हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ साहित्यिक यात्रा – डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप प्रत्येक गुरुवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

☆ जीवन यात्रा ☆ साहित्यिक यात्रा – डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

(आज प्रस्तुत है ई-अभिव्यक्ति के सम्माननीय वरिष्ठ साहित्यकार डॉ राकेश ‘चक्र’ जी की सम्पूर्ण साहित्यिक यात्रा )

नाम- डॉ राकेश ‘चक्र’ ( अभिलेखों में नाम डॉ राकेश कुमार गुप्त )

जन्मतिथि – 20 जुलाई 1954

पिता का नाम – स्व.धीरज लाल जी

माता का नाम – स्व.द्रोपदी देवी जी

पत्नी का नाम – श्रीमती रेनू गुप्ता जी

जन्म स्थान-  ग्राम – शाहजहांपुर, पोस्ट – जलाली, जिला अलीगढ़ ,उत्तर प्रदेश।

शिक्षा- एम.ए ,एलएलबी, एमडी( एक्यूप्रेशर) ,योग विशेषज्ञ।

कार्यक्षेत्र- सेवानिवृत्त इंटेलीजेंस अधिकारी उत्तर प्रदेश पुलिस। वर्तमान में एक्यूप्रेशर और योग द्वारा निशुल्क चिकित्सा और समाज सेवा। विद्यालयों में निशुल्क मोटिवेशनल आख्यान।

सृजित विधाएँ – गद्य, पद्य, बाल साहित्य , प्रेरणाप्रद साहित्य, स्वास्थ्य , योग और एक्यूप्रेशर आदि।

कुल प्रकाशित मौलिक पुस्तकें–

नौ दर्जन से अधिक ( 116 ) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह। प्रकाशित प्रौढ़ मौलिक कृतियाँ तीन दर्जन से अधिक

1- श्रीमद्भागवत गीता दोहाभिव्यक्ति ( गीता का दोहों में अनुवाद) प्रकाशन वर्ष 2020 जीएस पब्लिशर, डिस्ट्रीब्यूटर दिल्ली।

गीत-नवगीत , मुक्तक – संग्रह

1. ( सम्मिलित गीत – मुक्तक ) – मुक्त – निर्झर ( मेरे प्रिय गीत और मुक्तक ) प्रकाशन वर्ष 2020 ,ओम पब्लिशिंग कंपनी दिल्ली।

गीत – नवगीत – संग्रह

1.चरवाहों का चक्रव्यूह प्रकाशन वर्ष 1098 शिल्पायन प्रकाशन दिल्ली।

2. एकता के साथ हम प्रकाशन वर्ष 2012 यतीन्द्र साहित्य प्रकाशन भीलवाड़ा राजस्थान।

3.धार अपनी खुद बनाना प्रकाशन 2016 साधना पब्लिकेशन दिल्ली तथा वर्ष 2018 लवकुश सिंह मऊ उत्तर प्रदेश।

4.उजाले के लिए प्रकाशन वर्ष 2019 देशराज एंड सन्स दिल्ली।

गजल – संग्रह

1. प्रेम की भाषा ही हिंदुस्तान है प्रकाशन वर्ष 2004 नवचेतन प्रकाशन दिल्ली।

2.मेरी गजलें मेरा प्यार प्रकाशन वर्ष 2015, इंडिया डिजिटल पब्लिशर्स दिल्ली।

3 . मेरी प्रिय गजलें प्रकाशन वर्ष 2020 ओम पब्लिशिंग कंपनी दिल्ली (पुरस्कार प्राप्त कृति)

मुक्तछंद कविता-संग्रह

1.मेरे देश की थाती- प्रकाशन वर्ष 2003,निर्मल पब्लिकेशन दिल्ली।

2.बुद्ध की तरह – प्रकाशन वर्ष 2020 , केशव बुक्स दिल्ली।

3 . क्योंकि तुम ईश्वर हो उपरोक्तानुसार।

लघुकथा – संग्रह

1.अमावस का अँधेरा – प्रकाशन वर्ष 2004, शब्द सेतु दिल्ली।

2.फर्ज- प्रकाशन वर्ष 2006 प्रियंका प्रकाशन दिल्ली।

3.राकेश चक्र की लघुकथाएँ – प्रकाशन वर्ष 2012 आरके पब्लिशर दिल्ली।

4. वृक्ष और बीज – प्रकाशन वर्ष 2013 सूर्यप्रभा प्रकाशन दिल्ली।

5 . मेरी समकालीन 121 लघुकथाएँ- प्रकाशन वर्ष 2019 विनोद बुक सेंटर दिल्ली।

कहानी – संग्रह

सफर – प्रकाशन वर्ष 2019, साधना एंड सन्स दिल्ली।

कुण्डलिया- संग्रह, दोहा – संग्रह और सूक्तियाँ

1.चाचा चक्र के सचगुल्ले- प्रकाशन वर्ष 2013 साधना पब्लिकेशन दिल्ली।

2. मेरी प्रिय कुण्डलियां प्रकाशन भाग – 1 वर्ष 2021, पुष्पांजलि प्रकाशन दिल्ली।

3. मेरे प्रिय दोहे उपरोक्तानुसार।

4. मेरी प्रिय कुंडलियाँ भाग – 2 उपरोक्तानुसार।

5. मनोहर सूक्तियाँ और जीवनमंत्र उपरोक्तानुसार।

निबंध – संग्रह

1.मेरे समकालीन निबंध – प्रकाशन वर्ष 2019 प्रियंका प्रकाशन दिल्ली।

2. पुलिस अपने आईने में- प्रकाशन वर्ष 2019 गोपाल प्रकाशन दिल्ली।

मोटिवेशनल साहित्य

1. योग शिक्षा और यौन शिक्षा- प्रकाशन वर्ष 2009 ,आर के पब्लिशर दिल्ली।

2.आपका जीवन – आपके हाथ – ( पुरुस्कृत) प्रकाशन वर्ष 2012 आत्माराम एंड सन्स दिल्ली।

3. सफलता ही सफलता कैसे – प्रकाशन वर्ष 2012 आत्माराम एंड सन्स दिल्ली।

4.जीत आपके हाथ में – प्रकाशन वर्ष 2014 निर्मल पब्लिकेशन दिल्ली।

5. सफलता के 17 सूत्र – प्रकाशन वर्ष 2015 पी एम पब्लिकेशन दिल्ली।

6. सफलता अपनी मुट्ठी में – प्रकाशन वर्ष 2016 सूर्यप्रभा प्रकाशन दिल्ली और ज्योति प्रकाशन सोनीपत।

7. सफलता आपके हाथ में – प्रकाशन वर्ष 2018 समाज शिक्षा संस्थान दिल्ली।

स्वास्थ्य योग और एक्युप्रेशर पुस्तकें

1. स्वास्थ्य का रहस्य, पर्यावरण और हम – प्रकाशन वर्ष 2009, आर के पब्लिशर्स दिल्ली।

2. आपका स्वास्थ्य आपके हाथ- 2015 स्वास्तिक प्रकाशन दिल्ली।

3. मस्त रहिए स्वस्थ रहिए- प्रकाशन वर्ष 2016 साधना पब्लिकेशन दिल्ली।

4. मस्त रहें , स्वस्थ रहें – प्रकाशन वर्ष 2015 आरती प्रकाशन लालकुआं उत्तराखंड।

5. मस्त रहें, स्वस्थ रहें- 2018 पंकज सिंह मऊ ,उत्तर प्रदेश।

आदि, आदि।

प्रकाशित किशोर साहित्य दो दर्जन से अधिक –

किशोर कथा साहित्य

1. राकेश चक्र की श्रेष्ठ कहानियाँ- प्रकाशन वर्ष 2003 अंगूर प्रकाशन दिल्ली।

2.आजादी के दीवाने – प्रकाशन वर्ष 2004 पीयूष प्रकाशन दिल्ली।

3. तीसरी माँ – प्रकाशन वर्ष 2012, आर्यन प्रकाशन दिल्ली।

4. दी एग्जामिनेशन ( अंग्रेजी ) 2012 अजय पब्लिकेशन दिल्ली।

5. उत्तरांचल की लोककथाएं, प्रकाशन वर्ष 2014 , प्रियंका प्रकाशन दिल्ली।

6. राकेश चक्र की चुनिंदा किशोर कहानियाँ – प्रकाशन वर्ष 2018 पंकज सिंह मऊ उत्तर प्रदेश।

7. लजीज पुलाव (प्रकाशन विभाग भारत सरकार से प्रकाशित दिल्ली) प्रकाशन वर्ष 2018 आदि।

किशोर काव्य साहित्य

1.तुम भारत के वीर हो – प्रकाशन वर्ष 2012, साहित्य चेतना प्रकाशन दिल्ली।

2. मातृभूमि है वीरों की – प्रकाशन वर्ष 2013 दृष्टि प्रकाशन ,दिल्ली।

3. देश के नौजवान – प्रकाशन वर्ष 2015 हरे कृष्ण प्रकाशन मुरादाबाद उत्तर प्रदेश।

4. मनभावन किशोर कविताएँ – प्रकाशन वर्ष 2021लवकुश सिंह मऊ उत्तर प्रदेश।आदि।

अन्य विधा में प्रकाशित किशोर साहित्य

1 सपनों को साकार करेंगे ( आलेख- संग्रह ) प्रकाशन वर्ष 2009 ,आर के पब्लिकेशन दिल्ली।

2. बाल सपने और हम ( आलेख और महापुरुषों की जीवनियाँ ) – प्रकाशन वर्ष 2019 , आविष्कार प्रकाशन दिल्ली आदि।

बाल साहित्य की प्रकाशित मौलिक पुस्तकें पांच दर्जन से अधिक –

बाल कहानियों की प्रमुख पुस्तकें :-

1. साक्षरता अनमोल रे – प्रकाशन वर्ष 2002 समीक्षा प्रकाशन दिल्ली।

2. अन्यायी को दंड – प्रकाशन वर्ष 2002 शब्द सृष्टि दिल्ली।

3. अहिंसावादी शेर – प्रकाशन वर्ष 2002 शब्द सृष्टि दिल्ली।

4. बिच्छूवाला दीवान- प्रकाशन वर्ष 2003 ,उपासना प्रकाशन दिल्ली।

5. बच्चों की मनोरंजक कहानियां – प्रकाशन वर्ष 2010, अग्नि प्रकाशन दिल्ली।

6 .चतुराई का पुरस्कार प्रकाशन वर्ष 2011 ( नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित हिंदी, उड़िया,तेलगु,पंजाबी आदि में भाषाओं में अनुवाद भारत सरकार दिल्ली )।

7. गाँव का बेटा प्रकाशन वर्ष 2013 नेशनल बुक ट्रस्ट भारत सरकार दिल्ली।( हिंदी, कश्मीरी आदि भाषाओं में अनुवाद ) ।

8. रोबोट का आविष्कार – प्रकाशन वर्ष 2014 ,बैनियन ट्री प्रकाशन दिल्ली।

9. राकेश चक्र की चुनिंदा बाल – कहानियां – प्रकाशन वर्ष 2018, लवकुश सिंह मऊ उत्तर प्रदेश।

10 . प्रेरक बाल कहानियाँ – प्रकाशन वर्ष 2019, जनचेतना शिक्षण संस्थान दिल्ली।

आदि पुस्तकें।

बालविज्ञान की पुस्तकें

1.पुच्छल तारे – प्रकाशन वर्ष 2006 , कुणाल प्रकाशन दिल्ली।

2.क्यों गिरती है बिजली – प्रकाशन वर्ष 2006 ,आविष्कार प्रकाशन दिल्ली।

3. पैराशूट – उपरोक्त अनुसार।

4. विद्युत तरंगें – प्रकाशन वर्ष 2006, गुरुकुल प्रकाशन , दिल्ली।

बाल उपन्यास की पुस्तकें

1.कंजूस गोंतालू – प्रकाशन वर्ष 2005, अमर प्रकाशन गाज़ियाबाद।

2. मिस टी और डी टू – उपरोक्तानुसार।

3.पोस्टकार्ड लिफाफा और दादा जी- उपन्यास, प्रकाशन वर्ष 2020 , केशव बुक्स दिल्ली।

4. चिट्ठी वाले दिन, उपन्यास प्रकाशन वर्ष 2021पुष्पांजलि प्रकाशन दिल्ली।

बालगीत और कविताओं की प्रमुख पुस्तकें

1.एक सौ इक्यावन बाल कविताएं – प्रकाशन वर्ष 2006, कुणाल प्रकाशन दिल्ली।

2.लट्टू-सी ये धरती घूमे – प्रकाशन वर्ष 2010 आत्माराम एंड संन्स, दिल्ली।

3. मातृभूमि है वीरों की – प्रकाशन वर्ष 2011 आत्माराम एंड संन्स दिल्ली।

4. माटी हिंदुस्तान की- प्रकाशन वर्ष 2011 , बुक क्राफ्ट पब्लिशर दिल्ली।

5. सूरज, बालक और संसार – प्रकाशन वर्ष 2012 एवरेस्ट पब्लिशिंग कम्पनी दिल्ली।

6. पशु- पक्षियों के मनोरंजक बाल गीत – प्रकाशन वर्ष 2012 ,ग्लोबल ऐक्सचेंज पब्लिशर, दिल्ली।

7. मीठी कर लें अपनी बोली- प्रकाशन वर्ष 2014 , एक्सप्रेस बुक्स दिल्ली।

8. साफ हवा कर देते पेड़- प्रकाशन वर्ष 2015 , हरे कृष्ण प्रकाशन मुरादाबाद।

9. ऊँचा देश उठाएंगे- उपरोक्तानुसार।

10. ता – ता थैया गाएँगे उपरोक्तानुसार।

11. वीर शिवाजी – उपरोक्तानुसार।

12. देश बने सोने की चिड़िया- उपरोक्तानुसार।

13. रिमोट का खेल – प्रकाशन वर्ष 2016, हरे कृष्ण प्रकाशन, मुरादाबाद।

14.कम्प्यूटर ने खेल दिखाया- उपरोक्तानुसार।

15. बंदर, बिल्ली और कौवा – उपरोक्तानुसार।

16. धीरे – धीरे गाना बादल- उपरोक्तानुसार।

17. प्राणों से है प्यारा झण्डा – आरती प्रकाशन लालकुआं , उत्तराखंड।

18. दयानंद ऋषिवर अति प्यारे – प्रकाशन वर्ष 2016 उपरोक्तानुसार।

19. प्रेम के दीप जलाओ रे – उपरोक्तानुसार।

20. प्राणों से है प्यारा झंडा – उपरोक्तानुसार।

21. पूरे हिंदुस्तान से- उपरोक्तानुसार।

22. बाल गुलदस्ता, प्रकाशन वर्ष 2016, हरे कृष्ण प्रकाशन , मुरादाबाद।

23.हम विश्वास जगाएंगे – प्रकाशन वर्ष 2018, समाज शिक्षा संस्थान, दिल्ली।

24 .हम आजादी के बच्चे हैं – प्रकाशन वर्ष 2018, लवकुश सिंह मऊ, उत्तर प्रदेश।

25. राकेश चक्र की मनोरंजक शिशु कविताएँ – प्रकाशन वर्ष 2019, पंकज सिंह मऊ,उत्तर प्रदेश।

