( हाल ही में संस्कारधानी जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी का कालजयी काव्य संग्रह “स्त्रियां घर लौटती हैं ” का लोकार्पण विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली में संपन्न हुआ। यह काव्य संग्रह लोकार्पित होते ही चर्चित हो गया औरवरिष्ठ साहित्यकारों के आशीर्वचन से लेकर पाठकों के स्नेह का सिलसिला प्रारम्भ हो गया।काव्य जगत श्री विवेक जी में अनंत संभावनाओं को पल्लवित होते देख रहा है। ई-अभिव्यक्ति की ओर से यह श्री विवेक जी को प्राप्त स्नेह /प्रतिसाद को श्रृंखलाबद्ध कर अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास है। इस श्रृंखला की प्रथम कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं सुप्रतिष्ठित वरिष्ठ साहित्यकार श्री निरंजन श्रोत्रिय जी के आशीर्वचन “क्या यह जरूरी है कि स्त्री विमर्श की कविता कोई कवयित्री ही रचे?“।)
☆ पुस्तक विमर्श #1 – स्त्रियां घर लौटती हैं – “क्या यह जरूरी है कि स्त्री विमर्श की कविता कोई कवयित्री ही रचे?” – श्री निरंजन श्रोत्रिय ☆
(‘स्त्रियां घर लौटती हैं” की कुछ कविताओं पर वरिष्ठ कवि, लेखक,आलोचक,सम्पादक-समावर्तन आदरणीय श्री निरंजन श्रोत्रिय जी की दृष्टि में … जो निःसंदेह कवि का पाथेय है।)
“क्या यह जरूरी है कि स्त्री विमर्श की कविता कोई कवयित्री ही रचे? क्या कोई पुरुष कवि स्त्री- संवेदनों की थाह नहीं ले सकता? कहने को हमारा समाज कितना ही पुरुष प्रधान क्यों ना हो लेकिन क्या हम हर वक्त स्त्रियों से घिरे नहीं हैं! युवा कवि विवेक चतुर्वेदी ने स्त्री को लेकर कई नायाब कविताएं लिखी हैं। ये कविताएं इसका स्पष्ट और पुख्ता प्रमाण हैं कि- कोई संवेदनशील मन बगैर किसी जेंडर कारक के स्त्री को पूरी शिद्दत के साथ अभिव्यक्त कर सकता है। पहली ही कविता ‘औरत की बात’ स्त्री की क्रियाशीलता का काव्य- रूपक है। अपने उद्मम और जिजीविषा से वह लौकिक और अलौकिक को ऊर्जस्वित कर रही है- लड़की दौड़ती है /तो थोड़ी तेज हो जाती है /धरती की चाल।
‘डोरी पर घर’ कविता एक भारतीय घर का दृश्य है जो कविता होकर अनूठा हो गया है। इस अद्भुत शब्द चित्र के माध्यम से विवेक ने भारतीय स्त्री की सीमाओं और टैबू को रेखांकित किया है। शर्म,लज्जा और परंपरा की कथित बेड़ियों में स्त्री को इस कदर जकड़ दिया गया है कि उसके अंतर्वस्त्रों को एक हाइजेनिक धूप का टुकड़ा भी नसीब नहीं है। पुरुष के अंतर्वस्त्र ‘लहराते’ हुए अलगनी पर पूरी चौड़ाई पाते हैं जबकि साड़ी सलवटों में सिमटी हुई है।
‘स्त्रियों का घर लौटना पुरुषों का घर लौटना नहीं है/ पुरुष लौटते हैं बैठक में फिर गुसलखाने में/फिर नींद के कमरे में/ स्त्री एक साथ पूरे घर में लौटती है’ (स्त्रियां घर लौटती हैं) इस कविता में ‘लौटना’ शब्द की अनेक पुनरावृत्तियां हैं लेकिन हर बार एक नई अर्थवत्ता के साथ! साथ ही स्त्री विमर्श को जब तक पुरुष के साथ तुलनात्मक दृष्टि से नहीं देखा जाएगा तब तक वह विमर्श अधूरा रहेगा। विवेक इस कविता में वह जरूरी काम करते हैं इस अद्भुत क्लाईमेक्स में के साथ कि- दरअसल एक स्त्री का घर लौटना/ धरती का अपनी धुरी पर लौटना है’।
‘ताले रास्ता देखते हैं’ हमारे समय के अलगाते रिश्तों की कविता है जिसे ताले और चाबी के अनिवार्य संबंधों के रूपक के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है। यहां दो कारकों की अंतर्निर्भरता को बहुत मार्मिकता से कवि ने दिखाया है विवेक चतुर्वेदी के रोजमर्रा के उपेक्षित- से प्रेक्षण को कविता के केंद्र में ले आते हैं- एक बाकायदा कविता बनाते हुए।’चाबियों को याद करते हैं ताले/ वे रास्ता देखते हैं’ क्या यह पंक्ति ताला खुलने के बाद एक संसार को नए सिरे से देखने के लिए पाठकों को आमंत्रित नहीं करती?
‘उनकी प्रार्थना में’ एक छोटी मगर मार्मिक कविता है। इसमें प्रार्थना का सत्व है जो किसी आस्था को महिमामंडित ना करते हुए उसके मर्म को और सदाशयी भाव को अभिव्यक्त करता है।
‘मां को खत’ जैसी बहुत छोटी कविता में भी धूप की खीर, अक्टूबर का महीना, सुबह, पंजा ठंड की बिल्ली जैसे शब्दों से मां की चिंता का अनूठा काव्य रचा गया है।
इस युवा कवि को रिश्तों और उनकी उदात्तता की गहरी समझ है ‘पिता की याद’ एक ऐसी ही कविता है जिसमें पिता के दायित्व और दाय को बहुत ही मार्मिकता से चित्रित किया गया है ।कटोरदान में बच गई आखरी रोटी की अधूरी भूख एक ऐसा समर्पण है जिसे इस तरह के काव्य संवेदन ही व्यक्त कर सकते हैं ।
हर सच्चा कवि लोग मंगल का भी अभिलाषी होता है। ‘शिवेतरक्षतये’ यह काव्य- प्रतिज्ञा क्या मूल भाव होता है।
ऐसी ही कामनाएं हैं ‘दुनिया के लिए जरूरी है’ कविता में। एक ओर वह गौरैया, कुनकुनी धूप बचपन और तारों का संरक्षण चाहता है वहीं दूसरी ओर मिसाइल और दानवीय मशीनों को इंसानियत के विरुद्ध मानता है।
‘पसीने से भीगी कविता’ कवि और कविता का मूल प्रयोजन व्यक्त करती है। इस कविता में अनूठे बिम्बों द्वारा कवि की अभीप्सा को व्यक्त किया गया है। यह मनुष्य और मानवता के पक्ष में कविता की सार्थक भूमिका का बयान है।
‘सभा’ कविता एक दृश्य- बंध है जिसमें मछलियों और मगर के जरिए समकालीन राजनीतिक परिदृश्य का इकोसिस्टम रचा गया है इसमें कवि की प्रतिबद्धता स्पष्ट परिलक्षित होती है सच की बूढ़ी माई के सभा में ना पाने की विवशता पूरी कविता को एक प्रभावी क्लाइमैक्स में घटित करती है।
युवा कवि विवेक चतुर्वेदी की कविताएं गहन संवेदनों और कम शब्दों में अधिक बोलती कविताएं हैं। उनकी काव्य पंक्तियां छोटी लेकिन अर्थ और अर्थ से परे तक का विस्तार हैं।जब कविता खलिहान से मंडी तक बैलगाड़ी में रतजगा करे तो उस पर उसी तरह भरोसा किया जा सकता है जैसे कि हम प्रार्थना पर करते हैं”।
( हाल ही में संस्कारधानी जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी का कालजयी काव्य संग्रह “स्त्रियां घर लौटती हैं ” का लोकार्पण विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली में संपन्न हुआ। यह काव्य संग्रह लोकार्पित होते ही चर्चित हो गया औरवरिष्ठ साहित्यकारों के आशीर्वचन से लेकर पाठकों के स्नेह का सिलसिला प्रारम्भ हो गया।काव्य जगत श्री विवेक जी में अनंत संभावनाओं को पल्लवित होते देख रहा है। ई-अभिव्यक्ति की ओर से यह श्री विवेक जी को प्राप्त स्नेह /प्रतिसाद को श्रृंखलाबद्ध कर अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास है। इस श्रृंखला की प्रथम कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं सुप्रतिष्ठित वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कमल जी के आशीर्वचन “विवेक की कविताएं एक मानसिक अभयारण्य बनाती है “।)
☆ पुस्तक विमर्श #1 – स्त्रियां घर लौटती हैं – “विवेक की कविताएं एक मानसिक अभयारण्य बनाती है” – श्री अरुण कमल ☆
विवेक चतुर्वेदी की कविताओं में सघन स्मृतियां हैं, भोगे हुए अनुभव हैं और विराट कल्पना है इस प्रकार वे भूत, वर्तमान और भविष्य का समाहार कर पाते हैं, और यहीं से जीवन के वैभव से संपन्न समवेत गान की कविता उत्पन्न होती है कविता एक वृंदगान है पर उसे एक ही व्यक्ति गाता है।
अपनी कविता में विवेक, भाषा और बोली बानी के निरंतर चल रहे विराट प्रीतिभोज में से गिरे हुए टुकड़े भी उठाकर माथे पर लगाते हैं उनकी कविता में बासमती के साथ सावां कोदो भी है वे बुंदेली के, अवधी के, और लोक बोलियों के शब्द ज्यों का त्यों उठा रहे हैं यहां पंक्ति की जगह पांत है, मसहरी है, कबेलू है, बिरवा है, सितोलिया है जीमना है वे भाषा के नए स्वर में बरत रहे हैं रच रहे हैं हालांकि अभी उन्हें अपनी एक निज भाषा खोजनी है और वे उस यात्रा में हैं।
वे लिखने की ऐसी प्रविधि का प्रयोग करने में सक्षम कवि हैं, जिसमें अधिक से अधिक को कम से कम में कहा जाता है।
विवेक की कविताएं एक मानसिक अभयारण्य बनाती है उनके लिए जिनका कोई नहीं है उनमें स्त्रियां भी हैं बूढ़े भी बच्चे भी,और हमारे चारों ओर फैली हुई यह धरती भी।
हिन्दी कविता के गांव में विवेक चतुर्वेदी की आमद भविष्य के लिए गहरी आश्वस्ति देती है मुझे भरोसा है कि वे यहां नंगे पांव घूमते हुए इस धरती की पवित्रता का मान रखेंगे।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ युधिष्ठिर त्रिवेदीजी के लेख संग्रह “ विचार प्रवाह ” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा । )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 26☆
