(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है श्री जय प्रकाश पाण्डेयजी के व्यंग्य -संग्रह “ डांस इंडिया डांस” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा । )
पुस्तक चर्चा के सम्बन्ध में श्री विवेक रंजन जी की विशेष टिपण्णी :- पठनीयता के अभाव के इस समय मे किताबें बहुत कम संख्या में छप रही हैं, जो छपती भी हैं वो महज विज़िटिंग कार्ड सी बंटती हैं । गम्भीर चर्चा नही होती है । मैं पिछले 2 बरसो से हर हफ्ते अपनी पढ़ी किताब का कंटेंट, परिचय लिखता हूं, उद्देश यही की किताब की जानकारी अधिकाधिक पाठकों तक पहुंचे जिससे जिस पाठक को रुचि हो उसकी पूरी पुस्तक पढ़ने की उत्सुकता जगे। यह चर्चा मेकलदूत अखबार, ई अभिव्यक्ति व अन्य जगह छपती भी है । जिन लेखकों को रुचि हो वे अपनी किताब मुझे भेज सकते हैं। – विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र’
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 31 ☆
☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य-संग्रह – डांस इण्डिया डांस ☆
जय प्रकाश पाण्डेय जी व्यंग्यकार के साथ ही कहानीकार भी हैं. प्रायः कहानीकार किसी पात्र का सहारा लेकर कथा बुनता है । प्रेमचंद का होरी प्रसिद्ध है । अमिताभ बच्चन अनेक बार विजय बने हैं । स्वयं मैं रामभरोसे को केंद्र में रख कई व्यंग्य लिखता हूँ । इसी तरह श्री पाण्डेय जी का प्रिय पात्र गंगू है ।
उनका पाठक गंगू के साथ ग्रामीण परिवेश से कस्बाई और वर्तमान वैश्विक भिन्नता में व्यंग्य के संग मजे लेता जाता है।
उनका व्यंग्य झिंझोड़ता है, तंज करता है पाठक को सोचने पर विवश करता है ।
जबलपुर परसाई की नगरी है ।
पाण्डेय जी को परसाई जी का सानिध्य भी मिला है जो उनके व्यंग्य में दिखता भी है ।
वे व्यंग्यम के प्रारंभिक सदस्यों में हैं, सामाजिक कार्यो में संलिप्त रहते हैं। बैंक में काम करते हुए उन्हें खूब एक्सपोजर मिला है यह सब इस पुस्तक के व्यंग्य बताते हैं ।
नए समय मे हर हाथ में मोबाईल होने से फोटो कला में पारंगत श्री पाण्डेय जी ने कवर फ़ोटो स्वयं खींच कर, एकदम सम्यक टाइटिल किताब को दिया है ।
मुझे ज्ञात है रवीना प्रकाशन ने फटाफट पुस्तक मेले के पहले यह किताब छापी हैं किन्तु, पुस्तक स्तरीय है ।
सभी लेख वैचारिक हैं । जुगलबंदी के चलते कई व्यंग्य लिखने को प्रेरित हुए श्री पाण्डेय जी ने हमारे बारम्बारआग्रह को स्वीकार कर इन लेखों को पुस्तक रुप दिया है । पढिये , प्रतिक्रिया दीजिये इसी में व्यंग्यकार व साहित्य की सफलता है ।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है श्री आर डी आनंदजी के काव्य संग्रह “ मेरे हमराह” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा । )
पुस्तक चर्चा के सम्बन्ध में श्री विवेक रंजन जी की विशेष टिपण्णी :-
पठनीयता के अभाव के इस समय मे किताबें बहुत कम संख्या में छप रही हैं, जो छपती भी हैं वो महज विज़िटिंग कार्ड सी बंटती हैं । गम्भीर चर्चा नही होती है । मैं पिछले 2 बरसो से हर हफ्ते अपनी पढ़ी किताब का कंटेंट, परिचय लिखता हूं, उद्देश यही की किताब की जानकारी अधिकाधिक पाठकों तक पहुंचे जिससे जिस पाठक को रुचि हो उसकी पूरी पुस्तक पढ़ने की उत्सुकता जगे। यह चर्चा मेकलदूत अखबार, ई अभिव्यक्ति व अन्य जगह छपती भी है ।
जिन लेखकों को रुचि हो वे अपनी किताब मुझे भेज सकते हैं।
– विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र’
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 30 ☆
☆ पुस्तक चर्चा –काव्य संग्रह – मेरे हमराह ☆
पुस्तक – ( काव्य – संग्रह ) मेरे हमराह
लेखक – श्री आर डी आनंद
प्रकाशक –रवीना प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य –२५० रु प्रथम संस्करण २०१९
आई एस बी एन ९७८८१९४३०३९८५
☆ काव्य संग्रह – मेरे हमराह – श्री आर डी आनंद – चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆
स्त्री और पुरुष को एक दूसरे का विलोम बताया जाता है, यह सर्वथा गलत है प्रकृति के अनुसार स्त्री व पुरुष परस्पर अनुपूरक हैं. वर्तमान समय में स्त्री विमर्श साहित्य जगत का विचारोत्तेजक हिस्सा है. बाजारवाद ने स्त्री देह को प्रदर्शन की वस्तु बना दिया है. स्वयं में निहित कोमलता की उपेक्षा कर स्त्री पुरुष से प्रतिस्पर्धा पर उतारू दिख रही है. ऐसे समय पर श्री आर डी आनंद ने नई कविता को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाकर मेरे हमराह शीर्षक से ४७ कविताओ का पहला संग्रह प्रस्तुत कर इस विमर्श में मुकम्मल दस्तक दी है. उनका दूसरा संग्रह भी इसी तरह की कविताओ के साथ तैयार है, और जल्दी ही पाठको तक पहुंचेगा.
पुस्तक से दो एक कविताओ के अंश प्रस्तुत हैं…
मैं पुरुष हूं / तुम स्त्री हो / तुम पुरुषों के मध्य घिरी रहती हो /तुम मुझे बत्तमीज कह सकती हो / मुझे शरीफ कहने का कोई आधार भी नही है तुम्हारे पास / अपनी तीखी नजरों को तुम्हारे जिस्म के आर पार कर देता हूं मैं
या एक अन्य कविता से..
तुम्हारी संस्कृति स्त्री विरोधी है / बैकलेस पहनो तो बेखबर रहना भी सीखो/पर तुम्हारे तो पीठ में भी आंखें हैं /जो पुरुषों का घूरना ताड़ लेती है /और तुम्हारे अंदर की स्त्री कुढ़ती है.
किताब को पढ़कर कहना चाहता हूं कि किंचित परिमार्जन व किसी वरिष्ठ कवि के संपादन के साथ प्रकाशन किया जाता तो बेहतर प्रस्तुति हो सकती थी क्योंकि नई कविता वही है जो न्यूनतम शब्दों से,अधिकतम भाव व्यक्त कर सके. प्रूफ बेहतर तरीके से पढ़ा जा कर मात्राओ में सुधार किया जा सकता था. मूल भाव एक ही होने से पुस्तक की हर कविता जैसे दूसरे की पूरक ही प्रतीत होती है. आर डी आनंद इस नवोन्मेषी प्रयोग के लिये बधाई के सुपात्र हैं.