26. मेरे प्रिय शिशु गीत – प्रकाशन वर्ष 2019 , लवकुश सिंह मऊ , उत्तर प्रदेश।

27 . गाते अक्षर खुशियों के स्वर – प्रकाशन वर्ष 2020 ज्ञान गीता प्रकाशन, दिल्ली।

28. मेरी प्रिय बाल कविताएं- प्रकाशन वर्ष 2020, लवकुश सिंह मऊ उत्तर प्रदेश।

29. प्रेरक बाल कविताएं – प्रकाशन वर्ष 2020, उपरोक्तानुसार।

30. मेरी चुनिंदा बाल कविताएं – प्रकाशन वर्ष 2021, उपरोक्तानुसार।

31. मनोरंजक बाल कविताएं – प्रकाशन वर्ष 2021 उपरोक्तानुसार।

32. नटखट गिलहरी – प्रकाशन वर्ष 2021, प्रकाशन विभाग भारत सरकार , दिल्ली।

33. मनभावन पहेलियाँ, लोरियाँ और प्रभातियाँ, 2021ज्ञान गीता प्रकाशन दिल्ली।

रूम टू इंडिया से प्रकाशित पोस्टर गीत

1. सप्ताह के दिन

2 . कोयल

विशेष उपलब्धियां

1.दूरदर्शन व आकाशवाणी से निरंतर प्रसारण, भारत की विभिन्न पत्र – पत्रिकाओं में हजारों से अधिक आलेख, कविताएं, गीत, गजल, कहानियां तथा बाल साहित्य की सभी विधाओं में निरंतर प्रकाशन। कई रचनाएँ पुरस्कृत।

2. कई संदर्भ ग्रंथों एवं शोध पत्रों में उल्लेख।

शोध कार्य

1. लखनऊ विश्वविद्यालय से समग्र साहित्य पर शोध कार्य।

2. महात्मा ज्योतिबा फूले रुहेलखंड विश्वविद्यालय द्वारा बाल काव्य पर तीन बार शोध कार्य ।

संपादित – संग्रहों में रचनाओं का योगदान – लगभग तीन दर्जन से साझा – संग्रह 

प्रकाशनाधीन पुस्तकें – पाँच

सम्मान और पुरस्कार

राजकीय तथा अनेकानेक साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।

प्रमुख पुरुस्कार एवं सम्मान

1. राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान उत्तर प्रदेश द्वारा ‘सुमित्रानंदन पंत पुरस्कार’ 2007, उत्तर प्रदेश।

2. उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा ‘बाबू श्याम सुन्दर सर्जना पुरुस्कार’ 2012।

3 . दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी, संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार द्वारा ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ 2017 (डेढ़ लाख की धनराशि सहित) आदि।

4 . साहित्य मण्डल श्रीनाथ द्वारा ‘ कंचनबाई राठी सम्मान ‘ वर्ष 2018।

5 . ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ , उड़ीसा वर्ष 2018।

6 . उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा अमृत लाल नागर बाल कथा सम्मान वर्ष 2018।

7. बाल साहित्य भारती सम्मान उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान लखनऊ 2020, ढाई लाख की धनराशि सहित।

8. उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान , मैं भारत हूँ संस्था मुम्बई 2021।

सम्प्रति :- उत्तर प्रदेश पुलिस के  इंटेलीजेंस विभाग ) से सेवानिवृत्त अधिकारी, वर्ष 2014।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

Blog: http://rakeshchakra. blogspot.com 

Email:  [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – जीवन-यात्रा ☆ आत्मसंवाद –भाग ३ ☆ सुश्री शुभदा साने

सुश्री शुभदा साने

? आत्मसंवाद –भाग ३ ☆ सुश्री शुभदा साने ?

(मागील भगत आपण पहिलेशब्द – तुला पुरस्कारही बरेच मिळाले आहेत. आता इथून पुढे)

मी – महाराष्ट्र साहित्य सभेचा शंकर खंडू पाटील पुरस्कार, श्री. दा. पानवलकर पुरस्कार, अग्रणी पुरस्कार इ. पुरस्कार मला मिळाले आहेत. 

शब्द – तू विनोदी कथाही लिहिल्या आहेस. त्या कथांमध्ये शिरताना आम्हाला खूप गंमत वाटली होती. 

मी – गंभीर कथा लिहिण्याकडे माझा कल असला तरी मी विनोदी कथाही लिहिल्या आहेत. ‘हलकंफुलकं’ नावाचा माझा कथासंग्रह प्रसिद्धीच्या मार्गावर आहे. आणखी एक सांगायचं म्हणजे मी एक विज्ञान कथाही लिहिली होती.

शब्द – अठवतय आम्हाला. मराठी विज्ञान परिषदेतर्फे कथास्पर्धा जाहीर झाली होती, तेव्हा तू ती कथा लिहीली होतीस. इतकंच नव्हे, तर तुझ्या त्या कथेला पहिल्या नंबरचं

बक्षीसही मिळालं होतं…..आजपर्यंत तू आम्हाला बालसाहित्यात खेळवलंस, प्रौढवाङ्मयात बसवलंस. आकाशवाणीकडे घेऊन गेलीस. आम्हाला हाताशी धरून तू वेगवेगळ्या वर्तमानपत्रांच्या रविवारच्या पुरवण्यांमधे विविध लेखनातून घेऊन गेलीस. नभोनाट्याच्या वेगळ्याच वाटेवर घेऊन गेलीस.

मी – हो. पण त्याचं श्रेय आकाशवाणीत असलेले, नाट्याविभागाचे अधिकारी श्री. शशी

पटवर्धन यांना आहे. एरवी असं काही लिहिण्याची कल्पनाही मला सुचली नसती. माझे वडील श्री. ज. जोशी यांची ‘रघुनाथाची बखर’ ही कादंबरी खूप लोकप्रिय झाली होती. मला श्री. शशी पटवर्धन यांनी या कादंबरीचे १३ भागात नाट्यरूपांतर करायला सांगितले. मला हे काम कितपत जमेल, याबाद्दल मी साशंक होते. पण जसजसी करत गेले, तसतशी मजा आली. हे १३ भागांचे नभोनाट्य रूपांतर श्री.शशी पटवर्धन यांना खूप आवडलेच पण नभोनाट्य – मालिका  सादर झाल्यानंतर श्रोत्यांनाही  खूप आवडल्याची पत्रे आकाशवाणीकडे आली. काहींचे फोनही आले. माझ्यासाठी हा वेगळा आणि आनंददायी अनुभव होता.

शब्द – आम्ही वेगळंच म्हणतोय……

मी – काय म्हणताय तुम्ही?

शब्द – तू आम्हाला आता, मगाशी म्हंटल्याप्रमाणे तुझ्या कादंबरीत बसंव. तुझ्या कादंबरीत बसण्याची आमची खूप खूप इच्छा आहे.

मी – तो प्रयत्न मी नक्कीच करेन. तुम्ही मात्र एक केलं पाहिजे.

शब्द – काय केलं पाहिजे आम्ही?

मी – आजपर्यंत तुम्ही मला जशी साथ दिलीत, तशी साथ पुढेही मला दिली पाहिजे. देणार ना!

शब्द – देणार ना! म्हणजे काय? नक्कीच देणार! तू हाक मारलीस की आम्ही हजर.    

      ’आप बुलाए और हम ना आये ऐसा कभी हो सकता है?

मी-  मग ठीक आहे.

 

©  सुश्री शुभदा साने

मो. ७४९८२०२२५१

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – जीवन-यात्रा ☆ आत्मसंवाद –भाग २ ☆ सुश्री शुभदा साने

सुश्री शुभदा साने

? आत्मसंवाद –भाग २ ☆ सुश्री शुभदा साने ?

( मागील भगत आपण पहिलं – शब्द – ए, जरा तुझ्या प्रौढ साहित्याबद्दलही बोलू या का?

मी – हो.sss बोलूया की….आता इथून पुढे

मी – माझ्या लग्नांनंतरही माझं कथालेखन चालू राहिलं. म्हणजे नेटाने ते चालू ठेवलं. सासरी आल्यावर माझं अनुभव विश्व जास्त समृद्ध झालं, असा मला तरी वाटतं. तसे आपल्या अवती – भवती  बारे-वाईट प्रसंग नेहमीच घडतात. सगळ्यांच्याच मनावर त्या प्रसंगांचा परिणाम होत असतो. पण त्यातला एखादा हृदयस्पर्शी प्रसंग  लेखकाच्या मनात आतपर्यंत जाऊन पोचतो. तिथेच तो रुजतो. मग या प्रसंगाच्या आधी काय घडलं असेल? नंतर काय घडेल, हे लेखक त्याच्या कल्पनाशक्तीच्या आधारे ठरवतो. आणि  कथा तयार होते.

शब्द – हे पण आम्हाला माहीतच आहे. तू एकदा तुझ्या कथाकथनाच्या कार्यक्रमात तू, ‘कथा कशी सुचते’, हे सांगितलं होतस. आम्हीच तर तुझ्या तोंडून बोलत होतो. बरं! तू

तुझ्या प्रौढ वङ्मायाबद्दल बोलत होतीस ना!      

मी – हो. लग्नांनंतरही मी माझं लेखन नेटाने चालू ठेवलं, पण लेखनासाठी सासरी फारसा वेळ मिळायचा नाही. सारखं कुठलं ना कुठलं तरी काम असेच.

 शब्द – ए, पण काम करतानाही तुला एखादं  कथाबीज तुला साद घालतच असायचं. नाही का?

 मी – हो अगदी बरोबर! माझ्या एका कथेची सुरुवात तर मला केर काढताना सुचली.

 शब्द – आणि केर काढणं थांबवून तू आम्हाला साद घातलीस आणि घाईघाईने आम्हाला कागदावर उतरवलंस आणि ‘बाळ चालणार आहे’, ही कथा आकाराला आली.   

मी – हो आणि या कथेला चक्क ‘इंदू साक्रीकर पुरस्कार मिळाला. शब्दमित्रांनो तुम्हाला सगळं स्पष्ट आठवतय बर का, इतक्या वर्षापूर्वीचं. नंतर माझ्या कथा वेगवेगळ्या  मासिकातून , दिवाळी अंकातून प्रसिद्ध होऊ लागल्या. सत्यकथेत कथा प्रसिद्धा झाल्यावर मला विशेष आनंद व्हायचा. कारण सत्यकथा या मासिकाची गणना दर्जेदार मासिकात व्हायची ना! माझ्या ३ कथांचे हिन्दी गुजराती आणि कानडी भाषातून अनुवाद झाले आहेत. झुळूक, वर्तमान, आणि माणूस या त्या तीन कथा.

शब्द – तुझ्या एका कथासंग्रहालाही तू ‘माणूस नाव दिलं आहेस.

मी –   हो. आणि त्या कथासंग्रहावर माझी मैत्रीण उज्ज्वला केळकर हिने अतिशय सुरेख असे आस्वादात्मक लेखन केले होते. आपण लिहिलेलं वाचकांना आवडतं, याची पावती होती ती!

शब्द-  मला वाटतं हा तुझा पहिला कथासंग्रह.

मी –  नाही… नाही…’चित्रांगण’ हा माझा पहिला कथासंग्रह. ‘माणूस’ हा दुसरा. …’चित्रांगण’ प्रकाशित झालं तेव्हा मी अगदी भारावून गेले होते. 

शब्द  – स्वाभाविक आहे. पहिल्या वहिल्या गोष्टीचा प्रत्येकाला अप्रूप असतं.

मी – आणि बरं का, प्रसिद्ध कवी-गीतकार अशोक जी परांजपे ह्यांनी त्यावर चांगला अभिप्राय मला लिहून दिला होता. शब्दांनो, तुम्हाला सांगते, माझ्या दृष्टीने तो मला मिळालेला पुरस्कारच होता. माझी मैत्रीण उज्ज्वला हिने या पुस्तकावरही केलेले आस्वादात्मक लेखन वर्तमानपत्रात प्रसिद्ध झाले होते. शिवाय काही वाचकांनी फोन करूनही कथा आवडल्याचे संगितले. वाचकांचे आलेले असे अभिप्राय लेखकांना पुरस्काराप्रमाणेच वाटतात.

शब्द – तुझ्या इतर पुस्तकांबद्दल सांग ना!  किती झाली असतील ग तुझी पुस्तकंआत्तापर्यंत?

मी – बालवाङ्मय , प्रौढ वाङ्मय मिळून माझी आत्तापर्यंत ५० पुस्तके झालीत.

शब्द – बहुतेक सगळे कथासंग्रहच आहेत नाही का?

मी – हो. पण ललित लेख, विनोदी लेख, कथा असे सगळ्या प्रकारचे लेखन मी केलेले आहे. 

शब्द – तुला पुरस्कारही बरेच मिळाले आहेत.

©  सुश्री शुभदा साने

मो. ७४९८२०२२५१

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – जीवन-यात्रा ☆ आत्मसंवाद –भाग १ ☆ सुश्री शुभदा साने

सुश्री शुभदा साने

? आत्मसंवाद –भाग १ ☆ सुश्री शुभदा साने ?

शब्द – ए ss शुक… शुक… अग शुभदा…. शुभदा साने…जरा इकडे बघ ना!  ऐक तरी आम्ही काय म्हणतोय ते….

मी –  कोण तुम्ही ? आणि असे घोळक्याने का उभे आहात? सांगा ना!

