हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – अधरंगे ख़्वाब  — कवि- राजेंद्र शर्मा ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 26 ?

? अधरंगे ख़्वाब  — कवि- राजेंद्र शर्मा ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम- अधरंगे ख़्वाब

विधा- कविता

कवि- राजेंद्र शर्मा

प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, जयपुर 

? एक सिनेमेटोग्राफर की डायरी : अधरंगे ख़्वाब  श्री संजय भारद्वाज ?

सपना या ख़्वाब मनुष्य की जीवन यात्रा के अभिन्न अंग हैं। सुप्त इच्छाएँ, आकांक्षाएँ,  अव्यक्त विचार प्राय: ख़्वाब का आकार ग्रहण करते हैं। अधिकांशत: ख़्वाब चमकीले या रंग- बिरंगे होते हैं। कवि राजेंद्र शर्मा की ख़्वाबों की दुनिया उनके कविता संग्रह ‘अधरंगे ख़्वाब’ में उतरी है। अलबत्ता ये ख़्वाब कोरी कल्पना के धरातल से नहीं अपितु जीवन के कठोर यथार्थ एवं जगत की रुक्ष सच्चाइयों से उपजे हैं। यही कारण है कि कवि इन्हें अधरंगे ख़्वाब कहता है।

‘अधरंगे ख़्वाब’ की कविताओं में स्मृतियों की खट्टी-मीठी टीस है। राजनीति के विषैलेपन पर प्रहार है। लॉकडाउन के समय की भिन्न-भिन्न घटनाओं के माध्यम से तत्कालीन मनोदशा का वर्णन है। नगरवधुओं की पीड़ा के चित्र हैं। आचार-विचार  में निरंतर उतर रही कृत्रिमता पर चिंता है। राष्ट्रीयता पर चिंतन है। पर्यावरण के नाश की पीड़ा है। मनुष्य जीवन के विविध रंग हैं। भीतर ही भीतर बहती परिवर्तन की, बेहतरी की इच्छा है। सारी आशंकाओं के बीच संभावनाओं की पड़ताल है।

स्मृतियों का रंग कभी धुंधला नहीं पड़ता अपितु विस्मृति का हर प्रयास, स्मृति को गहरा कर देता है। निरंतर गहराती स्मृतियों की ये बानगियाँ  देखिए-

ये कैसा अमरत्व पा लिया है तूने

मेरे मस्तिष्क की गहराइयों में,

मान्यता प्राप्त किसी दैवीय शक्ति की तरह, अपरिवर्तित सौंदर्य, लावण्य, युवा अवस्था।

प्रेम की अनन्य मृग मरीचिका कुछ यूँ शब्दों में अभिव्यक्त होती है-

जिसे मैं ढूँढ़ रहा हूँ वो मुझमें ही बसती है,

बिन उसके कटता नहीं इक पल मेरा,

ऐसी उसकी हस्ती है।

राज करने की नीति अर्थात राजनीति। इस शब्द के आविर्भाव के समय संभवत: इससे राज्य- शासन के आदर्श नियम, उपनियम वांछित रहे हों पर कालांतर में येन केन प्रकारेण ‘फूट डालो और राज करो’  के इर्द-गिर्द ही राजनीति सिमट कर रह गई । कवि को यह विषबेल बुरी तरह से सालती है।

ये जानते हैं

ज्ञानी से मूर्ख को गरियाना,

ये जानते हैं

मूर्ख से ज्ञानी को लठियाना,

ये जानते हैं

मेरी कमज़ोरी,

ये जानते हैं

तेरी कमज़ोरी।

आम जनता में व्याप्त बिखराव की कमज़ोरी के दम पर सत्ता पिपासु अपनी-अपनी रोटी सेंकते हैं। उनकी आपसी सांठगांठ की पोल खोलती यह अभिव्यक्ति देखिए-

अनीति से नीति के इस हवन में

षड्यंत्र के नाम पर

आहुतियाँ यूँ ही पड़ती रहेंगी,

जय तुम्हारी भी होगी,

जय हमारी भी होगी,

कभी रोटियाँ तुम बेलो,

कभी रोटियाँ हम सेंकें,

कभी हम रोटियाँ बेलें,

कभी रोटियाँ तुम सेंको ,

यही तो समझदारी है,

हम हैं एक,

अलग-अलग कहाँ हैं..!

लॉकडाउन वर्तमान पीढ़ी द्वारा देखा गया अपने समय का सबसे भयावह सच है। अपने घरों में क़ैद हम क्या सोच रहे थे, इस सोच को विभिन्न घटनाओं पर टिप्पणियों के रूप में उपजी विविध कविताओं में कवि ने उतारा है।

समाज लोगों का समूह है। आधुनिकता ने हमें अकेला कर दिया है। इस लंबी नींद को तोड़ने का आह्वान कवि करता है-

अब मेरी आँखें खुल चुकी थीं,

मैंने उठकर अपने कमरे के

सारे रोशनदान,

सारी खिड़कियाँ,

दरवाज़े खोल दिए और

देखते ही देखते मेरा कमरा

एक सुनहरी रोशनी से भर गया।

भौतिक विकास के नाम पर पर्यावरण और सहजता का विनाश हो चुका। हमने इर्द-गिर्द और मन के भीतर काँक्रीट के जंगल उगा लिए हैं। प्राकृतिक जंगल हरियाली फैलाता है, काँक्रीट का जंगल अशेष को अवशेष कर देता है।

जहाँ स्वच्छ, स्वस्थ, प्राणवायु के नाम पर

बचे रह गए हैं कुछ एक पर्यटन स्थल,

निर्मल जल के नाम पर कुछ एक नदी तट,

और वे भी कब तक रहेंगे शेष?

न जाने किस दिन चढ़ जाएँगे

विकास के नाम पर विनाश की भेंट..!

छमाछम बारिश में भीगना, अब असभ्यता हो चला है। खुद को ख़ुद में डूबते देखना तो कल्पनातीत ही है-

आज मैंने

फिर एक बार

काग़ज़ की नाव बनाई,

फिर एक बार

उसे घर के पास

नाली के तेज़ बहते पानी में उतारा,

फिर एक बार उसमें बैठ

अपने को

दूर तलक जाते देखा,

फिर एक बार

आज बरसों बरस बाद,

ख़ुद को ख़ुद में डूबते देखा।

कविता सपाटबयानी नहीं होती। कविता में मनुष्य का मार्गदर्शन करने का तत्व अंतर्भूत होता है। सूक्ति नहीं तो केवल उक्ति का क्या लाभ?

निर्णय वही सही होता है, जो

सही समय पर लिया गया हो

वक्त के बाद लिया गया सही निर्णय भी,

हानि के उपरांत

उसका प्रायश्चित तो हो सकता है,

उस क्षति की पूर्ति नहीं।

‘बंद कमरे-बौद्धिक चर्चाएँ’ कविता में रोज़ाना घटती ऐसी घटनाओं का उल्लेख है जो हमें विचलित कर देती हैं। तथापि हम समस्या पर मात्र दुख जताते हैं। उसके हल के लिए कोई सूत्र हमारे पास नहीं होता। कहा गया है, ‘य: क्रियावान स पंडित:।’ जिह्वालाप से नहीं, प्रत्यक्ष कार्यकलाप से हल होती हैं समस्याएँ।

परिवर्तन सृष्टि का एकमात्र नियम है जो कभी परिवर्तित नहीं होता। हर समय परिवर्तन घट रहा है। अत: हर समय परिवर्तन के साथ कदमताल आवश्यक है-

कभी मैं बहुत छोटा था,

धीरे-धीरे बड़ा हुआ

और अब

तेज़ी से बूढ़ा हो रहा हूँ

किसी भी देश की सेना की शक्ति अस्त्र-शस्त्र होती है। भारत के संदर्भ में मनोबल और बलिदान का भाव हमारी सेना को विशेष शक्तिशाली बनाता है। ‘लीला- रामकृष्ण’ एक सैनिक और उसकी मंगेतर की प्रेमकथा है। यह काव्यात्मक कथा दृश्य बुनती है, दृश्य से तारतम्य स्थापित होता है और पाठक कथा से समरस हो जाता है।

प्रकृति बहुरंगी है। प्रकृति में सब कुछ एक-सा हो तो एकरसता हो जाएगी। मनुष्य को सारे रंग चाहिएँ, मनुष्य को रंग-बिरंगी सर्कस चाहिए।

ये दुनिया एक सर्कस है

जिसमें कई रूप-रंग,

क़द-काठी वाले स्त्री-पुरुष,

जिसमें कई भिन्न जातियों-प्रजातियों,

नस्लों वाले जीव-जंतु,

जिसमें कई तरह के श्रृंगार, साज़-ओ-सामान, परिधानों से लदे-फदे कलाकार,

अलग-अलग भाषा शैली,

गीत-संगीत के समायोजन से,

हास्य, व्यंग्य, करुणा,

नव रसों का रसपान कराते हैं,

टुकड़े-टुकड़े दृश्यों से

एक सम्पूर्ण परिदृश्य को

परिलक्षित करते हैं,

यही बहुरूपता ख़ूबसूरती है इसकी,

जो जोड़ती है आपको, मुझको इसके साथ।

मनुष्य में अपार संभावनाएँ हैं।  ईश्वरीय तत्व तक पहुँचने यात्रा का अवसर है मनुष्य का जीवन। इस जीवन में हम सबको प्राय: अच्छे लोग मिलते हैं। ये लोग सद्भावना से अपना काम करते हैं, दूसरों के काम आते हैं। ये लोग किसी तरह का कोई एहसान नहीं जताते और काम होने के बाद दिखाई भी नहीं देते। जगत ऐसे ही लोगों से चल रहा है। वे ही जगत के आधार हैं, नींव हैं और नींव दिखाई थोड़े ही देती है।

वे लोग जो एक बार मिलकर

दोबारा फिर कभी नहीं मिलते हैं,

वे लोग जो पहली मुलाक़ात में

सीधे-मन में समा जाते हैं,

वे लोग कहाँ चले जाते हैं?