रवीना प्रकाशन ने प्रिंट, कागज, बाईंडिंग, पुस्तक की बढ़िया प्रस्तुति में कहीं कसर नही छोड़ी है. इसके लिये श्री चंद्रहास जी बधाई के पात्र हैं. उनसे उम्मीद है कि किताब की बिक्री के तंत्र को और भी मजबूत करें जिससे पुस्तक पाठको तक पहुंचे व पुस्तक प्रकाशन का वास्तविक उद्देश्य पूरा हो सके.
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। प्रस्तुत है नवीन पुस्तक “नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) पर आत्मकथ्य श्री सुरेश पटवा जी के शब्दों में । )
☆ पुस्तक समीक्षा / आत्मकथ्य – नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास)☆
विंध्य-सतपुड़ा मेखला की गगनचुंबी पर्वत श्रंखलाओं से घिरी मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तरी-महाराष्ट्र और दक्षिणी-गुजरात में जीवन दायिनी नर्मदा-घाटी मध्यभारत ही नहीं पूरे भारत के लिए प्रकृति के ऐसे वरदान स्वरुप मौजूद है कि करोड़ों मनुष्य व जीव-जन्तु के जीवन आदिकाल से आधुनिक काल तक यहाँ फलते फूलते रहे हैं। आदिमानव की पहली चीख पुकार से आधुनिक मनुष्यों के लोक-शास्त्रीय गायन का नाद-निनाद नर्मदा-घाटी की वादियों में गूँजता रहा है। इनसे बघेलखंड, महाकौशल, बुंदेलखंड, गोंडवाना, मालवा और निमाड़ के इलाक़े बारिश के पानी, उपज, खनिज और वनोपज से मालामाल होते हैं। इन इलाक़ों के बाशिन्दों का जीवन आधार यही पर्वत मालाएँ हैं।
नर्मदा-घाटी इन दोनो श्रंखलाओं के बीच भारत की जलवायु को दिशा देने वाली भौगोलिक स्थितियों का निर्माण करती है। विंध्य-सतपुड़ा के दामन में भारत के सबसे अधिक घने जंगल, जानवरों के विभिन्न प्रकार, क़िस्म-क़िस्म के पेड़ों-पौधों की प्रजातियाँ, मनभावन पक्षियों के झुंड और लुप्तप्रायः जानवरों की बहुतायत बान्धवगढ़, कान्हा-किसली, पेंच, पंचमढ़ी व मड़ई आरक्षित वनों में मौजूद हैं। विंध्य-सतपुड़ा के गगनचुंबी शिखर अण्डमान-निकोबार से आते दक्षिण-पूर्वी और केरल-लक्षद्वीप से उठते मानसूनी बादलों को जून से सितम्बर तक अपनी शत शिराओं में भरकर बघेलखंड, महाकौशल, बुंदेलखंड, मालवा, गोंडवाना और निमाड़ इलाक़े की प्यासी धरती और जीवों के प्यासे कंठों को पूरे साल तर रखते हैं। भारत के इन इलाक़ों में वर्ष भर प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता सर्वाधिक है। इन पर्वत श्रंखलाओं के घने जंगल नवम्बर से जनवरी तक हिमालय से आती ठंडी हवाओं को रोक रबी फ़सल को नमी देकर अगहन की तीखी धूप से बचाते हुए पल्लवित-पुष्पित करते हैं। इनके साये से थोड़ी दूर जाकर देखेंगे तो बबूल के काँटेदार जंगलों से भरे राजस्थान-गुजरात के रेगिस्तान या खानदेश लातूर मराठवाड़ा का लू से तपता मृगतृष्णा बियाबांन पाएँगे।
सतपुड़ा न होता तो छत्तीसगढ़ धान का कटोरा नहीं होता। इनकी तराई में राजनांदगाँव, दुर्ग, बेमेतरा, बिलासपुर, अम्बिकापुर और शक्ति जिले हैं जो राजगढ़ के आगे छोटा नागपुर पहाड़ों से जुड़े हैं, पूर्व में कांकेर, नारायणपुर, बीजापुर और कोंडागाँव में अबूझमाड़ पहाड़ों की श्रंखलाएँ होने से छत्तीसगढ़ का बिलासपुर, महासमुन्द, रायपुर, धमतरी, बेमेतरा, दुर्ग, भाटापारा, राजनांदगाँव जिलों का इलाक़ा धान का कटोरा कहलाता है जो महानदी को समृद्ध करके कटक और संबलपुर सहित उड़ीसा की जीवनरेखा बनाता है। विंध्य-सतपुड़ा से निकली नर्मदा-ताप्ती मध्यप्रदेश दक्षिणी-गुजरात और उत्तरी-महाराष्ट्र को सदानीरा रखतीं हैं। अतः मध्यप्रदेश, उड़ीसा, गुजरात, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ की आबादी के जीवन का आधार विंध्य-सतपुड़ा पर्वत श्रंखलाएँ हैं।
संस्कृत भाषा में नर्म का अर्थ है- आनंद और दा का अर्थ है- देने वाली याने नर्मदा का अर्थ है आनंद देने वाली अर्थात आनंददायिनी। नर्मदा एक ऐसी अद्भुत अलौकिक नदी है जिसकी परिक्रमा की परम्परा विकसित हुई है, आदि शंकराचार्य ने भी नर्मदा की परिक्रमा करते हुए इसके घाटों पर तपस्या, अध्ययन, चिंतन, मनन, शास्त्रों का संकलन और शास्त्रार्थ किया था। नर्मदा का अस्तित्व मध्य भारत की भौगोलिक संरचना से है जिस पर दार्शनिक, ऐतिहासिक, तात्त्विक और तार्किक दृष्टिकोण से लेखन नहीं हुआ है, यद्यपि भक्तिभाव से बहुत लिखा गया है। हिंदू धर्म के पौराणिक काल से भक्ति, वानप्रस्थ और सन्यास के साथ गृहस्थ परम्परा निभाव में नर्मदा अंचल का योगदान उल्लेखनीय रहा है लेकिन नर्मदा के इस पक्ष पर भी विस्तार पूर्वक प्रकाश नहीं डाला गया है। यह पुस्तक नर्मदा-अंचल की महत्ता प्रतिपादित करते हुए उसी कमी को भरने का प्रयास है।
मैं सबसे पहले अपने विद्वान दोस्त श्रीकृष्ण श्रीवास्तव के साथ जनवरी 2016 में नेमावर पंचकोशी नर्मदा परिक्रमा करने गया था, यात्रा के दौरान बड़ी संख्या में लोगों को सामान सिर पर रखकर नंगे पैर लगभग दौड़ते हुए चलते देख कर दंग रह गया। उनकी श्रद्धा का स्रोत केवल अंधविश्वास नहीं हो सकता क्योंकि बिना जड़ का पेड़ नहीं होता, आस्था की जड़ में ज़रूर कोई सनातन सत्य है, तय किया कि उसे ढूँढना है। वह सत्य नर्मदा परिक्रमा से ही उजागर होगा, और दो खंड परिक्रमाओं में होते दिख रहा है। आप नर्मदा परिक्रमा की परिपाटी डालने वालों की दूरदृष्टि की प्रशंसा किए बग़ैर नहीं रह पाएँगे कि किस तरह उन्होंने हिंदू दार्शनिक सिद्धांतों को तात्त्विक ऊँचाई से व्यावहारिक धरातल पर उतारकर जनमानस से जोड़ दिया। इस पुस्तक में छः लोगों द्वारा अक्टूबर 2018 और नवम्बर 2019 में की गई पैदल नर्मदा परिक्रमा का यात्रा वृतांत प्रस्तुत किया जा रहा है जिन्हें पढ़कर आपको पता चलेगा कि मनुष्यों की जानकारी, ज्ञान और मानसिकता का प्रभाव उनके नज़रिया और लेखन में झलकता है। मेरे लेखन में आपको पौराणिक संदर्भ के साथ धार्मिकता और आध्यात्मिकता के अंतर के साथ नर्मदा घाटी में बसावट के इतिहास से नर्मदा परिक्रमा की तार्किकता का पता चलेगा। अरुण भाई के लेखन में सामाजिक जागृति के सरोकार और प्रकृति के साथ ग्राम्य जीवन की सरसता के दर्शन होंगे। अविनाश भाई के विचारों में आपको प्राकृतिक वातावरण के साथ मानवीय संवेदनाओं के आयाम खुलते नज़र आएँगे और यात्रा में सहूलियत के लिहाज़ से बरती जाने वाली सावधानी पाएँगे। मुंशीलाल भाई धार्मिकता से पूरित सहज भक्ति भाव मय उद्गार व्यक्त करने में सिद्धहस्थ हैं वहीं प्रयास भाई ने कविताओं के माध्यम से अपनी भावनाएँ व्यक्त कीं हैं। जगमोहन भाई ने पाँचों महानुभाव के विचारों के सम्बंध में समय-समय पर अपनी भावनाएँ स्वाभाविकता से व्यक्त की हैं।
