☆ – The Citizenship journey: A Memoir – ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆
Life has a way of presenting opportunities that shape not just our careers but also our inner selves. My journey with Citizen SBI was one such transformative experience. It began with my selection as faculty for the State Bank Academy, Gurgaon—a position I never assumed. Instead, I was posted as the head of the learning center at Indore, a role that coincided with my appointment as the intervention leader for the Citizen-SBI program.
Citizen SBI was more than a training program. Inspired by Swami Ranganathananda of the Ramakrishna Mission, it aimed to cultivate ‘enlightened citizenship.’ This concept transcended political citizenship—focused on rights and freedoms—and emphasized a deeper engagement with collective welfare and individual fulfillment. The program was the brainchild of our chairman, O.P. Bhatt, who envisioned its impact extending to 200,000 employees and, through them, to 140 million customers.
The foundation of this initiative was engagement—true, deep involvement in one’s work. As I immersed myself in its philosophy, I discovered the transformative power of meaningful contribution. No longer was work just a duty; it became a purpose-driven act of service. This shift in mindset was a spiritual awakening for me.
The journey began with workshops and pilots across locations, from Mumbai to Hyderabad and Gurgaon. I remember vividly my first interaction with V. Srinivas, the visionary CEO of Illumine Knowledge Resources. His conviction was palpable, though his ideas initially seemed abstract to many. Over time, through detailed workshops and apprenticeships, the abstract became tangible, and the facilitators, including myself, underwent a profound transformation.
The program’s influence extended beyond professional training. It created a rich network of facilitators, bonded by a shared purpose. The ‘facilitator gym’ sessions at the Bandra-Kurla Complex honed our skills and deepened our understanding of citizenship. These moments of camaraderie and collective learning were deeply fulfilling.
Back in Indore, I was tasked with implementing Citizen SBI in the State Bank of Indore. Initially, there was resistance—they did not yet see themselves as citizens of SBI. However, with the help of facilitators like Suresh Iyer, Harinaxi Sharma, and Arun Kalway, we gradually earned their trust. The program’s ethos resonated, bringing about a noticeable shift in their attitudes.
The essence of Citizen SBI was not about personal gain but about contributing positively to others. It wasn’t ‘swantah sukhai’—happiness for oneself—but a collective welfare-driven joy. This philosophy became my way of life, influencing not just my work but my personal ethos.
The program’s success was also a testament to the incredible people involved. Intervention leaders like Bijaya Dash, R. Natarajan, and Balachandra Bhat became cherished friends. Vasudha Sundararaman, our deputy general manager, coordinated the program with unmatched efficiency and warmth. Yashi Sinha, general manager, was an epitome of grace and wisdom. Above all, V. Srinivas, with his dedication to the cause, became a source of inspiration—a guru whose example I sought to follow in words and deeds.
As I reflect on this journey, I find myself deeply fulfilled. I have reaped not only the ‘outer fruits’ of professional growth and recognition but also the ‘inner fruits’ of spiritual evolution and the joy of contribution. My experiences as a behavioral science trainer and student of positive psychology further enriched this journey, grounding it in the principles of authentic happiness.
Citizen SBI was not merely a program; it was a movement, a way of life. It taught me that true citizenship is an internal transformation, a continuous journey of growth, contribution, and engagement. It is a journey I carry forward with pride and gratitude, knowing that it has shaped me into not just a professional but a better human being.
A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.
The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.
Please feel free to call/WhatsApp us at +917389938255 or email [email protected] if you wish to attend our program or would like to arrange one at your end.
वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।
प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन
आपकी साहित्यिक एवं संस्कृतिक जगत की विभूतियों के जन्मदिवस पर शोधपरक आलेख अत्यंत लोकप्रिय हैं। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है 85 वें जन्मदिवस पर आपका आलेख – न्याय के संस्कार और मीना भट्ट का सृजन।)
☆ जन्मदिवस विशेष – न्याय के संस्कार और मीना भट्ट का सृजन☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆
(30 अप्रैल को जन्म दिवस पर विशेष)
जो व्यक्ति साहित्य, कला, संस्कृति से अथवा किसी भी तरह के सृजन से जुड़ जाता है उसमें न सिर्फ मानव समाज वरन समस्त जड़ – चेतन के लिए प्रेम भाव विकसित हो जाता है। आज हम बात कर रहे हैं सम्पूर्ण प्रकृति से प्रेम करने वाली जबलपुर की ऐसी साहित्य साधिका श्रीमती मीना भट्ट की जिन्होंने अपने सकारात्मक लेखन से सम्पूर्ण देश के साहित्य प्रेमियों के बीच अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाया है।
छतरपुर के नौगांव में जन्मीं मीना भट्ट के पिताश्री स्व. हरिमोहन पाठक आबकारी अधिकारी रहे। माताश्री स्व. सुमित्रा पाठक धार्मिक प्रवृत्ति की थीं। परिवार से प्राप्त उत्कृष्ट संस्कारों के बीच उच्च अध्ययन करने के उपरांत आपने न्यायिक सेवा प्रारंभ की। आपका विवाह भी न्याय सेवा कर रहे श्री पुरुषोत्तम भट्ट जी से हुआ। जिला एवं सत्र न्यायाधीश के पद से सेवा निवृत्त होने के उपरांत आप डिविजनल विजलेंस कमेटी जबलपुर की चेयर पर्सन रहीं। परिवार के धार्मिक आध्यात्मिक, सांस्कृतिक वातावरण और सत्यमेव जयते व तमसो मा ज्योतिर्गमय के भाव के साथ न्यायिक सेवाओं ने मीना जी का कुछ इस तरह निर्माण किया कि वे अत्याचार, अनाचार, बेईमानी, पक्षपात, असमानता, भेदभाव को देख तुरंत असहज हो उठती हैं किंतु इसके विपरीत सज्जनों, साहित्य कला संस्कृति, धर्म – अध्यात्म जैसे सकारात्मक कर्म से जुड़े लोगों के प्रति अत्यंत स्नेह व सम्मान रखती हैं।