शब्द – ओळखलं नाहीस? तुझ्यातच तर असतो आम्ही. तुझ्या मनात…. तू जेव्हा आपल्या भावना व्यक्त करतेस, तेव्हा आमचीच तर मदत घेतेस. आम्ही म्हणजे शब्द,

मी – खरच की रे, तुम्ही माझे सवंगडी आहात. अगदी बालपणापासूनचे. तुम्हाला शब्दमित्र म्हंटलं तर, चालेल का?

शब्द – आता कसं बोललीस? तुला आवडतं आमच्याशी खेळायला. तू लहान होतीस, अगदी तेव्हापासूनच….. आठवतय का?

मी  –  आठवतय ना! मी चौथीत किंवा पाचवीत असेन, तेव्हाची गोष्ट…. एके दिवशी संध्याकाळी मला खूप कंटाळा आला होता. त्याचं काय झालं, शाळेतून घरी आले, तेव्हा आई नि दादा दोघेही घरात नव्हते. दादा म्हणजे माझे वडील.

शब्द – दादा म्हणजेच सुप्रसिद्ध साहित्यिक श्री. ज. जोशी….

मी  – हं ! आगदीबरोबर! तर काय सांगत होते, आई नि दादा दोघेही तेव्हा घरात नव्हते. आणि नेहमी खेळायला येणारी माझी मैत्रीणही तेव्हा बाहेर गेली होती. थोडी हिरमुसून मी अंगणात आले. अगदी  कंटाळा आला होता मला आणि अचानक काही ओळी माझ्याकडे धावत आल्या.

शब्द – अग, त्या ओळीमधे आम्हीच होतो. म्हणजे तू आम्हाला बसवलं होतस. आम्हाला आठवतय ना! ‘झाला कंटाळवाणा वेळ सख्यांशी जमेना मेळ ….’ आम्हाला एकत्र करून  गुंफलेल्या त्या ओळी होत्या. नंतरच्या आठ-दहा ओळीतही तू आम्हाला असेच बसवून टाकले होतेस. तुझ्या त्यावेळच्या मन:स्थितीचे अगदी योग्य वर्णन होते.

मी – अगदी बरोबर! ती माझी पहिली कविता आणि त्यानंतर काय झालं माहीत आहे?

शब्द – काय झालं ?

मी – मला जाणवलं, अरे, हे आपल्याला जमतय बरं का? मग मला  कविता करायचा नादच लागला. कुठला तरी विषय घ्यायचा आणि त्यावर कविता करून टाकायची. मग ती कविता मी वहीत लिहून ठेवायची. अशी दोन – तीन वर्षे गेली. आणि मग एकदा – –    

शब्द – एकदा काय झालं?

मी – मे महिन्याच्या सुट्टीत आम्ही मुंबईला मामाकडे गेलो होतो. तेव्हा दादा मला चक्क शांताबाई  शेळके यांच्याकडे घेऊन गेले. कारण तोपर्यंत मी कविता करते, हे दादांना कळलं होतं॰ जेष्ठ आणि श्रेष्ठ कवियत्री शांताबाई यांच्याशी माझी तेव्हा ओळख झाली. त्यांनी माझ्या कविता आपुलकीने वाचल्या. काही कवितांचं कौतुक केलं. काही कवितांमधल्या चुका दाखवल्या. शांताबाईंच्या शाबासकीनं मला प्रोत्साहन मिळालं.      

शब्द – मग तुझ्या कविता मासिकातून छापून येऊ लागल्या. नाही का?

मी –  हो. आणि त्यानंतर पुढच्याच वर्षी माझ्या ‘सावल्या’ या कवितेला ‘साधनाच्या  काव्यस्पर्धेत कुमार गटातलं पहिलं बक्षीस मिळालं.

शब्द – केव्हा मिळाला ग हा पुरस्कार तुला?

मी – मला वाटतं १९६२ साल असेल. त्यानंतर मी बालसाहित्यात गुरफटत गेले. नंतर मला शाळेत बालकवीयत्री म्हणून सगळे ओळखू लागले. लहान मुलांच्या मासिकांसाठी मी कथा-कविता पाठवाव्या, म्हणून मला पत्रे येऊ लागली. नंतरच्या…  शब्द – नंतरच्या काळात तुझे, बालकवितासंग्रह, बालकथासंग्रहप्रकाशित झाले. तुझ्या काही बालकवितासंग्रह, बालकथासंग्रह यांना पुरस्कारही मिळाले. हो ना?  

मी – हो. ‘मजेचा तास’ ह्या कथासंग्रहाला वा. गो. आपटे पुरस्कार आणि आशीर्वाद पुरस्कार आणि ललितसाहित्य पुरस्कार असे तीन पुरस्कार मिळाले. ’गोष्टीचं झाड’ या कथासंग्रहाला पुण्याच्या साहित्यप्रेमी भगिनी मंडळाचा पुरस्कार मिळाला.

शब्द –  ए, हे सगळं झालं, पण तू ‘आनंदयात्री पुरस्काराबद्दल विसरलीस वाटतं?

मी – छे:! तो कसं विसरेन? छावाच्या दिवाळी अंकात प्रसिद्ध झालेल्या माझ्या ‘निसर्गाची भाषाया कथेला तो आनंदयात्री पुरस्कार मिळाला होता. आता आणखी एका पुरस्काराबद्दल सांगते.

शब्द – उत्कृष्ट बालकवितेबद्दल मिळालेल्या पुरस्काराबद्दल संगतीयस ना?

मी – हो. आता सांगायला लागले आहे, तर सगळंच सांगते. गंमतजंमतच्या दिवाळी अंकात प्रसिद्ध झालेल्या माझ्या ‘मंजर बघतय टी.व्ही.’ ह्या कवितेची निवड उत्कृष्ट बालकविता म्हणून परीक्षकांनी केली.     

शब्द- याशिवाय तुला नागपूरच्या पद्मगंधा प्रकाशनचाही पुरस्कार मिळाला होता.

मी – हो.  माझ्या एकूण सगळ्याच साहित्याबद्दल तो मिळाला होता. म्हणजे बालसाहित्य आणी प्रौढांसाठी लिहिलेलं साहित्य या दोन्हीचा  विचार त्यांनी केला होता. 

शब्द – ए, जरा तुझ्या प्रौढ साहित्याबद्दलही बोलू या का?

मी – हो.sss बोलूया की….

 

©  सुश्री शुभदा साने

मो. ७४९८२०२२५१

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – ☆ जीवनयात्रा ☆ मेरी सृजन-यात्रा – भाग – 2 ☆ श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’

श्री भगवान वैद्य प्रखर

(हम स्वयं से संवाद अथवा आत्मसंवाद अक्सर करते हैं किन्तु, ईमानदारी से आत्मसाक्षात्कार अत्यंत कठिन है। प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री भगवान् वैद्य “प्रखर” जी का आत्मसाक्षात्कार दो भागों में।)

☆ जीवनयात्रा ☆ मेरी सृजन-यात्रा  – भाग – 2 ☆ श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’☆

प्रश्न: पहली रचना किस विधा में प्रकाशित हुई?

उत्तर:  लेखन आरंभ हो चुका था। यहां-वहां रचनाएं प्रेषित की जाने लगी थीं। इन्हीं में से ‘रचना’ शीर्षक कविता ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ के 1 जुलाई 1973 के अंक में प्रकाशित हुई। यही थी प्रथम प्रकाशित रचना।

प्रश्न : विभिन्न विधाओं में आपकी एक हजार से अधिक रचनाएं स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय-स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। यह आपके लिए कैसे संभव हो पाया? क्या संपादकों के साथ व्यक्तिगत संपर्क, वरिष्ठ लेखकों की सिफारिश या किसी और माध्यम से? आपका उत्तर निश्चित ही नये लेखकों के लिए मार्गदर्शक साबित होगा।   

उत्तर: यह आपने अच्छा प्रश्न किया है। आपको बता दूं कि मैं रचना-प्रकाशन के संबंध में आजतक किसी भी संपादक से नहीं मिला।न ही मैंने कभी किसी को उसके लिए फोन किया। मैं लिखताहूँ। रचना किस पत्र-पत्रिका में प्रकाशन-योग्य है, यह विचार करता हूँ और डायरी में नोट करके रचना प्रेषित कर देता हूँ। अपेक्षित अवधि में अगर कोई सूचना नहीं मिली (पहले जवाबी पोस्ट-कार्ड लिखकर  जानने का चलन था। आजकल ‘मेल’ या फोन करता हूँ।) तो रचना अन्यत्र प्रेषित कर देता हूँ। मेरा मानना है, रचना में अगर दम है तो वह पत्र-पत्रिका में खुद अपनी जगह बना लेती है। हां, प्रत्येक पत्र-पत्रिका की अपनी विचारधारा होती है जिससे वाकिफ़ होना जरूरी होता है। इस कारण कभी कोई रचना सामान्य पत्रिका में अस्वीकृत हो जाती है जबकि वही रचना राष्ट्रीय- स्तर की पत्रिका में स्वीकृत हो जाती है। संक्षेप में, आप हिंदी-भाषी हैं, हिंदीतर-भाषी हैं, प्राध्यापक हैं, डॉक्टर हैं या यह सबकुछ नहीं है- यह कुछ माने नहीं रखता। आपकी रचना देखी जाती है और चुनी जाती है। धर्मयुग, साप्ता. हिन्दुस्तान, सारिका, कादम्बिनी से लेकर स्थानीय अखबार तक के बारेमें मेरा यही अनुभव रहा है।                                         

प्रश्न: आपकी रचना-प्रक्रिया कैसी होती है?

उत्तर:  कोई तामझाम नहीं। जब, जहां, जैसे बन पड़ा, लिख लेता हूँ। मन में जब कभी कोई बिम्ब उभरता है तब चलते-फिरते कहीं नोट करके रख लेता हूं।- लेखन के लिए अधिक समय मिलना चाहिए इस कारण भारतीय जीवन वीमा निगम के शाखा प्रबंधक पद से चार साल शेष थे तब सेवा-निवृत्ति ले ली थी। लेकिन लेखन को प्रथम प्राथमिकता कभी न दे सका। आज तक भी नहीं। पहले नौकरी प्रथम क्रमांक पर रही । अब परिवार है, गृहस्थी है, मित्र हैं,सामाजिक दायित्व है । इन सबके बाद समय मिले तब साहित्य-सृजन है। इस कारण लेखन का कोई निश्चित समय नहीं है। जब संभव हो, राइटिंग-पैड लेकर बैठ जाता हूँ। अब लैप-टॉप है। फिर कोई काम आया कि उठ जाताहूँ। मैं नियमित दिनचर्या में विश्वास रखता हूँ। देर तक जाग नहीं सकता। छात्र-जीवन में भी समय पर सो जाता था। जाहिर है, रचना कई-कई बैठकों में पूरी होती है।

प्रश्न: कोई रचना एक बार में लिख लेते हैं या बार-बार सुधार आवश्यक होता है?

उत्तर: रचना पूरी लिख लेने के बाद उसे कई बार पढ़ता हूँ। कम-अज-कम तीन -चार प्रारूप तो बनते ही हैं। उठते -बैठते मंथन जारी रहता है। सटीक और परिष्कृत शब्द की खोज की धुन अहर्निश सिर पर सवार रहती है। अंतिम प्रारूप के बाद विंडो-ड्रेसिंग। संदेहास्पद हिज्जों की जांच। यह सब होने के बाद कुछ दिनों के लिए ‘रचना’ को भूल जाताहूँ। (अगर कहीं प्रेषित करने की जल्दी न हो तो) एकाध सप्ताह बाद फिर रचना को पढ़ता हूँ लेकिन अबकी अपने नहीं अपितु पाठक /संपादक के नजरिये से। आवश्यकता महसूस हुई तो फिर कोई संशोधन। इसके उपरांत रचना अंतिम रूप से तैयार हो जाती है।बा-कायदा लिफाफा तैयार होता है। जांच-पड़ताल करके पता लिखा जाता है। स्वयं जाकर पोस्ट कर आता हूँ। इसलिए शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि मैंने रचना पोस्ट की और अपने पते पर नहीं पहुंची। आजकल एक सुविधा हो गयी है। लिफाफे की जगह वैट्‍स-अप अथवा ‘मेल’ ने ले ली है।       

प्रश्न: आपके अबतक 4 व्यंग्य -संग्रह, 3 कहानी-संग्रह, 2-2 लघुकथा और कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। 35 कहानियों सहित मराठी की छह पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद किया है। अर्थात इन सभी विधाओं में आपका उल्लेखनीय योगदान है। इस कारण जानना चाहेंगे कि इन में से किस विधा के साथ अपने आप को सर्वाधिक सम्बद्ध पाते हैं अर्थात अपने आपको किस रूप में पहचाना जाना पसंद करेंगे? व्यंग्यकार, कहानीकार, कवि, लघुकथाकार, अनुवादक या कुछ और?

उत्तर: जो लिख चुका, वही सबकुछ नहीं है। इसलिए वह मेरी पहचान नहीं बन सकता। एक उपन्यास- लेखन की कल्पना मन में है। आत्मकथा की शुरुआत कर चुका हूं। कुछ रेखा-चित्र लिखने हैं। अनुवाद -कार्य अभी संपन्न नहीं हुआ है। इसलिए कह नहीं सकता कि कौन-सी विधा मेरी पहचान बनेगी। आरंभ में जरूर ‘व्यंग्यकार’ के रूप में जाना जाता था। इसलिए जब कोई ‘परिचय’ पूछता है तो ‘साहित्यकार’ या ‘लेखक’  बतलाता हूं।   

प्रश्न: आप विगत 48 वर्षों से लेखन-प्रकाशन से सम्बद्ध हैं। समय के साथ इस क्षेत्र में क्या बदलाव महसूस करते हैं?

उत्तर: वर्तमान समय में सुविधाएं बहुत हो गयी हैं। पहले हाथ से लिखते थे। सुधार के बाद  सिरे से ड्राफ्ट कॉपी करना पड़ता था। कार्बन रखकर प्रतियां निकालते थे। फिर टाईप- मशिनें आ गयीं । अब लैप-टॉप/ पी.सी. पर सब काम होता है। जो चाहे, जितनी बार चाहे, सुधार कर लो। एक क्लिक के साथ प्रिंट- आउट निकल आता है।

प्रश्न : यह तो हुआ लेखकीय- स्तर पर बदलाव। प्रकाशन -स्तर पर क्या बदलाव महसूस करते हैं?