आज़ादी के बाद मध्यप्रदेश सरकार के तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्रा की पहल पर नर्मदा घाटी प्राधिकरण गठित करके “नर्मदा घाटी परियोजना” बनाई थी जिसके अंतर्गत बरगी, तवा, इंदिरा सागर, ओंकारेश्वर, महेश्वर बाँध और सरदार सरोवर बनाकर नर्मदा ने लोगों के लिए ख़ुशहाली के दरवाज़े खोलकर नर्मदा को सौंदर्य के साथ समृद्धि की नदी भी बना दिया। उज्जयिनी की समृद्ध संस्कृति ने भारत को सनातन वैराग्य का दर्शन दिया है।
सतपुड़ा पर्वत माला में वन्य-जीवन, पर्वतीय सौंदर्य, नदियों-झरनों, आदिवासी-जीवन, संरक्षित-अभ्यारण और नैसर्गिक सौंदर्य के पर्यटन की असीम सम्भावनाएँ निहित हैं। अमरकण्टक, बान्धवगढ़, कान्हा, पतालकोट, पंचमढ़ी, नागद्वारी, मड़ई, ओंकारेश्वर, महेश्वर के अलावा बरगी-बाँध, तवा-बाँध, इंदिरासागर-बाँध और ओंकारेश्वर-बाँध खेतिबारी के लिए पूरे साल पानी के साधन हैं। नर्मदा की महत्ता इससे समझी जा सकती है कि खेतों के सूखे कंठों को रसारस करने के बाद जबलपुर, होशंगाबाद, भोपाल, उज्जैन, देवास और इंदौर को जल आपूर्ति का साधन नर्मदा है। महाकाल की नगरी उज्जैन में जब कुम्भ का मेला भरता है तब पिता को जल चढ़ाने में पुत्री नर्मदा का जल उपयोग में लाया जाता है।
इस पुस्तक में “नर्मदा-अंचल” कई बार आएगा, उसका आशय स्पष्ट करना आवश्यक है। नर्मदा-अंचल में नर्मदा घाटी के साथ सतपुड़ा-विंध्याचल पर्वत श्रेणियों का वह भाग शामिल है जिसका जल-प्रवाह अंतत: नर्मदा में जाकर मिलता है। जहाँ के निवासियों का जीवन प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से नर्मदा से जुड़ा है। नर्मदा अंचल का विस्तार 98,796 वर्ग किलोमीटर में फैला है। देश की जलवायु को नम रखने वाली अत्यंत महत्वपूर्ण नदी नर्मदा पर विस्तृत जानकारी और हमारे दल की दो नर्मदा यात्राओं के रोचक संस्मरण के साथ यह पुस्तक प्रकाशित हो रही है ताकि इस महान नदी की आस्था व तर्क दोनों दृष्टिकोण से भारतीय संस्कृति में योगदान से लोगों को परिचित कराया जा सके। सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य मनुष्य की स्वाभाविक चाहत के विषय रहे हैं। नर्मदा घाटी में इन विषयों पर गहन चिंतन-मनन दार्शनिकता के स्तर तक हुआ है। आपको सतपुड़ा पर्वत और नर्मदा घाटी की महत्ता भक्तिभाव के साथ तर्क सम्मत दृष्टिकोण से बताने में यह किताब इतनी उपयोगी सिद्ध होगी कि आप नर्मदा के सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य दर्शन से अभिभूत हुए बग़ैर न रह सकेंगे।
मेरे दादा जी दौलतराम पटवा प्राथमिक शाला में शिक्षक थे परंतु पिताजी शंकर लाल पटवा निरक्षर रहे, दादा दौलतराम आदिवासी गाँव दूँड़ादेह से सोहागपुर की पाठशाला में पढ़ाने आते थे। पिता जी गौंड़ों के बच्चों के साथ जंगल के शिकारी बनते चले गए, आदिवासियों की स्वाभाविक अकड़ उनके व्यक्तित्व का मौलिक स्वभाव बनकर उन्हें पहलवानी की राह चलाकर अखाड़ों तक ले गई, पहलवानी अकड़ आजीवन उनकी पूँजी रही, विरासत में थोड़ी बहुत हमें भी मिली लेकिन अब ख़त्म होने की कगार पर है। दादा जी का ट्रांसफ़र दमोह हो गया तो उन्होंने नौकरी छोड़कर हमें पढ़ाने हेतु सोहागपुर ले आए, पिता जी रेल्वे स्टेशन पर खोमचे लगाने लगे। दादा जी के कमरे में एक मेज़ पर ग्रामोंफोन के बाजु में रहल के ऊपर लाल कपड़े में लिपटे शिवपुराण, विष्णुपुराण और भागवत पुराण रखे रहते थे, वे पुराणों का नियमित पाठ करते थे। जब किसी ऊधम पर पिता जी छड़ी लेकर हमारी सुताई को तैयार होते तब हम पुराण परायण में रत दादाजी के पास हाथ जोड़ और आँख बंद कर पुराण सुनने बैठ जाते। दादाजी पुराण पर नज़र रखे दाहिने हाथ की तर्ज़नी से पिता जी को इशारा कर हमारे रक्षाकवच बन जाते। गर्मी की छुट्टियों में दादाजी की ऐनक चढ़ाकर धीरे-धीरे हम भी तीनों पुराण पढ़ गए। मकरसंक्रान्ति और कार्तिक पूर्णिमा को दादाजी की छकड़ा गाड़ी में नर्मदा के पामली, रेवा बनखेड़ी और सांगाखेड़ा घाट जाते समय सोचा करते, नर्मदा आ कहाँ से रही है…………..और जा…….कहाँ रही है, इन पर्वतों के……..आगे क्या है। वही उत्सुकता हमें यायावर बना गई, यह घुमंतू क्षमता अंतिम यात्रा तक बनी रहे, यही अंतिम इच्छा है। इसी इच्छा से पैदल नर्मदा परिक्रमा द्वारा नर्मदा घाटी के अंदरूनी हिस्सों को देखकर लोकआस्था का मर्म महसूस करने की प्रेरणा विकसित हुई। अतः यह पुस्तक दादाजी दौलत राम पटवा को समर्पित है। पुस्तक की प्रूफ़-रीडिंग में हमारी नर्मदा परिक्रमा के साथी मेरे सगोत्रीय मुंशीलाल पाटकार एडवोकेट का सहयोग मिला है, वे धन्यवाद के पात्र हैं।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है कवि ओम अग्रवाल बबुआ जी के काव्य संग्रह “गीत गुंजन” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा । )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 29 ☆
☆ पुस्तक चर्चा –काव्य संग्रह – गीत गुंजन ☆
पुस्तक – ( काव्य – संग्रह )गीत गुंजन
लेखक – कवि ओम अग्रवाल बबुआ
प्रकाशक –प्रभा श्री पब्लिकेशन , वाराणसी
मूल्य – २५० रु, पृष्ठ ११६, हार्ड बाउंड
☆ काव्य संग्रह – गीत गुंजन – श्री ओम अग्रवाल बबुआ – चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆
गीत , कविता मनोभावी अभिव्यक्ति की विधा है, जो स्वयं रचनाकार को तथा पाठक व श्रोता को हार्दिक आनन्द प्रदान करती है.
