सामान्यतः किताबें लेखक के मनोभावो की अभिव्यक्ति स्वरूप लिखी जाती हैं, जिन्हें वह सार्वजनिक करते हुये सहेजना चाहता है जिससे समाज उनसे लम्बे समय तक अनुप्राणित होता रह सके. पर्यावरण पर अनेक विद्वानो ने समय समय पर चिंता जताई है. मैंने भी मेरी किताब जल जंगल और जमीन भी इसी परिप्रेक्ष्य में लिखी थी. भारत में जल की समस्या एवं समाधान श्री रमेश चंद्र तिवारी की पुस्तक इस मामले में अनोखी है कि यह किताब माननीय उच्च न्यायालय के एक निर्णय के परिपालन में लिखी गई है.
पृष्ठभूमि यह है कि श्री रमेश चंद्र तिवारी वन विभाग में सेवारत थे, उनके सेवाकाल में उन्हें विभिन्न पदो पर अवसर मिले कि वे धरती के गिरते जल स्तर, पर्यावरण परिवर्तन से सुपरिचित होते रहे. सेवानिवृति के बाद उन्होने हाई कोर्ट में एड्वोकेट के रूप में कार्य शुरू किया, तथा अपनी पर्यावरण सजगता के चलते उन्होने समाज के प्रति जिम्मेदारी निभाते हुये मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय में याचिका क्र डब्लू पी ५१७८ वर्ष २००८ आर सी तिवारी विरुद्ध भारत सरकार व अन्य दायर की. याचिका में गिरते भू जल स्तर पर चिंता व्यक्त करते हुये वैधानिक आधार पर न्यायालय के समक्ष रखा गया. यहां यह लिखना प्रासंगिक है कि वर्तमान में सरकारो की जो स्थितियां हैं उनसे ऐसा लगने लगा है कि देश न्यायालय ही चला रहे हैं. लगभग हर छोटी बड़ी राष्ट्रीय समस्या से संबंधित जनहित याचिकायें या प्रकरण न्यायालय में लंबित हैं. यह स्थिति जहां एक ओर जागरूखता का परिचय देती हैं वही सरकारो की कार्य प्रणाली पर प्रश्न चिन्ह भी खड़े करती है . यह स्वस्थ्य लोकतंत्र की दृष्टि से चिंतनीय कही जा सकती है. अस्तु, माननीय न्यायालय ने आर सी तिवारी जी की याचिका पर निर्णय देते हुये २८ जुलाई २०१५ को निर्देश दिये कि जल समस्या के समाधान हेतु शासन को प्रस्ताव बनाकर भेजा जावे. और इस परिपालन में इस किताब की रचना श्री आर सी तिवारी द्वारा की गई है.
ब्रम्हाण्ड के अनेकानेक ग्रहो में से केवल पृथ्वी पर जीवन है, और जीवन के लिये जल, वायु, पर्यावरण के महत्व से सभि सुपरिचित हैं. जल का प्रबंधन केवल मनुष्य कर रहा है पर धरती के समस्त प्राणी, व वनस्पतियां भी जीवन के लिये जल पर निर्भर हैं. अतः भावी पीढ़ीयो के लिये जल के समुचित संरक्षण व उपयोग की मानवीय जबाबदारी कही ज्यादा है. जल संचय मानवीय विकास हेतु जरुरी है, इसलिये बांध बनाये जा रहे हैं. बड़े बांधो से जल संग्रहण में डूब क्षेत्र की समस्या के विकल्प के रूप में मैंने जल संग्रहण हेतु ऊंचे बांधो की अपेक्षा धरती पर नदियो की तलहटी में चम्मच की तरह के जल संग्रहण का सुझाव दिया है, जिसे व्यापक सराहना मिली, किन्तु मैदानी स्तर पर कोई अमल परिलक्षित नही हुआ है. आम नागरिक सुझाव ही तो दे सकते हैं, परिपालन सरकार के हाथ में है, अतः सरकार पर इन सुझावो के क्रियांवयन का दबाव बनाने के लिये समाज में जल चेतना का वातावरण बनाना आवश्यक है. भारत में जल की समस्या एवं समाधान जैसी किताबें और रमेश चंद्र तिवारी जैसे एक्टिविस्ट इस दिसा में महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं जिनकी सराहना जरूरी है. प्रस्तुत किताब में जल का महत्व, जल की उपलब्धता, वर्तमान जल समस्या, प्राचीन भारत की जल आपूर्ति व्यवस्थायें, तो वर्णित हैं ही, न्यायालय के आदेश के परिपालन में जल समस्या समाधान के उपाय व कार्यविधि, राष्ट्रीय जल नीति, तथा जल की उपलब्धता व आर्थिक विकास को जोरते आंकड़े भी प्रस्तु किये गये हैं, जिसके लिये सेंटर फार साइंस एण्ड इंवार्नमेंट की पुस्तक बूंदो की संस्कृति से सहयोग लिया गया है. श्री रमेश चंद्र तिवारी ने इस न्यायालयीन प्रकरण तथा फिर इस किताब के रूप में एक पर्यावरण प्रहरी की अपने हिस्से की सजग नागरिक की जबाबदारी निभाई है, जो सराहनीय है, पर देखना है कि जमीनी स्तर पर वास्तविलक बदलाव लाने में इस तरह के प्रयासो को कब सफलता मिलती है, जो ऐसे एक्टिविस्ट का वास्तविक उद्देश्य है.
