हिन्दी साहित्य – कथा – कहानी ☆ रद्दीवाला ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल

श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय कहानी  रद्दीवाला। )

☆ कथा – कहानी ☆ !! ” रद्दीवाला ” !! ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆ 

यह उसका नाम भी था और काम भी। काॅलोनी- दर -काॅलोनी , अपनी चार चक्कों की गाड़ी , जिस पर एक तराजू व एक थैला लिए -वह कबाड़ी ” ,रद्दी..,-पुराना.,.सामान..रद्दी..” की आवाज लगाता घूमता  रहता । अक्सर महिलाएं या कुछ महिला जैसे पुरुष इन्हे बुलाकर घर के पुराने  अखबार या कभी-कभी कोई टूटा-फूटा भंगार मोल-भाव कर बेच देते। इनकी शक्ल, हालात व इनकी करतूतों की वजह से इन्हें हर कोई चोर-उचक्का,उठाईगिरा समझ हेय दृष्टि से देखता हैं। छ: किलो की रद्दी चार किलो में तोलना इनका बायें हाथ का काम है। अगर गृहणी खुद भी तोल कर दे तो भी एका-ध किलो मार लेना इनका दायें हाथ का काम होता है।कभी-कभार एका-ध छोटा-मोटा सामान उठा लेना,बस पेट के लिए इतनी भर बेईमानी करते हैं । रद्दी के पैसे मिल जाने के बाद भी, जब तक वह गेट से बाहर नहीं जाता, उसे श॔कित नजरों से देखा जाता है। कुल मिलाकर वह इस बात का प्रमाण है कि उपेक्षित होने पर सिर्फ अखबार ही नहीं आदमी भी रद्दी हो जाता है।

उस दिन पत्नी रद्दीवाले को रद्दी दे रही थी, जैसे ही मै पहुँचा, उसने कहा-” मै बाहर जा,रही हूँ ,  इससे तीस रूपये ले लेना । ” कह वह चली गई।

मैंने पहली बार उसे गौर से देखा। रद्दीवाला मुझ जैसा ही आदमी दिखाई पड़ा । पसीने से लथपथ वह जेब से पैसे निकाल रहा था, मैंने कहा-” कोई जल्दी नहीं,  आराम से देना,  थोड़ा सुस्ता लो। ” वह कमीज से पसीना पोंछने लगा। ” पानी पीओगे ? ” मेरे पूछने पर उसने गर्दन से हाँ कहा।

मेरे पानी देने पर , पानी पीकर उसने बिना आँसू के रोती हुई आँखों से गिलास वापिस करते हुए कहा- ” शुक्रिया “

“अरे, पानी के लिए कैसा शुक्रिया ?  “

“पानी के लिए नहीं साब! आज तक माँगने पर पानी मिला है, पहिली बार कोई पूछकर पिला रहा है । “

 मुझे उसका ऐसा बोलना अच्छा  लगा। पुराने ही सही,  बरसों अखबार व किताबों को छू-छूकर शायद वह कुछ पढ़ा-लिखा हो गया था। फिर उर्दू जुबान ही ऐसी है कि बेपढ़ा भी बोले तो उसके बोलने में एक शऊर आ जाता है। मैं  उससे बतियाने लगा। उसकी जिन्दगी उसकी जुबान तक आ गई।

“इन दिनो हालत बड़े खस्ता है साब। कम्पीटशन बढ़ गई है। जबसे टीवी आया लोग अखबार जरूरत से नहीं, सिर्फ आदतन खरीदते हैं। रिसाले महँगे हो गए। रद्दी कम हो गई तो मोल-भाव ज्यादा हो गया। रद्दी खरीदते हम जान जाते हैं,कि ये अमीर है या गरीब। कंजूस है या दिलदार। शक्की है, झिकझिक वाला  है , या सीधा-साधा। हम सबको जानते है पर लोग हमें हिकारत  देखते हैं। पहले जैसा मजा नहीं रहा धन्धे में। “दो पल अपनी विवशता को अनदेखा कर, आंँखों  में एक चमक भरते बोला-” फिर भी जैसे-तैसै गुजारा हो ही जाता है। और फिर कभी-कभी जब आप और उस दो माले जैसे दिलदार, शानदार, शायर नुमा, साहब, आदमी मिल जाते हैं , तो लगता है ज़िन्दगी सुहानी हो गई। इसमेँ जीया जा सकता है।”

“दो माले जैसे….? ” मेरे पूछने पर उसने बताया, तब मैं समझा। हुआ यूँ कि….,

रद्दीवाला जब ” रद्दी…रद्दी…” की आवाज लगा रहा था, तो उस दो माले के शख्स ने उसे ऊपर बुलाया। वह अपना तराजू और थैला लेकर   ऊपर गया। कमरे में कुछ अखबार और रिसाले इधर-उधर बिखरे पड़े थे। ” ये सब उठा लो ” सुनते ही उसने रद्दी जमा की। तौलने के लिए तराजू निकालने लगा की…,  ” तौलने की जरुरत नहीं, ऐसे ही ले जा। ‘  सुनकर वह तेजी से रद्दी थैले में भरने लगा। आज कुछ ज्यादा कमाने की खुशी में वह पैसे देने के लिए जेब में हाथ डाल ही रहा था कि….”  रहने दे। पैसे मत दे। ऐसे ही ले जा। “

बिना तौले तो इसके पहले भी उसने रद्दी खरीदी थी, पर आज तो मुफ्त में…, आश्चर्य और प्रसन्नता  है उसने उसकी और देखा। वह मुस्कराते हुए बुदबुदा रहा था;- ” मैंने कौन-सा स्साला पैसे देकर खरीदी है ? शायर बनने में और कुछ मिले न मिले, पर मुफ्त के कुछ रिसाले जरूर घर आ जाते हैं।”  रद्दीवाला आँखों से शुक्रिया कहते और हाथों से सलाम करता हुआ सीढियाँ उतरने लगा। उतरने क्या, सीढियाँ दौड़ने लगा। बीस-पच्चीस की मुफ्त की कमाई जो हो चुकी थी । उसने गाड़ी पर थैला रखा, एक पल फिर से दो माले की ओर देखा, जहाँ उसका दिलदार, शानदार, शायरनुमा,  साहब आदमी रहता है। दो माले को सलाम करते हाथों से गाड़ी ढकेलने लगा।

अब जब भी वह दो माले से गुजरता उसकी “रद्दी- रद्दी” की आवाज तेज हो जाती। दो-एक महीने में जब भी दो माले से आवाज आती, वह लपककर, उछलता-सा सीढ़ियाँ चढ़ता, बिना तोले, बिना पैसे दिए, मुफ्त की रद्दी लेकर शुक्रिया व सलाम करते सीढ़ियाँ उतरता, गाड़ी पर थैला रखता, दो माले को देखता और सलाम करता गाड़ी ढकेलने लगता।

आज भी सब कुछ वैसा ही हुआ। लेकिन जैसे ही वह सलाम करते सीढ़ियाँ उतर ही रहा था कि उसे एक तल्ख व तेज आवाज सुनाई पड़ी ,” -ऐ… जाता कहाँ..?… पैसे…?” 

