(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा – सपना
बहुत छोटा था जब एक शाम माँ ने उसे फुटपाथ के एक साफ कोने पर बिठाकर उसके सामने एक कटोरा रख दिया था। फिर वह भीख माँगने चली गई। रात हो चली थी। माँ अब तक लौटी नहीं थी। भूख से बिलबिलाता भगवान से रोटी की गुहार लगाता वह सो गया। उसने सपना देखा। सपने में एक सुंदर चेहरा उसे रोटी खिला रहा था। नींद खुली तो पास में एक थैली रखी थी। थैली में रोटी, पाव, सब्जी और खाने की कुछ और चीज़ें थीं। सपना सच हो गया था।
उस रोज फिर ऐसा ही कुछ हुआ था। उस रोज पेट तो भरा हुआ था पर ठंड बहुत लग रही थी। ऊँघता हुआ वह घुटनों के बीच हाथ डालकर सो गया। ईश्वर से प्रार्थना की कि उसे ओढ़ने के लिए कुछ मिल जाए। सपने में देखा कि वही चेहरा उसे कंबल ओढ़ा रहा था। सुबह उठा तो सचमुच कंबल में लिपटा हुआ था वह। सपना सच हो गया था।
अब जवान हो चुका वह। नशा, आलस्य, दारू सबकी लत है। उसकी जवान देह के चलते अब उसे भीख नहीं के बराबर मिलती है। उसके पास फूटी कौड़ी भी नहीं बची है। एकाएक उसे बचपन का फॉर्मूला याद आया। उसने भगवान से रुपयों की याचना की। याचना करते-करते सो गया वह। सपने में देखा कि एक जाना-पहचाना चेहरे उसके साथ में कुछ रुपये रख रहा है। आधे सपने में ही उठकर बैठ गया वह। कहीं कुछ नहीं था। निराश हुआ वह।
अगली रात फिर वही प्रार्थना, फिर परिचित चेहरे का रुपये हाथ में देने का सपना, फिर हड़बड़ाहट में उठ बैठना, फिर निराशा।
तीसरी रात असफल सपने को झेलने के बाद भोर अँधेरे उठकर चल पड़ा वह शहर के उस चौराहे की तरफ जहाँ दिहाड़ी के लिए मज़दूर खड़े रहते हैं।
आज जीवन की पहली दिहाड़ी मिली थी उसे। रात को सपने में उसने पहली बार उस परिचित चेहरे में अपना चेहरा पहचान लिया था।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – रिक्शा।)
☆ लघुकथा – रिक्शा ☆ श्री हरभगवान चावला ☆
गिरधारी हर शाम जब रिक्शा चला कर घर लौटता तो रिक्शा को घर के सामने खड़ा करता, हाथ मुँह धोता और शराब के ठेके की तरफ़ चल पड़ता। आज भी वह घर से ठेके की ओर कुछ ही दूर चला था कि उसे याद आया – हाथ मुँह धोने के बाद उसने कुर्ता बदला था और पुराने कुर्ते से पैसे निकालना भूल गया था। पैसे लाने के लिए वह वापस लौटा तो देखा – रिक्शा की गद्दी पर सात वर्षीय बेटा विक्रांत – जिसे घर में विक्की बुलाते थे – बैठा था। बच्चों के लिए हर चीज़ कौतुक होती है – उसने सोचा। वह विक्की की तरफ़ देखकर मुस्कुराया और भीतर चला गया। कुर्ते से पैसे निकाल वह बाहर निकला तो गद्दी पर बैठे विक्की ने कहा, “आओ पापा, आज हम आपको रिक्शा की सवारी कराते हैं।”
“तू नहीं चला पाएगा बेटा, यह इतना आसान नहीं है।”
“आप बैठो तो सही।” हँसता हुआ गिरधारी सीट पर जा बैठा। विक्की ने रिक्शा खींचना शुरू किया तो गिरधारी हैरान रह गया। विक्की ऐसे रिक्शा चला रहा था जैसे जन्मों से रिक्शा ही चलाता आ रहा हो। उसने पूछा, “तूने रिक्शा चलाना कब सीखा?”
“जब आप ठेके पर जाते हो तब। सही चलाता हूँ न!”
“बहुत बढ़िया।” गिरधारी के होठों से जब ये शब्द निकले, ठीक उसी वक्त दहशत में डूबा दिल चीखा – तुम्हारे बेटे का भविष्य भी तय हो गया गिरधारी…! गिरधारी जैसे किसी समुद्र में डूबता जा रहा था।
“आया मज़ा?” समुद्र में डूब रहे गिरधारी के अचेतन ने सुना तो उसकी आँखें खुलीं। उसने देखा – रिक्शा ठेके के सामने खड़ा था और बेटा पूछ रहा था – आया मज़ा?