सामान्यतः फेसबुक, व्हाट्सअप को गंभीर साहित्य का विरोधी माना जाता है, किन्तु स्वयं कवि ओम अग्रवाल बबुआ ने अपनी बात में उल्लेख किया है कि उन्हें इन नवाचारी संसाधनो से कवितायें लिखने में गति मिली व उसकी परिणिति ही उनकी यह प्रथम कृति है.
किताब में धार्मिक भावना की रचनायें जैसे गणेश वंदना, सरस्वती वन्दना, कृष्ण स्तुतियां, दोहे, हास्य रचना मेरी औकात, तो स्त्री विमर्श की कवितायें नारी, बेटियां, प्यार हो तुम, प्रेम गीत, आदि भी हैं.
पहली किताब का अल्हड़ उत्साह, रचनाओ में परिलक्षित हो रहा है, जैसे यह पुस्तक उनकी डायरी का प्रकाशित रूपांतरण हो.
अगली पुस्तको में कवि ओम अग्रवाल बबुआ जी से और भी गंभीर साहित्य अपेक्षित है.
( हाल ही में संस्कारधानी जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी का कालजयी काव्य संग्रह “स्त्रियां घर लौटती हैं ” का लोकार्पण विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली में संपन्न हुआ। यह काव्य संग्रह लोकार्पित होते ही चर्चित हो गया औरवरिष्ठ साहित्यकारों के आशीर्वचन से लेकर पाठकों के स्नेह का सिलसिला प्रारम्भ हो गया।काव्य जगत श्री विवेक जी में अनंत संभावनाओं को पल्लवित होते देख रहा है। ई-अभिव्यक्ति की ओर से यह श्री विवेक जी को प्राप्त स्नेह /प्रतिसाद को श्रृंखलाबद्ध कर अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास है। इस श्रृंखला की दसवीं कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं श्री अर्चित ओझा जी (अंग्रेजी भाषा में ख्यात बुक रिव्युअर) की अंग्रेजी भाषा में समीक्षा का श्री संजय उपाध्याय जी द्वारा हिंदी अनुवाद“स्त्रियां घर लौटती हैं’ …#अर्चित ओझा की दृष्टि में” ।)
आप श्री अर्चित ओझा जी की ई- अभिव्यक्ति में प्रकाशित अंग्रेजी समीक्षा निम्न लिंक पर पढ़ सकते हैं।
☆ पुस्तक विमर्श #10 – स्त्रियां घर लौटती हैं’ …#अर्चित ओझा की दृष्टि में ☆
#अर्चित ओझा – अंग्रेजी भाषा में ख्यात बुक रिव्युअर
अंग्रेजी पुस्तकों के देश में #प्रथम वरीयता प्राप्त और अमेज़न के आंकड़ों के अनुसार #’गुडरीड्स’ में सबसे अधिक #लोकप्रिय बुक रिव्युअर… पहली बार कर रहे हैं किसी हिन्दी पुस्तक पर बात..
आज स्मृति में लौटते हुए मैं अपने स्कूल के दिनों में वापस जाता हूं तो मुझे याद आता है बुधवार की सुबह का इंतजार, क्योंकि उस दिन हिन्दी के अखबार में कविताएं पढ़ने मिलती थीं और मैं अखबार लेकर देर तक बैठा रहता था, उन कविताओं में शब्दों का जो संयोजन होता था वह कैसा अनूठा आनंद देता था, और मुझे इस बात पर हैरत होती थी कि कैसे बस शब्दों का खेल किसी चेहरे पर मुस्कुराहट ला सकता है और वे शब्द अपने आप में कितने सशक्त और लुभावने हो जाते हैं उनके लिये जो साहित्य के रास्ते शांति और आनंद की खोज करने में समर्थ हैं।
जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ वैसे-वैसे वह सब पीछे छूटता गया, आज जब हम जीवन में आगे बढ़ने के लिये लगातार लगभग दौड़ रहे हैं तब उसमें वह शांति के अंतराल कम होते जा रहे हैं और होता यह है कि हम रोज हमारे आस पास घटने वाली ऐसी बहुत सी बातों को छोड़ देते हैं जो हमारे चेहरे पर मुस्कुराहट ला सकती थीं और फिर शायद हम बूढ़े होने लगते हैं फिर कभी हमें महसूस होता है कि काश हम उन अंतरालों में रुके होते।
‘स्त्रियां घर लौटती हैं’ जैसी पुस्तकें आपको एक विराम देती हैं जिसमें आप बहुत कुछ वह देख पाते हैं जो अनदेखा रह गया है। इस पुस्तक की कविताओं को पढ़ने के मानी हैं एक ऐसी दुनिया में पहुंच जाना जहां आपको सूरजमुखी, आम, जामुन, तुलसी और बरसात के बाद की मिट्टी की सुगंध अनुभव होती है। अब आप भीतर से वह बच्चे हो जाते हैं जो उल्लास से भरे हुए स्कूल से घर लौटते हैं और उन सब त्यौहारों को मनाते हैं जिन्हें मनाना उम्र के इस पड़ाव में भूला जा चुका है। गुनगुनी धूप में सुस्ताते हैं, पतंग उड़ाते हैं, दोस्तों के साथ ऐसे दौड़ लगा सकते हैं कि धरती भी तेज चलने लगती है, वो एक समय होता है जिसमें मौसम आते हैं और उनका आना महसूस होता है, बरसात आती है, गर्मी आती है, ठण्ड आती है और ठण्ड के साथ लिपटा हुआ एक कम्बल का अहसास भी आता है।
इन कविताओं में पिता के आंसू का नमक छरछराता है जब उसकी बेटियां बिदा हो रही हैं, मां से बात होती है जो दिन रात खटकर अपना घर संजोती है वो समय खनखनाता है जिसमें पड़ोसियों से खूब बात होती थी, यहां घूमते हुए मेला घूमते हैं और घूमते घूमते इतने छोटे से बच्चे हो जाते हैं कि उन खिलौनों के लिये जिद करें जो कि हाथ तो आएंगे पर बस अभी टूटकर बिखर जाएंगे। दोस्तों के साथ बात-बेबात हंसते हैं, बिना टिकट लगाए खत भेज देते हैं, आधी रात को उठकर चांद देखते हैं और ये भी देखते हैं कि कोई हमें देखता तो नहीं। गली में पैदा हुए कुत्तों से राग लगा लेते हैं और वे कहीं चले जाते हैं तो फूट-फूटकर रोते हैं।
‘स्त्रियां घर लौटती हैं’ की कविताएं पढ़ना एक तरह से उस क्वारेपन को उस बचपन को फिर से जीना है जहां कुछ भी छूट जाने की पीड़ा या व्यथा नहीं है, इन कविताओं में कई ऐसी जगहें हैं जो अपनी सरलता और सहजता से हाथ पकड़कर खींच लेती हैं।