वह चौंककर, हतप्रभ, हक्का बक्का-सा उस बेबस आँखों और फैली हुई हथेली को देखता भर रहा । उसमेँ इतनी भी हिम्मत नहीं रही कि वो अपनी सफाई में इतना भी कह सके कि ” साब आपने इसके पहले कभी पैसे नहीं लिए इसलिए….- । ”  उसने चुपचाप जेब में हाथ डाले और बीस का एक नोट उसकी फैली हुई हथेली पर रख दिया। सलाम करता वह सीढ़ियों से ऐसे उतर रहा था मानो पहाड़ चढ़ रहा हो। दो किलो का बोझ चालीस किलो का लगने लगा। वह भरे मन और भरे क़दमों से एक-एक पग बढ़ाता हुआ अपनी गाड़ी तक आया। थैला रखा।आदतन, उसने दो माले की ओर देखा। सलाम किया। गाड़ी सरकाया।  फिर रुक गया। उसे वो तल्ख व तेज आवाज़ ” ऐ…, जाता कहाँ…?… पैसे…?”  अब भी सुनाई दे रही थी। बेबस आँखें और फैली हुई हथेली अब भी दिखाई दे रही थी। उसने बिना आँसू के रोती हुई आँखों से पुनः दो माले को देखा।और सलाम करता हुआ बेमन से गाड़ी ढकेलने लगा।

इसलिए नहीं, कि आज उसे मुफ्त की रद्दी नहीं मिली। उसे बीस रुपए देने पड़े। यह तो उसका रोज का धन्धा है। बल्कि इसलिए कि आज उसका दिलदार, शानदार, शायरनुमा, साहब आदमी गरीब हो गया था।

 

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

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 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #64 – मैं तुम्हारे साथ हूँ … ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #64  – मैं तुम्हारे साथ हूँ … ☆ श्री आशीष कुमार

प्रतिवर्ष माता पिता अपने पुत्र को गर्मी की छुट्टियों में उसके दादा  दादी के घर ले जाते। 10-20 दिन सब वहीं रहते और फिर लौट आते। ऐसा प्रतिवर्ष चलता रहा। बालक थोड़ा बड़ा हो गया।

एक दिन उसने अपने माता पिता से कहा कि  अब मैं अकेला भी दादी के घर जा सकता हूं ।तो आप मुझे अकेले को दादी के घर जाने दो। माता पिता पहले  तो राजी नहीं हुए।  परंतु बालक ने जब जोर दिया तो उसको सारी सावधानी समझाते हुए अनुमति दे दी।

जाने का दिन आया। बालक को छोड़ने स्टेशन पर गए।

ट्रेन में उसको उसकी सीट पर बिठाया। फिर बाहर आकर खिड़की में से उससे बात की ।उसको सारी सावधानियां फिर से समझाई।

बालक ने कहा कि मुझे सब याद है। आप चिंता मत करो। ट्रेन को सिग्नल मिला। व्हीसिल लगी। तब  पिता ने एक लिफाफा पुत्र को दिया कि बेटा अगर रास्ते में तुझे डर लगे तो यह लिफाफा खोल कर इसमें जो लिखा उसको पढ़ना बालक ने पत्र जेब में रख लिया।

माता पिता ने हाथ हिलाकर विदा किया। ट्रैन चलती रही। हर स्टेशन पर लोग आते रहे पुराने उतरते रहे। सबके साथ कोई न कोई था। अब बालक को अकेलापन लगा। ट्रेन में अगले स्टेशन पर ऐसी शख्सियत आई जिसका चेहरा भयानक था।

पहली बार बिना माता-पिता के, बिना किसी सहयोगी के, यात्रा कर रहा था। उसने अपनी आंखें बंद कर सोने का प्रयास किया परंतु बार-बार वह चेहरा उसकी आंखों के सामने घूमने लगा। बालक भयभीत हो गया। रुंआसा हो गया। तब उसको पिता की चिट्ठी। याद आई।

उसने जेब में हाथ डाला। हाथ कांपरहा था। पत्र निकाला। लिफाफा खोला। पढा पिता ने लिखा था तू डर मत मैं पास वाले कंपार्टमेंट में ही इसी गाड़ी में बैठा हूं। बालक का चेहरा खिल उठा। सब डर दूर  हो गया।

मित्रों,

जीवन भी ऐसा ही है।

जब भगवान ने हमको इस दुनिया में भेजा उस समय उन्होंने हमको भी एक पत्र दिया है, जिसमें  लिखा है, “उदास मत होना, मैं हर पल, हर क्षण, हर जगह तुम्हारे साथ हूं। पूरी यात्रा तुम्हारे साथ करता हूँ। वह हमेशा हमारे साथ हैं।

अन्तिम श्वास तक।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 75 ☆ दुख में सुख ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा दुख में सुख । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस संवेदनशील एवं विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 75 ☆

☆ लघुकथा – दुख में सुख ☆

माँ की पीठ अब पहले से भी अधिक झुक गयी थी। डॉक्टर का कहना है कि माँ को पीठ सीधी रखनी चाहिए वरना रीढ़ की हड्डी पर असर पड़ता है और याददाश्त  कमजोर हो जाती है। 

गर्मी की छुट्टियों में मायके गयी तो देखा कि माँ थोड़ी ही देर पहले कही बात भूल जाती है। आलमारी की चाभी और रुपए पैसे रखकर भूलना तो आम बात हो गयी थी। कई बार वह खुद ही झुंझलाकर कह उठती– पता नहीं क्या हो गया है ?  कुछ याद ही नहीं रहता- कहाँ- क्या रख दिया ? झुकी पीठ के साथ माँ दिन भर काम में लगी रहती। सुबह की एक चाय ही बस आराम से पीना चाहती। उसके बाद झाड़ू, बर्तन, खाना, कपड़े-धोने का जो सिलसिला शुरू होता वह रात ग्यारह बजे तक चलता रहता। रात में सोती तो बिस्तर पर लेटते ही झुकी पीठ में टीस उठती।

बेटियों के मायके आने पर माँ की झुकी पीठ कुछ तन जाती। सब कुछ  भूलकर वह और तेजी से काम में जुट जाती। उसे चिंता रहती कि मायके से अच्छी यादें लेकर ही  जाएं बेटियां। माहौल खुशनुमा बनाने के लिए वह हँसती-गुनगुनाती, नाती-नातिन के साथ खेलती, खिलखिलाती…….. ? 