“हूँ… हँ…!” इतना भर बोलते हुए गिरधारी की जैसे सारी ताक़त निचुड़ गई।
“जाओ पापा, अपना काम कर आओ, फिर आपको वापस ले चलूँगा।” विक्की की यह बात सुन बौराया-सा गिरधारी कुछ क़दम ठेके की तरफ़ चला, फिर लौट आया। आते ही विक्की से बोला, “चल तू पीछे बैठ, मैं चलाता हूँ।”
“आप अपना काम तो कर लो पापा! पीने के बाद आपसे नहीं चलेगा, मैं ही चलाऊँगा।”
विक्की की बाजू पकड़ उसे गद्दी से खींचता गिरधारी बोला, “चुपचाप बैठ पीछे, अब से न मैं कभी इधर आऊँगा और न तू रिक्शा चलायेगा।”
अब विक्की सीट पर बैठा था और गिरधारी रिक्शा चला रहा था। सूरज कब का अस्त हो चुका था, पर अँधेरा कहीं नहीं था। गिरधारी कुछ गुनगुना रहा था। अचानक उसकी गुनगुनाहट में व्यवधान पड़ा। विक्की कुछ कह रहा था। उसने सुना- पापा, आपके रिक्शा पर पहले भी कई बार बैठा हूँ, पर आज जैसा मज़ा कभी नहीं आया।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी एक हृदयस्पर्शी एवं विचारणीय लघुकथा “बारिश”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 131 ☆
☆ लघुकथा ☆ बारिश ☆
शरद अपने बाग बगीचे को बच्चों की तरह देखभाल करते थे। एक बेटा था जो संगति के कारण बहुत ही अलग किस्म का निकला।
शरद पिछली बातों को भुला ना पा रहे थे… क्या कमी रह गई थी बेटे की परवरिश में? यही कि वह सख्ती से उसे जीवन में आगे बढ़ने और अपने जीवन में नित प्रति उन्नति करते रहने की शिक्षा देते थे।
शायद इसे अनुशासन और पाबंदी कहा करता था बेटा। घर का माहौल बेटे को बिल्कुल भी पसंद नहीं आया। 15 वर्ष की आयु के आते ही उसने अपना निर्णय स्वयं लेने लगा। माता- पिता के बातों की अवहेलना करने लगा। सब अपने मन से करने लगा।
आज शरद ने पूछ लिया…. “क्या वजह है कि तुम मेरी कोई बात का उत्तर नहीं देते? क्या अब मैं इतना भी नहीं पूछ सकता कि… कहां और किस से तुम्हारे पास पैसा आता है खर्च के लिए और तुम क्या काम करते हो?”
बेटे ने पिता जी की बात का जवाब दिए बिना ही बाहर निकल जाना उचित समझा। माँ यह सदमा बर्दाश्त न कर सकी और दिमागी संतुलन खो बैठी।
अब पूरी तरह शरद अकेले अपनी पत्नी के साथ जीवन संभाल रहे थे।
आज कई वर्षों बाद झुकी कमर और थरथराती हाथों से छाता लिए बगीचे में खड़े, बारिश में ताक रहे थे।
उन्होंने देखा सफेद साड़ी में लिपटी एक सुंदर महिला 5 वर्ष के बच्चे के साथ अंदर आई और पिता जी के चरणों पर सर रख दिया।
बच्चा कुछ सहमा हुआ था परंतु शरद की बूढ़ी आंखों ने तुरंत ही पहचान लिया और कहा…. “छोड़ गया तुम्हें मेरे हवाले।”
महिला ने नीचे सिर कर एक पत्र थमा दिया। बेटे की हाथ की चिट्ठी थी। शरद ने आगे पत्र खोलकर पढ़ा… ‘पिताजी शायद जब यह चिट्ठी आपको मिलेगी तब मैं नहीं रहूंगा। अपने बगीचे में एक पौधा लगा लेना। मुझे मेरे किए की सजा मिल चुकी परंतु इसे आप अपने जैसा इंसान बना देना।’
आज सावन की बारिश शरद को रुला रही थी, या हंसा रही थी कोई समझ ना सका। परंतु बारिश में बच्चे का हाथ लिए शरद सावन की बारिश में भींगने लगे थे।
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक विचारणीय कहानी ‘जेबकतरे ’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 149 ☆