कैलाश मानसरोवर यात्रा – “शिवांश से शिव तक” – श्री ओम प्रकाश श्रीवास्तव एवं श्रीमति भारती श्रीवास्तव
पुस्तक समीक्षा
शिवांश से शिव तक (कैलाश मानसरोवर यात्रा वर्णन) लेखक- श्री ओम प्रकाश श्रीवास्तव एवं श्रीमती भारती श्रीवास्तव प्रकाशक- मंजुल पब्लिषिंग हाउस प्रा.लि. अंसारी रोड दरियागंज नई दिल्ली। मूल्य – 225 रु. पृष्ठ संख्या-284, अध्याय-25, परिषिष्ट 8, चित्र 35
कैलाश और मानसरोवर भारत के धवल मुकुट मणि हिमालय के दो ऐसे पवित्र प्रतिष्ठित स्थल हैं जो वैदिक संस्कृति के अनुयायी भारतीय समाज के जन मानस में स्वर्गोपम मनोहर और पूज्य है। मान्यता है कि ये महादेव भगवान शंकर के आवास स्थल है। गंगाजी के उद्गम स्त्रोत स्थल है और नील क्षीर विवेक रखने वाले निर्दोष पक्षी जो राजहंस माॅ सरस्वती का प्रिय वाहन है उसका निवास स्थान है।
हर भारतीय जो वैदिक साहित्य से प्रभावित है मन में एक बार अपने जीवन काल में इनके सुखद और पुण्य दर्शन की लालसा संजोये होता है। भारत के अनेको पवित्र तीर्थस्थलों में से ये प्रमुख तीर्थ है। इसीलिये इनकी पावन यात्रा के लिये भारत शासन कुछ चुने स्वस्थ्य व्यक्तियों को यात्रा की अनुमति दे उनकी यात्रा व्यवस्था प्रतिवर्ष करता है। अनेकों व्यक्ति सारे विशाल भारत से यात्रा की अनुमति पाने आवेदन करते है। उनमें कुछ भाग्यशाली जनों को यह अवसर प्राप्त होता है।
पुस्तक लेखक श्री ओंकार श्रीवास्तव जी को सपत्नीक इस यात्रा का सौभाग्य प्राप्त हुआ और उन्होनें इस अविस्मरणीय तीर्थयात्रा का वर्णन कर अपने पाठको व जन सामान्य के लिये हितकारी जानकारी उपलब्ध करने का बडा अच्छा कार्य किया है। उन्होनें यात्रा की तैयारी, यात्रा का प्रारंभ, विभिन्न पडावों, वहाँ के दृश्यों, मार्ग के रूप और विभिन्न कठिनाईयों को वर्णित कर अपने सपरिवार प्राप्त अनुभवों का उल्लेख करके अनेकों श्रद्धालुओं को जो इस यात्रा पर जाने की इच्छा रखते हैं उनके कौतूहल व मार्गदर्षन के लिये बडी सच्चाई और निर्भीकता से सरल सुबोध भाषा में अपने हृदय की बात लिखी है। 22 दिनों की यात्रा का दैनिक वर्णन है। कैलाश मानसरोवर का दर्शन अलौकिक अद्भुत व सुखद तो है ही जो जीवन में अविस्मरणीय हैं किंतु यात्रा मे अनेको कठिनाईयां भी है। हिंदी मे एक कहावत है- बिना मरे स्वर्ग नहीं मिलता। अभिप्राय है कि स्वर्ग का सुख पाने के लिये अनेकों मृत्यु को सहना आवश्यक होता है तभी स्वर्ग का सुख प्राप्त करना संभव है। पुस्तक के पढने से विभिन्न पड़ावों पर ऊंचा नीचा भूभाग पैदल चलकर पार करना और वहाँ अचानक उत्पन्न जलवायु परिवर्तन, स्थानीय निवासियों के व्यवहार और भारतीयों की आदतो के विपरीत नये परिवेश को बर्दाश्त कर यात्रा करना कितना कठिन होता है। इसका सजीव चित्रण मिलता है। यात्रा पर जाने वालो को पूरा उपयोगी मार्गदर्शन मिलता है। तिब्बत के मठ वहाँ के साधु सन्यासियों, बाजारों और लोक व्यवहार की झलक मिलती है। धार्मिक सामाजिक और व्यवहारिक रीति रिवाजों से पाठको को अवगत कराने वाली उपयोगी पुस्तक है। भाषा, भाव और विचारो की अभिव्यक्ति में लेखक सफल है। पाठक को पढने से स्वतः यात्रा करने की सी भावानुभूति होती है। भौगोलिक चित्र भी दिये गये है। धार्मिको की मान्यताओं के अनुरूप शिव और प्रकृति का सुरम्य दृश्य यात्री को देखने का अवसर मिलता है।