नव वर्ष पर नए संकल्प लेना और गत वर्ष लिए संकल्पों को भूल जाना आदमी की स्वभावगत निर्बलता है। यूँ देखे तो हर क्षण नया है, हर पल वर्ष नया है।

न वो कहीं गया था, न ही वो कहीं से आ रहा है, उसे तो हमने अपनी सुविधा के लिए बांट रखा है।

अति सदैव विनाशकारी होती है। स्वतंत्रता की अति है उच्छृंलता। लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अनेक बार देश को ही कटघरे में खड़ा करने, येन केन प्रकारेण चर्चा में रहने की दुष्प्रवृत्ति के अनेक उदाहरण देखने को मिलते हैं। इन दुष्प्रवृत्तियों को कवि खरी- खरी सुनाता है-

ये देश है तो

ये धर्म, ये मज़हब, ये सम्प्रदाय,

ये जाति, ये प्रजाति,

ये गण, ये गोत्र,

ये क्षेत्र, ये प्रांत,

ये भाषा, ये बोली,

ये रुतबा, ये हैसियत,

ये पक्ष, ये विपक्ष,

ये स्वतंत्रता, ये आज़ादी,

सब हैं..,

अन्यथा

कुछ भी नहीं..!

जीवन संभावनाओं से लबालब भरा है। अनेक बार परिस्थितियों से घबराकर लोग संभावना को आशंका मान बैठते हैं और जीवन अवसर से अवसाद की दिशा में मुड़ने लगता है।

कभी-कभी जीवन में ऐसा समय आता है,

जब व्यक्ति स्वयं ही

ज्ञान के, सूचना के

सभी मार्गों को अवरुद्ध कर लेता है,

इस वक्त वह एक भ्रम की स्थिति में जीता है,

वह अपने सत्य को ही

अंतिम सत्य मान बैठता है।

मनुष्य संवेदनशील प्राणी है। राजेंद्र शर्मा की रचनाओं में संवेदनशीलता उभर कर सामने आती है। ‘पापा याद है ना’ ऐसे ही एक मार्मिक रचना है। ‘नगरवधु’ विषय पर तीन कविताएँ हैं। पुरुष का स्त्री बनाकर लिखना लिंग पूर्वाग्रह या जेंडर बायस से मुक्ति की यात्रा है। यह अच्छी बात है।

इस संग्रह की अधिकांश रचनाएँ कथात्मक हैं। बल्कि यूँ कहें कि कथाएँ, घटनाएँ, अपने विवरण के साथ कविता में उतरी हैं तो अधिक तर्कसंगत होगा। शीर्षक कविता ‘अधरंगे ख़्वाब’  एक सार्वजनिक व्यक्तित्व के जीवन के उतार-चढ़ाव की लंबी कविता है। वर्तमान में न्यायालय के विचाराधीन इस प्रकरण में महत्वाकांक्षा के चलते प्रकाश से अंधकार की यात्रा पर कवि कुछ इस तरह टिप्पणी करता है-

महत्वाकांक्षी होना तो सुन्दर बात है

पर अति महत्वकांक्षी होना

बिलकुल सुन्दर बात नहीं ।

राजेंद्र शर्मा की रचनाओं की भाषा मिश्रित है शिल्प की तुलना में भाव मुखर है। कोई आग्रह नहीं है। जो देखा, समझा, जाना, काग़ज़ पर उतरा। पाठक उसे अपनी तरह से ग्रहण कर सकता है। यह इन रचनाओं की शक्ति भी है।

कवि सिनेमेटोग्राफर हैं। इन कविताओं में सिनेमेटोग्राफर की मन की आँख के लेंस से दिखते दृश्य उतरे हैं। जो कुछ सिनेमेटोग्राफर देखता गया, संवेदना की स्याही में डुबोकर उसे कथात्मक, घटनात्मक या विवरणात्मक रूप से लिखता गया। अतः ‘अधरंगे ख़्वाब’ में संग्रहित कविताओं को मैं ‘एक सिनेमेटोग्राफर की डायरी’ कहना चाहूँगा।

राजेंद्र शर्मा इसी तरह डायरी लिखते रहें। शुभं अस्तु।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ तुमसे क्या छुपाना 2025 ☆ आत्मकथ्य – श्री राजेश सिंह ‘श्रेयस’ ☆

श्री राजेश सिंह ‘श्रेयस’

 ☆ पुस्तक चर्चा ☆ 

☆ तुमसे क्या छुपाना 2025 ☆ आत्मकथ्य – श्री राजेश सिंह ‘श्रेयस’ ☆

(‘क्षय मुक्त भारत’ की संकल्पना पर आधारित सामाजिक उपन्यास)

(पुस्तक समीक्षक श्री राम राज भारती जी के अनुसार “उपन्यास लेखन में श्रेयस जी पर मुंशी प्रेमचंद एवं रामदेव धुरंधर का सम्यक प्रभाव पड़ा है ।” यह पंक्ति अपने आप में श्री श्रेयस जी के संवेदनशील लेखन को साहित्यिक जगत का प्रतिसाद है। सुप्रसिद्ध प्रवासी भारतीय वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी द्वारा लिखित भूमिका ने उपन्यास को निश्चित ही पारस स्पर्श दिया है। श्री राजेश सिंह ‘श्रेयस’ जी को हार्दिक बधाई, शुभकामनाएं और अभिनंदन।)

पुस्तक – तुमसे क्या छुपाना 2025

लेखक – श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’

प्रकाशक – युगधारा फ़ाउंडेशन एवं प्रकाशन, लखनऊ उत्तरप्रदेश्ज

पृष्ठ संख्या – 288

मूल्य – ₹380

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“तुमसे क्या छुपाना” क्षय मुक्त भारत की संकल्पना पर आधारित यह उपन्यास क्षय उन्मूलन कार्यक्रम और उससे जुड़े हुए “सौ दिवसीय समग्र टीबी अभियान” की समग्रता को स्वयं में सजोये एक ऐसा कथात्मक दस्तावेज है, जिसमें क्षय रोग के कारण, निवारण एवं जन जागरण जैसे समस्त पक्ष मार्मिकता सामाजिकता और संवेदनशीलता से सजे कथानकों के साथ सुसज्जित ढंग से सजोए गए हैं। उपन्यासकार ने जो कि स्वयं क्षय उन्मूलन कार्यक्रम से लगभग एक दशकों से दिल से जुड़ा है, उसने अपने पल-पल के अनुभव को इस साहित्यिक दस्तावेज में सजोने का प्रयास किया है। उपन्यास में जिन पक्षो को रखा है वे कुछ इस प्रकार है –

  • ‌उपन्यास की नायिका एवं उसके माता-पिता अभाव भरी जिंदगी और गरीबी में जीते हैं। अशिक्षा और अज्ञानता बस नायिका की माँ टीबी रोग का शिकार बन जाती है। पिता इलाज के लिए शहर ले जाते हैं लेकिन वह बच नहीं पाती है। पिता को इस बात का तब एहसास होता है कि यदि मैंने आशा बहू का कहना मान लिया होता, और पहले टीबी की जांच के लिए तैयार हो जाता तो मेरी सुखवंती मेरे पास होती।
  • नायिका देवनंती संघर्षशील युवती है। क्षय उन्मूलन कार्यक्रम से सामाजिक तौर पर जुड़ती है, जिसमें उसका सह नायक शशांक मुख्य भूमिका में आता है। सह नायक का मित्र भावेश क्षय रोग उन्मूलन कार्यक्रम का समर्पित कार्यकर्ता है।
  • सह नायक कोविड जैसे कठिन समय में किस प्रकार क्षय रोगीयों को ढूंढ निकालता है और उसकी इलाज कराता है, यह स्वयं में बेमिसाल है।
  • क्षय उन्मूलन कार्यक्रम का कार्यकर्ता भावेश कॉविड जैसे कठिन काल में उत्तर प्रदेश में किस प्रकार से दूसरे राज्यों से आए हुए क्षय रोगियों को जांच और दवा को  उपलब्ध कराने में उनका मदद करता है, इसका सच्चा और जीवंत उदाहरण प्रस्तुत करता है।राज्य स्तर से किया गया यह प्रयास सराहनीय है।
  • क्षय उन्मूलन कार्यक्रम में आशा बहू का कितना महत्वपूर्ण रोल है, उपन्यास बताने में सफल होता है। आशा किस प्रकार कार्य करती है, और किस प्रकार से क्षय रोगियों की ढूंढने में मदद करती है इसका चित्रण उपन्यास में है।
  • क्षय उन्मूलन कार्यक्रम का कार्यकर्ता किस तरह से सामजिक सामाजिक भागीदारी करते हुए क्षय रोगियों को ढूंढने से लेकर उनको इलाज पर लाने, पोषण भत्ता, निक्षय पोषण दिलवाने एवं उनको स्वस्थ होने तक लगा रहता है।
  • जन भागीदारी एवं निक्षेप पोषण योजना का जीवंत दृश्य इस उपन्यास में समाहित है।
  • गांव के मुखिया से लेकर विधायक, मंत्री तक किस तरह से इस कार्यक्रम में जुड़कर भागीदारी करते हैं।
  • टीबी चैंपियन और टीबी वॉरियर्स की भागीदारी और उनके मध्य का भावपूर्ण संवाद भी इस उपन्यास को सुखद बनाता है।
  • उपन्यास का अंतिम भाग क्षय मुक्त भारत की संकल्पना को साकार करता हुआ प्रतीत होता है।
  • उपन्यास सुखान्त है।
  • उपन्यास की नायिका जो स्वयं टीबी चैंपियन है वह अंत में उपन्यास के सह नायक के साथ परिणय सूत्र में बधती है। जहां शादी के जयमाल आदि नृत्य गाने -धूम धड़ाम के बीच होते हैं वहीं यह मिलन क्षय उन्मूलन कार्यकर्ताओं सामाजिक क्षेत्र के लोगों तथा क्षय उन्मूलन से जुड़े एक कार्यक्रम में एक रहस्योद्घाटन के रूप में होता है, यह इस उपन्यास के अंतिम भाग को अतीव मार्मिक एवं संदेश प्रद बना देता है।
  • उपन्यासकार आवरण पृष्ठ जिस पर “तुमसे क्या छुपाना” 2025 लिखा है, यह क्षय उन्मूलन वर्ष को इंगित करता हुआ, अपने उद्देश्य में सफल होता है।
  • उपन्यास क्षय उन्मूलन कार्यक्रम के साथ-साथ एक सामाजिक, मार्मिक प्रेम कथा पर आधारित आत्ममुग्ध करने वाले कथानक पर आधारित उपन्यास है।
  • प्रदेश के समस्त जनपदों के लगभग समस्त क्षय उन्मूलन कार्यक्रम से जुड़े हुए क्षय कार्यकर्ताओ तक पहुंच चुका है।
  • उपन्यास, राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान, उप्र द्वारा वर्ष 2024 में श्याम सुंदर दास पुरस्कार (₹ 1,00, 000/-) द्वारा सम्मानित है।
  • क्षय उन्मूलन वर्ष 2025 में यह उपन्यास अपने मूल उद्देश्य के साथ क्षय उन्मूलन अभियान में अग्रणी भूमिका निभाएगा तथा और अधिक सम्मान पाकर स्वयं को साहित्य के उच्च पायदान पर स्थापित करने में सफल होगा, ऐसा मेरा विश्वास है।