☆ कहानी – जेबकतरे ☆
उस दिन मुझे जबलपुर से सतना तक ट्रेन से सफर करना था। ट्रेन में रिज़र्वेशन की सुविधा नहीं थी। बस, टिकट खरीद लो और जहाँ जगह मिले, बैठ जाओ। प्लेटफॉर्म पर लहराती हुई भीड़ को देखकर मुझे लगा आज का सफर बहुत मुश्किल होगा।
ट्रेन आयी और चढ़ने के लिए धक्का-मुक्की शुरू हो गयी। मुझे डिब्बे में प्रवेश करना बहुत कठिन लग रहा था, लेकिन तभी एक परिचित डिब्बे के अंदर दिख गये और उनकी मदद से डिब्बे में प्रवेश मिल गया।
जल्दी ही खिड़की के सामने प्लेटफॉर्म पर एक नाटक हुआ। कुछ लोग दस बारह साल के दो छोकरों को कहीं से पकड़ कर लाये और उनके साथ मारपीट करने लगे। उन लोगों का कहना था कि छोकरे जेबकतरे हैं। मारपीट के साथ वे उनसे कुछ पूछताछ भी कर रहे थे। इतने में ही कहीं से दो आदमी प्रकट हुए। उन्होंने दोनों छोकरों को उन लोगों के हाथों से छुड़ाकर उन्हें एक एक लात लगायी। छोकरे छूटते ही एक दिशा में भाग गये। उनके पीछे वे दोनों आदमी भी चले गये और छोकरों को पकड़ने वाले देखते रह गये। इसके बाद डिब्बे के भीतर और बाहर टिप्पणियाँ हुईं कि दोनों आदमी छोकरों से मिले हुए थे और उन्होंने जानबूझकर उन्हें भगाया था।
ट्रेन चलने के बाद डिब्बे में जेबकतरों के किस्से शुरू हो गये। एक साहब ने बताया कि अब जेबकतरे पकड़े जाने पर ब्लेड से पकड़ने वाले का हाथ भी चीर देते हैं और भाग जाते हैं। एक सज्जन ने लखनऊ का किस्सा सुनाया कि वहाँ के जेबकतरों की प्रसिद्धि सुनकर कैसे एक साहब अपनी जेब में नकली सोने के सिक्कों को लेकर घूमते रहे और शाम को डींग मारने लगे, और कैसे वहाँ के जेबकतरे ने उन्हें बताया कि उनकी जेब से नकली सिक्के निकालकर और परख कर वापस उनकी जेब में रख दिये गये थे।
फिर तो किस्से में किस्से जुड़ते गये और ‘जेबकतरा-पुराण’ बनता गया। लोगों ने मुग़ल बादशाहों के ज़माने से लेकर वर्तमान जेबकतरों तक का यशोगान किया। हम सब तन्मय होकर सुनते रहे और रोमांचित होते रहे।
एकाएक डिब्बे के दरवाजे़ की तरफ शोर हुआ और सब का ध्यान उस तरफ बँट गया। पता चला कोई जेबकतरा जेब काटने की कोशिश करता पकड़ा गया है। खड़े हुए लोगों की जु़बान पर चढ़कर बातें हम तक आने लगीं। पता लगा कि उसने किसी की जेब में हाथ डाला था कि पकड़ में आ गया।
बड़ी देर तक गर्मा-गर्मी की आवाज़ें आती रहीं। तेज़ बातों के साथ आघातों की आवाजे़ं में भी आ रही थीं, जिन से ज़ाहिर होता था कि जेबकतरे की पूजा घूँसों से की जा रही है।
जब बहुत देर हो गयी तो मेरी उत्सुकता जागी। किसी तरह लोगों के बीच से जगह बनाता मैं उस हिस्से में पहुँचा जहाँ लोगों की एक मोटी गाँठ इकट्ठी थी। बड़ी मुश्किल से मैंने लोगों के बीच से झाँका। उस गाँठ के बीच में एक साँवला युवक था, कमीज़ पतलून पहने। उसके सिर के बाल बहुत सस्ते ढँग से सँवारे हुए थे और वह सामान्य परिवार का दिखता था। क्या वह जेबकतरे सा लगता था? हाँ, वह शत-प्रतिशत जेबकतरा लगता था क्योंकि यदि किसी महात्मा को भी एक बार जेबकतरे का लेबिल लगाकर आपके सामने खड़ा कर दें तो वे हर तरफ से जेबकतरे लगने लगेंगे।
