(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने मेरे गुरुवर एवं संस्थापक प्राचार्य केंद्रीय विद्यालय-1,जबलपुर एवं उनके पिताश्री प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव जी से साहित्यिक विमर्श हेतु सहायता प्रदान की। गुरुवर प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव जी उस भाग्यशाली पीढ़ी के हैं जिन्होंने कम से कम छह पीढ़ियों ( स्वयं को मिलकर पिछली तीन पीढ़ियां और अगली तीन पीढ़ियां ) को ही नहीं देखा अपितु , भारत को स्वतंत्र होते देखा है । एक शिक्षाविद एवं वरिष्ठतम साहित्यकार के रूप में हमने उनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व प्रकाशित किया था जिसे आप निम्न लिंक पर पढ़ सकते हैं :
☆ साहित्यिक विमर्श – साहित्य सदैव दीर्घ जीवी रचा जावे – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ☆
प्रश्न: सर, सर्वप्रथम प्रणाम एवं अभिनन्दन। ई- अभिव्यक्ति के लिए आपका परिचय आपके शब्दों में जानना चाहेंगे ।
उत्तर : संस्कृत में आत्म प्रवंचना अच्छी नही मानी गयी है. यही कारण है कि महाकवि कालिदास का भी कोई वास्तविक परिचय उपलब्ध नहीं है. जहां तक मेरे संक्षिप्त परिचय की बात है, मेरा जन्म १९२७ में हुआ. मैने आजादी से पहले का भारत देखा है, स्वाधीनता आंदोलन में किसी न किसी तरह भागीदारी की है. मण्डला के अमर शहीद स्व उदय चंद जैन न केवल मेरे सहपाठी थे वरन स्कूल में मेरे साथ एक ही बैंच पर बैठा करते थे. आजादी के बाद मैने देखा है कि जिस भारत में एक सुई भी मेड इन इंगलैंड आती थी वहां से आज चंद्रमा तक राकेट जा रहे हैं. मैने लालटेन युग जिया है, और आज मेरे नाती, पोते दुनिया में न्यूयार्क, दुबई, हांगकांग में हैं, मैं उनके साथ विदेशों में अनेक जगह हो आया हूं. शिक्षा जगत ने मुझे यह सुअवसर दिये कि मैने पीढ़ियो का निर्माण किया है. साहित्य जगत ने मुझे सेवानिवृति के बाद भी आज तक लगातार कुछ न कुछ नया रचने, लिखने अध्ययन करने की प्रेरणा दी है.
प्रश्न: साहित्य के प्रतिआपकी रुचि कैसे जागृत हुई?
उत्तर : बाल्यकाल में ही हम मित्रों ने नवयुग पुस्तकालय की स्थापना की थी. मण्डला के पढ़े लिखे परिवार होने के कारण मेरे पिताजी के पास लोग जिले में स्वातंत्र्य साहित्य के लिये संपर्क करते थे. मुझे अध्ययन के प्रति बचपन से ही लगाव था . संस्कृत साहित्य में मुझे आनन्द आता था. बस इस तरह साहित्य से लगाव बढ़ता गया .
प्रश्न: साहित्य के अतिरिक्त आपकी अन्य अभिरुचियाँ ?
उत्तर : स्कूल के दिनो में मैं हाकी बहुत अच्छी खेला करता था. नये नये स्थान घूमना, किताबें पढ़ना, गार्डनिंग मेरी साहित्येतर रुचियां रही हैं.
प्रश्न: आपकी प्रिय विधा एवं प्रिय कवि?
उत्तर : छंद बद्ध काव्य मेरी सबसे पसंदीदा विधा है. चांद व सरस्वती में १९४६ में मेरी कवितायें छपी थीं. आज भी कविता लिख कर मुझे नई उर्जा मिलती है. संस्कृत नई पीढ़ी नही पढ़ रही हे, जबकि गीता जैसे वैश्विक ग्रंथ संस्कृत में ही हैं, इसलिये मैंने हिन्दी में प्रायः प्रमुख संस्कृत ग्रंथो के अनुवाद करने की ठानी, और इस तरह काव्य अनुवाद मेरी विधा बन गई. महाकवि कालिदास का मेघदूतम विश्व का अप्रतिम श्रंगार रस का काव्य है, इसमें विरह की वेदना और श्रंगार का अद्भुत सौंदर्य भी है, मैंने इसका श्लोकशः हिन्दी काव्य अनुवाद किया है.
प्रश्न: ऐसा विशेष क्या कारण है जिसने आप को हिन्दी साहित्य सेवा और निःशुल्क प्रकाशन के लिए आकर्षित किया?
उत्तर : मुझे साहित्य से सुकून मिला. आत्म केंद्रित रहकर मैं साहित्य सेवा में आजीवन लगा रहा हूं. सेवानिवृति के बाद मेरी पाण्डुलिपियों को मेरे पुत्र विवेक रंजन ने पुस्तको के रूप में छपवाया है.
प्रश्न: सहिया सेवा की भावना का प्रेरणा स्रोत आप किसे मानते हैं ?
उत्तर : मेरा विवाह लखनऊ में हुआ, मेरी पत्नी श्रीमती दयावती श्रीवास्तव की रुचियां भी लिखने पढ़ने की थीं. हम दोनो ने साथ साथ पढ़कर एम ए किया. साथ ही शिक्षा जगत में नौकरी की. उनकी भी पुस्तकें छपी. वे मुझे बराबर नया लिखने के लिये उत्साहित करती थीं.
प्रश्न: आपके जीवन में कोई ऐसी विशेष घटना घटित हुई हो जिसे आप सबसे सगर्व साझा करना चाहेंगे?
उत्तर : मेरी यह इच्छाशक्ति कि मुझे आगे पढ़ना है, मेरी उन्नति में हमेशा सहायक रही. सामान्यतः विवाह के बाद मेरी पीढ़ी के लोग अपनी नौकरी से संतुष्ट हो जाते थे, पर हम निरंतर आगे बढ़ने के यत्न करते रहे. यही कारण है कि हम समाज को सुशिक्षित संस्कारी बच्चे दे पाये, और स्वयं अपनी शिक्षा से साहित्य व समाज में अपना स्थान बनाते बढ़ते गये.
प्रश्न: आपकी दृष्टि में स्वान्तः सुखाय लेखन उचित है अथवा साहित्य एवं समाज के कल्याण हेतु लेखन उचित है ?
उत्तर : स्वान्तः सुखाय तो हर कवि लिखता ही है. रचना प्रक्रिया प्रसव वेदना होती है, जिसमें विचारो की परिपक्वता, और उसकी समुचित विधा में अभिव्यक्ति शमिल होती है, किन्तु रचना का अंतिम उद्देश्य जनहित ही होता है.
प्रश्न: साहित्य सेवा के प्रत्युत्तर में आप मित्रों और परिवार से क्या पाते हैं ?
उत्तर : समाज में मेरी पहचान शिक्षाविद व साहित्यकार के रूप में ही है. बिना व्यक्तिगत रूप से मिले भी दुनिया के अनेक हिस्सो के पाठक मेरी रचनाओ के जरिये मुझे पसंद करते हैं, तथा दूरभाष, पत्र आदि से संपर्क व प्रशंसा करते हैं.
प्रश्न: आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रति आप क्या दृष्टिकोण हैं?
उत्तर : साहित्य ने अभिव्यक्ति के माध्यम बदले हैं. आज डेली सोप, फिल्म, टेलीविजन, आ गये हैं पर प्रकाशित पुस्तको का महत्व यथावत निर्विवाद बना हुआ है. मुझे तो बिना किताब पढ़े नींद नही आती. पुस्तकालय संस्कृति की पुनर्स्थापना मुझे आवश्यक लगती है. पाश्चात्य देशो में बुक रीडिंग हाबी के रूप में बनी हुई है, जैसे जैसे हमारे देश की संपन्नता बढ़ेगी हमारे यहां भी पुस्तक संस्कृती फिर से लोकप्रिय होगी ऐसा मेरा विश्वास है.
प्रश्न: नवोदित लेखकों के प्रति आपका दृष्टिकोण और उनके लिए कोई सन्देश देना चाहेंगे ?
उत्तर : नये माध्यमो जैसे फेसबुक आदि ने नई पीढ़ी को विचार आते ही लिख डालने की आजादी दी है पर संपादन का महत्व होता है. युवा रचनाकारो को अपना लिखा बारम्बार पढ़कर सुधारकर तब रचना रूप में प्रस्तुत करने की आवश्यकता समझ आती है. यह देखकर मुझे प्रसन्नता होती है कि साहित्य अब केवल हिन्दी के शोधार्थियो की बपौती नही रह गया है. कितने ही इंजीनियर, डाक्टर, प्रोफेशनल्स अच्छे साहित्यकार बनकर उभर रहे हैं. स्पष्ट है कि साहित्य मनोभावों की अभिव्यक्ति का संसाधन है. और यह मनोवृत्ति प्रकृति दत्त होती है. भाषाई ज्ञान उसे संप्रेषण की शक्ति देता है. नये कवियो से मेरा यही आग्रह है कि साहित्य के सौंदर्य शास्त्र की समझ विकसित करें और परिपक्व लेखन करें तो वह दीर्घ जीवी साहित्य रच सकेंगे.
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचाते रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
(आज के अंक के माध्यम से श्री संजय भारद्वाज जी से आपसे एक महत्वपूर्ण संवाद करना चाहते हैं। आप सबसे विनम्र निवेदन है कि इस संवाद से स्वयं को जोड़ें तथा मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में इस अभियान के सहभागी बनें। )
☆ संजय दृष्टि – अत्यंत महत्वपूर्ण संवाद ☆
विवादों की चर्चा में
युग जमते देखे,
आओ संवाद करें
युगों को पल में पिघलते देखें।
मेरे तुम्हारे चुप रहने से
बुढ़ाते रिश्ते देखे,
आओ संवाद करें
रिश्तो में दौड़ते बच्चे देखें।
कोविड-19 से संघर्ष में संवाद महत्त्वपूर्ण अस्त्र सिद्ध हो सकता है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इस अस्त्र के महत्व और शक्ति पर आज अपने पाठकों से प्रत्यक्ष संवाद प्रस्तुत है।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
( ई- अभिव्यक्ति का यह एक अभिनव प्रयास है। इस श्रंखला के माध्यम से हम हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकारों को सादर नमन करते हैं।
हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार जो आज भी हमारे बीच उपस्थित हैं और जिन्होंनेअपना सारा जीवन साहित्य सेवा में लगा दिया तथा हमें हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं, उनके हम सदैव ऋणी रहेंगे । यदि हम उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को अपनी पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ी के साथ डिजिटल एवं सोशल मीडिया पर साझा कर सकें तो निश्चित ही ई- अभिव्यक्ति के माध्यम से चरण स्पर्श कर उनसे आशीर्वाद लेने जैसा क्षण होगा। वे हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत भी हैं। इस पीढ़ी के साहित्यकारों को डिजिटल माध्यम में ससम्मान आपसे साझा करने के लिए ई- अभिव्यक्ति कटिबद्ध है एवं यह हमारा कर्तव्य भी है। इस प्रयास में हमने कुछ समय पूर्व आचार्य भगवत दुबे जी,डॉ राजकुमार ‘सुमित्र’ जी, प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘ विदग्ध’ जी,श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी, डॉ. रामवल्लभ आचार्य जी, श्री दिलीप भाटिया जी, डॉ मुक्त जी, श्री अ कीर्तिवर्धन जी एवं डॉ कुंदन सिंह परिहार जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आलेख आपके लिए प्रस्तुत किया था जिसे आप निम्न लिंक पर पढ़ सकते हैं : –
इस यज्ञ में आपका सहयोग अपेक्षित हैं। आपसे अनुरोध है कि कृपया आपके शहर के वरिष्ठतम साहित्यकारों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से हमारी एवं आने वाली पीढ़ियों को अवगत कराने में हमारी सहायता करें। हम यह स्तम्भ प्रत्येक रविवार को प्रकाशित करने का प्रयास कर रहे हैं। हमारा प्रयास रहेगा कि – प्रत्येक रविवार को एक ऐसे ही ख्यातिलब्ध वरिष्ठ साहित्यकार के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से आपको परिचित करा सकें।
आपसे अनुरोध है कि ऐसी वरिष्ठतम पीढ़ी के अग्रज एवं मातृ-पितृतुल्य पीढ़ी के व्यक्तित्व एवम कृतित्व को सबसे साझा करने में हमें सहायता प्रदान करें।
☆ हिन्दी साहित्य – श्री कृष्ण कुमार ‘पथिक’ ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆
(आज ससम्मान प्रस्तुत है वरिष्ठ हिन्दी साहित्यकार श्री कृष्ण कुमार ‘पथिक’जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विमर्श डॉ भावना शुक्लजी की कलम से। मैं डॉ भावना शुक्ल जी का हार्दिक आभारी हूँ ,जो उन्होंने मेरे इस आग्रह को स्वीकार किया। साहित्यिक एवं शैक्षणिक पृष्ठभूमि के साथ अपने बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी श्री कृष्ण कुमार ‘पथिक’ जी हम सबके आदर्श हैं। )
(संकलनकर्ता – डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची ‘)
जबलपुर के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, साहित्य साधक स्व। माणिकलाल चौरसिया के पुत्र, कवि स्व.जवाहरलाल ‘तरुण’ के अनुज स्वनाम धन्य श्री कृष्ण कुमार पथिक ने विरासत को सहेजा सँवारा और बढ़ाया है।
5 मई 1937 को जन्मे श्री पथिक जी ने साहित्य विशारद और शिक्षक प्रशिक्षण प्राप्त कर अध्यापन कार्य किया और सेवा निर्वृत हुए.
श्री पथिक जी ने सन 1960 के आसपास काव्य रचना प्रारंभ की और अपने विशिष्ट कृतित्व के कारण उन्हें मान्यता और प्रतिष्ठा मिलती चली गई स्थानीय पत्रों के अतिरिक्त अनेक पत्र-पत्रिकाओं और आपकी रचनाएँ प्रकाशित और संकलित हुई. जिन संकलनों में आपकी रचनाएँ प्रकाशित और संकलित हुई हैं उनमे सर्वश्रेष्ठ विरह गीत (संपादक नीरज जी), हिन्दी के मनमोहक गीत (संपादक विराट), युद्धों का आव्हान (डॉ सुमित्र), मिलन के कवि, चेतना के स्वर, स्वप्न गीत, मधु श्रंगार, मानसरोवर, प्रेम गीत, काव्यांजलि, पहरुए जाग उठे आदि.
भावुकता और बतरस के धनी श्री पथिक जी के संदर्भ में उनके काव्य ग्रंथ में कितना सटीक परिचय दिया गया है-
“काव्य की अराजकता के युग में भी पथिक ने अपने को छंदानुशासित रखा है जो उसकी परंपरा प्रियता और काव्य सामर्थ्य का प्रतीक है। पूजा और प्यार के इस गायक ने राष्ट्रीय भाव भूमि को भी स्पष्ट किया है।
पथिक जी का कुल कृतित्व परिमाण और गुणवत्ता की दृष्टि से विस्मय जनक है। प्रदेश की प्रतिभाओं का निष्पक्ष मूल्यांकन करने वाली दृष्टि पथिक का विस्मरण नहीं कर पाएगी।”
पथिक के गीत—-
वास्तव में श्री पथिक जी के कव्योन्मेष में छंदों के लिए अपरिचित लय ताल और शब्दों के नए संगीत सम्बंधों की गर्माहट मिलती है। जीवंत भाषा के व्यावहारिक स्वरूप को ग्रहण कर काव्य भाषा की ताजगी को संजोने का अविकल लगाओ भी मिलता है। कवि की व्यापक दृष्टि होने से उसमें शिल्प की समृद्धता भी परिलक्षित होती है। पथिक ने अपनी समस्त अनुभूति और प्रेरणा की पूंजी लेकर छंदों की अराजकता और विश्रंखलता के युग में सुलझेपन से सुगठित छंद विधान अपनाकर एक प्रौढ़ और विचारशील कवि व्यक्तित्व का प्रभावी परिचय दिया है। अभिव्यक्ति की अकुलाहट और नए अर्थ के लिए आंतरिक छटपटाहट ने इनके गीतों को ग्राह्य बना दिया है।
पथिक जी के गीतों में हमें संगमरमर शिल्प सौंदर्य के बीच प्रवाहित नर्मदा को चंचल किंतु संयमित धारा का श्रुतिमधुरनाद नयन मोहक रूप जाल और हृदयस्पर्शी भावोद्रेक भी मिलता है
” चरण चिह्न मिट चले चांद के
डूब चले हैं कलश किरण के
धूल प्रतिष्ठित हुई जहाँ कल
चर्चित थे चर्चे चंदन के.