☆ पुस्तक चर्चा – लेख संग्रह – विचार प्रवाह ☆
पुस्तक – विचार प्रवाह (लेख संग्रह)
लेखक –डॉ युधिष्ठिर त्रिवेदी
प्रकाशक – मो 9414101295
प्रथम संस्करण २०१९
☆ लेख संग्रह – विचार प्रवाह – डॉ युधिष्ठिर त्रिवेदी – चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆
समाचार पत्रों में अनेक लेख छपते हैं। जिनका क्षणिक महत्व होता है। किंतु, कुछ लेख ऐसे भी होते हैं जो स्थाई महत्व के होते हैं। डॉ युधिष्ठिर त्रिवेदी, शिशु रोग विशेषज्ञ है। उन्होंने समय-समय पर विभिन्न संतो से साक्षात्कार, यात्रा वृत्तांत, स्वास्थ्य एवं अन्य विविध विषयों पर बहुत से लेख लिखें जो यत्र तत्र भिन्न भिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहे। इस पुस्तक में उन्होंने ऐसे ही लेख विचार प्रवाह शीर्षक से प्रकाशित किये हैं । किताब पठनीय विचारणीय मनन करने योग्य है। पुस्तक में संग्रहित लेख स्वयं डॉ त्रिवेदी की उत्कृष्ट विचारधारा, उनके सन्तो से समागम, उनकी यात्राओं, उनकी दृष्टि की जानकारी देती है । इस पुस्तक हेतु वे बधाई के सुपात्र हैं । वे सादा जीवन उच्च विचार के पोषक डॉक्टर हैं ।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है सुश्री मंजूषा मन जी के हाइकू -तांका विधा में रचित काव्य संग्रह “मैं सागर सी (हाइकू तांका संग्रह)” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा. श्री विवेक जी ने आज जापानी कविता की इस विधा पर श्री विवेक जी ने विस्तृत चर्चा की है। हाइकू मे बौद्ध दर्शन तथा प्रकृति के प्रति सौदंर्य चेतना के प्रवाह बौद्ध धर्म और प्रकृति पर आधारित कविता की इस विधा पर अतिसुन्दर समीक्षा लिखी है। श्री विवेक जी का ह्रदय से आभार जो वे प्रति सप्ताह एक उत्कृष्ट एवं प्रसिद्ध पुस्तक की चर्चा कर हमें पढ़ने हेतु प्रेरित करते हैं। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 25☆
☆ पुस्तक चर्चा – काव्य संग्रह – मैं सागर सी (हाइकू तांका संग्रह) ☆
पुस्तक – मैं सागर सी (हाइकू तांका संग्रह)
लेखक –सुश्री मंजूषा मन
प्रकाशक –पोएट्री पुस्तक बाजार , लखनऊ
पृष्ठ – ९६
मूल्य –रु १४०.००
☆ काव्य संग्रह – मैं सागर सी (हाइकू तांका संग्रह)– सुश्री मंजूषा मन – चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆
न्यूनतम शब्दो मे अधिकमत बात कहने की दक्षता ही कविता की परिभाषा है।
जब वृक्षो के भी बोनसाई बनाये जाते है तो हाइकू शैली मे कविता को अभिव्यकित मिलती है। कविता विश्वव्यापी विधा है। मनोभावों की अभिव्यक्ति किसी एक देश या भाषा की धरोहर मात्र हो ही नही सकती। जापानी भाषा की विधा हाइकू की वैश्विक लोकप्रियता ने यह तथ्य सि़द्ध कर दिया है। भारतीय भाषाओ मे सर्वप्रथम 1919 मे गुरूवर रवीन्द्र नाथ टैगौर ने हाइकू का परिचय करवाया था। फिर 1959 मे हिंदी हाइकू की चर्चा का श्रेय अज्ञेय को जाता है। जवाहर लाल नेहरू विश्वविधालय दिल्ली के जापानी भाषा के प्राध्यापक सत्यभूषण वर्मा ने भारत मे हाइकू सृजन को वैश्विक साहित्यिक प्रतिष्ठा दिलवाई ।
जिस प्रकार गजल के मूल मे परवर दिगार के प्रति रूमानियत की अभिव्यक्ति है। ठीक उसी के समानान्तर हाइकू मे बौद्ध दर्शन तथा प्रकृति के प्रति सौदंर्य चेतना का प्रवाह रहा है। समय के साथ-साथ एवं रचनाकारो की प्रयोग धर्मिता के चलते हाइकू की भाव पक्ष की यह अनिवार्यता पीछे छूटती गई । किंतु तीन पकिंतयो मे पांच सात पांच मात्राओ का स्थूल अनुशासन आज भी हाइकू की विशेषता है।
दिल्ली के डॉ हरे राम समीप ,जनवादी रचनाकार है उनका हाइकू संग्रह चर्चित रहा है। जबलपुर से सुश्री गीता गीत ने भी हाइकू खूब लिखे हैं। अन्य अनेक हिन्दी कवियो की लम्बी सूची है जिन्होने इस विधा को अपना माध्यम बनाया। बलौदाबाजार छत्तीसगढ़ की सुश्री मंजूषा मन कविता, कहानियों के जरिये हिन्दी साहित्य जगत में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कर चुकी हैं. “मैं सागर सी” उनका पुरस्कृत हाईकू तांका संग्रह है।
उदाहरण स्वरूप इससे कुछ हाइकू देखे-
मन पे मेरे
ये जंग लगा ताला
किसने डाला
..
चला ये मन
ले यादों की बारात
माने न बात
..
हुई बंजर
उभरी हैं दरारें
मन जमीन
..
बासंती समां
मन बना पलाश
महका जहाँ.
..
इंद्र धनुष
मन उगे अनेक
रंग अनूप
मन के विभिन्न मनोभावों की सुंदर अभिव्यक्ति पुस्तक की इन नन्हीं कविताओ में परिलक्षित होती है. किताब एक बार पठनीय तो हैं ही. मंजूषा जी से सागर की अथाह गहराई से मन के और भी मोतियों की अपेक्षा हम रखते हैं.
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। यह हमारे लिए गर्व का विषय है कि – कल दिनांक 7 फ़रवरी 2020 को डॉ मुक्त जी के दो निबंध/आलेख संग्रह “परिदृश्य चिंतन के” और “हाशिये के उस पार”का विमोचन आदरणीय डॉक्टर पूर्णमल गौड़ (निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी) के मुख्य आतिथ्य में राज्य शैक्षिक अनुसंधान केंद्र गुरुग्राम में कादम्बिनी क्लब गुरुग्राम के सौजन्य से संपन्न हुआ। इस अवसर पर विशिष्ट अतिथि – डॉक्टर अशोक दिवाकर (उपकुलपति, स्टारैक्स युनिवर्सिटी गुरुग्राम), डॉक्टर मुकेश गंभीर (निदेशक रेडियो -स्टेशन,पलवल), डॉक्टर सविता चड्ढा (वरिष्ठ साहित्यकार ), डॉक्टर अमरनाथ अमर (उपनिदेशक दूरदर्शन ) एवं सुश्री सुरेखा शर्मा- संचालिका (कादम्बिनी क्लब गुरुग्राम) की उपस्थिति उल्लेखनीय रही। इसी संदर्भ में प्रस्तुत है सुश्री सुरेख शर्मा जी द्वारा लिखित पुस्तक समीक्षा। शीघ्र ही हम “हाशिये के उस पार”की पुस्तक समीक्षा /आत्मकथ्य प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे। )
☆ डॉ मुक्त जी की पुस्तकें – ‘परिदृश्य चिंतन के‘ और ‘हाशिये के उस पार‘ विमोचित – सुश्री शकुंतला मित्तल ☆
7 फरवरी 2020, शुक्रवार ,कादंबिनी क्लब द्वारा गुरूग्राम ,राज्य शैक्षिक अनुसंधान केंद्र के अन्वेषण कक्ष में, हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक और राष्ट्रपति सम्मान से सम्मानित डॉ मुक्ता शर्मा कृत दो पुस्तकों- ‘परिदृश्य चिंतन के’और ‘हाशिए के उस पार’ का लोकार्पण और परिचर्चा का आयोजन अनेक सुधि साहित्यकारों, विद्वानों और कलमकारों की उपस्थिति में सफलतापूर्वक संपन्न हुआ।
इस आयोजन में हरियाणा साहित्य अकादमी के निदेशक डॉक्टर पूरणमल गौड़ मुख्य अतिथि के रुप में शोभायमान रहे। विशिष्ट अतिथि के रुप में डाॅक्टर अशोक दिवाकर (उप कुलपति ,स्टारैक्स युनिवर्सिटी गुरूग्राम) डाॅक्टर मुकेश गम्भीर ( निदेशक, रेडियो स्टेशन पलवल ) डाक्टर सविता चड्ढा जी (वरिष्ठ साहित्यकारा ) डॉ अमरनाथ अमर जी(उपनिदेशक दूरदर्शन) जैसी महान विभूतियां मंचासीन थी।
कार्यक्रम का शुभारंभ गणमान्य अतिथियों द्वारा दीप प्रज्ज्वलन व विख्यात कवयित्री वीना अग्रवाल जी के मधुर कंठ में प्रस्तुत सरस्वती वंदना से हुआ ।इसके पश्चात वरिष्ठ पत्रकार एवं हिंदी सेवी स्वर्गीय श्री मुकुल शर्मा जी और अखिल भारतीय शिक्षाविद् श्री मोहनलाल ‘सर’ जी की स्मृति में मौन रखकर सब उपस्थित साहित्यकारों ने उनके प्रति अपनी भावपूर्ण श्रद्धांजलि समर्पित की ।कार्यक्रम का संचालन सुविख्यात कवयित्री एवं लेखिका श्रीमती वीना अग्रवाल जी ने बहुत ही मोहक और भावपूर्ण ढंग से किया।इसके बाद सभी गणमान्य अतिथियों का स्वागत किया गया। तत्पश्चात सभी साहित्यकारों और मनीषियों की उपस्थिति में अतिथियों के कर कमलों द्वारा ‘परिदृश्य चिंतन के ‘और ‘हाशिये के उस पार ‘पुस्तक का लोकार्पण हुआ। फिर सभी अतिथियों ने डाक्टर मुक्ता को भी कार्यक्रम की मुख्य केन्द्र बिन्दु मान उन्हें सम्मानित किया। इसी मंच से कादंबिनी पत्रिका के जनवरी अंक का भी विमोचन किया गया।
लेखिका डॉ मुक्ता की पुस्तक ‘परिदृश्य चिंतन के’ की विस्तृत समीक्षा कादंबिनी क्लब की संचालिका एवं वरिष्ठ लेखिका श्रीमती सुरेखा शर्मा जी ने, दिल्ली नगर निगम के प्रशासनिक अधिकारी पद से सेवानिवृत्त वरिष्ठ कवयित्री श्रीमती सरोज शर्मा जी ने और शिक्षिका मोनिका शर्मा ने की और दूसरी पुस्तक ‘हाशिये के उस पार’ की समीक्षा सुविख्यात कवयित्री एवं शिक्षिका डॉ बीना राघव जी ने प्रस्तुत की।