ख़ास बात यह थी कि युवक की नाक से ख़ून बह रहा था और उसकी कमीज़ पर ख़ून के दाग ही दाग थे। वह बार-बार अपनी हथेली से अपनी नाक पोंछता था, जिस कारण उसकी हथेली भी लाल हो गयी थी।
सहसा युवक ने अपने सामने खड़े लोगों की तरफ हाथ बढ़ाये और चीखा, ‘मेरे पैसे लौटा दो। वे चोरी के नहीं, मेरे खुद के पैसे थे।’
जवाब में वहाँ खड़े एक आदमी ने एक घूँसा उसकी नाक पर मारा और वह आँख मींच कर चुप हो गया। उसने अपनी कमीज़ उतार कर नाक पर लगा ली।
लेकिन आधे मिनट की चुप्पी के बाद ही वह हाथ उठाकर पागलों की तरह फिर चीखा, ‘अरे मेरे पैसे दे दो रे। मैंने चोरी नहीं की। वे मेरे पैसे थे। मेरे पैसे लौटा दो।’
फिर एक घूँसा उसकी नाक पर पड़ा और वह फिर शांत हो गया।
कुछ क्षण रुकने के बाद वह एक आदमी का कॉलर पकड़कर आँखें फाड़े बिलकुल विक्षिप्त की तरह चिल्लाने लगा, ‘मेरे पैसे दे दे नहीं तो मैं तुझे मार डालूँगा। मैं तुझे खा जाऊँगा।’
सब तरफ से घूँसों की बारिश शुरू हो गयी और युवक अपना चेहरा बाँहों में छिपा कर पीछे दीवार से टिक गया।
स्थिति मेरे बर्दाश्त से बाहर थी, अतः मैं अपनी सीट की तरफ वापस लौटा। तभी मैंने सुना कोई कह रहा था, ‘साले की घड़ी भी चोरी की होगी। उतार लो।’
इसके थोड़ी देर बाद ही उस तरफ इकट्ठी भीड़ छँटनी शुरु हो गयी और लोग हमारी तरफ को आने लगे। मैंने देखा उधर से आये दो आदमियों ने अपनी मुट्ठी में दबे नोट गिने और अपनी जेब में रख लिये। उन्हीं में से एक के हाथ में वह घड़ी थी जो थोड़ी देर पहले उस युवक की कलाई पर थी। वह आसपास बैठे लोगों को वह घड़ी दिखा रहा था।
गाड़ी कटनी स्टेशन पर रुकी। युवक से चीज़ें छीनने वाले मेरी खिड़की पर इकट्ठे होकर सावधानी से झाँकने लगे।
उनमें से एक झाँकता हुआ बोला, ‘उतर गया।’
दूसरा पीछे से बोला, ‘देखो कहाँ जाता है। स्टेशन मास्टर के दफ्तर में जाता है क्या?’
पहला झाँकता हुआ बोला, ‘नहीं दिख रहा है। लगता है किसी दूसरे डिब्बे में चला गया।’
यह सुनकर उन सब ने लंबी साँस छोड़ी। एक बोला, ‘उसकी क्या हिम्मत है शिकायत करने की।’
इसके बाद उन सब ने ज़ोर का ठहाका लगाया और बोले, ‘साला, जेबकतरा कहीं का।’
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #98 सरप्राइज़ टेस्ट… ☆ श्री आशीष कुमार☆
एक दिन एक प्रोफ़ेसर अपनी क्लास में आते ही बोला, “चलिए, surprise test के लिए तैयार हो जाइये। सभी स्टूडेंट्स घबरा गए… कुछ किताबों के पन्ने पलटने लगे तो कुछ सर के दिए नोट्स जल्दी-जल्दी पढने लगे। “ये सब कुछ काम नहीं आएगा….”, प्रोफेसर मुस्कुराते हुए बोले, “मैं Question paper आप सबके सामने रख रहा हूँ, जब सारे पेपर बट जाएं तभी आप उसे पलट कर देखिएगा” पेपर बाँट दिए गए।
“ठीक है ! अब आप पेपर देख सकते हैं, प्रोफेसर ने निर्देश दिया। अगले ही क्षण सभी Question paper को निहार रहे थे, पर ये क्या? इसमें तो कोई प्रश्न ही नहीं था! था तो सिर्फ वाइट पेपर पर एक ब्लैक स्पॉट! ये क्या सर? इसमें तो कोई question ही नहीं है, एक छात्र खड़ा होकर बोला।
प्रोफ़ेसर बोले, “जो कुछ भी है आपके सामने है। आपको बस इसी को एक्सप्लेन करना है… और इस काम के लिए आपके पास सिर्फ 10 मिनट हैं…चलिए शुरू हो जाइए…”