इस संग्रह में छप्पन कविताएं हैं और कहना नहीं होगा कि सबका अपना-अपना एक अलहदा किस्म का कलेवर है, इनमें से किसी को रखना और किसी को छोड़ना ये बेहद मुश्किल भरा है पर फिर भी कुछ कविताएं और उनके हिस्से एक गूंज की तरह मेरे साथ रह गए हैं।
पुस्तक की शीर्षक कविता के नाम के साथ कुछ कविताओं के अंशों का मैं अंग्रेजी अनुवाद कर रहा हूं ताकि बहुत समय से मुझे अंग्रेजी में पढ़ने वाले इस विलक्षण कवि के अद्भुत सृजन लोक की भव्यता को निहार सकें। मुझे ये भरोसा है कि ये कविताएं मेरे अनुवाद के बावजूद अपनी अर्थवत्ता को नहीं खोएंगी।
स्त्रियां घर लौटती हैं
…घर भी एक बच्चा है स्त्री के लिये
जो रोज थोड़ा और बड़ा होता है
Women Return their Homes: A home too, is a child for a woman, that grows a little more, every day.
पेंसिल की तरह बरती गई घरेलू स्त्रियां
फेंकी गई खीज या ऊब से
मेज या सोच से गिराई गई,
गिरकर भी बची रही उनकी नोंक
पर भीतर भरोसे का सीसा टूट गया
उन्हें उठाकर फिर से चलाया गया
The domestic women have been treated like pencils: Thrown with anger and boredom, dropped down from the desk and mentality, a bit of nib got saved, but the lead inside is broken, still they were picked up and employed for selfish purposes again and again.
कहां हो तुम
कमरों में कैद बच्चे
कीचड़ में लोटकर खेलने लगे हैं
दरकने लगा है आंगन का कांक्रीट
उसमें कैद माटी से अंकुए फूटने लगे हैं,
कहां हो तुम
Where are you: The kids who were locked inside their homes are now playing in the mud, rolling and laughing, a tuft of grass has started growing through a crack in the concrete, where are you?
टाइपिस्ट
मैंने कहा हिम्मत, और उसने एक बार लिखा हिम्मत
फिर एक बार हिम्मत और
सारा पेज उसकी हिम्मत से भर गया
Typist:
I said “Courage”, and she wrote it once, I said “courage” again, and the whole page got filled with that one word!
पिता
कितने कितने बर्फीले तूफान तुम्हारे देह को छूकर गुजरे पर हमको छू न सके, तुम हिमालय थे पिता
Dad: All your life, many icy storms went through you, and you did not let any of them touch us. Dad, you were Himalayan.
मुझे यह गहरा विश्वास हो चला है कि विश्व साहित्य में हिन्दी कविता ही एक ऐसी विधा है जिसका पूरा भाव हम श्रोता या पाठक के स्तर पर ग्रहण नहीं कर सकते हिन्दी कविता कुछ ऐसा गाती है जो भिन्न भिन्न पाठकों पर वैसा भिन्न भिन्न काम करती है जैसा उन्होंने जीवन जिया है या देखा है। मैने एक रूसी कवियित्री की कविता पढ़ी थी जिसमें वो कहती हैं कि वे हिन्दी से कितना प्यार करती हैं और स्त्रियां घर लौटती हैं पढ़ते हुए मैं समझ पाया हूं कि वो हिन्दी को क्यों इतना प्यार करती होंगी।
मैं इस पुस्तक ‘स्त्रियां घर लौटती हैं’ की प्रकृति और सामर्थ्य की इसीलिये सराहना करता हूं कि ये कविताएं हृदय को स्पंदन और ऊष्मा देकर रोमांचित करती हैं और इससे भी अधिक ये कि मैं इन कविताओं के प्रति गहरी कृतज्ञता अनुभव करता हूं कि इसने मेरे भीतर के दृष्टा को फिर से जागृत कर दिया।
शीर्षक कविता ‘स्त्रियां घर लौटती हैं’ कवि के गहरे और आंतरिक अवलोकन के लिये लगभग स्तब्ध कर देती हैं, इन कविताओं में सब है, धरती बचाने की जिद, मौसम की खुशनुमा आहटें, मित्रता, प्रेम, घर, मातृत्व की गरिमा, स्त्री की सबलता का स्वर इन्हें पढ़ता हूं और फिर फिर पढ़ता हूं और नये नये अर्थ और व्यंजनाएं ध्वनित होते हैं, काश मैं अच्छा अनुवादक होता तो इनका अंग्रेजी अनुवाद करता ताकि अंग्रेजी के पाठक भी उस आनंद का अनुभव कर पाते जो इन कविताओं में निहित है।
यदि आप मेरी तरह हिन्दी कविता के इर्द गिर्द न रह सके हों, तो ‘स्त्रियां घर लौटती हैं’ आपको अपनी जड़ों की ओर लौटा ले जाएगी, और यदि आप हिन्दी में पढ़ ही रहे हैं तो यह संग्रह आपके इस विश्वास को सबल करेगा कि हिन्दी साहित्य का भविष्य समर्थ हाथों में है।
– अर्चित ओझा
(मूल अंग्रेजी भाष्य का श्री संजय उपाध्याय जी द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद)
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है श्री श्रवण कुमार उर्मलियाके व्यंग्य संग्रह “निज महिमा के ढ़ोल मंजीरे” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा । )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 28☆
☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य संग्रह – निज महिमा के ढ़ोल मंजीरे ☆
पुस्तक – (व्यंग्य संग्रह )निज महिमा के ढ़ोल मंजीरे
लेखक – श्री श्रवण कुमार उर्मलिया
प्रकाशक –भारतीश्री प्रकाशन , दिल्ली ३२
मूल्य – २५० रु , पृष्ठ १२८, हार्ड बाउंड
☆ व्यंग्य संग्रह – निज महिमा के ढ़ोल मंजीरे – श्री श्रवण कुमार उर्मलिया– चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆
इस सप्ताह मुझे इंजीनियर श्रवण कुमार उर्मलिया जी की बढ़िया व्यंग्य कृति ‘निज महिमा के ढ़ोल मंजीरे पढ़ने का सुअवसर सुलभ हुआ.