मधुबन में पतझड़ ठहरा है
फूल खिलाओ हरसिंगार के.”
उपर्युक्त पद में अनुप्रास एक आनंद के साथ भावानुकूल भाषा प्रवाह भी है। बोधगम्यता है शब्दों में नगीनो-सा कसाव है।
पथिक जी ने काव्य और कथाओं को टकसाली सौंदर्य देने वाली मुहावरा बंदी का प्रयोग भी किया है।
” यात्रा जीवन की लंबी है
पांव थके पग दो पग चल के
उमरें अपावन, पावन कैसे
बोलो बिन गंगाजल के
भौतिक भ्रम पग-पग गहरा है
द्वार दिखाओ हरिद्वार के
अंधकार बेहद गहरा है
दीप जलाओ मीत प्यार के.”
सौंदर्य के प्रति अनुराग, तद्जन्य मानसिक तनाव और रूप आकर्षण के प्रति लगाव, पथिक जी की अभिव्यक्ति को सहज और विशिष्ट बनाते हैं।
“आह की अदालत में हारा यह मन
कुर्क किया अपनों ने अपना ही धन
काजल की कथा लिखी
हुई बड़ी भूल
प्रीति की पराजय पर
हंस पड़े बबूल
कदमों की कांवर को
कांधों पर लाद
यात्रा तय कर लेंगे
तुमको कर याद
तुमने जो दर्द दिया
मन को कुबूल
प्रीति की पराजय पर
हंस पड़े बबूल, ”
यहाँ “आह की अदालत” और “कसमों की कांवर” जैसे नए प्रतीक कवि की सूझबूझ के परिचायक है।
कवि नए अर्थों का अन्वेषी है। अछूती कल्पना की भाव भूमि को सफलता से मोड़ता चलता है ताकि कविता का पौधा पुष्टता ग्रहण करें। पीड़ा को धंधा मिले। प्यार में पूजा भाव की प्रतिष्ठा कर कवि अपनी उदात्त भावना का परिचय देता है।
” रास रंग राहों में,
नीलमी निगाहों में
गौर वर्ण हाथों पर
मेहंदी की छांहों में
हमने भाषा प्रणाम तेरा है।”
आज के यांत्रिक युग में जबकि व्यक्ति अपने सम्बंध विसर्जित करता जा रहा है गीतकार सम्बंधों की गंगा को शीश झुका रहा है।
“मन में फर्क ज़रा भी आए
ऐसी कोई बात न करना
अपनी रजत मयी पूनम पर
कभी अंधेरी रात न करना
परिचय से सम्बंध बड़े हैं
सम्बंधों को शीश झुकाना”
एक ओर तो कभी सम्बंधों को स्थिर रखने पर बल दे रहा है, दूसरी ओर वह यथार्थ परक दृष्टि भी रखता है…
“ठीक वहीं पर मन फटता है
वर्षों के सम्बंध टूटते
पीछे ने निबंध छूटते
आपस के झगड़े में तेरे
अपने ही आनंद लूटते
मान प्रतिष्ठा का घटता है
सौदा जिधर ग़लत पटता है।”
परिचय और प्रीति ही तो जीवन की शक्ति है। यदि यह दोनों को कुहासे से घिर जाएँ तब कभी यही कहेगा…
“हमने तो परिचय पाले पर तुमने भुला दिए
तुम ही कहो भला ऐसे में कैसे प्रीत जिए
याद याद न रही
भ्रम में ऐसे भटक गए
रंग चुनरिया के कांटो
में जाकर अटक गए
बदले कौन जन्म के तुमने मुझसे भांजा लिए
तुम ही कहो भला ऐसे में कैसे प्रीत जिए.”
कवि पथिक की आंखों में सपने हैं किंतु यथार्थ से जुड़े हैं। कवि ने जीवन को संपूर्णता के साथ स्वीकार किया है।
“जीवन जो भी जिया उसे स्वीकार किया
बिखरे बिंब दरकते दर्पण
और अधूरे नेह समर्पण
तुमने जो दे दिया उसे स्वीकार किया
चंदन द्वारे वंदन वारे
सारी खुशियाँ नाम तुम्हारे
मुझे मिला मर्सिया, उसे स्वीकार किया
पाषाणों का स्वर अपनाया
तुमने मेरे द्वार बनाया
जीवन के संपूर्ण पृष्ठ पर
खंडित एक सांतिया, उसे स्वीकार किया
जीवन के संपूर्ण पृष्ठ पर
तुमने सारे रंग भर दिए
छोड़ दिया हाशिया, उसे स्वीकार किया।”
जीवन को नया मोड़ देने की आकांक्षा रखने वाला कवि, गहराई से चिंतन करता है और निष्कर्ष देता है…
“ज्योति यह कब तक जलेगी यह न सोचें
तिमिर भरते चलें हम
*
जब तलक यह उजाला है
दूरियों को पार करने
उम्र की क्षणिका अनिश्चित
बात हम दो चार कर ले
यात्रा कब तक चलेगी यह न सोचें
पाव भर धरते चलें हम …
पंडित श्रीबाल पांडे जी के शब्दों में “पथिक जी के गीत उन पहाड़ी स्रोतों के समान प्रवाहित होते हैं जिनके पत्थरों के दिल भी पसीजे रहते हैं। उनके गीत बंजारों की मस्ती और अंगारों की तड़पन लिए रहते हैं।”
विगत दिवस जबलपुर में पथिक जी के गीत संग्रह “पीर दरके दर्पणों की” का विमोचन हुआ। अतः यह स्पष्ट है की इनकी लेखनी आज भी गतिमान है हम इनके दीर्घायु होने की कामना करते हैं।
( ई- अभिव्यक्ति का यह एक अभिनव प्रयास है। इस श्रंखला के माध्यम से हम हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकारों को सादर नमन करते हैं।
हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार जो आज भी हमारे बीच उपस्थित हैं और जिन्होंनेअपना सारा जीवन साहित्य सेवा में लगा दिया तथा हमें हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं, उनके हम सदैव ऋणी रहेंगे । यदि हम उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को अपनी पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ी के साथ डिजिटल एवं सोशल मीडिया पर साझा कर सकें तो निश्चित ही ई- अभिव्यक्ति के माध्यम से चरण स्पर्श कर उनसे आशीर्वाद लेने जैसा क्षण होगा। वे हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत भी हैं। इस पीढ़ी के साहित्यकारों को डिजिटल माध्यम में ससम्मान आपसे साझा करने के लिए ई- अभिव्यक्ति कटिबद्ध है एवं यह हमारा कर्तव्य भी है। इस प्रयास में हमने कुछ समय पूर्व आचार्य भगवत दुबे जी,डॉ राजकुमार ‘सुमित्र’ जी, प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘ विदग्ध’ जी,श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी, डॉ. रामवल्लभ आचार्य जी, श्री दिलीप भाटिया जी, डॉ मुक्त जी एवं श्री अ कीर्तिवर्धन जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आलेख आपके लिए प्रस्तुत किया था जिसे आप निम्न लिंक पर पढ़ सकते हैं : –
इस यज्ञ में आपका सहयोग अपेक्षित हैं। आपसे अनुरोध है कि कृपया आपके शहर के वरिष्ठतम साहित्यकारों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से हमारी एवं आने वाली पीढ़ियों को अवगत कराने में हमारी सहायता करें। हम यह स्तम्भ प्रत्येक रविवार को प्रकाशित करने का प्रयास कर रहे हैं। हमारा प्रयास रहेगा कि – प्रत्येक रविवार को एक ऐसे ही ख्यातिलब्ध वरिष्ठ साहित्यकार के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से आपको परिचित करा सकें।
आपसे अनुरोध है कि ऐसी वरिष्ठतम पीढ़ी के अग्रज एवं मातृ-पितृतुल्य पीढ़ी के व्यक्तित्व एवम कृतित्व को सबसे साझा करने में हमें सहायता प्रदान करें।
☆ हिन्दी साहित्य – नवाब साहब के पड़ोसी – डॉ कुन्दन सिंह परिहार ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆
(आज ससम्मान प्रस्तुत है वरिष्ठ हिन्दी साहित्यकार डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विमर्श श्री जय प्रकाश पाण्डेय की कलम से। मैं श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी का हार्दिक आभारी हूँ ,जो उन्होंने मेरे इस आग्रह को स्वीकार किया। शैक्षणिक पृष्ठभूमि के साथ अपने बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी हम सबके आदर्श हैं। )
(संकलनकर्ता – श्री जय प्रकाश पाण्डेय)
25 अप्रैल 1939 को जन्मे डॉ कुंदन सिंह परिहार जी ने मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के कालेजों में 40 साल से ज्यादा अध्यापन कार्य किया है। व्यंग्य लेखन और कहानी लेखन में उन्होंने लकीर का फकीर बनना कभी स्वीकार नहीं किया। उन्होंने बहुत सरल भाषा और बनावटहीन अपनी मौलिक सहज शैली में कहानी और व्यंग्य पर अलग अलग तरह के प्रयोग किए हैं। मेरा ख्याल है कि उन्होंने कभी छपने के लिए नहीं लिखा बल्कि उनका लिखा छपता ही रहा। 82 साल की उम्र में भी सीखने की ललक उनमें इतनी तीव्र है कि उन्होंने सोशल मीडिया में भी अपनी खासी पहचान बना करखी है, वह भी तब जब इनकी उम्र के लेखक सोशल मीडिया को कोसते हैं।
उनकी अधिकांश रचनाओं को पढने के बाद ऐसा लगता है कि परिहार जी अपने आसपास के लोगों की मनोदशा को पढ़कर उसकी गहरी पड़ताल करते हैं। पात्रों के मन की बात पकड़ने में वे उस्ताद हैं। उनका पात्र क्या सोच रहा है, उन्हें पता चल जाता है और उसके अनुसार उनके पात्र अपनी बात कहते हैं। परिहार जी के व्यंग्य पाठकों को झकझोरते हैं मूंधी चोट की मार करते हैं और पाठक के अंदर मनोवैज्ञानिक सोच पैदा करते हैं। उन्होंने अपने आसपास बिखरी विसंगतियों को हमेशा पकड़ कर चोट की और दोगले चरित्र वालों का चरित्र उकेर कर अपने व्यंग्य के जरिए जनता को दिखाया है।
परसाई जी तो व्यंग्य पुरोधा थे ही, उन्होंने व्यंग्य को एक सशक्त विधा बनाया और साहित्य जगत को बता दिया कि व्यंग्य मनोरंजन मात्र के लिए नहीं है। व्यंग्य अपना सामाजिक दायित्व निभाना भी बखूबी जानता है। परिहार जी ने अपनी परवाह न करके समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह करने का धर्म निभाया है। वे अपनी रचनाओं में जनता के पक्ष में खड़े दिखते हैं।
82 साल में भी वे निरंतर सक्रिय हैं और अभी अभी उनका एक व्यंग्य संग्रह “नवाब साहब का पड़ोस” प्रकाशित हुआ है। वे 1960 से आज तक लगातार कहानी और व्यंग्य लिखने में अपनी कलम चला रहे हैं। पांच कथा संग्रह एवं तीन व्यंग्य संकलन के प्रकाशित होने के बाद भी हर माह व्यंग्यम गोष्ठी में वे नया व्यंग्य लिखकर पढ़ते हैं। वे सिद्धांतवादी हैं, स्वाभिमानी हैं, किन्तु, अभिमानी कदापि नहीं। उनकी अपनी अलग तरह की धाक है। चेलावाद और गुटबंदी से वे चिढ़ते हैं। यही कारण है कि उनकी कलम एक अलग साफ रास्ता बनाकर चलती रही है।
धुन के इतने पक्के कि साहित्यिक कार्यक्रमों में एनसीसी के अफसर की ड्रेस में दिखने में कभी संकोच नहीं किया। साहित्यिक कार्यक्रमों में अपनी वजनदार बात से कभी श्रोताओं को चौंकाते रहे तो कभी अपनी सहज सरल भाषा में लिखे व्यंग्यों से चिकोटी काटते रहे। उनकी कहानियों में भी व्यंग्य की एक अलग तरह की धारा बहती मिलती है। प्रतिबध्द विचारधारा के धनी परिहार जी की सोच मनुष्य की बेहतरी के लिए रचनाएं लिखने से है।
हमारी मुलाकात उनसे 40-42 साल पुरानी है और इन वर्षों में हमने कभी किसी प्रकार की दिखावे की प्रवृत्ति नहीं देखी, 42 साल से उनकी कदकाठी और चश्मे से झांकती निगाहों में वे शांत संयत धीर गंभीर दिखे। स्वाभिमानी जरुर हैं पर हर उम्र के लेखक पाठकों के बीच लोकप्रिय हैं।
हरीशंकर परसाई जी ने परिहार जी की रचनाओं को पढ़कर लिखा है “परिहार के पास तीखी नजर और प्रगतिशील दृष्टिकोण है, वे राजनीति, समाजसेवा, शिक्षा संस्कृति, प्रशासन आदि के क्षेत्रों की विसंगतियों को कुशलता से पकड़ लेते हैं”
अपनी कहानियों के पात्रों के बारे में परिहार जी कहते हैं – “मेरे पात्र बड़े प्यारे हैं कमजोर, निश्छल और भोले भाले हैं, ईमानदार और आसानी से ठगे जाने वाले लोग हैं। वे बिना कोई हलचल मचाए दुनिया में आते हैं और बेनाम, खामोशी से बिदा हो जाते हैं।”
डॉ परिहार जी अगली पीढ़ी के लिए चिंतित हैं क्योंकि अगली पीढ़ी के सामने हर तरह के संकट ही संकट प्रगट हो रहे हैं ऐसी स्थिति में वे कहते हैं कि- “ऐसे विकट माहौल में प्रार्थना की जा सकती है कि हमारा प्रजातन्त्र सच्चा प्रजातंत्र बने और हमारे जन प्रतिनिधि सच्चे बनकर प्रजा की समस्याओं के समाधान में संलग्न हों।”
आदरणीय डॉ परिहार जी मात्र नई पीढ़ी ही नहीं अपितु हमारी पीढ़ी के लिए भी आदर्श हैं।
संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय, जबलपुर
416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002 मोबाइल 9977318765
( ई- अभिव्यक्ति का यह एक अभिनव प्रयास है। इस श्रंखला के माध्यम से हम हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकारों को सादर नमन करते हैं।
हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार जो आज भी हमारे बीच उपस्थित हैं और जिन्होंनेअपना सारा जीवन साहित्य सेवा में लगा दिया तथा हमें हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं, उनके हम सदैव ऋणी रहेंगे । यदि हम उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को अपनी पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ी के साथ डिजिटल एवं सोशल मीडिया पर साझा कर सकें तो निश्चित ही ई- अभिव्यक्ति के माध्यम से चरण स्पर्श कर उनसे आशीर्वाद लेने जैसा क्षण होगा। वे हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत भी हैं। इस पीढ़ी के साहित्यकारों को डिजिटल माध्यम में ससम्मान आपसे साझा करने के लिए ई- अभिव्यक्ति कटिबद्ध है एवं यह हमारा कर्तव्य भी है। इस प्रयास में हमने कुछ समय पूर्व आचार्य भगवत दुबे जी,डॉ राजकुमार ‘सुमित्र’ जी, प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘ विदग्ध’ जी,श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी, डॉ. रामवल्लभ आचार्य जी, श्री दिलीप भाटिया जी एवं डॉ मुक्त जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आलेख आपके लिए प्रस्तुत किया था जिसे आप निम्न लिंक पर पढ़ सकते हैं : –