गर्मी की रात, थकी-हारी माँ नाती पोतों से घिरी छत पर लेटी थी। इलाहाबाद की गर्मी, हवा का नाम नहीं।  वह बच्चों से जोर-जोर से बुलवा रही है-  चिडिया, कौआ, तोता  सब उड़ो, उड़ो, उड़ो, हवा चलो, चलो, चलो,  बच्चे चिल्ला- चिल्लाकर बोल रहे थे, उनके लिए अच्छा खेल था।

माँ मानों अपने-आप से बोलने लगी –  बेटी, बातों को भूलने की कोशिश किया करो। हम औरतों के लिए बहुत जरूरी है यह। जब से थोडा भूलने लगी हूँ , मन बड़ा शांत है। किसी की तीखी बात थोड़ी देर असर करती है फिर  किसने क्या कहा, क्या ताना मारा……. कुछ याद नहीं। ठंडी हवा  चलने लगी थी । माँ कब सो गयी पता ही नहीं चला। चाँदनी उसके चेहरे पर पसर गयी थी।

माँ ने दु:ख में भी सुख ढूंढ लिया था।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 92 – लघुकथा – चोर ! ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  लघुकथा  “चोर !।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 92 ☆

☆ लघुकथा — चोर ! ☆ 

नए शिक्षक ने शाला प्रांगण में मोटरसाइकिल घुसाईं, तभी साथ चल रहे पुराने शिक्षक ने बाथरूम के ऊपर बैठे लड़के की ओर इशारा किया, “सरजी! यह रोज ही शाला भवन पर चढ़ जाता है।”

“आप उसे उतारते नहीं है?”

“इसे कुछ बोलो तो हमारे माथे आता है, यह शासकीय बिल्डिंग है आपकी नहीं।” कहते हुए वे बाथरूम के पास पहुंच गए।

“क्यों भाई, ऊपर चढ़ने का अभ्यास कर रहे हो?” नए शिक्षक ने मोटरसाइकिल रोकते हुए लड़के से कहा। जिसे सुनकर वह अचकचा गया,”क्या!” वह धीरे से इतना ही बोल पाया।

“यही कि दूसरों के भवन पर चढ़ने-उतरने का अभ्यास कर रहे हो। अच्छा है यह भविष्य में बहुत काम आएगा।”

यह सुन कर एकटक देखता रहा।

“बढ़िया है। अभ्यास करते रहो। कमाना-खाने नहीं जाना पड़ेगा।”

“क्या कहा सरजी?” वह सीधा बैठते हुए बोला।

“यही कि रात-बिरात दूसरों के घर में घुसने के लिए यह अभ्यास काम आएगा।”

यह सुनते ही लड़का नीचे उतर गया। सीधा मैदान के बाहर जाते हुए बोला, “सॉरी सर!”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

18-10-2021

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ असहमत…! – भाग-3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है।  अब आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – असहमत  आत्मसात कर सकेंगे। )     

☆ असहमत…! भाग – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

सिर्फ हंसने के लिये है.

बहुत दिनों के बाद असहमत की मुलाकात बाज़ार में चौबे जी से हुई, चौबे जी के चेहरे की चमक कह रही थी कि यजमानों के निमंत्रणों की बहार है और चौबे जी को रोजाना चांदी की चम्मच से रबड़ी चटाई जा रही है. वैसे अनुप्रास अलंकार तो चटनी की अनुशंसा करता है पर चौबे जी से सिर्फ अलंकार ज्वेलर्स ही कुछ अनुशंसा कर सकता है. असहमत के मन में भी श्रद्धा, ?कपूर की भांति जाग गई. मौका और दस्तूर दोनों को बड़कुल होटल की तरफ ले गये और बैठकर असहमत ने ही ओपनिंग शाट से शुरुआत कर दी.

चौबे जी इस बार तो बढिया चल रहा है,कोरोना का डर यजमानों के दिलों से निकल चुका है तो अब आप उनको अच्छे से डरा सकते हो,कोई कांपटीशन नहीं है.

चौबे जी का मलाई से गुलाबी मुखारविंद हल्के गुस्से से लाल हो गया. धर्म की ध्वजा के वाहक व्यवहारकुशल थे तो बॉल वहीँ तक फेंक सकते थे जंहां से उठा सकें. तो असहमत को डपटते हुये बोले: अरे मूर्ख पापी, पहले ब्राह्मण को अपमानित करने के पाप का प्रायश्चित कर और दो प्लेट रबड़ी और दो प्लेट खोबे की जलेबी का आर्डर कर.

असहमत: मेरा रबडी और जलेबी खाने का मूड नहीं है चौबे जी, मै तो फलाहारी चाट का आनंद लेने आया था.

चौबे जी: नासमझ प्राणी, रबड़ी और जलेबी मेरे लिये है, पिछले साल का भी तो पेंडिंग पड़ा है जो तुझसे वसूल करना है.

असहमत: चौबे जी तुम हर साल का ये संपत्ति कर मुझसे क्यों वसूलते हो, मेरे पास तो संपत्ति भी नहीं है.

चौबे जी: ये संपत्ति टेक्स नहीं, पूर्वज टेक्स है क्योंकि पुरखे तो सबके होते हैं और जब तक ये होते रहेंगे, खानपान का पक्ष हमारे पक्ष के हिसाब से ही चलेगा.

असहमत: पर मेरे तो पिताजी, दादाजी सब अभी इसी लोक में हैं और मैं तो घर से उनके झन्नाटेदार झापड़ खाकर ही आ रहा हूं, मेरे गाल देखिये, आपसे कम लाल नहीं है वजह भले ही अलग अलग है.

चौबेजी: नादान बालक, पुरखों की चेन बड़ी लंबी होती है जो हमारे चैन का स्त्रोत बनी है. परदादा परदादी, परम परदादा आदि आदि लगाते जाओ और समय की सुइयों को पीछे ले जाते जाओ. धन की चिंता मत कर असहमत, धन तो यहीं रह जायेगा पर ब्राह्मण का मिष्ठान्न भक्षण के बाद निकला आशीर्वाद तुझे पापों से मुक्त करेगा. ये आशीर्वाद तेरे पूर्वज तुझे दक्षिणा से संतुष्ट दक्षिणमुखी ब्राह्मण के माध्यम से ही दे पायेंगे.

असहमत बहुत सोच में पड़ गया कि पिताजी और दादाजी को तो उसकी पिटाई करने या पीठ ठोंकने में किसी ब्राह्मण रूपी माध्यम की जरूरत नहीं पड़ती.

उसने आखिर चौबे जी से पूछ ही लिया: चौबे जी, हम तो पुनर्जन्म को मानते हैं, शरीर तो पंचतत्व में मिल गया और आत्मा को अगर मोक्ष नहीं मिला तो फिर से नये शरीर को प्राप्त कर उसके अनुसार कर्म करने लगती है तो फिर आपके माध्यम से जो आवक जावक होती है वो किस cloud में स्टोर होती है. सिस्टम संस्पेंस का बेलेंस तो बढता ही जा रहा होगा और चित्रगुप्तजी परेशान होंगे आउटस्टैंडिंग एंट्रीज़ से.

चौबे जी का पाला सामान्यतः नॉन आई.टी. यजमानों से पड़ता था तो असहमत की आधी बात तो सर के ऊपर से चली गई पर यजमानों के लक्षण से दक्षिणा का अनुमान लगाने की उनकी प्रतिभा ने अनुमान लगा लिया कि असहमत के तिलों में तेल नहीं बल्कि तर्कशक्ति रुपी चुडैल ने कब्जा जमा लिया है.तो उन्होंने रबड़ी ओर जलेबी खाने के बाद भी अपने उसी मुखारविंद से असहमत को श्राप भी दिया कि ऐ नास्तिक मनुष्य तू तो नरक ही जायेगा.