श्रीमती मीना भट्ट की साहित्यिक यात्रा उनके प्रशासनिक और न्यायिक पदों पर रहते हुए ही हो चुकी थी। यद्यपि आपने गद्य सृजन भी किया है तथापि काव्य सृजन आपको प्रिय है। आपकी अनेक रचनाएं छंद युक्त हैं, आपने गजलें भी पूरी दक्षता से लिखी हैं। भक्ति, प्रकृति और प्रेम आपके प्रिय विषय हैं। 2016 में आपकी प्रथम पुस्तक “पंचतंत्र में नारी” प्रकाशित हुई फिर क्रमशः “पंख पसारे पंछी”, “एहसास के मोती” और “ख्याल – ए – मीना (ग़ज़ल संग्रह), “नैनिका” कुंडलिया संग्रह, “मीना के सवैया” एवं “निहारा” (गीत संग्रह) आदि प्रकाशित हुईं। इस बीच मीना जी ने अपने युवा पुत्र सिद्धार्थ भट्ट को खोने का गहन दुःख झेला जो उनकी कलम से बहता रहता है। मीना जी ने पुत्र की स्मृति को अक्षुण्य बनाने अपना उपनाम ही “सिद्धार्थ” रख लिया है। उन्होंने साहित्य कला संस्कृति के संरक्षण संवर्धन के लिए “सिद्धार्थ फाउंडेशन” नामक संस्था की स्थापना भी की है जो गति ग्रहण कर रही है। आपके छोटे पुत्र सौरभ और पुत्र वधु प्रीति सेवाभावी लोकप्रिय चिकित्सक हैं।
मीना जी ने अपना संपूर्ण जीवन अध्ययन,चिंतन – मनन, लेखन, समाज सेवा और प्रतिभाओं की खोज व उनके विकास के लिए समर्पित कर दिया है। इस पावन कार्य में उन्हें उनके पति श्री पुरुषोत्तम भट्ट का पूरा सहयोग प्राप्त होता है। आप साहित्यिक, सामाजिक गतिविधियों में सदा उदारता पूर्वक सहयोग करते हैं। मीना जी को उनकी साहित्यिक उपलब्धियों पर विद्या सागर सम्मान, विद्या वाचस्पति की मानद उपाधि, गुंजन कला सदन का महिला रत्न अलंकरण व नगर और देश की अनेक संस्थाओं के सम्मान और पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं। उनकी कलम निरंतर चलती रहे। आज श्रीमती मीना भट्ट जी के जन्म दिवस पर उनके स्नेहियों, परिचितों, प्रशंसकों की ओर से उनके स्वस्थ, सुदीर्घ, यशस्वी जीवन की अनंत शुभकामनाएं।
(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन)हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं। इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक प्रेरक संस्मरणात्मक प्रसंग ‘मेल जोल बढ़ाइए, उम्र भी बढ़ जाएगी…’।)
☆ जीवन यात्रा – मेल जोल बढ़ाइए, उम्र भी बढ़ जाएगी… ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆
(वानप्रस्थ ने मनाया 92 वर्षीय वरिष्ठतम सदस्य एच पी सरदाना का जन्मदिन)
हिसार। बड़ी उम्र के लोगों से अक्सर यह सवाल किया जाता है कि उनकी सेहत का क्या राज़ है। जीवन के 93 बसंत देख चुके हरप्रकाश सरदाना का सीधा सा जवाब है कि दैनिक जिंदगी में खानपान और जीवन शैली में अनुशासन बनाए रखिए और सबसे जरूरी यह कि मेलजोल बनाए रखिए।
वरिष्ठ नागरिकों की संस्था वानप्रस्थ में उन्होंने अपना 93वां जन्मदिन मनाया। संस्था की तरफ से उन्हें एक पौधा, शाल और फूलों के गुलदस्ते देकर सम्मानित किया। उन पर फूलों की वर्षा कर सभी सदस्यों ने हैप्पी बर्थडे टू यू का गीत गाते हुए उनके अच्छे स्वास्थ्य और उनकी दीर्घायु की कामना की।
सरदाना जी ने इस अवसर पर अपने अनुभव सांझा किए। देश के विभाजन के समय वे 16 साल की उम्र में कराची से समुद्री जहाज़ के द्वारा शरणार्थियों के एक दल में गुजरात पहुंचे थे।
“सब कुछ सामान्य था। किसी को यकीन ही नहीं आ रहा था कि उन्हें अपने पुरखों के घर छोड़ कहीं और जाना पड़ेगा। फिर कुछ हिंसक घटनाएं हुई और सरकार ने सभी हिन्दू सिखों को कराची छोड़ गुजरात जाने के लिए कहा और सभी चल पड़े, अपने घरों को ताले लगा कर चाबी पड़ोसियों को देकर। उम्मीद जल्द लौटने की थी, पर यह तो स्थाई विस्थापन था।
गुजरात से आगरा आए। पिता मिलिट्री इंजीनियरिंग सर्विस में थे । बाद में सरदाना भी एम ई एस में ही भर्ती हुए और इंडियन एयर फोर्स के कई स्टेशनों पर काम किया। उत्तर प्रदेश, असम, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश व दिल्ली सहित अनेक राज्यों में काम किया। दार्जिलिंग में एवरेस्ट विजेता तेनजिंग से मिले। बंगाल में कलाईकोंडा एयरफील्ड पर पाकिस्तानी हमले को देखा।
एकमात्र पुत्री सुनीता की शादी सरदाना जी ने एयरफोर्स के अपने एक मित्र के पुत्र नवीन मेहतानी से करा दी जो मैरिन इंजीनियर थे और समुद्री जहाज़ों पर ही दुनिया में घूमते रहते थे। चीफ़ इंजीनियर पद से सिंगापुर से सेवानिवृति के बाद नवीन अब भी कंसल्टेंसी कर रहे हैं । किसी दुर्घटना में फंसे समुद्री जहाज़ को बचाने या निकालने के काम में लगे रहते हैं। सुनीता और नवीन के एक बेटा मन्नन और एक बेटी तारिणी हैं जो जॉब कर रहे हैं।
पिता सरदाना की देखभाल पुत्री सुनीता मेहतानी करती हैं पर उनके जन्मदिन पर पूरा परिवार इकट्ठा होता है। वानप्रस्थ संस्था में वे लंच का इंतजाम करती हैं और संस्था के सदस्य बड़े उत्साह के साथ गीतों और गजलों से उन्हें बधाई देते हैं। वे खास सदस्यों से खास गीतों की फरमाइश भी करते हैं और खुद कोई बांग्ला या इंग्लिश भाषा का गीत सुनाते हैं।
सुनीता मेहतानी कहती हैं कि कुछ वर्ष पहले उनके पिता सरदाना जी की तबियत काफ़ी खराब रहती थी। “हर दूसरे तीसरे दिन उन्हें डॉक्टर के पास ले जाना पड़ता था। जबसे वे वानप्रस्थ में आए हैं, उनकी तबियत में बड़ा सुधार हुआ है। अब महीने दो महीने में डॉक्टर से मिलना होता है।”
“सरदाना जी बुधवार व शुक्रवार को वानप्रस्थ की निर्धारित बैठक के लिए 9 बजे ही तैयार होकर बैठ जाते हैं और मुझे कहते हैं कि आज जाना है, जल्दी तैयार हो जाओ।”
“किसी और दिन इनको उदास देखती हूं, तो किसी मित्र को फोन कर कहती हूं, डैडी आपको याद कर रहे हैं। आप के साथ चाय पीने के लिए आना चाहते हैं। मित्र स्वाभाविक रूप से तुरंत बुला लेते हैं और फिर चाय पर गपशप से उदासी फुर्र हो जाती है।”
प्रथम पंक्ति – वरिष्ठतम सदस्य एच पी सरदाना को सम्मानित करते वानप्रस्थ के सदस्य।
द्वितीय पंक्ति – वानप्रस्थ की गोष्ठी का दृश्य, सावन के गीत प्रस्तुत करती प्रो दीप कौर पुनिया व उनकी सखियां
वानप्रस्थ में सरदाना जी के जन्मोत्सव में प्रो दीप कौर पुनिया ने हरियाणा के सावन के लोकगीतों के मुखड़े पेशकर समा बांध दिया। प्रो पुष्पा खरब, सुनीता जैन, संतोष डांग, इंदु गहलावत व कमला सैनी ने उनका साथ दिया। सरदाना जी की फरमाइश पर दूरदर्शन के पूर्व समाचार निदेशक अजीत सिंह ने फैज़ अहमद फैज़ की मशहूर ग़ज़ल, हम देखेंगे गाकर पेश की। आलम यह था कि सभी श्रोता भी स्थायी टेक पर लगातार साथ देने लगे।
प्रो पुष्पा खरब, प्रो राज गर्ग, प्रो स्वराज कुमारी, वीना अग्रवाल, प्रो रामकुमार सैनी, करतार सिंह व एस पी चौधरी ने विभिन्न रंग के गीतों और ग़ज़लों की प्रस्तुति दी।
प्रो सुनीता श्योकंद, सुनीता मेहतानी, प्रो सुनीता जैन तथा वानप्रस्थ के जनरल सेक्रेटरी जे के डांग ने सभा का संचालन किया।