इस यज्ञ में आपका सहयोग अपेक्षित हैं। आपसे अनुरोध है कि कृपया आपके शहर के वरिष्ठतम साहित्यकारों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से हमारी एवं आने वाली पीढ़ियों को अवगत कराने में हमारी सहायता करें। हम यह स्तम्भ प्रत्येक रविवार को प्रकाशित करने का प्रयास कर रहे हैं। हमारा प्रयास रहेगा कि – प्रत्येक रविवार को एक ऐसे ही ख्यातिलब्ध वरिष्ठ साहित्यकार के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से आपको परिचित करा सकें।
आपसे अनुरोध है कि ऐसी वरिष्ठतम पीढ़ी के अग्रज एवं मातृ-पितृतुल्य पीढ़ी के व्यक्तित्व एवम कृतित्व को सबसे साझा करने में हमें सहायता प्रदान करें।
☆ हिन्दी साहित्य – श्री अ कीर्तिवर्धन ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆
(आज ससम्मान प्रस्तुत है वरिष्ठ हिन्दी साहित्यकार श्री अ कीर्तिवर्धन जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विमर्श श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र ‘ जी की कलम से। मैं श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र ‘ जी का हार्दिक आभारी हूँ ,जो उन्होंने मेरे इस आग्रह को स्वीकार किया। बैंकिंग पृष्ठभूमि के साथ अपने बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी श्री अ कीर्तिवर्धन जी हम सबके आदर्श हैं। )
(संकलनकर्ता – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ )
आदरणीय श्री अ कीर्तिवर्धन जी का जन्म 9 अगस्त, 1956 को शामली (उ.प्र.) में हुआ था। आपके पिता श्री विद्या राम अग्रवाल, इंटर कॉलेज में प्राचार्य थे। आपकी प्रारंभिक शिक्षा शामली में ही पूर्ण हुई। आपकी माँ के प्रोत्साहन ने आपको सदैव पढ़ाई के लिए प्रेरित किया।
सत्तर के दशक में गांव में मेले लगा करते थे। इन मेलों में शाम को कवि सम्मेलन का आयोजन भी हुआ करते थे। आप उन कवि सम्मेलनों में सुनी हुई कविताओं को लिखने की कोशिश करते थे। उन कविताओं से प्रेरित होकर आपने छोटी छोटी कवितायें लिखना प्रारम्भ किया।
आपके पिताजी ने आपकी लेखन प्रतिभा से प्रभावित होकर रिश्तेदारों को चिट्ठियां लिखने का दायित्व आपको ही दे दिया था। आपकी काव्यात्मक चिट्ठियाँ अत्यंत रोचक होती थी जिससे आपकी लेखन प्रतिभा समय के साथ साथ विकसित होती चली गई। आपकी काव्यात्मक प्रतिभा से जुड़े हुए कई संस्मरण हैं जिन्हें हम भविष्य में अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास करेंगे। अब तक आपकी रचनाएँ इधर उधर डायरी कापियों में लिखी हुई रखी थी किन्तु, संकलित नहीं थी।
सही मायनों में आपकी साहित्यिक यात्रा 1974 से प्रारम्भ हुई जब आप इंजीनियरिंग की परीक्षा देने आप आगरा गए थे।आपने हिन्दू कॉलेज मुरादाबाद से बी.एस.सी. व एम.एस.सी. (गणित), अपने चाचा जी के पास रहते हुए किया। कॉलेज में आप स्टूडेंट यूनियन से भी सक्रिय रूप से जुड़े रहे तथा लेखन भी चलता रहा। एम.एस.सी. करने के दौरान आपको नैनीताल बैंक में नौकरी मिल गई । आपकी प्रथम पोस्टिंग रामनगर में हुई। समय समय पर आपकी अनेकों रचनाएं बैंक की पत्रिका में प्रकाशित होती रहीं। वर्ष 1983 में आपका तबादला मुजफ्फरनगर हो गया। मुजफ्फरनगर से आप की कविताएं व रचनाएं नियमित रूप से स्थानीय समाचार पत्रों में प्रकाशित होने लगीं। वर्ष 1985- 86 में आप बैंक की पत्रिका के संपादक भी रहे। इसी दौरान आपको बैंक में ट्रेड यूनियन से जुडने का अवसर प्राप्त हुआ और आप काफी लंबे समय तक यूनियन के राष्ट्रीय सचिव रहे।
वर्ष 1987 में आपका विवाह रजनी अग्रवाल जी से हुआ। उन्होने आपको आपकी साहित्यिक यात्रा में सदैव सहयोग किया। वे ही आपकी प्रथम श्रोता होती हैं तथा सदैव आपका उत्साहवर्धन करती रहीं। 1999 में आपका दिल्ली ट्रांसफर हो गया। उन दिनों आप दीवाली व नववर्ष के शुभकामना संदेश एक सामाजिक विषय पर कविता लिखकर अपने मित्रों, संबंधियों तथा बैंक की करीबन 100 शाखाओं को भेजा करते थे। इसने भी आपकी लेखन प्रतिभा को एक नया आयाम दिया। इस कृत्य ने आपकी साहित्यिक यात्रा को भी नया आयाम दिया। सान 2000 में आपके नववर्ष संदेश के माध्यम से एक प्रसिद्ध साहित्यकार श्री रमेश नीलकमल जी से मुलाक़ात हुई। उन्होने आपको अपनी रचनाएँ प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित करने हेतु प्रोत्साहित किया। श्री नीलकमल जी न्यूमरोलॉजी अर्थात अंकशास्त्र के ज्ञाता थे। आप अब तक कीर्तिवर्धन आजाद के नाम से लिखा करते थे। श्री नीलकमल जी ने अंकशास्त्र के आधार पर सुझाव दिया कि आप अपना नाम बदल कर अ कीर्तिवर्धन कर ले, तो यह नाम आपके लिए बहुत उपयुक्त होगा तथा इस नाम से आपको बहुत यशकीर्ति प्राप्त होगी। यह अक्षरशः सत्य साबित हुआ। नाम बदलने के बाद आपके लेखन को एक नया आयाम मिला, और बहुत यश भी प्राप्त हुआ।
अब तक आपकी रचनाएं 1500 से अधिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। आपकी साहित्यिक व्यस्तताएं बढ़ जाने के कारण वर्ष 2005 में अपने ट्रेड यूनियन से संयास ले लिया। वर्ष 2005 से अब तक आपकी 12 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, तथा अनेक पुस्तकों का अनुवाद नेपाली, कन्नड़, व मैथिली भाषा में हो चुका है। आप हिन्दी साहित्य कि लगभग सभी विधाओं में रचनाएँ लिखते हैं।
अक्सर आप अपनी छंदमुक्त कविताओं के बारे में एक रोचक घटना का ज़िक्र करते हैं। एक बार आपने अपनी एक कविता भोपाल की पत्रिका साहित्य परिक्रमा को भेजी। उत्तर आया कि पत्रिका में केवल छंदयुक्त कविताओं को ही प्रकाशित किया जाता है। इसी बात ने आपको एक निम्नलिखित कविता लिखने को प्रेरित किया –
नहीं जानता गीत किसे कहते हैं,
छंदों की वह रीत किसे कहते हैं,
क्या छंद बिना कोई भावों को नहीं कह पाएगा,
दृष्टिहीन, नागरिक का अधिकार नहीं पाएगा,
केवल मीठा खाने से क्या पता चलेगा,
कभी कसैला, कभी हो खट्टा, स्वाद बनेगा,
मीठे को महिमामंडित करने का, आधार बनेगा।
यह कविता आपने पत्रिका संपादक को भेज दी। इसके बाद उस पत्रिका में आप की अनेकानेक रचनाओं को स्थान दिया गया।
श्री नीलकमल जी से आपका संपर्क जीवन पर्यंत बना रहा। जिनके मार्गदर्शन से आपके लेखन में बहुत सुधार हुआ और वह आपके लिए वरदान साबित हुआ।
बिहार की एक साहित्यिक संस्था ने आपको विद्या वाचस्पति की उपाधि से सम्मानित किया।
सन 2012 में आपका ट्रान्सफर मुजफ्फरनगर हो गया, तथा वर्ष 2016 में आप सेवानिवृत्त हो गए। सेवानिवृत्त होने के पश्चात आप समाज सेवा में जुट गए, तथा मुजफ्फरनगर में ग्रामीण क्षेत्रों के करीब 20-25 विद्यालयों से जुड़ गए। इन विद्यालयों में आप प्रेरक वक्ता के रूप में नियमित रूप से जाते हैं और बच्चों को भाषण कला तथा अन्य विषयों पर मार्गदर्शन व उत्साहवर्धन करते हैं।
आपको कई विश्वविद्यालयों/ संस्थानों में शोध पत्र पढ़ने तथा व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया जा चुका है, जिसमें सिक्किम विश्वविद्यालय, नेपाल प्रेस क्लब, राजस्थान के कई विश्वविद्यालय प्रमुख हैं।
आपकी बाल कविताओं की एक पुस्तक ‘सुबह सवेरे’कर्नाटक वउत्तराखंड के पाठ्यक्रम में भी शामिल है।
वोदित लेखकों को आपका संदेश है – “सतत लेखनरत रहें… समय के साथ लेखन में सुधार होता जाएग… और धीरे धीरे आपकी पहचान बनने लगेगी। कोशिश करें कि, लेखन सामाजिक विषयों पर हो, जिससे कि समाज जागृति व समाज का उत्थान हो सके।”
( ई- अभिव्यक्ति का यह एक अभिनव प्रयास है। इस श्रंखला के माध्यम से हम हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकारों को सादर नमन करते हैं।
हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार जो आज भी हमारे बीच उपस्थित हैं और जिन्होंनेअपना सारा जीवन साहित्य सेवा में लगा दिया तथा हमें हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं, उनके हम सदैव ऋणी रहेंगे । यदि हम उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को अपनी पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ी के साथ डिजिटल एवं सोशल मीडिया पर साझा कर सकें तो निश्चित ही ई- अभिव्यक्ति के माध्यम से चरण स्पर्श कर उनसे आशीर्वाद लेने जैसा क्षण होगा। वे हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत भी हैं। इस पीढ़ी के साहित्यकारों को डिजिटल माध्यम में ससम्मान आपसे साझा करने के लिए ई- अभिव्यक्ति कटिबद्ध है एवं यह हमारा कर्तव्य भी है। इस प्रयास में हमने कुछ समय पूर्व आचार्य भगवत दुबे जी,डॉ राजकुमार ‘सुमित्र’ जी, प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘ विदग्ध’ जी,श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी, डॉ. रामवल्लभ आचार्य जी एवं श्री दिलीप भाटिया जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आलेख आपके लिए प्रस्तुत किया था जिसे आप निम्न लिंक पर पढ़ सकते हैं : –
इस यज्ञ में आपका सहयोग अपेक्षित हैं। आपसे अनुरोध है कि कृपया आपके शहर के वरिष्ठतम साहित्यकारों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से हमारी एवं आने वाली पीढ़ियों को अवगत कराने में हमारी सहायता करें। हम यह स्तम्भ प्रत्येक रविवार को प्रकाशित करने का प्रयास कर रहे हैं। हमारा प्रयास रहेगा कि – प्रत्येक रविवार को एक ऐसे ही ख्यातिलब्ध वरिष्ठ साहित्यकार के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से आपको परिचित करा सकें।
आपसे अनुरोध है कि ऐसी वरिष्ठतम पीढ़ी के अग्रज एवं मातृ-पितृतुल्य पीढ़ी के व्यक्तित्व एवम कृतित्व को सबसे साझा करने में हमें सहायता प्रदान करें।
(आज ससम्मान प्रस्तुत है वरिष्ठ हिन्दी साहित्यकार डॉ. मुक्ता जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विमर्श डॉ सविता उपाध्याय जी की कलम से। हम डॉ सविता उपाध्याय जी के ह्रदय से आभारी हैं। आपके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर कई साहित्य मनीषियों ने अपनी लेखनी से सम्मान प्रदान किया है जिनमे डॉ मुक्ता का रचना संसार – डॉ सुभाष रस्तोगी जी तथा रानी झांसी जैसी नारीवाद की सर्जक डॉ मुक्ता – सुश्री सिमर सदोष जी की कृतियां प्रमुख है , जिन पर हम भविष्य में चर्चा करने का प्रयास करेंगे। बिना किसी अभिमान एवं सहज – सरल स्वभाव की बहुमुखी प्रतिभा की धनी डॉ मुक्ता जी को मैंने सदैव स्त्री शक्ति विमर्श की प्रणेता के रूप में पाया है। आपके स्त्री पात्र हों या पुरुष पात्र दोनों वास्तविक जीवन से लिए हुए हैं। आपकी लेखनी से स्त्री विमर्श में स्त्री के सन्दर्भ में कुछ भी छूट पाना असंभव है। आप प्रत्येक पीढ़ी के लिए एक आदर्श हैं। )
सारस्वत परिचय
शिक्षा : कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से1971मे हिंदी साहित्य में एम•ए• तथा1975 में पंजाब विश्व- विद्यालय चंडीगढ़ से पीएच•डी•की डिग्री प्राप्त की।
व्यवसाय :1971से 2003 तक उच्चतर शिक्षा विभाग हरियाणा में प्रवक्ता तथा 2009 में प्राचार्य पद से सेवा-निवृत्त।
निदेशक,हरियाणा साहित्य अकादमी (2009 से 2011)
निदेशक, हरियाणा ग्रंथ अकादमी पंचकूला (2011- नवम्बर 2014 )
सदस्य,केन्द्रीय साहित्य अकादमी ,नई दिल्ली ( 2013 से 2017)
साहित्य साधना : बचपन से अध्ययन व लेखन में रुचि तथा 1971 में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में कहानी व निबंध लेखन प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त।