प्रतिवर्ष एक हजार से अधिक यात्री मानसरोवर की यात्रा करते है पर उन हजारों में से श्रीवास्तव दंपत्ति बिरले यात्री है, जिन्होेंने अपनी यात्रा के अनुभवों को लोक व्यापी बनाकर इस पुस्तक के माध्यम से अद्भुत साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं वैज्ञानिक विवेचना कर जनहितकारी कार्य किया है। कृति बांरबार पठनीय है।
आत्मकथ्य: सफर रिश्तों का – श्री प्रह्लाद नारायण माथुर
(‘सफर रिश्तों का’ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी का एक अत्यंत भावनात्मक एवं मार्मिक कविताओं का संग्रह है। ये कवितायें न केवल मार्मिक हैं अपितु हमें आज की भाग दौड़ भरी जिंदगी में जीवन की सच्चाई से रूबरू भी कराती हैं। हमें सच्चाई के धरातल पर उतार कर स्वयं की भावनाओं के मूल्यांकन के लिए भी प्रोत्साहित करती हैं। इतनी अच्छी कविताओं के लिए श्री माथुर जी की कलम को नमन।)
आत्मकथ्य: आज के आधुनिक काल में भारतीय संस्कृति में तेजी से बदलते सामाजिक परिवेश में धुंधले पड़ते रिश्तों के मूल्य उनकी महत्वता और घटते मान सम्मान का विभिन्न कविताओं के माध्यम से बहुत भावुक एवं ममस्पर्शी वर्णन किया गया हैं. रिश्तों पर जो सटीक लेखन कविताओं के माध्यम से किया गया हैं वो दिल को छू लेने वाला हैं. “इंसानियत शर्मसार हो गयी “ में बूढ़े माँ बाप की व्यथा का भावुक वर्णन किया हैं. “मृत्यु बोध “ एक बहुत ही भावुक कविता हैं जिसमें मृत्यु होने के बाद सारे रिश्तेदारों का आपके प्रति कितना लगाव हैं बहुत ही दिल छू लेने वाला वर्णन किया हैं. माता पिता के साथ सिकुड़ते रिश्तों की व्यथा का ममस्पर्शी वर्णन करने का प्रयास किया हैं, सभी कविताऐं बहुत ही भावुक एवं मार्मिक हैं. आज रिश्तो की अहमियत कम होती जा रही हैं रिश्ते पीछे छूट रहे हैं.अन्य कविताए भी बहुत भावपूर्ण एवं शिक्षाप्रद हैं. पुस्तक हर उम्र के व्यक्तियों के पढ़ने एवं आत्म मनन करने योग्य हैं. यह पुस्तक सामाजिक मूल्यों, माँ बाप और बच्चों के बीच पुनःआत्मीय रिश्ते स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा सकती हैं.
Excerpts from Author’s Amazon Page : In “Safar Rishto ka,” the author through various poems has made a very touching and heart-rendering description of the decline in the relationship between parents and children in today’s Indian society. In “insaniyat sharmsaar ho gayi” has given an emotional description of the sadness of old parents. “Mrityu bodh” is a very emotional poem in which it is described that after the death how relatives are attached to your heart. Apart from these there are various precise poems on today’s social environment. The book covers for all ages people and must read by them. It is eye opener to the youth.This book can play a vital role in increase of social values and the rebuilt of intimate relationship between parents and children.