स्टूडेंट्स के पास कोई चारा नहीं था…वे अपने-अपने answer लिखने लगे।
समय ख़त्म हुआ, प्रोफेसर ने answer sheets collect की और बारी-बारी से उन्हें पढने लगे। लगभग सभी ने ब्लैक स्पॉट को अपनी-अपनी तरह से समझाने की कोशिश की थी, लेकिन किसी ने भी उस स्पॉट के चारों ओर मौजूद white space के बारे में बात नहीं की थी।
प्रोफ़ेसर गंभीर होते हुए बोले, “इस टेस्ट का आपके academics से कोई लेना-देना नहीं है और ना ही मैं इसके कोई मार्क्स देने वाला हूँ…. इस टेस्ट के पीछे मेरा एक ही मकसद है। मैं आपको जीवन की एक अद्भुत सच्चाई बताना चाहता हूँ…
देखिये… इस पूरे पेपर का 99% हिस्सा सफ़ेद है… लेकिन आप में से किसी ने भी इसके बारे में नहीं लिखा और अपना 100% answer सिर्फ उस एक चीज को explain करने में लगा दिया जो मात्र 1% है… और यही बात हमारे life में भी देखने को मिलती है…
समस्याएं हमारे जीवन का एक छोटा सा हिस्सा होती हैं, लेकिन हम अपना पूरा ध्यान इन्ही पर लगा देते हैं… कोई दिन रात अपने looks को लेकर परेशान रहता है तो कोई अपने करियर को लेकर चिंता में डूबा रहता है, तो कोई और बस पैसों का रोना रोता रहता है।
क्यों नहीं हम अपनी blessings को count करके खुश होते हैं… क्यों नहीं हम पेट भर खाने के लिए भगवान को थैंक्स कहते हैं… क्यों नहीं हम अपनी प्यारी सी फैमिली के लिए शुक्रगुजार होते हैं…. क्यों नहीं हम लाइफ की उन 99% चीजों की तरफ ध्यान देते हैं जो सचमुच हमारे जीवन को अच्छा बनाती हैं।
तो चलिए आज से हम life की problems को ज़रुरत से ज्यादा seriously लेना छोडें और जीवन की छोटी-छोटी खुशियों को ENJOY करना सीखें ….
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – निर्वासन।)
☆ लघुकथा – निर्वासन ☆ श्री हरभगवान चावला ☆
शहर से एक पक्षी अपने पुराने कुनबे से मिलने जंगल पहुँचा। जंगल ने बाँहें फैलाकर उसका स्वागत किया। सब पक्षी शहर और शहर में बीत रही उसकी ज़िंदगी के बारे में जानना चाहते थे। वे तरह-तरह के प्रश्न पूछ रहे थे। शहर के पक्षी को कुछ प्रश्न समझ में आए, कुछ नहीं। उसने कहा, “तुम सब इतना धीरे क्यों बोल रहे हो, कोई ख़तरा है क्या?”
“हम सब तो वैसे ही बोल रहे हैं, जैसे हमेशा से बोलते आए हैं। तुम काफ़ी ऊँचा बोल रहे हो, आवाज़ भी कर्कश हो गई है, शायद सुनने भी ऊँचा लगे हो।” एक पक्षी ने कहा।
“शायद तुम ही सही हो। शहर में इतना शोर है कि ऊँचा बोलना ही पड़ता है। मुझे लगता है कि ऊँचा बोलते-बोलते ऊँचा बोलना मेरा स्वभाव हो गया और मुझे पता ही नहीं चला। हो सकता है, ऊँचा सुनने भी लगा होऊँ। और मेरी आवाज़ की कर्कशता तो मैंने भी महसूस की है।”
“बच्चे कैसे हैं तुम्हारे, क्या करते हैं?” दूसरे पक्षी ने पूछा।
“मुझे नहीं मालूम क्या करते हैं। सुबह होते ही पता नहीं कहाँ उड़ जाते हैं और देर रात तक लौटते हैं। मैं तो जब भी उन्हें देखता-सुनता हूँ, हमेशा उड़ान की बातें करते पाता हूँ। पता है क्या कहते हैं वे? जंगल का आसमान बहुत नीचा है और शहर का बहुत ऊँचा। हमें बहुत ऊँची उड़ान भरनी है।”
“ऐसा? चलो अच्छा है, अपने मन का कर रहे हैं। और तो सब ठीक है न! कोई जोखिम वगैरह तो नहीं है?”