सभी शिक्षकों ने ‘परिदृश्य चिंतन के’ पुस्तक के लिए लेखिका को बधाई एवं शुभकामनाएँ समर्पित करते हुए उसे हर आयु वर्ग के लिए अत्यंत उपयोगी बताया। सुरेखा जी ने पुस्तक का बारीकी से समीक्षात्मक विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए कहा कि लेखिका ने इन निबंधों में अपना हृदय खोल कर रख दिया है। ये निबंध पाठकों के जीवन के ‘तमस’ को ‘आलोक’ में बदलने का मंत्र देने वाले सिद्ध होंगे। उन्होंने इन निबंधों को ध्यान समाधि की तरह जीवन की हर समस्या का समाधान देने वाला बताया।उन्होंने कहा कि इस पुस्तक में जहाँ लेखिका की सूक्ष्म, गम्भीर ,पैनी जीवन दृष्टि का परिचय मिलता है, वहीं इसमें व्यक्त उनके विचार उनकी सरलता, विनम्रता और सहज उपलब्ध व्यक्तित्व का भी परिचय देते हैं।
श्रीमती सरोज शर्मा जी ने पुस्तक के आवरण की प्रशंसा करते हुए कहा कि आवरण को देख उन्हें शरीर के वे सात चक्र अनायास स्मरण हो आए जो मनुष्य को उर्ध्वगामी बनाते हैं। उन्होंने कहा कि पुस्तक के निबंध हर वर्ग के व्यक्ति को विशेषतया युवा वर्ग की इच्छाशक्ति दृढ़ कर यह विश्वास देते है कि ‘तुम कर सकते हो’। यह पुस्तक आत्मावलोकन पर बल देते हुए कोरी शिक्षा ही नहीं देती वरन व्यावहारिक समाधान भी देती है। सरोज शर्मा जी ने श्री सुमति कुमार जैन की भेजी हुई समीक्षा का भी वाचन किया, जिसमें उन्होंने इस पुस्तक को समाजोपयोगी, सर्वजन हिताय और कल्याणकारी बताते हुए यह कहा यह चिंताओं का कोहरा हटाने में कारगर साबित होगी ।
शिक्षिका मोनिका शर्मा ने अपनी समीक्षा में इसे जीवन के उलझे धागों को सुलझाने में सहायक बताते हुए कहा कि इस पुस्तक के निबंध मिट्टी और संस्कारों से जुड़ने की प्रेरणा देते हुए प्रकृति के प्रत्येक कण से प्रेम करना सिखाते हैं। उन्होंने पुस्तक को विद्यालय और विश्वविद्यालय की शिक्षा में शामिल करने के लिए बहुत उपयोगी बताते हुए कहा कि यह पुस्तक नीव का पत्थर साबित होगी। उन्होंने पुस्तक के कुछ काव्यमय उद्धरण भी अपने मोहक अंदाज में प्रस्तुत किए।
सुविख्यात कवयित्री एवं शिक्षिका डॉ बीना राघव जी ने लेखिका डाॅक्टर मुक्ता की दूसरी पुस्तक ‘हाशिये के उस पार’ पुस्तक के लिए हृदय से बधाई और साधुवाद देते हुए समीक्षा की । यह लघुकथा संग्रह है। उन्होंने इन लघुकथाओं को संक्षिप्त और सारगर्भित बताते हुए कहा कि ये लघु कथाएँ ‘हाशिए के उस पार’ खड़े व्यक्ति की पीड़ा को दर्शाती हैं और समाधान भी प्रस्तुत करती हैं। इनमें विषय वैविध्य है। संक्षिप्त और सारगर्भित ये लघु कथाएँ अपने आप में भावों का पूरा सागर समेटे हुए हैं।बीना जी ने पुस्तक की एक लघुकथा का वाचन भी किया।
तत्पश्चात लेखिका डॉ मुक्ता ने ‘परिदृश्य चिंतन के’ पुस्तक पर अपना वक्तव्य प्रस्तुत किया। लेखिका डॉ मुक्ता ने बताया कि जब आर्थिक मंदी के दौर में कॉर्पोरेट क्षेत्र से निकाले गए युवा निराश हो आत्महत्या की ओर बढ़ रहे थे तो 2009 में उन्होंने ‘चिंता नहीं चिंतन’ पुस्तक लिख युवा वर्ग को उत्साहित करने का जो प्रयास किया था ‘परिदृश्य चिंतन के’ उसी कड़ी में उनका दूसरा प्रयास है। यह पुस्तक 43 निबंधों का संग्रह है। युवाओं को सकारात्मक सोच प्रदान कर इसके निबंध उन्हें चिंता, तनाव अवसाद से मुक्त कर उद्देश्य प्राप्ति के लिए अग्रसर करते हैं। लेखिका ने अपने निबंध में अतीत को ‘अंधकूप’ माना है और कहा कि भविष्य को तराशने और संवारने के लिए अतीत के अंधकूप से निकलना अति आवश्यक है। लेखिका ने चिंता को निकृष्ट और चिंतन को सर्वश्रेष्ठ बताते हुए व्यक्ति को अंतर्मन की शक्तियों ,प्रतिभा और एकाग्रता से अन्य विकल्प ढूँढ रास्ते बदलने की प्रेरणा दी है।रास्ते बदलो, सिद्धांत नहीं क्योंकि उनके अनुसार सिद्धांत संजीवनी और कवच बन मनुष्य की रक्षा करते हैं। भौतिक सुखों के पीछे न भागते हुए हमें जीवन मूल्यों को सर्वोपरि रखते हुए सत्यम शिवम सुंदरम को जीवन में चरितार्थ करने का प्रयास करना चाहिए। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। जीवन को उत्सव मानते हुए दृढ़ निश्चय, आत्मविश्वास, सकारात्मक सोच को उन्होंने सफलता के विभिन्न सोपान बताया है।
लेखिका के वक्तव्य ने सभागार में सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया।
तत्पश्चात श्री अशोक दिवाकर जी ने डॉक्टर मुक्ता को सार्थक और राह दिखाने वाली लेखिका कहकर संबोधित करते हुए उनकी पुस्तक के लिए उन्हें बहुत सी बधाई और शुभकामनाएँ प्रेषित की। उन्होंने कहा कि यह पुस्तक लोगों को निराशा के अंधकार से बाहर निकालने में सहायक होगी और लेखिका के स्वास्थ्य की प्रार्थना करते हुए उन्होंने कहा कि डॉ मुक्ता हमारे बीच प्रेरणा पुंज बनकर आई है और इसी तरह आगे भी वे अपने सशक्त लेखन के द्वारा समाज को रोशन करती रहेंगी।
सविता चड्ढा जी ने ‘पुस्तक परिदृश्य चिंतन के’ को ‘लाइट हाउसं (प्रकाश गृह) कहा और यह आशा व्यक्त की कि यह वाचन कैसेट के रूप में भी उपलब्ध होनी चाहिए। उन्होंने अपने जीवन के उदाहरणों के द्वारा भी पुस्तक के निबंधों की सार्थकता को पुष्ट किया और कहा कि लेखिका ने अन्य लोगों के उद्धरणों को भी निर्देशित किया है। लेखकों, खिलाड़ियों, भगवान महावीर, सिकंदर आचार्य महाप्रज्ञ और उन चिंतकों के विचारों का सारांश और उनके कथन को भी अपनी पुस्तक में पूरी तरह से आत्मसात किया है ।
डॉ अमरनाथ अमर जी ने ‘परिदृश्य चिंतन के’ पुस्तक को सरल, सहज, उदात्त, अनुकरणीय समीचीन, प्रासंगिक और प्रेरक बताया। उन्होंने कहा कि इस पुस्तक को निश्चित रूप से पाठ्यक्रम में सम्मिलित होना चाहिए क्योंकि यह प्रगति की, रोशनी की और जीवन को रोशन करने की कला सिखाते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि लेखिका ने जिस चिंतन की बात की है,उस चिंतन से हम ‘ स्व’ से ‘सर्व’ की ओर अग्रसर होते हैं।
डाक्टर मुकेश गम्भीर ने लेखिका और अपने पारिवारिक संबंध की चर्चा करते हुए कहा कि पुस्तक पढ़ने पर इस पुस्तक ने मुझे उद्वेलित कर दिया। यूनान के एक प्रसिद्ध कथन की चर्चा करते हुए उन्होंने विश्वास व्यक्त किया कि पुस्तक पढ़ने के बाद बच्चे में निश्चित रूप से अद्वितीय बनने की शक्ति आ जाएगी। उनका कहना था कि लेखिका के लेखन में उनका अनुभव टपकता है। लेखिका ने अपनी पुस्तक में विद्यार्थी काल के अनुभव को, भिवानी के राजनैतिक वातावरण को, अध्यापन के अनुभवों को निचोड़ कर रख दिया है और पाठक उस अमृत का पान करके जागृत हो जाएगा। बुध और अष्टावक्र के उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि इस पुस्तक के निबंध उनके उपदेशों की तरह पाठक को जागृत और दृष्टा बनाएंगे। समाज में हर बीज के अंदर संभावना और क्षमता होती है ।बहुत से बीज पनप नहीं पाते और उसका कारण है कि इस प्रकार की पुस्तकें बहुत कम लोग लिखते हैं लेखिका को समाज उपयोगी पुस्तक लिखने के लिए बधाई देते हुए उन्होंने इस पुस्तक को वजूद से साक्षात्कार का मेल कराने वाली मधुशाला बताया।
अंत में साहित्य अकादमी के निदेशक पूरणमल गौड़ जी ने लेखिका डॉ मुक्ता जी को बधाई देते हुए उन्हें अपना प्रेरणास्रोत बताया। उन्होंने कहा कि उन्होंने केवल पुस्तकों को ही जीवन में अपना मित्र बनाया। वे स्वेट मार्टिन की पुस्तकें पढ़ते थे और यदि उन्हें यह पुस्तक पहले ही मिल जाती तो पता नहीं वे क्या बन जाते। उन्होंने विश्वास व्यक्त किया कि इस पुस्तक को पढ़ने से विद्यार्थी में जीवन मूल्य आएंगे और वे सजग होकर उन्नत शिखर पर पहुंचेंगे। उन्होंने इसके साथ ही यह भी आशा व्यक्त की कि लेखिका भविष्य में देश भक्ति और राष्ट्र भाव को जागृत करने वाले भावों पर भी एक पुस्तक इसी प्रकार की लिखे।
डाक्टर मुक्ता ने सभी समीक्षकों को सम्मानित करते हुए अतिथियों और सभी उपस्थित साहित्यकारों का आभार व्यक्त किया।
इस लोकार्पण समारोह में साहित्य जगत की अनेक लोक प्रसिद्ध विभूतियाँ-त्रिलोक कौशिक जी,शशांक गौड़ जी,अमरलाल अमर जी,नरेन्द्र लाल जी,कृष्णा जैमिनी जी,कृष्ण लता यादव जी,डाॅक्टर स्मिता मिश्रा जी,परिणीता सिन्हा जी,मुक्ता मिश्रा ,शकुंतला मित्तल और अन्य अनेक साहित्यिक विभूतियों ने अपनी उपस्थिति से उस आयोजन को ऐतिहासिक बना दिया।
– प्रस्तुति – सुश्री शकुंतला मित्तल
☆ पुस्तक समीक्षा ☆ परिदृश्य चिन्तन के ☆ सुश्री सुरेखा शर्मा ☆
पुस्तक –परिदृश्य चिन्तन के
लेखिका-डॉ मुक्ता
पृष्ठ संख्या –152
प्रथम संस्करण- 2019
मूल्य –250/-
प्रकाशक –दीपज्योति ग्रुप ऑफ पब्लिकेशन, महावीर मार्ग, अलवर-301001.