© श्री राजेश कुमार सिंह “श्रेयस”

कवि, लेखक, समीक्षक

लखनऊ, उप्र, (भारत )

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ सुमित्र संस्मरण ☆ आत्मकथ्य – श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

 ☆ पुस्तक चर्चा ☆ 

☆ सुमित्र संस्मरण ☆ आत्मकथ्य – श्री संतोष नेमा ‘संतोष’ ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में सतत प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. ई-अभिव्यक्ति पर आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार को ‘साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष’ के अंतर्गत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है स्मृतिशेष डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ जी के जीवन से संबन्धित विद्वतजनों के आत्मीय संस्मरणों पर आधारित आपकी पुस्तक सुमित्र संस्मरण पर आपका आत्मकथ्य।)

कौन कहता है कि सुमित्र जी हमारे बीच में नहीं रहे वह सदियों तक हम सभी के दिलों में जीवंत रहेंगे उनकी सहजता, सरलता, मिलन सारिता, प्रेम सहयोगात्मक रवैया एवं साहित्य एवं पत्रकारिता के प्रति उनका अनुराग और समर्पण स्मरणीय है. उन्होंने, रूस आदि देशों में जाकर संस्कारधानी का नाम साहित्य जगत में अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर गौरवान्वित, एवं रोशन किया है सुमित्र जी के साथ आचार्य भगवत दुबे जी एवं स्वर्गीय गार्गी शंकर मिश्रा हर कार्यक्रम में साथ-साथ रहे हैं. उनकी यह त्रिमूर्ति साहित्य जगत में अपनी एक विशिष्ट उत्कृष्ट पहचान रखती है. पाथेय साहित्य अकादमी का गठन आपने किया, जिसके गठनोंपरांत सैकड़ो कृतियां पाथेय प्रकाशन से प्रकाशित हो चुकी हैं. आपसे जो भी मिला आप का होकर रह गया. हम जैसे नवोदित साहित्यकारों के लिए तो संजीवनी का काम करते थे और हमेशा समुचित मार्गदर्शन, आशीर्वाद और सानिध्य प्राप्त होता रहा है. मेरी प्रकाशित कृतियों में उनकी भूमिका एवं मार्गदर्शन मुझे प्राप्त होता रहा है.

साहित्य के गंभीर अध्येता, अद्भुत रचनात्मकता, माधुर्य व्यवहार के चलते उनके हजारों चाहने वाले हैं जिनके दिलों में राजकुमार की तरह राज करते हैं. इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि उनकी श्रद्धांजलि सभा में भीड़ में उपस्थित हर एक आदमी अपनी भावांजलि देने के लिए आतुर था. जब मैंने यह देखा तब उसी क्षण मेरे मन में यह विचार आया की क्यों ना एक सुमित्र संस्मरण का प्रकाशन किया जाए जिसमें उनके प्रति सभी साहित्यकारों के संस्मरण एवं भाव समाहित किए जा सकें. क्योंकि श्रद्धांजलि सभा में सभी को अपनी भाव अभिव्यक्ति का अवसर देना संभव नहीं होता है. तब हमने श्री सुमित्र जी से जुड़े सभी साहित्यकारों से अपने-अपने संस्मरण आमंत्रित किए. आज उन्हीं के आशीर्वाद से यह सुमित्र संस्मरण का प्रकाशन आपके सामने है.

जब हम सुमित्र जी की बात करते हैं तो भाई हर्ष की भी बात करना बहुत जरूरी है। आज के इस दौर में उनके जैसा पुत्र बमुश्किल देखने में नजर आता है। भाई हर्ष ने अपनी मातोश्री के साथ पिताजी की स्मृतियों को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए गायत्री एवं सुमित्र सम्मान बड़े ही गौरव गरिमा के साथ स्वयं बाहर लोगों के स्वागत के लिए खड़े होकर संयोजित करना प्रणम्य एवं प्रसंसनीय है. साथ ही इस अवसर पर विभिन्न क्षेत्रों में ख्याति लब्ध हस्तियों को उनके द्वारा सम्मानित भी किया जाता है.

सुमित्र जी का एक दोहा मुझे बहुत ही प्रिय लगता है –

बांच सको तो बच लो आँखों का अखबार

प्रथम पृष्ठ से अंत तक, लिखा प्यार ही प्यार

इस एक दोहे से उनके व्यक्तित्व का स्पष्ट दर्शन होता है उनके दिल में सभी के लिए प्यार था.! हमने भी उनके जन्मोत्सव पर कुछ एक दोहे लिखे थे जो …

राज करें हर दिलों में, राजकुमार सुमित्र

सबको अपने ही लगें, ऐसा मधुर चरित्र

*

यथा नाम गुण के धनी, सबके हैं वो मित्र

मिले सदा स्नेह हमें, जीवन बने पवित्र

*

मित्रों के भी मित्र हैँ, राजकुमार सुमित्र

मिलते सबसे प्रेम से, उनका हृदय पवित्र

*

ज्ञान सुबुद्धि विवेक ही, होते सच्चे मित्र

संकट में जो साथ दें, होते वही सुमित्र

*

जिनकी आभा से हमें, मिलता सदा प्रकाश

लेखन में गति शीलता, उनका दे आभास

सुमित्र जी का आकस्मिक निधन समूचे साहित्य जगत के लिए एक अपूरणीय क्षति है. उनके प्रति हम अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि भावांजलि प्रस्तुत करते हैं. डॉ हर्ष तिवारी, डॉक्टर भावना शुक्ला, श्रीमती कामना कौस्तुभ, चाचा श्री आनंद तिवारी एवं समूचे परिवार के प्रति उनके द्वारा प्रकाशन में दिए गए भावनात्मक सहयोग के लिए हम अत्यंत आत्मीयता के साथ आभार एवं कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं.

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

संस्थापक मंथनश्री

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ छूटी सिगरेट भी कम्बख़्त” – लेखक : श्री रवींद्र कालिया ☆ साभार – श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “छूटी सिगरेट भी कम्बख़्त” – लेखक : श्री रवींद्र कालिया ☆ साभार – श्री कमलेश भारतीय ☆

पुस्तक : छूटी सिगरेट भी कम्बख़्त

लेखक : रवीन्द्र कालिया

प्रकाशक : सेतु प्रकाशन, नोएडा

मूल्य : 275 रुपये

☆ “पीढ़ियों के आरपार साफगोई से लिखे संस्मरण” – कमलेश भारतीय ☆

जब एक माह पहले नोएडा सम्मान लेने गया तब समय तय कर प्रसिद्ध लेखिका ममता कालिया से मिलने गाजियाबाद भी गया । बहुत कम समय में बहुत प्यारी रही यह मुलाकात ! जालंधर मेरा पुराना जिला है पंजाब में और इस नाते वे हमारी भाभी ! उन्होंने सबसे अमूल्य उपहार दिया रवींद्र कालिया की तीन किताबें देकर ! इनमें सबसे ताज़ा किताब है -छूटी सिगरेट भी कम्बख्त ! गालिब छुटी शराब तो बहुचर्चित है लेकिन यह संस्मरणात्मक पुस्तक भी धीमे धीमे चर्चित होती जा रही है, इसमें पंद्रह संस्मरण शामिल हैं जिनमें इलाहाबाद, मुम्बई, दिल्ली में बिताये समय व जिन लोगों से मुलाकातें होती रहीं, उन पर बहुत ही दिल से और दिल खोलकर लिखा गया है बल्कि कहू़ं कि संसमरण लिखने का रवीन्द्र कालिया का खिलंदड़ा सा अंदाज सीखने का मन है !

