हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – अपराजिता — कवयित्री – छाया दीपक दास सक्सेना ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 24 ?

?अपराजिता — कवयित्री – छाया दीपक दास सक्सेना  ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम- अपराजिता

विधा- कविता

कवयित्री- छाया दीपक दास सक्सेना

? अपराजिता होती है कविता  श्री संजय भारद्वाज ?

रोटी, कपड़ा और मकान, मनुष्य की मूलभूत भौतिक आवश्यकताएँ हैं। इसी प्रकार अभिव्यक्ति, मनुष्य की मूलभूत मानसिक आवश्यकता है। संवेदनाएँ भावात्मक विरेचन से ही प्रवहमान रहती हैं। विरेचन का अभाव, प्रवाह को सुखा डालता है। शुष्कता आदमी के भीतर पैठती है। कुंठा उपजती है, कुंठा अवसाद को जन्म देती है।

अवसाद से बचने और व्यक्तित्व के चौमुखी विकास के लिए ईश्वर ने मनुष्य को बहुविध कलाएँ प्रदान कीं। काव्य कला को इनमें विशिष्ट स्थान प्राप्त है। भाग्यवान हैं वे लोग जो लेखनी द्वारा उद्भुत शब्दों के माध्यम से व्यक्त हो  पाते हैं। श्रीमती छाया दीपक दास सक्सेना उन्हीं सौभाग्यशाली लोगों में से एक हैं।

विलियम वर्ड्सवर्थ ने कविता को परिभाषित करते हुए लिखा है, ‘पोएट्री इज स्पॉन्टेनियस ओवरफ्लो ऑफ पॉवरफुल फीलिंग्स।’ यहाँ ‘स्पॉन्टेनियस’ शब्द महत्वपूर्ण है। कविता तीव्रता से उद्भुत अवश्य होती है पर इसकी पृष्ठभूमि में वर्षों का अनुभव और विचार होते हैं। अखंड वैचारिक संचय ज्वालामुखी में बदलता है। एक दिन ज्वालामुखी फूटता है और कविता प्रवाहित होती है। कवयित्री छाया दास के प्रस्तुत कविता संग्रह ‘अपराजिता’ में यह प्रवाह स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है।

कविता संवेदना की धरती पर उगती है। मनुष्य को मनुष्य बनाए रखने वाली संवेदना के ह्रास  से हर संवेदनशील व्यक्ति दुखी होता है। छाया दास की रचना में संवेदना के स्वर कुछ यूँ व्यक्त होते हैं-

*हर और उमस है

क्षणों को आत्मीयता की गंध से

परे करते हुए…*

आत्मीयता की निरंतर बढ़ती उपेक्षा मनुष्य को अतीत से आसक्त करती है और वर्तमान तथा भविष्य से विरक्त।

*अवगुंठन की घास उग आई है

उन रिक्त स्थानों में

जहाँ कोई था कभी,

वर्तमान और भविष्य की

उपस्थिति को परे ठेलते हुए

वर्तमान, भूतकाल बन जाता है

और भविष्य, वर्तमान के शव को

बेताल की तरह ढोता है…!*

बेताल सामाजिक जीवन से निकलकर राजनीति और व्यवस्था में प्रवेश करता है। परस्परावलम्बिता के आधार पर खड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्था के गड्डमड्ड होने से चिंतित कवयित्री का आक्रोश शब्दों में कुछ इस तरह व्यक्त होता है-

*काश हर विक्रमादित्य के कंधे पर

मनुष्यता आरूढ़ रहती…*

आधुनिक समय की सबसे बड़ी विसंगति है, मनुष्य की कथनी और करनी में अंतर। मनुष्य मुखौटे पहनकर जीता है। मुखौटों का वह इतना अभ्यस्त हो चला है कि अपना असली चेहरा भी लगभग भूल चुका। ऐसे में यदि किसी तरह उसे ‘सत्य के टुकड़े’ से असली चेहरा दिखा भी दिया जाए तो वह सत्य को ही परे ठेलने का प्रयास करता है। सुविधा के सच को अपनाकर शाश्वत सत्य को दफ़्न करना चाहता है। यथा-

*मिट्टी खोदी

एक गढ्ढे में गाड़ दिया

सच के टुकड़े को..,

जो प्रतीक्षा करे सतयुग की..!*

शाश्वत सत्य से दूर भागता मनुष्य विसंगतियों  का शिकार है।

*जीवन की विसंगतियों को

झेलते हुए मनुष्य

बन गया है ज़िंदा जीवाश्म।*

जीवाश्म की ठूँठ संवेदना का विस्तृत बयान देखिए-

*मनुष्य,

उस वृक्ष का

ठूँठ मात्र रह गया,

जिस पर चिड़ियाँ

भूल से बैठती तो हैं

पर घोंसला नहीं बनाती हैं..!*

भौतिकता के मद में बौराये आदमी के लालच का अंत नहीं है। भूख और क्षमता तो दो रोटी की है पर ठूँसना चाहता है कई टन अनाज। यह तृष्णा उसे जीवनरस से दूर करती है। कवयित्री  भरा पेट लिए सरपट भागते इस भूखे का वर्णन सरल कथ्य पर गहन तथ्य के माध्यम से करती हैं-

 *गंतव्य की तलाश तो

मानव की अनबुझी प्यास है,

जितना भी मिलता है

उतना ही और मिलने की आस है।*

समय परिवर्तनशील है, निरंतर आगे जाता है। परिवर्तन की विसंगति है कि  काल के प्रवाह में कुछ सुखद परंपराएँ भी दम तोड़ देती हैं। कवयित्री इनका नामकरण ‘कंसेप्ट’ करती हैं। खत्म होते कंसेप्ट की सूची में दादी की कहानियाँ, आंगन, रीति-रिवाज, चिट्ठियों का लिखना-बाँचना बहुत कुछ सम्मिलित है। जिस पीढ़ी ने इन परंपराओं को जिया, उसमें इनकी कसक होना स्वाभाविक है।

कवयित्री मूलत: शिक्षिका हैं। उनके रचनाकर्म में इसका प्रतिबिंब दिखाई देता है। वह चिंतित हैं, चर्चा करती हैं, राह भी सुझाती हैं। आधुनिक समाज में घटते लिंगानुपात पर चिंता उनकी कविता में उतरी है। अध्यात्म, बेटियों की महिमा, आदर्शवाद, प्रबोधन उनकी कुछ रचनाओं के केंद्र में है। पिता की स्मृति में रचित ‘तुम कहाँ गए?’, माँ की स्मृति में ‘परंतु आत्मा से सदा’ और पुत्र के विवाह के अवसर पर ‘सेहरा’ जैसी कविताएँ नितांत व्यक्तिगत होते हुए भी समष्टिगत भाव रखती हैं। पिता द्वारा दी गई गुड़िया अब तक संभाल कर रखना विश्वास दिलाता है कि संवेदना टिकी है, तभी मानवजाति बची है।

कवयित्री ने हिंदी के साथ उर्दू के शब्दों का भी बहुतायत से प्रयोग किया है। कुछ रचनाओं में उर्दू की प्रधानता भी है। कवयित्री की यह स्वाभाविकता कविता को ज़मीन से जोड़े रखती है। प्राकृतिक सत्य है कि हरा रहने के लिए ज़मीन से जुड़ा रहना अनिवार्य है।

सांप्रतिक विसंगति यह है कि हरा रहने का साधारण सूत्र भी कलयुग ने हर लिया है।

*मेरी स्मृति हर ली गई है

कलजुगी अराजकता में…*

इस अराजकता की भयावहता के आगे साक्षात श्रीकृष्ण भी विवश हैं। योगेश्वर की विवशता कवयित्री की लेखनी से प्रकट होती है-

नहीं बजा नहीं पाता हूँ

दुनिया के महाभारत में शंख…

……….

नहीं बढ़ा पाता हूँ

सैकड़ों द्रौपदियों के चीर,

कैसे पोछूँ अश्रुओं के रूप में

कलकल बहती नदियों का नीर…

……….

गरीबी रेखा के नीचे तीस प्रतिशत

सुदामा इंतज़ार करते हैं महलों का..

…………

वृद्धाश्रम में कैद हैं

कितने वासुदेव-देवकी..

……….

नहीं भगा पाता हूँ

प्रदूषण के कालिया नाग को…

……….

कहां खाने जाऊँ मधुर चिकना मक्खन,

औंधे पड़े हैं सब माटी के मटके…

कवयित्री छाया दास का यह दूसरा कविता संग्रह है। जीवन का अनुभव, देश-काल-परिस्थिति की समझ, समाज को बेहतर दे सकने की ललक, सब कुछ इन कविताओं में प्रकट हुआ है।

कविता का भावविश्व विराट होता है। कविता हर समस्या का समाधान हो, यह आवश्यक नहीं पर वह समस्या के समाधान की ओर इंगित अवश्य करती है। कविता की जिजीविषा अदम्य होती है। वह कभी हारती नहीं है।

कविता स्त्रीलिंग है। स्त्री माँ होती है। कविता माँ होती है। कवयित्री ने अपनी माँ की स्मृति में लिखा है-

*माँ बन गई चूड़ियाँ

माँ बन गई महावर,

माँ बन गई सिंदूर,

सूर्य की आँखों का नूर,

माँ बन गई राम

माँ बन गई सुंदरकांड..!*

स्मरण रहे, कविता माँ होती है। कविता अपराजिता होती है। कवयित्री छाया दास को अनेकानेक शुभकामनाएँ।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – स्मृतियों की गलियों से  — लेखिका – ऋता सिंह ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 23 ?

?स्मृतियों की गलियों से  — लेखिका – ऋता सिंह ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम- स्मृतियों की गलियों से

विधा- संस्मरण

लेखिका- ऋता सिंह

प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे

? स्मृतियों की गलियों से  श्री संजय भारद्वाज ?

सम्यक स्मरण अर्थात संस्मरण। स्मृति के आधार पर घटना, व्यक्ति, वस्तु का वर्णन संस्मरण कहलाता है। स्मृति, अतीत के कालखंड विशेष का आँखों देखा हाल होती है। घटना, व्यक्ति, वस्तु के साक्षात्कार के बिना आँखों देखा हाल संभव नहीं है। स्वाभाविक है कि संस्मरण रोचक शैली में स्मृति को पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत करता है। ‘स्मृतियों की गलियों से’, लेखिका के अनुभव-विश्व से उपजे ऐसे ही संस्मरणों का संग्रह है।

चित्रोपमता संस्मरण लेखन की शक्ति होती है। लेखक द्वारा जो लिखा गया है, उसका चित्र पाठक की आँख में बनना चाहिए। श्वान के एक पिल्लेे के संदर्भ में ‘भूले बिसरे दिन’ की प्रस्तुत पंक्तियाँ देखिए-‘अपनी पूँछ  को पकड़ने की कोशिश में दिन में न जाने कितनी बार वह गोल-गोल घूमा करता था पर पूँछ कभी भी उसकी पकड़ में न आती। उसकी यह कोशिश किसी तपस्वी की तरह एक नियम से बनी हुई चलती रहती थी।’…‘ जाने कहाँ गए वे दिन’ में उकेरा गया यह चित्र देखिए-‘मैंने फूलझाड़ू के दो छोटे टुकड़ों को क्रॉस के रूप में रखा, काठी के एक छोर पर कपास का एक गोला बनाकर लगाया, फिर उस कपास के गोले को पिताजी की पुरानी स़फेद धोती के टुकड़े से ढका और पतली सुतली से उस झाड़ू के साथ बाँध दिया। इस तरह उसे  सिर का आकार दिया गया। काजल से आँख, नाक, मुँह बनाया। इस तरह की कई गुड़ियाँ मैंने ईजाद कर डालीं।’