उपलब्धियां :विशिष्ट हिंदी सेवाओं के निमित्त माननीय श्री प्रणव मुखर्जी,राष्ट्रपति भारत सरकार के कर-कमलों द्वारा सुब्रमण्यम भारती पुरस्कार से सम्मानित★ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ जयंती समारोह तथा अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर उत्कृष्ट साहित्यिक व सामाजिक सेवाओं के निमित्त माननीय राज्यपाल श्री जगन्नाथ पहाड़िया,हरियाणा द्वारा सम्मानित★ हरि याणा साहित्य अकादमी के राज्यस्तरीय श्रेष्ठ महिला रचनाकार सम्मान से मुख्यमंत्री महोदय द्वाराअलंकृत ★ बेस्ट सिटीज़न ऑफ इंडिया अवॉर्ड★ साहित्य शिरोमणि की मानद उपाधि से अलंकृत★ इंटर- नेशनल विमेंस डे अवॉर्ड★ उदन्त मार्त्तण्ड सम्मान★ प्रज्ञा साहित्य सम्मान★ विश्ववारा सम्मान★ राज्य- स्तरीय और विश्व शिक्षक सम्मान★ राजीव गांधी एक्सीलेंस अवार्ड★ हिंदी भाषा भूषण सम्मान ★ राष्ट्रभाषा गौरव सम्मान★ साहित्य कौस्तुभ सम्मान ★ शिक्षा रतन पुरस्कार★ उदयभानु हंस कविता पुरस्कार★ महाराज कृष्ण जैन स्मृति सम्मान ★ 2007,2008, 2009 में समाजसेवी महिला सम्मान ★ हेल्र्दी युनिवर्स फाउंडेशन द्वारा वीमेंस अचीवर्स अवार्ड★ मां दरशी शिखर सम्मान★महिला गौरव पुरस्कार★ रानी लक्ष्मीबाई जनसेवा सम्मान★ नारी गौरव सम्मान ★सावित्री बाई फुल्ले अवार्ड★ नारी शक्ति सम्मान★साहित्य कौस्तुभ, साहित्य वाचस्पति व अंतर्राष्ट्रीय साहित्य वाचस्पति की मानद उपाधि से विभूषित★ साहित्य गौरवश्री सम्मान★ मानव गौरव सम्मान★ लघुकथा रतन सम्मान★ हिंदी रतन सम्मान★ विश्वकवि संत कबीर दास रतन अवॉर्ड ★ लघुकथा शिरोमणि सम्मान★ लघुकथा रतन सम्मान★ साहित्य गौरव सम्मान★ कलमवीर सम्मान★ सदाबहार वृक्षमित्र सम्मान★ नारी गौरव सम्मान★ लघुकथा सेवी सम्मान★ महिला गौरव सम्मान★ बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान सम्मान★दैनिक जागरण, संस्कार शाला द्वारा सम्मान★ काव्यशाला सम्मान★इन्द्रप्रस्थ लिट्रेचर फेस्टिवल एवं विजयानी फाउंडेशन द्वारा विशेष सम्मान★ इन्डोगमा फिल्म फेस्टिवल पर आई• एफ• एफ• 2019 विशेष सम्मान।
हरियाणा ग्रंथ अकादमी की पत्रिका कथासमय (मासिक) तथा सप्तसिंधु त्रैमासिक) का तीन वर्ष तथा हरियाणा साहित्य अकादमी की पत्रिका हरिगंधा (मासिक) का दो वर्ष तक कुशल संपादन
★दस रचनाओं पर लघु शोध प्रबंध स्वीकृत★दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा चेन्नई द्वारा मुक्ता के साहित्य में स्त्री विमर्श शोध-प्रबंध स्वीकृत★ दो विद्यार्थियों द्वारा शोध-प्रबंध लेखनाधीन ★ राजा राममोहन राय फाउंडेशन तथा केन्द्रीय हिंदी संस्थान द्वारा दस रचनाएं अनुमोदित ★ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, आकाशवाणी, दूरदर्शन, राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों, काव्यगोष्ठियों व विचार-मंचों में सक्रिय प्रतिभागिता।
प्रकाशित रचनाएं…28 : ◆शब्द नहीं मिलते ◆अस्मिता ◆लफ़्ज़ों ने ज़ुबां खोली ◆अहसास चंद लम्हों का ◆एक आंसू ◆चक्रव्यूह में औरत ◆एक नदी संवेदना की ◆लम्हों की सौगा़त ◆अंतर्मन का अहसास ◆द्वीप अपने-अपने ◆संवेदना के वातायन ◆सुक़ून कहाँ ◆सांसों की सरगम (काव्य-संग्रह) ◆मुखरित संवेदनाएं ◆आखिर कब तक ◆कैसे टूटे मौन ◆अंजुरी भर धूप ◆उजास की तलाश ◆रेत होते रिश्ते ◆बँटा हुआ आदमी◆ हाशिये के उस पार◆टुकड़ा-टुकड़ा ज़िन्दगी (लघुकथा-संग्रह) ◆खामोशियों का सफ़र ◆अब और नहीं ◆सच अपना अपना ◆इन गलियारों में (कहानी -संग्रह) ◆चिन्ता नहीं चिन्तन ◆परिदृश्य चिन्तन के ◆चिन्तन के आयाम ◆वाट्सएप तेरे नाम (निबन्ध-संग्रह)…. ◆क्षितिज चिन्तन के (प्रकाशनाधीन )◆आधुनिक कविता में प्रकृति (समालोचना)◆ अकादमी की कथायात्रा कृति का संपादन ●अस्मिता व ●चिन्ता नहीं चिन्तन का पंजाबी और अंग्रेजी में अनुवाद। ◆ डा•मुक्ता का रचना संसार…. डा•सुभाष रस्तोगी द्वारा संपादित।
संप्रति : पूर्व निदेशक हरियाणा साहित्य अकादमी, स्वतंत्र लेखन।
☆ हिन्दी साहित्य – डॉ मुक्ता ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆
(संकलनकर्ता – डॉ सविता उपाध्याय )
हिन्दी साहित्य जगत में डॉ मुक्ता एक बहुचर्चित विश्वविख्यात शक्ति संपन्न लेखिकाओं में से एक हैं। आपने हिन्दी साहित्य की लगभग सभी विधाओं कविता कहानी उपन्यास साक्षात्कार आदि में रचना की है।
इस संदर्भ में सुभाष रस्तोगी द्वारा संपादित ‘डॉ मुक्ता का रचना संसार’ कार्य अभिनंदनीय है वंदननीय है। आपने डॉ मुक्ता के साहित्यिक संसार को संपादित कर महती कार्य किया है। इस पुस्तक को पढ़कर लगा कि यह एक अथाह सागर है जिसमें इतने मोती हैं कि जिसकी गणना नहीं की जा सकती। रस्तोगी जी ने आपके रचना संसार को मोतियों की माला की तरह पिरोकर पाठकों को हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर सौंप दी है।
आपकी सृजन यात्रा 2007 में प्रकाशित ‘शब्द नहीं मिलते’ से आज तक अनवरत चल रही है। हिंदी की सभी विधाओं पर अपना अधिकार रखने वाली डॉ मुक्ता को कौन नहीं जानता आपके पास कवि हृदय भी है जो हिंदी साहित्य में आपकी एक अलग ही पहचान बनाता है। आप चिंता नहीं चिंतन करती हैं और इसी के फलस्वरूप आपके आलेख चर्चा का विषय रहे हैं। आपने हरियाणा साहित्य अकादमी के निदेशक के पद पर रहते हुए अकादमी की साहित्यिक पत्रिका ‘हरिगंधा’ के सम्पादन में अद्भुत योगदान देकर अपनी एक अलग पहचान बनायी है। आपने लीक से अलग हटकर ‘हरिगंधा’ में नवीन विषयों को समाहित कर विशेषांक सम्पादित किए हैं जो ऐतिहासिक धरोहर बन गए हैं जिनमें महिला विशेषांक, लघु कथा विशेषांक, दोहा विशेषांक आदि उल्लेखनीय हैं। इसी के साथ, कहानी पत्रिका ‘कथा समय’ तथा शोध पत्रिका ‘सप्तसिंधु’ दोनों ही संग्रहणीय हैं। अब तक आपके 6 कविता संग्रह शब्द नहीं मिलते. अस्मिता, लफ्जों ने जुबां खोली. एहसास चन्द लम्हों का, एक आंसू आदि प्रकाशित हो चुके हैं। आपकी कविताओं में स्त्री की यातना. उसके संघर्ष. उसकी चेतना को साहित्य का आधार बनाया गया है। आपकी कविताएं स्त्री मुक्ति के लिए ज़द्र्दोज़हद करती कविताएँ हैं जो पुरुष के अधिनायक वादी वर्चस्व को चुनौती देती हैं। डॉ मुक्ता का मानना है की स्त्री व् पुरुष दोनों समाज की धुरी हैं और स्त्री को उसके हिस्से की धुप और छांव, आधी ज़मीन व् आधा आसमां मिलना ही चाहिए।
स्त्री विमर्श के तहत नारी संघर्ष चेतना और समाज के पुरुष वर्ग को चुनौति देती स्त्री आपके रचना कर्म को अलग पहचान देती है। आपने अपने साहित्य में परिवार की संरचना में बदलाव संबंधों में बदलाव स्त्रियों की स्थिति में बदलाव स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन स्त्रियों पर होने वाले अत्याचार परिवार में शारीरिक लैंगिक व मनोवैज्ञानिक अत्याचार हिंसा दहेज से जुड़ी समस्याएँ स्त्रियों पर दोहरा अत्याचार कन्या भ्रूण हत्या परिवार में स्त्रियों की शिक्षा एवं स्वास्थ्य की उपेक्षा विधवाओं का शोषण अल्पायु में विवाह पर्दा और घूँघट प्रथा आदि इन तमाम कठिनाइयों समस्याओं के बीच संघर्ष करती हुई स्त्री को आपने अपने साहित्य में चित्रित किया है।
शब्द नहीं मिलते अस्मिता लफ्जों ने जुबां खोली अहसास चंद लम्हों का एक आंसू चक्रव्यूह में औरत कविता संग्रह बहुचर्चित रहे हैं। इतनी अधिक कविताओं की रचना करने के बावजूद सभी कविताओें की पृष्ठभूमि में भिन्नता अलग रोचकता अलग शैली का होना ही आपके लोकप्रिय होने का प्रमुख कारण रहा है। ‘शब्द नहीं मिलते’ काव्य संग्रह में 92 कविताएँ हैं जिनमें आस्था विश्वास, गुरु के प्रति समर्पण भाव. सच्चा गुरु ही ईश्वर अराधना के मार्ग में सहायक होता है. गुरु के शरण में जाने से ही मुक्ति का मन्त्र मिलता है. गुरु की कृपा से ही कवयित्री ने सत्य से साक्षात्कार किया है कि प्रभु का बसेरा कहीं बाहर नहीं वह हृदय के भीतर ही विराजमान है।
शब्द नहीं मिलते काव्य संग्रह की कविताएँ स्वयं से साक्षात्कार है और जिसका स्वयं से साक्षात्कार हो जाता है वह भौतिक सुख–सुविधाओं से परे एक अलग ही जहान का प्राणी बन जाता है।भक्ति रस में सराबोर मुक्ता जी की कविताएँ अन्तर्मन को छूकर गहरे अध्यात्म से परिचय करवाती हैं। अस्मिता काव्य संग्रह में चौहत्तर 74 कविताएं हैं जिनका केन्द्र बिन्दु नारी रही है। अहिल्या, गांधारी के उदाहरण देकर कुछ ऐसे साक्ष्य प्रस्तुत किए हैं जो नारी की अंतस्चेतना को झकझोर कर रख देता है। द्रोपदी मंथरा उर्मिला सीता सभी का उदाहरण देकर बताया गया है कि आदिकाल से ही स्त्री को त्यागने का काम पुरुषों द्वारा किया गया है
एक स्थान पर सीता कहती हैं–
हे राम तुम कहीं भी जा सकते हो
तुम्हें अग्नि परीक्षा नहीं देनी होगी
न ही मैं
तुम्हारा त्याग करुंगी
वह अधिकार तो
मिला है पुरुष को
नारी तो बंदिनी है
चाहे वह राम के राजमहल में
चाहे रावण की
अशोकवाटिका में
वह तो है चिरबंदिनी।
कितनी मार्मिक पंक्तियां हैं। आपने न केवल पद्य में वरन गद्य में भी अपना अधिकार सिद्ध किया है। विविध विषयों को लेकर आपने जहां काव्य संसार रचा है वहीं कथा के क्षेत्र में भी आपने विभिन्न पृष्ठभूमि को लेकर कथा साहित्य की रचना की है।
एक कथाकार के तौर यदि हम डॉ मुक्ता के लेखन की बात करें तो आपका हिन्दी साहित्य को महत्त्वपूर्ण व सराहनीय योगदान रहा है। आपने नारी मन में गहरे उतरकर उसकी संवेदना, यातना, संघर्ष, स्त्री की समस्याओं और सवालों से जुड़े अनेक प्रश्नों व अधिकारों को अपने साहित्य में उठाया है। आपके स्त्री पात्र हों या पुरुष पात्र दोनों वास्तविक जीवन से लिए हुए हैं। आपने उन्हें कल्पना के माध्यम से मनोबल प्रदानकर संघर्ष करते हुए दिखलाया है। आपने उनका कथाक्रम के अनुसार पुनर्सृजन भी किया है।
आपके अब तक चार कहानी संग्रह खामोशियों का सफर, अब और नहीं, सच अपना अपना, इन गलियारों में प्रकाशित हो चुके हैं। आपकी कहानियाँ गहरे प्रतिकार्थ की व्यंजना करती हैं। डॉ मुक्ता ने स्त्री जीवन के सभी मर्मांतक पीड़ाओं को अन्तर्मन तक महसूस किया है और कहानी का कथ्य बनाया है।
स्त्री जीवन तो सदियों से दुखों और पीड़ाओं से भरा हुआ है। उसकी यह पीड़ा आज की नहीं बल्कि सदियों पुरानी है। लगातार स्त्री दुखों आपदाओं और मुसीबतों का सामना करती रही है। प्रत्येक काल में स्त्री को ही अग्नि परीक्षा देनी पड़े अब यह स्त्री बर्दाश्त नहीं करेगी। वह सीता मैय्या ही थीं जो परीक्षा पर परीक्षा देती चली गईं वह भी एक धोबी के कहने पर। आज की सीता जहाँ परीक्षा देने को तैयार है वहीं उससे पहले परीक्षा लेना भी जानती है। केवल स्त्री ही परीक्षा क्यों दे? कितने अपमान इस नारी जाति को सहने होंगे? कितना लांक्षित होना होगा? स्त्री को पाप की खान नरक का द्वार माया और ठगनी के रूप में चिह्नित कर पुरुष समाज ने बहुत मजाक उड़ाया है।
डॉ मुक्ता ने अपनी कहानियों काश इंसान समझ पाता, अपना घर, अग्निपरीक्षा, अधूरा इंसान, रिश्तों का अहसास, करवट तथा अपना आशियाँ में स्त्री यातना के विभिन्न पक्षों को उठाया है। लेकिन खास बात यह है कि इसके माध्यम से आपने नारियों के स्वतंत्र व्यक्तित्व और आत्मनिर्भरता को प्रमाणित करने का भी प्रयास किया है। आपके नारी पात्र पुरुष समाज के सारे अत्याचार सहने के बावजूद टूटते नहीं हार नहीं मानते। आपकी कहानियों के नारी पात्र अपने बलबूते पर जीवनभर संघर्ष करते नज़र आते हैं जीवन की कठिनाइयाँ भी उन्हें हरा नहीं पातीं। आपकी आक्रोश कहानी नारी सशक्तिकरण की अद्भुत कहानी है।
ढलती सांझ का दुख धरोहर मसान की डगर पर समझोता शायद वह कभी लौट आए आदि कहानियों में स्त्री यातना के भले ही विभिन्न संदर्भ हों लेकिन यह कहानियाँ यह सवाल उठाती हैं कि स्त्री को ससुराल के नाम पर जो घर मिलता है वह एक छलावा है।
यहाँ यदि हम स्त्री–पुरुष संबंधों की बात करें तो दोनों के बिना ही सृष्टि की कल्पना असंभव है। फिर न जाने क्यों किस बात की लड़ाई बरसों से चली आ रही है। स्त्री–पुरुष संबंध में स्त्री ग्रहण करने वाली प्राप्त करने वाली आत्मसात करने वाली और आत्मसात एवं ग्रहण के परिणामस्वरूप वृद्धि और रचना करने वाली है। वस्तुत स्त्रियों की गुलामी का सबसे बड़ा कारण धार्मिक सामाजिक मान्यताएँ और प्रथाएँ ही रहा है। इनके खिलाफ अभियान छेड़े बिना स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन लाना असंभव था। इसके लिए ही “वीमेन राइट्स” की बात कही गई। स्त्री पहले से ज्यादा सजग व चेतन हो गई है। पूर्वकाल में वह पुरुष के पद्चिह्नों पर चलने वाली थी किन्तु अब वह कदम से कदम मिलाकर एक साथ चलना चाहती है।
इस समाज में यह भ्रम फैला हुआ है। स्त्री विमर्श होना पुरुष विरोधी होना है किन्तु स्त्री तो बस अपने अधिकारों की माँग करती है पुरुष के समान प्रत्येक क्षेत्र में अपना समान अधिकार माँगती है। नियति के अनुसार अपने अधिकारों के लिए लड़ना गुनाह नहीं है क्योंकि अत्याचार करने से अत्याचार सहने वाला ज़्यादा गुनेहगार होता है।
मुक्ता जी की कथाओं में स्त्री पात्र संघर्षशील हैं आपकी नायिकाएं पुरुष वर्चस्व के कारण स्वयं को इस्तेमाल होने देने से इन्कार करती है और संस्कारों का मान करते हुए भी रूढ़ नैतिकता का विरोध करती है। उसका विश्वास है कि हमारे संस्कार हमारी मान्यताएँ जीवन को सही शक्ल देने के लिए हैं। जीवन को जीने की आकांक्षा जिस प्रकार पुरुष में है उस प्रकार स्त्री में भी है। दाम्पत्य संबंधों का सम्मान करते हुए वह अपने दायित्वों का निर्वाह करती है और अपनी अस्मिता का हनन नहीं होने देती। लेखिका की कहानियों में लिव इन रिलेशनशिप का कोई स्थान नहीं है। सकारात्मकता व मानवीय मूल्यों के प्रति अटूट निष्ठा आपके लेखन को शीर्ष तक पहुँचाती है।