इस पुस्तक में कृष्णा सोबती, राजेंद्र यादव, उपेंद्रनाथ अश्क, कमलेश्वर, खुशवंत सिंह, जगजीत सिंह, टी हाउस, ओबी, अमरकांत, आलोक जैन पर इतने गहरे पैठ कर लिखा है कि ईर्ष्या होने लगती है कि काश ! मैं ऐसा इस जन्म में लिख पाता ! सच में ममता कालिया ने मुझे बेशकीमती उपहार दे दिया जो नोएडा में मिले सम्मान से पहले ही सम्मान से कम नहीं ! कोई इतनी कड़वी सच्चाई नहीं लिख सकता कि कुमार विकल ने टी हाउस के बाहर रवीन्द्र कालिया को थप्पड़ मार दिया क्योंकि उन्हें यह शक था कि नौ साल छोटी पत्नी उनकी शादी को लेकर लिखी गयी है और वे लुधियाना से गुस्सा निकालने दिल्ली के टी हाउस तक पहुंच गये ! इसी तरह मोहन राकेश पर चाकू से हमले का जिक्र भी है । रवीन्द्र कालिया मोहन राकेश के जालंधर के डी ए वी काॅलेज में छात्र भी रहे थे और हिसार के दयानंद काॅलेज में हिंदी प्राध्यापक भी रहे थे । कमलेश्वर जिस रिक्शेवाले को इलाहाबाद में रवीन्द्र कालिया के घर के बाहर खड़ा रहने को बोलकर आये थे, वह राशन‌ और दवाइयों समेत भाग निकला ! कैसे कमलेश्वर ने नयी कहानियां पत्रिका में नयी पीढ़ी को खड़ा किया और कैसे इलाहाबाद ने धर्मवीर भारती, कमलेश्वर और रवीन्द्र कालिया को कितनी ऊंचाइयों तक स्पूतनिक की तरह उड़ान दी, ऊंचाइयां दीं ! कैसे खुशवंत सिंह जितने ऊपर से अव्यवस्थित दिखते हैं, वैसे वे हैं नहीं !

कितना खुलकर कहते हैं कि अपनी प्रेमिकाओं को याद कर रहा हूं। ऐसे अनेक प्यारे संस्करणों के लिए यह पुस्तक बार बार पढ़ी जा सकती है! ममता कालिया जी ! इस अनमोल उपहार के लिए मेरे पास कहने को शब्द नहीं !

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ संवेदना (शताधिक काव्य रचनाएँ) – कवि : श्री सुरेश पटवा ☆ साभार – डॉ. साधना बलवटे ☆

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “संवेदना (शताधिक काव्य रचनाएँ)” – कवि : श्री सुरेश पटवा ☆ साभार – डॉ साधना बलवटे ☆

पुस्तक : संवेदना (शताधिक काव्य रचनाएँ)

लेखक : श्री सुरेश पटवा 

प्रकाशक : समदर्शी प्रकाशन 

पृष्ठ संख्या : 206 

मूल्य : 320 रुपये

☆ “सम+वेदना की कविताएँ” – डॉ साधना बलवटे ☆

संवेदन से अनुभूति होती है या अनुभूति के कारण संवेदना जन्म लेती है यह प्रश्न बड़ा जटिल है। यदि हमारा मन संवेदनशील है तो वह अनुभूति कराता है किंतु कई बार किसी की पीड़ा या हर्ष  की अनुभूति करने के बाद संवेदना जन्म लेती है।  दोनों ही स्थितियों में संवेदना का अनुभूति से गहरा संबंध है। संवेदना अर्थात सम्+वेदना!  किसी की वेदना को समान रूप से अनुभव करना है संवेदना है। साधारण तौर पर वेदना का अर्थ केवल पीड़ा से लिया जाता है। किसी के ह्रदय में  उठे हर्ष, विषाद ,पीड़ा, आनंद, करुणा, उल्लास को देखकर आपके ह्रदय में जो सामान भाव उठते हैं वह सभी  वेदना है।  किसी पराए के मन में उठे भावों की अनुभूति आपके हृदय में समान रूप से होती है,  इसीलिए वह सम्वेदना कहलाती हैं।

डॉ साधना बलवटे

आचार्य रामचंद्र शुक्ल अपनी पुस्तक “हिंदी साहित्य का इतिहास” के पृष्ठ 407 पर जयशंकर प्रसाद के कामायनी के “आशा सर्ग” के चिंता उपसर्ग संदर्भ में लिखते हैं कि

*

मनु का मन था विकल हो उठा,

संवेदन से खाकर चोट। 

संवेदन जीवन जगती को,

जो कटुता से देता घोट।

*

आह कल्पना का सुंदर यह,

जगत मधुर कितना होता।

सुख-स्वप्नों का दल छाया में,

पुलकित हो जगता-सोता।

*

संवेदन का और हृदय का,

यह संघर्ष न हो सकता।

फिर अभाव असफलताओं की,

गाथा कौन कहाँ बकता।

*

इन पंक्तियों में संवेदन बोध वृत्ति के अर्थ में व्यवहृत जान पड़ता है। बोध के एकदेशीय अर्थ में भी यदि संवेदन को लें तो उसे भावभूमि से ख़ारिज नहीं कर सकते। आगे चलकर संवेदन शब्द अपने वास्तविक या अवास्तविक दुख पर कष्ट अनुभव के रूप में आया है –

हम संवेदन शील हो चले,  यही मिला सुख,

कष्ट समझने लगे बनाकर निज कृत्रिम दुख।

श्री सुरेश पटवा जी का काव्य संग्रह “संवेदना” इसी प्रवृत्ति की परिणति है। समाज के प्रत्येक दुख, अभाव और आनंद उनके हृदय में वेदना पैदा करते हैं। अनुभूति की गहराइयां उन्हें प्रत्येक स्थिति में कलम चलाने को विवश करती है, इसीलिए उनका यह काव्य संग्रह विषय वैविध्य से परिपूर्ण है। गीत ग़ज़ल जैसी अनुशासित विधा पर लेखनी चलाने वाले सुरेश पटवा जी मुक्त छंद में भी उसी सहजता के साथ अभिव्यक्त होते हैं। सहजता और सरलता उनकी कविता की विशेषता है। सरल शब्दों में व्यक्त की गई भावनाएं पाठकों तक सरलता से पहुंच जाती हैं। सरल होना एक कठिन कार्य है, जबकि कठिन होना सरल। सरल होने का कठिन कार्य पटवा जी ने किया है। एक ओर  वे जीव विज्ञान की विस्तृत समझ रखते हैं, वहीं दूसरी ओर अध्यात्म से भी उनका गहरा नाता है।

वे जीवन के जटिल विषयों पर लेखन करते हैं, नर्मदा यात्रा जैसे महत्वपूर्ण विषय पर भी लेखन करते हैं। कुल मिलाकर सभी विषयों पर समान अधिकार रखते हैं। विषय वैविध्य, विचार वैविध्य, विधा वैविध्य को अपने ज्ञान वैविध्य से साधते हैं। संग्रह की कविताएं समाज का मुखपत्र हैं। एक संवेदनशील मन जो अपना सामाजिक दायित्व निर्वहन करते हुए मुखरता से जो कुछ कहना चाहिए वह सब अपनी कविताओं में कहते हैं, किंतु इस कहन की विशेषता यह है कि उसे कहते हुए  वह अपनी करुणा या दुख का प्रदर्शन नहीं करते, उनकी कविताएं रोती चीखती चिल्लाती नहीं है, वरन दृढ़ता के साथ शिकायती लहजे में अपनी बात कहती है। ये शिकायती कविताएं जिम्मेदारों पर तंज भी करती है उलहाने भी देती है और चेतावनी देने के साथ सावधान भी करती हैं। कविता का यही धर्म है और सुरेश पटवा जी का ये काव्य संग्रह उस धर्म का बखूबी पालन करता है एक अच्छे संग्रह के लिए हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।

© डॉ साधना बलवटे

निदेशक, निराला सृजन पीठ, राष्ट्रीय मंत्री, अखिल भारतीय साहित्य परिषद

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ पुस्तक चर्चा ☆ “रवि कथा” – लेखिका : सुश्री ममता कालिया ☆ साभार – श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “रवि कथा” – लेखिका : सुश्री ममता कालिया ☆ समीक्षक – श्री कमलेश भारतीय ☆

पुस्तक -रवि कथा 

रचनाकार – ममता कालिया 

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली

मूल्य : 299 रुपये

पृष्ठ : 196

☆ “रवींद्र कालिया : जाने और लौटकर आने के बीच की कथा : रवि कथा” – कमलेश भारतीय ☆

रवींद्र कालिया हमारे जालंधर के थे, जो हमारा जिला था, नवांशहर का । हालांकि उनसे कोई मुलाकात नहीं लेकिन अपनी मिट्टी से जुड़े होने से अपने से लगते रहे, लगते हैं अब तक । जिन दिनों हरियाणा ग्रंथ अकादमी के उपाध्यक्ष के नाते कथा समय पत्रिका का संपादन किया, उन दिनों रवींद्र कालिया से फोन पर कहानी प्रकाशित करने की अनुमति मांगी जो सहर्ष मिल गयी और फिर ममता कालिया की कहानी भी प्रकाशित की, यह मिट्टी का कर्ज़ और फर्ज़ चुकाने जैसा भाव था । मेरे दोस्त फूलचंद मानव ने कहा कि अब तो तेरे लिए नया ज्ञानोदय के रास्ते खुले हैं ! मैंने जवाब दिया कि ऐसा कभी नहीं होगा क्योंकि रवींद्र कालिया के संपादक होते मैं कहानी भेजूंगा ही नहीं और‌ न ही भेजी क्योंकि स़पादन आदान प्रदान नहीं होता । रवींद्र कालिया ने जालंधर के उन दिनों लोकप्रिय दैनिक हिंदी मिलाप में उप संपादक के रूप में  शुरूआत की और फिर भाषा, धर्मयुग, ज्ञानोदय, गंगा जमुना और नया ज्ञानोदय के बीच वर्तमान साहित्य के कहानी को केंद्र में रखते हुए दो महा विशेषांकों का संपादन किया लेकिन कृष्णा सोबती की ऐ लड़की पर पहले ही लिखवाये तीन पत्रों से निर्मल वर्मा इतने नाराज़ हुए कि रवींद्र कालिया को खत लिखा कि मुझे तुम्हें कहानी भेजनी ही नहीं चाहिए थी । मेरी बहुत बड़ी भूल थी यह ! हालांकि जिस कृष्णा सोबती के मुरीद थे रवींद्र कालिया, उसी कृष्णा सोबती ने तद्भव में प्रकाशित अपने ऊपर लिखे रवींद्र कालिया के संस्मरण पर नाराजगी जताते हुए उन्हें छह फुटिया एडीटर कहकर अपमान किया और रवींद्र कालिया को बहुत दुख हुआ पर ऐसे हादसों के कालिया जीवन भर आदी रहे । ममता कालिया लिखती हैं कि इतने उदास रवि अपने माता पिता के निधन पर नहीं देखे थे, जितने कृष्णा सोबती के ऐसे व्यवहार पर ! बाद में दोस्ती करने के लिए पत्र भी लिखा, जिसके साथ रवि कथा समाप्त होती है।