सुश्री ऋता सिंह

सत्यात्मकता या प्रामाणिकता संस्मरण का प्राण है। संस्मरण में कल्पना विन्यास वांछनीय नहीं होता। कल्पना की ओर बढ़ना अर्थात संस्मरण से दूर जाना।  प्रस्तुत संग्रह में लेखिका ने संस्मरण के प्राण-तत्व को चैतन्य रखा है। ‘जब पराये ही हो जाएँ अपने’ में वर्णित घटनाक्रम का एक अंश इसकी पुष्टि करता है-‘जाते समय उस बुज़ुर्ग से मैंने अपने बैग की निगरानी रखने के लिए प्रार्थना की। वैसे एयरपोर्ट पर अनएटेंडेड बैग्स की तलाशी ली जाती है। मेरे बैग पर मेरा नाम और घर का लैंडलाइन नंबर लिखा हुआ था। उन दिनों यही नियम प्रचलन में था।’

संस्मरण के पात्र सत्यात्मकता का लिटमस टेस्ट होते हैं। प्रस्तुत संग्रह के पात्र रोज़मर्रा के जीवन से आए हैं। इसके चलते पात्र परिचित लगते हैं और पाठक के साथ तादात्म्य स्थापित करते हैं। ‘गटरू’ जैसे चरित्र इसकी बानगी हैं। 

अतीत के प्रति मनुष्य के मन में विशेष आकर्षण सदा रहता है। बकौल निदा फाज़ली, ‘मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है।’ इस खोए हुए सोना अर्थात अतीत की स्मृति के आधार पर होने वाले लेखन में आत्मीय संबंध और वैयक्तिकता की भूमिकाएँ भी महत्वपूर्ण होती हैं। ‘गुलमोहर का पेड़’ नामक संस्मरण से यह उदाहरण देखिए-‘अपने घर की खिड़की पर लोहे की सलाखों को पकड़कर फेंस के उस पार के गुलमोहर के वृक्ष को मैं अक्सर निहारा करता था। प्रतिदिन उसे देखते-देखते मेरा उससे एक अटूट संबंध-सा स्थापित हो गया था। विभिन्न छटाओं का उसका रूप मुझे बहुत भाता रहा।’ इसका उत्कर्ष भी द्रष्टव्य है-‘गुलमोहर के तने से लिपटकर खूब रोया। फिर न जाने मुझे क्या सूझा, मैंने उसके तने से कई टहनियाँ कुल्हाड़ी मारकर छाँट दी, मानो अपने भीतर का क्रोध उस पर ही व्यक्त कर रहा था।… अचानक उस पर खिला एक फूल मेरी हथेली पर आ गिरा। फूल सूखा-सा था। ठीक बाबा और माँ के बीच के टूटे, सूखे रिश्तों की तरह।’

लेखिका, शिक्षिका हैं। स्थान का वर्णन करते हुए तत्संबंधी ऐतिहासिक व अन्य जानकारियाँ पाठक तक पहुँचाना उनका मूल स्वभाव है। इस मूल का एक उदाहरण देखिए- ‘लोथल, दो हजार सात सौ साल पुराना एक बंदरगाह था। यहाँ छोटे जहाजों के द्वारा आकर व्यापार किया जाता था। यह ऐतिहासिक स्थल है जो पुरातत्व विभाग के उत्खनन द्वारा खोजा गया है।’

कथात्मकथा बनी रहे तो ही संस्मरण रोचक हो पाता है। पढ़ते समय पाठक के मन में ‘वॉट नेक्स्ट’ याने ‘आगे क्या हुआ’ का भाव प्रबलता से बना रहना चाहिए। प्रस्तुत संग्रह के अनेक संस्मरणों में कथात्मकता प्रभावी रूप से व्यक्त हुई है।

भारतीय संस्कृति कहती है, ‘मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना।’ किसी घटना के अनेक साक्षी हो सकते हैं। घटना के अवलोकन, अनुभूति और अभिव्यक्ति का प्रत्येक का तरीका अलग होता है। इन संस्मरणों की एक विशेषता यह है कि लेखिका इनके माध्यम से घटना को ज्यों का त्यों सामने रख देती हैं। स्वयं अभिव्यक्त तो होती हैं पर सामान्यत: किसी प्रकार का वैचारिक अधिष्ठान पाठकों पर थोपती नहीं। ये सारे संस्मरण मुक्तोत्तरी प्रश्नों की भाँति हैं। पाठक अपनी दृष्टि से घटना को ग्रहण करने और अपने निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए स्वतंत्र है।

इन संस्मरणों के माध्यम से विविध विषय एवं आयाम प्रकट हुए हैं। आशा की जानी चाहिए कि पाठक इन संस्मरणों को अपने जीवन के निकट अनुभव करेगा। यह अनुभव ही लेखिका की सफलता की कसौटी भी होगा।

भविष्य की यशस्वी यात्रा के लिए लेखिका को अशेष मंगलकामनाएँ।

लेखक को अनंत शुभकामनाएँ।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “बीते जो पल, पिता के संग” (संस्मरण) – लेखिका : सुश्री सुदर्शन रत्नाकर ☆ समीक्षा – श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “बीते जो पल, पिता के संग” (संस्मरण) – लेखिका : सुश्री सुदर्शन रत्नाकर ☆ समीक्षा – श्री कमलेश भारतीय ☆

पुस्तक : बीते जो पल, पिता के संग।

लेखिका : सुश्री सुदर्शन रत्नाकर

प्रकाशक : अयन प्रकाशन, नयी दिल्ली।

मूल्य : 400 रुपये। पृष्ठ : 142

☆ “सुदर्शन रत्नाकर का संस्मरण संकलन- जीवन के बीते पलों और पिता की खूबसूरत यादें” – कमलेश भारतीय ☆

अभी दस नवम्बर को हरियाणा लेखक मंच के वार्षिक सम्मेलन में अनेक पुस्तकें मिलीं‌, कुछ पढ़ पाऊं, कुछ लिख पाऊं उन पर, यही इच्छा लिए हुए! हर लेखक दूसरे लेखक को इसी उम्मीद से अपनी कृति उपहार में देता है कि वह संवेदनशील लेखक इसे पढ़ने का समय निकाल कर दो शब्द लिखेगा, कई बार मैं सुपात्र होता हूं, कई बार नहीं! यानी साफ बात सबकी किताबें पढ़ना किसी एक के बस की बात नहीं! सुदर्शन रत्नाकर के लिए मैं सुपात्र हूं क्योंकि धीरे धीरे इसे आज पढ़कर लिखने जा रहा हूं।

यह एक बेटी की यादें हैं अपने प्रिय नायक पिता के साथ! यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य भी है कि बेटियां पिता से तो बेटे मां से ज्यादा लगाव रखते हैं! कहां तक सच है, पता नहीं लेकिन सुदर्शन‌‌ ने पिता चौ राजकृष्ण बजाज के साथ और पिता ने पुत्री सुदर्शन के साथ अथाह प्यार किया, संस्कार दिये, संस्कारित किया, बेटों से  ज्यादा चाहा, दुलार दिया और बेटी की गलती पर भी दूसरों को समझाया, डांटा! हमेशा बेटी का पक्ष लिया! बेटी ने भी पिता को निराश नहीं किया, योग्य बनी और पिता का सिर ऊंचा किये रखा! कहां गुजरात मूल के लोग हरियाणा तक पहुच गये!

यही पल पल, बरसों की यादें हैं! मनाली, नैनीताल, बडखल झील के प्यारे प्यारे से संस्मरण हैं! चाहने वाला, सिर झुका कर प्यार करने वाला पति, प्यारे से बच्चे लेकिन जो शोख सी लड़की सुदर्शंन थी, वह साध्वी जैसे सफेद कपड़े पहनने लगी! जो शरारतें करती थी, भाइयों के साथ वह गंभीर‌ लेखिका बन गयी! अनेक गुण पिता से लिए और आज भी उनके आदर्शों पर चल रही है सुदर्शन‌‌!

एक पिता के पत्र पुत्री के नाम में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने बहुत कुछ दिया, जिस पर भारत एक खोज सीरियल बन गया! एक पुत्री की यादें पिता के साथ भी पढ़ी जा सकती है, निश्चित रूप से!

इस पुस्तक में विभाजन से जूझते पिता हैं और विभाजन के बाद कैसे अपने सघर्ष और‌ जीवट से पिता ने परिवार का पालन पोषण किया, कैसे पैरों पर खड़ा किया सबको और संयुक्त परिवार आज भी आदर्श‌ हैं‌, यह सीख मिलती है पर अब सिर्फ यादें ही यादें हैं और यादों में जीती एक  बेटी!

कवर खूबसूरत है और पेपरबैक में होती तो बेहतर होता। सजिल्द‌ का मूल्य चार सौ है, जो आम पाठक की जेब से अधिक है।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – जीवनोत्सव — कवयित्री – गौतमी चतुर्वेदी पाण्डेय — ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 22 ?

? जीवनोत्सव  — कवयित्री – गौतमी चतुर्वेदी पाण्डेय ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम : जीवनोत्सव

विधा – कविता

कवयित्री – गौतमी चतुर्वेदी पाण्डेय

प्रकाशन – क्षितिज प्रकाशन, पुणे

? अस्तित्व का उत्सव : जीवनोत्सव  श्री संजय भारद्वाज ?

दर्शन कहता है कि दृष्टि में सृष्टि छिपी है। किसीकी दृष्टि में जीवन बोझिल है तो किसीके लिए मनुष्य जीवन का हर क्षण एक उत्सव है। बकौल ओशो, मनुष्य का पूरा अस्तित्व ही एक उत्सव है।

अस्तित्व के इस उत्सव में भी दृष्टि पुन: अपनी भूमिका निभाती है। किसी के लिए पात्र, जल से आधा भरा है, किसीके लिए पात्र आधा रिक्त है। रिक्त में रिक्थ देख सकने का भाव ही अस्तित्व की उत्सवधर्मिता का सम्मान करना है। यह भाव बिरलों को ही मिलता है। शिक्षिका-कवयित्री गौतमी चतुर्वेदी पाण्डेय इस भाव की धनी हैं। प्रस्तुत कवितासंग्रह का लगभग हर पृष्ठ  इसका साक्षी है।

गौतमी चतुर्वेदी पाण्डेय का यह प्रथम कविता संग्रह है। वे जीवन के हर पक्ष में हरितिमा की अनुभूति करती हैं। अनुभूति को अभिव्यक्ति प्रदान करने वाली माँ शारदा की वंदना से संग्रह का आरम्भ होता है।

*मुक्तकों, छंदों में, गीतों में, मेरी कविताओं में,

भावों को उत्थान दे पाती कृपा तेरी है,

होकर ॠणी, बन कर कृतज्ञ, हर कण को, सृष्टि के

सदा, हृदय से सम्मान दे पाती कृपा तेरी है।*

सृष्टि के हर कण को सम्मान देने की बात महत्वपूर्ण है। वस्तुतः सृष्टि में हर चराचर अनुपम है। अतः हर इकाई, हर व्यक्ति आदर का पात्र है।

*बस तुम ही तुम हो तो फिर क्या तुम हो?

बस हम ही हम हैं तो फिर क्या हम हैं?

समग्रता से ही संपूर्णता है,

दोनों की सत्ता सिमटे तो हम हैं।*

अनुपमेयता का यह सूत्र कुछ यूँ सम्मान पाता है।

*सबका अपना विकास है ,

सबकी अपनी गति है।

खिलते अपने समय सभी,

सबकी अपनी उन्नति है।*

सबके खिलने में ही, उत्सव का आनंद है। ‘जीवनोत्सव’ इंद्रधनुषी है। इस इंद्रधनुष में सबसे गहरा रंग प्रकृति का है।

यत्र-तत्र सर्वत्र खिले हैं,

न-उपवन, हर डाली

वसुधा की शोभा तो देखो,

अद्भुत छटा निराली!