“क़दम-क़दम पर जोखिम हैं। बिजली के तारों का डर, किसी गाड़ी के नीचे कुचले जाने का डर, किसी बिल्ली, कुत्ते का भोजन बन जाने का डर! हर पल ख़तरे में गुज़रता है।”
“फिर तो अपना जंगल ही ठीक।” उस पक्षी ने लंबी साँस ली।
“जंगल भी अब कहाँ सुरक्षित हैं? आँधी-बारिश और बहेलियों का डर तो हमेशा रहता था। अब जिस तेज़ी से जंगल कट रहे हैं, रहने के लिए सुरक्षित जगहें लगातार कम होती जा रही हैं। खाने का भी संकट पैदा होने लगा है।” एक पक्षी ने उस पक्षी की बात का विरोध करते हुए कहा।
“अब हम कहीं सुरक्षित नहीं हैं, लेकिन बस एक तसल्ली है कि कितनी ही बड़ी मुसीबत आए, हम मिलकर मुक़ाबला करते हैं। एक साथ मिलकर उड़ते हैं, एक साथ मिलकर गाते हैं, एक साथ तारों भरा आसमान देखते हैं।” एक और पक्षी ने कहा।
“एक साथ मिलकर रहना, एक साथ मुसीबत का सामना करना, एक दूसरे के दर्द को महसूस करना, एक साथ उड़ना और गाना- ये छोटी बातें नहीं हैं दोस्तो! यही तो असली जीवन है। शहर में यही सब तो नहीं है, हर कोई अकेला है वहाँ – दुख में भी, सुख में भी।” शहरी पक्षी ने जब यह कहा तो उसके स्वर की नमी से सारे पक्षी संजीदा हो आए। थोड़ी देर एक स्तब्ध चुप्पी पसरी रही, फिर एक पक्षी ने उससे कहा, “तुम अपने जंगल में वापस क्यों नहीं आ जाते?”
“जो अपना निर्वासन ख़ुद चुनते हैं, उनका लौट पाना संभव नहीं होता।” शहरी पक्षी के इस कथन के बाद पसरी चुप्पी फिर नहीं टूटी।
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक मनोवैज्ञानिक एवं विचारणीय लघुकथा ‘वाह रे इंसान !’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 95 ☆
☆ लघुकथा – वाह रे इंसान ! ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
शाम छ: बजे से रात दस बजे तक लक्ष्मी जी को समय ही नहीं मिला पृथ्वीलोक जाने का। दीवाली पूजा का मुहूर्त ही समाप्त नहीं हो रहा था। मनुष्य का मानना है कि दीवाली की रात घर में लक्ष्मी जी आती हैं। गरीब-अमीर सभी घर के दरवाजे खोलकर लक्ष्मी जी की प्रतीक्षा करते रहते हैं। खैर, फुरसत मिलते ही लक्ष्मी जी दीवाली-पूजा के बाद पृथ्वीलोक के लिए निकल पड़ीं।
एक झोपड़ी के अंधकार को चौखट पर रखा नन्हा – सा दीपक चुनौती दे रहा था। लक्ष्मी जी अंदर गईं, देखा कि झोपड़ी में एक बुजुर्ग स्त्री छोटी बच्ची के गले में हाथ डाले निश्चिंत सो रही थी। वहीं पास में लक्ष्मी जी का चित्र रखा था, चित्र पर दो- चार फूल चढ़े थे और एक दीपक यहाँ मद्धिम जल रहा था। प्रसाद के नाम पर थोड़े से खील–बतासे एक कुल्हड़ में रखे हुए थे।
लक्ष्मी जी को याद आई – ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ कहानी की बूढ़ी स्त्री। जिसने उसकी झोपड़ी पर जबरन अधिकार करनेवाले जमींदार से चूल्हा बनाने के लिए झोपड़ी में से एक टोकरी मिट्टी उठाकर देने को कहा। जमींदार ऐसा नहीं कर पाया तो बूढ़ी स्त्री ने कहा कि एक टोकरी मिट्टी का बोझ नहीं उठा पा रहे हो तो यहाँ की हजारों टोकरी मिट्टी का बोझ कैसे उठाओगे? जमींदार ने लज्जित होकर बूढ़ी स्त्री को उसकी झोपड़ी वापस कर दी। लक्ष्मी जी को पूरी कहानी याद आ गई, सोचा – बूढ़ी स्त्री तो अपनी पोती के साथ चैन की नींद सो रही है, जमींदार का भी हाल लेती चलूँ।
जमींदार की आलीशान कोठी के सामने दो दरबान खड़े थे। कोठी पर दूधिया प्रकाश की चादर बिछी हुई थी। जगह-जगह झूमर लटक रहे थे। सब तरफ संपन्नता थी, मंदिर में भी खान-पान का वैभव भरपूर था। उन्होंने जमींदार के कक्ष में झांका, तरह-तरह के स्वादिष्ट व्यंजन खाने के बाद भी उसे नींद नहीं आ रही थी। कीमती साड़ी और जेवरों से सजी अपनी पत्नी से बोला – ‘एक बुढ़िया की झोपड़ी लौटाने से मेरे नाम की जय- जयकार हो गई, बस यही तो चाहिए था मुझे। धन से सब हो जाता है, चाहूँ तो कितनी टोकरी मिट्टी भरकर बाहर फिकवा दूँ मैं। गरीबों पर ऐसे ही दया दिखाकर उनकी जमीन वापस करता रहा तो जमींदार कैसे कहलाऊँगा। यह वैभव कहाँ से आएगा, वह गर्व से हँसता हुआ मंदिर की ओर हाथ जोड़कर बोला – यह धन–दौलत सब लक्ष्मी जी की ही तो कृपा है।‘
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – तीन लघुकथाएँ
[1]
जादूगर
जादूगर की जान का रहस्य, अब रहस्य न रहा। उधर उसने तोते को पकड़ा, इधर जादूगर छटपटाने लगा।…..देर तक छटपटाया मैं, जब तक मेरी कलम लौटकर मेरे हाथों में न आ गई।
[2]
अहम् ब्रह्मास्मि!