उत्तर:  बदलाव महसूस हो रहा है, संवाद में। लेखक-संपादक अथवा लेखक -प्रकाशक में संवाद की कमी हो गयी है। जितने संवाद के साधन बढ़ गये उतना संवाद का अकाल पड गया। धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान , कादम्बिनी, सारिका समान पत्रिकाओं से भी एक रचना के संबंध में चार-चार बार संवाद हो जाता था। पहले स्वीकृति-पत्र, अगर रचना ‘विचारार्थ-स्वीकृत’ है तो पत्र, किस अंक में आ रही है उसकी बा-कायदा सूचना, छपने पर अंक, फिर पत्र के साथ चेक या मनी आर्डर । किसी कारण से रचना में सुधार वांछित हो तो टिप्पणी के साथ रचना वापिस । सुधार के साथ भेजने पर स्वीकृति -पत्र आ जाएगा। नवभारत- टाइम्स को प्रेषित कहानी की लंबाई अधिक थी। विश्वनाथ जी ने कौन-सा हिस्सा कम किया जा सकता है, इस सुझाव के साथ रचना वापिस की । सुधार करके भेजने पर तुरंत छप गयी। रमेश बतरा जी की दृष्टि में  लघुकथा उत्कृष्ट होने के बावजूद उसकी लंबाई किस प्रकार बाधा बनी हुई है, यह टिप्पणी लिखकर रचना वापिस की। ‘धर्मयुग’ में व्यंग्य स्वीकृत हुआ। बा-कायदा स्वीकृति पत्र आया। उसके बाद ‘क्यों लौटाना पड़ रहा है’ इस मजबूरी को व्यक्त करते पत्र के साथ रचना वापिस आयी। …संपादक बदलने के बाद नये संपादक का अपने लेखकों से जुड़ने के लिए रचना आमंत्रित करता हुआ पत्र। -यह गुजरे जमाने का पत्र-व्यवहार अब  ‘धरोहर’ बन कर फाइलों की शोभा बढ़ा रहा है।

आजकल ‘रचना के साथ ‘वापसी के लिए टिकट लगा लिफाफा’ भेजने का चलन लगभग बंद हो गया है। ‘डाक’ की बजाए ‘मेल’ या ‘वैट्स-अप’ का चलन बढ़ रहा है। बहुत कम पत्र-पत्रिकाएं स्वीकृति/ अस्वीकृति की सूचना देना जरूरी समझती हैं। रचना प्रकाशन हेतु संबंधित पत्र-पत्रिका की सदस्यता की अनिवार्यता का चलन बढ़ रहा है। पारिश्रमिक देनेवाली पत्रिकाएं वार्षिक शुल्क काटकर पारिश्रमिक दे रही हैं। -लेकिन इन सब बातों के अलावा इधर एक अच्छी बात देखने को मिल रही है। बीच में एक कालखण्ड ऐसा आया जब लघु -पत्रिकाओं का अस्तित्व खतरे में पड़ता नजर आ रहा था। लेकिन अब संख्या बढ़ रही है और लघु- पत्रिकाएं साहित्य-सृजन के क्षेत्र में बहुत अच्छी और महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं।              

प्रश्न: पुराने और नये लेखकों में क्या बदलाव महसूस करते हैं?

उत्तर:  पुराने लेखक सृजन में अधिक विश्वास करते थे। उनकी प्रतिबद्धता लेखन के प्रति होती थी। उत्कृष्ट लेखन किस प्रकार होगा, इसकी चिंता लगी रहती थी। उपलब्धि क्या होगी इस ओर ध्यान न था। नया लेखक व्यावहारिक है। लिखते समय सोचता है, इससे मुझे क्या उपलब्ध होगा? किस प्रकार लिखने से छपेगा? कहां छपने से पारिश्रमिक मिलेगा? पुस्तक छपी तो पुरस्कृत कैसे होगी? कभी-कभी लगता है, उनका इस प्रकार सोचना गलत नहीं है। पहले  ‘लेखक’ को समाज में प्रतिष्ठा थी । सम्मान था। सम्मानित व्यक्ति के शब्द को कीमत थी। अब धन सर्वोपरि हो गया हो गया है। समूची व्यवस्था ही बदल गयी है। सम्मान के, संबंधों के मानदण्ड बदल गये हैं। समाज का कोई घटक इससे अछूता न रहा। लेखक भी नहीं।   

प्रश्न: आपके लेखन को जो महत्व मिला या मिल रहा है, क्या आप उससे संतुष्ट हैं?

उत्तर: जी, सबसे पहले तो मैं यह स्पष्ट कर दूं कि मैं लेखन के प्रति प्रतिबद्ध हूं न कि पुरस्कार, सम्मान या और किसी और प्रकार के महत्व के प्रति। उसके बावजूद मैं यह कहना चाहता हूं कि मुझे जो कुछ  मिला और मिल रहा है उससे मैं पूरी तरह संतुष्ट हूं।  आप विचार कीजिये कि मैं हूं क्या? चलिये, एक वाकया बतलाता हूं। केंद्रीय हिंदी निदेशालय का हिंदीतर भाषी -हिंदी लेखकों के लिए एक पुरस्कार है, एक लाख रुपयों का। उसकी पुस्तक मूल्यांकन- समिति पर सदस्य के रूप में मेरा चयन हुआ था, वर्ष 2012 से 2014 के लिए। निदेशालय में बैठक आयोजित थी। दोपहर में भोजन के दौरान वहां के एक वरिष्ठ अधिकारी से यूं ही पूछ लिया, ‘सर, इससे पूर्व तीन मर्तबा बायो-डाटा मँगवाया गया लेकिन चयन नहीं हुआ था।क्या कारण रहा होगा, जान सकता हूं?’ उत्तर मजेदार था। कहने लगे, ‘प्रखर जी, आपका सरनेम है, वैद्य। निखालस महाराष्ट्रीयन। मातृभाषा, मराठी। निवास, महाराष्ट्र में। नाम के आगे न ‘डॉ.’ लगा हुआ है न प्रा. (डॉक्टर या प्राध्यापक) पढ़ाई देखो तो महज बी. ए.। अच्छा, नौकरी भी हिंदी-अध्यापक या प्रशिक्षक आदि नहीं। मतलब प्राइमा-फेसी ‘हिंदी के विद्वान या जानकार’ जैसा कुछ नहीं। अर्थात जब तक पूरा चार पेज का बायो-डाटा न पढ़ो तब तक पता ही नहीं चलता कि  आपका  हिंदी में क्या कुछ योगदान है? और यहां तो ‘प्रा.’ और ‘डॉ.’ की लाइन लगी रहती है?’ -ऐसी स्थिति में आप ही बतलाइए कि मुझे जो मिला वह क्या कम है? एक और रहस्य है। मैंने पाया कि मुझे जो,जब मिलना है, उसके लिए अपने- आप संयोग बन जाता है। मेरा  ‘कथादेश’ का वार्षिक-शुल्क कब का समाप्त हो चुका था फिर भी पता नहीं कैसे, अचानक डाक में एक अंक आ गया। उसमें ‘आर्य-स्मृति साहित्य सम्मान 2018’ का विज्ञापन था। मैंने रचनाएं भेजीं और पुरस्कार मिल गया।मैं आज भी सोचता हूं, ‘कथादेश’ का वह अंक मुझे कहां से और कैसे आ गया था?

प्रश्न: पाठकों की प्रतिक्रिया के बारे में आपकी क्या राय है?             

उत्तर: भांति-भांति के पाठक मिले। हर वर्ग के, हर आयु के , हर क्षेत्र के। और विभिन्न भाषाओं के भीं। इन सब के इतने प्यारे अनुभव हैं कि बयान करने के लिए एक किताब ही लिखनी पड़ेगी। केवल दो-एक का ही उल्लेख करना चाहता हूं। एक दिन सुबह-सुबह लैण्ड-लाइन पर फोन आया। कहा गया, ‘मैं  न्यूजीलैण्ड के ऑकलैण्ड से मि. कोंडल बोल रहा हूं।’ मैं समझा, कोई मजाक कर रहा है। लेकिन बार-बार दोहराने पर मैंने कहा, ‘चलो, मान लेते हैं।आगे बोलिए।’ अब वे मेरे कहानी-संग्रह ‘चकरघिन्नी’ की कहानियों के नाम बतलाने लगे। जो कहानियां पढ़ ली थीं,उनके बारेमें बतलाने लगे। मैंने उनसे पूछा, आपको किताब कहां से मिली तो बतलाया गया कि वहां की स्टेट -लाइब्रेरी से। उसके बाद मि. और मिसेज कोण्डल दोनों कहानियां पढ़ते और फोन पर देर तक बतियाते रहते। यह सिलसिला कई दिनों तक चलता रहा। उनसे खासी मित्रता हो गयी। मैंने अपनी कुछ और पुस्तकें उनके पतेपर भेजीं। बाद में प्रकाशक से पता चला कि सरकारी खरीद में ‘चकरघिन्नी’ की कुछ प्रतियां विदेश भेजी गयी थीं उन्हीं में से एक न्यूजीलैण्ड पहुंच गयी थी।      

एक और वाकया सुनिये । मेरी एक कहानी है, ‘स्लेट पर उतरते रिश्ते।’ नागपुर के दैनिक ‘लोकमत समाचार’ के साहित्य परिशिष्ट में प्रकाशित हुई। अगले दिन एक प्रतिष्ठित प्राध्यापक हाथ में वह अखबार लेकर सुबह-सुबह घर पहुंच गये। गुस्से में भुनभुनाते हुए। कहने लगे, ‘आप यह बतलाइए कि मेरे घर की यह बात आप तक कैसे पहुंची? मैं हतप्रभ! कुछ समय तक बातचीत के बाद वे सामान्य हो गये और देर तक कहानी की प्रशंसा करते रहे।

‘जिज्ञासा’ कहानी में  एक दिव्यांग बालिका निन्नी अपनी दीदी से छतपर बने पानी के टाँके में तैरती सुनहरी मछली के क्रियापलाप के बारेमें सुनकर मछली देखने के लिए बेताब हो उठती है। उसकी तीव्र जिज्ञासा उसे अगले दिन अल्स्सुबह घर के भीतर बनी सीढ़ियां चढ़कर छतपर पहुंचा देती है। ‘क्या सचमुच वह अपने पोलिओग्रस्त पैरों से ऐसा कर पायी?’ वस्तुस्थिति जानने और निन्नी को देखने की इच्छा रखने वाले पाठकों के कितने फोन, कितने दिनों तक आते रहे, क्या बतलाऊं?

ऐसे हर कहानी, हर लघुकथा ने कितने ही पाठक जोड़े हैं। मैं अपनी कहानी के पात्रों के नाम भूल जाता हूं लेकिन पाठक याद दिला देते हैं तो कहानी का संसार जी उठता है और लेखन के लिए मिलती है नयी ऊर्जा।

प्रश्न:अच्छा हम लोग बातचीत आगे जारी रखेंगे लेकिन जरा यह बतला दीजिए कि कोई रचना इतनी प्रभावशाली कैसे बनती हैं?

उत्तर: इसका एक रहस्य है। रहस्य यह है कि रचना में कोई बात तो ऐसी हो जो ‘सच’ हो। चाहे कितनी भी छोटी, एक बिंदू ही क्यों न हो, पर पूरी तरह ‘सच’ हो। यह ‘सच’ जितना पुख्ता होगा, जितना मजबूत होगा उतनी रचना  प्रभावशाली बनेगी।  पत्रकारिता के बारेमें  कहा जाता है कि पूरी रिपोर्ट में अगर एक छोटा-सा तथ्य भी गलत हो जाये तो पूरी रिपोर्ट की विश्वसनीयता समाप्त हो जाती है। साहित्यिक रचना में अगर एक छोटी-सी बात भी सत्य है तो वह पूरी रचना को प्रभावशाली बना देती है। एक और बात । रचना में कोई घटना, कोई तत्व ऐसा होना चाहिये जिससे पाठक लेखक के साथ  एकाकार हो जाये।अगर यह हो गया तो समझिए आपका लेखन सार्थक हो गया।     

प्रश्न:  क्या आप अपने बारेमें ऐसा कुछ बतलाना चाहते हैं जो मैंने नहीं पूछा।

उत्तर: हां। मैं यह बतलाना चाहता हूँ कि मुझसे किसी की झूठी प्रशंसा नहीं होती। न ही मुझे किसी की झूठी प्रशंसा अच्छी लगती है। मैं क्या हूँ, एक व्यक्ति के रूप में, लेखक के रूप में- यह मैं भलीभांति जानता हूँ। उसी नाप का तमगा बर्दाश्त करता हूँ। उससे अधिक किसी ने पहनाने की कोशिश की तो मैं असहज हो जाता हूँ।

मेरी एक आदत है, जो जानता हूँ कि अच्छी नहीं है। मैं किसी को हद से ज्यादा बर्दाश्त करता हूँ। इतना कि मुझे पीड़ा होने लगती है। लेकिन उसके बाद  भी अगर उस व्यक्ति में बदलाव नहीं आया तो मैं उस व्यक्ति से हमेशा के लिए संबंध तोड़ देताहूँ। इस कदर कि वह व्यक्ति मेरे लिए संसार से ‘कम’ हो जाता है।

प्रश्न: नवोदितों के लिए कोई संदेश?