असहमत: तथास्तु चौबे जी, अगर वहां भी मेरे जैसे लोग हुये तो परमानंद तो वहीं मिलेगा और कम से कम चौबेजी जैसे चंदू के चाचा को नरक के चांदनी चौक में चांदी की चम्मच से रबड़ी तो नहीं चटानी पड़ेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈




हिंदी साहित्य – कथा-कहानी ☆ जलपत्नी भाग-2 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं। हमें  प्रसन्नता है कि हम आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी की अंग्रेजी एवं हिंदी भाषा की अप्रतिम रचनाएँ अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय समय पर साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है दो भागों में आपकी एक संवेदनशील कथा  ‘जलपत्नी‘ जो महाराष्ट्र के उन हजारों  गांवों से सम्बंधित है, जहाँ पानी के लिए त्राहि त्राहि मची रहती है  ।)

पिछले अंक पड़ने के लिए कृपया यहाँ क्लिक करें >> जलपत्नी – भाग – 1

 ☆ कथा-कहानी ☆ जलपत्नी – भाग – 2 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

फिर थोड़ी देर चुप्पी के बाद, संजीबा के घर का तोता ‘राम राम’ तो कहता है, मगर कितनी गाली बकता है! बापरे बाप! सब संजीबा की दादी से सीखा है। वह जो दिन भर संजीबा की आई को गाली बकती रहती है।’

कहने के लिए तो देनगानमल की सपत्नियां सगी बहनों की तरह रहती हैं। मगर हर एक का कमरा और चौका बर्तन अलग ही होता है। ऐसा नहीं कि संयुक्त परिवार की तरह सब एक ही जगह खाना खाते हैं। तो सखाराम के आँगन में भी और एक कमरा बन गया। सखाराम दो एक रात वहीं खाना खाता, वहीं सोता। इससे तो रामारती के मन में और भी घृताहुति होने लगी। जिस तरह छुरी चाकू पर सान देने के लिए कुरंड पत्थर पर उन्हें रगड़ने से उनकी कुंद धार तेज हो जाती है, उसी तरह अपनी किस्मत से रगड़ खा खाकर रामारती के मुँह के शब्द भी तीर बनते चले गये।

शादी के दूसरे दिन ही सुबह सखाराम भागी को जगाने लगा, ऐ उठ। चल, तुझे आज कुआँ दिखा लाते हैं।’

एक तो नई जगह, ऊपर से दो दिन का कर्मकांड, फिर बीती रात का अहसास – भागी तो मुश्किल से आँख खोल पा रही थी। फिर वह उठ गयी और मुँह हाथ धो कर तैयार होने लगी। ऐसे तो देनगानमल में औरतें ऊपर लंबा ब्लाउज और नीचे छोटा घागड़ा जैसा कपड़ा पहन कर बाहर निकलती हैं, मगर आज वह साड़ी में ही लिपटी हुई थी। बस सिर के ऊपर उसने मजबूती से एक पगड़ी बाँध रक्खी थी। और उस पर दो बड़े और एक छोटे घड़े रख लिये। फिर कमर पर एक।

सखाराम नई दुलहन को लेकर निकल ही पड़ा था कि सचिनि भी आँख मलते हुए रामारती के कमरे से बाहर आँगन में आ गया, ए आई, मैं भी नई आई के साथ कुएँ पर चलूँगा ….।’

तू जाकर क्या करेगा? चुप मारकर लेटा रह।’ रामारती झुँझला उठी – देवा हो देवा! इस डायन ने जाने कौन सा मंतर फूँक दिया है मेरे लाल पर!

नहीं, मैं भी चलूँगा।’ वह अपना पैर पटकने लगा, अण्णा -’

चलने दो न दीदी। मेरा भी मन बहल जायेगा।’ भागी ने कहा तो रामारती झट से मुड़ कर अंदर चली गई।

सखाराम ने बेटे का हाथ थाम लिया। रास्ते भर सचिनि कभी बापू के पास रहता, तो कभी भाग कर भागी के पास चला जाता, नई आई, कबूतर तो सफेद और भूरे दोनों होते हैं, मगर कौवा सिर्फ काला ही क्यों होता है?

गीता के प्रश्नों का उत्तर शायद विद्वानों के पास हों, मगर इस बालगोपाल के सवालों का जवाब भागी बेचारी कहाँ तक देती? भले ही घड़े खाली हों, मगर सर पर बोझ तो था ही। उन्हें  सँभालना भी था। साथ ही लौटते समय सर पर के वजन की कल्पना से भी तो रूह काँप रही थी। हे सांईनाथ, घर का एक कोना पाने के लिए सारी जिन्दगी यह कीमत चुकानी पड़ेगी?

छोटे छोटे पत्थर और कंकड़ों से भरे करीब ढाई तीन किमी. रास्ता चलकर वे तीनों गांव के कुँए तक पहुँचे। इधर उधर दो एक बबूल और जंगली नींबू के पेड़ वहाँ चुपचाप खड़े थे। कुएँ के पास। दोनों पेड़ उदास – किस दिन मिटेगी बोलो इंसानों की प्यास?

कुएँ की दीवार पर टूटी फूटी नंगी ईंटें झाँक रही थीं। सखाराम कुएँ की रस्सी से लगी बाल्टी को नीचे उतारने लगा। भागी ने ऊपर से कुएँ के अंदर झाँक कर देखा – वहाँ नीचे पानी के ऊपर जलकुंभी के पौधे तैर रहे थे। दो एक बार बाल्टी को पानी के अंदर बाहर करके उनको थोड़ा हटाना पड़ा। फिर भर लो पानी …….

एक एक करके चारों घड़े भर लिए गये। सखाराम ने एकबार पूछा, एक मैं ले लूँ?’

भागी ने सर हिलाया, रहने दो।’

हाँ, अपने स्वार्थ के लिए इन्सानों ने धरती को भी तो नारी मान लिया है। तो बोझ तो भागी और धरित्री दोनों को ही ढोना है।

बस यही सिलसिला शुरू हुआ। तीन तीन चार चार घड़े में पानी भर कर इतना दूर लाना। दिन में दो बार, तो कभी कभी तीन बार।

सखाराम के घर के हरे रंग के दरवाजे के दोनों ओर रंगोली की तरह कुछ उकेरी हुई थीं, और एक तरफ दीवार पर बनी थी मछली। रामारती के कमरे की दीवार पर बीचोबीच पति पत्नी की फोटो टँगी हुई है। शादी के बाद संत तुकाराम जयन्ती की यात्रा के मेले में दोनों ने खिंचवायी  थी। फोटो के दायें ब्रह्मा, विष्णु और महेश विराजमान हैं और उनके नीचे संत तुकाराम। बायें नीले रंग का फाग उड़ाते हुए डा. अंबेडकर।

दो घड़े पानी उस कमरे में रखकर भागी ने अपने हिस्से का एक घड़ा पानी अपने कमरे में एक बर्तन में उॅड़ेल दिया।

वैसे तो सिवाय सामाजिक सुरक्षा के जलपत्नियों को विवाह का और कोई सुख मिलता नहीं। फिर भी साल डेढ़ साल बाद भागी को एक लड़की हुई। स्वाभाविक है, रामारती को सिर पीट लेने का एक मौका मिल गया, अरे अब इसे कौन पार लगायेगा ? इसका मामा ?