अहम् ब्रह्मास्मि..!…सुनकर अच्छा लगता है न!…मैं ब्रह्म हूँ।….ब्रह्म मुझमें ही अंतर्भूत है। ….ब्रह्म सब देखता है, ब्रह्म सब जानता है।
अपने आचरण को देख रहे हो न?…अपने आचरण को जान रहे हो न?
बस इतना ही कहना था..!
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नो एडमिशन
‘नो एडमिशन विदाउट परमिशन’, अनुमति के बिना प्रवेश मना है, उसके केबिन के आगे बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था। निरक्षर है या धृष्ट, यह तो जाँच का विषय है पर पता नहीं मौत ने कैसे भीतर प्रवेश पा लिया। अपने केबिन में कुर्सी पर मृत पाया गया वह।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – “भुट्टे का मजा”।)
☆ कथा कहानी # 145 ☆ लघुकथा – भुट्टे का मजा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
हम दस बारह बुड्ढे पार्क में रोज मिलते हैं, बैठकर बतियाने की आदत है। कभी अच्छे दिन पर चर्चा चलती है, कभी मंहगाई पर, तो कभी महिलाओं के व्यवहार पर। दो चार बुड्ढे पुराने पियक्कड़ हैं, दारू की बात पर अचानक जवान हो जाते हैं, दो तीन बुड्ढे पत्नी पीड़ित हैं, और एक दो को भूलने की बीमारी है,दो तीन मोदी के अंधभक्त हैं। एक दो तो ऐसे हैं कि मोतियाबिंद के आपरेशन करा चुके हैं पर पार्क में आंख सेंकने आते हैं।
बैठे ठाले एक दिन बुड्ढों ने भुट्टे खाने का प्रोग्राम बना लिया।पाठक दादा ने आफर दिया भुट्टे हम अपने अंगने में भूनकर सबको खिलायेंगे। मुकेश और बसंत बुड्ढों ने कहा कि पड़ाव से हम दोनों देशी भुट्टे छांटकर लायेंगे।महेश को देखकर सबको गलतफहमी होती थी कि ये आधा जवान और आधा बुड्ढा सा लगता है,आंख सेंकने से आई टानिक मिलता है, पर विश्वास करता है। हृदय डुकर को नींबू और नमक लाने का काम दिया गया।
हम और बल्लू भैया फंस गए,हम लोगन से कहा गया कि आप लोग शहर से कोयला ढूंढ कर लायेंगे। बड़े शहर में कोयले की दुकान खोजना बहुत कठिन काम है, दो किलो कोयला लेने के लिए दुकान खोजने में तीन लीटर पेट्रोल खर्च होता है तीन लीटर पेट्रोल मतलब तीन सौ रुपए से ऊपर। हम लोग कोयले की दुकान ढूंढने निकले तो दो बार कार के चके पंचर हो गये, क्यों न पंचर हों, हमारी स्मार्ट सिटी में गड्ढों में सड़क ढूंढनी पड़ती है। जब दुकान ढूंढते ढूंढते परेशान हो गए तो बल्लू भैया ने कहा अगले मोड़ पर एक भुट्टे बेचने वाले से पूछते हैं कि कोयला कहां मिलेगा, जब मोड़ पर भुट्टे वाले से पूछा तो उसने बताया कि यहां से दस पन्द्रह किलोमीटर दूर एक श्मशान के सामने एक टाल है वहां कोशिश करिए, शायद मिल जाय। हम लोग कोयला ढूंढते ढूंढते थक गए थे तीन लीटर पेट्रोल खतम हो चुका था, उसकी बात सुनकर थोड़ी राहत हुई। पाठक और बसंत डुकरा तेज तर्रार स्वाभाव के थे उनकी डांट से डर लगता था, इसलिए हम दोनों भी डरे हुए थे कि कहीं कोयला नहीं मिला तो क्या होगा,पर अभी अभी भुट्टे बेचने वाले की बात से थोड़ा सुकून मिला। हम दोनों तेज रफ्तार से उस श्मशान के पास वाले टाल को ढूंढने चल पड़े। रास्ते में बल्लू भैया बोले -अरे एक ठो भुट्टा खाना है और इतना नाटक न्यौरा क्यों। एक घंटा बाद हम लोग श्मशान के पास वाले टाल में खड़े थे और कोयले का मोल भाव कर रहे थे, दुकान वाला भुनभुनाया.. कहने लगा -दो किलो कोयला लेना है और दो घंटे से मोलभाव कर रहे हैं, बल्लू हाथ जोड़कर बोला – भैया सठियाने के बाद ऐसेई होता है।