☆ जीवन को सकारात्मकता ऊर्जा से परिपूर्ण करने वाला संग्रह ☆
सुश्री सुरेखा शर्मा
‘देखना है ग़र मेरी उड़ान को
तो ऊँचा कर दो आसमान को।’
इस विचारधारा के साथ लेखिका की लेखनी चली है एक चिंतक के रूप में।उनका मानना है कि इन्सान चिन्ता की जगह चिन्तन को यदि जीवन का मूलमंत्र स्वीकार कर ले, तो उसके जीवन में दु:ख, अवसाद व असफलता दस्तक दे ही नहीं सकते। ज़िन्दगी के दांव-पेंचों को बहुत निकटता से देखते हुए, समझते हुए, चिन्तन करते हुए लेखिका ने अपनी लेखनी के माध्यम से महापुरुषों के वचनों को, सूक्तियों को, कहावतों व अनुभवों को आधार बनाकर ‘परिदृश्य चिन्तन के’ रूप में पुस्तक रूप में लिपिबद्ध किया है। एक-एक विषय जीवन का पाठ पढ़ाता है और जीवन में उतारने वाला अर्थात् अनुकरणीय है…और जीवन को संवारने व सार्थक करने वाला है। प्रत्येक विषय समस्या का समाधान देेेकर, सहज छाप छोड़ जाता है।
‘चिन्ता नहीं चिन्तन’ उनके प्रथम निबंध-संग्रह के विषय में पद्मभूषण श्रद्धेय कवि नीरज जी के मतानुसार ‘यह पुस्तक हर घर में होनी चाहिए।’ उनके ही शब्दों मे—“आपकी कृति के एक-एक पृष्ठ को बड़े ध्यान से पढ़ा। इसका हर आलेख सही जीवन-निर्माण मेें सहायक सिद्ध हो सकता है । हर माता-पिता को इसे स्वयं पढ़कर अपने बच्चों को भी पढ़वानी चाहिए। जो इसका पठन करेेेगा, उसके जीवन में एक नई क्रांंति घटित होगी। यह पुुुस्तक समाज-हित में मील का पत्थर साबित होगी।”
इसी प्रकार अखिल भारतीय हिन्दी सेवी संस्थान, इलाहाबाद से आदरणीय श्री राजकुमार शर्माजी लिखते हैं—“प्रेरणास्पद आलेखों से परिपूर्ण इस पुस्तक को प्रारम्भ से अंत तक, रात के तीन बजे तक पढ़ता चला गया । न नींद आँखों में उतरी, न ही झपकी आई और न ही कुर्सी से उठकर कमर सीधी की। एक-एक शब्द मनो-मस्तिष्क में गहरे में पैठता चला गया ।” आप स्वयं अनुमान लगा सकते है कि उनका प्रथम निबंध-संग्रह ही नहीं, द्वितीय संग्रह भी हमारे जीवन के लिए बहुत बड़ी धरोहर होगा।”डाक्टर सुभाष रस्तोगी जी ने भी उस संग्रह को “जीवन के उच्चाशयों का रेखांकन “ संज्ञा से परिभाषित किया है।
इसी कड़ी में डा• रामेश्वर प्रसाद गुप्त (प्राचार्य ) दतिया (म•प्र•) से ने दोहों के माध्यम से पुस्तक की बहुत ही सहज ,सरल व सार्थक समीक्षा की है।बानगी देखिए —
“जीवन में आए नहीं,बाधाएँ और संत्रास।
कर्मशील बनकर रहो कभी न रहो उदास।।”
——-
“मुक्ता जी की सुकृति में ,मुक्ति हेतु विचार।
ज्ञान भक्ति सत्कर्म का चिन्तन है साकार।।”
परिदृश्य चिंतन के’ कोई कहानी संग्रह, लघुकथा संग्रह, काव्य या गीत संग्रह की तरह, मनोरंजन करने वाला संग्रह नहीं है, अपितु एक ऐसा अनूठा संग्रह है, जो ज़िंदगी की राह पर चलते हुए पग-पग पर मिलने वाले, कठिन से कठिन प्रश्नों का उपयुक्त हल ढूंढने की सामर्थ्य रख, जीवन की राह को आसान करने वाला है। इसीलिए मैथिली शरण गुप्त जी ने कहा भी है–
“केवल मनोरंजन ही कवि का न कर्म होना चाहिए।
उस में उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए।।”
महिला महाविद्यालय में प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी, पूर्व सदस्य केंद्रीय साहित्य अकादमी, साहित्य-सृजन में निरंतर रत, संवेदनाओं की गंभीरता संजोए… एक संवेदनशील सर्जक व गम्भीर चिंतक…माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित, बहुमुखी प्रतिभा की धनी आदरणीय डाॅ मुक्ता बधाई की पात्र हैं। सो! मैं उनका अभिवादन-अभिनंदन व उनके प्रति आभार व्यक्त करती हूँ… ‘परिदृश्य चिंतन के’ जैसी अद्भुत, अद्वितीय व समजोपयोगी कृति के लिए…जो डॉ मुक्ता का… सकारात्मक ऊर्जा से लबरेज़ दूसरा निबंध-संग्रह है। लेखिका एक ऐसी साहित्यकार हैं, जिन्हें पढ़कर कथा सम्राट् मुंशी प्रेमचंद के शब्द स्मृति-पटल पर स्वतः ही उभर आते हैं। उनके शब्दों में –‘साहित्यकार या कलाकार स्वभावतः प्रगतिशील होता है। उसे अपने अंदर भी और बाहर भी एक कमी-सी प्रतीत होती है। इसी कमी को पूरा करने के लिए उसकी आत्मा बेचैन रहती है। इसलिए वे कहते हैं — ‘हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें उच्च चिन्तन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौन्दर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो, जो हममें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं, क्योंकि अब और ज़्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।’ इस प्रकार ‘परिदृश्य चिंतन के ‘ निबंध-संग्रह उपरोक्त कसौटी पर खरा उतरता है ।
‘यदि सपने सच न हों, तो रास्ते बदलो, सिद्धांत नहीं,
क्योंकि पेड़ हमेशा पत्तियाँ बदलते हैं, जड़़ें नहीं…’
इन पंक्तियों के माध्यम से लेखिका ने आज की युवा- पीढ़ी को सचेत किया है…विशेषकर उन युवकों को, जो सत्य व समय की शक्ति को अनदेखा कर निरंतर पतन की राह पर अग्रसर हो रहे हैं। वे भूल जाते है कि समय बहुत बलवान् होता है, जिसे बदलते पल भर भी नहीं लगता।कई बार वक्त राह में कांटे बिछा देता है, तो कई बार कंटक भरी राह को फूलों से आच्छादित कर देता है– यह प्रेरित करने वाली पंक्तियाँ हैं, ‘रास्ते बदलो, सिद्धांत नहीं’ निबंध की।
जीवन यदि एक जैसा चलता रहे, तो भी नीरसता आ जाती है । ‘एक बार एक पक्षी डाली पर सुस्त बैठा था। कुछ देर बाद वह दूसरे वृक्ष की डाली पर जा बैठा और इस प्रकार कूदता-फाँदता बहुत दूर चला गया। इसके बाद उसे मधुर वाणी सुनाई देने लगी। उसके मन में विचार आया कि कुछ देर पहले वह एकरसता की ऊब से हताश व निराश था और जैसे ही उसने उड़ान भरी… तभी से ही उसके अन्तर्मन का कुहासा छंटने लगा। प्रकृति के परिवेश से तालमेल कर वह चहकने लगा है, मानो प्रकृति भी उसके साथ नृत्य करने लगी हो।’ – ये पंक्तियां हैं निबंध ‘परिवर्तन…आनन्द का पर्याय’ की, जिसमें सर्वोत्तम-सर्वश्रेष्ठ संदेश छिपा है। प्रकृति में परिवर्तन के माध्यम से लेखिका ने मानव जाति को प्रेरित किया है कि मानव कैसे अपना जीवन आनन्दमय बना सकते है!