वयित्री गहन प्रकृति प्रेमी हैं। पर्यावरण का निरंतर हो रहा विनाश हर सजग नागरिक की चिंता और वेदना का कारण है। स्वाभाविक है कि यह वेदना कवयित्री की लेखनी से शब्द पाती-

जो मुफ़्त है और प्राप्त है,

अक्सर वही अज्ञात है।

अभिशप्त ना कर दो उसे,

जो मिल रही सौगात है।

सनातन दर्शन काया को पंचमहाभूतों से निर्मित बताता है। जीवन के लिए अनिवार्य इन महाभूतों को प्रकृति ने नि:शुल्क प्रदान किया है। मनुष्य द्वारा, प्राणतत्वों का आत्मघाती विनाश अनेक प्रश्न उत्पन्न करता है-

इतिहास ना बन जाएँ संसाधन,

प्राप्त का अब तो करें अभिवादन,

ऐसा ना हो मानव की अति से,

दूभर हो इस वसुधा पर जीवन।

वसुधा और वसुधा पर जीवन बचाने का आह्वान कभी प्रश्नवाचक  तो कभी विधानार्थक रूप में आकर झिंझोड़ता है-

इतनी सुंदर धरा को सोचो

यदि हम नहीं बचाएँगे-

तो क्या छोड़ कर जाएँगे,

क्या छोड़ कर जाएँगे?

……………………….

बंद करो दूषण का नर्तन,

बंद करो विकृति का वर्तन।

कसो कमर हे युग-निर्माता,

करने को अब युग परिवर्तन!

कवयित्री शिक्षिका हैं। उनके चिंतन के केंद्र में विद्यार्थी का होना स्वाभाविक है। संग्रह की अनेक कविताओं में विद्यार्थियों के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष संदेश हैं। कुछ बानगियाँ देखिए-

स्मरण रहे तुम्हें,

तुम्हारा जीवन स्वयं एक उत्सव है!

इस उत्सव की अलख

सदा अपने भीतर जलाए रखना…!

अपने वर्तमान में उत्साह का एक बीज उगाए रखना!

इस ‘जीवनोत्सव’ को सदा अपने अंदर मनाए रखना…

……………………….

तुम्हारे कर्म से ही तेज

फैलेगा उजाले-सा,

स्वयं ही सिद्ध, होकर पूर्ण,

छलकोगे जो प्याले-सा!

विद्यार्थियों को संदेश देने वाली कवयित्री को अपने शिक्षकों, गुरुओं का स्मरण न हो, ऐसा नहीं हो सकता। गुरुजनों के प्रति यह मान ‘कृतज्ञ’ कविता में प्रकट हुआ है।

मायका स्त्री-जीवन का नंदनवन है। मायके की स्मृतियाँ, स्त्री की सबसे बड़ी धरोहर हैं। पिता को संबोधित कविता, ‘पापा, अब मैं सब्ज़ी काट लेती हूँ’, स्मृतियों में बसी अल्हड़ युवती से परिपक्व माँ होने की यात्रा है। परिपक्वता माता-पिता के प्रति यूँ सम्मान प्रकट करती है-

माता-पिता बड़े स्वार्थी होते हैं,

एक नींद के लिए ही,

वे सारे ख़्वाब पिरोते हैं।

नींद उन्हें यह, तब ही आया करती है,

जब उनके बच्चे, संतुष्ट हो सोते हैं!

स्त्रीत्व, विधाता का सर्वोत्तम वरदान है। तथापि स्त्री होना, दूब-सा निर्मूल होकर पुन: जड़ें जमाना, पुन: पल्ववित होना है। स्त्रीत्व का यह सदाहरी रंग देखिए-

सूखकर फिर से

हरी हो जाती है यह दूब,

विछिन्न होकर फिर से

भरी हो जाती है यह दूब!

स्त्री के अपरिमेय अस्तित्व की यह सारगर्भित व्याख्या देखिए-

मैं, मेरे शब्दों से आगे,

और मेरे रूप से परे हूँ,

क्या मेरे मौन से आगे भी

पढ़ सकते हो मुझे?

स्त्री का मौन भी अथाह है। इस अथाह का श्रेय भी स्वयं न लेकर वह अपने जीवनसंगी को देती है। यही स्त्री के प्रेम की उत्कटता है। नेह की यह अभिव्यक्ति देखिए-

कहूंँ या ना कहूंँ तुमसे,

रखना स्मरण यह तुम।

मेरे मौन में तुम हो,

मेरी हर व्यंजना में हो।

हर पूजा में तुम हो..!

नेह किसीको अपना जैसा बनाने के लिए नहीं, अपितु जो जैसा है, उसे वैसा स्वीकार करने के लिए होता है। विश्वास को साहचर्य का सूत्र बताती ये पंक्तियाँ अनुकरणीय हैं-

ख़ूबी का क्या, ख़ामी का क्या,

तुझ में भी है, मुझ में भी है,

बस प्रेम में ही विश्वास रहे,

हर बात टटोला नहीं करते!

संग्रह की दो कविताएँ आंचलिक बोली में हैं। इनमें भी पौधा लगाने की बात है। आज जब आभिजात्य पैसा बोने में लगा है, लोक ही है जो पौधा उगा रहा है, पेड़ बढ़ा रहा है, पर्यावरण बचा रहा है। लोकभाषा और पर्यावरण दोनों का संवर्धन करता आंचलिक बोली का यह पुट इस संग्रह की पठनीयता में गुड़ की मिठास घोलता है।

देहावस्था का प्राकृतिक चक्र अपरिहार्य है, हरेक पर लागू होता है। समय के प्रवाह में वृद्ध व्यक्ति शनैः-शनै: घर, परिवार, समाज द्वारा उपेक्षित होने लगता है। आनंद की बात है कि इस संग्रह में दादी, नानी के लिए कविता है, अनुभव की घनी छाँव में बैठने का संदेश है-

पास बैठा करो उनके भी तुम कभी

आते जाते मिलेंगी दुआएंँ कई।

देख कर ही तुम्हें जीते हैं वे, सुनो!

उनकी मौजूदगी में शिफ़ाएंँ कई!

कविता अवलोकन से उपजती है। अवलोकन, संवेदना को जगाता है। संवेदना, अनुभूति में बदलती है, अनुभूति अभिव्यक्ति बनकर बहती है। सहज शब्दों में वर्णित कथ्य में बसा कवित्व, मन के कैनवास पर अ-लिखे सुभाषित-सा अंकित हो जाता है-

अपने घोसले

खोने के डर से,

उसी में छुपती,

वह डरी चिड़िया!

बुज़ुर्गों के साथ नौनिहालों पर पर केंद्रित कुछ बाल कविताएँ भी इसी संग्रह में पढ़ने को मिल जाएँगी। इस तरह हर पीढ़ी को कुछ दे सकने का प्रयास संग्रह की कविताओं के माध्यम से किया गया है। 

प्रस्तुत कविताओ में आस्था के रंग हैं, रिश्तों की चर्चा है, शिक्षकों की समस्याओं पर ध्यानाकर्षण है। पर्यावरण, विद्यार्थी, स्त्री तो मुख्य स्वर हैं ही। जीवन के अनेक रंगों का यह समुच्चय इस संग्रह को जीवनोत्सव में परिवर्तित कर देता है।

गौतमी चतुर्वेदी पाण्डेय लिखती रहें, पर्यावरण के संवर्धन के लिए कार्य करती रहें, यही कामना है। आशा है कि जीवनोत्सव के अन्य कई रंग भी भविष्य में उनकी आनेवाली पुस्तकों में देखने को मिलेंगे। अनेकानेक शुभाशंसाएँ।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 213 ☆ पुस्तक समीक्षा – अपराजिता (काव्य संग्रह) – सुश्री अमिता मिश्रा “मीतू” ☆ समीक्षक – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय गीत – समा गया तुम में )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 212 ☆

☆ पुस्तक समीक्षा – अपराजिता (काव्य संग्रह) – सुश्री अमिता मिश्रा “मीतू” ☆ समीक्षक – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

☆ पुरोवाक् – मन से मन के तार जोड़ती कविताएँ ☆

कविता क्या है?  एक यक्ष प्रश्न जिसके उत्तर उत्तरदाताओं की संख्या से भी अधिक होते हैं। कविता क्यों है?,  कविता कैसे हो? आदि प्रश्नों के साथ भी यही स्थिति है। किसी प्रकाशक से काव्य संग्रह छापने बात कीजिए उत्तर मिलेगा ‘कविता बिकती नहीं’। पाठक कविता पढ़ते नहीं हैं, पढ़ लें तो समझते नहीं हैं, जो समझते हैं वे सराहते नहीं हैं। विचित्र किंतु सत्य यह कि इसके बाद भी कविता ही सर्वाधिक लिखी जाती है। देश और दुनिया की किसी भी भाषा में कविता लिखने और कविता की किताबें छपानेवाले सर्वाधिक हैं। इसका सीधा सा अर्थ है कि तथाकथित  प्रकाशकों के घर का चूल्हा कविता ही जलाती है।

दुनिया में लोगों की  केवल दो जातियाँ हैं। पहली वह जिसका समय नहीं कटता,  दूसरी वह जिसको समय नहीं मिलता। मजेदार बात यह है की कविता का वायरस दोनों को कोरोना-वायरस की  तरह पड़कता-जकड़ता है और फिर कभी नहीं छोड़ता।

दरवाजे पर खड़े होकर ‘जो दे उसका भी भला, जो न दे उसका भी भला’ की टेर लगानेवाले की तरह कहें तो ‘जो कविता लिखे उसका भी भला, जो कविता न लिखे उसका भी भला’। कविता है ऐसी बला कि जो कविता पढ़े उसका भी भला, जो कविता न पढ़े उसका भी भला’, ‘जो कविता समझे उसका भी भला, जो कविता न समझे उसका भी भला’।

कविता अबला भी है, सबला भी है और तबला भी है। अबला होकर कविता आँसू बहाती है, सबला होकर सामाजिक क्रांति को जनम देती है और तबला होकर अपनी बात डंके पर चोट की तरह कहती है।

‘कहते हैं जो गरजते हैं वे बरसते नहीं’, कविता इस बात को झुठलाती और नकारती है, वह गरजती भी, बरसती भी है और तरसती-तरसाती भी है।

कविता के सभी लक्षण और गुण कामिनी में भी होते हैं। शायद इसीलिए कि दोनों समान लिंगी हैं। कविता और कामिनी के तेवर किसी के सम्हालते नहीं सम्हलते।

मीतू मिश्रा की कविता भी ऐसी ही है। सदियों से सड़ती-गलती सामाजिक कुरीतियों और कुप्रथाओं पर पूरी निर्ममता के साथ शब्दाघात करते हुए मीतू चलभाष और अंतर्जाल के इस समय में शब्दों का अपव्यय किए बिना ‘कम लिखे से अधिक समझना’ की भुलाई जा चुकी प्रथा को कविताई में जिंदा रखती है। मीतू की कविताओं के मूल में स्त्री विमर्श है किंतु यह स्त्री विमर्श तथा कथित प्रगति शीलों के अश्लील और दिग्भ्रमित स्त्री विमर्श की तरह न होकर शिक्षा, तर्क और स्वावलंबन पर आधारित सार्थक स्त्री विमर्श है। कुरुक्षेत्र में कृष्ण के शंखनाद की तरह मीतू इस संग्रह के शाब्दिक शिलालेख पर लिखती है-   

‘निकल पड़ी है वो सतरंगी ख्वाबों में

भरती रंग…. स्वयं सिद्धा बनने की ओर।’

मीतू यहीं नहीं रुकती, वह समय और समाज को फिर चेताती है-

‘चल पड़ी है वो औरत अकेली

छीनने अपने हिस्से का आसमान।’

लोकोक्ति है ‘अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता’ लेकिन मीतू की यह ‘अकेली औरत’ हिचकती-झिझकती नहीं। यह तेवर इन कविताओं को जिजीविषाजयी बनाता है। अकेली औरत किसी से कुछ अपेक्षा न करे इसलिए कवयित्री उसे झकझोरकर कहती है- 

‘हे स्त्री! मौन हो जाओ

नही है कोई जो महसूस कर सके

तुम्हारी अव्यक्त पीड़ा..