दुकान वाले ने पूछा – इतने दूर से आये हो तो दो किलो कोयले से क्या करोगे ? दुकानदार की बात सुनकर हमने पूरी रामकहानी सुना दी। ईमानदारी से हमारी बात सुनकर दुकानदार को हम लोगों पर दया आ गई बोला – दादा आप लोगों से झूठ बोलने का नईं…. आजकल कोयला कहां मिलता है, हमारे पास जो थोड़ा बहुत कोयले जैसे आता है वह वास्तव में श्मशान से आता है, कुछ बच्चे जिनको दारू की लत लगी है वे जली लाश के आजू बाजू का कोयला बीनकर लाते हैं और सस्ते में यहां बेच जाते हैं और दारू पी लेते हैं। हां कुछ भुट्टे बेचने वाले यहां से ये वाला कोयला आकर खरीद लेते हैं और भुट्टे भूंजकर अपना पेट पालते हैं, क्या करियेगा मंहगाई भी तो गजब की है।आप लोग अपने घर में भुट्टा भूंजकर भुट्टे खाने का आनंद लेना चाहते हैं तो मेरी सलाह है कि ये कोयला मत लो ….
हम दोनों ठगे से खड़े रह गए, समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए। बसंत बुड्ढे का फोन आ रहा था कि इतना देर क्यों लगा रहे हो ?
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ कथा कहानी ☆ “दुखवा मैं कासे कहूँ…” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
घर के निरीह बूढ़े प्राणी की अंतिम सांसें चल रही थीं पर उसके प्राण कुछ कहने के लिए तड़प रहे थे। आंखों की पुतलियां बेचैनी में बार बार धरती को, आसमान को ताके जा रही थीं। होंठ थे कि कुछ कहने के लिए खुलते पर फिर कसमसा कर बंद हो जाते थे।
परिवार के सभी छोटे बड़े सदस्य उनकी चारपाई के इर्द गिर्द घेरा डाले हुए खड़े थे। आखिर उनके प्यारे पोते से उनकी हालत देखी न गयी, आंसुओं से बाबा के पांव को नम करने के बाद, माथा टिकाते कहा- कहिए न बाबा। आप जो कहना चाहते हैं ताकि आपकी आत्मा को मुक्ति मिले।
बाबा ने कोशिश करके मुंदी आंखें खोलीं, फिर परिवारजनों को निहारा और धीमे सुर में कहना शुरू किया -मेरे बच्चो। मेरा जन्म उस पंजाब में हुआ, जिसमें अमृतसर और लाहौर एक दूसरे की ओर पीठ करके नहीं बैठते थे बल्कि एक दूसरे के गले मिलते थे… हाय… फिर इनका बिछुड़ना भी इन आंखों ने देखा। कैसे कहूँ?
-कहिए न बाबा…
– मेरे बच्चो। मेरी जवानी उस पंजाब के खेतों को हरा भरा करने में निकल गयी जिसे इंसानी लहू से सींचा क्या था। आह… कैसे कहूँ…? कैसा भयानक दौर आया। बंटवारे की धुंधली तस्वीर फिर सामने आ खड़ी हुई। और तुम मुझे पंजाब की अनजान धरती पर ले आए। अब…
-दुख कहो न बाबा…
-अब उस धरती पर अपने प्राण त्याग रहा हूं जहां मैंने न जन्म लिया, बचपन बिताया, न जवानी भोगी…तुम लोगों ने मेरा बुढ़ापा खराब कर दिया। हे भगवान्…। कुछ और मंज़र दिखाने से पहले इस धरती से मुझे उठा ले… उठा ले…
इतना कहते कहते बाबा की गर्दन एक तरफ लुढ़क गयी… एक प्रश्नचिन्ह बनाती हुई…