भागी चुप रही। उसने खुद को जिन्दगी की लहरों के हाथों सौंप दिया था। चाहे डूब जाये, चाहे उबर जाये।

मगर सचिनि को तो जैसे एक खिलौना मिल गया। वैसे भी उसे नईकी आई से शुरु से ही लगाव था। अब तो वह दिनभर उसीके यहाँ उठता बैठता और सोता। यद्यपि रामारती जल भुन कर रह जाती, अरे इस चुड़ैल ने तो जैसे मेरे बेटे पर जादू टोना कर दिया है रे!’ मगर मन ही मन खुश भी होती रही। रात में भागी के पास सचिनि के सोने से सखाराम को तो उसी के कमरे में लेटना है। तो उसके हिस्से के अमृत में जरा भी टोटा नहीं होता।

सचिनि और टुकी – दोनों भाई बहन सावन भादो के धान की तरह बड़े होते गये। सचिनि स्कूल भी जाने लगा था। मगर मा’ट्सा’ब के हाथों उसे नम्बर से ज्यादा बेंत मिला करती थीं। फिर भी इन हो हल्ले और ऊधम के बीच उसे कहीं अगर कच्चा आम या एक पका हुआ अमरूद दिख जाये, तो वह ढेला उठाकर निशाना लगाता और उसे उठाकर मुँह लगाये बिना तुरंत घर की ओर दौड़ता, टुकी – ई! नई अम्मां, टुकी कहाँ है? यह ले, थाम -!’

उसी साल भादों शुक्ला चतुर्थी के गणेश जन्मोत्सव के ठीक एकदिन पहले खबर आयी कि सखाराम का वो जीजा यानी ममेरी दीदी का पति बहुत बीमार है। वो अपनी बहन को एक बार देखना चाहता है। अब इस बात में कितनी सच्चाई है यह तो स्वयम् विघ्नेश गणेश ही जाने, पर सखाराम की दीदी ने कुछ ऐसा ही कहकर उसे बुला भेजा। सखाराम भारी असमंजस में पड़ गया। खाना तो रामारती पका लेगी। मगर पानी ? खैर, माँ बेटे मिलकर कुछ सँभाल लेंगे। यही सोचकर उसने भागी को भाई के पास भेज दिया।

भागी शादी के बाद पहली बार मायके पहुँची …..

अरे अब क्या देखने आयी है?’ सखाराम की दीदी राम के बिछोह में तड़पते भरत की तरह ननद से लिपट कर रोने लगी। मानो भागी को देखे बिना उसके गले से पानी अब तक नीचे उतर नहीं रहा था, देख, खटिया पर लेटे लेटे कैसी दुर्दशा हो गयी है!’

भागी यहाँ भी बीमार की तीमारदारी और घर का सारा कामकाज सँभालने लगी। सखाराम की बहन बीच बीच में बेबस भगवान को कोसती, रोती और सोती रहती। उसकी गृहस्थी चलती रही। 

उधर सखाराम की गृहस्थी में फिर वही रोज की किचकिच, रोज का तूफान। अब तो सखाराम की आई रही नहीं, तो उसी को निर्णय लेना था। फिर से बाटली की ठेके पर नीलू फूले ने उसके पैसे से दारू पिया और नेक सलाह दे डाली, कैकेयी के बाद सुमित्रा का आना तो शास्तर में ही लिखा है।’

भागी घर पर थी नहीं। रामारती देखती रही। सुबह से गाली देती रही। शामतक सखाराम तीसरी बार दूल्हा बनकर निकल पड़ा। सचिनि और टुकी दोनों बारात में शामिल हो गये। अण्णा की शादी की मिठाई भी तो खानी है। अगले दिन सौन्ती ने इस आँगन में कदम धरा।

रामारती ने और चार औरतों के साथ मिलकर उसकी आरती उतारी। फिलहाल वह भागी के कमरे में ही रहने लगी। दूसरे दिन तड़के उसे सचिनि के साथ पानी भर लाने के लिए भेज दिया गया।

इधर बीच भागी का भाई भी जिन्दगी से लड़ते लड़ते चल बसा। भागी को लौटना पड़ा। उसकी भाभी उससे लिपट कर रोई और उससे कहा, जा भागी, अब यहाँ रह कर क्या करेगी? आखिर एकदिन अपने घर तो तुझे लौट जाना ही था।’

अजीब खेल है जग का, लगा है आना जाना, कौन किसका घर है यहाँ पर, कहाँ है ठिकाना ?

सौन्ती के बारे में भागी को तो पहले से सब कुछ पता चल ही गया था। वह आयी। सौन्ती की ठुड्डी पकड़ कर मुस्कुरायी और अगले दिन से फिर घड़े सिर पर लेकर कुएँ तक जाने लगी।

जब सौन्ती माँ बनी तो भागी पानी लाने के साथ साथ उसकी देखभाल भी करती। सौन्ती मन ही मन उसके प्रति अहसानमंद थी। अपनी सगी दीदी की तरह उसे प्यार करने लगी। वह अपने ढंग से भली भाँति समझती थी कि भागी के भाग में उस कुएँ की तरह सबकी प्यास बुझाते ही जाना है। भले ही उस कुएँ की तरह वह भी अंदर से जर्जर होती जा रही थी।

देनगानमल में कभी सूखा पड़ा, तो कभी बारिश हुई – साल बीत रहे थे। सचिनि को भी एक प्राइवेट बस में नौकरी मिल गई। गाँव में पानी की किल्लत होने के कारण कुछ मुश्किल से, पर उसकी शादी तय हो गई। वह भागी से कहने लगा, बस नई आई, अब देख लेना तुझे कुएँ से पानी लाना नहीं पड़ेगा। तेरी बहू आयेगी तो उसीसे सारा काम करवाना।’

भागी मुसकुराकर रह गयी। मगर उस कुएँ की दीवार की ईंटों की तरह उसकी पसलियाँ भी दिखने लगी थीं। शादी के पहले दिन कई दफे पानी लाने, फिर सबके लिए खाना बनाने में उसे खुद की सुध ही न थी। सौन्ती उसके हाथ बँटाती रही। मगर रात में जब सभी ने भोजन कर लिया तो सौन्ती ने उससे कहा, चलो दीदी, तुम भी खा लो न …..’

भागी ने सर हिलाया, नहीं रे। मेरी तबिअत ठीक नहीं लग रही है। बुखार भी है और मचली भी आ रही है। बस एक गिलास पानी पिला दे।’

सौन्ती खुद खाकर सो गई। रामारती की तेज आवाज से सुबह उसकी नींद खुल गई, अरे बात क्या है ?आज घर में ब्याह है और महारानी अभी तक सो रही है? पानी कौन लायेगा ?

सौन्ती दौड़ कर भागी के कमरे में गई तो देखा वह बेसुध पड़ी हुई है। खाली पेट ऐंठन होने के कारण उसे शायद उल्टी भी हुई थी। पड़े पड़े वह कराह रही है, पानी……पानी…..’