लगा सके मरहम, पोंछे आँसू

कभी विद्रोही, कभी चरित्रहीन

कहकर चल देंगे समाज के जागरूक लोग

धीरे धीरे तुम्हें सुलगता छोड़कर।’

समाज के जिन जागरूक लोगों (लुगाइयों समेत) की मनोवृत्ति का संकेत यहाँ है, वे हर देश-काल में रहे हैं। सीता हों या द्रौपदी, राधा हों या मीरां इन जागरूक लोगों ने पूरी एकाग्रता और पुरुषार्थ के साथ उन्हें कठघरे में खड़ा किया, बावजूद इस सच के कि वे कन्या पूजन भी करते रहे और त्रिदेवियों की उपासना भी। दोहरे चेहरे, दोहरे आचरण और दोहरे मूल्यों के पक्षधरों को मीतू बताती है- 

‘कण कण में ही नारी है

नारी है तो नर जीवन है

बिन नारी क्या सृष्टि है?’

यह भी कहती है-

‘नारी

ढूँढ ही लेती है

निराशाओं के बीच

एक आशा की डोर

थामे टिमटिमाती लौ आस की

बीता देती है जीवन के अनमोल पल

एक धुँधले सुकून की तलाश में

एक पल जीती ..फिर टूटती अगले ही पल’

इन कविताओं की ‘नारी’ अंत में इन तथाकथित ‘लोगों’ की अक्षमता और असमर्थता को आईना दिखाते हुए  ‘साम्राज्य के आधे भाग की जगह केवल पाँच गाँव’ की चाह करती है-  

‘मध्यमवर्ग की कोमल स्त्री

जिंदगी की जमापूंजी से

खर्च करना चाहती है

कुछ वक्त अपने लिए अपने ही संग’

इतिहास पाने को दुहराता है, पाँच गाँव चाहने पर ‘सुई की नोक के बराबर भूमि भी नहीं दूँगा’ की गर्वोक्ति करने वाले सत्ताधीशों और उन्हें पोषित करनेवाले नेत्रहीनों को समय ने कुरुक्षेत्र में सबक सिखाया। वर्तमान समाज के ये ‘लोग’ भी यही आचरण कर रहे हैं। ये आँखवाले आँखें होते हुए भी नहीं देख पाते कि-    

‘एक चेहरा

ढोता बोझ

कई किरदारों का’

वे महसूस नहीं कर पाते कि-

‘नारी सबको उजियारा दे

खुद अँधियारे में रोती है।’

यह समाज जानकार भी नहीं जानना चाहता कि-

‘अपने ही हाथों

जला लेती हैं

अपना आशियाना

घर फूँक तमाशा देखती हैं

प्रपंच और दुनियादारी में

उलझी किस्सा फरेब

बेचारी औरतें’

इस समाज की आँखें खोलने का एक ही उपाय है कि औरत ‘बेचारी’ न होकर ‘दुधारी’ बने और बता दे- 

‘कोमल देह इरादे दृढ़ हैं

हालातों से नही डरे

तोड़ पुराने बंधन देखो

नव समाज की नींव गढ़े।’

औरत के सामने एक ही राह है। उसे समझना और समझाना होगा कि वह खिलौना नहीं खिलाड़ी है, बेचारी नहीं चिंगारी है। मीतू की काव्य नायिका समय की आँखों में आँखें डालकर कहती है-

‘जीत पाओगे नहीं

पौरुष जताकर यूँ कभी

हार जाऊंगी स्वयं ही

प्रीत करके देखलो!

दंभ सारे तोड़कर

निश्छल प्रणय स्वीकार लो,

मैं तुम्हारी परिणीता

अनुगामिनी बन जाऊंगी!’

समाज इन कविताओं के मर्म को धर्म की तरह ग्रहण कर सके तो ही शर्म से बच सकेगा। ये कविताएँ वाग्विलास नहीं हैं। इनमें कसक है, दर्द है, पीड़ा है, आँसू हैं लेकिन बेचारगी नहीं है, असहायता नहीं है, निरीहता नहीं है, यदि है तो संकल्प है, समर्पण है, प्रतिबद्धता है। ये कविताएँ तथाकथित स्त्री विमर्श से भिन्न होकर सार्थक दिशा तलाशती हैं। स्त्री पुरुष को एक दूसरे के पूरक और सहयोगी की तरह बनाना चाहती हैं। तरुण कवयित्री मीतू का प्रौढ़ चिंतन उसे कवियों की भीड़ में ‘आम’ से ‘खास’ बनाता है। उसकी कविता निर्जीव के संजीव होने की परिणति हेतु किया गया सार्थक प्रयास है। इस संग्रह को बहुतों के द्वारा पढ़, समझा और सराहा जाना चाहिए।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – विश्वविभूति महात्मा गांधी — लेखक – डॉ. रमेश गुप्त ‘मिलन’ ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 22 ?

? विश्वविभूति महात्मा गांधी — लेखक – डॉ. रमेश गुप्त ‘मिलन’ ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

 

पुस्तक का नाम-  विश्वविभूति महात्मा गांधी

विधा- जीवनी

लेखक- डॉ. रमेश गुप्त ‘मिलन’

? मूर्ति से बाहर के महात्मा गांधी  श्री संजय भारद्वाज ?

महात्मा गांधी का व्यक्तित्व वैश्विक रहा है। अल्बर्ट आइंस्टाइन का कथन ‘आनेवाली पीढ़ियाँ आश्चर्य करेंगी कि हाड़-माँस का  चलता-फिरता ऐसा कोई आदमी इस धरती पर हुआ था’ गांधीजी के व्यक्तित्व के चुंबकीय प्रभाव को दर्शाता है। यही कारण है कि लंबे समय से विश्व के चिंतकों, राजनेताओं तथा आंदोलनकारियों  को गांधीजी की बहुमुखी प्रतिभा के विभिन्न आयाम आकर्षित करते रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि महात्मा गांधी के प्रति चिर आकर्षण और भारतीय मानस में बसी श्रद्धा ने डॉ. रमेश गुप्त ‘मिलन’ को उन पर पुस्तक लिखने को प्रेरित किया।

डॉ. गुप्त द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘विश्वविभूति महात्मा गांधी’ राष्ट्रपिता पर लिखी गई एक और पुस्तक मात्र कतई नहीं है। 248 पृष्ठों की यह पुस्तक एक लघु शोध ग्रंथ की तरह पाठकों के सामने आती है। महात्मा गांधी के व्यक्तित्व और कृतित्व विशेषकर उनके जीवन के अंतरंग और अनछुए पहलुओं को लेखक ने पाठकों के सामने रखा है। विषय पर कलम चलाते समय लेखक ने विश्वविभूति  के जीवन के विभिन्न पहलुओं की पड़ताल करते हुए ऐतिहासिक तथ्यों को ज्यों का त्यों ईमानदारी से वर्णित किया है। यह साफ़गोई पुस्तक को लीक से अलग करती है।

वस्तुतः लोकतंत्र केवल शासन व्यवस्था भर नहीं अपितु जीवन शैली होता है। इसकी सार्वभौमिकता लेखन पर भी लागू होती है। प्रस्तुत पुस्तक इस सार्वभौमिकता का उत्तम उदाहरण है। सामान्यतः अपनी विचारधारा के आग्रह में अनेक बार लेखक यह भूल जाता है कि शब्दों का एक छोर लेखक के पास है तो दूसरा पाठक के हाथ है। बाँचे जाने के बाद ही स्थूल रूप से शब्द की यात्रा संपन्न होती है। डॉ. गुप्त ने घटनाओं का वर्णन किया है पर विश्लेषण पाठक की नीर-क्षीर विवेक बुद्धि पर छोड़ दिया है। पुस्तक को इस रूप में भी विशिष्ट माना जाएगा कि शैली और प्रवाह इतने सहज हैं कि वर्णित प्रसंग हर वर्ग के पाठक को बाँधे रखते हैं। अधिक महत्वपूर्ण है कि सभी 40 अध्याय एक चिंतन बिंदु देते हैं। यह चिंतन असंदिग्ध रूप से पाठक की चेतना को झकझोरता है।

गांधी के जीवन पर चर्चा करते हुए लेखक ने उन रसायनों की ओर संकेत किया है जिनके चलते गांंधी ने जीवन को प्रयोगशाला माना। ‘श्रीमद्भागवत गीता’ और रस्किन की पुस्तक ‘ अन टू दिस लास्ट’ का उनके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा। ‘न मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित’अर्थात मनुष्य से श्रेष्ठ कोई नहीं।’ तेरहवीं शती का यूरोपिअन रेनेसाँ मनुष्य की इसी श्रेष्ठता का तत्कालीन संस्करण था।  रेनेसाँ  का शब्दिक अर्थ है-‘अपना राज या स्वराज’। यहाँ स्वराज का अर्थ शासन व्यवस्था पर नहीं अपितु मनुष्य का अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण है। ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ की सनातन भारतीय अवधारणा कोे रस्किन ने ‘समाज के अंतिम आदमी तक पहुँचना’ निरूपित किया। ‘अंत्योदय’ या ‘ अन टू दिस लास्ट’ का  विस्तार कर गांधीजी ने इसका नामकरण ‘सर्वोदय’ किया। उनके सर्वोदय का उद्देश्य था-सर्व का उदय, अधिक से अधिक का नहीं और मात्र आख़िरी व्यक्ति का भी नहीं।

सर्वोदय की अवधारणा को स्वतंत्र भारत के साथ जोड़ते हुए ‘हरिजन’ पत्रिका में उन्होंने लिखा,‘ भारत की ऐसी तस्वीर मेरे मन में है जो प्रगति के रास्ते पर अपनी प्रतिभा के अनुकूल दिशा पकड़कर लगातार आगे बढ़े। भारत की तस्वीर बिलकुल ऐसी नहीं है कि वह पश्चिमी देशों की मरणासन्न सभ्यता के तीसरे दर्ज़े की नकल जान पड़े। अगर मेरा सपना पूरा होता है तो भारत के सात लाख गाँवों में से हर गाँव में  एक जीवंत गणतंत्र होगा। एक ऐसा गाँव जहाँ कोई भी अनपढ़ नहीं होगा, जहाँ कोई भी काम के अभाव में खाली हाथ नहीं बैठेगा, जहाँ सबके पास रोज़ की सेहतमंद रोटी, हवादार मकान और तन ढकने के लिए ज़रूरतभर कपड़ा होगा।’

रमेश गुप्त ने गांधी दर्शन के सूक्ष्म तंतुओं को छुआ है। भारतीय समाज को गांधीजी की वास्तविक देन का एक उल्लेख कुछ यों है,‘ गांधीजी धर्मांधता, धन-शक्ति और बाज़ारवाद को समाप्त करना चाहते थे। कहा जाता था कि गांधीजी ने तीन ‘ध’ समाप्त किए- धर्म, धंधा और धन। इनके बदले तीन ‘झ’ दिए- झंडा, झाड़ू और झोली।’  

आत्मविश्लेषण और सत्य का स्वीकार गांधीजी के निजी जीवन की विशेषता रही। इस विशेषता ने गांधी को मानव से महामानव बनाया। यों भी कोई महामानव के रूप में कोख में नहीं आता। इसके लिए रत्नाकर से वाल्मीकि होना एक अनिवार्य प्रक्रिया है। गांधीजी ने अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ में अपने जीवन की अधिकांश गलतियाँ स्वीकार की हैं। जॉन एस. होइलैंड से चर्चा करते हुए उन्होंने कहा,‘ पत्नी को अपनी इच्छा के आगे झुकाने की कोशिश में मैंने उनसे अहिंसा का पहला सबक सीखा। एक ओर तो वह मेरे विवेकहीन आदेशों का दृढ़ता से विरोध करतीं, दूसरी ओर मेरे अविचार से जो तकलीफ़ होती उसे चुपचाप सह लेती थीं। इस तरह अहिंसा की शिक्षा देनेवाली वे मेरी पहली गुरु बनीं।’ आरंभिक समय में कस्तूरबा पर शासन करने की इच्छा रखनेवाले गांधी जीवन के उत्तरार्द्ध में उनसे कैसे डरने लगे थे, इसका भी वर्णन लेखक ने एक मनोरंजक प्रसंग में किया है।