उत्तर: क्या संदेश दूं? इतने साल से लिख रहा हूं पर अब भी स्वयं को नवोदित ही मानता हूं। नयी पीढ़ी प्रतिभाशाली है, ऊर्जावान भी है। पर ‘जल्दी’ में है। उसके पास न पढ़ने के लिए समय है न सहिष्णुता। आठ – दस रचनाओं में उसे वह सब चाहिए जो प्राप्त करने के लिए बरसों लग जाते थे। मेरे एक मित्र म. रा. हिन्दी साहित्य अकादमी के सदस्य थे। उनसे एक नये लेखक का फोन पर वार्त्तालाप मैंने सुना। कह रहा था, ‘मैंने अपना एक कविता -संग्रह अकादमी को पुरस्कार के लिए प्रस्तुत कर दिया है। आप  कुछ कीजिए कि उसे पुरस्कार घोषित हो जाये।’ मित्र उसे कई प्रकार से समझाने की कोशिश कर रहे थे। आखिर में, लेखक ने यहां तक कह दिया कि अगर आप पुरस्कार न दिलवा सके तो फिर आपके अपने शहर से ‘अकादमी के सदस्य’ होने का क्या लाभ? -यह है मानसिकता! सब कुछ तुरंत चाहिए। नहीं मिला तो जैसे सारी दुनिया ने उन पर अन्याय कर दिया! नहीं छपा, तो संपादक जैसे ‘शत्रु’ हो गया। -इस प्रकार की मानसिकता ‘साहित्य-सृजन’ ही नहीं अपितु किसी भी कला-क्षेत्र के लिए उपयुक्त नहीं है । ध्यान रहे, लेखकीय-कर्म जिम्मेवारी भरा कार्य है। साहित्य अंधेरे में रोशनी की तरह काम करता है।  वह समाज को बनाता भी है और बिगाड़ता भी है। दूसरी बात । लेखन के रास्ते पर जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं, रास्ता बजाए प्रशस्त होने के, संकरा होता जाता है। लेखक को अपने ही वर्ग के लोगों से जूझते हुए आगे बढ़ना होता है। उस समय केवल ‘परिश्रम’ हमारा साथ देता है। परिश्रम कोई विकल्प नहीं है। और है तो वह है, ‘कठिन परिश्रम।’ शब्द-सामर्थ्य और सम्प्रेषण-शक्ति में वृद्धि के लिए पठन-पाठन  और अभ्यास आवश्यक है। अंतत: यही कहना चाहूंगा कि जितना पढ़ेंगे, उतना बढेंगे। अपनी कलम पर भरोसा रखें, सब का एक समय आता है। साधना पूरी हो जाएगी तो मंजिलें  पता पूछते हुए खुद चली आएंगीं।

❐❐❐

© श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’

संपर्क : 30 गुरुछाया कालोनी, साईंनगर, अमरावती-444607

मो. 9422856767, 8971063051  * E-mail[email protected] *  web-sitehttp://sites.google.com/view/bhagwan-vaidya

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – जीवन-यात्रा ☆ आत्मसंवाद – लेखक हा आधी वाचक असावा लागतो…. – भाग 4 ☆ श्री आनंदहरी

श्री आनंदहरी

? आत्मसंवाद ? 

☆ लेखक हा आधी वाचक असावा लागतो…. – भाग 4 ☆ श्री आनंदहरि  

मी :-  चांगल्या साहित्याचा मानदंड काय आहे किंवा असावा असे तुम्हांला वाटते ?

आनंदहरी :-  मला वाटते चांगल्या वगैरे न म्हणता साहित्याचा मानदंड असे म्हणावे. साहित्यिक हा स्वांतसुखाय लिहितो असे म्हणतात आणि ते खरेही आहे. पण एकदा स्वांतसुखाय लिहून झाले की ते वाचकांचे होते. साहित्य हे वाचकाला वाचावेसे वाटणे, त्याने साहित्याशी एकरूप होणे, तद्रूप होणे हा म्हणजे वाचनियता हा साहित्याचा एकमेव मानदंड आहे असे मला वाटतं.. साहित्य आणि मानवी जीवनाचा विचार मनात येतो तेंव्हा मला चक्रधर स्वामींच्या हत्ती आणि आंधळ्यांची गोष्ठ आठवते.. साहित्य, मानवी जीवन हे हत्तीसारखे असते आणि आपण असतो पाहणारे, त्याचा अनव्यार्थ लावू पाहणारे, शोधू पाहणारे, त्या गोष्टीतील अंधांसारखे;  कारण आपण जे जीवन पाहतो, साहित्य वाचतो, लिहितो ते हिमनगाचे केवळ टोक असते. आणि शाश्वत निसर्ग आणि अशाश्वत माणूस याचा विचार करता ते तसे असणारही आहे.

मी:- तुमची साहित्य लेखनामागची भूमिका काय आहे ?

आनंदहरी :- फक्त साहित्यिक, विचारवंतांचीच नव्हे तर बहुतांशु व्यक्तींची विचार-आचाराची व्यक्तीगत अशी भूमिका असते, जी त्या व्यक्तीच्या संस्कारातून, वाचन, चिंतन, मननातून आणि भवतालीच्या स्थिती-परिस्थितीमुळे, सभोवती घडणाऱ्या घटना-प्रसंगामुळे निर्माण झालेली असते. प्रत्येक साहित्यिकाने स्वतःची अशी स्पष्ट भूमिका घेतलीच पाहिजे असे म्हणले आणि मानले जाते. आणि ते खरेही आहे. पण मला वाटते आपली जी भूमिका असेल तिच्या केंद्रस्थानी माणूस असायला हवा.. आणि ती भूमिका काळाच्या कसोटीवर प्रत्येकवेळी घासून पाहिली पाहिजे. काल घेतलेली भूमिका आज जर निरर्थक ठरत असेल तर आपल्या भूमिकेवर आपल्या मनात विचारमंथन होऊन ती जर त्याज्य ठरत असेल तर हटवादीपणाने किंवा स्वयंअहंकाराने त्या भूमिकेला चिकटून न राहता ती भूमिका बदलणे उचित व न्याय्य असते.

मी :- साहित्य आणि जात, धर्म, पंथ याबद्दल तुमचे विचार काय आहेत ? साहित्यिक म्हणून तुमची जबाबदारी काय आहे असे तुम्हाला वाटते.

आनंदहरी :- जात, धर्म, पंथ हे सारे मानवनिर्मित आहेत. समाजव्यवस्थेचा एक भाग म्हणून या साऱ्याची निर्मिती झालेली असते. जी व्यवस्था समाज एकसंघ ठेवण्यासाठी निर्माण झालेली असेल, समाजजीवन व्यवस्थित राहावे म्हणून निर्माण झालेली असेल ती परिवर्तनीय आणि लवचिक हवी, असायलाच हवी. त्यामुळे समाज विघटित होत असेल, विभागला जात असेल, समाजात प्रेमाऐवजी द्वेष निर्माण होत असेल तर ती व्यवस्था निश्चितच बदलायला हवी किंवा त्यागायला हवी. असे मला वाटते त्यामुळे मी ते सारे मानत नाही आणि त्यामुळेच माझ्या साहित्यात त्यांचे अस्तित्व नसते..

या साऱ्याचा माणसाच्या आस्तिकतेशी, नास्तिकतेशी संबंध नाही. मला तर वाटते प्रत्येकजण हा आस्तिकच असतो कारण त्याची कशा ना कशावर, कुणा ना कुणावर भक्ती ही असतेच. श्रद्धा असतेच. देवत्व हे काही मूर्तीतच शोधायला हवे, मानायला हवे किंवा प्रार्थनगृहातच जाणायला हवे असे नाही.  लहानपणापासून माझ्यावर जे संस्कार झाले त्यामुळे आणि नंतरच्या आयुष्यातील चिंतन, मनन या साऱ्यांमुळे मी आस्तिक आहे पण ही आस्तिकता अंध नाही. माझी श्रद्धा ही डोळस श्रद्धा आहे. माझी माणसांवर भक्ती आहे, माणुसपणावर श्रद्धा आहे. माझा पांडुरंग हा मंदिरात,किंवा मूर्तीत नाही. तर तो,

कर कटावरी नाही

 त्याच्या हाती असे जोत 

असा दुसऱ्यासाठी, दुसऱ्याच्या हितासाठी कर्म करत राहणारा आहे.

मला तर वाटते कोणताही विचार किंवा विचारधारा ही काळ आणि परिस्थितीसापेक्ष असते. ती जर कालानुरूप बदलत असेल तरच मानवाला उपयुक्त ठरते. अन्यथा ती त्याज्य ठरते याची जाणीव आपल्या मनात असायलाच हवी.

चिरकाल, कालातीत असे काहीच नसते.निश्चित असेही काही नसते.. ही अनिश्चितता तर आपण गेल्या वर्षा-दीड वर्षात अनुभवत आहोत.. तरीही आपल्याला सारे काही कळूनही वळत मात्र काहीच नाही.. ही खरोखरच गांभीर्याने विचार करण्याची गोष्ठ आहे. आपल्याला निसर्ग खूप काही शिकवत असतो. फक्त आपण आपला अहंकार, आपल्यातील ‘मी’ पण  सोडून देऊन ते समजून घ्यायला हवे.. मी’ पणा सोडल्याशिवाय आपण माणूस होऊ शकत नाही असे मला वाटते आणि हे सारे आपल्या साहित्यातून समाजात रुजवण्याची, समाजाच्या ध्यानात आणून देण्याची जबाबदारी प्रत्येक साहित्यिकाची आहे असे मला वाटते.

आत्मसाक्षात्कारच्या निमित्ताने मला माझ्या अंतर्मनात डोकावून पाहण्याची, स्वतःला जाणून घेण्याची संधी मिळवून दिली त्याबद्दल मी ई-अभिव्यक्तीच्या संपादकांचा आभारी आहे.धन्यवाद!

समाप्त

© श्री आनंदहरी

इस्लामपूर, जि. सांगली

भ्रमणध्वनी:-  8275178099

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – ☆ जीवनयात्रा ☆ मेरी सृजन-यात्रा – भाग – 1 ☆ श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’

श्री भगवान वैद्य प्रखर

(हम स्वयं से संवाद अथवा आत्मसंवाद अक्सर करते हैं किन्तु, ईमानदारी से आत्मसाक्षात्कार अत्यंत कठिन है। प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री भगवान् वैद्य “प्रखर” जी का आत्मसाक्षात्कार दो भागों में।)

☆ जीवनयात्रा ☆ मेरी सृजन-यात्रा  – भाग – 1 ☆ श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’☆

मैं कई बार, कई विषयों पर अपने-आप से अकेले में वार्त्तालाप  करता रहता हूँ। सलाह-मशविरा, जिरह करता हूँ, प्रश्न पूछता हूँ, खुद ही उत्तर देता  हूँ। पर यह कभी सोचा न था कि इस प्रकार की बातचीत में जो संवाद होता है, उसे कभी कागज पर उतारना पड़ेगा। सांगली की हमारी आत्मीय बहना, सुप्रसिद्ध मराठी लेखिका, यशस्वी अनुवादक सुश्री उज्ज्वला केळकर जी ने एक दिन दिलचस्पी दिखायी इस प्रकार की  ‘अपने-आप से बातचीत’ में और उसी का नतीजा है यह आत्म-साक्षात्कार:   

प्रश्न: ‘प्रखर’ जी, हाल ही में आपको हैदराबाद का ‘आनंदऋषि साहित्य निधि पुरस्कार’ घोषित हुआ है। सबसे पहले तो उसके लिए आप हार्दिक बधाई स्वीकार करें । साथही, जरा यह भी बतलाइए कि यह किस प्रकार का पुरस्कार है और उसका क्या स्वरूप है?

उत्तर: जी, धन्यवाद। हैदराबाद स्थित एक संस्था है, आचार्य आनंदऋषि साहित्य निधि संथा। यह संस्था  प्रतिवर्ष दक्षिण भारत के छह राज्य अर्थात महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु, और गोवा तथा पुडुचेरी के हिंदीतर भाषी -हिंदी लेखकों में से किसी एक का चयन करके उन्हें उनके हिंदी साहिय-सृजन के लिए पुरस्कार देकर सम्मानित  करती है। आचार्य आनंदऋषि जी म.सा. की जयंती पर हैदराबाद में आयोजित समारोह में, इकतीस हजार की सम्मान राशि, दुशाला, मुक्ता-लड़ी, प्रशस्ति-पत्र प्रदान करके लेखक को समारोहपूर्वक गौरवान्वित किया जाता है। पुरस्कार के लिए संस्था द्वारा चुने गये विद्वानों से प्रस्ताव आमंत्रित किये जाते हैं जिनपर निर्णायकों की समिति द्वारा विचार-विमर्श करके निर्णय लिया जाता है। इसके पहले यह पुरस्कार 29 लेखकों को मिल चुका है जिनमें डॉ. बालशौरि रेड्डी, वसन्त देव, डॉ. शंकर पुणताम्बेकर, श्रीपाद जोशी, डॉ.सूर्यनारायण रणसुंभे, डॉ.दामोदर खड़से आदि शामिल हैं।

प्रश्न: आपको पुनश्च बधाई। प्रखर जी, आपको इससे पूर्व भी अनेक पुरस्कार मिले हैं जिनपर आगे बातचीत में चर्चा करेंगे ही पर पहले कुछ और विषयों पर चर्चा करते हैं।  

उत्तर: जी, अवश्य।

प्रश्न:  इधर कुछ दिनों से पत्र-पत्रिकाओं में आपकी लघुकथाएं लगातार छप रही हैं। दृष्टि, अविराम साहित्यिकी, कथादेश, हंस,लघुकथा डॉट कॉम, हिन्दी चेतना आदि में प्रकाशित आपकी लघुकथाएं खूब सराही गयी हैं। कुछ लघुकथाओं का मराठी में अनुवाद भी प्रकाशित हो चुका है। -तो सीधा प्रश्न यह है कि व्यंग्य, कहानी, कविता लिखते -लिखते आप अचानक लघुकथा में कैसे आ गये? 

उत्तर: ‘लघुकथा’ में मैं अचानक नहीं आया। आपको जानकर शायद आश्चर्य हो कि मेरी पहली लघुकथा ‘कवि(ता) और भविष्य’ दैनिक नवभारत, रायपुर के 20 दिसंबर 1973 के अंक में प्रकाशित हुई थी। मैं तबसे लघुकथाएं लिख रहा हूँ। सारिका(मार्च’1986), कादम्बिनी (अप्रैल’1986) में मेरी लघुकथाएं प्रकाशित हो चुकी थीं। -यही है कि लघुकथा मेरे लेखन की प्रमुख विधा न थी। इसी कारण 100 लघुकथाओं का पहला संग्रह ‘हजारों-हजार बीज’ दिशा प्रकाशन, दिल्ली से वर्ष 2002 में प्रकाशित हुआ। यानी उन्नीस वर्ष लग गये। उसके बाद दूसरा लघुकथा-संग्रह ‘बोनसाई’ वर्ष 2018 में किताब घर, दिल्ली से ‘आर्य-स्मृति साहित्य सम्मान’ का तमगा लेकर प्रकाशित हुआ। अर्थात अन्य विधाओं के साथ-साथ लघुकथा-लेखन जारी रहा। फर्क यही हुआ कि इन दिनों पूरा ध्यान लघुकथा-लेखन पर है।     

प्रश्न: इसका आप क्या कारण मानते हैं?