बहुत परिपक्व, अनुभव पूर्ण रचनायें इस संग्रह का हिस्सा हैं. व्यंग्य के कटाक्षो से लबरेज कथानको का सहज प्रवाहमान व्यंग्य शैली में वर्णन करना लेखक की विशेषता है.पाठक इन लेखो को पढ़ते हुये घटना क्रम का साक्षी बनता चलता है. अपनी रचना प्रक्रिया की विशद व्याख्या स्वयं व्यंग्यकार ने प्रारंभिक पृष्ठो में की है. वे अपने लेखन को आत्मा की व्यापकता का विस्तार बतलाते हैं. वे व्यंग्य के कटाक्ष से विसंगतियो को बदलना चाहते हैं और इसके लिये संभावित खतरे उठाने को तत्पर हैं.
पुस्तक में ५२ व्यंग्य और २ व्यंग्य नाटक हैं. ५२ के ५२ व्यंग्य, ताश के पत्ते हैं, कभी ट्रेल में, तो कभी कलर में, लेखों में कभी पपलू की मार है, तो कभी जोकर की. अनुभव की पंजीरी से लेकर निज महिमा के ढ़ोल मंजीरे पीटने के लिये ईमानदारी की बेईमानी, भ्रष्टाचार का शिष्टाचार व्यंग्यकार के शोध प्रबंध में सब जायज है. हर व्यंग्य पर अलग समीक्षात्मक आलेख लिखा जा सकता है, अतः बेहतर है कि पुस्तक चर्चा में मैं आपकी उत्सुकता जगा कर छोड़ दूं कि पुस्तक पठनीय, बारम्बार पठनीय है.
( हाल ही में संस्कारधानी जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी का कालजयी काव्य संग्रह “स्त्रियां घर लौटती हैं ” का लोकार्पण विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली में संपन्न हुआ। यह काव्य संग्रह लोकार्पित होते ही चर्चित हो गया औरवरिष्ठ साहित्यकारों के आशीर्वचन से लेकर पाठकों के स्नेह का सिलसिला प्रारम्भ हो गया।काव्य जगत श्री विवेक जी में अनंत संभावनाओं को पल्लवित होते देख रहा है। ई-अभिव्यक्ति की ओर से यह श्री विवेक जी को प्राप्त स्नेह /प्रतिसाद को श्रृंखलाबद्ध कर अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास है। इस श्रृंखला की चौथी कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं श्री नरेंद्र पुण्डरीक के विचार “स्त्रियों को लेकर बहुत ही श्रेष्ठ रचाव इन कविताओं में है ” ।)
☆ पुस्तक विमर्श #9 – स्त्रियां घर लौटती हैं – “स्त्रियों को लेकर बहुत ही श्रेष्ठ रचाव इन कविताओं में है ” – श्री नरेन्द्र पुण्डरीक ☆
स्त्रियां घर लौटती हैं’ के लिए वरिष्ठ कवि एवं सम्पादक ‘माटी’ आदरणीय श्री नरेन्द्र पुण्डरीक जी की टिप्पणी…
विवेक चतुर्वेदी कविता संकलन “स्त्रियां घर लौटती हैं ” काफी दिन पहले मिला था । तब से पाठकों द्वारा इतना समादृत किया गया कि कविता के प्रति बढते लगाव को देख कर लगा कि अच्छी कविता के प्रति पाठकों की भूख लगातार बनी हुई है।
जो लोग कहते है कि कवितायेँ कौन पढता हैं उन्हें विवेक की यह कविताएं जरुर एक बार पढ़नी चाहिये।
जिन लोगों को कविता में भाव और भाषा का प्रीतिभोज अच्छा लगता है इन कविताओं में उन्हें प्रीतिभोज का उल्लास और तृप्ति दोनों मिलेगी।
इनमें मेरी अपनी भाषा का वह गौरव दिखाई दिया जिन्हें पढ़ कर मैं भीतर तक भीग गया । बुन्देली शब्दों के गोथ की लम्बी यात्रा दिखाई दी।
स्त्रियों को लेकर बहुत ही श्रेष्ठ रचाव इन कविताओं में है। स्त्रियां जो दिन भर सूरज के साथ उठ कर सूरज के साथ घर लौटती हैं।
विवेक की कविता समकालीन हिन्दी कविता की गहरी आश्वस्ति है।
( हाल ही में संस्कारधानी जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी का कालजयी काव्य संग्रह “स्त्रियां घर लौटती हैं ” का लोकार्पण विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली में संपन्न हुआ। यह काव्य संग्रह लोकार्पित होते ही चर्चित हो गया औरवरिष्ठ साहित्यकारों के आशीर्वचन से लेकर पाठकों के स्नेह का सिलसिला प्रारम्भ हो गया।काव्य जगत श्री विवेक जी में अनंत संभावनाओं को पल्लवित होते देख रहा है। ई-अभिव्यक्ति की ओर से यह श्री विवेक जी को प्राप्त स्नेह /प्रतिसाद को श्रृंखलाबद्ध कर अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास है। इस श्रृंखला की चौथी कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं श्री आलोक कुमार मिश्र के विचार “एक अनोखा काव्य संग्रह हिन्दी जगत में आया है ” ।)
☆ पुस्तक विमर्श #7 – स्त्रियां घर लौटती हैं – “एक अनोखा काव्य संग्रह हिन्दी जगत में आया है ” – श्री आलोक कुमार मिश्र ☆
‘आंगन में बंधी डोरी पर
सूख रहे हैं कपड़े
पुरुष की कमीज़ और पतलून
फैलाई गई है पूरी चौड़ाई में
सलवटों में सिमटकर
टंगी है औरत की साड़ी
लड़की के कुर्ते को
किनारे कर
चढ़ गयी है लड़के की जींस
झुक गई है जिससे पूरी डोरी
उस बाँस पर
जिससे बाँधी गई है डोरी
लहरा रहे हैं पुरुष अन्तःवस्त्र
पर दिखाई नहीं देते महिला अन्तःवस्त्र
वो जरूर छुपाये गये होंगे तौलियों में ।।’
‘डोरी पर घर’ नाम की यह कविता सूखने को डाले गये कपड़ों के बहाने घर-परिवार-समाज में स्त्री की स्थिति की थाह ही नहीं लेती बल्कि पितृसत्ता के महीन धागों को उघाड़ती भी है। यह कविता हाल ही में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुए काव्य संग्रह ‘स्त्रियाँ घर लौटती हैं’ में शामिल ऐसी ही कई स्त्री चेतना और पूर्ण समानुभूति से लैस कविताओं में से एक है। इस संग्रह के रचयिता हैं हमारे समय के चर्चित कवि विवेक चतुर्वेदी जी।