जैसाकि संदर्भ आ चुका है, गांधीजी गीता को जीवन के तत्वज्ञान को समझने के लिए सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ मानते थे। गीता के दूसरे अध्याय के अंतिम श्लोकों ‘ध्यायतो विषयान्यंसः संगस्तेषूपजायते/संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते/क्रोधाद् भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः/स्मृतिभ्रंशाद बुद्धिनाशो बुद्धिनाशत्प्रणश्यति’ में उन्होंने अपने जीवन का सबसे बड़ा पाठ पढ़ा। श्लोकों का भावार्थ है कि विषयों का चिंतन करनेवाले पुरुष को उनमें आसक्ति उपजती है, आसक्ति से कामना होती है और कामना से क्रोध उपजता है, क्रोध से मूढ़ता उत्पन्न होती है, मूढ़ता से स्मृति भ्रांत हो जाती है, स्मृति भ्रांत हो जाने से ज्ञान का नाश हो जाता है और जिसका ज्ञान नष्ट हो गया, वह मृतक तुल्य है।

डॉ. गुप्त लिखते हैं कि इस भावार्थ ने मोहनदास के जीवन में क्राँतिकारी परिवर्तन ला दिया। उनकी यात्रा मृत्यु से जीवन की ओर मुड़ गई। परिणाम यह हुआ कि अंग्रेजों की खर्चीली जीवनशैली से प्रभावित व्यक्तित्व मितव्ययी बन गया। वह अपने कपड़े खुद धोने लगा। अपने बाल मशीन से खुद काटने लगा।  माँसाहार की ओर आकृष्ट होनेवाले ने शाकाहार क्लब बनाया। वकालत में जिन मुकदमों को लड़ते रहने से मोटी रकम मिल सकती थी, उनमें भी दोनों पक्षों के बीच सुलह करवाई। पत्नी को भोग की वस्तुभर माननेवाले ने दाई बनकर अपनी पत्नी का प्रसव भी खुद कराया। असंयमित जीवन जीनेवाला मोहनदास मन, वचन, काया से इंद्रियों पर संयम कर पूर्ण ब्रह्मचर्य का जीवन जीने लगा। चर्चिल के शब्दों में वह ‘नंगा फकीर’ हो गया।

लेखक ने गांधीजी के जीवन के ‘ग्रे शेडस्’ पर कलम चलाते समय भाषाई संयम, संतुलन और मानुषी  सजगता  को बनाए रखा है। इतिहास साक्षी है कि गांधीजी जैसा राजनीतिक चक्रवर्ती अपने घर की देहरी पर परास्त हो गया। अन्यान्य कारणों से बच्चों को उच्च शिक्षा ना दिला पाना, बड़े बेटे हरिलाल का पिता से विद्रोह कर धर्म परिवर्तन कर लेना, शराबी होकर दर-दर भटकना और गुमनाम मौत मरना, राष्ट्रपिता की पिता के रूप में असफलता को रेखांकित करता है।

विरोधाभास देखिए कि अपने घर का असफल स्रष्टा सार्वजनिक जीवन में उन ऊँचाइयों पर पहुँचा कि युगस्रष्टा कहलाया। इंग्लैंड में बैरिस्टरी, द. अफ्रीका की यात्रा में हुआ अपमान, भारत में वकालत में मिली असफलता, पुनः अफ्रीका यात्रा, वहाँ सशक्त राजनीतिक आंदोलन खड़ा करने जैसे प्रसंगों की पुस्तक में समुचित चर्चा की गई है। दक्षिण अफ्रीका में आंदोलन को आरंभ में उन्होंने ‘पैसिव रेजिस्टेंस’ (निष्क्रिय प्रतिरोध) कहा। यही रेजिस्टेंस आगे चलकर सक्रिय होता गया और सदाग्रह, शुभाग्रह से होता हुआ सत्याग्रह के महामंत्र के रूप में सामने आया।

सत्याग्रह की इस शक्ति ने उनके शत्रुओं को भी बिना युद्ध के अपनी हार मानने के लिए विवश कर दिया। दक्षिण अफ्रीका में उन्हें जेल में डालने का आदेश देनेवाले जन. स्मट्स को गांधीजी ने अपने हाथों से चप्पलों की एक जोड़ी बनाकर भेंट की। वर्षों बाद गांधीजी के 70 वें जन्मदिन पर मित्रता के प्रतीक रूप में वही जोड़ी उन्हें लौटाते हुए  जन. स्मट्स ने लिखा, ‘बहुत-सी गर्मियों में ये चप्पलें मैंने पहनी, हालांकि मैं महसूस करता हूँ कि मैं ऐसे महापुरुषों के जूतों में खड़े होने के योग्य भी नहीं हूँ।’

गांधी दर्शन की सबसे बड़ी शक्ति मनुष्य को इकाई के रूप में पहचानना और हर इकाई को परिष्कृत कर परिपूर्ण बनाने का प्रयास करना है। लोकतंत्र पर अपनी बात रखते हुए उन्होंने कहा, ‘लोकतंत्र वह अवस्था नहीं है जिसमें लोग भीड़ की तरह व्यवहार करें।’ उन्होंने इस बात का ख़ास ध्यान रखा कि गांधी के नेतृत्व में आंदोलन करनेवाला हर व्यक्ति गांधी हो। यही कारण था कि गांधी बनने की पाठशाला साबरमती आश्रम में एकादश व्रत- सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्वाद, अस्तेय, अपरिग्रह, अभय, अस्पृश्यता निवारण, शरीर श्रम, सर्वधर्म समभाव और स्वदेशी अनिवार्य थे।

सत्य को किसीका डर नहीं होता। हज़ारों की भीड़ में भी वह सीना चौड़ा करके चलता है। सत्य के पुजारी की अंतिम यात्रा में बेटे देवदास के आग्रह पर उनका सीना उघड़ा ही रखा गया। सत्य के सिपाही के सीने पर लगी गोलियों के निशान बता रहे थे कि गांधी की हत्या हो गई है किंतु शवयात्रा में सहभागी लाखों गांधी साक्षी दे रहे थे कि गांधी अमर है।

गांधी की अमरता ने ही उन्हें ‘महात्मा’ की पदवी दी और विश्वविभूति बनाया। विश्वविभूति गांधी को मानवेतर मान लेना, मानव के रूप में उनकी मानव सेवा को कम आँकना होगा। इस सत्य को अपनी भूमिका में अधोरेखित करते हुए लेखक ने  राष्ट्रपिता की पौत्री सुमित्रा कुलकर्णी के कथन को उद्धृत किया है। बकौल सुमित्रा कुलकर्णी, “जिस क्षण हम गांधी को महज मूर्ति मान लेते हैं, उसी क्षण हम उन्हें पत्थर का बनाकर भूल जाते हैं। जब हम उन्हें सिर्फ मानव मानेंगे तो उन्हें पत्थर की मूर्ति में सिमटकर नहीं रहना पड़ेगा।” प्रस्तुत पुस्तक गांधी को पत्थर की मूर्ति से बाहर लाकर मनुष्य के रूप में देखने-पढ़ने और समझने के लिए प्रेरित करती है।

लेखक को अनंत शुभकामनाएँ।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “जलनाद” – लेखक श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆ चर्चा – डॉ दुर्गा सिन्हा ‘उदार’ ☆

डॉ० दुर्गा सिन्हा ‘ उदार ‘

अल्प – परिचय

शिक्षा – एम.एम., एम.एड.(स्वर्ण पदक), पीएच.डी.( मनोविज्ञान )

संप्रति –

  • पूर्व व्याख्याता, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
  • मनोवैज्ञानिक सलाहकार,
  • साहित्य एवं समाज सेवी, देहदानी
  • अनुवादक, समीक्षक, सम्पादक
  • अनेक मंचों की संरक्षक, निदेशक, मार्गदर्शक

प्रकाशन / प्रसारण –  

  • 12 पुस्तकें प्रकाशित, जिनमें चार ई-ऑडियो बुक अमेज़न पर उपलब्ध(मेरी अपनी ही आवाज़ में )
  • अनेकों साझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित, देश-विदेश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में (सविशेष हरिगंधा, राष्ट्र वीणा-गुजरात, सदीनामा, गर्भनाल, सेतु, ऑस्ट्रियांचल, नारी अस्मिता, व्यंग्यलोक में लेख-आलेख, समीक्षा आदि अनवरत प्रकाशित।
  • दैनिक पत्र हरियाणा  प्रदीप के स्थायी स्तम्भ में देश भक्ति भाव जागरण संदेश मुक्तक रूप में, सतत कई वर्षों से प्रकाशित। *अनेकों प्रतिष्ठित संस्थाओं से पुरस्कृत एवं सम्मानित।
  • साझा संकलनों में रचनाएँ, प्रकाशित।
  • चार साझा संकलन जिन्हें गोल्डन बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड में स्थान प्राप्त, लघु योगदान अपना भी।
  • नाटक गुजरात राज्य, प्रथम पुरस्कार प्राप्त, दूर दर्शन पर गुजराती अनुवाद के साथ प्रसारित।

सम्मान और पद – 

  • राय व्योम फ़ाउण्डेशन दिल्ली द्वारा “ लाइफ़ टाइम एचीवमेंट अवार्ड, 2024”
  • ”संस्थापक अवार्ड “अंतर्राष्ट्रीय महिला काव्य मंच द्वारा।
  • विदेश में  मकाम की प्रथम इकाई का शुभारम्भ, सैन डिएगो, कैलीफॉर्निया, अमेरिका में, मेरे द्वारा किया गया। आज विश्व के 42 देशों में 83 इकाइयाँ सक्रियता से कार्यरत हैं। प्रतिदिन विस्तार हो रहा है। हिन्दी भाषा के प्रचार -प्रसार एवं विस्तार हेतु कृत संकल्प।
  • साहित्य सेवा के लिए मकाम की विदेश संरक्षक पद पर पदासीन।
  • संत साहित्य अकादमी और दधीचि देहदान समिति की कार्यकारिणी सदस्य।

साहित्य सेवा द्वारा देश की सेवा हेतु कृत संकल्प।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी द्वारा लिखित पुस्तक “जलनादपर चर्चा।

☆ “जलनाद” – लेखक श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆ चर्चा – डॉ दुर्गा सिन्हा ‘उदार’ ☆

(विश्व वाणी संस्थान, जबलपुर ने श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव को उनके नाटक जलनाद पर राष्ट्रीय अलंकरण से सम्मानित किया गया है।)

पुस्तक चर्चा

पुस्तक –  जलनाद (नाटक)

लेखक – विवेक रंजन श्रीवास्तव

समीक्षा – डॉ० दुर्गा सिन्हा ‘उदार ‘

☆ अध्यात्म और यथार्थ का संगम है जलनाद का अंतर्नाद ☆ चर्चा – डॉ दुर्गा सिन्हा ‘उदार’ ☆

सागर की उत्ताल तरंगों से सुशोभित आकर्षक आवरण मुखपृष्ठ अंतर्मन के कोलाहल का आस्वाद करा रहा है। बहुत ही खूबसूरत रंग संयोजन है। पुस्तक का आवरण पृष्ठ महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, पाठकों को आकर्षित करने में। पढ़ने का मन सभी का हुआ होगा। जो भी देखेगा ज़रूर पढ़ेगा। बहुत-बहुत बधाई। शीर्षक भी स्वतः उद्घोष कर रहा है कि ‘तृतीय युद्ध की पृष्ठभूमि मैं ही बनूँगा। ’सारे वाद-विवाद, संवाद और नाद, आज इसी के इर्द-गिर्द घूम रहे हैं। “जलनाद” इसी स्वर से न जाने कितने मधुर संगीत उपजे हैं। जल जीवन का पर्याय। जल अमृत है। जल  की आवाज़ मधुर व जीवनदायिनी है। सभ्यता-संस्कृति का विकास भी जल के किनारे ही हुआ। जल धारा जीवन का संकेत करती है। ऊपर से शांत अंदर कितना कोलाहल समेटे हुए है, यह तो अन्तर्मन में झांक कर ही अन्दाज़ा लगाया जा सकता है। सागर के उस शोर को किसने सुना, किसने जानना चाहा। आवरण पृष्ट अपनी ओर आकर्षित कर यही संकेत कर रहा है कि मेरी अहमियत को जानो -पहचानो, समझो और स्वीकारो। वर्तमान की स्थिति तो और भी संकट भरी है। जलसंकट का संकेत जीवन को आगाह कर रहा है। सचेत कर रहा है। आज हम सभी को इस स्वर को सुनने की आवश्यकता है। प्रकृति के इस अनमोल ख़ज़ाने को अपने लिए ही सुरक्षित व संरक्षित करने की ज़रूरत है। गंगा प्रदूषित, पूजा कैसे करें ? नल है, पर पानी रहित, शो की वस्तु, कब तक सँभालें ?किस राज्य ने कितना पानी दिया और क्यों नहीं दे रहा ?सरकार और सत्ता ख़तरे में। कारण केवल जल। जल है तो जीवन है। जल बिना जीवन ही ख़तरे में आ गया है।