व्यंग्य संकलन – एक रोमांटिक की त्रासदी – डॉ.कुन्दन सिंह परिहार
पुस्तक समीक्षा
डॉ कुन्दन सिंह परिहार
(वरिष्ठ एवं प्रसिद्ध व्यंग्यकार डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का यह 50 व्यंग्यों रचनाओं का दूसरा व्यंग्य संकलन है। कल हम आपके लिए इस व्यंग्य संकलन की एक विशिष्ट रचना प्रकाशित करेंगे)
डॉ. कुन्दन सिंह परिहार जी को e-abhivyakti की ओर से इस नवीनतम व्यंग्य संकलन के लिए हार्दिक शुभकामनायें एवं बधाई।
पुस्तक समीक्षा
एक रोमांटिक की त्रासदी (व्यंग्य संकलन) लेखक- कुन्दन सिंह परिहार प्रकाशक- उदय पब्लिशिंग हाउस, विशाखापटनम। मूल्य – 650 रु.
‘एक रोमांटिक की त्रासदी’ श्री कुन्दन सिंह परिहार की 50 व्यंग्य रचनाओं का संकलन है।लेखक का यह दूसरा व्यंग्य-संकलन है, यद्यपि इस बीच उनके पाँच कथा-संकलन प्रकाशित हो चुके हैं।संकलन हिन्दी के मूर्धन्य व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई को इन शब्दों के साथ समर्पित है—-‘परसाई जी की स्मृति को, जिन्होंने पढ़ाया तो बहुतों को, लेकिन अँगूठा किसी से नहीं माँगा। ‘ये मर्मस्पर्शी पंक्तियाँ बार बार आकर्षित करती हैं।
पुस्तक का शीर्षक पहले व्यंग्य ‘एक रोमांटिक की त्रासदी’से अभिप्रेरित है।दिन में जो प्रकृति लुभाती है, आकर्षक लगती है, रात्रि में, यदि हम अभ्यस्त नहीं हैं तो, डरावनी लगती है।एक रात भी शहरी व्यक्ति को गाँव के खेत-खलिहान में काटना पड़े तो उसे नींद नहीं आती।मन भयग्रस्त हो जाता है, जबकि एक ग्रामीण उसी वातावरण में गहरी नींद सोता है।रचना में ग्रामीण और शहरी परिवेश का फर्क दर्शाया गया है।
दूसरी रचना ‘सुदामा के तंदुल’ उन नेताओं पर कटाक्ष है जिनके लिए चुनाव आते ही गरीब की झोपड़ी मंदिर बन जाती है।आज दलित, आदिवासी के घर भोजन राजनीति का ज़रूरी हिस्सा बन गया है।
इसी तरह के 50 पठनीय और प्रासंगिक व्यंग्य संग्रह में हैं।रचनाओं का फलक व्यापक है और इनमें समाज और मानव-मन के दबे-छिपे कोनों तक पहुँचने का प्रयास स्पष्ट है।
संग्रह की रचनाओं में बड़ी विविधता है।विचारों, भावों और कथन में कहीं भी पुनरावृत्ति नहीं है।हर विषय को विस्तार से सिलसिलेवार प्रस्तुत किया गया है।सामाजिक विसंगतियों और विद्रूपताओं पर पर्याप्त फोकस है।रचनाओं में किसी विचारधारा या दल की ओर झुकाव दृष्टिगोचर नहीं होता।भाषा की समृद्धता प्रभावित करती है।स्थानीय भाषा और बोली का भी सटीक उपयोग है।