पहली ही कविता ‘स्त्रियाँ घर लौटती हैं’ से यह संग्रह पाठक को सम्मोहित कर लेता है। रोजमर्रा की पारिवारिक घटना जब इस उदात्त संवेदना के साथ सामने आती है तो अपने ही घर की महिलाएँ हमारे जेहन में अपनी सशक्त उपस्थिति के साथ आ धमकती हैं और हमें खुद में झाँकने का संदेश देने लगती हैं। पंक्तियां देखिए-
‘स्त्रियों का घर लौटना
पुरुषों का घर लौटना नहीं है
पुरुष लौटते हैं बैठक में ,फिर गुसलखाने में
फिर नींद के कमरे में
स्त्री एक साथ पूरे घर में लौटती है
वो एक साथ, आँगन से
चौके तक लौट आती है।’
सच में हम पुरुषों को कितने ही स्त्रैण गुणों को सीखने की जरूरत है, वह यह कविता स्पष्ट करती है।
‘माँ’ पर न जाने कितनी कविताएँ लिखी गईं पर इस संग्रह में शामिल ‘माँ’ कविता उसे पूरी दुनिया के बच्चों की नेमत घोषित करती है न कि अपनी माँ को खुद से ही जोड़ती है। दूर होने के बाद भी वह नेमतों संग दिखती है।
‘माँ चाँद के आँगन में बैठी है
अब वो दुनिया भर के
बच्चों के लिए
आम की फाँक काट रही है।।’
कविता ‘औरत की बात’ में औरत होने को सृजन और उत्पादकता से जोड़ कर विवेक चतुर्वेदी जिस तरह पेश करते हैं वह लाजवाब है। उनके चलने, देखने, करने से प्रकृति सहयोजित होकर चलती है। एक पिता का अपनी नन्हीं बच्ची के साथ होने से पैदा हो रही भावुकता कविता ‘भोर…होने को है’ में एक नहीं सैकड़ो ऐसी पृथ्वियों की कल्पना से एकाकार हो जाती है जो अपनी पूरी प्रकृति में सभी दोषों से विमुक्त हो। कविता ‘टाइपिस्ट’ एक छोड़ी हुई औरत की हिम्मत और जिजीविषा को पूरी गरिमा के साथ उपस्थित करती है।
तमाम मंचीय स्त्री विमर्श के खोखलेपन को उजागर करते हुए कवि ने नेपथ्य में चलने वाली पुरुषों की कामुक लोलुपता के संवादों को कविता ‘स्त्री विमर्श’ में उघाड़ कर रख दिया है। वे लिखते हैं-
‘उस रात विमर्श में
स्त्री बस नग्न लेटी रही
न उसने धान कूटा
न पिघलाया बच्चे को दूध
न वो ट्राम पकड़ने दौड़ी
न उसने देखी परखनली
न सेंकी रोटी
रात तीसरे पहर उन सबने
अलगनी पर टंगे
अपने मुखौटे पहने
और चल दिए
वहाँ छूट गई
स्त्री सुबह तक
अपनी इयत्ता ढूंढती रही।।’
‘शो रूम में काम करने वाली लड़की’ नामक लंबी कविता में कवि कुछ इस तरह परकाया प्रवेश कर जाता है कि लगता है जैसे ऐसी कोई कामगार लड़की ही हमसे आँखों में आंख डाल बात कर रही हो और पूछ रही हो- ‘सुनो! इस सदी में स्त्री को/ जबरिया काम पर भेजने वाले/ स्त्री के मुक्तिकामी विमर्शकारों/ अपना कोलाहल बंद करो/ ये लड़की क्यों घर जाना चाहती है।।’ वे स्त्री के प्रति घनीभूत संवेदना के कवि होते हुए भी एकल पहचान के दायरे को तोड़ वर्गीय विभाजन की दहलीज में भी बार-बार पैर रखते हैं। जिसे इस कविता में तो महसूस किया ही जा सकता है लेकिन ‘वर्गवादी’ कविता में तो खुले रूप से देखा जा सकता है जब वे सुबह-सुबह नौकर द्वारा दरवाजा खटखटाने के बाद हो सकने वाली प्रतिक्रियाओं को औरों के मुकाबले तौलते हैं। ‘हरी मिर्च और नमक’ में तो न केवल वो रोते हैं अपितु पाठक को भी रुला देते हैं। सचमुच विवेक चतुर्वेदी जी दमित पहचानों के पक्षधर कवि बनकर उभरे हैं इन कविताओं में।
इस संग्रह में रिश्ते-नातों की पोटली भी अपने पूरे सुगंध के साथ खुलती हुई दिखती है। यहाँ माँ, बाबूजी जहाँ स्मृतियों से होते हुए वर्तमान की हर संवेदना से एकाकार दिखाई देते हैं वहीं नन्हीं बिटिया, प्रेमिका, पत्नी भी अपनी पूर्ण उपस्थिति लिए साथ कदमताल करती हैं। कविता ‘माँ’, ‘प्रार्थना की साँझ’, ‘माँ को खत’ जहाँ माँ को याद करते हुये और अधिक मासूम हो जाने की कविताएँ हैं वहीं कविता ‘पिता’, ‘बाबू’, ‘तुम आए बाबा’, ‘सुनो बाबू’, ‘उनकी प्रार्थना में’, ‘पिता की याद’ पिता की बात-बात करते-करते जीवन के रूखे मौसमों में प्रेम और सम्मान की नमी को संजोये रखने और जिजीविषा बनाए रखने के संदेश से लैस हैं। वो पिता जो कभी अम्मा के लिए कनफूल न ला पाए पर जब कभी वो उसके पसंद के फूल क्यारी में अंकुआते हैं तब एक पुत्र प्रेम के मायने और जीवन का पाठ पढ़ता है।
कविता ‘चुप’, ‘तुम यहीं तो मिले हो’, ‘किसी दिन…कोई बरस’, ‘कहाँ हो तुम’, ‘तेरे बिराग से’, ‘तुम्हारे साथ जो भी काता मैंने’ जैसी कविताएँ प्रेम से पगी कोमल भावनाओं की कविता हैं जो अंतस तक उतर जाती हैं। संग्रह में कुछ कविताएँ अन्य तरह की सामाजिक व्यवस्थाओं से भी जुड़ी हुई हैं व सवाल उठाती हैं।
एक कविता मुझे एक शिक्षक के रूप में बहुत अंदर तक कुरेद गई। वह है बचपन के अपने स्कूल को याद करते हुए उसकी तुलना जेल और कैद से करती हुई कविता ‘मेरे बचपन की जेल’। कवि अपनी संवेदना और अनुभूति को इस कविता में बहुत गहन तरीके से उतारते हुए हमें हमारे स्कूली दिनों में पहुंचा देता है। स्कूल की एक-एक गतिविधि को कुरेदते याद करते वह मानवीयता के उन स्याह कोनों की थाह ले आते हैं जो हर एक के बस की नहीं। वे आज भी इन स्कूलों को शंका से देखते हुए इस लंबी कविता के अंत में आते-आते कहते हैं कि- ‘आज बरसों के बाद/ मैं उस जेल के सामने/ फिर आकर खड़ा हूँ इसके/ देखता हूँ/ जेल की इमारत कुछ और/ रंगीन हो गई है/ जैसे कि कभी जहर रंगीन होता है।’ यहाँ वास्तविकता की गहरी पड़ताल होते हुए भी विनम्रता पूर्वक कवि से असहमत होते हुए मैं उन्हें वर्तमान स्कूलों, उसे संचालित करने वाले शिक्षा दर्शन व दस्तावेजों का और गहरा अवलोकन करने की सलाह दूँगा क्योंकि स्थिति अब इतनी भयावह नहीं। बहुत से सकारात्मक बदलावों ने अपनी जगह बना ली है।