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

बारह खण्डों में पौराणिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व सभ्यता विकास से प्रारम्भ होती जल की ध्वनि, संकट की घड़ी का संकेत करती अपनी अहमियत दर्शाती, अपनी कोलाहल पूर्ण ध्वनि से आगाह कर रही है। शिकायत के साथ संरक्षण, संवर्धन और संचयन के लिए गुहार भी लगा रही है।

सागर मंथन की घटना और प्राप्त होने वाले रत्नों के साथ विष का उल्लेख, विषाक्त होता परिवेश, समाज और इंसान, सभी का बहुत सटीक चित्रण। प्रारम्भिक जल गीत भी जल का संदेश बखूबी स्पष्ट कर रहा है। जल का होना न होना, कम या अधिक होना, सभी कुछ प्रभाव डालता है। अभाव या कमी, जीवन संकट उत्पन्न करता है तो जल की अधिकता विनाश का कारण बनती है। अति वृष्टि -अल्प वृष्टि दोनों ही नुक़सानदेह है। प्रकृति के प्रतिकूल सारे कार्य प्रत्यक्षतःउपयोगी भले ही हों किन्तु जल देवता को नाख़ुश कर मानव जाति का भला हुआ है ऐसा नहीं कहा जा सकता। बॉंध बना कर प्रवाह रोकना, नहर निकाल दिशा में परिवर्तन, जल से विद्युत उत्पादन, अंधाधुंध जल दोहन, मानव, विकास के नाम पर और स्वार्थ हित न जाने कितने तरीक़े अपनाता रहा और अपना नुक़सान भी करता रहा, जो आने वाले दिनों में भयंकर परिणाम लाने की आगाही कर रहे हैं। पीने का शुद्ध जल बोतल में बंद हो कर विषैला हो रहा है और जन मानस के लिए उपलब्धता में भी कमी आई है।

जल स्तर दिनों दिन तेज़ी से गिरता जा रहा है। जल की शुद्धता जीवन के लिए ख़तरा बन गई है।

वर्तमान समय जल संरक्षण की माँग कर रहा है। इस दिशा में प्रत्येक व्यक्ति, समाज, राज्य और राष्ट्र को ध्यान देने की ज़रूरत है। इसी समस्या को ले कर विवेक जी ने नाटक के माध्यम से एक महत्वपूर्ण प्रश्न को सब के सामने रखने व समाधान की दिशा बताने का प्रयास किया है। कोई भी साहित्य दृश्य-श्राव्य और पठनीय तीनों ही माद्दा रखता हो तो समाज में उसकी क़ीमत बढ़ जाती है। वह स्वतः संग्रहणीय बन जाता है। केवल पढ़ कर मन पर जितना असर पड़ता है उससे कई गुना ज़्यादा नाटक के माध्यम से मंच पर देख व सुन कर पड़ता है। शब्द, वाक्य, परिस्थितियाँ, वस्तुस्थिति का जीता जागता उदाहरण प्रस्तुत करती हैं, यही कारण है कि नाटकों का प्रभाव तेज़ी से मन पर पड़ता है और दीर्घकालिक रहता है।

अध्यात्म से जोड़ते हुए, रामचरितमानस में तुलसी दास जी द्वारा पंचतत्त्वों से रचित मानव शरीर में जल का महत्व बताते हुए, महाभारत काल की घटनाओं का समावेश, साथ ही ऐतिहासिक घटनाओं का समुचित उल्लेख कर सभी अंकों का चित्रांकन विलक्षण है। अध्यात्म और विज्ञान का अद्भुत संगम है यह नाटक। रिफ़्रैक्शन, परावर्तन, इंद्रधनुष के रंग, रंगों के चित्रण हेतु नृत्यात्मक प्रस्तुति की परिकल्पना सभी कुछ विवेक जी की विवेकशीलता का परिचय दे रहे हैं। जीवन के प्रारम्भ का अद्भुत दृश्य। कामायनी का प्रसंग, कथन को सार्थकता प्रदान कर रहा है। वर्तमान को वर्षों पूर्व के गहरे अतीत से जोड़ना अपने आप में एक विलक्षण दृष्टि का परिचायक है।

समुद्र मंथन की पौराणिक गाथा। कपोल कल्पना को वैज्ञानिक मनोवैज्ञानिक आधार दे कर बड़ी ही कुशलता से प्रस्तुत किया है ताकि हर कोई इसे सहजता से स्वीकार कर ले। देवता-दानव, मोहिनी और विष्णु, मानव के बाहर नहीं भीतर ही हैं। बहुत ख़ूब !

विवेक जी ने हर विषय पर अपनी पूरी पकड़ को सिद्ध कर दिया है। रोचक व ज्ञानवर्धक और संप्रेषण की सारी व्यवस्था, विस्तार से बचा कर बहुत आसान बना दिया है नाटक को, मंच पर प्रस्तुत करने के लिए। न तो अतीत के आस्था और विश्वास को मिटने दिया है न ही कपोल कल्पना कह कर नकारने का अवकाश दिया है, वरन् वैज्ञानिकता के आधार पर सिद्ध कर स्वीकार्य बना दिया है ताकि सब यथावत् अस्तित्व में रहे। श्लाघनीय प्रयास। अध्यात्म और विज्ञान का अद्भुत संयोग। कालिया नाग को नाथने का दृश्य जल प्रदूषण की विभीषिका का संकेत है। सँभलने की आवश्यकता है।

वाह ! नर्मदा व सोन नदी की पौराणिक गाथा को बड़ी ही वैज्ञानिकता से  चित्रित किया है। वर्णन इतना प्रभावशाली है कि मंच पर दृश्य उभर कर सामने उपस्थित से जान पड़ते हैं। उद्गम अमरकंटक के बीहड़ों में। आज तो वहाँ भी वह नीरव प्राकृतिक सुन्दरता नहीं रह गई है। मनुष्य ने कृत्रिमता इतनी लाद दी है कि कुछ भी प्राकृतिक शेष नहीं रह गया है। कंकरीट के जंगल वहाँ भी उगने लगे हैं। वहाँ की नीरव शांति और मधुर ध्वनि, जल का मीठा राग, कानों में रस नहीं घोलते। यही विकास है शायद, कि सब अब बनावटी हो जाए और आत्मीयता समाप्त हो जाए।

वरुण देवता के विश्राम में विघ्न

असमय, कुसमय का विधान और न मानने से होने वाले नुक़सान का बड़ा ही तर्कसंगत वर्णन। रोचक घटना  द्वारा महत्वपूर्ण संदेश।

मंचन आसान नही। विवेक जी की परिकल्पना भले ही आसान है।

हालाँकि पौराणिक घटनाओं को परस्पर जोड़ने का वैज्ञानिक दृष्टिकोण और वैज्ञानिक आधार अपने आप में विवेक जी की अद्भुत प्रतिभा की ओर इंगित करता है। “महाभारत का युद्ध जल के अपव्यय के तहत ही हुआ। “

न इस तरह की अनोखी रचना होती न उपहास होता, न ही दुर्योधन अपमान का बदला लेता। बहुत ख़ूब !आज कृत्रिम झरने दिखावे के लिए जल का दुरूपयोग करते हैं और पानी बोतलों में बंद हो कर बिकने पर मजबूर है। संकट युद्ध की विभीषिका का आगाह कर रहा है।

कुम्भ मेले का आयोजन प्राचीनतम परम्परा का निर्वाह, आक्रांताओं ने भी बदलने का साहस नहीं किया। जल की सामाजिक महत्ता को ही प्रतिपादित करते हैं ये कुम्भ के मेले।

धार्मिक पर्यटन, राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान और अनवरत चल रहे कुम्भ मेलों की प्रासंगिकता एवं अनिवार्यता पर प्रकाश डाला है कि कैसे ये मानसिक व शारीरिक शुचिता के लिए ज़रूरी हैं। यहाँ प्रवचन, दीक्षा ग्रहण आयोजन आदि सम्पन्न होते हैं। आध्यात्मिक उन्नयन के आधार हैं ये सभी मेले और आध्यात्मिक टूरिज़्म के आयोजन।

कालिदास के मेघदूत  का उल्लेख, जल का मानवी करण, विलक्षण है। भारतीय परिकल्पना, ” कि कण-कण में भगवान है। ”जड़ भी चेतन है। पशु-पक्षी, नदियां, पत्थर भी पूजे जाते हैं। मेघों के द्वारा संदेसा भेजना मेघों को संदेश वाहक बनाना, मेघों को सजीव समझना है। यही विशेषता है भारत की। विवेक जी ने चुनिंदे प्रसंगों के माध्यम से जल की महत्ता को शास्त्रीय नृत्य-संगीत द्वारा रोचक बना कर प्रस्तुत करने व संदेश देने का विलक्षण प्रयास किया है।

मांडू का जहाज़ महल, वाटर हार्वेस्टिंग, पानी की बचत संरक्षण व संवर्धन के उपायों का ऐतिहासिक प्रबंधन की ओर संकेत करता  है। पानी का अभाव न था फिर भी दुरुपयोग न था। व्यर्थ पानी बर्बाद नहीं करते थे। क्या पूर्वज भविष्य द्रष्टा थे ? शायद हाँ। तभी तो पुराने महलों व पुरानी इमारतों में घर में ये सारी व्यवस्थाएँ उपलब्ध थीं।

आज हम जानते-बूझते, देखते और महसूस करते हुए भी समझ नहीं पा रहे हैं। कल कितना भयंकर होने वाला है अभी से पता चल रहा है। बोतलों में बंद मंहगा पानी आगाह कर रहा है लेकिन हम फिर भी नहीं देखना चाहते।

मांडू गई तो हूँ लेकिन तब जल संकट ऐसा न था कि महल को इस दृष्टि से भी देखने का प्रयास किया जाता। आज हर किसी को इस नज़रिए से देखना और अमल में लाने का विचार करना ज़रूरी बन गया है।

इतिहास, भूगोल, समाज शास्त्र अध्यात्म और विज्ञान का अनूठा संगम है “ जलनाद “ विवेक जी की परिकल्पना अद्भुत है और प्रस्तुति का स्वरूप अद्वितीय – अप्रतिम।

नदी की मनोव्यथा

नदी चीख कर कहती है मेरी दुर्दशा के ज़िम्मेदार मानव तुम ही हो और अब तुम ही मेरा उद्धार करोगे। नदियों ने हमें जल दिया, जीवन दिया, सभ्यता दी, संस्कृति दी, प्राण भरे, अब हमारी बारी है समझने की। अपने उत्तरदायित्व को समझें और निर्वाह करें। नदी स्वयं अपनी व्यथा – कथा, क्षति, असमर्थता का प्रलाप कर रही है और अपनी सुरक्षा के लिए गुहार लगा रही है, चेतावनी देते हुए।

‘सौ साल पहले हमें जल से प्यार था। ’ जी हाँ हम खेल भी यही खेलते थे और गीत भी यही गाते थे। ”गोल-गोल रानी इत्ता-इत्ता पानी “ और “ मछली जल की रानी है। ” शायद यह भविष्य का संकेत था कि जब जल कम रह जाएगा या सिर से ऊपर हो जाएगा तो जीवन नहीं बच पाएगा।