निबंध व्यक्ति के चिंतन एवं भावात्मक अनुभूति का लिखित रूप होता है। निबंध आकार में लघु, सुसंगत एवं आत्मसमर्पण रचना होती है।निबंध चाहे वर्णना- त्मक हो, विचारात्मक या भावात्मक हो… लेखक उसमें अपना हृदय खोलकर रख देता है। वह अपनी अनुभूति या चिंतन को निस्संकोच पाठक के समक्ष प्रस्तुत कर देता है। लेखक और पाठक के बीच संबंध स्थापित करने वाली निबंध-विधा सबसे सरल व प्रशस्त सेतु होती है। निबंधकार उपदेशक के रूप में स्वयं को नहीं देखता… वह तो केवल अपने विचार व भावनाएँ उन्मुक्त भाव से निबंध में व्यक्त करता है। निबंध पढ़ने से पारस्परिक संवाद- वार्तालाप व बातचीत-सा आनंद मिलता है और एक सौजन्य व सौहार्दपूर्ण वातावरण का सृजन होता है। इन सभी खूबियों से परिपूर्ण हैं, भावात्मक शैली पर आधारित निबंध-संग्रह ‘परिदृश्य चिन्तन के’ निबंध।
लेखिका, कवयित्री व कहानीकार होने के साथ-साथ वे श्रेष्ठ निबंधकार भी हैं। उपरोक्त संग्रह में चालीस निबंध संग्रहित हैं, जो जीवन के विभिन्न रूपों से बखूबी परिचय करवाते हैं। निबंधों में काव्यात्मक आस्वाद के साथ-साथ गद्यात्मक कसाव भी परिलक्षित होता है। साहित्यिक, धार्मिक, सामाजिक, आध्यात्मिक निबंध भी भावात्मक हैं, जो उनके स्वस्थ जीवन-दर्शन को उद्घाटित करने में सफल सिद्ध हुए हैं। उन्होंने अपनी लेखनी के माध्यम से हिन्दी निबंध को कथ्यात्मक एवं लालित्यपूर्ण शैली से मंडित करके विलक्षण प्रतिभा का परिचय दिया है।’
बोल-अबोल’ निबंध में हेलन कीलर के कथन की सार्थकता को सिद्ध करते हुए लिखा है-‘ दुनिया की सबसे खूबसूरत चीज़ें न देखी जा सकती हैं, न ही छुईं…उन्हें बस दिल से महसूस किया जा सकता है’ सो! यह कथन अत्यंत सत्य व सार्थक है। सृष्टि का रचयिता परमात्मा व आत्मा दर्शनीय नहीं है, परंतु उनकी सत्ता को अनुभव किया जा सकता है, क्योंकि यही तत्व जीव जगत् का आधार है। इसी प्रकार इन्सान के बोल ही समाज में उसकी स्वीकार्यता- अस्वीकार्यता को निर्धारित करते हैं। रहीम जी का यह दोहा इस भाव को प्रकट करता है—
‘रहिमन जिह्वा बावरी,कर गई सरग पाताल
आपुहिं तो भीतर गई, जूती खात कपाल’
अर्थात् समय व सीमा का ख्याल रख, सोच-समझ कर बोलने की सलाह दी गयी है, इस निबंध में। ‘बोल-अबोल’ निबंध वास्तव में विचारात्मक होने के साथ-साथ प्रेरणास्पद भी है। अहं का त्याग कर, संयम व मौन रहकर, किस प्रकार संस्कृति व संस्कारों की रक्षा की जाए… यह संदेश निहित है, इस निबंध में।
‘कर्तव्य-परायणता’, ‘संयम बनाम ध्यान’ , ‘धैर्य, धर्म, विवेक’, ‘सत्संगति-सर्वश्रेष्ठ पूंजी’,’जैसी सोच वैसी क़ायनात’ ऐसे अनेक विषयों पर लेखिका ने अपनी लेखनी चलाई है । ये सामाजिक निबंध होने के साथ- साथ वैचारिक भी हैं, जिनमें लेखिका ने समाज और व्यक्ति के संबंधों का विश्लेषण कर, विकास की प्रक्रिया में सामाजिक ढांचे के बदलते हुए स्वरूप व वर्तमान परिस्थतियों में उनकी उपयोगिता-उपादेयता आदि को सिद्ध किया है। समाजिक चिंतन के संदर्भ में एक ओर नए संदर्भों में अतीत की व्याख्या का प्रयत्न है और दूसरी ओर वैज्ञानिक व प्रगतिशील सोच का उन्मेष है, जिसमें लेखिका के अंतर्मन की अत्यंत अगाध आस्था और विश्वास की झलक है। वास्तव में परमात्मा से आत्मा के मिलन की प्रक्रिया ध्यान है और आज के परिवेश में व्याप्त चिंता, तनाव, अशांति, असंतुलन, आक्रोश, ईर्ष्या आदि की लकीरों को मिटाने तथा भौतिकतावादी मनोवृत्ति के तमस को आलोक में बदलने का सरल एवं सहज उपक्रम है। आज पूरी मानव जाति अवसाद रूपी नौका में सवार होकर, ज़िंदगी का सफ़र तय कर रही है । ऐसे में ‘परिदृश्य चिन्तन के ‘ निबंध,ध्यान- समाधि के प्रेरक रूप में कार्य करने में सक्षम हैं, सिद्ध-हस्त हैं।
संघर्ष करने वाले व्यक्ति को सफल होने से कोई नहीं रोक सकता। उसे सफलता प्राप्त करने के लिए गलत राहों पर चलने की ज़रूरत नहीं पड़ती है। यह संदेश मिलता है, इस संग्रह के निबंध “संघर्ष… सर्वोत्तम जीवन शैली ” में लेखिका के विचार द्रष्टव्य हैं… ‘जीवन अविराम चलने का नाम है, राह में आने वाली दुश्वारियों के सम्मुख घुटने टेक देना, वास्तव में मृत्यु है। सो! संघर्ष ही जीवन है। संग +हर्ष अर्थात् खुशी से हर परिस्थिति को स्वीकारना और सुख- दुःख में सम स्थिति में रहना। इस प्रकार सभी निबंध-आलेख प्रेरक एवं महत्वपूर्ण हैं, जो ‘जीवन कैसे जीया जाए’ का पाठ पढ़ाते हैं। ऐसे विचारोत्तेजक आलेख लिखना, कहानी व कविता लिखने के समान सरल नहीं है, अत्यंत दुष्कर कार्य है, जिसमें जीवन के अनुभव तो हैं ही, रचनात्मक अध्ययन व वर्षों का पठन-पाठन भी निहित है, जिस आईने में उनका व्यक्तित्व स्पष्ट रूप में प्रतिबिम्बित व परिलक्षित है।
इस संग्रह के समस्त निबंध पढ़ने के बाद ऐसा लगा कि एक प्रबुद्ध साहित्यकार के समक्ष, जो भी प्रश्न आए….चाहे वे सामाजिक ,आध्यात्मिक, वैचारिक , मानसिक व दैनिक जीवन से संबंधित थे, सबका उपयुक्त समाधान-हल सूक्तियों, कहावतों व दोहों के माध्यम से, निरपेक्ष भाव से चिन्तन-मनन कर, अपनी सामर्थ्य-शक्ति व विवेक से जुटाने का प्रयास किया गया है। इन आलेखों में लेखिका ने अपनी सूक्ष्म व पैनी दृष्टि के साथ-साथ गंभीर विवेचन शक्ति का परिचय दिया है । ‘परिदृश्य चिन्तन के’ संग्रह का प्रत्येक निबंध अपनी आभा पृष्ठ -दर -पृष्ठ हमारे सम्मुख उलीचता-विकीर्ण करता हुआ, मनो-मस्तिष्क को आंदोलित कर, गहरे में पैठता चला जाता है। निबंधों में भाव-बोध की स्पष्टता व सरलता ने उसे उभारा है और भाषायी गरिमा ने धार दी है, जिन्हें पढ़कर पाठक एक ओर वर्तमान की पीड़ा, घुटन और जीवन के प्रति उदासीनता, असंतुष्टता व असंतुलन के बीच फैले अंधकार से मुक्त होगा, वहीं दूसरी ओर यह संग्रह जीवन के प्रति सार्थकता के बीज भी अंकुरित करेगा।
किसी भी व्यक्ति को उसके समस्त परिवेश में जानने का पूर्ण और सर्वोच्च माध्यम होता है…उसके रचनात्मक लेखन का पठन-पाठन। इस दृष्टि से ‘परिदृश्य चिन्तन के’ निबंध डाक्टर मुक्ता के व्यक्तित्व के खुले पृष्ठ हैं, जिनका पठन व चिंतन-मनन कर, हम अपने जीवन को सकारात्मक ऊर्जा के साथ, शाश्वत आनंद भी प्राप्त कर सकते हैं। इस संग्रह को विद्यालयों व महाविद्यालयों के पाठ्यक्रम में स्थान उपलब्ध हो…ऐसा हमारा प्रयास होना चाहिए।
हिन्दी साहित्य जगत् को समृद्ध करने वाली आदरणीया मुक्ता जी स्वस्थ एवं दीर्घायु हों और साहित्य साधना-रत रहें, यही ईश्वर से प्रार्थना है। इस संग्रह को हिन्दी साहित्य जगत् खुले हृदय से स्वीकार कर, लाभान्वित होगा। इन्हीं शुभकामनाओं के साथ लेखिका को पुनः बधाई व शुभाशीष।
सुश्री सुरेखा शर्मा(साहित्यकार)
सलाहकार सदस्या, हिन्दुस्तानी भाषा अकादमी।
पूर्व हिन्दी सलाहकार सदस्या, नीति आयोग (भारत सरकार )
# 498/9-ए, सेक्टर द्वितीय तल, नजदीक ई•एस•आई• अस्पताल, गुरुग्राम…122001.
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है श्री कुशलेंद्र श्रीवास्तव जी के नाटक “सरयू के तट पर ” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा. श्री विवेक जी ने आज के सन्दर्भ में धार्मिक तथ्यों पर आधारित नाटक पर लिखित पुस्तक की अतिसुन्दर समीक्षा लिखी है। श्री विवेक जी का ह्रदय से आभार जो वे प्रति सप्ताह एक उत्कृष्ट एवं प्रसिद्ध पुस्तक की चर्चा कर हमें पढ़ने हेतु प्रेरित करते हैं। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 24☆
☆ पुस्तक चर्चा – नाटक – सरयू के तट पर ☆
पुस्तक – सरयू के तट पर (भरत मिलाप का नाट्य रूपांतरण)
लेखक –श्री कुशलेंद्र श्रीवास्तव
प्रकाशक – सुभांजली प्रकाशन, कानपुर
आई एस बी एन ९७८९३८३५३८५८४
मूल्य ३०० रु प्रथम संस्करण २०१९
☆ नाटक – सरयू के तट पर – श्री कुशलेंद्र श्रीवास्तव– चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆
भरत मिलाप का नाट्य रूपांतरण
वर्तमान समय में नाटक लेखन अपेक्षाकृत बहुत कम हो रहा है. सेल्यूलर पर्दे के कारण नाटक के दर्शक भी कम होते गये हैं. यद्यपि नाटक विधा अपनी सशक्त अभिव्यक्ति की क्षमता के चलते कला जगत में पूरी ताकत के साथ उपस्थित है. आज भी स्टेज से अनेक फिल्मी कलाकारो का जन्म होता दिखता है. ऐसे समय में नये नाटकों के लेखन की आवश्यकता निर्विवाद है. वही भाव अन्य विधाओ की बनिस्पत जब नाटक के माध्यम से दर्शक तक पहुंचते हैं तो उनका प्रभाव दीर्घ कालिक होता है, क्योंकि नाटक के जरिये दृश्य व श्रवण संप्रेषण साथ साथ हो पाता है.