(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन)हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं। इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक अविस्मरणीय संस्मरण ‘किस्सा मित्र राजेंद्र रॉय की दुखद मृत्यु का…डायबिटीज की अनदेखी न कीजिए…’।)
☆ जीवन यात्रा – किस्सा मित्र राजेंद्र रॉय की दुखद मृत्यु का…डायबिटीज की अनदेखी न कीजिए… ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆
किस्सा मित्र राजेंद्र रॉय की दुखद मृत्यु का…
ऑल इंडिया रेडियो के पूर्व समाचार निदेशक राजेंद्र रॉय का बुधवार को गाजियाबाद के वसुंधरा स्थित एक अस्पताल में निधन हो गया। वे 78 वर्ष के थे और कुछ समय से किडनी की बीमारी से पीड़ित थे।
एक हँसमुख व्यक्ति जो अपने ऊपर ही चुटकुले सुनाता था और दूसरों को खुश करता था, रॉय अपने दोस्तों के बीच बेहद लोकप्रिय थे, जिन्होंने उनके चरित्र के गुणों को याद करते हुए भावभीनी श्रद्धांजलि पेश की हैं।
लेकिन राजेंद्र रॉय के कुछ दोस्तों को लगता है कि उन्होंने एक तरह से खुद ही आत्महत्या की है। रॉय इस बात पर अड़े थे कि मधुमेह और बीपी की गंभीर स्थिति के बावजूद वह एलोपैथिक दवाएं नहीं लेंगे। उनका मानना था कि एलोपैथिक चिकित्सा प्रणाली एक माफिया है जहां डॉक्टरों और फार्मा कंपनियों ने आम लोगों को लूटा है।
वह सादा भोजन लेते थे और भ्रामरी प्राणायाम जैसे व्यायाम करते थे और दोस्तों से उनके उदाहरण का अनुसरण करने का आग्रह करते थे। वह यह दावा करने के लिए अपने लैब परीक्षण पोस्ट करते थे कि उन्होंने बिना किसी दवाई के अपनी शुगर और कोलेस्ट्रॉल को पूरी तरह से नियंत्रित कर लिया है। शायद उन्हें अपनी एचबी1एसी के अत्यधिक उच्च स्तर की रिपोर्ट के निहितार्थ के बारे में पता नहीं था, जिसमें उनके रक्त में शर्करा के तीन मासिक औसत स्तर को दर्शाया गया था। यह वांछित 6.0 के मुकाबले 9.7 था। दोस्तों ने उन्हें इस संबंध में सावधान किया और उन्हें अपने आहार के साथ-साथ मेटफॉर्मिन जैसी एलोपैथिक दवाएं लेने की सलाह दी। एक मित्र ने अपने डॉक्टर के हवाले से कहा कि मधुमेह रोगी की किडनी पर हर बार छोटा या बड़ा निशान बनाता है, जब शुगर सामान्य स्तर को पार करता है। रॉय को कोई परवाह नहीं थी. शायद, उन्होंने इसी की कीमत चुकाई है।
राजेंद्र रॉय कट्टर विचारों के व्यक्ति थे। वे हमेशा कहते थे कि कोविड-19 बड़ी फार्मा कंपनियों द्वारा किया गया एक बड़ा धोखा है, जो बड़ा डर पैदा करके लोगों को लूटने के लिए किया गया है। उन्होंने अपनी बात को साबित करने के लिए बार-बार खुद को गंभीर कोरोना मरीजों के बीच भर्ती होने की पेशकश की। कोई भी ऐसे प्रस्ताव को स्वीकार कैसे कर सकता था।
वैसे रॉय यारों के यार थे. उन्होंने अपने सेवा सहयोगियों के हितों की रक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय तक कई कानूनी लड़ाइयाँ लड़ीं। वह किसी ऐसे दोस्त की मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहते थे जिसे प्रमोशन या अन्य मुद्दों पर अन्याय महसूस होता हो।
लेकिन सेवाकाल में खुद उन्हें बहुत कष्ट भी सहना पड़ा. भारी काम के बोझ से दबे होने के कारण, उन्होंने आकाशवाणी रांची से क्षेत्रीय समाचार बुलेटिन में एक समाचार प्रसारित किया, जिसमें क्षेत्रीय समाचार इकाई में कर्मचारियों की कमी के कारण खराब स्थिति के लिए सरकार को दोषी ठहराया गया। उन्हें निलंबन का सामना करना पड़ा और बाद में पदोन्नति में रुकावट आ गई। उन्हें अपने कुछ उचित लाभों को बहाल करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में लंबी कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी।
कानूनी मामलों में दोस्तों की निःशुल्क मदद करना सेवानिवृत्ति जीवन में उनका पूर्णकालिक शौक बन गया।
मूल रूप से बिहार के एक सुदूर इलाके के रहने वाले रॉय 1970 में भारतीय सूचना सेवा में शामिल हुए। उन्होंने मुख्य रूप से दिल्ली, पटना, भोपाल और रांची में काम किया और 2004 में ऑल इंडिया रेडियो के समाचार सेवा प्रभाग से समाचार निदेशक के रूप में सेवानिवृत्त हुए।
रॉय ने अपना जीवन अपनी शर्तों पर जीया और कोई अन्याय बर्दाश्त नहीं किया। वे हमेशा मित्रों व परिजनों की यादों में रहेंगे। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे।
राजेंद्र रॉय की कहानी का एक निष्कर्ष यह भी है कि डायबिटीज की बीमारी की अनदेखी मत कीजिए। सदा जीवन, खान पान और प्राणायाम और वर्जिश बेहतर हैं पर दवाई भी लेते रहिए।
☆ जीवन यात्रा ☆ एक चंदन चरित्र डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆
आज जबलपुर की साहित्यिक प्रतिष्ठा की अभिवृद्धि जिस अधित्यका पर जा पहुंची है, उसकी चढ़ाई का सूत्रपात करने में डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ का यशस्वी योगदान है।
डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’
उन्होंने हिंदी के नव लेखकों को सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाने का कार्य पत्रकारिता के माध्यम से तो किया ही साथ ही काव्य की कुंज गली से बाहर निकल निबंध, नाटक, उपन्यास, आलोचना, समालोचना आदि के विभिन्न क्षेत्रों में नव साहित्य साधकों को आगे बढ़ाने का स्तुत्य प्रयास भी किया है।
जबलपुर की हिंदी पत्रकारिता उनके व्यक्तिगत प्रयत्न एवं प्रोत्साहन की हमेशा ऋणी रहेगी।
आज वार्धक्य की विस्मित रेखाओं से जब वह जबलपुर का हिंदी समाज देखते हैं तब उन्हें आत्मिक संतोष अवश्य होता है कि उन्होंने सांस्कृतिक पथ प्रदर्शक का कार्य बहुत ईमानदारी से किया।
इक चंदन चरित्र डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ जी से मेरा परिचय 1990 के पूर्व हुआ जब मैं छायावादोत्तर काल के महाकवि श्री रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ के खंडकाव्य अपराधिता पर लघु शोध प्रबंध लिख रहा था और शोध की प्रक्रिया और प्रविधि को ठीक तरह से जानने हेतु मुझे अंचल जी ने सुमित्र जी के पास भेजा।
1995, 96 से यह परिचय आत्मीयता में बदल गया क्योंकि मैं नवभारत के संपादकीय विभाग में कार्य करने लगा और वहां डॉ. सुमित्र जी का आना अक्सर होता था, वहीं डॉ. तिवारी के हिन्दी की अभिवृद्धि को संजीवित और प्रसृत करने के वाक्य मेरे करण पटल पर आशीर्वाद स्वरुप सुनाई देते थे। साथ ही उनकी पुत्रियों डॉ. भावना जी एवं डॉ. कामना जी, बेटे डॉ. हर्ष तिवारी जी के व्यक्तित्व व्यवहार से भी परिचित होता गया।
जानकी रमण कॉलेज की एक संगोष्ठी से लौटते समय आदरणीय डॉ. गायत्री तिवारी जी एवं सुमित्र जी ने मुझे सेवा का अवसर दिया और वह मेरी कार में बैठकर कोतवाली तक आए। ममतामयी श्रीमती तिवारी का वह आंचलिक वार्तालाप और संवाद आज भी मुझे याद आता है।
1996-97 में क्राईस्ट-चर्च बॉयज़ सीनियर सेकेंडरी स्कूल में हिंदी व्याख्याता नियुक्त होने पर हमारी सीनियर श्रीमती निर्मला तिवारी जी ने राजू भैया के प्रशंसनीय कार्यों को महत्त्व देते पुनः उनके साथ साहित्यिक परिचय कराया।
मुझे कोतवाली के उस बाडे में बैठाकर कुछ सत्संग-सानिध्य का समय देकर साहित्यिक प्रेरणा के महापात्र बने हैं डॉ. तिवारी !