आपने तथाकथित संस्कारशील घरों में घुटते दांपत्य और अस्तित्वहीनता की यंत्रणा सहती स्त्री के अंतद्र्वन्द्व को ही नहीं दर्शाया है बल्कि रूढ़ नैतिकता और पुरुष अहं का परीक्षण करती स्त्री की सहज जीवन जीने की आकांक्षा को नए अर्थों में दिखाने का भी प्रयास किया है।
आपकी टुकड़ा टुकड़ा जिंदगी शत शत नमन किसके लिए पटरियों पर दौड़ती जिंदगी तथा शशांक जैसी कहानियों में जहाँ स्त्री के आँसू स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं वहीं ओजस्विता से भरी हुई प्रत्येक स्थिति में पहाड़ की अचलता दिखाई पड़ती है। भले ही सूरज छिपकर थोड़ी देर अंधेरा फैला दे किन्तु अंधेरे के बाद प्रकाश की उम्मीद ही स्त्री को जीवंत बनाती है।
आपके स्त्री पात्र पुरुष को कहीं भी अस्वीकार नहीं करते बस बराबर में एक सम्मानपूर्ण जगह चाहते हैं। वस्तुत यही तो है स्त्री विमर्श। पुरुष विरोधी होना स्त्री विमर्श नहीं बल्कि समान अधिकारों समान दायित्वों का निर्वाह ही स्त्री विमर्श है जोकि मुक्ताजी के साहित्य में स्पष्ट दिखाई पड़ता है।
आपकी स्त्रियाँ दुख व यंत्रणा सहती अपनी अस्मिता को बचाए हुए सदैव संघर्षशील हैं। आपने स्त्रियों के दुख को एक बड़े फलक पर उतारकर दुख निवारण हेतु नई दिशा प्रदान की है।
निष्कर्षत कहा जा सकता है कि मुक्ता जी गंभीर कलात्मक साहित्यिक दृष्टि से अत्यंत उत्कृष्ट साहित्य की रचना करने वाली लेखिका हैं। आपकी कहानियों में यथार्थता सादगी विचारमयी मर्मबेधी वेदनाएँ हैं। आपके कथानकों के पात्र यथार्थ की भूमि से लिए हुए इतने सहज निश्छल पारदर्शी हैं कि पाठक की अंतरात्मा को झकझोर देने की अद्भुत क्षमता रखते हैं। पाठक का उनके साथ स्वत ही तारतम्य स्थापित होता चला जाता है।
आपके कथानकों की भाषा वातावरण के अनुरूप अत्यंत हृदयस्पर्शी, सरल, सहज, आंचलिकता को लिए हुए कथा व स्थिति के अनुरूप गढ़ी गई है। आपने स्त्री विमर्श का ढिंढोरा न पीटकर अपनी कथानकों में स्त्री विमर्श के मूल तत्वों को मार्मिकता के साथ रेखांकित किया है। स्त्री स्वातंत्र्य की बातें आपने बहुत स्पष्ट व दृढ़ता के साथ कही हैं। आपके स्त्री पात्र सामाजिकÊ राजनीतिक विसंगतियों की कसौटी पर खरे उतरते हैं। आपके पात्र स्त्री के मानसिक पटल को प्रस्तुत करने का अद्भुत सामथ्र्य तो रखते ही हैं साथ ही परंपरागत रूढ़ियों–बंधनों से मुक्त होकर स्वनियंत्रण में रहने की सीख देते हुए भी नज़र आते हैं।
मुक्ता जी एक प्रतिबद्ध लेखिका हैं। शोषण, अत्याचार व अनाचार सहती स्त्रियों की पीड़ा को मरहम देना व समाज की प्रगति ही आपके लेखन का लक्ष्य रहा है। आपने विभिन्न कहानियों के माध्यम से स्त्री मुक्ति के प्रश्नों को उठाया है। आपके स्त्री पात्र समाज के लिए नई दिशा व नया मार्ग प्रशस्त करने वाले हैं।
आपके स्त्री पात्र अपने स्त्रीत्व पर गर्व करने वाले, स्वाभिमानी, संघर्षशील व ऐसी अपराजिताऐं हैं जो अंत तक संघर्ष करती रहती हैं। आपने अपनी भावनाओं विचारों व संवेदनाओं में बेहद ईमानदारी व पारदर्शिता का परिचय दिया है। इस प्रकार मुक्ताजी अपने जीवन के अनुभवों व साहित्य के द्वारा स्त्री मुक्ति का आख्यान रचती हैं।
( ई- अभिव्यक्ति का यह एक अभिनव प्रयास है। इस श्रंखला के माध्यम से हम हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकारों को सादर नमन करते हैं।
हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार जो आज भी हमारे बीच उपस्थित हैं और जिन्होंनेअपना सारा जीवन साहित्य सेवा में लगा दिया तथा हमें हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं, उनके हम सदैव ऋणी रहेंगे । यदि हम उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को अपनी पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ी के साथ डिजिटल एवं सोशल मीडिया पर साझा कर सकें तो निश्चित ही ई- अभिव्यक्ति के माध्यम से चरण स्पर्श कर उनसे आशीर्वाद लेने जैसा क्षण होगा। वे हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत भी हैं। इस पीढ़ी के साहित्यकारों को डिजिटल माध्यम में ससम्मान आपसे साझा करने के लिए ई- अभिव्यक्ति कटिबद्ध है एवं यह हमारा कर्तव्य भी है। इस प्रयास में हमने कुछ समय पूर्व आचार्य भगवत दुबे जी,डॉ राजकुमार ‘सुमित्र’ जी, प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘ विदग्ध’ जी,श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जीएवं डॉ. रामवल्लभ आचार्य जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आलेख आपके लिए प्रस्तुत किया था जिसे आप निम्न लिंक पर पढ़ सकते हैं : –
हिन्दी साहित्य ☆ डॉ. रामवल्लभ आचार्य ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र ‘
इस यज्ञ में आपका सहयोग अपेक्षित हैं। आपसे अनुरोध है कि कृपया आपके शहर के वरिष्ठतम साहित्यकारों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से हमारी एवं आने वाली पीढ़ियों को अवगत कराने में हमारी सहायता करें। हम यह स्तम्भ प्रत्येक रविवार को प्रकाशित करने का प्रयास कर रहे हैं। हमारा प्रयास रहेगा कि – प्रत्येक रविवार को एक ऐसे ही ख्यातिलब्ध वरिष्ठ साहित्यकार के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से आपको परिचित करा सकें।
आपसे अनुरोध है कि ऐसी वरिष्ठतम पीढ़ी के अग्रज एवं मातृ-पितृतुल्य पीढ़ी के व्यक्तित्व एवम कृतित्व को सबसे साझा करने में हमें सहायता प्रदान करें।
☆ हिन्दी साहित्य – श्री दिलीप भाटिया ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆
(आज ससम्मान प्रस्तुत है वरिष्ठ हिन्दी साहित्यकार श्री दिलीप भाटिया जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विमर्श उनके प्रशंसकों एवं सुपुत्री डॉ मिली भाटिया जी की कलम से। मैं डॉ मिली भाटिया जी का हार्दिक आभारी हूँ ,जो उन्होंने मेरे इस आग्रह को स्वीकार किया। भारत सरकार सेवाओं में परमाणु वैज्ञानिक की भूमिका निभाने के पश्चात बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी श्री दिलीप भाटिया जी बच्चों में प्रिय ” दिलीप अंकल ” के नाम से प्रसिद्ध, तन, मन और धन से समाज के प्रति समर्पित हम सबके आदर्श हैं।
वैसे हम प्रति रविवार इस स्तम्भ को प्रकाशित करते हैं किन्तु, आज का दिन हम सबके लिए विशेष है और श्री भाटिया जी के लिए उनके प्रशंसकों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। अतः हम परिपाटी तोड़ते हुए आज उनके जन्मदिवस पर भेंट स्वरुप यह विचारों का गुलदस्ता प्रस्तुत करते हैं। सर्वप्रथम अनजाने में ही प्राप्त उनका संकल्प – २०२० )
☆ सन्कल्प 2020☆
परमाणु ऊर्जा विभाग से सेवानिवृत्ति के पश्चात् प्रति वर्ष समय के सकारात्मक सदुपयोग हेतु सन्कल्प लेता हूँ। प्रति सप्ताह कम से कम एक शिक्षण संस्थान में विद्यार्थियों को समय प्रबंधन एवं कैरियर चुनाव पर विचार व्यक्त करने के लिए समय देना है। हर वर्ष 75 प्रतिशत से अधिक यह सन्कल्प पूरा हो जाता है। वर्ष 2019 में लक्ष्य प्राप्ति का प्रतिशत 125 रहा क्योंकि नवंबर 2019 में नाथद्वारा दरीबा चित्तोडगढ प्रवास में 12 शिक्षण संस्थानों में लगभग 3000 विद्यार्थियों के साथ समय के सदुपयोग पर विचार व्यक्त किए। सरकारी विद्यालयों की मेधावी बेटियों की उच्च शिक्षा के लिए पेन्शन का 5 प्रतिशत देने का सन्कल्प 100 प्रतिशत पूर्ण हो जाता है। अपनी लिखित एवं प्रकाशित समय एवं कैरियर की पुस्तकों की सोफ्ट पी डी एफ प्रति उपहार स्वरूप 1000 विद्यार्थियों को वाट्सएप मेल पर देने का सन्कल्प 75 प्रतिशत से अधिक पूर्ण हो जाता है। प्रति वर्ष अपने जन्मदिन 26 दिसम्बर पर रक्तदान का पुण्य 65 वर्ष की आयु तक करता रहा। पर अब अधिक उम्र होने के कारण इस सन्कल्प को निभाना सम्भव नहीं है। जन्मदिन पर एक पौधा रोपण करने का सन्कल्प प्रति वर्ष पूरा हो जाता है। 2020 में भी इन सभी सन्कल्पो को पूर्ण करने का प्रयास करूंगा। साथ ही जन जागरूकता अभियान में परमाणु ऊर्जा संयंत्र पर लेख लिखने का सन्कल्प भी प्रति वर्ष निभ रहा है एवं जीवन की अंतिम साँस तक निभाने का प्रयास रहेगा। जीवन सन्ध्या में देश की कुछ सेवा तन मन धन से करते रहने के लिए सकारात्मक सन्कल्प पुरी ईमानदारी से निभा रहा हूँ एवं शेष जीवन में भी निभाते रहने का प्रयास रहेगा। Dileep Bhatia के नाम से मेरी फेसबुक टाइम लाइन पर इन सभी सन्कल्पो के निभाने के समाचार एवं फोटो प्रमाण स्वरूप देखे जा सकते हैं।
दिलीप भाटिया
सेवानिवृत्त परमाणु वैज्ञानिक
(19-12-2019 – 10:35)
(ई- अभिव्यक्ति श्री दिलीप भाटिया जी के प्रशंसकों के उद्गारों के माध्यम से ही आपको उनके व्यक्तित्वा एवं कृतित्व से रूबरू कराने का एक प्रयास है।)
प्रेम की प्रतिमूर्ति
दिलीप भाटिया जी के बारे में मुझे कोई एक वाक्य में कहने के लिए बोले तो मैं कहूंगा कि “वह बहुत ही श्रम शील, समाजनिष्ठ, प्रेम की प्रतिमूर्ति, समय के पाबंद एक ऐसे इंसान हैं, जो उम्र के इस पड़ाव पर होते हुए भी, जहां व्यक्ति सारे कार्यों को छोड़कर समाज व परिवार के ऊपर एक बोझ नजर आता है, आप एक युवा के बराबर की ऊर्जा सन्निहित किए हुए समाज को एक नई दिशा देने में प्रयत्नशील हैं”।
आपने अपनी संतान के लिए एक माता, पिता, मित्र और पथ प्रदर्शक की भूमिका निभाते हुए उन्हें भी समाज निर्माण के कार्य में संलग्न किया। बच्चों से आपका प्रेम इतना है कि उतना माता-पिता भी नहीं कर सकते। प्रेम व आत्मीयता बांटने के कारण ही सारे बच्चे आपको दिलीप अंकल के नाम से जानते हैं। सारे बच्चे आपको इसलिए भी पसंद करते हैं कि आपके द्वारा “अधिक अंक कैसे पाएं” एवं ” समय प्रबंधन कैसे करें” जैसे टिप्स के माध्यम से उन्हें परीक्षा में सफलता व कैरियर बनाने में मदद मिलती है।
गायत्री परिवार के रचनात्मक कार्यों से जुड़ने के बाद से आप गायत्री चेतना केंद्र में नियमित बाल संस्कार शाला का संचालन करने के साथ-साथ अन्य सामाजिक कार्यों को भी जारी रखे हुए हैं। बच्चों में संस्कार विकसित करने की दिशा में उनके प्रयत्नों को अखिल विश्व गायत्री परिवार, शांतिकुंज, हरिद्वार ने भी सराहा है। आपका पर्यावरण प्रेम किसी से भी छिपा नहीं है । चाहे वृक्ष लगाना हो, उनकी देखभाल करना हो या स्वच्छता अभियान का कार्यक्रम हो, आपने हमेशा से ही अपने आचरण द्वारा दूसरों को प्रेरणा देने का कार्य किया है। रक्तदान करके पीड़ितों की सेवा करना और उनकी जान बचाना तो आपके जीवन का एक लक्ष्य ही बन चुका है । शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति होगा जो इतनी बार रक्तदान कर चुका होगा। कोई बच्चा यदि धन के अभाव में पढ़ नहीं सकता तो यह आपसे देखा नहीं जाता। स्कूलों में निर्धन बच्चों को पाठ्य सामग्री मुहैया कराकर आपने हमेशा से ही उनकी सहायता की है। तमाम स्थानीय विद्यालयों में शिक्षा का स्तर ऊंचा उठाने व विद्यार्थियों हेतु अच्छी सुविधाएं मुहैया कराने हेतु आपने गुप्तदान करके अपनी भामाशाह भावना का परिचय दिया है।
कलम के माध्यम से अपनी भावनाओं को कागज पर व्यक्त करने हेतु आपने कई पुस्तकों का भी लेखन किया है। जहां “भीगी पलकें” जैसी लघुकथा पढ़कर आंखों में आंसू आ जाते हैं वहीं “छलकता गिलास” और “कड़वे सच” जैसी रचनाएं पढ़कर समाज के प्रति आपकी भावनाएं पाठकों को उद्वेलित कर जाती हैं। तमाम सामाजिक व सरकारी संस्थाओं द्वारा आपका सम्मान किया जाना इस बात का परिचायक है कि समाज के प्रति आपके अंदर कितनी पीड़ा है। बच्चों को संस्कारित करके व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण व समाज निर्माण के पथ पर आगे बढ़ते हुए, राष्ट्रनिर्माण के जिस लक्ष्य को प्राप्त करने में आप लगे हुए हैं,वह प्रशंसनीय ही नहीं अपितु हम सभी के लिए अनुकरणीय भी है। परमात्मा आपको उचित शक्ति व मार्गदर्शन देते रहें जिससे आप अपने लक्ष्य पर बढ़ते रहें,ऐसी मंगल कामना।
कैसा लगा।मन से लिखा है।आप कैसे हो।जन्मदिन मुबारक हो।
अवधेश नारायण वर्मा
पूर्व चेयरमैन व मुख्य कार्यकारी भारी पानी बोर्ड, परमाणु ऊर्जा विभाग, मुंबई
लोगों के दिलों को जीतने वाले दिलीप सरजी !