उत्तर: कारण यह है कि ‘आर्य-स्मृति साहित्य सम्मान’ प्रत्येक वर्ष किसी एक विधा की अखिल भारतीय -स्तर पर प्रविष्ठियां आमंत्रित करके चुनी गयी पुस्तक को दिया जानेवाला राष्ट्रीय सम्मान है। उसके लिए ‘बोनसाई’ के चुने जाने पर लघुकथा-जगत का ध्यान मेरी ओर आकर्षित हुआ।दिग्गज लघुकथा-लेखक, समीक्षक सम्पर्क में आएं। अनेक लघुकथा-संग्रह प्राप्त होने लगे। पूरी तरह लघुकथा के लिए समर्पित पत्रिकाएं डाक से घर आने लगीं। मेरी रचनाएं आमंत्रित की जाने लगीं। इस प्रकार अनायास मेरी पहचान लघुकथा -जगत से हो गयी।

प्रश्न: तो क्या अब आप अन्य विधाओं से विरत हो चुके हैं?

उत्तर: जी, ऐसा कहना उपयुक्त नहीं होगा। लेकिन यह मेरा स्वभाव रहा है कि किसी विधा में पूरे मन से जुड़ने के बाद मैं उसमें अपनी एक पहचान कायम करना चाहता हूँ।  व्यंग्य लिखने लगा तो लगभग 300 रचनाएं लिखीं। धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, रविवार, नवभारत टाइम्स, दैनिक हिन्दुस्तान समान राष्ट्रीय-स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित हुईं। चार व्यंग्य-संग्रह प्रकाशित हुए।  नागपुर से प्रकाशित दैनिक ‘लोकमत समाचार’ में दो-वर्ष साप्ताहिक ‘व्यंग्य-कॉलम’ में योगदान दिया। व्यंग्य-संग्रह ‘बिना रीढ़ के लोग’ को भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय पुरस्कार देकर सम्मानित किया गया।- तीन कहानी-संग्रह प्रकाशित हुए हैं। हंस, कथादेश, शुक्रवार, जागरण सखि,भाषा, वर्तमान साहित्य ,साहित्य भारती, नवभारत टाइम्स, दै. हिन्दुस्तान आदि पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित हुईं। कहानी ‘ढोल बजाती शहनाइयां’ को  युद्धवीर फाउण्डेशन के तत्वावधान में, दैनिक मिलाप, हैदराबाद द्वारा आयोजित ‘अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता’ में आंध्र-प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल, महामहिम डॉ. रंगनाथन जी के हस्ते प्रथम पुरस्कार (दि. 30.4.2002) प्राप्त हुआ। दो कहानी-संग्रह (1.सीढ़ियों के आसपास 2. चकरघिन्नी)को महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा ‘मुंशी प्रेमचंद पुरस्कार’ प्रदान किया गया। – दो कविता-संग्रह हैं। उसमें से एक ‘अंतस का आदमी’ को म. रा. हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा ‘संत नामदेव पुरस्कार’ से नवाजा गया।- मराठी की 6 (छह) पुस्तकों सहित 35 कहानियों का हिंदी में अनुवाद किया जो भारतीय ज्ञानपीठ, साहित्य अकादेमी, भारतीय भाषा परिषद, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, मध्य प्रदेश संस्कृति परिषद आदि प्रतिष्ठित संस्थाओं की पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ। अनूदित पुस्तक ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे (प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित)’ को म. रा. हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा ‘मामा वरेरकर पुरस्कार’ प्रदान किया गया। – कहने  का मतलब इन विधाओं में मैंने अपना एक मक़ाम हासिल किया है।

प्रश्न : तो अब लघुकथा में आप क्या करना चाहते हैं? 

उत्तर: संक्षेप में कहूं तो कुछ लघुकथाएं ऐसी लिखना चाहताहूँ जिनसे इस विधा में मेरी अपनी अलग पहचान बनें।। ‘बोनसाई’ एक ‘मक़ाम’ जरूर है पर लगता है, अभी मेरी साधना अधूरी है। कुछ रचनाएं बनी हैं, बन रही हैं, प्रकाशित हो रही हैं, प्रशंसा भी पा रही हैं। लेकिन लगता है, अभी बहुत कुछ तराशना बाकी है।

प्रश्न:  इसके लिए आप क्या कर रहे हैं?’

उत्तर: इस विधा को समझने की कोशिश कर रहा हूँ। नयी-पुरानी अधिक से अधिक लघुकथाएं, समीक्षाएं पढ़ रहा हूँ। ‘दिशा प्रकाशन, दिल्ली’  द्वारा प्रकाशित लघुकथा के 25 खण्ड,डॉ. राम कुमार घोटड़ के विभिन्न संग्रह पढ़े। ख़लील जिब्रान, सआदत हसन मंटो, मुंशी प्रेमचंद, हरिशंकर परसाई, विष्णु प्रभाकर से लेकर वर्तमान स्थापित तथा नवोदित लघुकथाकारों की हजारों लघुकथाएं पढ़ीं और पढ़ रहा हूँ। सर्वश्री कमल किशोर गोयनका, शंकर पुणताम्बेकर, बलराम, बलराम अग्रवाल, अशोक भाटिया, सुकेश साहनी, सतीशराज पुष्करणा आदि के आलेख और समीक्षाएं पढ़ीं। एक और बात यहाँ बता दूं। मेरी साहित्य-यात्रा व्यंग्यकार के रूप में आरंभ हुई। चलते-चलते कहानी साथ हो ली। यदा-कदा कविता ने उंगली थामी। इन सबका साथ लेकर अब मैं लघुकथा को साधना चाहता हूँ और मुझे इसमें आशातीत सफलता मिल रही है।

प्रश्न: रचना के लिए विधा का चुनाव कैसे करते हैं?

उत्तर: रचना पहले एक बिम्ब के रूप में जेहन में उभरती है। उस पर अंतर्मन में चिंतन-मनन आरंभ होता है। आकार मिलने लगता है। इस बीच, उसके लिए कौन-सी विधा उपयुक्त होगी यह रचना खुद तय कर लेती है।

प्रश्न : लेकिन कविता बनेगी, लघुकथा लिखी जायेगी, कहानी लिखना चाहिये या व्यंग्य यह किस प्रकार तय होता है?

उत्तर: आपके पास कितनी जमीन है और उसकी कितनी उर्वरा-शक्ति है, इस पर यह निर्भर करता है कि आप कौन-सी फसल लेंगे। इसमें आपकी सृजन-क्षमता का महत्वपूर्ण ‘रोल’ होता है। किसी के हाथ काष्ठ का एक टुकड़ा पड़ जाए तो बैठे-बैठे उस पर किसी कील से लकीरें खींचकर स्वस्तिक बना देगा। वहीं कोई चित्रकार उस पर ‘युगल’ उकेर लेगा तो कोई ऐसा भी होगा जो उस पर पूरी वाटिका का चित्र बनाकर उसमें राम ,सीता का मिलन दर्शाएगा। इसी प्रकार किसी एक घटना पर कोई लेखक कविता या प्रभावशाली लघुकथा, दूसरा लेखक बढ़िया कहानी तो कोई और बृहद उपन्यास भी लिख सकता है।

प्रश्न: आपके मन में लेखन के लिए ये बिम्ब कैसे उभरते हैं?

उत्तर: आपने अच्छा प्रश्न किया है। बिम्ब हर चिंतनशील व्यक्ति के मन में उभरते हैं। लहरों की भांति। यही है कि जैसे हर लहर को किनारा नसीब नहीं होता उसी प्रकार प्रत्येक बिम्ब को आकार नहीं मिल पाता। अपनी बात कहूं तो, मेरा नाम है, भगवान वैद्य। मैं सांसारिक गतिविधियों में मगन एक सामान्य गृहस्थ हूँ। लेकिन मेरे भीतर एक और व्यक्ति है। उसका नाम है, भगवान वैद्य ‘प्रखर।’ यह अति संवेदनशील, चतुर्दिक आंखों वाला, औघड़ आदमी है। अपने-आप में मगन। उसे किसी से कुछ लेना-देना नहीं है। मुझसे भी नहीं। वह सोते-जागते अपना काम करता रहता है। यहां तक कि जब भगवान वैद्य ब्रश करते रहता है तब यह आदमी किसी अधूरी रचना के लिए बेहतर शीर्षक, पात्रों के बेहतर नाम या सटीक पर्यायी शब्द खोजता रहता है। मैं यानी भगवान वैद्य, जहां कहीं जाता हूँ, यह आदमी अदृष्य रूप में सदैव मेरे साथ रहता है और अपनी जमीन के लिए ‘बीज’ खोजता, बटोरता रहता है। बाद में, अकेले में मुझे सौंपता है। फिर हम दोनों एकाकार होकर अपनी चादर बुनते हैं। उसे आकार, रंग देते हैं।सजाते-संवारते हैं। एक और बात बतला देना चाहता हूँ। जब तक वह चादर पूरी नहीं होती तब तक यह आदमी ‘भगवान वैद्य’ को चैन से नहीं रहने देता, जीना हराम कर देता है।

प्रश्न: आपने ऊपर अनुवाद का जिक्र किया है। मौलिक साहित्य-सृजन करते-करते आप अनुवाद की ओर कैसे मुड़ गये?

उत्तर: यह एक रहस्य है। अंतर्मन में उपजी पीड़ा की सांत्वना का रहस्य। मैं मूलत: मराठी-भाषी हूँ। न केवल मेरी मातृभाषा मराठी है, मेरी मैट्रिक तक की शिक्षा का माध्यम भी मराठी ही रहा है। घर में मेरी भाषा मराठी (पत्नी के साथ हिंदी भी) है । नौकरी के लिए मुझे मध्य प्रदेश जाना पड़ा। वहां मराठी माध्यम में आगे पढ़ाई संभव न थी। दूसरा कारण यह था कि वहां के लोग मेरी हिंदी पर हँसते थे। इस कारण हिंदी सीखना जरूरी था। भोपाल बोर्ड से इंटरमीजिएट और जबलपुर विश्वविद्यालय से हिंदी माध्यम लेकर बी.ए. किया।  आस-पड़ोस, सहकर्मी, सब हिंदी भाषी थे। जब साहित्य- सृजन आरंभ  हुआ तो अहसास हुआ कि मैं अपनी भावनाओं को हिंदी में बेहतर सम्प्रेषित कर सकता हूँ। मातृभाषा में न लिख पाने का अफसोस था । कालांतर में, उसी की भरपाई करने के लिए विचार आया कि क्यों न मराठी का कुछ उत्कृष्ट साहित्य हिंदी में उपलब्ध कराया जाए!- इसी बात ने मुझे मराठी से हिंदी में अनुवाद-कार्य के लिए प्रवृत्त किया।

प्रश्न: साहित्य-सृजन के लिए कोई पारिवारिक पृष्ठभूमि न थी । भाषा अपनायी तो हिंदी अर्थात मातृभाषा से इतर। पढ़ाई मात्र स्नातक-स्तर तक। कार्य-क्षेत्र भी शिक्षा या साहित्य से जुड़ा हुआ नहीं । तब हिंदी में साहित्य -सृजन की प्रेरणा कहां से मिली?

उत्तर:  मध्य प्रदेश के पी.डब्लू.डी. विभाग का सब-डिविजन ऑफिस था, सौंसर(जिला-छिंडवाड़ा) में। वहां पहली नौकरी लगी। ऑफिस में ‘घरेलू लाइब्रेरी योजना’ के अंतर्गत हर माह ‘हिंद पॉकेट बुक्स’ की दस पुस्तकें आती थीं। लाइब्रेरी मेरे जिम्मे थी। धीरे-धीरे मैं हिंदी पुस्तकें पढ़ने लगा । रवीन्द्रनाथ टैगोर, शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय, बंकिमचंद्र, प्रेमचंद, आचार्य चतुरसेन,शिवानी आदि की पुस्तकों के पॉकेट-बुक्स संस्करण पढ़े। किताबें पढ़ने का चसका लग गया। 1965 में मैं जबलपुर चला गया, डाक-तार विभाग में। वहां पांच साल रहा। मेरे एक सहकर्मी साहित्यकार थे। उनसे मित्रता हो गयी। वे कहानियां लिखते थे। उनकी दृष्टि में, मेरे अक्षर अच्छे थे। वे मुझे अपनी कहानियां कॉपी करने के लिए दिया करते। (उन दिनों आज की तरह कम्प्यूटर आदि की सुविधा न थी और टाइप कराना महंगा पड़ता था।)  कुछ समय बाद मैं उनसे उनकी कहानियों पर चर्चा करने लगा। मुझे लगने लगा कि फलां कहानी कुछ और तरीके से भी लिखी जा सकती है। इस प्रकार सृजन का बीज अंकुरित होने लगा। इस बीच मैंने सुबह के कॉलेज में दाखिला लेकर बी. ए. कर लिया। जबलपुर में उन दिनों जबर्दस्त साहित्यिक माहौल था।सेठ गोविंद दास, नर्मदाप्रसाद खरे, ज्ञानरंजन, व्यंग्य-सम्राट परसाई जी आदि दिग्गजों की तूती बोलती थी। हिंदी के श्रेष्ठतम कवि काव्य -पाठ करने जबलपुर आया करते। मुझे भी लगने लगा कि कुछ लिखूं। लेकिन समय न था। सुबह कॉलेज, दिन भर ऑफिस।उसके बाद ओवर-टाइम। आधी तनख्वाह घर भेजना अपरिहार्य था। इस कारण ओवर-टाइम करना जरूरी था। अप्रैल 1971 में डाक-तार विभाग छोड़कर भारतीय जीवन बीमा निगम ज्वाइन कर लिया। पोस्टिंग मिली, भिलाई में। वहां मुझे पढ़ने-लिखने के लिए समय मिलने लगा।

लाइब्रेरी ज्वाइन कर ली। धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सारिका, कादम्बिनी, कहानी, कहानीकार, निहारिका, दिनमान, माधुरी जैसी पत्रिकाएं घर में बैठकर इत्मीनान से पढ़ने लगा। नवभारत, देशबन्धु, नवभारत टाइम्स, युगधर्म आदि अखबारों के साहित्य-परिशिष्ट देखने लगा।। कुछ ही दिनों में,  इन्हीं में लिखने लगा।

क्रमशः …..