मेरे स्कूली छात्रों ने जब जबलपुर के पत्रकारों-साहित्यकारों पर शोध आलेख लिखना शुरू किया तब डॉ. सुमित्र ने मेरे लघु प्रयास को महत्व देते हुए जबलपुर के अनेक साहित्यकारों से परिचय कराया, मार्गदर्शन दिया और मेरा मनोबल बढ़ाया।
हाल ही में उनकी जिजीविषा सपृक्त लेखन शक्ति को अभिव्यक्त करने वाली दो पुस्तकें, शब्द अब नहीं रहे शब्द और आदमी तोता नहीं का विमोचन हुआ है, मेरी हृदय से कामना है कि वे हमेशा लिखते रहें क्योंकि, लेखन ही उनके जीवन का धर्म-कर्म और अध्यात्म है। वही उन्हें जिंदा रखने वाली, प्राणवायु है।
डॉ. सुमित्र कोरे कवि, पत्रकार मौजी जीव नहीं बल्कि समाज सेवा के व्यावहारिक पहलुओं को संस्थापित, शिक्षित करने वाले ऐसे लेखक हैं जिनकी कीर्ति वर्धनी लेखनी समाज को हमेशा उत्प्रेरित और प्रोत्साहित करती रहेगी।
☆ जुनून और जज्बे को सलाम… दुर्भाग्य तुम्हारी ऐसी तैसी… ☆ प्रस्तुति – श्री जयप्रकाश पाण्डेय ☆
आप हैं मैनपुरी के सूरज तिवारी। २०१७ में ट्रेन दुर्घटना में दोनों पैर और एक हाथ गंवा चुके सूरज ने आज आईएएस परीक्षा में कामयाबी पाई है।
उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जिले के कुरावली कस्बे के रहने वाले सूरज तिवारी. सूरज एक मध्यम वर्गीय परिवार से आते हैं. उनके पिता दर्जी का काम करते हैं. सूरज यूपीएससी परीक्षा पहले अटेम्पट में पास की है. उन्हें 917 रैंक मिली है।
यकीनन, हिम्मत करने वालों की कभी हार नहीं होती…
श्री सूरज तिवारी जी को ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से बहुत बहुत बधाई शुभकामनाएं
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(12 जून 2020 को ई-अभिव्यक्ति में प्रकाशित यह ऐतिहासिक साक्षात्कार हम अपने प्रबुद्ध पाठकों के लिए पुनः प्रकाशित कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)
डॉ मधुसूदन पाटिल
( इस ऐतिहासिक साक्षात्कार के माध्यम से हम हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ मधुसूदन पाटिल जी का हार्दिक स्वागत करते हैं। श्री कमलेश भारतीय (वरिष्ठ साहित्यकार) एवं डॉ मनोज छाबडा (वरिष्ठ साहित्यकार, व्यंग्यचित्रकार, रंगकर्मी) का हार्दिक स्वागत एवं हृदय से आभार प्रकट करते हैं जिन्होंने ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के साथ व्यंग्य विधा के वरिष्ठतम पीढ़ी के व्यंग्यकार डॉ मधुसूदन पाटिल जी का यह बेबाक साक्षात्कार साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया। कुछ समय पूर्व हमने संस्कारधानी जबलपुर मध्यप्रदेश से जनवरी 1977 में प्रकाशित व्यंग्य की प्रथम पत्रिका “व्यंग्यम” की चर्चा की थी जो इतिहास बन चुकी है। उसी कड़ी में डॉ मधुसूदन पाटिल जी द्वारा प्रकाशित “व्यंग्य विविधा” ने 1989 से लेकर 1999 तक के कालखंड में व्यंग्य विधा को न केवल अपने चरम तक पहुँचाया अपितु एक नया इतिहास बनाया। सम्पूर्ण राष्ट्र में और भी व्यंग्य पर आधारित पत्रिकाएं प्रकाशित होती रहीं और कुछ अब भी प्रकाशित हो रही हैं। किन्तु, कुछ पत्रिकाओं ने इतिहास रचा है जिन्हें हम भूलते जा रहे हैं। आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया उस संघर्ष की कहानी को एवं बेबाक विचारधारा को डॉ मधुसूदन पाटिल जी की वाणी में ही आत्मसात करें। हम शीघ्र ही डॉ मधुसूदन पाटिल जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। )
मराठा वीर डॉ. मधुसूदन पाटिल। हरियाणा के हिसार में। मैं भी पंजाब – चंडीगढ से पिछले बाइस वर्षों से हिसार में। संयोग कहिए या दुर्योग हम दोनों परदेसी एक ही गली में अर्बन एस्टेट में रहते हैं। बस। दो-चार घरों का फासला है बीच में। पत्रकार और आलोचक व व्यंग्यकार दोनों बीच राह आते-जाते टकराते नहीं, अक्सर मिल जाते हैं और सरेराह ही देश और समाज की चीरफाड़ कर लेते हैं। कभी हिसार के साहित्यकार भी हमारी आलोचना के केंद्र में होते हैं। कभी हरियाणा की साहित्यिक अकादमियां भी हमारे राडार पर आ जाती हैं। हालांकि, मैं भी एक अकादमी को चला कर देख आया। डॉ मनोज छाबड़ा भी चंडीगढ़ दैनिक ट्रिब्यून के समय से ही परिचित रहे और हिसार आकर मिजाज इन्हीं से मिला। जब हमारे जयपुर संधि वाले डॉ प्रेम जनमेजय को डॉ. मधुसूदन पाटिल के साक्षात्कार और त्रिकोणीय श्रृंखला की याद आई तो मेरे जैसा बदनाम शख्स ही याद आया। मैंने सोचा अकेला मैं ही क्यों यह सारी बदनामी मोल लूं तो डॉ मनोज छाबड़ा को बुला लिया कि त्रिकोण का एक कोण वह भी बन जाये। कई दिन तक वह बचता रहा। आखिर हम दोनों जुटे और डॉ मधुसूदन पाटिल का स्टिंग कर डाला।
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श्री कमलेश भारतीय
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
डॉ मनोज छाबड़ा
(जन्म- 10 फ़र. 1973 शिक्षा- एम. ए. , पी-एच. डी. प्रकाशन- ‘अभी शेष हैं इन्द्रधनुष’ (कविता संग्रह) 2008, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा सर्वश्रेष्ठ काव्य-पुस्तक सम्मान 2009-10, ‘तंग दिनों की ख़ातिर ‘ (कविता संग्रह), 2013, बोधि प्रकाशन, जयपुर ‘हिंदी डायरी साहित्य’ (आलोचना),2019, बोधि प्रकाशन, जयपुर विकल्पों के बावजूद (प्रतिनिधि कविताएं) 2020 सम्पादन – वरक़-दर-वरक़ (प्रदीप सिंह की डायरी) का सम्पादन (2020) सम्प्रति – व्यंग्यचित्रकार, चित्रकार, रंगकर्मी))
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हरियाणा का पानीपत तीन लड़ाइयों के लिए इतिहास में जाना जाता है। पानीपत में कभी मराठे लड़ाई लडऩे आए और यहीं बस गये। पानीपत करनाल में आज भी मराठों के वंशज हैं। हिसार में भी एक मराठा वीर रहता है जिसका परिवार किसी लड़ाई के लिए नहीं आया। यह कह सकते हैं कि रोजी-रोटी की लड़ाई में अकेले डॉ पाटिल ही आए और लड़ते-लड़ते यहीं बस गये। कई शहरों में अस्थायी प्राध्यापकी करने के बाद आखिर हिसार के जाट कॉलेज में हिंदी विभाग के स्थायी अध्यक्ष हो गये। फिर तो कहां जाना था? डेरा और पड़ाव यहीं डाल दिया।
इस मराठा वीर ने एक और लड़ाई लड़ी-वह थी व्यंग्य लेखन में जगह बनाने की। दस वर्ष तक यानी सन् 1989 से 1999 तक व्यंग्य विविधा पत्रिका और अमन प्रकाशन चलाने की। वैसे मेरी पहली मुलाकात अचानक कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय के स्टूडेंट सेंटर में किसी ने करवाई थी। डॉ. पाटिल तब भी ज्यादा चुप रहते थे और आज भी लेकिन उनके व्यंग्य के तीर तब भी दूर तक मार करते थे और आज भी। उनके तरकश में व्यंग्य के तीर कम नहीं हुए कभी। न तब न अब। शुरूआत का सवाल बहुत सीधा :
कमलेश भारतीय : आखिर व्यंग्यकार की भूमिका क्या है समाज में? कहते हैं कि व्यंग्यकार या आलोचक विपक्ष की भूमिका निभाता है। यह कितना सच है? आबिद सुरती ने तो यहां तक कहा कि अब कोई कॉर्टून बर्दाश्त ही नहीं करता तो बनाऊं किसलिए?
डॉ. पाटिल : आलोचना को कौन बर्दाश्त करता है? आज आलोचना ही तो बर्दाश्त नहीं होती किसी से तो कॉर्टून का प्रहार कौन बर्दाश्त करे? सही कह रहे हैं आबिद सुरती?
कमलेश भारतीय : आपने भी हिसार के सांध्य दैनिक नभछोर में कुछ समय व्यंग्य का कॉलम चलाया लेकिन जल्द ही बंद कर देना पड़ा, क्या कारण रहे ?