कुशलेंद्र श्रीवास्तव साहित्य जगत का जाना पहचाना नाम है. उम्र के साठवें दशक की आयु में ही कविताओ, कहानियों, व्यंग्य और नाटक की लगभग २५ स्वतंत्र किताबें प्रकाशित होना बड़ी बात है. उन्हें अनेक सम्मान मिल चुके हैं.
भरत मिलाप का प्रसंग राम चरित मानस का अत्यंत मनोहारी हिस्सा है. वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कथा को प्रासंगिक बनाते हुये कुशलेंद्र जी ने बड़ी कुशलता से यह नाट्य रूपांतर किया है. जब हम पुस्तक पढ़ते हैं तो केवल संवाद पठन से अभिव्यक्त विषय का आनंद नही लिया जा सकता, प्रत्येक दृश्य की पूर्व पीठिका को पढ़ना और समझना कथा का आनंद बढ़ाता है. नाटक की दृष्टि से यह एक लम्बा नाटक है. जब इसका मंचन हो, निर्देश तथा पात्रों से चर्चा हो, तभी किताब के नाटकीय पक्ष पर बेहतर टिप्पणी की जा सकती है.सुभाष चंद्रा जी ने किताब की भूमिका में ठीक ही लिखा है कि इस नाटक से भरत के चरित्र का दर्शन होता है. काल्पनिक दर्शक बनकर किताब पढ़ने के बाद मैं यही कहूंगा कि बहुत उत्तम संवाद रचे हैं लेखक ने. स्वयं को राम के युग में प्रतिस्थापित कर आज के परिवेश को जोड़कर अपने मन की उहापोह को भी पात्रों के जरिये कुशलता से अभिव्यक्त किया है कुशलेंद्र जी ने. उनसे रामकथा पर और भी नाटको की उम्मीद करता हूं. शुभकामना कि जल्दी ही कोई नाट्य दल इस नाटक का मंचन करे.
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। विगत 29 जनवरी 2020 को नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक “स्त्री -पुरुष “ प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी दो पुस्तकों गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। नवीन पुस्तक “स्त्री-पुरुष “रिश्तों की दैहिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक पहलुओं की विश्लेषणात्मक व्याख्या आधुनिक संदर्भ में प्रस्तुत करती है। प्रस्तुत है पुस्तक पर आत्मकथ्य श्री सुरेश पटवा जी के शब्दों में । )
☆ पुस्तक समीक्षा / आत्मकथ्य – स्त्री पुरुष (रिश्तों की दैहिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक रहस्य)☆
भारतीय दर्शन शास्त्र में संसारी के लिए वर्णित चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में से काम और अर्थ प्रबल प्रेरणा हैं, परंतु गम्भीरता पूर्वक ध्यान से आकलन करो तो असल प्रेरणा काम है। काम को यहाँ केवल यौन (सेक्स) के रूप में न लेकर उसे मनुष्य के इन्द्रिय, भावुक और मानसिक सुख के सभी सोपान में ग्रहण किया जाना चाहिए। ज्ञान-इंद्रियों यथा आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा से मिलने वाले आभासी सुख, कर्मेंद्रियों यथा हाथ, पैर, मुँह, मलत्याग और जनन इन्द्रिय के कायिक सुख, मनोरंजन, आराम और विलासितापूर्ण सुखद अनुभूति के सभी अंग काम के वृहद अर्थ में समाहित हैं। इन अवयवों के कारण ही मनुष्य का समाज से जुड़ाव होता है, रिश्ते बनते हैं, अन्तर-वैयक्तिक सम्बंधों के आयाम खुलते हैं, वह एक सामाजिक प्राणी बनकर जीवन व्यतीत करता है। दाम्पत्य सबसे संवेदनशील रिश्ता है। सबसे महत्वपूर्ण बात है कि दाम्पत्य के रिश्ते का आधार काम होता है परंतु सिर्फ़ काम ही नहीं होता और भी बहुत कुछ होता है, यहाँ तक कि जीवन में सबकुछ स्त्री-पुरूष के दाम्पत्य सम्बन्धों की गुणवत्ता याने रिश्ते की मधुरता या मलिनता के आसपास घूमता है।
अर्थ कामना को पूरा करने का साधन है लेकिन अब साधन के संचय में मनुष्य इतना व्यस्त हो रहा है कि उसे साधन ही साध्य लगने लगा है। काम प्रबल दैहिक धर्म होते हुए भी पीछे खिसक कर अर्थ की तुला में तौलने वाली वस्तु बनता जा रहा है या अपनी स्वाभाविकता खो कर मशीनी होता जा रहा है। वह हमारी साँस से जुड़ा होकर भी निरंतर दमन या अत्यधिक दोहन के कारण कई बार अजीब सी विकृति के साथ उद्घाटित हो रहा या उच्छंखलित हो विरूपता को प्राप्त हो रहा है। काम शारीरिक विज्ञान का एक अत्यंत महत्वपूर्ण अंग होता है लेकिन उसके वास्तविक स्वरूप पर एक धुँध सी छाई रहती है, उसे छुपा कर या दबा कर रखने के कारण प्रकट नहीं होने दिया जा रहा है।
यह एक बड़ी अजीबोग़रीब बात है कि कतिपय निहित स्वार्थ ने विज्ञान का सामना न कर पाने के कारण विज्ञान के सामने भगवान को खड़ा कर दिया है जबकि विज्ञान भगवान की बनाई दुनिया के रहस्य खोलने की तपस्या के समान है। विज्ञान ने मनुष्य जाति द्वारा ओढ़ी गई नक़ली श्रेष्ठता के कई भ्रमों को तोड़ा है। पहला भ्रम उस समय टूटा जब कोपरनिकस ने कहा था कि पृथ्वी ब्रह्मांड का केंद्र नहीं है, बल्कि कल्पनातीत अन्तरिक्ष में एक छोटा बिंदु मात्र है और गेलीलिओ ने कहा कि सूर्य आकाश गंगा का केंद्र है पृथ्वी नहीं। दूसरा भ्रम तब टूटा जब डारविन ने जैविकीय गवेषणा से मनुष्य की वह विशेषता छीन ली कि उसका निर्माण ईश्वर ने किसी विशेष तरह से किया है, उसे पशु-जगत से विकसित हुआ बताया और कहा कि उसमें मौजूद पशु प्रकृति को पूरी तरह उन्मूलित नहीं किया जा सकता है याने मनुष्य किसी न किसी स्तर पर एकांश में सदैव पशु होता है। मनुष्य का तीसरा भ्रम उस समय टूटना शुरू हुआ जब फ्रायड ने मनोविश्लेशण से यह सिद्ध करना शुरू किया कि तुम अपने स्वयं के स्वामी नहीं हो, बल्कि तुम्हें अपने चेतन की थोड़ी सी जानकारी से संतुष्ट होना पड़ता है जबकि जो कुछ तुम्हारे अंदर अचेतन रूप से चल रहा है उसके बारे में तुम्हें बहुत ही कम जानकारी है। तुम्हें बालिग़ होने तक विकसित तुम्हारी मानसिक शक्तियाँ चला रहीं हैं न कि तुम अपनी मानसिक शक्तियों के परिचालक हो।
अन्तर-वैयक्तिक सम्बन्धों में स्त्री-पुरुष का सम्बंध सबसे मधुर लेकिन सबसे दुरूह होता है। स्त्री-पुरुष की मित्रता का रिश्ता मर्यादाओं के वशीभूत लम्बे समय तक मधुर बना रह सकता है जैसे भारत में कृष्ण-राधा या कृष्ण-द्रौपदी और यूरोप में सार्त्र-सोमेन लेकिन यह सम्बंध जैसे ही पति-पत्नी के रूप में बदलता है तो अधिकारों-कर्तव्यों का एक अजीब सा घेरा उनके आसपास बनने लगता है, जो प्रायः अस्पष्ट एवं अपरिभाषित होते हैं। दोनों पक्षों की अपनी-अपनी आदतें, कल्पनाएँ, मनोवेग, भावावेश, दलीलें और मान्यताएँ स्थिर होतीं हैं जिन्हें वे बदलने या छोड़ने को तैयार नहीं हैं और दूसरा उन्हें बदलने पर आमादा है। यहीं पुरुष-महिला में टकराव के बिंदु छुपे होते हैं।
भारतीय समाज कमोबेश पूरी तरह पश्चिमी जीवन जीने के तरीक़े अपना चुका है। भारत का सामाजिक विकास पश्चिमी देशों की तुलना में कम से कम पचास से सौ साल पीछे चलता रहा था यह अंतर संचार क्रांति और बाज़ारवादी प्रवृत्ति फलने-फूलने के फलस्वरूप घट रहा है। पश्चिम में औद्योगिक क्रांति के बाद सामाजिक बदलाव की आधुनिक विचारधारा विकसित हुई थी, उसके बाद रेल व परिवहन क्रांति, कम्प्यूटर क्रांति और मोबाईल क्रांति ने आधुनिक जीवन शैली को एक नए साँचे मे ढाल दिया है। जिसने खान-पान, रहन-सहन और वैवाहिक सम्बंधों को क्रांतिकारी रूप से बदलकर रख दिया। भारतीय समाज ने भी वे तरीक़े तेज़ी से अपनाए हैं। पश्चिम के फ़ूड-पिरामिड, रहन-सहन, स्वास्थ्य मानक, अर्थ-तंत्र, सम्पत्ति-निर्माण हमने अपना लिया है तो समाजिक टूटन के मानक भी हमारे अंदर सहज ही आ गए हैं। युवाओं में मधुमेह के रोग और हृदयाघात से मौत के मामलों और तलाक़ व परस्पर वैमनस्य के मामलों में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। पश्चिम में जीवन शैली के बदलाव के साथ मनोवैज्ञानिक खोजों और अन्तर-वैयक्तिक सम्बन्धित खोजों ने रिश्तों को एक नई दिशा दी है जिसे हमारे महानगरीय समाज ने कुछ हद तक सीखा और अपनाया है परंतु अधिकांश भारतीय समाज उनसे अछूता है। इसलिए इस विषय को मौलिक रूप से हिंदी मे भारतीय जनमानस को उपलब्ध कराना इस पुस्तक का मुख्य उद्देश्य है।