सौन्ती भाग कर उसके घड़े के पास गई। मगर यह क्या? न किसी घड़े में, न किसी बाल्टी में – कहीं एक बूँद पानी नहीं है।

उधर सखाराम के मामा, मामी, भाऊ और जो रिश्तेदार आये हुए थे, सभी चिल्ला रहे हैं, अरे भागी, तू ने पानी भर कर नहीं रक्खा?

सचिनि बाहर निकल आया, मैं पानी ले आता हूँ।’

रामारती चिल्ला उठी, आज तेरी लगन है, और तू चला पानी लेने इतनी दूर? कहीं चोट वोट लग जाए तो ? उससे अशुभ होता है।’

टुली उतावली हो रही थी, आई, मैं जाऊँ ?

सौन्ती ने उसे रोका, तू अपनी बड़की आई के पास रह। पहले मैं कुएँ से पानी भर कर लाती हूँ। फिर तू चलना।’

जबतक सौन्ती पानी लेकर वापस आने लगी सूरज भी मानो उसका इम्तहान लेने लगा था। टप टप ….उसकी पेशानी से पसीना चू रहा था।

घर पहुँचते ही घड़े को रखकर, उससे एक लोटे में पानी उँड़ेल कर वह भागी के पास जा पहुँची।

कमरे के अंधकार से बाहर निकलकर भागी की आँखें मानो किसी उजाले की तलाश कर रही थीं। उसके मुँह से निरंतर एक ही शब्द निकल रहा था -‘ पानी….पानी….पानी…..’

लो दीदी, पी लो पानी।’ सौन्ती ने एक हाथ में पानी लेकर उसके मुँह को पोंछा फिर उसका सर उठाकर पानी पिलाने लगी। मगर भागी के होठों के कोने से वह पानी सिर्फ बाहर जमीन पर चूने लगा ………

भागी की प्यास कभी बुझ नहीं पायी………

♣ ♣ ♣ ♣ ♣

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

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हिंदी साहित्य – कथा-कहानी ☆ जलपत्नी – भाग – 1  ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं। हमें  प्रसन्नता है कि हम आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी की अंग्रेजी एवं हिंदी भाषा की अप्रतिम रचनाएँ अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय समय पर साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है दो भागों में आपकी एक संवेदनशील कथा  ‘जलपत्नी‘ जो महाराष्ट्र के उन हजारों  गांवों से सम्बंधित है, जहाँ पानी के लिए त्राहि त्राहि मची रहती है  ।)

 ☆ कथा-कहानी ☆ जलपत्नी – भाग – 1  ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

सौन्ती चल रही है या दौड़ रही है? सिर पर माटी की गगरी। आकाश से बरसती आग। धूप तो ऐसी जैसे वो त्रिलोचन के नैन हों। धरती पर सबकुछ स्वाहा करके रख देगी। सौन्ती को जल्द से जल्द एक गगरी पानी ले आना है। घर में एक बूँद पीने का पानी नहीं है। उधर भागी बिस्तर पर लेटे लेटे कराह रही है। उसका गला सूख रहा होगा। वह बुदबुदा कर कहती जा रही थी पानी…ओह!….प्यास…..पानी…!’

मगर उसकी ऐसी हालत में भी रामारती के मन को थोड़ी सी संवेदना भी छू नहीं गई। एक जगह बैठे बैठे वह बुढ़िया बक बक करती जा रही थी, अरे तुरंत पानी नहीं मिलेगा तो यह मर नहीं जायेगी। इतनी ही प्यास है, तो खुद जाकर कुएँ से पानी भर कर लाती क्यों नहीं ?

सौन्ती को उसकी बात बिलकुल अच्छी नहीं लगी। बात करने का उसका ठंग ही ऐसा है। खुद को गृहस्थी की पटरानी समझती है ? बिलकुल। रामारती, भागी और सौन्ती – तीनों सौतें हैं। महाराष्ट्र  के देनगानमल गांव के सखाराम भगत की बीवी हैं सब। इक्कीसवीं सदी के चौदह साल बीत जाने के बाद भी महाराष्ट्र के जिन उन्नीस हजार गाँवों में पानी के लिए त्राहि त्राहि मची रहती है, उनमें से थाने जिले के शाहपुर तालुके का देनगानमल भी एक है। राजधानी मुंबई से बस छियासी किमी दूर।

मुश्किल से सौ से अधिक परिवारों का यह गाँव देनगानमल का घर घर जल के एक अजीब श्राप से अभिशापित है।

उनदिनों आषाढ़ की हल्की बूँदाबाँदी हो चुकी थी। सारे शेतकरी (किसान) बादलों के लिए टकटकी बाँधें आसमान की ओर देख रहे थे। मगर पानी का कहीं नामो निशान भी नहीं था। बल्कि उमस से सारे जीव व्याकुल हो उठे थे। ऐसे में सदाशिव अमरापुरेकर के खेत में मजदूरी करके सखाराम घर लौटा था। घर के आँगन में पैर धरते ही पसीना पोंछते हुए उसने आवाज लगायी,‘अरी ओ रामारती, पहले एक लोटा पानी पिला दे तो।’

मगर उस तपती दोपहर में रामारती लेटी ही रही। न उठी, न पति के बुलाने पर उसने कुछ कहा। उसके बेटे को सुबह से बुखार चढ़ा था। इसलिए वह कुएँ से पानी भरने जा भी नहीं सकी थी। बच्चा रोये जा रहा था। उसका मन खीझ से भर उठा था। मन ही मन वह बारबार अपने बापू को कोसती,‘अण्णा, यह किस नरक में तुमने मेरा ब्याह कर दिया कि जहाँ आदमी एक बूँद पानी के लिए भी तरस जाए ?’

गाँव से करीब दो कोस की दूरी पर पहाड़ की चट्टानों के बीच दो कुएँ हैं। पानी पीना है तो जाओ – वहाँ तक पैदल, सिर पर तीन चार गगरियों को ढोते हुए। पथरीली राह पर चलकर वहाँ तक पहुँचो। अगर पहले से और कोई खड़ा है तो अपनी पारी का इंतजार करते रहो। फिर पानी भर कर उतना पैदल लौटो। पानी भरी हुई गगरिओं को सर पर उठाकर सँभालते हुए। तब तो तुम अपने बच्चों को पानी पिला सकती हो। अपने आदमी को पानी पिला सकती हो। खुद अपनी प्यास मिटा सकती हो।   

झुँझलाते हुए सखाराम ने दो एकबार और आवाज लगायी, अरे रामारती, कहाँ मर गई?’ बाहर की उमस और तपन उसके मन में भी आग लगा रक्खी थी। और यह किसको अच्छा लगेगा कि जिस गृहस्थी को खिलाने पिलाने के लिए वह दिन भर जाँगर रगड़ कर आया है, वहीं उसकी बीवी उसके लिए एक लोटा पानी भी नहीं ला सकती ?

उसकी प्यास ने उसके मन में अंधड़ मचा दिया। वह दौड़ कर कमरे के अंदर पहुँचा और एक हाथ से रामारती का झोंटा पकड़ लिया। फिर तो उसके मुँह से बिलकुल बवंडर की तरह गालियां चलने लगीं।

रामरती भी किसी कुरेदी गई नागिन की तरह फन उठाकर फुँफकारने लगी, मैं तेरी बीवी हूँ, बाँदी नहीं। मेरा बेटा बुखार से तड़प रहा है, तुझे उसका जरा भी ख्याल है? मेरे बच्चे के होंठ सूख रहे हैं। मैं माँ होकर उसे एक बूँद पानी पिला न सकी, तो तेरे अण्णा और आई के लिए कहाँ से पानी लाऊँ? बच्चे को किसके भरोसे छोड़ कर जाती मैं?’