गंगा जल और आब-ए-ज़मज़म और बपतिस्मा  की ख़ासियत भी विवेक जी ने बखूबी याद रखा है। सूक्ष्म से सूक्ष्म जानकारी का गहराई से अध्ययन कर, नाटक को सशक्त बनाने के लिए आवश्यकतानुसार बखूबी उपयोग किया है विवेक जी ने। जल मानव जीवन की औषधि है। प्राणी जगत के जीवन का आधार है तो हर धर्म में इसकी अहमियत और पवित्रता की चर्चा समान रूप से होनी ही है। धार्मिक आधार पर मौलवियों -पंडितों, गुरुजनों के माध्यम से सारगर्भित जानकारी देते हुए जल संचयन की ताकीद करता “ जलनाद “ नाटक, सराहनीय।

जल तरंग, जल वाद्य यंत्र जिसमें निर्धारित आकार के बर्तनों में निश्चित मात्रा में जल भर कर मधुर ध्वनि प्राप्त की जाती है।

जल तरंग मात्र एक विशिष्ट वाद्य यंत्र नहीं, पंचतत्त्वों का संगम है।

जिसमें  जल तो  है ही, कटोरी – भूमि, जल का तापमान अग्नि, वातावरण यानि आकाश और वायु। पाँचों तत्त्व मिल कर निर्मित है। ऋग्वेद की ऋचाओं द्वारा व उनके भावार्थ को गीत के माध्यम से प्रस्तुत कर नाटक को एक महान ग्रंथ के रूप में ला खड़ा किया है, विवेक जी ने। इसके लिए आपको बहुत-बहुत बधाई।

वस्तुतः यह महज़ एक नाटक नहीं विलक्षण ग्रंथ है, पठनीय, संग्रहणीय और मंचनीय।

हे जल के देवता !

यही ख़ासियत है भारत की कि, जल भी देवता है। जिससे हमें जीवन मिले वह देवतुल्य हो जाता है। ऋग्वेद की ऋचाओं का लक्ष्यभेदी हिन्दी रूपांतरण भी प्रभावशाली।

विवेक जी के ज्ञान-विज्ञान और अध्यात्म के मिश्रण को नमन जल रसायन की विस्तृत समीक्षा, व्याख्या एवं स्वरूप का आद्योपांत रोचक वर्णन सराहनीय। भाषा-शैली, सुरुचि पूर्ण एवं कथ्यानुरूप। विवेक जी की इस विलक्षण कृति की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। कम से कम मैंने तो यही अनुभव किया है।

स्त्री-पुरुष स्वर में सूत्रधार की भूमिका नाटक में जान डाल रही है। बहुत ही सलीके से सभी परिस्थितियों को उजागर करते हुए नाटक के प्रति जिज्ञासा, उत्सुकता जगाती जानकारी दर्शक को बांधे रखने में पूर्णतः समर्थ है। एक अलग ही अनोखापन है। विवेक जी की परिकल्पना को बारम्बार बधाई।

मुझे यह नाटक ख़ास पसंद क्यों आया या मैं विशेष रूप से इधर आकर्षित क्यों हुई, कारण यह है कि मैंने भी एक नाटक संग्रह ( “कौन सीखे-कौन सिखाए “) प्रकाशित किया है, जिसमें चुने हुए नाटक, राज्य स्तर पर पुरस्कृत एवं दूरदर्शन व आकाशवाणी से प्रसारित हैं। मैंने भी संसाधन संरक्षण, आपदा प्रबंधन, साम्प्रदायिकता के कुप्रभाव से ख़ुद को परे रखने एवं साक्षरता के महत्व से लगते नाटकों की रचना की, जिनकी मंचीय प्रस्तुति पाठकों व दर्शकों को बहुत पसंद  आयी। खूब सराहना मिली। विवेक जी का यह नाटक अद्भुत है। सत्य-तथ्य, गल्प और पैराणिकता की वैज्ञानिक आधारशिला से समृद्ध, भारतीय सभ्यता-संस्कृति, आस्था व विश्वास को ठोस बनाती यह कृति न केवल पठनीय है वरन् मैं तो कहती हूँ कि संग्रहणीय है। सभी बुद्धिजीवियों की लाइब्रेरी में होनी ही चाहिए। साथ ही इसका जितना अधिक से अधिक मंचन किया जा सके उतना श्रेयस्कर है।

विवेक जी से अनुमति ले कर, यदि उनकी स्वीकृति होगी तो मैं भी जिन मंचों से कुछ थोड़ा नाता रखती हूँ उन्हें आपकी पुस्तक लेने और मंचन करने के लिए अनुरोध करूँगी। औपचारिकताएं आप परस्पर पूरी करिएगा। मैं केवल मंचों तक जानकारी उपलब्ध कराना चाहती हूँ। बहुत सी अच्छाइयाँ अनजाने ही हमसे दूर रहती हैं। पास लाने का प्रयास मात्र होगा। ज़रूरी है। संदेशात्मक नाटक। अवश्य अनेकों बार इस नाटक का मंचन हुआ ही होगा। न जाने कितने लोग लाभान्वित भी हुए होगे।

विवेक जी के सूक्ष्म अवलोकन, समसामयिक समस्या के प्रति चिंतित होना, बखूबी अभिव्यक्त हो रहा है। शब्द चयन, संवाद, भाषा-शैली एवं सम्प्रेषण कला का, परिचय मिल रहा है। प्रस्तुति रोचक और प्रभावशाली है। नाटक मंचन की पूरी-पूरी व्यवस्था भी कर रखी है विवेक जी ने, कि कोई दिक़्क़त न हो। सूक्ष्मतम जानकारी पूरे विस्तार से दिया है, जो अपने आप में विलक्षण है।

बहुत-बहुत बधाई एवं आकाश भर हार्दिक शुभकामनाएँ! 🙏 

समीक्षक – डॉ दुर्गा सिन्हा  

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

सम्पर्क — +919910408884

Email [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “मेरे शब्दों में छुपकर मुस्कुराते हो तुम” (काव्य संग्रह) – कवयित्री : सुश्री पल्लवी गर्ग ☆ समीक्षा – श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “मेरे शब्दों में छुपकर मुस्कुराते हो तुम” (काव्य संग्रह) – कवयित्री : सुश्री पल्लवी गर्ग ☆ समीक्षा – श्री कमलेश भारतीय ☆

पुस्तक : मेरे शब्दों में छुपकर मुस्कुराते हो तुम (काव्य संग्रह )

कवयित्री : पल्लवी गर्ग

प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर

मूल्य 225, पृष्ठ ; 132 (पेपरबैक)

☆ “काव्यगंध‌ से महकतीं कवितायें – पल्लवी गर्ग की मुस्कुराते हो तुम” – कमलेश भारतीय ☆

मेरे लिए पल्लवी गर्ग की कविताओं से  गुजरना यूं तो फेसबुक और पाठक मंच पर अक्सर होता है लेकिन कविताओं को एकसाथ पढ़ने का सुख कुछ और ही होता है। पल्लवी ने बड़े चाव से अपना ताज़ा प्रकाशित काव्य संग्रह ‘मेरे शब्दों में छुपकर मुस्कुराते हो तुम’ भेजा तो वादा किया कि सिर्फ पढ़ूंगा ही नहीं, अपने मन पर इसकी छाप भी लिखूंगा। कुछ दिन इसके पन्ने पलटता रहा, पढ़ता रहा, एक दो यात्राओं में यह मेरे साथ ही चलता रहा। शीर्षक इतना लम्बा कि कमलेश्वर की कहानी का शीर्षक याद आ गया- उस दिन वह मुझे ब्रीच केंडी पर मिली थी’ जैसा ! इसलिए प्रकाशक ने भी मुस्कुराते हो तुम बोल्ड कर दिया, जैसे यही शीर्षक हो !

प्रसिद्ध लेखक व ‘अन्विति’ के संपादक राजेंद्र दानी की भूमिका से यह विश्वास हो गया कवितायें पढ़कर कि कविताओं में ‘काव्यगंध’ है और मुझे भी ऐसी ही महक आई कविताओं को पढ़ते पढ़ते ! खुशी इसलिए भी हुई कि बहुत लम्बे समय बाद ताज़गी भरी छोटी छोटी कवितायें पढ़ने को मिलीं, सार्थक भी और स़देशवाहक भी। आपको बानगी दिखाता हूं :

परत दर परत

मन को उधेड़ना तब

सामने रफ़ूगर अच्छा हो तब

(रफ़ूगर)

……

प्रेम वह कमाल है

जिसमें दूरियां पाटी न जा सकें

नजदीकियां आंकीं न जा सकें !

(प्रेम)

…….

रुचता है मुझे हिमालय पर जाना

उसकी उत्ताल भुजाओं में

शिशु सा समा जाना !

(यात्रा)

…….

हाथ तो पकड़ लिया उसने

काश जान जाता

हाथ पकड़ने और थामने का अंतर !

(अंतर)

…….

धूप का एक टुकड़ा

तुम्हरी यादों की तरह

नजदीक आया

हटाने की कोशिश भी की

पर वह ढीठ भी तुम सा !

(धूप का टुकड़ा)

……

वक्त के बेहिसाब घाव दिखते हैं

तुम्हारी आंखों में

किसी दिन उन पर

प्रेम का मरहम लगायेंगे !

(वक्त के घाव)

……

पल्लवी गर्ग लिखती हैं कि मन के कोने तो बरसों से हर बात पी जाने के अभ्यस्त हो चुके होते हैं, यकायक उनमें एक कांप उठती है ! शून्य, चीत्कार, दर्द, मुस्कुराहट और अश्रु सब उफन पड़ते हैं! पल्लवी की कविताओं में ये सब मिल जायेंगे जगह जगह ! बस, दबे पांव आई पल्लवी की कवितायें उसकी पहली ही कविता नीलकुरिंजी की तरह ! कोई शोर नहीं, कोई प्रचार नहीं लेकिन ये कवितायें पाठकों के मन में खिल जायेंगीं, ऐसा मेरा विश्वास है।

बहुत बहुत शुभकामनाओं सहित पल्लवी !

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – वह हँसती बहुत है – कवयित्री – सुश्री स्वरांगी साने — ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 21 ?

?ह हँसती बहुत है  — कवयित्री – सुश्री स्वरांगी साने  ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम- वह हँसती बहुत है

विधा- कविता

कवयित्री- सुश्री स्वरांगी साने

? स्त्रीत्व का वामन अवतार- ‘वह हँसती बहुत है।’  श्री संजय भारद्वाज ?