वर्षों पूर्व पत्र – मित्रता का चलन था। जो लोग पत्र – मित्रता में रुचि रखते थे , वे रेडियो या पत्रिकाओं पर अपना नाम, पता, शौक आदि का विस्तृत विवरण देते थे। मैं भी उस समय कई भाईयों और एक बहनजी से पत्र – मित्रता करता था। आगे चलकर सभी से सम्पर्क टूट गया। पहला कारण व्यापार में व्यस्तता और दूसरा कारण विषयों की कमतरतता। हर बार नया क्या लिखें? जो भी हो, पत्र – मित्रता में अदभुत आनंद आता था। पत्रों की जगह अब मोबाइल ने ले ली है।
मैं कई लोगों से मोबाइल पर वार्तालाप करता हूं। दिलचस्प बात यह है कि उन महानुभावों से मिलने का सुअवसर अभी तक नहीं मिला है। उन चुनिंदा लोगों में से एक महत्वपूर्ण हस्ती का नाम दिलीप भाटिया जी है। मेरी प्रिय पत्रिका `अहा ! ज़िंदगी´ में कभी – कभार उनके पत्र, लघुकथाएं छपती थी तो मैं उन्हें अवश्य पढ़ता था। मेरे हृदय में उनके प्रति आदरभाव , सम्मान था। एक आदर्शवादी व्यक्ति की छवि अंकित हो चुकी थी मेरे मन में। नागपुर (महाराष्ट्र) से प्रकाशित मासिक `सिन्ध जो शेर´ में उनकी लघुकथाएं और आलेख के साथ उनका फ़ोटो और मोबाइल नंबर देखकर मैं खुद को रोक नहीं सका। दरअसल मैं उन्हें सिंधी भाषी समझता था। उनसे बातचीत करने के बाद गलत फहमी दूर हो गई कि वे सजातिय नहीं हैं। लेकिन बातचीत का जो सिलसिला चल पड़ा वो निरंतर आज भी जारी है।
फ़ेसबुक पर उनके साथ जुड़ने के बाद पता चला कि वे सामाजिक सरोकार से जुड़े कार्यों में सदैव तत्पर रहते हैं। यही नहीं, सेवानिवृत्त के बाद, स्कूली बच्चों के प्रति उनका सहयोग, सदभावना और समर्पण भाव उनकी सहृदयता दर्शाता है। निस्वार्थ भाव से बच्चों का जो मनोरंजन और मार्गदर्शन करते हैं वो प्रशंसनीय , अभिनंदनीय, अनुकरणीय और वंदनीय है।
अब तो लगभग हर सप्ताह उनसे बातचीत होते रहती है। कभी – कभी, बार – बार फ़ोन करने के बावजूद वे फ़ोन नहीं उठाते हैं तो मन में घबराहट होती है कि कहीं उनकी तबियत तो नहीं बिगड़ी है। उनके साथ कोई रक्त सम्बंध तो नहीं है , मगर मेरे लिए वे भ्राताश्री के समान हैं। मेरी दिली इच्छा है कि वे सौ सालों तक सदैव चुस्त – दुरूस्त – तंदुरुस्त रहें। सौ वर्ष पूरे होने के उपलक्ष में केक काटकर जश्न मनाएं और मुझे बुलाऐं तो मुझे बेहद प्रसन्नता होगी। सरजी को जन्म दिन की ढेर सारी शुभकामनाएँ। आपकी कलम यूं ही बिना रुके, बिना थके, चलती रहे यही अभिलाषा है।
अशोक वाधवाणी ,गांधी नगर, महाराष्ट्र, संपर्क 9421216288 .
निःस्वार्थ सेवा
कई बार हम अपने आसपास ऐसे लोगों पर दृष्टिपात करना भूल जाते हैं जो साधारण परिवार में जन्म लेकर अपने बलबूते पर कुछ सामाजोपयोगी कार्य करते रहते हैं। कुछ मेरे बाबा यानि पिता सचिपति नाथकी तरह मौन रहकर बिना प्रचार के काम करते रहते हैं।
कुछ लोग अपने कार्यो को अपनो को बताकर तृप्ति महसूस करते हैं दोनों ही तरीके सही हैं। पर मेरे ख्याल आज के युग में दिलीप अंकल वाला तरीका ज्यादा कारगर हैं। क्योंकि इससे दूसरों से अपने समाजोपयोगी कार्यो के बारे में कहना नहीं पडता । अक्सर बुजुर्गोको अपना गुणगान करतेही सुना जा सकता हैं। केवल अपने व अपने बीवी बच्चो के लिये करना कोई बडी बात नहीं।
समाज सेवा हेतु घर बार भी सभी नहीं छोड सकते है। ऐसे में दिलीप अंकल का परिवार व समाज सेवा का संतुलन सराहनीय व अनुकरणीय हैं।
मुझे याद हैंकि मैंने इनसे पुरानी बाल पत्रिकाये स्कूल के बच्चो के लियो मांगी थी। इन्होने भिजवा दी। इनकी सुरेश सर्वहाराजी और हरदर्शन सहगलजी की बाल पत्रिकाये जब बाल साहित्य से अंजान व वंचित वर्ग के बाल पाठको अपने हाथों से दी तो उन की आंखो में जो भाव मुझे दृष्टिगोचर हुये वो अविस्मरणीय है। दरअसल दिलीप अंकल जैसा इंसान बनने के लिये ढृड इच्छा शक्ति व परोपकारी प्रवृति का होना आवश्यक हैं।
वैसे ये बेटियो से इतना स्नेह रखते हैं कि इन की मुह बोली बेटियों किसी से सच कहने से नहीं हिचकती । लाख बाधाओ के बावजूद अपनी राह वना लेती हैं।
इनसे जब फोन पर पहली बार बात हुई तो मेरा लेखन से नाता टूट ही चुका पर इनसे बात करके काफी हौसला मिला । जल्द ही राष्टीय स्तर की पत्रिकाओं व संकलन में मेरी रचनाये शामिल| हुई।
मेरी लिखी रकत दान व रुचि इनपर आधारित हैं।
हर साल मेरे जन्म दिन पर अंकल पॉस्टकार्ड पर शुभ कामनाये भेजते हैं। इस बार हम हमारे अंकल का जन्मोत्सव इतना जानदार ढंग से मना रहे हैं।
कितने लोगो को नसीव होता है ऐसा दिन। धन नाम तो बहुतो के पास होता है पर कितने उसका एक। हिस्सा गरीबो कीशिक्षा वास्ते लगा पाते हैं । अंकल स्वस्थ व सक्रिय रहे इसी मंगल कामना के साथ।
पूर्णिमा मित्रा बीकानेर
“मैं कुछ नहीं करता..ईश्वर मुझसे यह कराता है..”
मेरी पहली कहानी एक पत्रिका मे छपी..और उस कहानी पर प्रतिक्रिया स्वरूप सबसे पहला फ़ोन दिलीप सर का आया. थोड़ा झिझकते हुए मैंने बात शुरु की…राउतभाटा अनुसंधान केन्द्र और सर का परिचय सुनते ही लगा कितना प्रभावी व्यक्तित्व है और साथ ही सहजता भी लेकिन संकोचवश बस कहानी पर ही बात हो पायी।
दिलीप सर…जिन्हें मैंने कभी देखा नहीं… बस एक फ़ोन कॉल ने मुझे उनसे जोड़ा। बाद में मैं उनसे बात करने का मौका ढूँढती रही, और अपने दोपहर की नीद से समय निकालकर जब उन्होंने मुझसे बात की तो मै बहुत खुश हो गई। उनकी कई खूबियाँ मेरे सामने आयीं। उनकी सह्रदयता, दूसरों की मदद करने की इच्छा.. बालिका शिक्षा को प्रोत्साहित करना, अपने करियर को लेकर भ्रमित किशोरों की कॉउंसलिंग करना…उन्हें नयी राह सुझाना.. सब कुछ मेरे मन को भा गया..। आज कितने ऐसे उदारमना हैं जो दूसरों के लिये जीते हैं..!!!
यह बस सुनकर जब मैंने कहा कि, आप कितने अच्छे हैं.. और कितने अच्छे काम करते हैं..
इसके जवाब में उनका यह कहना कि, “मैं कुछ नहीं करता..ईश्वर मुझसे यह कराता है..” मेरे मन को छू गया..
अज्ञात प्रशंसक
दिलीप भाटिया-एकमिसाल
मेरे लिए परम हर्ष व उल्लास का पर्व है -साहित्य गगन के देदीप्यमान नक्षत्र, रिटायर्ड परमाणु वैज्ञानिक , समाज सेवी ,पर्यावरण प्रेमी परम आदरणीय, दिलीप भाटिया जी की जीवन यात्रा को रेखांकित, शब्दांकित करन,
बल्कि ये कहना अधिक समीचीन होगा कि सूर्य को दीपक दिखाने जैसा कृत्य है।
दिलीप भाटिया जी की कवितायें, कहानियाँ, लघुकथाएँ, पुस्तक समीक्षा, आलेख आदि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ती रहती, और तदन्नतर प्रभावित हुए बिना न रह पाती ।
आपसे जुड़ने का सौभाग्य लगभग दो वर्ष पूर्व प्राप्त हुआ ,जब *शुभतारिका* में प्रकाशित मेरी रचना को पढ़कर आपने सहृदयता से मुझे बधाई दी ।
मुझे अपार हर्ष की अनुभूति हुई ।
आजीवन कुशलतापूर्वक पारिवारिक दायित्व का निर्वाह करते हुए, समाजसेवा करते रहे, गरीब बच्चों की पढ़ाई में मदद करना, संस्कारशाला का आयोजन करना, कैरियर गाइडेंस, इससे महत्त्वपूर्ण अबतक 59 बार रक्तदान कर अनेक व्यक्तियों को जीवनदान देना, सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सामाजिक अवदान है ।
साहित्य को भी आपने अथक अवदान दिया है, साहित्यिक यज्ञ में आहुति दी है, साहित्य की अनेकों विधाओं में साधिकार लेखनी चलाई है, जिसका प्रमाण आपकी काव्यकृतियाँ स्वयं हैं।
अनगिन सम्मान आपकी साहित्य साधना की कहानी कह रहे हैं ।
अनेक विषम परिस्थितयों का सामना करते हुए भी आपने धैर्य बनाये रखा और जीवन के प्रति सदैव आशावादी दृष्टिकोण रखा।
आप किसी परिचय के मोहताज़ नहीं, न ही किसी सम्मान में वो सामर्थ्य है जो आपके व्यक्तित्त्व को माप सके, आप सहृदय संवेदनशील व्यक्ति हैं, आपका किंचित् भी अनुगमन कर सकूँ तो मुझे स्वयं पर गर्व होगा।
नतशीश नमन आपको
आपकी अनुजा नीलम सिंह
विशाल प्रेरक व्यक्ति का मित्र हूं
किसी भी व्यक्ति का व्यक्तित्व उसके कृतित्व से जाना जाता है। जैसा उसका कृतित्व होता है वैसा ही उसका व्यक्तित्व होता है । इस मायने में दिलीप भाटिया जी का व्यक्तित्व बहुआयामी और सामाजिक उपयोगी है।
जीवन में बिरले ही व्यक्ति होते हैं जो पूरी तरह समाज और बच्चे के लिए समर्पित होते हैं। दिलीप भाटिया जी वैसे ही समर्पित व्यक्ति हैं। एक इंजीनियर होते हुए भी इन्होंने अपना पूरा जीवन बच्चों के लिए समर्पित कर दिया है । यह अपनेआप में अनुकरणीय और अद्वितीय उदाहरण है।
एक लड़की के पिता होते हुए भी आप सभी बच्चों के अभिभावक का दायित्व बेहतर ढंग से निभा रहे हैं । जहां कहीं भी आपको बुलावा मिलता हैं या आप को समय मिलता है वहां और जरूरतमंद विद्यालय में पहुंचकर आप विद्यालय और बच्चों की सहायता को तत्पर रहते हैं।
विषय क्षेत्र कोई भी हो, आप बच्चों की सहायता करने को सदैव तैयार रहते हैं। इस कार्य को अंजाम तक पहुंचाने के लिए आप ने कई विद्यालयों में अनेक कार्यशाला की हैं। कई बच्चों को समय प्रबंधन का प्रशिक्षण दिया है । आपको जब भी कहीं से निमंत्रण या आमंत्रित मिलता हैं आप वहां तुरंत बच्चों के कार्य के लिए समर्पित भाव से पहुंच जाते हैं।
आज के आधुनिक युग में जहां माता-पिता अपने बच्चों को समय और श्रम नहीं दे पाते, वहां दिलीप भाटिया जी द्वारा दूसरे के बच्चों को समय और श्रम देकर उनके बहुगुणी विकास में अपना योगदान देना अपने आप में अनुकरण और प्रेरणादायक कार्य हैं। जिस का कोई मूल्य नहीं चुकाया जा सकता हैं ।
यही कार्य और उस की प्रेरणा आपको सदैव हंसमुख मिलनसार और एक और जवान व्यक्तित्व प्रदान करती हैं। इसकी झलक इनके कार्यों और व्यवहार देखी जा सकती हैं। मुझे गर्व है कि मैं दिलीप भाटिया जी जैसे विशाल प्रेरक व्यक्ति का मित्र हूं । और इन से प्रेरणा लेकर मैं भी छटांक मात्रा में दूसरों की रचनात्मक कार्य मे मार्गदर्शन प्रदान करने की कोशिश करता हूं । मैं दिलीप भाटिया जी के दीर्घायु स्वस्थ और प्रेरक जीवन की कामना करता हूं। ये अपना पूरा जीवन इसी तरह के सामाजिक उपयोगी कार्यों में अपने आप को लगाते रहे और सदैव स्वस्थ व दीर्धायु रहें । यही कामना हैं।
ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’, पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़, जिला -नीमच (मध्यप्रदेश) पिनकोड -45822
……..और बेटी की दृष्टि में
मेरी नजर में मेरे पापा विश्व के श्रेष्ठतम पापा हैं । वे अत्यंत सरल, सीधे, अधिकतर खामोश रहकर दूसरों के लिए, तन, मन, धन से निःस्वार्थ मदद करने वाले, स्वाभिमानी तथा बच्चों में “प्रिय दिलीप अंकल “ के नाम से जाने जाते हैं। सहनशक्ति से भरपूर परंतु दिल से कमजोर व नाजुक हैं परंतु मजबूत हैं। किसी की भी बात में जल्दी आ जाते हैं जिससे लोग उनका फायदा उठाते हैं। परंतु पापा यही कहते हैं कि फायदा भी उसी का उठाया जाता है, जो किसी काम का हो, कहकर मुस्कुरा कर बात खत्म कर देते हैं। समाज में वे लोकप्रिय लेखक एवं वैज्ञानिक (अनेक प्रतिभाओं के धनी) हैं। 16 साल से मेरे पापा कम, मेरी माँ ज्यादा हैं। किसी बात को मनवाने के लिए जब मैं जिद्द करती हूँ तो पहले पिता कि तरह कठोर होकर मना कर देते हैं फिर माँ की तरह हाँ कर देते हैं। लोगों से दिल से रिश्ते निभाते हैं। छोटी छोटी बातों से खुश हो जाते हैं, बड़ी-बड़ी मुसीबतों का सामना बहुत मजबूती से करते हैं। अपना दर्द कम ही कहते हैं। मेरी नजर में मेरे पापा मेरे गुरूर हैं। मैं अपने आप को पूरी तरह से सुरक्षित महसूस करती हूँ क्योंकि पीहर पक्ष में सिर्फ एकमात्र आप हैं जिनकी वजह से आपने माँ की कमी पूरी करने की अथक कोशिश की है। आपने मुझे समाज में सबके सामने स्वाभिमान से खड़ा होना सिखाया है। आप छोटे बच्चों (मेरी बेटी) के सबसे प्रिय दोस्त हैं। बच्चे आपसे बहुत खुश रहते हैं।
आप जो 16 साल से मेरे लिए त्याग कर रहे हैं उसके लिए शब्द कम हैं।
पूर्व राष्ट्रपति डॉ ए पी जे कलाम साहब से “आत्माराम पुरस्कार” प्राप्त कर चुके हैं । कडवे सच, छ्लकता गिलास, भीगी पलकें, समय, जीवन, कैरियर, कलाम साहब आदि पुस्तकें लिख चुके हैं। 59 बार रक्तदान कर चुके हैं। आपकी सबसे अच्छी बात मुझे यह लगती है कि आप गाँव के स्कूलों में गरीब बेटियों को पाठ्य-सामाग्री, कपड़े, फल, बिस्कित, फीस आदि वितरित करते हैं।
आपकी अगली किताब के लिए यह मेरे छोटे छोटे शब्द हैं। बाकी मैं आपकी तरह लेखिका नहीं जो बहुत साहित्यिक लिख सकूँ। 26 दिसंबर 2019 “Happy Birthday” की बहुत सारी बधाइयाँ “PAPA THE GREAT” को ।
आपकी बेटी डॉ मिली भाटिया
( ई – अभिव्यक्ति की और से श्री दिलीप भाटिया जी को जन्मदिवस की अशेष हार्दिक शुभकामनाएं )
सम्प्रति : दिलीप भाटिया
सेवानिवृत्त परमाणु वैज्ञानिक
238 बालाजी नगर रावतभाटा 323307 राजस्थान मोबाइल फोन नंबर 0 9461591498.