हुक्के के दहकते अंगारे की तरह सखाराम गुमसुम बैठा रहा। साँझ ढलने पर भी रामारती न उठी, न चूल्हे की लकड़ी जलाई। वह बेटे को लेकर बैठी ही रही।

आखिर हारकर सखाराम की आई को ही उठना पड़ा, यह भी कैसा गुस्सा है? देवा हो देवा! हम भी तो बांझ नहीं थी। मेरे बेटे भी बीमार पड़े। तो क्या मैं ने चूल्हे में आग देना भी बन्द कर दिया ? पति, ससुर और सास के लिए पानी लाना ही बंद कर दिया था? हाय रे गनेशा! यह जमाना ही कैसा आ गया है! अब तू भी देखती जा मैं क्या करती हूँ। मैं सखा के लिए दूसरी जोरू ले आऊँगी।’

देनगानमल गांव के लिए यह कोई अनहोनी बात भी न थी। सिर्फ दूर के कुएँ से पानी लाने के लिए ही दूसरी या तीसरी शादी रचाना यहाँ कोई अनोखी बात नहीं है। समाज ने तो इसी रीति को स्वीकार ही कर लिया है। भले ही हिन्दू विवाह कानून कुछ और ही राग अलापे।

शाम को इसी बात को नीलू फूले ने भी दोहराया, अरे सोच क्या रहा है? रामचन्दर बन के इस गांव में तो रह नहीं सकता। एक सीता से तो पूरी गृहस्थी प्यासी रह जायेगी। तो रामचन्दर नहीं, बल्कि उसका बाप दशरथ बन जा रे। ले आ कौशल्या के बाद कैकेयी को।’

दोपहर की तपन खतम होते होते छाती की प्यास और दिमाग की आग दोनों को बुझाने सखाराम बाँटली के ठेके में  जा पहुँचा था। वहीं पर राम राम के बाद जब हालचाल पूछा जा रहा था, तो ये सारी बातें भी होने लगीं। और तभी नीलू ने दी नेक सलाह, और वहाँ बैठे कई भाई अपना सर हिलाते रहे, ‘कासी में जब जीना मरना, ठग या देवल बनकर रहना!’

बात जोर पकड़ती गई। अब यह कहना तो मुश्किल है कि लड़के ने लड़की को तलाश किया या कन्या ने बन्ने को। जैसे कढ़ाई में सब्जी तलते समय यह कहना नामुमकिन है कि तरकारी के किस टुकड़े का रंग सबसे पहले हरे या पीले से भूरा हो गया।

भागी सखाराम की ममेरी दीदी की ननद है। उसकी शादी तो एक अच्छे भले किसान के घर हुई थी। मगर उसके पति ने कपास की खेती के लिए महाजन से रुपये उधार क्या लिए, उस साल फसल बर्बाद हो गई, और साथ ही साथ किसान भी। आखिर हार कर भागी के पति ने रस्सी का ही सहारा ले लिया। मुआवजा की रकम जो मिली, उसे लेकर महाजन और भागी के जेठ और देवर में छीना झपटी मच गयी। इसी चक्कर में उस अभागिन ने पाया कि वह तो छिटक कर घर से बाहर सड़क पर जा गिरी है। तो आखिर उसे अपने मायके के दरवाजे ही खटखटाने पडे़। भाई ने तो मुँह बनाकर ही सही किवाड़ खोल दिया, मगर भाभी मन ही मन कुढ़  कर रह गयी। सोचने लगी – एक थाली भात, कहाँ से खाये आदमी सात?

अंततः इधर जब मौका मिला तो भागी की भाभी यानी सखाराम की ममेरी दीदी ने उसकी आई से कहा, बुआ, मेरी ननद को ही क्यों नहीं घर ले आ रही हो ?’

सखाराम की ताई खुद एक औरत थी। अपनी भतीजी के मन की बात वह भली भाँति ताड़ गई कि वह अपनी ननद से छुट्टी पाना चाहती है। फिर सोचने लगी – हर्ज ही क्या है? दूसरी तीसरी जलपत्नी के रूप में किसी विधवा, या कोई अभागन जो अपने एकाध बच्चे के साथ अकेली रहती है, उसे ब्याह कर लाना – यही तो रिवाज है।

सारा तमाशा होता रहा, रामारती चुपचाप देखती रही। कसाई बाड़े का हर मेमना जानता है कि आज या कल उसकी बारी आनेवाली है। देनगानमल की पत्नियां भी जानती हैं कि उनकी तकदीर में भी कोई और अनोखी बात लिखी नहीं है। खैर, उसके बेटे सचिनि का बुखार उतर चुका था। दरवाजे पर बाजा नगाड़ा बजने लगा। सचिनि भी माँ के गले लिपटकर उछलने लगा, आई, मैं भी अण्णा की बारात में चलूँगा।’

चल मुए!’ रामारती ने उसकी पीठ पर एक मुक्का जमा दिया, बाप जैसा सांड़। बेटा बने भाँड़!’

सचिनि की शहनाई बजने लगी- ‘एँ एँ – मैं भी चलूँगा।’ और आखिर वह भी गया।

बाप बेटे लौटे तो साथ में भागी भी थी। छाती तक घूँघट के नीचे, नाक में नई नथनी। पैरों में चाँदी के कड़े।

यहाँ तक पहुँचते पहुँचते सचिनि भी भागी के साथ घुल मिल गया था, ए नईकी आई, हमारे घर चलकर रहोगी तो अपनी आई, अपने भाई की याद नहीं आवेगी?’

इस सीधे साधे सवाल का जवाब क्या था भागी के पास? मुस्कुराकर रह गई। इसी तरह रास्ते भर और भी जाने कितने बकबक, मेरे दोस्त पंजारी का निशाना क्या गजब का है! एकबार एक ढेले से उसने दो दो आम एकसाथ गिरा दिये।’

क्रमशः …… 

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 101 – लघुकथा – सोलह श्रृंगार ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील लघुकथा  “सोलह श्रृंगार । इस विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 101 ☆

? लघुकथा – सोलह श्रृंगार ?

