था में। किसी तरह का कोई आवरण नहीं”, साधक ने अपनी समस्या और जिज्ञासा एकसाथ रखीं।

…” जो आवरण तक रहा, उसे हरि कब दिखा? अब इस निरावरण प्रकृति को यों देख, जैसे माँ, संतान को देखती है। अपलक निहार ममता से। स्थूल में सूक्ष्म देखने लगा है तू।..सृष्टि से स्रष्टा होने की यात्रा पर है तू…” कहकर गुरुजी ने शिष्य को गले से लगा लिया।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – झाड़ू झाड़ू मारूंगी ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।  आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं। आज प्रस्तुत है आपकी कोरोना महामारी के समय की एक लघुकथा ‘‘झाड़ू झाड़ू मारूंगी )

☆ लघुकथा – झाड़ू झाड़ू मारूंगी ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल 

(संदर्भ-कोरोना)

‘बचाओ-बचाओ, मुझे कोरोना से बचाओ अर्ध रात्रि में सोनू डर से भयभीत होकर बुरी तरह चीख रहा था।

दादी अम्मा अपने पलंग से गिरती पड़ती सोनू के कमरे की ओर दौड़ पड़ी। कोरोना के डर से सोनू काफी डरा सहमा सा था। वह  सपने में डर से जोर-जोर से चिल्ला रहा था।

– मुझे कोरोना डायनासोर बनकर अपने पंजों में जकड़ कर पहाड़ी की ओर उड़ रहा है।

उधर सोनू के दादाजी हांफते हुए कहते हैं – भाग्यवान, लड़का बहू के आने तक मेरा राम नाम सत्य हो गया तो!

एक अकेली दादी और उनके हिस्से में हलाकान करने वाले दादा पोता, वह स्वयं बुरे बुरे सपनों से भयभीत है। उन्हें लाशें ही लाशें दिखाई देती हैं। कुत्ते, गिद्ध लाशें नोच कर खाते दिखाई देते हैं। घर-घर में लाशें बिछी है, उन्हें मरघट तक ले जाने वाले नहीं हैं।

दरवाजे खुले पड़े हैं, पर उन्हें ताले लगाने वाली नहीं है। सुबह-सुबह आने वाले यह सपने सच हो गए तो!

लड़का बहू किसी दूसरे शहर में फंसे हुए हैं, उनके आने तक दोनों वृद्ध कोरोना से चल बसे तो! तो के आगे दादी सोच नहीं पाती है।

सोनू अभी बच्चा ही है, गहरे सदमे का शिकार हो गया तो!

यह ‘तो’ दादी माँ के दिमाग की खिड़की पर हथौड़ी से ठकठकाता रहता है। इस भीषण त्रासदी में उन्हें दूर-दूर तक मदद करने वाला कोई भी दिखाई नहीं देता है। कैसा समय है यह?

पूरी दुनिया मौत के बढ़ते आंकड़े से भयभीत है। इसका कोई तोड़ नहीं है रे। ससुरा कोरोना मुझे मिल जाए तो झाड़ू झाड़ू मारूंगी।

दस मारूंगी फिर एक गिनूंगी। नासपीटा कहीं का, मुंह जला कहीं का।

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ वेलेन्टाइन डे विशेष – लघुकथा – तेरी-मेरी कहानी ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ वेलेन्टाइन डे विशेष – लघुकथा – तेरी-मेरी कहानी ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

(बीते कल के वेलेंटाइन डे की अप्रतिम लघुकथा)  

“हैप्पी वेलेन्टाइन डे, माय डियर,एंड आय लव यू।” कहते हुए सुनील ने एक रेडरोज अपनी पत्नी रत्ना के हाथ में दे दिया। 

“आय लव यू टू, माय लाइफ।” कहते हुए रत्ना ने अपनी खुशी व्यक्त की। 

 इस पर दोनों ठीक चार दशक पहले की कॉलेज की यादों में खो गए। 

“सुनील जी! क्या आपके पास यूरोपियन हिस्ट्री की बुक है?”

“हां! जी है।”

“मुझे कुछ दिन को देंगे, क्या?”

“जी ज़रूर।”

और सुनील ने यूरोपियन हिस्ट्री की किताब एम ए प्रीवियस की उसकी क्लास में आई नवप्रवेशित सुंदर,आकर्षक और शालीन लड़की रत्ना को दे दी।

फिर रत्ना ने नोट्स बनाने में सुनील की मदद की। सहपाठी तो वे थे ही,आपस में दोनों का मेलजोल बढ़ता गया। 

कक्षा में दोनों ही सबसे होशियार थे, इसलिए दोनों के बीच स्पर्धा भी थी, पर पूरी तरह स्वस्थ। धीरे-धीरे दोनों एक-दूसरे के दिल में समाते गए। रिजल्ट आया तो दोनों के ही नाम यूनीवर्सिटी की मेरिट लिस्ट में थे। 

और आज दोनों एक-दूसरे के जीवन की मेरिट लिस्ट में भी हैं।

अचानक उनकी तंद्रा टूटी, वे वर्तमान में वापस लौट आये, और एक-दूसरे की ओर देखकर मुस्कराने लगे। सुनील ने कहा, “तुम्हारी-मेरी कहानी भी ख़ूब है, डियर।”

“हां! है तो माय हार्ट।” रत्ना ने शरारती अंदाज़ में कहा।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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