( ई- अभिव्यक्ति का यह एक अभिनव प्रयास है। इस श्रंखला के माध्यम से हम हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकारों को सादर नमन करते हैं।
हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार जो आज भी हमारे बीच उपस्थित हैं और जिन्होंनेअपना सारा जीवन साहित्य सेवा में लगा दिया तथा हमें हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं, उनके हम सदैव ऋणी रहेंगे । यदि हम उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को अपनी पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ी के साथ डिजिटल एवं सोशल मीडिया पर साझा कर सकें तो निश्चित ही ई- अभिव्यक्ति के माध्यम से चरण स्पर्श कर उनसे आशीर्वाद लेने जैसा क्षण होगा। वे हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत भी हैं। इस पीढ़ी के साहित्यकारों को डिजिटल माध्यम में ससम्मान आपसे साझा करने के लिए ई- अभिव्यक्ति कटिबद्ध है एवं यह हमारा कर्तव्य भी है। इस प्रयास में हमने कुछ समय पूर्व आचार्य भगवत दुबे जी,डॉ राजकुमार ‘सुमित्र’ जी, प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘ विदग्ध’ जी एवं श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आलेख आपके लिए प्रस्तुत किया था जिसे आप निम्न लिंक पर पढ़ सकते हैं : –
इस यज्ञ में आपका सहयोग अपेक्षित हैं। आपसे अनुरोध है कि कृपया आपके शहर के वरिष्ठतम साहित्यकारों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से हमारी एवं आने वाली पीढ़ियों को अवगत कराने में हमारी सहायता करें। हम यह स्तम्भ प्रत्येक रविवार को प्रकाशित करने का प्रयास कर रहे हैं। हमारा प्रयास रहेगा कि – प्रत्येक रविवार को एक ऐसे ही ख्यातिलब्ध वरिष्ठ साहित्यकार के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से आपको परिचित करा सकें।
आपसे अनुरोध है कि ऐसी वरिष्ठतम पीढ़ी के अग्रज एवं मातृ-पितृतुल्य पीढ़ी के व्यक्तित्व एवम कृतित्व को सबसे साझा करने में हमें सहायता प्रदान करें।
☆ हिन्दी साहित्य – डॉ. रामवल्लभ आचार्य ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆
(आज ससम्मान प्रस्तुत है वरिष्ठ हिन्दी साहित्यकार डॉ. रामवल्लभ आचार्य जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विमर्श श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र ‘ जी की कलम से। मैं श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र ‘ जी का हार्दिक आभारी हूँ ,जो उन्होंने मेरे इस आग्रह को स्वीकार किया। विविध पृष्ठभूमि के साथ अपने बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी डॉ रामवल्लभ आचार्य जी हम सबके आदर्श हैं। )
(संकलनकर्ता – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ )
चार मार्च उन्नीस सौ तिरेपन के दिन भोपाल में जन्में डा. वल्लभ आचार्य जी के पिताजी शहर के प्रतिष्ठित संस्कृतज्ञ,ज्योतिषी व कर्मकांडी विद्वान् थे तथा श्री राधा वल्लभ मंदिर के पुजारी एवं शासकीय शिक्षक थे।
आपने बी. एस. सी. तथा बी. ए. एम. एस.(बेचलर ऑफ आयुर्वेद विथ मॉडर्न मेडिसिन एंड सर्जरी) की उपाधि अर्जित की तथा १९७८ से चिकित्सा व्यवसाय में संलग्न हैं ।आप नेशनल. इन्टीग्रेटेड मेडिकल एसोसिएशन के जिला शाखा सचिव, प्रांतीय सचिव, कोषाध्यक्ष, राष्ट्रीय संयुक्त सचिव, एवं अनेक प्रांतीय व राष्ट्रीय समितियों के सदस्य, संयोजक व चेयरमेन रहे हैं। अनेक चिकित्सा शिविरों के आयोजन, धर्मार्थ चिकित्सा केन्द्रों के संचालन तथा समाज सेवा की अन्य गतिविधियों में संलग्न रहे डा. आचार्य को राज्य स्तरीय धन्वन्तरि सम्मान, डा. व्ही.पी. शर्मा मेमोरियल गोल्ड मेडल अवार्ड तथा लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड प्रदान किये गये । आप वर्ष १९९९ से पारिवारिक मासिक स्वास्थ्य पत्रिका “आरोग्य सुधा” का संपादन एवं प्रकाशन कर रहे हैं।
छात्र जीवन से ही डा. आचार्य की रुचि साहित्य और पत्रकारिता में रही। आपने राष्ट्र का अह्वान, गोरा बादल, महाकौशल तथा जागरण के संपादकीय विभागों में कार्य किया तथा आपके धर्म, आध्यात्म, विज्ञान, साहित्य एवं संस्कृति संबंधी लेखों तथा कविता, गीत, व्यंग्य, कहानी, साक्षात्कार तथा अन्य रचनाओं का प्रकाशन धर्मयुग, हिन्दुस्तान, सरिता, मुक्ता, चंपक, बाल भारती, कल्याण, नव भारत, नई दुनिया, भास्कर, जागरण सहित अनेक पत्र पत्रिकाओं में हुआ ।
आप आकाशवाणी एवं दूरदर्शन द्वारा अनुमोदित गीतकार हैं । आपके लिखे गीतों, संगीत रूपकों, नाटक-प्रहसन, टेलिफिल्म व धारावाहिकों का प्रसारण आकाशवाणी व दूरदर्शन के विभिन्न केन्द्रों, राष्ट्रीय व विदेश प्रसारण सेवा द्वारा किया गया। आपने फिल्म “अहिंसा के पुजारी” के लिये गीत तथा अनेक नाटकों व धारावाहिकों के लिए शीर्षक गीत भी लिखे । प्रसिद्ध गायकों यथा- हरि ओम शरण, अनूप जलोटा, अनुराधा पौड़वाल, उदित नारायण, रूप कुमार राठौर, कल्याण. सेन, घनश्याम वासवानी, राजेंद्र काचरू, शेवन्ती सान्याल, प्रभंजय चतुर्वेदी, प्रकाश पारनेरकर, आदि के स्वरों में आपके भक्तिगीतों के कैसेट्स व सीडीज वीनस, टी सीरीज, ई एम आई आदि कंपनियों ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जारी किये। आपके भजनों को साध्वी ऋतंभरा सहित अनेक प्रवचनकारों और भजनमंडलियों द्वारा गाया जाता है। आपके देशभक्ति गीत व सरस्वती वंदना का गायन अनेक विद्यालयों में किया जाता है । राष्ट्रीय स्वतंत्रता के इतिहास पर लिखे आपके संगीत रूपक “मुक्ति का महायज्ञ” की दृश्य-श्रव्य प्रस्तुति भारत भवन सहित देश के अनेक मंचों पर की जा चुकी है।
डॉ. आचार्य की प्रकाशित पुस्तकें हैं – “राष्ट्र आराधन”, “गीत श्रंगार”, “सुमिरन”, गाते गुनगुनाते”, “अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो” तथा “पांचजन्य का नाद चाहिये” (सभी गीत संकलन)। “शब्दायन” व “गीत अष्टक” (द्वितीय) सहित अनेक संकलनों में भी आपकी रचनायें प्रकाशित हुई। आपको “अभिनव शब्द शिल्पी”, ” राष्ट्रीय नटवर गीत सम्मान”, ” साहित्य श्री”, “तुलसी साहित्य सम्मान”, “जहूर बख्श बाल साहित्य सम्मान”, “चन्द्र प्रकाश जायसवाल बाल साहित्य सम्मान”, “राजेन्द्र अनुरागी बाल साहित्य सम्मान”, “विशिष्ट साधना सम्मान” एवं “भारत भाषा भूषण” सहित अन्य सम्मान प्राप्त हुए हैं । साहित्य सागर पत्रिकाद्वारा आप पर विशेषांक का प्रकाशन किया गया। आप भोपाल की प्रथम साहित्यिक संस्था “कला मंदिर” के अध्यक्ष, अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मेलन के जिलाध्यक्ष, प्रांतीय महामंत्री एवं राष्ट्रीय सचिव के दायित्व का निर्वाह कर चुके हैं तथा सम्प्रति मध्य प्रदेश लेखक संघ के प्रादेशिक अध्यक्ष हैं।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है ☆ डॉ राम दरश मिश्र जी से डॉ.भावना शुक्ल की बातचीत☆.
हिंदी के प्रतिष्ठित साहित्यकार डॉ रामदरश मिश्र जी का जन्म 15 अगस्त 1924 को हुआ। वे एक समर्थ कवि, उपन्यासकार और कहानीकार हैं। किसी भी वाद के कृत्रिम दबाव में न आकर उन्होंने अपना लेखन सहज ही परिवर्तित होने दिया।
हम अनुग्रहित हैं डॉ भावना शुक्ल जी के जिन्होंने हिंदी साहित्य के मूर्धन्य साहित्यकार डॉ राम दरश मिश्र जी के साक्षात्कार को ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का अवसर प्रदान किया.)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 22 साहित्य निकुंज ☆
☆ डॉ राम दरश मिश्र जी से डॉ.भावना शुक्ल की बातचीत☆
(एक लेखक की हैसियत से कविता ही मेरे बहुत निकट रही )
हिंदी साहित्य के वरिष्ठ और श्रेष्ठ साहित्यकार, विविध विधाओं में सिद्धहस्त, पुरोधा पीढ़ी के साहित्यकार, आलोचक की दृष्टि रखने वाले, बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी डॉ. रामदरश मिश्र जी जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन रचना-कर्म में पूरी सक्रियता और मनोयोग से लगाया और जो भी हिंदी साहित्य को दिया वो प्रेरणादायी है।
आपने अनेक कविता संग्रह ,कहानी संग्रह ,अनेक उपन्यास ,समीक्षा,ललित निबंध,यात्रा वृतांत ,डायरी ,आत्मकथा ,आलोचना, संस्मरण ,संचयन संपादन आदि हिंदी साहित्य को भेंट किये। आपके लेखन में गाँव की मिटटी की गंध समाहित है। आप विविध विधाओं के निष्णात आज आयु के दसवें दशक में भी गति शील है।
अनेक पुरस्कार से सम्मानित मिश्र जी को अभी हाल ही में “आग की हँसी” के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया।
जब मै उनसे मिली तो मुझे ऐसा लगा जैसे मेरा सपना साकार हो गया हो। जिन्हें मैंने बचपन में पढ़ा और फिर पढाया आज मै उनका साक्षात् दर्शन कर रही हूँ और उनकी कविता उनके मुख से सुन रही हूँ। ये मेरे लिए बहुत हो गौरव की बात है।प्रस्तुत है उनके साथ की गई बातचीत के अंश …………
डॉ.भावना शुक्ल – अभी-अभी आपने बताया आपका गज़ल संग्रह आ रहा है हम यहीं से शुरुवात करते है आप हमें नए ग़ज़ल संग्रह में से कुछ अंश ग़ज़ल के सुनाइये।
डॉ राम दरश मिश्र – भावना बेटी मैंने बातों के दौरान कविताये तो सुना डाली पर ग़ज़ल नहीं सुनाई। मेरे मन की बात कही| मुझे बहुत पसंद है …………
याद आना था न ,पर याद आया ,
एक भूला-सा पहर याद आया।
बेचते-बेचते गया थक मै ,
आज बाज़ार में घर याद आया।
पाया क्या-क्या न मगर क्या खोकर,
भूल बैठा हूँ, ठहर , याद आया।
भूल बैठा था जिसे पा मंजिल,
कच्चे रास्तों का सफ़र याद आया।
छाँह में पलते हुए अश्मों की ,
अपने आँगन का शजर याद आया।
कोई है जो कि भूला-भूला सा,
फूल –सा जिन्दगी भर याद आया।
डॉ.भावना शुक्ल – बहुत ही शानदार ग़ज़ल सुनाई। यथार्थ का बहुत ही उम्दा चित्रण किया है। आप सुदीर्घकाल से साहित्य साधना कर रहे ,आप अनुभव संपन्न हैं| सबसे पहले हम जानना चाहेंगे कृपया आप हमें काव्य भाषा के सन्दर्भ में कुछ बताइए ?
डॉ राम दरश मिश्र – मैंने अपनी सृजन यात्रा कविता से ही प्रारंभ की थी और आज तक उसे शिद्दत से जी रहे हैं। मेरा पहला काव्य संग्रह ‘पंथ के गीत’ 1951 में प्रकाशित हुआ था। तब से आज तक कई संग्रह आ चुके हैं। इनमें कुछ ‘बैरंग-बेनाम चिटठियां’, ‘पक गई है धूप’, ‘कंधे पर सूरज’, ‘दिन एक नदी बन गया’, ‘जुलूस कहां जा रहा है’, ‘आग कुछ नहीं बोलती’ और ‘हंसी होंठ पर आंखें नम हैं’ जैसी बेहतरीन रचनाएं शामिल हैं।
कविता की भाषा सहज होनी चाहिए।भाषा ऐसी हो जिसमे खुलेपन की आड़ लेकर ‘कविता’को नग्न न किया जाये।अनेक कवि अपनी सहज भाषा के साथ फैंटेसी की चमक पैदा करते हैं।इसके साथ ही लोक गाथाओं का सानिध्य भी पा लेते हैं।एक बहुत मूल्यवान प्रसंग है।फ़िराक साहब का साक्षात्कार कुछ लोग ले रहे थे किसी से उनसे पूछा आपकी दृष्टि में विश्व का सबसे महँ ग्रन्थ कोण-सा है ?फ़िराक जी ने उत्तर दिया,’रामचरितमानस’|क्योकि रामचरितमानस सबसे सहज ग्रन्थ है और सहज लिखना बहुत कठिन होता है ;और उस जमाने के सारे भक्त कवि बड़े सहज थे।
डॉ.भावना शुक्ल – हम आपके लेखन प्रेरणा के सन्दर्भ में जानना चाहेंगे ?
डॉ राम दरश मिश्र – जब मै छठी कक्षा में था तब मुझे इतना महसूस हुआ था की मैंने कविता लिखी है।कविता मेरे भीतर की उपज थी।लेकिन कई वर्षों तक शिक्षा के क्रम में उस देहाती परिवेश में ही रहा जिनमे नए साहित्य की सर्जना का कोई वातावरण नहीं था।बस में अपनी गति से लिखता जा रहा था छन्द अलंकार आदि का अभ्यास कर रहा था और हिंदी साहित्य के जो गुरु थे उनसे प्रोत्साहन प्राप्त कर रहा था।कविता में और भाषा में जो निखर स्वत: आ रहा था,वो आ रहा था लेकिन मुझे ठीक ज्ञान नही था कि उस समय कविता का मिजाज और भाषा का रूप कैसा है।सन १९४५ में बनारस पहुँचने के बाद मैंने अपने को नए साहित्यकार के रूप में पाया और वहाँ से मेरी काव्य यात्रा प्रारंभ हुई।
साहित्य लेखन के लिए जिस संवेदना एवं भावुकता की आवश्यकता होती है। वह मेरी माँ में और मेरे पिताजी में थी।लोक साहित्य के साथ इन दोनों का गहरा जुडाव था।मुझे इन दोनों से ही प्रेरणा मिली जिसके आधार पर मेरी साहित्यिक रचना शुरू हुई और धीरे –धीरे परिवेश के प्रभाव में उसमे गति आ गई ,नई-नई दिशाएं खुलती गई। मेरी रचना को निखारने में मेरे गुरुओं और साहित्यिक मित्रों ने अपनी भूमिका निभाई।
डॉ.भावना शुक्ल – कविता की आलोचना के विषय में आपके क्या विचार है ?गुटबाजी की राजनीति से कविता पर क्या प्रभाव पड़ा है ?