यह सार्वभौमिक सत्य है कि सुखी समाज का आधार पारिवारिक सामंजस्य और परिवार में सुख का आधार रिश्ते की मधुरता होती है। कोई भी रिश्ता जब टूटकर बिखरता है तो मनुष्य के अंदर की पूरी कायनात टूट के रोती है। टूटन की सिसकियों में जीवन का संगीत एक भयानक रौरव में बदल जाता है। अवसाद-निराशा-कुंठा के अंधेरे कुएँ में छुपे ज़हरीले नाग फ़न फैलाये लपलपाती जीभों से मन-कामना और स्वाभाविक लालसा को डँसकर हृदय को बियाबांन कँटीला रेगिस्तान बना कर छोड़ते हैं, जहाँ नफ़रत और घृणा की कँटीली झाड़ियों में प्रेम, स्नेह, ममता का दामन उलझते-फटते रहता है, विद्वेष के अलावा कुछ नहीं पनपता। इनसे बचने या निजात पाने का रास्ता है कि ऐसी परिस्थिति के सतही पहलू की बजाय उनके गम्भीर मनोवैज्ञानिक पहलू पर ध्यान दिया जाए। मनुष्य प्रकटत: चेतन बुद्धि से विचार करता है लेकिन उसके द्वारा की जाने वाली क्रिया-प्रतिक्रिया का निर्णय उसका अचेतन-मन करता है। गुत्थियों के रहस्य उसकी अचेतन गुफा में छुपे होते हैं। वहीं से मानवीय व्यवहार चेतन धरातल पर आकर तूफ़ान की शक्ल लेता है जैसे समुद्री तूफ़ान जल की गहराई में पनपता है और किनारों को तहस-नहस कर देता है। समुद्र की सतह पर मचलती लहरें उसका चेतन स्वरुप है उनमें रवानगी है, उसकी अतल गहराई में अचेतन हलचल है जहाँ समुद्री तूफ़ान पलते हैं। यह दावा किया जाता है कि योगी पुरुष या महिला चेतन-अचेतन का भेद समाप्त करके शांतचित्त हो जाते हैं। महिला-पुरुष के दो विपरीत मन जब एक भूमिका निबाह के दायरे में आते हैं तो दैहिक सुख से अलहदा मानसिक व मनोवैज्ञानिक द्वन्द की भूमि तैयार होती है। जो दोनों को कभी न ख़त्म होने वाले संघर्ष के गहरे कुएँ में धकेल देती है। यह किताब इन्हीं गुत्थियों को समझने की कोशिश है। इसमें मनोविज्ञान के गूढ़ सिद्धांतों के बजाय हमारे जीवन पर प्रभाव डालने वाले उनके व्यवहारिक पहलुओं की व्याख्या की गई है। यह मनोविज्ञान का ग्रंथ नहीं अपितु व्यवहार विज्ञान के आधार पर रिश्तों को तराशने की कुंजी हो सकती है।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है श्री राम नगीना मौर्यजी के कथा संग्रह “ सॉफ्ट कार्नर ” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा. श्री विवेक जी ने दाम्पत्य की कहानियों पर आधारित पुस्तक की अतिसुन्दर समीक्षा लिखी है। श्री विवेक जी का ह्रदय से आभार जो वे प्रति सप्ताह एक उत्कृष्ट एवं प्रसिद्ध पुस्तक की चर्चा कर हमें पढ़ने हेतु प्रेरित करते हैं। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 23☆
☆ पुस्तक चर्चा – कथा संग्रह – सॉफ्ट कार्नर ☆
पुस्तक – सॉफ्ट कार्नर
लेखिका –श्री राम नगीना मौर्य
☆ कथा संग्रह – सॉफ्ट कॉर्नर – श्री राम नगीना मौर्य – चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆
दांपत्य की कहानियां
सुपरिचित कथाकार राम नगीना मौर्य का यह तीसरा कहानी संग्रह है। इसमें ग्यारह कहानियां हैं। इनके दो कहानी संग्रह आखिरी गेंद और आप कैमरे की निगाह में हैं चर्चित हो चुके हैं। मौर्य अपनी कहानियों में अक्सर छोटे मुद्दे उठाते हैं। यहां भी मुद्दे छोटे हैं पर इनमें आमजन की जिंदगी बसी हुई है। कहानियों में आम आदमी के जीवन की विविध समस्याओं, स्थितियों और वर्तमान पीढ़ी में आई नवीन चेतना के इस तरह बारीक ब्योरे मिलते हैं कि चरित्रों में जीवतंता पूरी गंभीरता से लक्षित होती है। प्रायः सभी कहानियों में शहरी मध्यवर्गीय जीवन के अनुभव और विचारधारा यूं रूपायित हुए हैं कि ये हमारे जीवन का हिस्सा लगते हैं।
अधिकांश कहानियों में दांपत्य प्रमुखता से दर्ज है। जिन कहानियों के कथानक सामाजिक हित साधने वाले हैं, वहां भी दांपत्य अपने महत्व और उपयोगिता के साथ मौजूद है। दंपती अपने उद्देश्य, उम्मीद और उसूलों को उत्तम वैज्ञानिक विश्लेषण और विवेकपूर्ण तर्क के साथ स्थापित करते हैं। इसलिए उनकी आपसी नोक-झोंक निरर्थक नहीं लगती। पति-पत्नी तमाम अभाव, चिंताओं, तनाव और दबावों के बावजूद प्रसिद्ध दार्शनिक रूसो के कथन ‘हम स्वतंत्र पैदा जरूर हुए हैं, पर हर जगह जंजीरों से जकड़े हुए हैं’ को स्वीकार करते हुए दायित्व और अधिकार के मध्य अच्छा संतुलन रखते हैं।
शीर्षक कहानी ‘सॉफ्ट कॉर्नर’ में एक-दूसरे के विवाह पूर्व के प्रेम प्रसंगों को जानने-समझने के लिए कूटनीति नहीं बनाई गई है, बल्कि स्वाभाविक जिज्ञासा की तरह जानकारी ली गई है। इन कहानियों के दंपती उस आर्थिक वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं जिन्हें एक निश्चित आय में गुजर-बसर करना है। घर में पत्नी आडंबर से परे सरल-सा व्यवहार करती है। वह कहती है, “अभी शाम को चाय बनाई थी। अधिक बन गई है। आपके लिए रख दी थी। अब गरम कर दिया है।
इस मितव्ययता से एक किस्म का सदाचार तैयार होता है जो व्यय-अपव्यय के साथ नैतिक-अनैतिक में भी फर्क करना सिखा देता है। इसीलिए कहानी ‘बेकार कुछ भी नहीं होता’ के माधव बाबू सड़क के किनारे पड़े दो स्क्रू पेंच को उठा लेते हैं। दफ्तर में उनके चैंबर की मेज के ड्राअर के हैंडल के जो दो पेंच निकल गए हैं, इन दो पेंच को वहां लगा लेंगे।
वस्तुतः इन कहानियों के पात्र उन साधारण लोगों के बेहद करीब हैं जो रोजमर्रा की खींचतान से भले ही उद्विग्न हो जाएं, पर उनके अंतस में प्राणी मात्र के लिए एक सॉंफ्ट कॉंर्नर होता है। वहीं से वे ताकत पाते हैं। कहानी ‘आखिरी चिट्ठी’ के नायक को कुछ ढूंढ़ते हुए स्कूली दिनों के मित्र की चिट्ठी मिलती है। उसे लगता है जैसे मित्र हरदम उसके आस-पास मौजूद रहता आया है। कहानी ‘संकल्प’ का नायक अपनी अपव्यय की आदत खत्म करने के लिए संकल्प लेता है कि आज एक भी पैसा खर्च नहीं करेगा। लेकिन दफ्तर से घर लौटते हुए एक किशोर उसके जूतों में पालिश करने का आग्रह करता है कि वह सुबह से भूखा है।
नायक उसे उपेक्षित करते हुए स्कूटर स्टार्ट कर घर की जानिब चल देता है। लेकिन उसके भीतर का सॉफ्ट कॉर्नर उसे अधीर करता है कि किशोर भीख नहीं, काम मांग रहा था। तब वह लौटकर आता है और किशोर को कुछ पैसे देने की कोशिश करता है, पर वह किशोर भीख नहीं, जूते पॉलिश कर मेहनताना लेता है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि ये कहानियां बड़े आग्रह और कोमलता से लिखी गई हैं।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है श्री लालित्य ललित जी के व्यंग्य संग्रह “पांडेय जी और जिंदगीनामा” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा. श्री विवेक जी ने पुस्तक की बेबाक आलोचनात्मक समीक्षा लिखी है। श्री विवेक जी का ह्रदय से आभार जो वे प्रति सप्ताह एक उत्कृष्ट एवं प्रसिद्ध पुस्तक की चर्चा कर हमें पढ़ने हेतु प्रेरित करते हैं। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 22☆
☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य संग्रह – पांडेय जी और जिंदगीनामा ☆
पुस्तक –पांडेय जी और जिंदगीनामा
लेखिका –श्री लालित्य ललित
प्रकाशक – भावना प्रकाशन नई दिल्ली
आई एस बी एन – ९७८९३८३६२५५३६
मूल्य – 220 रु प्रथम संस्करण 2019
☆ व्यंग्य संग्रह – पांडेय जी और जिंदगीनामा – श्री लालित्य ललित – चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆
मूलतः पांडेय जी की आपबीती, जगबीती पर केंद्रित कुछ कुछ निबंध टाईप के संस्मरण हैं। “पांडेय जी और जिंदगीनामा” में, जिनमें बीच बीच में कुछ व्यंग्य के पंच मिलते हैं।
लालित्य जी पहले कवि के रूप में ३५ पुस्तको के माध्यम से साहित्य जगत में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा चुके हैं. फिर व्यंग्य की मांग और परिवेश के प्रभाव में वे धुंआधार व्यंग्य लेखन करते सोशल मीडीया से लेकर पुस्तक प्रकाशन के क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कर रहे हैं. इसी वर्ष उनकी १८ व्यंग्य की पुस्तकें छपीं. यह तथ्य प्रकाशको से उनके संबंध रेखांकित करता है. जब बिना ब्रेक इतना सारा लेखन हो तो सब स्तरीय ही हो यह संभव नही. चूंकि पुस्तक को व्यंग्य संग्रह के रूप में प्रस्तुत किया गया है, मुझे लगता है पाठक,आलोचक, साहित्य जगत समय के साथ व्यंग्य की कसौटी पर स्वयं ही सार गर्भित स्वीकार कर लेगें या अस्वीकार करेंगे. मैंने जो पाया वह यह कि २९ लम्बे संस्मरण नुमा लेखो का संग्रह है पांडेय जी और जिंदगीनामा. लेखों की भाषा प्रवाहमान है जैसे आंखों देखा रिपोर्ताज हो रोजमर्रा का पाण्डेय जी का सह-पात्रो के साथ वर्णन की यह शैली ही लालित्य जी की मौलिकता है.