डॉ. पाटिल : मैं हरिशंकर परसाई की गति को प्राप्त होते होते रह गया। समाजसेवी पंडित जगतसरुप ने मेरे कॉलम का सुझाव दिया था और एक बार लिखने का सौ रुपया मिलता लेकिन जैसे ही चर्चित ग्रीन ब्रिगेड पर व्यंग्य लिखा तो मैं पिटते-पिटते यानी परसाई की गति को प्राप्त होते होते बचा। राजनेता प्रो. सम्पत सिंह के दखल और कोशिशों से सब शांत हो पाया। वैसे व्यंग्य के तेवरों से शरद जोशी को भी भोपाल छोडऩा पड़ा था। मैं क्या चीज था?
मनोज छाबड़ा : अपनी सृजन प्रक्रिया से गुजरते हुए एक स्थान पर आपने कहा है आज स्थितियां विसंगतिपूर्ण हैं। ये विसंगति साहित्य-जगत की है, समाज की है, बाहरी है या भीतर की?
डॉ पाटिल : सबसे अधिक विसंगति समाज की है। वही सबसे अधिक प्रभावित करती है, आक्रोश पैदा करती है। इसके अतिरिक्त घरेलू स्थितियां हैं, जो असहज करती हैं। इन सबका परिणाम है कि इसकी प्रतिक्रिया सबसे पहले कहीं भीतर उथल-पुथल मचाती है, व्यंग्य के रूप में अभिव्यक्त होती है।
कमलेश भारतीय : ऐसा क्या लिखा कि…?
डॉ पाटिल : आर्य समाज में राष्ट्रीय कवि सम्मेलन और वही ग्रीन ब्रिगेड पर एपीसोड मेरे इस कॉलम पर ग्रहण बन गये। आलोचना और व्यंग्य में ठकुरसुहाती नहीं चल सकती। पूजा भाव का क्या काम? आरती थोड़े करनी है? मूल्यांकन करना है?
कमलेश भारतीय : व्यंग्य विविधा एक समय देश में व्यंग्य का परचम फहरा रही थी। दस वर्ष तक चला कर बंद क्यों कर दी?
डॉ. पाटिल : मेरा पूरा परिवार जुटा रहता था पत्रिका को डाक में भेजने के लिए। बेटे तक लिफाफों में पत्रिका पैक करते लेकिन कोई विज्ञापन नहीं। विज्ञापन दे भी कोई क्यों? इसी समाज की तो हम आलोचना करते थे। फिर नियमित नहीं रह पाई तो यहां उपमंडलाधिकारी मोहम्मद शाइन ने नोटिस दे दिया कि नियमित क्यों नहीं निकालते? ऊपर से प्रकाशन और कागज के खर्च बढ़ गये। इस तरह व्यंग्य विविधा इतिहास बन गयी।
मनोज छाबड़ा : हम धीरे-धीरे सूक्ष्मता की ओर बढ़ रहे हैं। लघुकथाएं, छोटी कविताएं पाठकों को खूब रुचती हैं। लम्बे-लम्बे व्यंग्य-लेखों की मांग कुछ कम नहीं हुई?
डॉ. पाटिल : अखबरों में जगह कम है। वे अब छोटे-छोटे आलेख मांगने लगे हैं। पाठकों में भी धैर्य की कमी है। बड़े लेख धैर्य मांगते हैं। पाठक से शिकायत बाद में, इधर लेखक भी प्रकाशित होने की जल्दी में हैं। ऐसी और भी अनेक वजहें हैं जिनके कारण व्यंग्य-लेखों का आकार छोटा हुआ है। आजकल तो दो पंक्तियों, चार पंक्तियों की पंचलाइन का समय आ गया है। चुटकुलेनुमा रचनाएं आने लगी हैं।
कमलेश भारतीय : हरिशंकर परसाई ने कभी कहा था कि व्यंग्य तो शूद्र की स्थिति में है। आज किस स्थिति तक पहुंचा है? क्या ब्राह्म्ण हो गया?
डॉ. पाटिल : नहीं। यह सर्वजातीय हो गया। सभी लोग इसे अपनाना चाहते हैं। यहां तक कि वे शिखर नेता भी जो कॉर्टून बर्दाश्त नहीं करते वे भी व्यंग्यात्मक टिप्पणियां करते हैं विरोधियों पर। व्यंग्य का जादू अब सिर चढ कर बोलने लगा है।
कमलेश भारतीय : इन दिनों कौन सही रूप से व्यंग्य लिख रहे हैं?
डॉ. पाटिल : इसमें संदेह नहीं कि व्यंग्य लेखन में डॉ प्रेम जनमेजय बड़ा काम कर रहे हैं। व्यंग्य यात्रा के माध्यम से व्यंग्य को केंद्र में लाने में भूमिका निभा रहे हैं। हरीश नवल हैं। सहीराम और आलोक पुराणिक हैं। काफी लोग लिख रहे हैं।
कमलेश भारतीय : पुरस्कारों व सम्मानों पर क्या कहेंगे?
डॉ. पाटिल : पुरस्कार सम्मान तो मांगन मरण समान हो गये हैं। मुझे नजीबाबाद में माता कुसुमकुमारी सम्मान मिला था और आजकल नया ज्ञानोदय के संपादक मधुसूदन आनंद और विद्यानिवास मिश्र भी थे।
मनोज छाबड़ा : लघुकथा के नाम पर भी लोग घिसे-पिटे चुटकुले चिपका रहे हैं?
डॉ. पाटिल : हां, सब जल्दी में जो हैं।
मनोज छाबड़ा : परसाई-शरद-त्यागी की त्रयी के बाद के लेखकों से उस तरह पाठक-वर्ग नहीं जुड़ा, अब भी किसी भी बातचीत में संदर्भ के लिए वे तीनों ही हैं। मामला लेखकों की धार के कुंद होने का है या कुछ और?
डॉ. पाटिल : सामाजिक स्थितियां-परिस्थितयां तो जिम्मेवार हैं ही, धार का कुंद होना भी एक कारण है। लेखक गुणा-भाग की जटिलता में फंसा है। गुणा-भाग से निश्चित रूप से धार पर असर पड़ता ही है। धार है भी, पर सही लक्ष्य पर नहीं है, इधर-उधर है।
कमलेश भारतीय : हरियाणा में आपकी उपस्थिति कांग्रेस की सोनिया गांधी की तरह विदेशी मूल जैसी तो नहीं?
डॉ. पाटिल : बिल्कुल। मैं महाराष्ट्र से था यही मेरी उपेक्षा का कारण रहा। फिर ऊपर से पंजाबन से शादी। यह मेरा दूसरा बड़ा कसूर। महाविद्यालय में कहा जाता कि यह हिंदी भी कोई पढ़ाने की चीज है? हिंदी का कोई प्रोफैसर होता है भला? ईमानदारी और मेहनत तो बाद में आती। किसी ने बर्दाश्त ही नहीं किया। निकल गये बरसों ।
कमलेश भारतीय : हरियाणा में हिंदी शिक्षण का स्तर कैसा है?
डॉ. पाटिल : बहुत दयनीय। तुर्रा यह कि शान समझते हैं अपनी कमजोरी को।
कमलेश भारतीय : लघुकथा में व्यंग्य का उपयोग ऐसा कि किसी मित्र ने एक बार कहा कि व्यंग्य की पूंछ जरूरी है लघुकथा के लिए। आपकी राय क्या है ?
डॉ. पाटिल : व्यंग्य का तडक़ा जरूरी है। एक समय बालेंदु शेखर तिवारी ने व्यंग्य लघुकथाएं संकलन भी प्रकाशित किया था। यदि इसमें संवेदना का पुट कम रह जाये तो यह लघु व्यंग्य बन कर ही तो रह जाती है। कथातत्व के आधार पर कम और व्यंग्य के आधार पर लघुकथा लेखन अधिक हो रहा है। यानी व्यंग्य का तडक़ा लगाते हैं ।
मनोज छाबड़ा : कुछ डर का माहौल भी है?
डॉ. पाटिल : हाँ, अस्तित्व की रक्षा तो पहले है। जाहिर है डर है। फिर, आलोचना कौन बर्दाश्त करता है? व्यंग्य-लेख में उन्हीं मुद्दों को सामने लाया जाता है जो शक्तिशाली की कमजोरी है। प्रहार कौन सहन करेगा जब आलोचना ही बर्दाश्त नहीं हो रही।
मनोज छाबड़ा : आपके लेखन के शुरूआती दिनों में भी यही स्थिति थी?