संग्रह में छोटे छोटे प्रसंगों को लेकर व्यंग्य का ताना-बाना बुना गया है।सामान्य जन-जीवन में व्याप्त वैषम्य, विरूपताओं और विसंगतियों को उजागर करने के लिए व्यंग्य सशक्त माध्यम है और इस माध्यम का उपयोग लेखक ने बखूबी किया है।परसाई जी के शब्दों में कहें तो व्यंग्य अन्याय के विरुद्ध लेखक का हथियार बन जाता है।व्यंग्य के विषय में मदन कात्स्यायन का कथन है कि जिस देश में दारिद्र्य की दवा पंचवर्षीय योजना हो वहां के साहित्य का व्यंग्यात्मक होना अनिवार्य विवशता है।
इस संग्रह से पूर्व प्रकाशित परिहार जी के कथा-संग्रहों और व्यंग्य-संग्रह सुधी पाठकों के बीच चर्चित हुए हैं। विश्वास है कि प्रस्तुत संग्रह भी पाठकों के बीच समादृत होगा।
(महज 22 वर्ष की आयु में ‘ब’ से ‘बैंक जैसे उपन्यास की रचना करने वाले डॉ. सुरेश कान्त जी ने बैंक ही नहीं कॉर्पोरेट जगत की कार्यप्रणाली को भी बेहद नजदीक से देखा है। व्यंग्य उपन्यास “जॉब बची सो…..” की मनोवैज्ञानिक समीक्षा श्री एम. एम. चंद्रा जी (सम्पादक, आलोचक, व्यंग्यकार एवं उपन्यासकार) की पैनी दृष्टि एवं कलम ही कर सकती है।)
डॉ. सुरेश कान्त जी को e-abhivyakti की ओर से इस नवीनतम व्यंग्य उपन्यास के लिए हार्दिक शुभकामनायें एवं बधाई।
सुरेश कान्त के नवीनतम उपन्यास “जॉब बची सो” मुझे अपनी बात कहने के लिए बाध्य कर रही है। मुझे लगता है कि “किसी रचना का सबसे सफल कार्य यही है कि वह बड़े पैमाने पर पाठकों की दबी हुयी चेतना को जगा दे, उनकी खामोशी को स्वर दे और उनकी संवेदनाओं को विस्तार दे।”
बात सिर्फ यहाँ तक ही सीमित नहीं है। यह उपन्यास ऐसे समय में आया है, जब व्यंग्य साहित्य में व्यंग्य-उपन्यास के ‘होने और न होने’ को लेकर बहुत तकरार है, जो अब भी बरक़रार है। तकरार इतनी बढ़ चुकी है कि रागदरबारी को व्यंग्य-उपन्यास के रूप में अंतिम मानक के रूप में मान लिया गया है। यह अलग बात है कि स्वयं श्रीलाल शुक्ल ने भी रागदरबारी को कभी भी व्यंग्य-उपन्यास नहीं कहा। साहित्य जगत में लिखित और मौखिक रूप से रागदरबारी के बारे में बहुत से आख्यान हैं।
रागदरबारी का यहाँ जिक्र सिर्फ इसलिए किया है कि व्यंग्य साहित्य में व्यंग्य-उपन्यास के मानक के रूप में, अधिकतर लेखकों में यही एक मात्र मानक पुस्तक है। हकीकत यह भी है कि मुख्यधारा के आलोचकों ने भी इस विषय पर ज्यादा काम नहीं किया है। व्यंग्य-उपन्यास का विमर्श सिर्फ व्यंग्य क्षेत्र में ही है। साहित्य की दुनिया में यह लड़ाई अभी शुरू नहीं हुयी है।
सुरेश कान्त ने उपन्यास “जाब बची सो” के बारे में साहस पूर्वक लिखा है कि यह व्यंग्य-उपन्यास है। यह साहस तब ज्यादा मायने रखता है जब व्यंग्य के छोटे-बड़े लेखक, अपने उपन्यास को व्यंग्य-उपन्यास लिखने से कतराते हैं। इसके पीछे कितने सच, मठ, पथ हमारे दौर में गूंज रहे हैं। इसका अंदाजा सुधि पाठक अच्छी तरह से जानते है.