© श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’

संपर्क : 30 गुरुछाया कालोनी, साईंनगर, अमरावती-444607

मो. 9422856767, 8971063051  * E-mail[email protected] *  web-sitehttp://sites.google.com/view/bhagwan-vaidya

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – जीवन-यात्रा ☆ आत्मसंवाद – लेखक हा आधी वाचक असावा लागतो…. – भाग 3 ☆ श्री आनंदहरी

श्री आनंदहरी

? आत्मसंवाद ? 

☆ लेखक हा आधी वाचक असावा लागतो…. – भाग 3 ☆ श्री आनंदहरि  

मी :- तुम्ही कथा, कविता, कादंबऱ्या लिहिल्या आहेत.. आणखी काही लिहिले आहे का ? आणि ते कुठे कुठे प्रसिद्ध झाले आहे ?

आणि  तुम्ही यापैकी नेमक्या कोणत्या साहित्यप्रकारात जास्त रमता किंवा तुम्हाला स्वतःला कोणत्या साहित्यप्रकारात लिहायला जास्त आवडते ?

आनंदहरी :- खरे तर मी शब्दांत आणि माणसांत जास्त रमतो. मला वाटते वेगवेगळे साहित्यप्रकार ही फक्त वेगवेगळी रूपे आहेत याचा आत्मा एकच आहे. आपण व्यक्त होत असतो तेव्हा ते शब्दच स्वतःचे रूप घेऊन येत असतात असे मला वाटते. कथा, कविता, कादंबरी बरोबरच मी एकांकिका लिहिण्याचाही प्रयत्न केला.  मराठी- मालवणी बोलीत एक बाल एकांकिका लिहिली होती. ती मार्च २००७ च्या ‘किशोर ‘ मासिकात प्रसिद्ध झाली . ती एकांकिका सिंधुदुर्ग व रत्नागिरी जिल्ह्यातील काही शाळांमध्ये बसवण्यातही आली होती. अनेक मासिके, नियतकालिके अनियतकालिके, दीपावली अंक यामधून  तसेच काही वृत्तपत्रांच्या साप्ताहिक पुरवण्यांमधून साहित्य प्रसिद्ध झाले आहे. तसे मी फारसे काही लिहिले आहे असे मला वाटत नाही. पाऊलखुणा, वादळ आणि बुमरँग या तीन कादंबऱ्या, ‘ती’ची गोष्ट, राकाण हे दोन कथासंग्रह आणि तू.., कोरडा भवताल व काळीज झुला हे तीन कवितासंग्रह प्रसिद्ध झाले आहेत. स्वामी स्वरूपानंदाच्या ‘ श्रीमत् संजीवनी गाथा ‘ वरील लेखमाला, व अन्य साहित्य अद्यापि पुस्तकरूपात प्रसिद्ध झालेले नाही.

मी :- तुमचे साहित्य हे नकारात्मक, दुःखांत असते असे म्हणले जाते,त्याबद्दल काय सांगाल?

आनंदहरी :-  समाजाला वास्तवाची जाणीव करून देणे, भान देणे हे साहित्यिक, विचारवंत यांचे काम असते असे मला वाटते. वास्तव हे कधीच सकारात्मक किंवा नकारात्मक नसते तर ते फक्त वास्तव असते. पारतंत्र्यातील अन्याय, अत्याचार हे दुःखद होते ते वास्तव समजले नसते तर स्वातंत्र्याचा लढाच उभारू शकला नसता. वास्तव हे सुखद असो वा दुःखद असो ते तसेच मांडले गेले पाहिजे.. वास्तवाच्या यथार्थ जाणिवेतच क्रांतीची बीजे रुजतात असे मला वाटते.  साहित्यात कधी समस्या आणि समाधान ही मांडले पाहिजे हे ही खरे आहे पण समाजाला स्वयंविचारी बनवण्यासाठी वास्तवाची परखड जाणीवही करून दिली पाहिजे असे मला वाटते. माणसाच्या जीवनाला विविध रंग असतात, विभ्रम असतात. ते तसे साहित्यात यायला हवेत. माझ्या साहित्यात वास्तव लिहिताना कधी दुःखांत लिहिलं गेलं .. पण दुःखांत म्हणजे नकारात्मक नव्हे.. रात्रीच्या अंधारानंतर जसे उजाडते, विश्व प्रकाशित होते, तसेच दुःखानंतर सुख असते.. ‘ सुख-दुःख समे कृत्वा ‘ असे म्हणलं जातं.. पण आपण सामान्य माणसे त्यामुळे आपल्याला ते समान कसे भासेल? साहित्य हे जीवनस्पर्शी आणि जीवनदर्शी असते त्यामुळे साहित्यात सुख-दुःख येणार तसेच माणसाच्या मनातील सर्व भावभावना, षड्रिपु यांचा समावेश साहित्यात असणारच.. त्यामुळे माझ्या साहित्यात मन व्यथित करणाऱ्या  दुःखांत कथा आहेत तशाच हलक्या फुलक्या, मनाला आनंद देणाऱ्या, ताणमुक्त करणाऱ्या मिस्कील कथाही आहेत. 

मी :-  तुमच्या साहित्यकृतींना काही पुरस्कार मिळाले आहेत त्याबद्दल काय सांगाल?

आनंदहरी :-  पुरस्कार किंवा स्पर्धा या लेखनासाठी प्रेरणा देणाऱ्या असतात. आरंभीच्या काळात त्यांची आवश्यकता असते. माझ्या  कादंबऱ्यांना, कोकण मराठी साहित्य परिषदेचा कै. वि. वा. हडप कादंबरी पुरस्कार, नवांकुर पुरस्कार , चिं. त्र्यं.खानोलकर कादंबरी पुरस्कार, कवी अनंत फंदी पुरस्कार यांसारखे अनेक पुरस्कार मिळाले. त्यामुळे आनंद झाला, लिहीत राहण्याची प्रेरणा मिळाली. आरंभीच्या काळात प्रेरणा मिळण्यासाठी पुरस्कार हे मिळालेले चांगलेच पण पुरस्कार मिळाले तरच ते साहित्य चांगले असते असे मला वाटत नाही. वाचकांचे अभिप्राय, पोचपावती हा मोठा पुरस्कार असतो असे मला वाटते.

मी :- कोणते साहित्य हे चांगले,दर्जेदार साहित्य आहे असे तुम्हांला वाटते?

आनंदहरी :- अमुक एक साहित्य चांगले, दर्जेदार, अमुक हलके असे मी मानत नाही. कारण साहित्य हे समाजाचा, त्यातील व्यक्तींच्या जगण्याचा, त्यांच्या अनुभवाचा,अनुभूतीचा आणि त्यांच्या कल्पनाविश्वाचा आरसा असतो..आणि जीवन काही साचेबंद असत नाही.. ते इतकं वैविध्यपूर्ण आहे की, ते शब्दबद्ध करता येणं काहीसं अवघड आहे. जीवनाचे अनेक पैलू आहेत, असतात. भय हे माणसाच्या मनात, कल्पनेत असतेच मग भय, रहस्यमयता, गूढता हीसुद्धा मानवीजीवनाची अविभाज्य अंगे आहेत मग त्याचा अंतर्भाव असणारे साहित्य हे साहित्य नव्हे काय ? बाबुराव अर्नाळकर यांच्या रहस्य कथांनी, साहित्याने अनेक पिढ्यांना वाचनाची गोडी लावली, ओढ लावली, सवय लावली त्यांना साहित्यिक मानले जात नाही. जगदीश खेबुडकर यांसारख्या दिग्गज गीतकार, कवीला साहित्यिक मानले जात नव्हते ( नाही ) असे जेव्हा ऐकायला,वाचायला मिळाले तेंव्हा खेद वाटला.. जीवनाच्या विशाल, विविधांगी पटाला शब्दबद्ध करणाऱ्या  साहित्याला आपण संकुचित तर करत नाही ना ? असे वाटत राहते.

मी :- तुम्ही वाचण्यासाठी पुस्तकांची निवड कशी करता..? निवडक साहित्य वाचता की… ?

आनंदहरी :-  निवडक साहित्य वाचतो असे काही जण म्हणतात. निवडक म्हणजे नेमके काय ? ते कोण ठरवते. खूप प्रसिद्धी लाभलेले,चर्चेत आलेले साहित्य म्हणजे निवडक की कुणी शिफारस केलेले साहित्य म्हणजे निवडक ? हे नव्या लिहिणाऱ्यांवर अन्याय करण्यासारखे नाही काय ? निवडकच्या नावाखाली असे नवीन लिहिणाऱ्यांचे साहित्य वाचलं न जाणे संयुक्तिक आहे काय ? न्याय्य आहे काय ? जे उपलब्ध होईल ते निदान वाचून पाहिले पाहिजे.. नाहीच बरे वाटले तर बाजूला ठेवणे हे योग्य आहे. एक इंग्रजी वाक्य आहे, Never judge the book by it’s cover.. मला वाटते हे वाक्य प्रत्येक वाचकाने हे ध्यानात ठेवले पाहिजे.  हे खरे आहे की, वाचकाचे मन ज्या प्रकारच्या साहित्यात रमते त्या प्रकारचे साहित्य तो वाचतो, वाचणार कारण ते त्याला वाचनानंद देणारे असते पण त्याचबरोबर इत्तर प्रकारचे, इतर लेखकांचे साहित्य वाचून पाहायला हवे.. किमान पुस्तक चाळले तरी नेमकं काय लिहिलंय, कसे लिहिलंय हे समजू शकते. मी स्वतः सर्व प्रकारची पुस्तके वाचतो.  सर्व विषयावरील पुस्तके वाचत असतो. 

क्रमशः ….

© श्री आनंदहरी

इस्लामपूर, जि. सांगली

भ्रमणध्वनी:-  8275178099

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – जीवन-यात्रा ☆ आत्मसंवाद – लेखक हा आधी वाचक असावा लागतो…. – भाग 2 ☆ श्री आनंदहरी

श्री आनंदहरी

? आत्मसंवाद ? 

☆ लेखक हा आधी वाचक असावा लागतो…. – भाग 2 ☆ श्री आनंदहरि  

मी :- पहिली कथा किंवा कविता कधी आणि कुठे प्रसिद्ध झाली.

आनंदहरी :-  नोकरीच्या व्यापातून लिहिणे आणि प्रसिद्धीला पाठवणे तसे जमलेच नाही. त्यात स्वभाव भिडस्त त्यामुळे पुढे होऊन स्वतःबद्दल बोलणे, सांगणे, स्वतःला प्रमोट करणे जमायचे नाही, अजूनही जमत नाही. प्रारंभीच्या काळात एक दोन मासिकांना कथा आणि कविता पाठवल्या होत्या पण त्या प्रसिद्ध झाल्या नाहीत. त्यामुळे आपले लेखन अजून प्रसिद्धीयोग्य नाही असे वाटयाचे. नंतरही लिहीत होतो पण ते सारे वहीत असायचे. १९९५ ला सिंधुदुर्ग विभागात बदली झाली. लहान विभाग असल्याने कामाचा ताण कमी होता. वाचन आणि लेखन होऊ लागले. विभागीय मुख्यालय कणकवली येथे असल्याने तेथील आप्पासाहेब पटवर्धन नगरवाचनालयात साहित्यिक कार्यक्रम होत असत त्याला उपस्थित राहू लागलो. त्या दरम्यानच दै. पुढारीची सिंधुदुर्ग आवृत्ती सुरू झाली. शशी सावंत हे आवृत्तीप्रमुख होते. माझे कार्यालयीन सहकारी कवी सुरेश बिले यांच्यामुळे त्यांचा परिचय झाला होता. मी काहीतरी लिहितो हे त्यांना समजले होते. त्यांनी पुढारी आवृत्ती सुरू करतानाच ‘नवांकुर ‘ही साहित्यिक पुरवणी सुरू केली होती. त्यासाठी माझ्या कथा, कविता मागितल्या. ‘ नवांकुर ‘या साहित्यिक पुरवणीतून माझे साहित्य नियमित प्रसिद्ध होऊ लागले. सिंधुदुर्ग येथील साहित्य वर्तुळात नाव परिचित होऊ लागले. लिहिण्याचा उत्साह वाढला. मी नवांकुरमध्ये ‘प्रतिबिंब’ नावाचे सदर लिहीत होतो. ते अनेकांना आवडल्याचे अभिप्राय पुढारीकडे येत होते. गंमतीची गोष्ट म्हणजे नाव परिचित झाले असले तरी मी या नावाने लिहितो हे मोजका मित्रपरिवार वगळता कुणालाच ठाऊक नव्हते. त्यामुळे मला व्यक्तिशः कुणी ओळखत नव्हते.

मी :- मराठी साहित्यात टोपणनाव घेऊन विशिष्ठ साहित्यप्रकार लिहिण्याची एक समृद्ध परंपरा आहे अगदी उदाहरणच द्यायचे झाले तर गोविंदाग्रज, केशवकुमार, कुसुमाग्रज, ठणठणपाळ . तुम्ही टोपणनाव का घेतलेत ?

आनंदहरी :- हे सारे दिग्गज प्रातः स्मरणीय, वंदनीय आहेत. माझ्या सुरवातीच्या काही कथा,कविता या नावाने प्रसिद्ध झाल्या होत्या पण त्यादरम्यान नोकरीतील वरिष्ठानी नाराजी दर्शवत नियमावर बोट ठेवत व्यवस्थापकीय संचालकांची पूर्व परवानगी न घेतल्याचा मुद्दा उपस्थित केला. त्यांचा मुद्दा चुकीचा नव्हता. त्या दरम्यान पावस येथील स्वामी स्वरूपानंद यांच्या ‘श्रीमत् संजीवनी गाथा ‘ यावर मी प्रदीर्घ लेखमाला लिहावी असे शशी सावंत यांना वाटत होते. त्यांना अडचण सांगितल्यावर, त्यांनी सुचवल्यानुसार टोपण नावाने सर्व लेखन करायचे ठरवले आणि पुढील सर्व लेखन याच नावाने प्रसिद्ध झाले.

सांगण्यासारखी गमतीची गोष्ट म्हणजे नंतर एका कार्यक्रमात तत्कालीन जिल्हाधिकारीं भूषण गगराणी यांनी ‘प्रतिबिंब ‘ या सदरलेखनाचे आणि ज्येष्ठ साहित्यिक कै. प्रा. विद्याधर भागवत यांनी साहित्यलेखनाचे कौतुक केले होते. ते समजताच त्याच वरिष्ठ अधिकाऱ्यांनी स्वतःच्या कक्षात सर्व अधिकाऱ्यांच्या उपस्थितीत कौटुंबिक सत्कारही केला.