डॉ. पाटिल : उस समय आज की तुलना में सहनशक्ति अधिक थी। वह ‘ शंकर्स वीकली’ का दौर था। नेहरू, इंदिरा, वाजपेयी उदार थे, हालांकि तब भी शरद जोशी को भी भोपाल छोडऩा पड़ा, बाद में इंदौर में रहे।
मनोज छाबड़ा : एक दौर था, आप खूब सक्रिय थे लेकिन अब?
डॉ. पाटिल : शारीरिक, सामाजिक व पारिवारिक समस्याएं हैं। अब उम्र भी आड़े आने लगी है। पत्नी का स्वास्थ्य भी चिंता में डालता है।
कमलेश भारतीय : आखिर व्यंग्य लेखन बहुत कम क्यों कर दिया? ज्यादा सक्रिय क्यों नहीं?
डॉ. पाटिल : कुछ शारीरिक तो कुछ मानसिक और कुछ पारिवारिक कारणों के चलते। वकीलों के चक्कर काट रहा हूं। वे वकील जो संतों के मुकद्दमे लडते हैं और गांधीवादी और समाजसेवी भी कहलाते हैं। यह दोगलापन सहा नहीं जाता। अपराध को बढावा देने में इनका बडा हाथ है ।मैं तो कहता हूं -वकील, हकीम और नाजनीनों से भगवान बचाये।
मनोज छाबड़ा : एक समय था जब आपकी पत्रिका ‘व्यंग्य विविधा’ देश की अग्रणी व्यंग्य पत्रिकाओं में थी। 30-35 अंक निकले भी, अचानक बंद हो गयी ऐसी नौबत क्यों आई?
डॉ. पाटिल : पत्रिका 1989 से 1999 तक छपी। लघु पत्रिकाओं का खर्चा बहुत है, स्वयं ही वहन करना पड़ता है, हिसार में अच्छी प्रेस भी नहीं थी तब। दिल्ली न सिर्फ जाना पड़ता था बल्कि तीन-तीन चार-चार दिन रुकना भी पड़ता था। पत्नी लिफाफों में पत्रिका डालने में व्यस्त रहती। बच्चे कितने ही दिन टिकट चिपकाते रहते। ऐसा कितने दिन चलता। आर्थिक बोझ भी था और मैन-पॉवर तो कम थी ही। जिनके खिलाफ लिखते थे वही विज्ञापन दे सकते थे, पर क्यों देते? दोस्त लोग कब तक मदद करते। वे पेट और जेब से खाली थे।
मनोज छाबड़ा : कविता मन की मौज से उतरती है। व्यंग्य के साथ भी ऐसा ही है या ये कवियों की रुमानियत ही है?
डॉ. पाटिल : कविता में मन की सिर्फ मौज है। व्यंग्य में तूफान है, झंझावात है, मन के भीतर उठा चक्रवात है।
मनोज छाबड़ा : आज जब चुप्पियाँ बढ़ रही हैं, संवेदनहीनता का स्वर्णकाल है, अब व्यंग्यलेखक की भूमिका क्या होनी चाहिए?
डॉ. पाटिल : देखिये, इस समय भी सहीराम, आलोक पुराणिक सटीक और सार्थक लिख रहे हैं। चुप्पियां डर की होंगी कहीं, पर बहुत से लेखक आज भी मुखर हैं, ताकत से अपनी बात कह रहे हैं। यही एक लेखक की भूमिका है कि वे इस चुप समय में मुखर रहे।
(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आई आई एम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। आप सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत थे साथ ही आप विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में भी शामिल थे। कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी ने अपने ‘प्रवीन ‘आफ़ताब’’ उपनाम से अप्रतिम साहित्य की रचना की है।
ई-अभिव्यक्ति परिवार के अभिन्न सदस्य – संपादक (ई-अभिव्यक्ति – अंग्रेजी) के रूप में आपका साहित्यिक सहयोग अनन्य है।
कल 5 नवम्बर को कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी ने अपना जन्मदिवस मनाया जिसमे उनके परिवार के सदस्यों ने ही नहीं अपितु कई मित्रों और चाहने वालों ने प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से अपनी मनोभावनों से उन्हें अवगत कराया। ऐसा स्नेह पाने वाले लोग बिरले ही हुआ करते हैं। कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी को सोशल मीडिया पर प्राप्त शुभकामना संदेशों में से एक हम अपने प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना चाहते हैं। यह शुभकामना संदेश ही नहीं, अपितु, एक उत्कृष्ट साहित्य भी है। इस संदेश को किसी भी रूप में संपादित करना, उस संवेदनशील साहित्य एवं साहित्यकार की मनोभावनाओं के साथ अन्याय होगा। अतः मैं बिना संपादित किए हुए सहज ही प्रस्तुत कर रहा हूँ –
जीवन यात्रा ☆ A Mariyana trench of multitudes Talent – कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम् ☆
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हाथों से नहीं नज़रों से गिरा देने के तहज़ीब की क़ज़ा
ऐ खुदा के बन्दे तेरी ये सज़ा क्या है?
खुद ही को कर बुलंद इतना की हर तक़दीर से पहले
खुदा खुद तुझसे पूछे बता बन्दे तेरी रज़ा क्या है?
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जली को आग बुझी को राख कहते हैं,
बुझ कर भी जो जलती रहे
उसे यादों का खूबसूरत इत्तेफाक कहते हैं
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तेरे हाथों के लिखे खत मैं जलाता कैसे
तेरे प्यार में डूबे हुए खत मैं बुझाता कैसे
तेरे वो खुशबू भरे खत मैं भुलाता कैसे
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वो खत यादों की गंगा में बहा आया हूँ
आग बहते हुए पानी में लगा आया हूँ …
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Dear Captain Pravin Singh Raghuvanshi Sir,
An Officer & the Gentleman! An Aircrew! A Diver! A Master on Mighty Albatross!* The brain of the present days Rajali Operations Room! A Tough Frogman! A Rescuer, A Reliever, A Pioneer and ….. An evacuator involved in scores of diving operations including in Karwar Base in worst of sea conditions, a master of multitudes of Rescue & Relief Operations and a Pioneer of the operations, at the peril of his life when the Panjim Bridge collapsed in 1990 and so on ….
(These are the two squadrons Capt. Pravin Raghuvanshi served for a long time…Author of this post Cdr. Sanjay Sinha has commanded both these squadrons…)
Where other fails – Pravin Singh Raghuvanshi (PSR) prevails. When going gets tough, PSR gets going. An MBA, an MSc, a Lead Auditor of ISO 9001 accreditation, a holder EMS 14001 certification, an OHSAS (Occupational Health and Safety Assessment Series) 18001 recipient and a student adorned with multiple degrees & laurels, which I had a chance to glance at his Mumbai’s NOFRA abode during a chance visit in Dec 2007.
A par excellence Time Manager, a Leonardo da Vinci of Albatross whose paintings and sketches of his own imaginations and copies of masterpieces are world class – one should see his Art Workshop at the backyard of his abode which would appear as if a Louvre of collections cum Exhibition of Art by an Indian Vincent van Gogh, Picasso and Michael Angelo.
In the arena of literature – A William Wordsworth of Albatross in poetry, one should read his English poems. A George Bernard Shaw of Albatross in English Prose – one should read his write ups. The write up for Ladies Nite Invitation of 1996 was a rage of Rajali. I haven’t read such a write up even for Oscars, it still adorns my one of the trunks and follows separately. An Alvin Toffler of Rajali – one should read his collection of written philosophical snippets. An Orator, a Composer, a Shayar, a Writer, a Master of Urdu Nazms, an Event Manager, overall a Mariyana trench of multitudes Talent.
A Dildaar, a Raazdaar and a Helper to the hilt – one would be flabbergasted to know what all he has sacrificed to help people, be it monetarily or physically and above all – a humble human being.
A man who takes relationship beyond the horizon, a Personality of Quiet & Hidden Talent, a Down to Earth Person – in perfect consonance with John Bunyan’s poem, “He, That is down, Needs Fear No Fall!“, a doer of good to others Bible’s way where, “ The left hand doesn’t know what right hand has done!” A recipient of the Nau Sena Medal, Prime Ministers award and many commendations.