आज करवा चौथ है। और शाम को बहुत ढेर सारे काम है। ब्यूटी पार्लर भी जाना हैं। रसोई में देखना है कि बाई आज क्या बना रही है।

श्रेया मेम साहब  सोचते – सोचते अपनी धुन पर बोले जा रही थीं। सुबह के नौ बज गए हैं महारानी (काम वाली बाई) अभी तक आई नहीं है। उसी समय दरवाजे की घंटी बजी।

जल्दी से दरवाजा खोल वह बाई को अंदर आने के लिए कहतीं हैं। मेम साहब नमस्ते ? किचन में जाते -जाते बाई कमला ने आवाज लगाई।

श्रेया मेम की नजर बाई पर पड़ी तो वह उसे देखते ही रह गई, कान में झुमके, पांव में पायल, हाथों में कांच की चुडिंयों के साथ सुंदर चमकते कंगन। वह दूसरे दिन से बहुत अलग और सुंदर लग रही थी।

वह आवाक हो बोल उठी… क्या बात है कमला आज तो… बीच में बात काटकर कमला बोली… मेरा आदमी सही बोल रहा था… हम गरीब हैं तो क्या हुआ आज तुम इन नकली गहनों में बहुत सुन्दर लग रही हो । बहुत प्यार करता है मुझे आज मेरे लिए व्रत भी रखा है।

हम गरीबों के पास एक दूसरे का साथ ही होता है। मेम साहब जीने के लिए। सच बताऊँ मेरे पति ने रोज की अपनी कमाई से महिने भर थोड़ा थोड़ा बचा कर चुपचाप आज मेरे लिए ठेले वाले से ये सब लिया है।

मै भी सोलह श्रंगार कर शाम को पूजन करुंगी। उसने मुझे सुबह से पहना दिया। बहुत खुश हो वह बोले जा रहीं थीं। श्रेया को लाखों के जेवर और ब्यूटी पार्लर जाकर भी इतनी खुशी नहीं मिलती, जितना आज कमला नकली जेवर पहन चहक रही है।

श्रेया मेम साहब की आंखों से आंसू बहनें लगे, पेपर से मुंह छिपाते दूसरे कमरे में जाकर फोन करने लगी।  शायद अपने पति देव को जिनसे महीनों से कोई बात नहीं हुई थी।

दोनों अपनी – अपनी सोसाइटी और दिखावे पर गृहस्थी  चला रहे थें। उन्हें कमला की बातें सुनाई दे रही थी.. मेरा पति मुझे बहुत प्यार करता है मेम साहब!!!!!!!

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 107 ☆ लघुकथा – लिफाफा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय  लघुकथा  ‘लिफाफा’).   

☆ लघुकथा # 107 ☆ लिफाफा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

उस बेचारी ने कलेक्ट्रेट में ज्वाइन किया। 

कुछ दिन बाद नेता जी ने खबर भिजवाई कि हर महीने की पांच तारीख तक लिफाफा पहुंच जाना चाहिए।

वो भोली थी, पिता की लाडली थी उसी पिता की जो बार्डर पर कुछ साल पहले शहीद हो गए थे। उस बेचारी ने लिफाफे का मतलब नहीं समझा तो उसने चपरासी से लिफाफे के बारे में पूछा। चपरासी ने बताया कि नेताजी सब अधिकारियों से हर माह उगाही करते हैं, और लिफाफा लेते हैं। 

पिता के शहीद होने के बाद उस बेचारी ने बड़ा संघर्ष किया था, पैसे पैसे के लिए तरस गई थी, और पहली तनख्वाह में नेता जी को घूंस वाला लिफाफा देकर नौकरी बचाने की बात उसे जमी नहीं। उसने विरोध किया, बात चपरासी से होती हुई  ऊपर तक गई, और नेता जी तक पहुंच गई। 

दो महीने बाद उस बेचारी को एक लिफाफा मिला, खोलकर देखा तो प्रदेश के बार्डर के पिछड़े जिले के लिए उसका ट्रान्सफर आर्डर था।

© जय प्रकाश पाण्डेय

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #63 – गैर हाज़िर कन्धे ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #63 – गैर हाज़िर कन्धे ☆ श्री आशीष कुमार

विश्वास साहब अपने आपको भागयशाली मानते थे। कारण यह था कि उनके दोनो पुत्र आई.आई.टी. करने के बाद लगभग एक करोड़ रुपये का वेतन अमेरिका में प्राप्त कर रहे थे। विश्वास साहब जब सेवा निवृत्त हुए तो उनकी इच्छा हुई कि उनका एक पुत्र भारत लौट आए और उनके साथ ही रहे; परन्तु अमेरिका जाने के बाद कोई पुत्र भारत आने को तैयार नहीं हुआ, उल्टे उन्होंने विश्वास साहब को अमेरिका आकर बसने की सलाह दी। विश्वास साहब अपनी पत्नी भावना के साथ अमेरिका गये; परन्तु उनका मन वहाँ पर बिल्कुल नहीं लगा और वे भारत लौट आए।

दुर्भाग्य से विश्वास साहब की पत्नी को लकवा हो गया और पत्नी पूर्णत: पति की सेवा पर निर्भर हो गई। प्रात: नित्यकर्म से लेकर खिलाने–पिलाने, दवाई देने आदि का सम्पूर्ण कार्य विश्वास साहब के भरोसे पर था। पत्नी की जुबान भी लकवे के कारण चली गई थी। विश्वास साहब पूर्ण निष्ठा और स्नेह से पति धर्म का निर्वहन कर रहे थे।

एक रात्रि विश्वास साहब ने दवाई वगैरह देकर भावना को सुलाया और स्वयं भी पास लगे हुए पलंग पर सोने चले गए। रात्रि के लगभग दो बजे हार्ट अटैक से विश्वास साहब की मौत हो गई। पत्नी प्रात: 6 बजे जब जागी तो इन्तजार करने लगी कि पति आकर नित्य कर्म से निवृत्त होने मे उसकी मदद करेंगे। इन्तजार करते करते पत्नी को किसी अनिष्ट की आशंका हुई। चूँकि पत्नी स्वयं चलने में असमर्थ थी, उसने अपने आपको पलंग से नीचे गिराया और फिर घिसटते हुए अपने पति के पलंग के पास पहुँची।

उसने पति को हिलाया–डुलाया पर कोई हलचल नहीं हुई। पत्नी समझ गई कि विश्वास साहब नहीं रहे। पत्नी की जुबान लकवे के कारण चली गई थी; अत: किसी को आवाज देकर बुलाना भी पत्नी के वश में नहीं था। घर पर और कोई सदस्य भी नहीं था। फोन बाहर ड्राइंग रूम मे लगा हुआ था। पत्नी ने पड़ोसी को सूचना देने के लिए घसीटते हुए फोन की तरफ बढ़ना शुरू किया। लगभग चार घण्टे की मशक्कत के बाद वह फोन तक पहुँची और उसने फोन के तार को खींचकर उसे नीचे गिराया। पड़ोसी के नंबर जैसे तैसे लगाये।

पड़ौसी भला इंसान था, फोन पर कोई बोल नहीं रहा था, पर फोन आया था, अत: वह समझ गया कि मामला गंभीर है। उसने आस– पड़ोस के लोगों को सूचना देकर इकट्ठा किया, दरवाजा तोड़कर सभी लोग घर में घुसे। उन्होने देखा -विश्वास साहब पलंग पर मृत पड़े थे तथा पत्नी भावना टेलीफोन के पास मृत पड़ी थी। पहले विश्वास और फिर भावना की मौत हुई। जनाजा दोनों का साथ–साथ निकला।

पूरा मोहल्ला कंधा दे रहा था परन्तु दो कंधे मौजूद नहीं थे जिसकी माँ–बाप को उम्मीद थी। शायद वे कंधे करोड़ो रुपये की कमाई के भार से पहले ही दबे हुए थे।

 

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