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकते हैं। आज लीक से हटकर पुस्तक चर्चा का विषय चुना है। मैं कुछ और लिखूं इसके पूर्व कर्त्तव्यस्वरूप कुछ लिखना चाहूंगा। हमने मातृ पितृ भक्त श्रवण कुमार की कहानियां पढ़ीं हैं । किन्तु, यह अतिशयोक्ति कदापि नहीं होगी और मैंने स्वयं श्री विवेक जी के व्यवहार -कर्म में श्रवण कुमार सी मातृ-पितृ भक्ति की छवि एवं संस्कार अनुभव किया है । हमारे विशेष अनुरोध पर उन्होंने आज पिताश्री प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध के जिल्द बंद शब्दों की पुस्तक यात्रा हमारे पाठकों के साथ साझा किया है । उनका रचना कर्म निरन्तर जारी है। जो हमारी पूंजी है। हमारी ईश्वर से प्रार्थना है यह सतत जारी रहे। वे हमारे प्रेरणा स्रोत हैं। श्री विवेक जी का हृदय से आभार जो वे प्रति सप्ताह एक उत्कृष्ट एवं प्रसिद्ध पुस्तक की चर्चा कर हमें पढ़ने हेतु प्रेरित करते हैं। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 21 ☆
☆ पुस्तक चर्चा – पिताश्री प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध के जिल्द बंद शब्दों की पुस्तक यात्रा ☆
1948 चाँद, सरस्वती जैसी तत्कालीन साहित्यिक पत्रिकाओं में कविताओं के प्रकाशन से प्रारंभ उनकी शब्द यात्रा के प्रवाह के पड़ाव हैं उनकी ये किताबें।
पहले पुस्तक प्रकाशन केंद्र दिल्ली की जगह आगरा और इलाहाबाद हुआ करता था। आगरा का प्रगति प्रकाशन साहित्यिक किताबों के लिए बहुत प्रसिद्ध था। स्वर्गीय परदेसी जी द्वारा साहित्यकार कोष भी छापा गया था, जिसमें पिताजी का विस्तृत परिचय छपा है।भारत चीन व पाकिस्तान युद्धो के समय जय जवान जय किसान, उद्गम, सदाबहार गुलाब, गर्जना, युग ध्वनि आदि प्रगति प्रकाशन की किताबों में पिताजी की रचनाएं प्रकाशित हैं। कुछ किताबें उन्हें समर्पित की गई हैं, कुछ का उन्होंने सम्पादन किया है। ये सामूहिक संग्रह हैं।
पिताजी शिक्षा विभाग में प्राचार्य, फिर संयुक्त संचालक, शिक्षा महाविद्यालय में प्राध्यापक, केंद्रीय विद्यालय जबलपुर तथा जूनियर कालेज सरायपाली के संस्थापक प्राचार्य रहे हैं। आशय यह कि उन्होंने न जाने कितनी ही पुस्तकें पुस्तकालयों के लिए खरीदी, पर जोड़-तोड़ और गुणा-भाग से अनभिज्ञ सिद्धांतवादी पिताश्री की रचनाये पुस्तक रूप में उनकी सेवानिवृत्ति के बाद मैंने ही प्रस्तुत कीं। उन्हें किताबें छपवाने, विमोचन समारोह करने, सम्मान वगैरह में कभी दिलचस्पी नहीं रही।
मेघदूतम का हिंदी छंदबद्ध पद्यानुवाद उनका बहुत पुराना काम था, जो पहली पुस्तक के रूप में 1988 में आया। बाद में मांग पर उसका नया संस्करण भी पुनर्मुद्रित हुआ।
फिर ईशाराधन आई, जिसमे उनकी रचित मधुर प्रार्थनाये हैं। वे लिखते हैं
नील नभ तारा ग्रहों का अकल्पित विस्तार है
है बड़ा आश्चर्य, हर एक पिण्ड बे आधार है
है नहीं कुछ भी जिसे सब लोग कहते हैं गगन
धूल कण निर्मित भरी जल से सुहानी है धरा
पेड़-पौधे जीव जड़ जीवन विविधता से भरा
किंतु सब के साथ सीमा और है जीवन मरण
सूक्ष्म तम परमाणु अद्भुत शक्ति का आगार है
हृदय की धड़कन से भड़ भड़ सृजित संसार है
जीव क्या यह विश्व क्यों सब कठिन चिंतन मनन
कारगिल युद्व के समय मण्डला के स्टेडियम में गणतंत्र दिवस के भव्य समारोह में उल्लेखनीय रूप से वतन को नमन का विमोचन हुआ।
पिताश्री की रचनाओ का मूल स्वर देशभक्ति, आध्यात्मिक्ता, बच्चों के लिए शिक्षा प्रद गीत, तात्कालिक घटनाओं पर काव्यमय सन्देश, संस्कृत से हिंदी काव्य अनुवाद है।
अनुगुंजन का प्रकाशन वर्ष 2000 में हुआ, जिसके विषय में सागर विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति श्री शिवकुमार श्रीवास्तव ने लिखते हुए पिताजी की ही रचना उधृत की है
होते हैं मधुरतम गीत वही
जो मन की व्यथा सुनाते हैं
जो सरल शब्द संकेतों से
अंतर मन को छू जाते हैं
वसुधा के संपादक डॉक्टर कमला प्रसाद ने उनके गीतों के विषय में लिखा “वे सामाजिक अराजकता के विरोधी हैं उनकी कविताओं में सरलता सरसता गीता तथा दिशा बोध बहुत साफ दिखाई देते हैं,विचारों की दृढ़ता तथा भावों की स्पष्टता के लिए उनके गीत हिंदी साहित्य में उदाहरण है”
बाल साहित्य की उनकी उल्लेखनीय किताबें हैं बाल गीतिका,बाल कौमुदी, सुमन साधिका, चारु चंद्रिका,कर्मभूमि के लिए बलिदान, जनसेवा,अंधा और लंगड़ा, नैतिक कथाएं, आदर्श भाषण कला इत्यादि ये पुस्तकें विभिन्न पुस्तकालयों में खूब खरीदी गईं।
मानस के मोती तथा मानस मंथन रामचरितमानस पर उनके लेखों के संग्रह हैं। मार्गदर्शक चिंतन वैचारिक दिशा प्रदान करते आलेख हैं।
भगवत गीता के प्रत्येक श्लोक का हिंदी पद्यानुवाद अर्थ सहित दो संस्करण छप चुका है। अनेक अखबार इसे धारावाहिक छाप रहे हैं। यह किताब लगातार बहुत डिमांड में है। ( ई- अभिव्यक्ति में सतत रूप से प्रतिदिन एक श्लोक का पद्यानुवाद तथा हिंदी / अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित होता है )
तीसरा संस्करण तैयार है जिसमे अंग्रेजी में भी अर्थ दिया गया है। प्रकाशक संपर्क कर सकते हैं।
रघुवंश का भी सम्पूर्ण हिंदी काव्य अनुवाद प्रकाशित है। 1900 श्लोकों का वृहद अनुवाद कार्य उन्होनें मनोरम रूप में मूल काव्य की भावना की रक्षा करते हुए किया। यह 2014 में छपा।
साहित्य अकादमी के तत्कालीन निदेशक प्रोफेसर त्रिभुवन नाथ शुक्ल ने पिताजी की पुस्तक स्वयं प्रभा जिसका प्रकाशन सितंबर 2014 में हुआ के विषय में लिखा है
श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव के गीत कविता को प्यार , स्नेह , संवेदना और सुंदरता के सीमित आंचल से बाहर निकालते हुए देशभक्ति के विस्तृत पटल तक ले जाती हैं। रचनाओं को पढ़ते ही मन देश प्रेम के सागर में हिलोरे लेने लगता है। आज सुसंस्कृत भारत की संस्कार और संस्कृति की समझ कम हो रही है वहीं ऐसे कठिन समय में विदग्ध जी की रचनाएं महासृजन की बेला में शब्दों और भाषा से शिल्पित, सराहनीय, उद्देश्य में सफल है।
फरवरी 2015 में अंतर्ध्वनि आई। म प्र राष्ट्र भाषा प्रचार समिति भोपाल के मंत्री संचालक श्री कैलाश चन्द्र पन्त जी ने इसकी भूमिका में लिखा है ” उनकी संवेदना का विस्तार व्यापक है, कविताओं का शिल्प द्विवेदी युगीन है। वे उनकी सरस्वती वंदना से पंक्तियों को उधृत करते हैं “
हो रही घर-घर निरंतर आज धन की साधना
स्वार्थ के चंदन अगरु से अर्चना आराधना
आत्मवंचित मन सशंकित विश्व बहुत उदास है
चेतना गीत की जगा मां, स्वरों को झंकार दे
भारतीय दर्शन को सरल शब्दों में व्याख्यायित करते हुए एक अन्य कविता में विदग्ध जी लिखते हैं,
प्रकृति में है चेतना, हर एक कण सप्राण है
इसी से कहते कि कण कण में बसा भगवान है
चेतना है ऊर्जा , एक शक्ति जो अदृश्य है
है बिना आकार पर, अनुभूतियों में दृश्य है
2018 में अनुभूति, फिर हाल ही 2019 में शब्दधारा पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं।
2018 दिसम्बर का ट्रू मीडिया विशेषांक पिताजी पर केंद्रित अंक था।
उनकी ढेरो कविताये डिजिटल मोड में मेरे कम्प्यूटर पर हैं जिनकी सहज ही दस पुस्तकें तो बन ही सकती हैं। प्रकाशक मित्रों का स्वागत है।
उनका रचना कर्म निरन्तर जारी है। जो हमारी पूंजी है।