ये बातें रवींद्र कालिया पर उनकी पत्नी से ज्यादा प्रेमिका व हिंदी की सशक्त और वरिष्ठ रचनाकार ममता कालिया ने रवि कथा मे लिखी हैं और यह भी कहा कि वे दोनों प्रेमी प्रेमिका ज्यादा थे, पति पत्नी कम यानी साहित्यिक लैला मजनूं से किसी भी तरह कम नहीं थी यह जोड़ी और अद्भुत जोड़ी-अलग संस्कृति, अलग भाषा, अलग स्वभाव लेकिन निभी तो खूब निभी दोनों ने ! जैसे अनिता राकेश ने मोहन राकेश के बाद चंद सतरें और लिखी और चर्चित रही, वैसे ही ममता कालिया ने रवि कथा लिखी, जो बहुचर्चित हो रही है, इतनी कि अट्ठाइस दिन में ही इसके दो संस्करण बिक गये । कारण यह कि इसमें रवींद्र कालिया के बहाने सिर्फ प्रेमकथा नहीं लिखी गयी बल्कि यह कहानी की कम से कम तीन पीढ़ियों की कथा है, यह लेखकों के छोटे बड़े किस्सों, चालाकियों, संपादकों की छोटी छोटी लड़ाइयों के किस्से हैं और हम जैसी पीढ़ी के लिए बहुत सारे खज़ाने हैं इसमें ! कितने सारे सबक भी लिये जा सकते हैं रवींद्र कालिया के अनुभवों से और वे पूरी तरह लापरवाही से ज़िंदगी गुजार गये ! बच्चों से प्यार इतना कि बंदरों से बचाने के लिए खुद बेटे के ऊपर लेट गये, छत से कूद कर आये और सोये बेटे को नहीं जगाया, चोट खा गये ! ममता कालिया को इतना प्यार दिया कि जब जब मुम्बई या इलाहाबाद में नौकरी छूटी, हमेशा कहा कि अच्छे हुआ ! मां का सम्मान और भाई बहनों से अथाह प्यार पर अंग्रेजियत से बुरी तरह चिढ़ ! ममता कालिया के पिता जितना बेटियों को कुछ बड़ा देखना चाहते थे,  बेटियों ने प्रेम विवाह किये और ममता कालिया के मन में था कि जीजू से लम्बा पति चाहिए और मिला रवींद्र कालिया के रूप में !

यह रवि कथा जीवन, साहित्य, संपादन और दोस्तियों का इलाहाबादी महासंगम कहा जा सकता है । मैं फिर कह रहा हूं कि बीस सितम्बर की छोटी सी मुलाकात में ममता कालिया ने मुझे तीन किताबें देकर बहुत बड़ा अमूल्य उपहार दिया और मैं भी हिसार आते ही पढ़ने में डूब गया । अब सिर्फ गालिब छुटी शराब ही बच रही है, जिसे ब्रेक के बाद जल्द शुरू करूंगा पर मन में एक मलाल भी लगातार यह कि हाय ! जीवन में रवींद्र कालिया से मुलाकात क्यों‌ न हुई ! हां, अंतिम पन्नों पर बहुत खूबसूरत फोटोज देखकर लगा कि रवींद्र कालिया मेरे भी सामने हैं !

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – दस्तक देती आँधियाँ — कवयित्री – डॉ. कांतिदेवी लोधी ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 25 ?

?दस्तक देती आँधियाँ — कवयित्री – डॉ. कांतिदेवी लोधी ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम- दस्तक देती आँधियाँ

विधा- कविता

कवयित्री- डॉ. कांतिदेवी लोधी

प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे

? भीतर तक प्रवेश करती आँधियाँ  श्री संजय भारद्वाज ?

डॉ. श्रीमती कांतिदेवी लोधी का यह  काव्यपुष्प उनके पूर्ववर्ती संग्रह ‘भावों के पदचिह्न’ का विस्तार है। पूर्ववर्ती संग्रह में उभरती प्रतिमाएँ यहाँ पूर्ण आकृति ग्रहण कर सृजन को प्रसूत करती हैं। विभिन्न भावों से विभूषित संवेदनाओं के इस नीड़ का नामकरण कवयित्री ने ‘दस्तक देती आँधियाँ’ किया है।

इस संग्रह में डॉ. लोधी ने अनुभूति और भाव साम्य की दृष्टि से कविताओं को क्रम दिया है। यह क्रम रचनाकार के विभिन्न भावों को कुशलता से चित्रित करने के सामर्थ्य को उभारता है तो कहीं-कहीं भावाभिव्यक्ति और लेखन शैली की सीमाओं को भी चित्रित करता है। समान भावों को एक साथ पिरोते समय यह होना स्वाभाविक है। इस स्वाभाविकता से समझौता किये बिना उसे रेखांकित होने देना कवयित्री की सहजता एवं साहस का परिचायक है।

रचनाएँ, रचनाकार का सर्वश्रेष्ठ परिचय होती हैं। उन्हें पढ़ते समय आप रचनाकार को भी पढ़ सकते हैं। डॉ. लोधी की रचनाओं से एक ऐसी आकृति उभरती है जो उन्हें प्रयोगधर्मी सर्जक के रूप में स्थापित करती है। कवयित्री कहीं-कहीं सीधे लोकभाषा में संवाद करती हैं तो कहीं अंग्रेजी का एक ही शब्द प्रयोग कर काव्य को वर्तमान धारा और पाठक से सीधे जोड़ देती हैं। वे कहीं साहित्य के शुद्ध भाषा सौंदर्य के साथ बतियाती हैं तो कहीं परिधियों को लांघकर हिन्दी-उर्दू की मिली जुली ज़बान में अपनी बात प्रकट करती हैं। इतने विविध रूपों में एक बात समानता से दिखती है कि कवयित्री हर वर्ग के साथ संवाद स्थापित करने में सफल होती हैं। यही रचना का सामर्थ्य है, यही रचनाकार की विशेषता है। फलत: उनकी आकृति मानसपटल पर अधिक गहरी हो जाती है।

कवयित्री डॉ. लोधी के इस संग्रह में उनकी तीन दशकों की अनुभूतियाँ अभिव्यक्त हुई हैं । इन अभिव्यक्तियों के पड़ाव, उनकी भाषा, प्रवाह और भाव कुछ स्थानों पर देखते ही बनते हैं। उनकी रचनाओं में आध्यात्मिकता की अनुगूँज है। अधिकाश स्थानों पर यह अनुगूँज प्रकृति की विभिन्न छटाओं के साथ प्रतिध्वनित हुई है। इसका चित्रण करते समय वह नाटककार या कथाकार की-सी कुशलता से एक चित्र का वर्णन करते हुए दूसरे को अवचेतन में इतना प्रभावी कर देती हैं कि वह चेतन पर भी हावी हो जाए, फिर हौले से चेतन और अवचेतन का एकाकार कर देती हैं। एकाकार का उदाहरण देखिए-

प्रकृति का अनुपम शृंगार,

हमें मिला अद्भुत उपहार,

कण-कण रोमांचित करती हुई,

बरबस उस कलाकार की याद दिला रही है।

ईश्वर में आस्था और आध्यात्मिकता के स्वर उनकी कई रचनाओं में सुनने को मिलते हैं।

डॉ. लोधी की रचनाओं में प्रकृति के सौंदर्य और शृंगार का चित्रण गहराई से हुआ है। प्रकृति का मानवीकरण बेहद सुंदर दृश्य उपस्थित करता है। उनकी उपमाएँ शब्दों को जीवित कर देती हैं। बादलों का वर्णन करते हुए वे लिखती है –

मानो कोई नटखट बालक,

मौसी का हाथ छुड़ा, माँ की ओर भाग रहा हो।

इसी भाव की कविताओं में चाय के बागानों को हरे मखमली दुशाले ओढ़े धरती की बेटियाँ कहना या बांस के वृक्षों से आच्छादित द्वीपों को, ‘रात में अनेक दैत्य घुटनों तक पानी में खड़े होकर षड्यंत्र रच रहे हों’ की दृष्टि से देखना उनके काव्य लेखन का सशक्ततम बिंदु है। ये उपमाएँ एक निष्पाप, मासूम-सी अभिव्यक्ति लगती हैं जिनके साथ पाठक लौह-चुंबक सा जुड़ जाता है। प्रकृति के साथ लिखने की यह प्रवृत्ति उन्हें कहीं बादलों से जोडती है, कहीं सागर से, कभी सूर्य से तो कभी नदियों और झरनों से भी ।