An alumnus of IIM Ahmedabad, presently the Senior Advisor to the India’s Supercomputing giant – CDAC (Centre for Development of Advanced Computing) – the maker of India’s Supercomputer “PARAM” at a time when USA refused to give Cray computer technology. A member in of national level in planning of Policy & Strategy in the fields of ICT (Information and Communication Technology), HPC (High Performance Computing), AI (Artificial Intelligence), Virtual Reality (VR), Machine Translation (MT) and a myriad of projects of national & international level. This I could gather during a brief visit to his abode, an artist’s paradise, consisting of a mini library, a mini research centre, a music and a writer’s composer’s studio at Pune on 29 Dec 2018.
A member of Bombay Film Writers Association, Ghazal composer of the type – Neighbour’s envy and Owner’s pride, and You fascinate me for variety for Mushairas and National / International Conferences. The list is endless, and the saga is relentless.
आपको ” सूरज कहूँ या चंदा, दीप कहूँ या तारा, आपने नाम किया है रोशन नेवी का, आपको कुछ क़रीब से जानकर मेरा दिल हुआ उजियारा!
Best wishes & with fond remembrances
Cdr. Sanjay Sinha* – Albatross Sqdn.
🙏🏻💐 ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी को जन्मदिवस की हार्दिक शुभकामनाएं 💐🙏🏻
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
☆ 25 अक्टूबर – डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र” (आसान नहीं है “सुमित्र” जैसा बनना) ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆
श्री प्रतुल श्रीवास्तव
(श्री प्रतुल श्रीवास्तव जी ने विभिन्न क्षेत्रों की विभूतियों के जन्मदिवस पर विशेष आलेख रचित करने का स्तुत्य कार्य प्रारम्भ किया हैं, इस विशेष कार्य के लिए उन्हें साधुवाद। आज प्रस्तुत है डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र” जी के जन्मदिवस के उपलक्ष में विशेष आलेख। )
आप गुरुवर डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र” जी का व्यक्तित्व एवं कृतित्व निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं
स्वयं की यश-कीर्ति बढ़ाने, स्वयं को स्थापित करने, पुरस्कार-सम्मान प्राप्त करने के प्रयत्न में तो सभी लगे रहते हैं किंतु अपने मित्रों को, आने वाली पीढ़ी को निःस्वार्थ प्रोत्साहित करने, उनके कार्य में सुधार करने, उनको उचित मार्गदर्शन देने के लिए अपना समय और शक्ति खर्च करने वाले लोग बिरले ही होते हैं । वरिष्ठ शिक्षाविद्, पत्रकार, साहित्यकार डॉ.राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ऐसे ही बिरले लोगों में से एक हैं । डॉ.”सुमित्र” ने श्रम और साधना से न सिर्फ स्वयं “सिद्धि” प्राप्त की वरन प्रेरणा और मार्गदर्शन देकर न जाने कितने लोगों को गद्य-पद्य लेखन में पारंगत कर प्रसिद्धि के शिखर तक पहुंचाया । मुझे याद है जब मैं कक्षा दसवीं का छात्र था तब एक कविता लिखकर उसे प्रकाशित कराने नवीन दुनिया प्रेस गया था । “सुमित्र जी” ने मेरी कविता प्रकाशित कर मुझे और और लिखने की प्रेरणा दी थी । 50 वर्ष पूर्व “सुमित्र जी” से वह मेरा पहला परिचय था । उन दिनों और उसके बाद भी सुमित्र जी के पास पहुँच कर उनका समय बर्बाद करने वाला मैं अकेला नहीं था, मुझ जैसे अनेक लोग थे, किन्तु सुमित्र जी सबसे बहुत आत्मीयता से मिलते उन्हें पर्याप्त समय देते । मुझे लगता है कि यदि सुमित्र जी स्वार्थी होते, उन्होंने नई पीढ़ी को प्रोत्साहित करने में अपने जीवन का कीमती समय खर्च न करके उसका उपयोग सिर्फ स्वयं के लिए किया होता तो शायद उन्होंने लिखने-पढ़ने का जितना काम अब तक किया है उससे कहीं दस गुना ज्यादा कर लिया होता, किन्तु वे ऐसा नहीं कर सकते थे क्योंकि वे “सुमित्र” हैं और अगर उन्होंने ऐसा किया होता तो सम्भवतः इतनी संख्या में पढ़ने-लिखने वाले लोग तैयार न होते । साहित्यकारों की नई पीढ़ी तैयार करने में जितना योगदान सुमित्र जी का है उतना उनके समकालीन साहित्यकारों में शायद ही किसी का हो ।
हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि, पत्रकारिता एवं शिक्षण में पत्रोपाधि प्राप्त करके सुमित्र जी ने पी.एच डी. की उपाधि प्राप्त की । डॉ सुमित्र जी ने अपना जीवन स्कूल शिक्षक के रूप में प्रारम्भ किया फिर खालसा कॉलेज में अध्यापन किया । उन्होंने दैनिक नवीन दुनिया में संपादन कार्य कर पत्रकारिता में यश-कीर्ति प्राप्त की । वे दैनिक जयलोक के सलाहकार संपादक हैं, पत्रिका “सनाढ्य संगम” के परामर्शदाता हैं । उन्होंने अपने संपादन से अनेक पुस्तकों-स्मारिकाओं को स्मरणीय-संग्रहणीय बना दिया । वे शासन द्वारा अधिमान्य वरिष्ठ पत्रकार हैं । डॉ.सुमित्र ने अनेक छात्र-छात्राओं को शोध कार्य हेतु सहयोग एवं परामर्श प्रदान किया ।
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त वि वि के अकादमिक सलाहकार एवं कोयला व खान मंत्रालय हिंदी सलाहकार समिति तथा आकाशवाणी सलाहकार समिति के पूर्व सदस्य डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था “मित्रसंघ” के संस्थापक सदस्य हैं उनके अध्यक्षीय कार्यकाल में मित्रसंघ ने बहुत यश कमाया । देश भर की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में डॉ.सुमित्र की सैकड़ों गद्य-पद्य रचनाएं प्रकाशित हुई हैं । उनकी रचनाओं, आलेखों, रेडियो रूपकों का प्रसारण आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से जब-तब होता रहता है । डॉ. सुमित्र की संभावनाओं की फसल, यादों के नागपाश (काव्य संकलन), बढ़त जात उजियारो (बुन्देली काव्य), खूंटे से बंधी गाय-गाय से बंधी स्त्री (व्यंग्य संग्रह) सहित काव्य, कथा, चिंतन परक गद्य निबंध, रेडियो रूपक, व्यंग्य एवं उपन्यास सहित 40 से अधिक कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं । भारत भारती, श्रेष्ठ गीतकार एवं शंकराचार्य पत्रकारिता पुरस्कार से सम्मानित-अलंकृत डॉ.सुमित्र को श्रेष्ठ साहित्य सृजन पर साहित्य दिवाकर, साहित्य मनीषी, साहित्य श्री, साहित्य भूषण, साहित्य महोपाध्याय, पत्रकार प्रवर, विद्यासागर (डी.लिट्.), व्याख्यान विशारद, हिंदी रत्न, साहित्य प्रवीण, साहित्य शिरोमणि, साहित्य सुधाकर आदि सम्मानोपाधियां प्राप्त हो चुकी हैं । सुमित्र जी ने साहित्य समारोहों में शामिल होने न्यूयार्क (अमेरिका), इंग्लैंड, रूस आदि देशों की यात्राएं कीं और सम्मानित होकर नगर का गौरव बढ़ाया । अनेक पत्र-पत्रिकाओं ने डॉ. सुमित्र के व्यक्तित्व-कृतित्व पर आलेख प्रकाशित किये । देश के अनेक छोटे-बड़े नगरों में उन्हें सम्मानित-अलंकृत किया गया । वे पाथेय संस्था और पाथेय प्रकाशन के संस्थापक-निदेशक हैं । उल्लेखनीय है कि पाथेय द्वारा अब तक स्थानीय एवं देश-प्रदेश के साहित्यकारों की 700 से अधिक कृतियों का प्रकाशन किया जा चुका है जो एक कीर्तिमान है । डॉ.