मी :- तुमच्या नोकरीचा तुम्हांला साहित्यलेखनाच्या दृष्टीने काही उपयोग झाला का ?

आनंदहरी :- निश्चितच झाला. आपला भोवताल हाच आपला प्रेरणास्रोत असतो आणि तोच आपल्या साहित्यात येत असतो. क्षणाक्षणाला आपण अनेक नवनवीन अनुभवांनी आणि अनुभूतीनी संपन्न होत असतो.. तेच आपल्या साहित्यलेखनात  उतरत असते. मला नोकरीत वेगवेगळी व्यक्तिमत्वे जवळून पाहता, अनुभवता आली त्यांचा प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष उपयोग झालाच. प्रामुख्याने माझे आयुष्य हे ग्रामीण आणि अर्धनागर भागात गेल्याने तेच भवताल जास्त प्रमाणात साहित्यात आलेले आहे आणि मला वाटते प्रत्येक साहित्यिकाबाबत असेच असते.

मी :- तुम्ही साहित्यलेखनाबरोबर साहित्यिक चळवळीत सक्रिय असता त्यामागे नेमका कोणता विचार आहे ?

आनंदहरी :-  खरेतर आपण कुणाचे तरी बोट धरून या अंगणात चालायला सुरुवात केलेली असते, चालायला शिकलेलो असतो. आपणही नंतर कुणाचे तरी बोट धरून त्याला इथे चालायला शिकवणे, चालताना सोबत करणे हे आपले कर्तव्य आहे असे मला वाटते. ‘जे जे आपणांसी ठावे, ते सकलांशी सांगावे..’

खरे सांगायचे तर मी साहित्यिकांपेक्षा साहित्य-समाज चळवळीतील एक साधा, छोटा कार्यकर्ता आहे असे मला वाटते. साहित्यिक हा समाजाचे मानसिक, वैचारिक नेतृत्व करीत असतो आणि त्याने ते तसे करणे अपेक्षित आहे असे माझे मत आहे. एकटे पुढे जाऊन काय साध्य होणार ?  साहित्यिकाने आपल्यासोबत इतरांनाही सोबत घेऊन जायला हवे.  ‘ काफिला बनता गया’ अशी स्थिती होण्याची वाट न पाहता ‘ काफ़िला ‘ बनवून त्यासोबतच पुढे जायला हवे असे मला वाटते. मी सिंधुदुर्ग जिल्ह्यात खूप वर्षे काढली त्यावेळी कोकण मराठी साहित्य परिषदेच्या एक कार्यकर्ता म्हणून आवडीने कार्यरत होतो.. नंतरही आणि त्याआधीही  छोटासा कार्यकर्ता म्हणून साहित्यिक, सांगीतिक कार्यक्रमात असायचो, आहे. सध्या पेठ जि.सांगली येथील तिळगंगा साहित्यरंग परिवारामध्ये आणि सामाजिक कार्यात स्वयंसेवक म्हणून कार्यरत असतो. खरंतर यासाठी सर्वस्व त्यागून काम करण्याची आवश्यकता नसते. जेव्हा आपल्याला थोडाफार वेळ मिळतो त्यावेळी स्वयंप्रेरणेने, स्वेच्छेने आणि निरपेक्ष भावाने जे शक्य असेल ते करावे असे मला वाटते. आपण या समाजाचे, या मातीचे देणे लागत असतो याची जाणीव मनात ठेवायलाच हवी. त्याची उतराई होणे शक्यच नसते पण आपण या प्रकारे कार्यरत राहून त्यांचे ऋण मान्य करू शकतो.

क्रमशः ….

© श्री आनंदहरी

इस्लामपूर, जि. सांगली

भ्रमणध्वनी:-  8275178099

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – जीवन-यात्रा ☆ आत्मसंवाद – लेखक हा आधी वाचक असावा लागतो…. – भाग 1 ☆ श्री आनंदहरी

श्री आनंदहरी

? आत्मसंवाद ? 

☆ लेखक हा आधी वाचक असावा लागतो…. – भाग 1 ☆ श्री आनंदहरी

ज्येष्ठ साहित्यिका, संपादिका  सौ. उज्वलाताई केळकर यांनी ई अभिव्यक्ती आत्मसाक्षात्कार साठी स्वतःच स्वतःची मुलाखत घेण्याबाबत सांगितलं तेंव्हा पहिल्यादा नाही म्हणलं तरी दडपण आले कारण ज्येष्ठतम साहित्यिका तारा भवाळकर यांचा आत्मसाक्षात्कार वाचला होता..त्यानंतरही काही मान्यवरांनी स्वतःच घेतलेली स्वतःची मुलाखत वाचली होती. आणि खरेतर  मुलाखत घेणं आणि देणं याचा फारसा काही अनुभव नसताना ही मुलाखत घ्यायची होती. उज्वलाताईंचा आदेश ..

मग मीच माझे आयुष्य त्रयस्थपणे पाहण्याचा , स्वतःच्याच अंतरंगाशी , वर्तमानासह भूतकाळाशी जोडून घेण्याचा प्रयत्न करू लागलो. तेंव्हा एकच प्रश्न पडला…

‘नाहीतरी, ‘ मी पणा’ वगळून, स्वतःत त्रयस्थभाव आणून आपण स्वतःशी असा कितीसा संवाद करत असतो ? ‘  ‘मी’ ला टाळता येत नसलं तरी ‘मी पणाला’ टाळण्याचा प्रयत्न करीत आत्मसंवाद साधण्याचा केलेला छोटासा प्रयत्न म्हणजे हा आत्मसाक्षात्कार..

मी :- नमस्कार!

आनंदहरी :- नमस्कार !

मी :-  प्रत्येकालाच स्वतःचा जीवनप्रवास हा काहीसा वेगळा आहे असे वाटत असते. तुमचा आजवरचा जीवन प्रवास कसा झाला ?

आनंदहरी :-   आपण जेव्हा मागे वळून पाहतो तेंव्हा वर्तमानाच्या पार्श्वभूमीवर भूतकाळ पाहत असतो. आणि म्हणून प्रत्येक पिढीच्या तोंडी ‘आमच्यावेळी असे होते.. तसे नव्हते ‘ असे शब्द असतातच. बदलत जाणाऱ्या काळाबरोबर सुखाच्या, संपन्नतेच्या व्याख्या, परिभाषा बदलत जातात ही जाणीव आपल्याला भूतकाळ आठवताना नसते असे मला वाटते. त्यामुळे भूतकाळ पाहताना त्या काळाचा, स्थिती-परिस्थितीचा आणि भवतालाचे विचार असणे अत्यंत महत्वाचे आहे. आपण स्वतःला इतरांहून कुणीतरी वेगळे मानत असतो म्हणून आपला भूतकाळ वेगळा आहे, कष्टप्रद आहे असे वाटत असते. खरेतर अपवाद वगळता समाजजीवन हे तसेच असते. त्यात ‘आपले ‘ म्हणून फारसे वेगळेपण असतेच असे नाही.

माझा जन्म आणि बालपण पेठ सारख्या छोट्या गावात गेले. वडील न्यू इंग्लिश स्कुल, पेठ जि. सांगली या माध्यमिक शाळेत मुख्याध्यापक होते. स्वातंत्र्योत्तर काळात शिक्षणाची गंगा खेडोपाडी वहायला सुरवात झाली होती. तो, तो काळ होता. आजूबाजूच्या दशक्रोशीतील खेड्यातील मुले चालत शाळेत येत होती. विद्यार्थ्यांकडे (आणि शिक्षकांकडेही ) सायकल असणे ही अपवादात्मक बाब होती. त्याकाळात आजच्यासारखी वैज्ञानिक प्रगती नव्हती. माणसाच्या गरजा कमी होत्या. साधी राहणी हा विचार मनामनात रुजलेला होता. बालपणापासूनचा जीवनाचा काळ हा सर्वार्थाने सुखद आणि संपन्नतेत गेला. नोकरी हीच उपजीविकेचे साधन असल्यामुळे नंतर विद्युत अभियांत्रिकीतील पदविका मिळवली. महाराष्ट्र राज्य परिवहन महामंडळात विद्युत अभियंता म्हणून नोकरी करून, कौटुंबिक जबाबदाऱ्या फारशा उरल्या नाहीत, पेन्शन नसली तरी मिळणाऱ्या उपदानातून आपण उर्वरित आयुष्य आत्तासारखेच साधेपणाने, सुखाने जगू शकतो असा विचार मनात येताच वयाच्या पंचावन्नाव्या वर्षी स्वेच्छानिवृत्ती घेतली. असे कोणत्याही वळणवाटा न येता आजवरचे संपूर्ण आयुष्य हे सरळ रेषेसारखे व्यतीत झाले आहे.

मी :-  तुम्ही साधेपणाचा उल्लेख केला आहे.. साधेपणा म्हणजे तुम्हांला नेमके काय म्हणायचंय ?

आनंदहरी :- सुख, संपन्नता या गोष्टी त्या काळी पैशाशी जोडल्या गेलेल्या नव्हत्या, खरे तर आजही त्या तशा जोडल्या गेलेल्या नाहीत पण अनेकांना तसे वाटते हे मात्र खरे आहे. माणसाच्या गरजा मर्यादित होत्या.  स्वतःबरोबरच इतरांचा विचार जास्त केला जायचा. सुख आणि संपन्नता ही मनाची स्थिती आहे असे मला वाटते. माणूस जे आहे त्यात सुखी होता. माणूस माणसाशी आंतरिक भावाने जोडला गेलेला होता असा तो काळ होता. माणसाच्या अपेक्षा कमी होत्या. संत तुकाराम महाराज म्हणतात त्याप्रमाणे ‘ पोटापूरते देई देवा…’ हाच भाव बहुतेकांच्या मनात असायचा. अडी-नडीला माणूस माणसासाठी उभा असायचा. पैशापाठी पळणे नव्हते. बोरकरांच्या शब्दात सांगायचे तर सारे ‘सुशेगात’ होते. कालौघात जीवन आणि जीवनधारणा बदलत गेलीय आणि जात राहणारच तो निसर्ग नियमच आहे.

मी :- तुम्हांला साहित्य लेखनाची आवड  कशी निर्माण झाली ?

आनंदहरी :- गायक हा आधी उत्तम श्रोता असावा लागतो तद्वत लेखक हा आधी वाचक असावा लागतो असे मला वाटते. लहानपणी गोष्टी ऐकण्याची आवड निर्माण झाली ती आईमुळे. त्याकाळी चातुर्मासात घरात आणि घराजवळ असणाऱ्या सिद्धस्वामी मठात ग्रंथवाचन चालायचं. श्रावणात ‘ खुलभर दुधाची कहाणी ‘ सारख्या अनेक गोष्टी आई वाचायची त्यामुळे गोष्टी ऐकण्याची आवड निर्माण झाली होती. वडील काही कामानिमित्त इस्लामपूर, सांगली, कोल्हापूरला गेले की आवर्जून गोष्टीची पुस्तके आणत  त्यामुळे शाळेत जायला लागण्याआधीपासूनच चांदोबा, छान छान गोष्टी., बिरबलाच्या गोष्टी यासारखी गोष्टीची पुस्तके घरात होती. ती वाचण्यासाठी आम्हा बहीण भावात भांडणेही लागत. नंतरच्या कालखंडात या पुस्तकांबरोबरच बाबुराव अर्नाळकर, एस.एम काशीकर, गुरुनाथ नाईक यांच्या रहस्यकथा वाचण्याचा छंदच लागला. दिवाळीची सुट्टी म्हणजे दीपावली अंक वाचण्याची दिवाळीच असायचीव अजूनही आहे. उन्हाळी सुट्टी म्हणजेही वाचनाचीच दिवाळी. तेंव्हापासून वाचनाची आवड निर्माण झाली. माध्यमिक शालेय जीवनात शाळेच्या समृद्ध ग्रंथालयातून ययाती, अमृतवेल, मृत्युंजय, स्वामी सारखी अनेक पुस्तके वाचायला मिळाली.

नंतर वयोपरत्वे वाचन बदलत गेले. गुलशन नंदा सारख्या लेखकांच्या पुस्तकांसह जे जे हाती पडेल ते ते वाचायची सवय जडली. वृत्तपत्र नियमित घरी येत असे त्यामुळे ते नियमित वाचायची सवय लहानपणापासूनच लागली.

वाचायला सुरुवात केली तसे व्यक्त व्हायलाही सुरवात झाली होती, कविता, गीते ऐकायची आवडही निर्माण झाली होती. त्यामुळे बालपणातच तत्कालीन भावविश्वाच्या कविता.. यमक साधून लिहिलेल्या / रचलेल्या ओळी म्हणूया फारतर .. लिहायची सवय लागली. आठवीत असताना रहस्यकथा लिहिली होती. शालेय नियतकालिकातही लेख, कविता, कथा लिहिल्या होत्या. त्यावेळी कदाचित या नादात माझे अभ्यासाकडे दुर्लक्ष होतंय हे जाणवून एकदा वडिलांनी सांगितले होते, ‘ मराठीत साहित्य लेखन हे चरितार्थाचे साधन होऊ शकत नाही. उपजीविकेसाठी नोकरी आणि नोकरीसाठी शिक्षण महत्वाचे आहे. साहित्यादी कला या छंद, आवड म्हणूनच ठीक आहेत. ते मनाच्या, विचारांच्या समृद्ध पोषणासाठी हवेतच पण पोट भरणे हेही महत्वाचे आहे.’ मग मात्र शिक्षण पूर्ण होऊन नोकरीत स्थिरसावर होईपर्यंत अभ्यासाकडे लक्ष राहिले. वाचन चालू राहिले तरी लेखन तसे कमीच झाले. नाही म्हणायला कविता,  क्वचित कथा लिहीत होतो.. मित्रपरिवारात त्या वाचल्या जात होत्या पण प्रसिद्धीला कुठं पाठवल्या नाहीत.जेव्हा जमेल तेंव्हा एखाद्या साहित्यिक कार्यक्रमात श्रोता म्हणून उपस्थित रहात होतो.

क्रमशः ….

© श्री आनंदहरी

इस्लामपूर, जि. सांगली

भ्रमणध्वनी:-  8275178099

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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