कवयित्री की रचनाओं में प्रकृति के विनाश विशेषकर वृक्षों की कटाई को लेकर मार्मिक टिप्पणियाँ हैं। विकास के नाम पर होने वाले इस विनाश का प्रबल विरोधी होने के कारण संभवतः मुझे इन रचनाओं ने अधिक प्रभावित किया है। पर यह भी सत्य है कि वृक्षों के विनाश का दृश्य अपने एक परिजन को खोने की अनुभूति उपस्थित कर देता है-

जिसकी पूजा करती थी सुहागिनें,

अक्षत सौभाग्यदायी वटवृक्ष,

आज क्षत-विक्षत असहाय पड़ा था,

वहाँ आज बहुत बड़ा गड्ढा हो गया है।

शहर में मई महीने में गर्मी के पूछकर आने का अतीत और अब मार्च से ही पाँव पसार कर सो जाने का वर्तमान हृदय में शूल चुभो देता है। सड़क चौड़ी करने के अभियान में घर के बगीचे को काटने के निर्णय से घर को मिली ‘मौत और काले पानी की एक साथ सज़ा,’ ‘वसंत का भ्रम मात्र होना ‘जैसी पंक्तियाँ, उनकी संवेदनाओं को पाठकों के मानसपटल पर सीधे उतार देती हैं।

संवेदना, प्रेम की माता है। रचनाकार का संवेदनशील होना आवश्यक होता है……और संवेदनशील रचनाकार प्रेम पर, फिर वो चाहे जीवन के जिस पड़ाव और जिस स्वरूप का हो,  न लिखे, यह हो नहीं सकता । प्रेम को कवयित्री यूँ स्वर देती हैं-

अलक्षित अहिल्या थी मैं, पथ के किनारे और तुम राम हो, मेरे लिए ।

प्रेम के बल पर विभिन्न पड़ावों और कठिनाइयों के बीच सहचर के साथ की सहयात्रा को कांति जी बड़ी मंत्रमुग्ध शैली में ‘हम साथ चलते रहे’ कविता में उकेरती हैं। वानप्रस्थ की बेला में घोसले की परिधियों को पार कर गगन में उड़ानें भरते अपने ही पंछियों को देखकर वे पुलकित हैं तो एकाकी होना उन्हें म्लान भी करता है। पर यहाँ भी उम्र की गठरी बांधे अपने सहचर की अंगुली थामे अंत में वह पूछती हैं, ‘कहाँ है हमारा घर ?’ ‘मैं’ से ‘हम’ होने की प्रक्रिया उनकी प्रेमाभिव्यक्ति को विशाल आयाम प्रदान करती है।

कवयित्री वर्तमान की त्रासदियों और भविष्य की चिंताओं से भी साक्षात्कार करती हैं। ‘मानवीय क्लोन होने की प्रवृत्ति’ में वह भविष्य की भयावहता को अधोरेखित करती हैं। समाज में निरंतर घटते जीवनमूल्यों पर ‘कर्तव्य आज का’ कविता में सीधे प्रश्न करती हैं। ‘दृश्य आज का’ राजनीति के मुखौटों के पीछे दबी कालिख व कटु सच्चाइयों का दर्पण है। ‘हवाएँ ज़हरीली हो गई हैं ‘में आतंकवाद और हिंसा से दुखी आम आदमी स्वर पाता है। ‘मीलों तक कोहरा है’ में अपने समय की सक्रिय खूँख़्वार प्रवृत्तियों और निष्क्रिय प्रतिक्रियाओं पर गहरे शब्द सामर्थ्य का वह परिचय देती हैं।

कवयित्री की रचनाओं में ‘माटी आंगन’ में जहाँ लोकभाषा उभरी है, वहीं कई रचनाएँ उर्दू के शब्द प्रयोग से युक्त हैं। काव्य की विभिन्न धाराओं और मनोभावों के बीच रचनाकार का जो पक्ष मजबूती से उभरता है, वह है उनके भीतर के प्रबल आशावाद का । मनुष्य के भीतर के बौने आदमी से सकारात्मक स्वर सुनने की आशा लिये वे खंडित होते-होते अखंडित रहने का मंत्र फूँकती हैं। आशा के प्रति ये आस्था जीवन और काल की सीमाओं को भी लांघती है। यथा-

प्रतीक्षा है आहट की, जब चाहे चल दूँगी, आस्था-विश्वास भरी, अक्षय डोरी थामे।

डॉ. श्रीमती कांतिदेवी लोधी की रचनाओं का यह संग्रह ‘दस्तक देती आँधियाँ’ स्तरीय है। उन्होने अभिव्यक्ति के सागर में शब्दों को अनमोल मोती लिखा है। शब्द और बह्म को वह समान ऊँचाई पर रखती हैं। शब्दों के माध्यम से वह रचना का पाठक से एकाकार करा देती हैं। अपनी शब्दयात्रा के बीच एक नन्ही आकांक्षा को भी शब्द देती हैं, कहती हैं –

ज़िंदगी की क़िताब में मेरा नाम दर्ज हो,

फूलों की जगह ।

शब्दों की स्वामिनी, भावनाओं की कुशल चितेरी डॉ. कांतिदेवी लोधी की रचनाएँ  साहित्य की फुलवारी में गुलाब के पुष्प-सी प्रतिष्ठित हों, यह आशा करता हूँ। भविष्य की शब्द यात्रा के लिए उन्हें हार्दिक शुभकामनाएँ।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “सड़क पर (नवगीत संग्रह)” – रचनाकार: आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆ समीक्षा – आचार्य प्रताप ☆

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “सड़क पर (नवगीत संग्रह)” – रचनाकार: आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆ समीक्षा – आचार्य प्रताप

कृति : सड़क पर (नवगीत संग्रह)

रचनाकार: आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ 

प्रकाशन: समन्वय प्रकाशन अभियान

प्रथम संस्करण: वर्ष २०१८

मूल्य: २५०/-

पृष्ठ: ९६

आवरण पेपरबैक बहुरंगी, कलाकार मयंक वर्मा

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

महामारी के उस कठिन काल में जब सारा विश्व एक अदृश्य शत्रु से जूझ रहा था, तब मेरे हाथों में आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी का नवगीत संग्रह ‘सड़क पर’ आया। किंतु जीवन की व्यस्तताओं और दायित्वों के बीच यह कृति अनछुई रह गई। आचार्य जी का बार-बार आग्रह होता रहा कि इस कृति का संस्कृत में अनुवाद करूँ। उनकी प्रेरणा और विश्वास मेरे लिए सम्मान का विषय था, किंतु मैं अपनी सीमाओं से भलीभाँति परिचित था।

‘न’ कहना मेरे स्वभाव में नहीं और ‘हाँ’ कहकर उनकी अपेक्षाओं को निराश करना मेरे संस्कारों में नहीं। अतः मैं टालता रहा, कभी समय की कमी का बहाना बनाकर, तो कभी अन्य व्यस्तताओं का उल्लेख कर। किंतु आज जब इस कृति को गहराई से समझने का अवसर मिला, तब आचार्य जी की दूरदर्शिता का बोध हुआ।

उनकी यह कृति वास्तव में काल की साक्षी है। ‘सड़क’ के प्रतीक से उन्होंने न केवल जीवन की गति को समझा है, बल्कि उसकी दिशा भी निर्धारित की है। उनकी दृष्टि में जब कोई कवि किसी रचना के अनुवाद का प्रस्ताव रखता है, तो वह मात्र भाषांतरण नहीं चाहता, बल्कि उस रचना में निहित जीवन-दर्शन को नई भाषा में, नए परिवेश में, नई संवेदना के साथ प्रस्तुत करने की अपेक्षा रखता है।

आज पश्चाताप होता है कि मैं उनकी इस दूरदर्शी सोच को समय रहते नहीं समझ पाया। संस्कृत भाषा की समृद्ध परंपरा में ‘सड़क पर’ जैसी आधुनिक कृति का अनुवाद न केवल दो भाषाओं का सेतु बनता, बल्कि प्राचीन और नवीन विचारधाराओं के बीच एक नया संवाद भी स्थापित करता।

आचार्य जी की प्रेरणा वास्तव में साहित्य के क्षेत्र में नए प्रयोगों की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम थी। उनकी दृष्टि में भाषाएँ सीमाएँ नहीं बनातीं, बल्कि संवेदनाओं को विस्तार देती हैं। यही कारण है कि वे एक आधुनिक हिंदी कृति को संस्कृत के वैभव से जोड़ना चाहते थे।

अब जब समय बीत चुका है, तब उनकी इस दूरदर्शिता को समझते हुए मन में एक संकल्प जागता है कि भले ही विलंब हुआ है, किंतु अब इस कार्य को पूर्ण करने का प्रयास करूँगा। क्योंकि कभी-कभी देर से समझी गई बात भी जीवन को एक नई दिशा दे सकती है।

साहित्य की विभिन्न विधाओं में नवगीत का स्थान विशिष्ट है। यह विधा समकालीन जीवन की जटिलताओं और चुनौतियों को काव्यात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करती है। इसी परंपरा में आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ का नवगीत संग्रह ‘सड़क पर’ एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में सामने आया है। यह संग्रह वर्ष २०१८ में समन्वय प्रकाशन अभियान से प्रकाशित हुआ। ९६ पृष्ठों का यह संग्रह आधुनिक जीवन की विसंगतियों, आशाओं और सामाजिक यथार्थ का एक जीवंत दस्तावेज है। आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ का नवगीत संग्रह ‘सड़क पर’ समकालीन हिंदी साहित्य में एक विशिष्ट स्थान रखता है। यह संग्रह वर्तमान समय की विसंगतियों और चुनौतियों को एक नवीन काव्यात्मक दृष्टि से प्रस्तुत करता है। ‘सड़क’ यहाँ केवल एक भौतिक मार्ग नहीं, बल्कि जीवन-यात्रा का एक सशक्त प्रतीक बन कर उभरती है।