कविता और संवेदना का चोली-दामन का साथ है। अनुभूति कविता का प्राणतत्व है। जैसा अनुभव करेंगे, वैसा जियेंगे। जैसा जियेंगे वैसी ढलेगी, बहेगी कविता। यह अखंड जीना किसी को कवि या कवयित्री बना देता है। कवयित्री स्वरांगी साने इस जीने को स्त्री जीवन के अमर पक्ष अर्थात पीहर तक ले जाती हैं। यहीं से उनकी कविता में सदाहरी बेल पनपने लगती है-

कविता में जाना मेरे लिए पीहर जाने जैसा है..*

‘वह हँसती बहुत है’ संग्रह की कविताएँ स्त्री जीवन के विविध आयामों को अभिव्यक्त करती हैं। प्रेम, जीवन का डीएनए है‌। यही प्रेम प्राय: दोराहे पर ला खड़ा करता है।  एक राह मिलन के बाद की टूटन और दूसरी ना मिल पाने की कसक अथवा बिछुड़न। दूसरी राह शाश्वत है। ये शाश्वत की कविताएँ हैं। इस शाश्वत की बानगी ‘मेडिकल टर्म्स’ में देखिए-

धुंधला दिख रहा है/ सब कह रहे हैं मोतियाबिंद हो गया है/ पर वह जानती है/ ठहर गए हैं सालों साल के आँसू /आँखों में आकर..*

आह और वाह को एक साथ जन्म देती शाश्वत की यह अभिव्यक्ति जितनी कोमल है, उतनी ही प्रखर भी। यह शाश्वत ‘धोखा’, ‘ऐसे करना प्रेम’,  ‘मीरा के लिए’, ‘ललक’, ‘पार हो जाती’, ‘तुमने कहा था’, ‘चाहत’, ‘रसोई’, ‘यात्रा’, ‘जो बना रहा’  जैसी अन्यान्य कविताओं के माध्यम से इस संग्रह में यत्र, तत्र, सर्वत्र दिखाई देता है। शाश्वत प्रेम की एक हृदयस्पर्शी बानगी ‘फेसबुक’ कविता से,

फेसबुक पर तुम्हारे नाम के पास/  ले जाती हूँ कर्सर/ लगता है/  तुम्हें छू कर लौटी हूँ…*

बिछुड़न का कारण और निवारण, गहरे से निकलता है, पाठक को गहरे तक भिगो देता है,

उसकी संजीवनी बूटी हो तुम/  जो नहीं हो उसके पास… * 

प्रेम कोमल अनुभूति है पर प्रेम चीर देता है। प्रेम टीस देता है, व्याकुलता और विकलता देता है लेकिन यही प्रेम संबल और बल भी देता है। खंडित होकर अखंड होने का संकल्प और ऊर्जा भी देता है। कवयित्री प्रेम की मखमली अभिव्यक्ति से आगे बढ़ती हैं और सांसारिक यथार्थ को निरखती, परखती और उससे लोहा लेती हैं,

मैंने बंद कर दिया है तुमसे अपना वार्तालाप/ अब शुरू हुआ है मेरा खुद से संवाद..*

समय के थपेड़े व्यक्ति पर पाषाण कठोरता का आवरण चढ़ा देते हैं,

बाहर से वह कठोर दिखती है/  इतनी कि लोग उसे अहिल्या कहते हैं..*

पत्थर के भीतर भी स्त्री बची रहती है पर स्त्री  की देह उसे डरने के लिए विवश भी करती है,

कछुआ नहीं लड़की है वह/  और तभी वह समझ गई यह भी कि/  सुरक्षित नहीं है वह/  फिर सिमट गई अपनी खोल में..*

खोल या आवरण को तोड़कर बाहर लाती है शिक्षा। शिक्षा अर्थात पढ़ना। पढ़ना अर्थात केवल साक्षर होना नहीं। पढ़ना अर्थात देखना, पढ़ना अर्थात गुनना, पढ़ना अर्थात समझना। पढ़ना अर्थात विचार करना, पढ़ना अर्थात विचार को अभिव्यक्त करना।  समाज स्त्रीत्व की खोल से बाहर आती स्त्री को देखकर, उसके चिंतन को समझ कर चिंतित होने लगता है, 

खतरा तो तब मंडराता है/ पढ़ने लगती है/ औरत कोई किताब..*

औरत पढ़ने लगती है किताब। औरत लिखने लगती है किताब। स्त्री जीवन का अनंत विस्तार  सिमटकर उसकी कलम की स्याही में उतर आता है,

किसी तरह चुरा लेनी है/  मेहंदी की गंध और उसका रंग भी/ तो बेटियां निकल सकती हैं/  इस तिलिस्म से बाहर/ सच अभी इतनी भी देर नहीं हुई..*

………

इतिहास कहता है/ वह वैशाली की नगरवधू थी/ इतिहास में नहीं कहा कि/ वह एक स्त्री थी..*

‘सौरमंडल’, ‘हँसी’, ‘नर्तकी’ और ऐसी अनेक कविताओं में स्त्री के ब्रह्मांड का मंथन है। ‘प्याज़’ नामक कविता इसका क्लासिक उदाहरण है। 

बहुत सारा प्याज़/ काटने बैठ जाती थी माँ/ कहती थी मसाला भूनना है/ तब समझ नहीं पाती थी/ इतना अच्छा क्या है प्याज़ काटने में/ आज पूछती है बेटी/ क्या हुआ?/ और वह कह देती है/ कुछ नहीं/ प्याज़ काट रही हूँ..*

अपनी जिंदगी अपनी तरह से नहीं जी पाने की निराशा अपनी तरह से मरने की आज़ादी का शंख फूँकती है।

उसे मरने का कॉपीराइट चाहिए..*

‘वह हँसती बहुत है’ संग्रह की कविताएँ स्त्रीत्व का वामन अवतार हैं। इस संग्रह की कविताएँ स्त्री जीवन की विराटता को अल्प शब्दों में जीने का सामर्थ्य रखती हैं, यथा-

एक कदम में लांघा माँ का घर/ दूसरे में पहुँच गई ससुराल/ विराट होने की ज़रूरत ही नहीं रही/और उसने नाप ली दुनिया..* 

इस संग्रह की रचनाएँ स्त्री जीवन की विसंगत स्थितियों का वर्णन अवश्य करती हैं पर अपना स्त्रीत्व नहीं छोड़तीं। यह स्त्रीत्व है जिजीविषा का, सपने देखने का, सपना टूटने पर फिर सपना देखने का। सदाहरी विस्तार पाती है,  और शब्द फूटते हैं,

खुली आँखों से सपना देखती/ सपने को टूटता देखती/ खुद को अकेला देखती/  फिर भी वह सपना देखती..*

कवयित्री के सपने फलीभूत हों, कवयित्री निरंतर लिखती रहें।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – मंगल पथ — कवि – स्व. प्रकाश दीक्षित ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 20 ?

? मंगल पथ — कवि – स्व. प्रकाश दीक्षित ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

मंगल पथ- स्वयंप्रकाशित  कविताएँ

पुस्तक का नाम- मंगल पथ

विधा- कविता

कवि- स्व. प्रकाश दीक्षित

प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे

? मंगल पथ- स्वयंप्रकाशित  कविताएँ  श्री संजय भारद्वाज ?

माना जाता है कि लेखन जब तक काग़ज़ पर नहीं उतरता, गर्भस्थ शिशु की तरह   लेखक की व्यक्तिगत अनुभूति होता है। काग़ज़ पर आने के बाद वह परिवार की परिधि में नाना प्रकार के लोगों से नानाविध संवाद साधता है। प्रकाशन की प्रक्रिया लेखन को   प्रकाश में लाती है और रचना समष्टिगत होकर विस्तार पाती है। इसे विडंबना या दैव प्रबलता ही मानना पड़ेगा कि अपनी रचनाओं से स्वयंप्रकाशित प्रकाश दीक्षित जी की रचनाएँ उनके देवलोक गमन के उपरांत ही पुस्तक के रूप में आ पाई हैं।

उपरोक्त कथन में कहीं निराशा का भाव अंतर्निहित नहीं है। अनेक सुप्रसिद्ध रचनाकार जिन्हें सदा पढ़ा जाता रहा है, अपने जीवनकाल में प्रकाशित नहीं हो सके, परंतु शरीर चले जाने के बाद भी उनके सृजन ने उन्हें सृष्टि पर बनाए रखा। सृष्टि पर मिले शरीर का जाना अर्थात आत्मा का ब्रह्म में विलीन होना। हमारी सनातन संस्कृति में ब्रह्म का एक रूप शब्द भी है। अतः सारस्वत दिवंगत शब्द का चोला ओढ़कर सदैव हमारे सम्मुख रहते हैं। एतदर्थ प्रस्तुत संग्रह पढ़ते समय अनेक बार ये अनुभूति होती है कि  साक्षात कवि द्वारा इसका पाठ किया जा रहा हो। काया मौन हुई तो शब्द मुखर हो उठे। यह सुखद है कि पार्थिव रूप से अनुपस्थित होते हुए भी दीक्षित जी इस संग्रह के हर पृष्ठ पर सूक्ष्म रूप से उपस्थित हैं।

इस संग्रह को  ॐ छंदावली, वचनामृत एवं गुरु-गोविंद तथा वेदों पर आधारित रचनाओं के तीन भागों में बाँटा गया है। सृष्टि में सर्वत्र ॐ का नाद है। जीवन की सारी गाथा ॐ के तीन अक्षरों- ‘अ’ से आविर्भाव, ‘उ’ से ऊर्जा तथा ‘म’ से मौन में समाहित है। यही कारण है कि ‘अ’ को ब्रह्मा, ‘उ’ को विष्णु तथा ‘म’ को महेश का द्योतक माना गया है। सारांश में ॐ ईश्वर का पर्यायवाची है। इस शब्दब्रह्म को मान्यता प्रदान करते हुए छांग्योपनिषद कहता है, ‘ॐ इत्येत अक्षरः।’ अर्थात्‌ ॐ अविनाशी, अव्यय एवं क्षरण रहित है। ॐ की अक्षरा महिमा का प्रगल्भ गान कवि ने ॐ छंदावली के अंतर्गत किया है। पूरे खण्ड में कवि का इस विषय में गहन अध्ययन स्पष्ट प्रतिपादित होता है। कुछ पंक्तियॉं दृष्टव्य हैं-

अकार से विराट विश्व अग्नि आदि अर्थ होत,

उकार में हिरण्यगर्भ वायु तेज आ रहे।।

मकार से ईश्वर, आदित्य और प्राज्ञ आदि,

नाम सब ब्रह्म के हैं, ओऽम में समा रहे।

संस्कृत साहित्य, ज्ञान की अविरल धारा है। इसे सामूहिक दृष्टिहीनता ही कहेंगे कि निहित स्वार्थों और कथित आधुनिकता के हवाई गुणगान के चलते हमने संस्कृत साहित्य की घोर उपेक्षा की। उपेक्षा के इस स्वप्रेरित कुठाराघात ने आधुनिक पीढ़ी को अनेक मामलों में दिशाहीनता की स्थिति में ला छोड़ा है। ‘वचनामृत’ इस दिशाहीनता को सार्थक दिशा दिखाने का प्रयास है। इस खण्ड में संस्कृत के विभिन्न मंत्रों का पद्यानुवाद है। विशेषता यह है कि छंद रचते समय कवि ने व्याकरण और सर्जना का समन्वय भली-भाँति साधने का यत्न किया है। श्लोकों का चुनाव मनुष्य जीवन को समाजोपयोगी बनाने को दृष्टिगत रख कर किया गया है। विद्वता और नम्रता का अंतर्संबंध देखिए-

विद्या और मेघ संवर्द्धनकारी हों जो कर्म।

हे विद्वानो! करो क्रिया वह, यह जीवन का मर्म।।

जो भी चाहें शिक्षा-विद्या करो प्रीतियुत दान।

विद्या ग्रहण करो तुम उनसे जो कि अधिक विद्वान।।

तीसरा खण्ड गुरु-गोविंद व वेदों पर केंद्रित रखा गया है। वेद हमारे आद्यगुरु हैं। हमारी संस्कृति ने गुरु को ईश्वर से भी ऊँचा स्थान दिया है। “गुरु गोबिंद दोउ खड़े’ हम सबको कंठस्थ है। पूरे खण्ड में ईश्वर, गुरु व वेदों के प्रति मानवंदना अक्षर-अक्षर में प्रतिध्वनित होती है। इस मानवंदना को श्रद्धा के साथ ज्ञान की पृष्ठभूमि मिली है। यथा-

वेदों में वारिधि लहराता, जीवन की समरसता का,

वेदों का हर मंत्र, गा रहा, गीत मनुज की समता का,

बल वैभव लख विपुल किसी का द्वेष दाह से नहीं जलें।

जीवन पथ पर नित्य निरंतर वेदों के अनुसार चलें।।

उल्लेखनीय है कि प्रस्तुत संग्रह कवि के देहावसान के बाद उनके बेटी-जमाता के अथक प्रयास से प्रकाशित हुआ है। बेटियों को कम आँकनेवाले समाज के एक अंश की मानसिकता में परिवर्तन लाने के लिए यह एक उदाहरण है। 

आशा की जानी चाहिए कि “मंगलपथ’ की मांगलिक रचनाएँ पाठकों के हर वर्ग हेतु कल्याणकारी सिद्ध होंगी। 

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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