कुल मिलाकर यह कहना चाहूँगा कि सन् 2019 बीतते-बीतते और नये वर्ष में यह एक ऐसा अनोखा काव्य संग्रह हिन्दी जगत में आया है जो पाठकों की अपेक्षाओं पर पूरा खरा उतरेगा। इसे पढ़ते हुए नई और बेहतर दुनिया का सपना और अधिक संभव होने के करीब महसूस होगा। कवि विवेक चतुर्वेदी को उनके इस सुंदर संग्रह की बधाई देते हुए मेरी कामना है कि वे इसी तरह भविष्य में अपने रचना कर्म से हमें चकित करते रहें
( हाल ही में संस्कारधानी जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी का कालजयी काव्य संग्रह “स्त्रियां घर लौटती हैं ” का लोकार्पण विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली में संपन्न हुआ। यह काव्य संग्रह लोकार्पित होते ही चर्चित हो गया औरवरिष्ठ साहित्यकारों के आशीर्वचन से लेकर पाठकों के स्नेह का सिलसिला प्रारम्भ हो गया।काव्य जगत श्री विवेक जी में अनंत संभावनाओं को पल्लवित होते देख रहा है। ई-अभिव्यक्ति की ओर से यह श्री विवेक जी को प्राप्त स्नेह /प्रतिसाद को श्रृंखलाबद्ध कर अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास है। इस श्रृंखला की चौथी कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं श्री गणेश गनीके विचार “विवेक अभिव्यक्ति के लिए नितान्त भिन्न तरह से करना चाहते हैं ” ।)
☆ पुस्तक विमर्श #7 – स्त्रियां घर लौटती हैं – “विवेक अभिव्यक्ति के लिए नितान्त भिन्न तरह से करना चाहते हैं ” – श्री लीलाधर जगूडी ☆
कविता संग्रह ‘स्त्रियां घर लौटती हैं’ पर हिन्दी के वरिष्ठ कवि व्यास सम्मान से सम्मानित श्री लीलाधर जगूडी जी की टिप्पणी…
विवेक चतुर्वेदी की कविता में सबसे अच्छी बात जो मुझे लगी वह यह कि वे भाषा का प्रयोग सहसा अपनी अभिव्यक्ति के लिए नितान्त भिन्न तरह से करना चाहते हैं और उस भाषा के लिए वे निरंतर अपनी संवेदना को तराशते प्रतीत होते हैं वे अकथ के लिए कोई कथनीय सौंदर्य गढ़ना चाहते हैं तभी तो ‘रात के रफूगर’ और ‘धूप की खीर’ जैसी उक्ति उनकी कविता में पैदा हो सकी है
‘पिता’ कविता में घर के भीतर खंटता- बंटता पिता का प्रेम अनायास उठता है और मुंडेर पर पीपल की तरह फैल जाता है जैसे पिता का छतनार होना ही मुक्ति का उद्घोष हो लेकिन विडम्बना का बिम्ब देखिए जो पिता अम्मा के लिए कनफूल नहीं ला सका वो चुपके से क्यारी में अम्मा की पसंद के फूल खिलाता रहा है
‘मेरे बचपन की जेल’ कविता के पात्र जेल में अच्छा नागरिक नहीं जेलर की नजर में अच्छा कैदी बनने में लगे हैं इस कविता में आए बिम्ब लगभग थर्रा देते हैं यह पृथकता उनकी हर कविता में दिखती है
अभी उनकी कविताओं में कहानी जैसे कथानक ज्यादा हैं और वे कविता की निज भाषा खोजने- संवारने में जुटे लगते हैं मेरी शुभकामनाएं हैं कि वे कविता में काव्य तत्व की और दायित्वपूर्ण सरल भाषा की खोज कर सकें।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है श्री अजीत श्रीवास्तव जी के व्यंग्य संग्रह “ मुर्गे की आत्मकथा ” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा । )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 27☆
☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य संग्रह – मुर्गे की आत्मकथा ☆
पुस्तक – मुर्गे की आत्मकथा (व्यंग्य संग्रह)
लेखक –श्री अजीत श्रीवास्तव
प्रकाशक –अयन प्रकाशन , नई दिल्ली
मूल्य २५० रु , पृष्ठ १२८, हार्ड बाउंड
☆ व्यंग्य संग्रह – मुर्गे की आत्मकथा – श्री अजीत श्रीवास्तव – चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆
किताबें छप तो बहुत रही हैं, किन्तु पढ़ी बहुत कम जा रही हैं. मेरा प्रयास है कि कम से कम पुस्तकों के कंटेंट की कुछ चर्चा होती रहे, जिस पाठक को रुचि हो वह जानकारी के आधार पर पुस्तक ढ़ूंढ़कर पढ़ सके. आप सब के फीड बैक से इस प्रयास के सुपरिणाम परिलक्षित होते दिखते हैं तो नई ऊर्जा मिलती है. अनेक लेखक व प्रकाशक अपनी पुस्तकें इस हेतु भेज रहे हैं, कई कई पाठको की प्रतिक्रियायें मिल रही हैं .
इसी क्रम में मुर्गे की आत्मकथा व्यंग्य उपन्यासिका मिली. दरअसल पुस्तक में एक नही दो लघु व्यंग्य उपन्यासिकायें हैं. पहली राजनीति के योगासन है. राजनीति प्रत्येक व्यंग्यकार का सर्वाि प्रिय कच्चामाल है. अजीत श्रीवास्तव जी ने राजनीति के योगासन में र आसन राशन, भ आसन भाषण, अश्व आसन आश्वासन, करजोड़ासन, पदासन, शासन, निष्कासन, पुनरागमनआसन, चमचासन, कुर्सियासन, सिंहासन, वगैरह वगैरह शब्दों की विशद विवेचना करते हुये हास्य, व्यंग्य के संपुट के साथ नवाचार किया है. यह रोचक शैली पठनीय है.
इसी क्रम में एक मुर्गे की आत्मकथा, में मुर्गे को प्रतीक बना कर बिल्कुल नई शैली मे समाज की विद्रूपताओ पर मजेदार कटाक्ष किये गये हैं. समाज में हर कोई दूसरे को मुर्गा बनाने में जुटा हुआ है, ऐसे समय में यह उपन्यासिका वैचारिक पृष्ठभूमि निर्मित करती है. अजीत जी पुरस्कृत, वरिष्ठ व्यंग्यकार हैं, पेशे से एड्वोकेट हैं, उनका कार्यक्षेत्र बड़ा है, लेखन दृष्टि परिपक्व है, अभिव्यक्ति की सशक्त नवाचारी क्षमता रखते हैं, किताब पढ़कर ही सही मजे ले पायेंगे . आपकी उत्सुकता जगाना ही इस चर्चा का उद्देश्य है.