संग्रह में ‘सड़क’ शीर्षक से नौ कविताएं संकलित हैं, जो जीवन के विविध पक्षों को उद्घाटित करती हैं। कवि ने ‘सड़क’ के प्रतीक के माध्यम से समकालीन जीवन की जटिलताओं को समझने और समझाने का प्रयास किया है। जब वे लिखते हैं – “सड़क पर जनम है, सड़क पर मरण है, सड़क खुद निराश्रित, सड़क ही शरण है” – तो यह पंक्तियां जीवन के यथार्थ को गहराई से व्यक्त करती हैं।

भाषायी दृष्टि से यह संग्रह उल्लेखनीय है। कवि ने सहज और प्रवाहमयी भाषा का प्रयोग किया है, जो पाठक से सीधा संवाद स्थापित करती है। जैसे:

“रही सड़क पर अब तक चुप्पी,

पर अब सच कहना ही होगा।”

इन पंक्तियों में भाषा की सरलता के साथ विषय की गंभीरता भी बनी हुई है।

‘सलिल’ जी की कविताओं में संवेदना का स्तर बहुआयामी है। वे समाज की विसंगतियों को देखते हैं, उन पर व्यंग्य करते हैं, और साथ ही समाधान की दिशा भी सुझाते हैं। उनकी कविताएं व्यक्तिगत अनुभवों से निकलकर सामाजिक चेतना तक विस्तृत होती हैं।

संग्रह की एक विशिष्ट उपलब्धि है इसका आशावादी दृष्टिकोण। विषमताओं के बीच भी कवि आशा की किरण तलाशता है। जब वे कहते हैं – “कशिश कोशिशों की सड़क पर मिलेगी, कली मिह्नतों की सड़क पर खिलेगी” – तो यह आशावाद स्पष्ट झलकता है।

इंजीनियरिंग पृष्ठभूमि से आने वाले ‘सलिल’ जी की कविताओं में तर्क और भावना का अद्भुत संतुलन दिखाई देता है। उदाहरण के लिए:

“आज नया इतिहास लिखें हम

अब तक जो बीता सो बीता

अब न आस-घट होगा रीता”

माता-पिता को समर्पित कविता में मूल्यों के प्रति कवि की प्रतिबद्धता स्पष्ट होती है:

“श्वास-आस तुम

पैर-कदम सम,

थिर प्रयास तुम”

संग्रह में सामाजिक यथार्थ की गहरी समझ दिखाई देती है। कवि लिखते हैं:

“सड़क पर शरम है,

सड़क बेशरम है

सड़क छिप सिसकती

सड़क पर क्षरण है!”

हालांकि, कुछ स्थानों पर विषय की पुनरावृत्ति और पारंपरिक नवगीत की सीमाओं का अतिक्रमण भी दिखाई देता है। कहीं-कहीं भाव-विस्तार में संयम की आवश्यकता महसूस होती है।

‘सड़क पर’ हिंदी नवगीत को एक नई दिशा प्रदान करता है। यह संग्रह न केवल काव्य-संग्रह है, बल्कि समय का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज भी है। इसमें व्यक्त आशावाद और कर्मठता का संदेश आज के समय में विशेष प्रासंगिक है। यह पुस्तक साहित्य के विद्यार्थियों, शोधार्थियों और काव्य-प्रेमियों के लिए एक महत्वपूर्ण पाठ्य सामग्री है। आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ने अपनी तकनीकी पृष्ठभूमि और काव्य प्रतिभा का सुंदर समन्वय करते हुए एक सार्थक रचना प्रस्तुत की है, जो निश्चित रूप से हिंदी नवगीत परंपरा में अपना विशिष्ट स्थान रखेगी।

 

समीक्षा – आचार्य प्रताप

साभार – समन्वय प्रकाशन अभियान, जबलपुर, मध्यप्रदेश 

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “युग द्रष्टा अटल” – संपादन –डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक ☆ समीक्षा – डॉ. गुलाब चंद पटेल ☆

डॉ. गुलाब चंद पटेल

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “युग द्रष्टा अटल” – संपादन –डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक ☆ समीक्षा – डॉ. गुलाब चंद पटेल  ☆

पुस्तक – ‘युग द्रष्टा अटल’ (काव्य-संग्रह)

संपादन – डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक, लुधियाना (पंजाब)

समीक्षक – डॉ. गुलाब चंद पटेल, गांधी नगर (गुजरात)

डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक

स्व. अटल बिहारी बाजपेयी जी एक उच्च कोटी के कवि थे और मूल्य आधारित विचार धारा से चलनेवाले सिद्धांतवादी नेता के साथ ही संवेदनशील राज नेता भी थे ।इनके लिए डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक जी  का यह काव्य संग्रह अटल जी के व्यक्तित्व को उजागर करता है।

युग द्रष्टा अटल जी उम्दा व्यक्तित्व के साथ प्रखर वक्ता, कवि पत्रकार, दूरदर्शी ह्रदयस्पर्शी वाणी के साथ विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। उनका जन्म 25 दिसंबर 1924 को हुआ था। वे 1996 मे भारत के प्रधान मंत्री बने थे। इनकी मृत्यु 16 अगस्त 2018 को हुई थी। 

स्व. अटल जी का “मेरी इक्यावन कविताएं“ प्रसिद्ध काव्य संग्रह था। उसका विमोचन दिल्ली मे भारत के पूर्वा प्रधान मंत्री श्री पी वी नरसिंह राव के कर कमलों से हुआ था। ‘यक्ष प्रश्न’ कविता भूतपूर्व प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने लिखी थी। वे आज नहीं हे, कल नहीं होंगे। अटल बिहारी जी भारतीय जनता पार्टी से जुड़े हुये थे।

स्व. अटल जी ने राष्ट्र धर्म, दैनिक स्वदेश और वीर अर्जुन पत्र पत्रिकाओ का सम्पादन कार्य कुशलतापूर्वक किया था। अटल जी भारत संघ के ग्यारहवे प्रधान मंत्री बने थे।

ऐसे महान व्यक्तित्व के लिए डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक जी ने इस काव्य संग्रह का बहुत सुंदर संपादन किया है। आपने अटल जी के काव्य के सांस्कृतिक चेतना विषय पर शोध कार्य किया है।

‘युग द्रष्टा अटल’ काव्य-संग्रह मै कुल मिलकर 62 कवियों की रचनाओं को स्थान मिला है। जिसमे गुजरात के डॉ. दिवाकर दिनेश गौड़, डॉ गुलाब चंद पटेल, फोरम महेता और पंजाब की कवयित्री डॉ जसप्रीत कौर फ़लक की रचना को स्थान मिला है। अटल जी का विश्वास और इरादा अटल था।अटल जी के लिए बहुत ही सुंदर रचनाएँ इस काव्य संग्रह मै शामिल हैं। यह काव्य संग्रह भावी युवा पीढ़ी के लिए नवीन ऊर्जा प्रदान करेगा। पाठकों को भी राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान देने हेतु प्रेरित करेगा।

भारत सरकार के सड़क सुरक्षा, सड़क परिवहन मंत्रालय के सदस्य और भाजपा के प्रवक्ता कमाल जीत सोई ने इस काव्य संग्रह के सृजन को साहित्य के क्षेत्र मै अभूत पूर्व योगदान देनेवाला बताया है। यह काव्य संग्रह बुद्धिजीवी पाठको के साथ-साथ युवा पीढ़ी को देश प्रेम और राष्ट्र निर्माण के प्रति अपनी भूमिका निभाने के लिए प्रेरित करने वाला इनके संदेश में बताया है।

डॉ महेश सोनी भाजपा मण्डल मंत्री जिला पाली राजस्थान ने अपने संदेश मै युग द्रष्टा अटल काव्य संग्रह अटलजी के व्यक्तित्व और सृजनात्मक दृष्टिकोण से प्रेरित काव्य-कृति बताया है।

डॉ राजेंद्र सिंह साहिल, अध्यक्ष (हिन्दी विभाग),  गुरु हरगोविंद सिंह खालसा कॉलेज, लुधियाना पंजाब ने बताया है कि डॉ फ़लक स्वयं भी अटल काव्य की विशेषज्ञ हैं।इन्होने बताया है कि अटल जी के काव्य संग्रह में राष्ट्रीय एवं संस्कृतिक चेतना विषय पर डॉ जसप्रीत कौर फ़लक ने पी एच डी की उपाधि प्राप्त की है। यह इनका सार्थक और सफल प्रयास है। इस सृजनात्मक कार्य के लिए ढेरों बधाइयाँ भी प्रदान की गई हैं।

समपादकीय लेख मे डॉ जसप्रीत कौर फ़लक जी ने बताया है कि इनका कविता के प्रति आकर्षण बचपन से ही था। इन्होने अपने भीतर काव्य का प्रवाह हमेशा महसूस किया है। यही कारण है जिसके लिए इन्हें अटल जी की रचनाओ ने प्रभावित किया है।

काव्य संग्रह के अंत में पुस्तक के पीछे स्व अटल बिहारी वाजपेयी जी की कविता की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार उद्धृत हैं।

जो जितना ऊंचा,

उतना ही एकाकी होता है,

हर भर को स्वयं ही ढोता है,

चेहरे पर मुसकानें चिपका,

मन ही मन रोता है।

 

जरूरी यह है की,

ऊंचाई के साथ विस्तार भी हो,

जिस से मनुष्य ,

ठूंठ–सा खड़ा न रहे ,

औरों से घुले-मिले ,

किसी को साथ ले ,

किसी के संग चले,

अटल जी के जन्मदिवस के अवसर पर उन्हें पुष्पार्पित कर सादर प्रणाम करते हैं।

© डॉ गुलाब चंद पटेल 

कवि, लेखक और अनुवादक

अध्यक्ष महात्मा गांधी साहित्य सेवा संस्था गुजरात Mo 8849794377 <[email protected]>  <[email protected]>

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – अपराजिता — कवयित्री – छाया दीपक दास सक्सेना ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 24 ?