डॉ राम दरश मिश्र – हिंदी साहित्य जगत में आलोचकों ने कविता की शानदार आलोचना लिखी है और हिंदी आलोचना को समृद्ध किया है।साहित्य में समरसता का माहौल देखते ही देखते न जाने कहाँ को गया।पिछले पांच -छह: दशकों में आलोचकों की गुटबाजी ने हिंदी कविता को काफी नुक्सान पहुँचाया है।आलोचकों ने सही व निष्पक्ष आलोचना लिखने के स्थान पर टुच्ची राजनीति को बढ़ावा दिया है। पुराने और नए कवियों को आगे बढाने और पीछे ढकेलने की कोशिश में लगे रहते हैं। कभी-कभी बिना पढ़े ही सरसरी तौर पर कविता देखी और आलोचना लिख दी, क्योंकि कवि को अधिक भाव नहीं देना है।और कभी कविताओं का अतिरंजित मूल्यांकन करते है।मुझे ऐसे आलोचकों और उनकी आलोचना पर आश्चर्य होता है जिन्हें निराला, दिनकर और मुक्तिबोध से भी अधिक वजनदार और महत्वपूर्ण लगती है युवा पीढी की कवितायेँ।
डॉ.भावना शुक्ल – क्या पुरस्कार लेखन की उत्कृष्टता का प्रमाण है ?
डॉ राम दरश मिश्र – हाँ अच्छे लेखन को सम्मान मिलता है और सहज भाव से मिलता है, तो सम्मान और लेखक दोनों गौरवान्वित होते हैं।सम्मान उत्कृष्ट लेखन के लिए एक तरह से सामाजिक तज्ञता है।लेकिन यह भी सही है कि आजकल सम्मान और पुरस्कार को पाने के लिए लेखकों में दौड़ धूप मची रहती है और अनेक तिकड़म भिडाये जाते है।ऐसी स्थिति में यदि सम्मान या पुरस्कार मिल भी जाता है तो अच्छा नही लगता ,लोगो के मन में आदर भाव नहीं रह जाता।
डॉ.भावना शुक्ल – आप अपनी विधागत रचना प्रक्रिया और रचनाओं के सन्दर्भ में कुछ कहना चाहेंगे ?
डॉ राम दरश मिश्र – मैं आपको बेटी एक बात बताना चाहता हूँ कि मैंने लिखने की प्रक्रिया के विषय में कुछ भी नही सोचा, जो मन में आया लिखता चला गया।मेरे जीवन में बहुत से अनुभव है उसे मैं में डायरी में उतार रहा हूँ।मैंने यह अनुभव किया की मैंने अपनी शक्ति भर साहित्य रच चुका हूँ और रचता जा रहा हूँ।
मै ‘अपने लोग ‘को अपना सर्वश्रेष्ठ उपन्यास मानता हूँ ‘और जल टूटता हुआ’ को भी इसी के समकक्ष रखता हूँ।मै कहना यह चाहता हूँ मै अपने हर प्रकार के लेखन से संतुष्ट हूँ।उपन्यास और आत्मकथा भी दी साहित्य को।एक लम्बी आत्मकथा है उपन्यास के रूप में जिसमे बचपन से लेकर आज तक के समय में व्याप्त परिवेश की विविधता का चित्रण हुआ है।यह मेरी राम कहानी नही है ,यह एक सामाजिक दस्तावेज भी है।श्री लाल शुक्ल ने एक बार कहा था अरे मिश्र जी , तुम्हारी आत्मकथा तो शिक्षा जगत का इतिहास बन गई है।अगर आत्मकथा अपने जीवन की घटनाओं और प्रसंगों की कहानी –मात्र है,तब तो वह गौण मानी जाएगी।
मैंने गीत, ग़ज़ल, छोटी कविताओं के साथ-साथ बड़ी लम्बी कवितायेँ भी लिखी है मुझे अब तड़प नहीं है कि मै यह नहीं लिख पाया वो नही लिख पाया और न ही की मै कल महान लेखक बनूँगा। मैं अपने लेखन से संतुष्ट हूँ।और आज भी लिख रहा हूँ।
डॉ.भावना शुक्ल – आपको लेखन के कारण कोई संघर्ष करना पड़ा ?
डॉ राम दरश मिश्र – मुझे अपने व्यक्तिगत जीवन में लिखने के कारण संघर्ष नहीं करना पड़ा, वरन इसके विपरीत सम्मान और यश मिलता रहा। हाँ, लेखक बनने के लिए मुझे बहुत संघर्ष करना पड़ा। शुरू के दिनों में भेजी गई कवितायेँ छपती नहीं थी। मैंने हार नहीं मानी। मेरे गुरुदेव हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने मुझसे कहा ,” तुम पान नहीं खाते हो, सिगरेट नहीं पीते हो , दूसरे खर्चे भी तुम्हारे नहीं हैं, इसलिए तुम डाक खर्च करो और भेजा करो।एक दिन तुम्हारी कवितायेँ जरुर छपेंगी।” गुरुदेव की सीख मैंने शिरोधार्य कर ली ।डाक से कवितायेँ पत्रिकाओं को भेजता रहा। मेरे संघर्ष का प्रतिफल साहित्य समाज के सामने है।
डॉ भावना शुक्ल – आपने विविध विधाओं में लिखा किस विधा ने आपको बहुत आकर्षित किया ?
डॉ राम दरश मिश्र – जी हाँ मैंने विविध विधाओं में लेखन किया है है और सभी मुझे प्रिय भी है और आकर्षित भी करती है साहित्यकार की हैसियत से, लेकिन एक लेखक की हैसियत से कविता ही मेरे बहुत निकट रही है।लेखन का प्रारंभ कविता से ही किया, उसके बाद कहानी में आया, फिर उपन्यास में आया ओए गाहे –बगाहे अनेक विधाओं में लिखा। एक बात की है रेखांकित करने की है कि बहुत से लोगों ने कविता से शुरुवात की और कथा में आकर कविता को छोड़ बैठे। जब वे लोग कहते है कि वे कविता से कहानी में आया, तो मै कहता हूँ मै कविता के साथ आया। कविता मेरी आधोपांत चलती रही और उसके साथ कथा साहित्य भी चलता रहा।वह मुझसे बाद में जुदा लेकिन यह कविता की तरह ही प्रिय रहा। खास करके उपन्यास तो मुझे बहुत प्रिय रहा,क्योकि जो बात मै कविता –कहानी में नहीं कह सकता , वह उपन्यास में मैंने कही।जीवन को जिस समग्रता से कोई और विधा नहीं देख पता।एक बार जब मै उपन्यास में फंसा तो फंसता ही गया और लगभग ग्यारह उपन्यास आ गये। एक बात और है कि कविता मुझे प्रिय है और कविता मेरी हर विधा के साथ लगी रही। चाहे निबंध लिख रहा हूँ , चाहे कहानी लिख रहा हूँ ,चाहे मेरी आत्मकथा हो, कविता का एक जो अपना दबाव या प्रसन्न प्रभाव है ,मेरे अन्य लेखन पर भी रहा है।कविता ही ने मुझे बहुत आकर्षित किया है।
डॉ.भावना शुक्ल – नवोदित रचनाकारों को आप कुछ मार्गदर्शन करेंगे ?
डॉ राम दरश मिश्र – मार्गदर्शन तो दो तरह से होता है। एक तो यह कि आप जो लिख रहे हैं ,वह अपने समय के साथ हो और आने वाली पीढ़ियों को महसूस हो कि आज के लेखन का यह सही स्वरुप हो सकता है। यानी कि वे आपके साहित्य को पढ़कर मार्ग पाएँ।और इस सन्दर्भ में एक बात बड़े महत्त्व की है। आपकी सर्जना और आपके विचार ऐसे हो जो नई पीढ़ियों को किसी तरह बांधते नहीं हों। ऐसा न हो कि आप उन्हें एक ख़ास विचार धारा में, एक ख़ास तरह के शिल्प में जकड दें और वे उसी जकडबंदी में मुबतला होकर अपना रचना कार्य करते रहें।
दूसरा रास्ता यह होता है कि नए लेखक आपसे मिलें। अपनी रचनाएं दिखाएँ आपको। आप अपनी रचना का सही-सही आकलन करके उनको उनकी शक्ति और अशक्ति की पहचान कराएँ। या उनकी रचना के प्रकाशन और प्रचार के लिए यथा संभव कुछ करें। मेरे पास जो भी नवोदित आते है मै उन्हें खुले मन से सुनता हूँ उन्हें मार्गदर्शन करता हूँ।बस मै एक बात और कहना चाहता हूँ जितना पढोगे उतना ही लेखन निखरेगा।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है उनके पिताश्री एवं मेरे गुरवर डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र ” जी के जन्मदिवस पर उनकी स्मृतियाँ। )
☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र” जन्मदिवस विशेष – पापा जी यानी मेरे पिताजी: डॉ.सुमित्र ☆
पिता को पापा कहना कब शुरू किया यह याद नहीं . लगता है यह संबोधन तुतलाहट से निकला होगा. हम भाई-बहनों को कभी-कभार डांट जरुर पड़ी है, मार नहीं. शायद एक आद बार भैया के कान पकड़े गए हों. गर्व यह कि हमें पापा जी का लाड़ दुलार तो मिलता रहा किंतु, उन की व्यस्तता के कारण हमारी स्कूल की देखभाल का जिम्मा ममतामयी मां ही संभालती रहीं .
घर का वातावरण धार्मिक, साहित्यिक सांस्कृतिक था. घर में गोष्ठियां होती. हम शालीन श्रोता होते, सुनते सुनते सो जाते. कुछ बड़े होने पर तैयारियों में हाथ बटाने लगे. फिर जाना कि हमारे पिता कवि लेखक पत्रकार और शिक्षक हैं. मां भी शिक्षिका हैं लेखिका है.
(डॉ। राजकुमार तिवारी “सुमित्र” एवं उनकी बेटी डॉ भावना शुक्ल)
माँ बताती थी– भावना तुम्हारा जन्म एल्गिन अस्पताल में हुआ था. और पहले ही दिन पिताजी के कवि मित्र सरदार सरवण सिंह पैंथम ने तुम्हारे हाथों में चांदी का रुपया देकर शुभाशीष दिया था. पिता का परिचय संसार व्यापक सभी वरिष्ठ साहित्यकारों का स्नेहाशीष उन्हें प्राप्त था. कविवर नर्मदा प्रसाद खरे, पंडित भवानी प्रसाद तिवारी, झंकनलाल वर्मा छेल जी, मनोज जी, श्रीबाल पांडे, गोविंद तिवारी उन्हें पुत्रवत मानते थे.
बाल्यकाल में ही मुझे महीयसी महादेवी वर्मा, डॉक्टर रामकुमार वर्मा, सेठ गोविंददास, व्यौहार राजेंद्र सिंह, कालिका प्रसाद दीक्षित जानकी वल्लभ शास्त्री, विद्यावती कोकिल, सरला तिवारी, शकुंतला सिरोठिया, रत्न कुमारी देवी आदि के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ.
घर की गोष्ठियों में रामकृष्ण दीक्षित विश्व, तरुण जी, पथिक जी, मधुकर खरे, ओंकार तिवारी, अजय वर्मा, डॉक्टर नरेश पांडे, देशभक्ति नीखरा, राज बिहारी पांडेय और चाचा गणेश प्रसाद नामदेव का स्नेह प्राप्त हुआ.
पिताजी शिक्षक भी रहे, प्राइमरी से लेकर महाविद्यालय-विश्वविद्यालय तक के. लेकिन कैसे शिक्षक? छात्र छात्राओं की ना तो ट्यूशन की ना उन से नाम इकराम लिया. बल्कि साल में एक माह का वेतन उनपर ही खर्च कर देते थे.
साथी शिक्षक ऐसे सगे कि क्या होंगे? सदा भाईचारा रहा.
पिताजी प्रारंभ से ही पत्रकारिता, विशेष रूप से साहित्य पत्रकारिता से जुड़े रहे. पहले अंशकालिक फिर पूर्णकालिक. नारी निकुंज के संपादन के समय में बारह-चौदह घंटे प्रेस में बिताते.
प्रतिष्ठितों को मान और नवोदिता को प्रोत्साहन इनका चलाएं एक संबोधन यही उनका संकल्प रहा. प्रेस में आने वालों की चाय तक कभी नहीं पी जो भेंट आती उसे बटवा देते.
सभी साहित्यकारों और संस्थाओं से जुड़ाव था. मित्र संघ की विशिष्ट गोष्ठियां, हिंदी मंच भारतीय अन्य आयोजन संचालनकर्ता यही होते. बहुत प्रचलित हुआ” एवं प्रयोजन|
गोष्ठी, आयोजन स्मारिका और सतत लेखन रात के दो-तीन बजे तक जागरण | सुबह फिर चुस्त-दुरुस्त|
पिता के मित्रों की संख्या बहुत है किंतु विरोधी स्वर मना रहे हो ऐसा भी नहीं. किंतु, उन्होंने कभी भी ना तो किसी के विरुद्ध कुछ कहा ना लिखा. उनका कहना है- समय उत्तर देगा|
पिताजी राज्य श्री परमानंद पटेल के प्रिय पात्र थे. लोगों ने उड़ाया की सुमित्र जी खूब माल काट रहे हैं जब की असलियत यह है उन्होंने कभी उनसे किसी भी प्रकार का आर्थिक लाभ नहीं लिया. बीमार होते हुए भी पटेल साहब अपनी पत्नी के साथ हमारे घर पधारे मेरी शादी में, पिताजी भेंट लेने को भी राजी नहीं थे. बामुश्किल उन्होंने शगुन की एक साड़ी स्वीकार की.
पिताजी का कहना है कि हमारी और कुछ तो नहीं है—– न लेने की शक्ति और संकल्प जरूर है.
व्यस्त दिनचर्या में पिताजी कब पढ़ लेते हैं कब लिख लेते हैं पता ही नहीं चलता.
वह केवल अपने ही नहीं पढ़ते ज्ञान का वितरण करते हैं, अधिकृत गाइड नहीं है. किंतु उन्होंने पीएचडी और एमफिल के 30-35 छात्र-छात्राओं का सामग्री प्रदान की .
पिता के जीवन का संघर्ष उनकी मां के देहावसान से शुरू हुआ और अब आयु के आठवें दशक में प्राण प्रिय पत्नी का वियोग, ऊपर से स्वस्थ, भीतर से टूटे. भैया हर्ष, भाभी मोहिनी उनकी देखभाल में तत्पर हैं. प्रियम उनकी जीवनशक्ति है. हम लोग फोन के माध्यम से संपर्क बनाए रहते हैं.
संघर्षपूर्ण जीवन जीने वाले पिता के स्वभाव में तुनकमिजाजी है. क्रोध कम होता है. आता है तो भयंकर. अच्छी बात यह कि पूरा जल्दी उतर जाता है.
स्मरण शक्ति बहुत अच्छी है किंतु, भूल जाते हैं कि कल कौन आया था, चश्मा या किताब कहां रखी है.
यात्रा प्रिय रही है.
पिता की दुर्बलता को शक्ति बनकर संभालती थी मेरी मां.
मैं अपने आप को बहुत ही भाग्यशाली मानती हूँ, मुझे विरासत में साहित्यिक निधि मिली. बचपन से मैंने साहित्य की उंगली पकड़कर भी चलना सीखा है. लेकिन तब से लेकर आज तक जो कुछ भी लेखन किया है बिना पिता को सुनाएं दिखाएं रचना पूर्ण नहीं होती. आज भी गलतियों पर डांट पड़ती है.
मुझे गर्व है कि मैं साहित्यकार पिता डॉक्टर सुमित्र और साहित्य साधिका मां स्मृति शेष डॉक्टर गायत्री तिवारी की बेटी हूँ.