राजकुमार तिवारी “सुमित्र” जी की धर्म पत्नी स्मृति शेष डॉ.गायत्री तिवारी समर्पित शिक्षिका और श्रेष्ठ कथाकार थीं । उनके सुपुत्र डॉ. हर्ष तिवारी अपने यू ट्यूब चैनल “डायनेमिक संवाद” के माध्यम से साहित्य, कला, संस्कृति और सेवा में रत लोगों को प्रभावशाली ढंग से समाज के सम्मुख प्रस्तुत कर रहे हैं । अपने सद्व्यवहार, आशीष वचनों, शुभकामनाओं और सहयोग से लोगों के ह्रदय में बसने वाले डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” जी के जन्म दिवस आज 25 अक्टूबर को उनके सभी मित्रों, परिचितों, शुभचिंतकों, प्रसंशकों सहित नगर की समस्त साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं की ओर से उनके स्वस्थ, सुदीर्घ, यशस्वी जीवन की बहुत-बहुत शुभकामनायें । सादर प्रणाम ।
श्री प्रतुल श्रीवास्तव
जबलपुर, मध्यप्रदेश
आज 25 अक्तूबर को डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र” जी के जन्म दिवस पर उनके सभी मित्रों, परिचितों, शुभचिंतकों, प्रशंसकों एवं ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से बहुत बहुत बधाई शुभकामनाएं
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
☆ जन्म दिवस विशेष – 27 अगस्त – डॉ अखिलेश गुमाश्ता (धार्मिक-आध्यात्मिक चिंतक, लेखक चिकित्सक) ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆
श्री प्रतुल श्रीवास्तव
(श्री प्रतुल श्रीवास्तव जी ने विभिन्न क्षेत्रों की विभूतियों के जन्मदिवस पर विशेष आलेख रचित करने का स्तुत्य कार्य प्रारम्भ किया हैं, इस विशेष कार्य के लिए उन्हें साधुवाद। आज प्रस्तुत है डॉ अखिलेश गुमाश्ता जी के जन्मदिवस के उपलक्ष में विशेष आलेख। )
डॉ अखिलेश गुमाश्ता (धार्मिक-आध्यात्मिक चिंतक, लेखक चिकित्सक)
नगर की धार्मिक-आध्यात्मिक बैठकों, सभाओं और महोत्सवों में अथवा धार्मिक-आध्यात्मिक क्षेत्र की विभूतियों के सत्संग में यदि आपको कोई सामान्य कद-काठी, गौर वर्ण, बेचैन तबियत, गहरी आंखों तथा तेज और आत्मविश्वास से दमकते चेहरे से परिपूर्ण व्यक्ति नजर आए तो आप बिना किसी दुविधा के समझ लें कि आप हिन्दू धर्म पर असीम आस्था रखने वाले सुप्रसिद्ध अस्थि रोग विशेषज्ञ डॉक्टर अखिलेश गुमाश्ता से रूबरू हैं। डॉ. गुमाश्ता समर्पित, सुयोग्य आदर्श नागरिक और भारतीय धार्मिक व सांस्कृतिक सत्ता को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विश्व पटल पर रखने वाले गंभीर चिकित्सक हैं।
छिंदवाड़ा नगर में जन्में उज्जैन के सांदीपनि आश्रम विद्यालय से लेकर भोपाल – रीवा से मेडिकल विज्ञान की सर्वोच्च शिक्षा की उपाधि पाने में इन्होंने अपनी मेधाविता का परिचय दिया। आपकी आध्यात्मिक दीक्षा बेलूड मठ, कलकत्ता एवम् पवार बाबा से हुई l विवेकानंद केंद्र कन्याकुमारी के वे सक्रिय पदाधिकारी हैं l
डॉ. अखिलेश गुमाश्ता की धार्मिक-आध्यात्मिक, साहित्यिक एवं संगठनात्मक प्रतिभा के दर्शन उनके छात्र जीवन में ही होने लगे थे। अध्ययन पूर्ण करने के उपरांत इन्होने देश के प्रतिष्ठित अस्पतालों में सेवाएं देते हुए आधुनिक शल्य चिकित्सा का व्यवहारिक अनुभव प्राप्त किया। माँ नर्मदा पर असीम आस्था रखने वाले अखिलेश जी का मन बेचैन हो रहा था माँ की छ्त्र छाया के लिए। उन्होंने जबलपुर को कर्मक्षेत्र के रूप में चुना और 1997 से नेशनल हॉस्पिटल में अस्थिरोग विशेषज्ञ के रूप में सम्पूर्ण महाकौशल क्षेत्र को अमूल्य सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। गुमाश्ता जी को जबलपुर में प्रथम बार पूर्ण घुटना प्रत्यारोपण करने का गौरव प्राप्त है। वे अब तक सैकडों रोगियों के घुटनों, कूल्हों का प्रत्यारोपण तथा अन्य सफल ऑपरेशन कर मरीजों को लाभान्वित कर चुके हैं।
डॉ. गुमाश्ता को राज्य व राष्ट्र स्तरीय अर्थोपेडिक सम्मेलनों में उनके विशिष्ट कार्यों और शोध पत्रों पर अनेक पुरस्कार व स्वर्ण पदक प्राप्त हो चुके हैं। उन्होंने एक विशेष सत्र में 100 से अधिक विकलांगों का निःशुल्क सफल ऑपरेशन कर रिकार्ड बनाया। लायंस क्लब इंटरनेशनल ने इसके लिए सेवा सम्मान प्रदान किया l रामायण पर उल्लेखनीय कार्य के लिए राष्ट्रीय तुलसी अवार्ड मिला तथा जबलपुर नगर निगम एवं महापौर के द्वारा 2011 में डॉ गुमाश्ता का नागरिक अभिनंदन किया गया l
डॉ गुमाश्ता नगर, प्रदेश और देश की अनेक साहित्यिक, सामाजिक, आध्यात्मिक एवं क्रीड़ा संस्थाओं के पदाधिकारी व सदस्य के रूप में सक्रिय हैं। आपके प्रयासों से नर्मदा तट भेड़ाघाट में “ओंकार ध्यान केंद्र” का निर्माण हुआ। जबलपुर में योग गुरु बाबा रामदेव का l सप्त दिवसीय शिविर 2006 में सम्पन्न हुआ। डॉ. गुमाश्ता इसके आयोजन सचिव थे l
साध्वी ज्ञानेश्वरी दीदी के मार्गदर्शन में ब्रह्मर्षि मिशन समिति के विभिन्न प्रकल्पों में सचिव के रूप में ये कार्य कर रहे हैं। 2013 में जबलपुर में “विराट हॉस्पिस” प्रारंभ हुआ। इसका उद्देश्य कैंसर के अंतिम अवस्था में पहुंचे मरीजों की निशुल्क सेवा और उपचार है, अब तक 1500 मरीजों का उपचार किया जा चुका है। गुमाश्ता जी भी यहां निशुल्क सेवाएं दे रहे हैं । आपने रामायण महोत्सव के अंतर्गत 14 वर्षों तक स्वामी राजेश्वरानंद जी के विशिष्ट प्रवचन नगरवासियों को सुनवाए। दो बार वर्ल्ड रामायण कांफ्रेंस का आयोजन कराया।
डॉ. गुमाश्ता द्वारा लिखी गई अनेक पुस्तकों की विश्वव्यापी चर्चा हुई इनमें से प्रमुख हैं- रामायण द हिम्स आफ हिमालया, नश्तर से लिखी डायरी (एक चिकित्सक की), स्याह इतिहास, उमा-शिव विवाह। “हाइकू गीता” इनकी नई रचना है lइसमें 2600 अति लघु कविताओं में गीता के श्लोकों का विश्लेषण है। इस ग्रंथ का विमोचन कुरुक्षेत्र में स्वामी अवधेशानन्द, स्वामी ज्ञानानन्द एवं रामदेव बाबा एवं राज्यपाल बंगारू जी द्वारा गीता जयंती के अवसर पर किया गया lआपके द्वारा किया गया रामचरित मानस का अँग्रेजी में गायन योग्य अनुवाद प्ले स्टोर में चर्चित है।
डॉ अखिलेश गुमाश्ता जैसे चिंतक, सेवाभावी चिकित्सक की साधना एवं कर्मभूमि जबलपुर है यह संस्कारधानी वासियों के लिए गौरव की बात है। आज 27 अगस्त को डॉ. गुमाश्ता के जन्म दिवस पर उनके सभी मित्रों, परिचितों, प्रशंसकों की ओर से उन्हें बधाई। शुभकामनाएं।
श्री प्रतुल श्रीवास्तव
जबलपुर, मध्यप्रदेश
आज 18 अगस्त को शब्दर्षि आचार्य भगवत दुबे जी के जन्म दिवस पर उनके सभी मित्रों, परिचितों, शुभचिंतकों, प्रशंसकों एवं ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से उन्हें बहुत बहुत बधाई शुभकामनाएं
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