?अपराजिता — कवयित्री – छाया दीपक दास सक्सेना  ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम- अपराजिता

विधा- कविता

कवयित्री- छाया दीपक दास सक्सेना

? अपराजिता होती है कविता  श्री संजय भारद्वाज ?

रोटी, कपड़ा और मकान, मनुष्य की मूलभूत भौतिक आवश्यकताएँ हैं। इसी प्रकार अभिव्यक्ति, मनुष्य की मूलभूत मानसिक आवश्यकता है। संवेदनाएँ भावात्मक विरेचन से ही प्रवहमान रहती हैं। विरेचन का अभाव, प्रवाह को सुखा डालता है। शुष्कता आदमी के भीतर पैठती है। कुंठा उपजती है, कुंठा अवसाद को जन्म देती है।

अवसाद से बचने और व्यक्तित्व के चौमुखी विकास के लिए ईश्वर ने मनुष्य को बहुविध कलाएँ प्रदान कीं। काव्य कला को इनमें विशिष्ट स्थान प्राप्त है। भाग्यवान हैं वे लोग जो लेखनी द्वारा उद्भुत शब्दों के माध्यम से व्यक्त हो  पाते हैं। श्रीमती छाया दीपक दास सक्सेना उन्हीं सौभाग्यशाली लोगों में से एक हैं।

विलियम वर्ड्सवर्थ ने कविता को परिभाषित करते हुए लिखा है, ‘पोएट्री इज स्पॉन्टेनियस ओवरफ्लो ऑफ पॉवरफुल फीलिंग्स।’ यहाँ ‘स्पॉन्टेनियस’ शब्द महत्वपूर्ण है। कविता तीव्रता से उद्भुत अवश्य होती है पर इसकी पृष्ठभूमि में वर्षों का अनुभव और विचार होते हैं। अखंड वैचारिक संचय ज्वालामुखी में बदलता है। एक दिन ज्वालामुखी फूटता है और कविता प्रवाहित होती है। कवयित्री छाया दास के प्रस्तुत कविता संग्रह ‘अपराजिता’ में यह प्रवाह स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है।

कविता संवेदना की धरती पर उगती है। मनुष्य को मनुष्य बनाए रखने वाली संवेदना के ह्रास  से हर संवेदनशील व्यक्ति दुखी होता है। छाया दास की रचना में संवेदना के स्वर कुछ यूँ व्यक्त होते हैं-

*हर और उमस है

क्षणों को आत्मीयता की गंध से

परे करते हुए…*

आत्मीयता की निरंतर बढ़ती उपेक्षा मनुष्य को अतीत से आसक्त करती है और वर्तमान तथा भविष्य से विरक्त।

*अवगुंठन की घास उग आई है

उन रिक्त स्थानों में

जहाँ कोई था कभी,

वर्तमान और भविष्य की

उपस्थिति को परे ठेलते हुए

वर्तमान, भूतकाल बन जाता है

और भविष्य, वर्तमान के शव को

बेताल की तरह ढोता है…!*

बेताल सामाजिक जीवन से निकलकर राजनीति और व्यवस्था में प्रवेश करता है। परस्परावलम्बिता के आधार पर खड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्था के गड्डमड्ड होने से चिंतित कवयित्री का आक्रोश शब्दों में कुछ इस तरह व्यक्त होता है-

*काश हर विक्रमादित्य के कंधे पर

मनुष्यता आरूढ़ रहती…*

आधुनिक समय की सबसे बड़ी विसंगति है, मनुष्य की कथनी और करनी में अंतर। मनुष्य मुखौटे पहनकर जीता है। मुखौटों का वह इतना अभ्यस्त हो चला है कि अपना असली चेहरा भी लगभग भूल चुका। ऐसे में यदि किसी तरह उसे ‘सत्य के टुकड़े’ से असली चेहरा दिखा भी दिया जाए तो वह सत्य को ही परे ठेलने का प्रयास करता है। सुविधा के सच को अपनाकर शाश्वत सत्य को दफ़्न करना चाहता है। यथा-

*मिट्टी खोदी

एक गढ्ढे में गाड़ दिया

सच के टुकड़े को..,

जो प्रतीक्षा करे सतयुग की..!*

शाश्वत सत्य से दूर भागता मनुष्य विसंगतियों  का शिकार है।

*जीवन की विसंगतियों को

झेलते हुए मनुष्य

बन गया है ज़िंदा जीवाश्म।*

जीवाश्म की ठूँठ संवेदना का विस्तृत बयान देखिए-

*मनुष्य,

उस वृक्ष का

ठूँठ मात्र रह गया,

जिस पर चिड़ियाँ

भूल से बैठती तो हैं

पर घोंसला नहीं बनाती हैं..!*

भौतिकता के मद में बौराये आदमी के लालच का अंत नहीं है। भूख और क्षमता तो दो रोटी की है पर ठूँसना चाहता है कई टन अनाज। यह तृष्णा उसे जीवनरस से दूर करती है। कवयित्री  भरा पेट लिए सरपट भागते इस भूखे का वर्णन सरल कथ्य पर गहन तथ्य के माध्यम से करती हैं-

 *गंतव्य की तलाश तो

मानव की अनबुझी प्यास है,

जितना भी मिलता है

उतना ही और मिलने की आस है।*

समय परिवर्तनशील है, निरंतर आगे जाता है। परिवर्तन की विसंगति है कि  काल के प्रवाह में कुछ सुखद परंपराएँ भी दम तोड़ देती हैं। कवयित्री इनका नामकरण ‘कंसेप्ट’ करती हैं। खत्म होते कंसेप्ट की सूची में दादी की कहानियाँ, आंगन, रीति-रिवाज, चिट्ठियों का लिखना-बाँचना बहुत कुछ सम्मिलित है। जिस पीढ़ी ने इन परंपराओं को जिया, उसमें इनकी कसक होना स्वाभाविक है।

कवयित्री मूलत: शिक्षिका हैं। उनके रचनाकर्म में इसका प्रतिबिंब दिखाई देता है। वह चिंतित हैं, चर्चा करती हैं, राह भी सुझाती हैं। आधुनिक समाज में घटते लिंगानुपात पर चिंता उनकी कविता में उतरी है। अध्यात्म, बेटियों की महिमा, आदर्शवाद, प्रबोधन उनकी कुछ रचनाओं के केंद्र में है। पिता की स्मृति में रचित ‘तुम कहाँ गए?’, माँ की स्मृति में ‘परंतु आत्मा से सदा’ और पुत्र के विवाह के अवसर पर ‘सेहरा’ जैसी कविताएँ नितांत व्यक्तिगत होते हुए भी समष्टिगत भाव रखती हैं। पिता द्वारा दी गई गुड़िया अब तक संभाल कर रखना विश्वास दिलाता है कि संवेदना टिकी है, तभी मानवजाति बची है।

कवयित्री ने हिंदी के साथ उर्दू के शब्दों का भी बहुतायत से प्रयोग किया है। कुछ रचनाओं में उर्दू की प्रधानता भी है। कवयित्री की यह स्वाभाविकता कविता को ज़मीन से जोड़े रखती है। प्राकृतिक सत्य है कि हरा रहने के लिए ज़मीन से जुड़ा रहना अनिवार्य है।

सांप्रतिक विसंगति यह है कि हरा रहने का साधारण सूत्र भी कलयुग ने हर लिया है।

*मेरी स्मृति हर ली गई है

कलजुगी अराजकता में…*

इस अराजकता की भयावहता के आगे साक्षात श्रीकृष्ण भी विवश हैं। योगेश्वर की विवशता कवयित्री की लेखनी से प्रकट होती है-

नहीं बजा नहीं पाता हूँ

दुनिया के महाभारत में शंख…

……….

नहीं बढ़ा पाता हूँ

सैकड़ों द्रौपदियों के चीर,

कैसे पोछूँ अश्रुओं के रूप में

कलकल बहती नदियों का नीर…

……….

गरीबी रेखा के नीचे तीस प्रतिशत

सुदामा इंतज़ार करते हैं महलों का..

…………

वृद्धाश्रम में कैद हैं

कितने वासुदेव-देवकी..

……….

नहीं भगा पाता हूँ

प्रदूषण के कालिया नाग को…

……….

कहां खाने जाऊँ मधुर चिकना मक्खन,

औंधे पड़े हैं सब माटी के मटके…

कवयित्री छाया दास का यह दूसरा कविता संग्रह है। जीवन का अनुभव, देश-काल-परिस्थिति की समझ, समाज को बेहतर दे सकने की ललक, सब कुछ इन कविताओं में प्रकट हुआ है।

कविता का भावविश्व विराट होता है। कविता हर समस्या का समाधान हो, यह आवश्यक नहीं पर वह समस्या के समाधान की ओर इंगित अवश्य करती है। कविता की जिजीविषा अदम्य होती है। वह कभी हारती नहीं है।

कविता स्त्रीलिंग है। स्त्री माँ होती है। कविता माँ होती है। कवयित्री ने अपनी माँ की स्मृति में लिखा है-

*माँ बन गई चूड़ियाँ

माँ बन गई महावर,

माँ बन गई सिंदूर,

सूर्य की आँखों का नूर,

माँ बन गई राम

माँ बन गई सुंदरकांड..!*

स्मरण रहे, कविता माँ होती है। कविता अपराजिता होती है। कवयित्री छाया दास को अनेकानेक शुभकामनाएँ।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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