सुरेश कान्त ने साहस के साथ अपने उपन्यास को व्यंग्य-उपन्यास तब घोषित किया जब व्यंग्य क्षेत्र में एक प्रश्न उभरकर सामने आया- “व्यंग्य-उपन्यास कहलाने के लिए उपन्यास में कितने प्रतिशत व्यंग्य होना जरुरी है?” व्यंग्य साहित्य में बहुत-सी बातें सामने आयीं। किसी ने ३० प्रतिशत तो किसी ने ५० और किसी ने ६० प्रतिशत व्यंग्य आने पर व्यंग्य उपन्यास का मानक बना लिया. लेकिन व्यंग्य-उपन्यास के सैद्धान्तिक
मानक सामने नहीं आये। मतलब यही कि अभी तक जितने भी मानक सामने आये, वो व्यक्तिगत समझ के अनुसार बना लिए गये।
मतलब कि पाठक के सामने “जाब बची सो” का मूल्यांकन करने का जो आधार बचा है- वो या तो व्यक्तिगत है या सुरेश कान्त के व्यंग्य-उपन्यास सिद्धांत। “जाब बची सो” को अपनी ही मानक-कसौटी पर खरा उतरना है। और उन्होंने व्यंग्य-उपन्यास की जो शर्त रखी है वो व्यंग्य उपन्यास का शत प्रतिशत होना तय किया है।
तो आईये सबसे पहले हम सुरेश कान्त की व्यंग्य-उपन्यास सम्बन्धी मान्यताओं को एक सरसरी नजर से देख ले- “इसे असल में यों देखना चाहिए कि जब किसी रचना की जान व्यंग्य रूपी तोते में पड़ी होती है, यानी वह किसी भी अन्य तत्त्व के बजाय केवल व्यंग्य से पहचानी जाती है, तो वह रचना व्यंग्य होती है। और जिस रचना की जान केवल व्यंग्य में नहीं होती, जैसा कि कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास आदि में पाए जाने वाले व्यंग्य में होता है, जहाँ रचना का प्राण व्यंग्य के साथ-साथ कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास आदि भी होते हैं, तो वह रचना व्यंग्य-कविता, व्यंग्य-कहानी, व्यंग्य-नाटक, व्यंग्य-उपन्यास आदि होती है। व्यंग्य-उपन्यास में व्यंग्य और उपन्यास दोनों का संतुलन साधना एक लगभग असाध्य साधना है और उसका कारण स्वयं व्यंग्य का स्वरूप है।”
मेरे विचार से व्यंग्य-उपन्यास में व्यंग्य प्रमुख है, इसीलिए उसे व्यंग्य-उपन्यास कहा जाता है, और उसमें व्यंग्य की साधना ही व्यंग्यकार का पहला लक्ष्य होना चाहिए। लेकिन व्यंग्य-उपन्यास, न कि केवल व्यंग्य, कहलाने के लिए उसका उपन्यास होना भी जरूरी है, भले ही कुछ शिथिल रूप में ही सही। शिथिल रूप में इसलिए कहा, क्योंकि व्यंग्य उसे कॉम्पैक्ट रहने नहीं देता।
व्यंग्य-उपन्यास असल में ‘उपन्यास में व्यंग्य’ होता है। वह न तो केवल व्यंग्य होता है, न केवल उपन्यास। वह दोनों होता है, दोनों का संयुक्त रूप होता है। व्यंग्य-उपन्यास में व्यंग्य को उपन्यास की ताकत मिल जाती है, उपन्यास को व्यंग्य की खूबी, लेकिन उसके लिए व्यंग्य को थोड़ा उपन्यास के अनुशासन में बँधना होता है, तो उपन्यास को व्यंग्य के लिए कुछ शिथिल होना होता है। तब कहीं जाकर वह व्यंग्य-उपन्यास बन पाता है। औपन्यासिक ढाँचे में रंग व्यंग्य की कूची से भरे जाते हैं।
मुझे लगता है, ‘जाब बची सो’ की बनावट और बुनावट व्यंग्य-उपन्यास के तौर पर एक सफल प्रयोग है. अन्य किसी उपन्यास से इसकी लाख तुलना करें लेकिन तुलनात्मक अध्ययन से आप किसी भी नतीजे पर नहीं पहुंचेंगे। इसका एक मात्र कारण है- इस दौर की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक संरचना में जमीन आसमान का अंतर। यह उपन्यास एक ख़ास सामाजिक सरचना (मल्टीनेशनल कम्पनियों की कार्य प्रणाली) का प्रतिनिधित्व करता है। जिसमे मल्टीनेशनल कम्पनी के अंदर होने वाली उठा-पठक को व्यंग्यात्मक रूप में रेखांकित किया गया है।
सामाजिक मान्यता के अनुसार समाज का सबसे ऊपरी ढांचा, सबसे पहले परिवर्तित होता है वह परिवर्तन रिस रिस-कर नीचे की तरफ आता है। यह उपन्यास उस ऊपरी ढांचे के खोखले, अवसरवादी मध्यम वर्ग को आपनी रडार पर रखता है. सही मायने में देखा जाये तो यह उपन्यास बताता है कि रुग्ण पूंजीवाद, समाज के उपरी तबके को कैसे बीमार बनाता है? कैसे समाज का एक बड़ा हिस्सा इस बीमारी का शिकार हो जाता है? आज रुग्ण पूंजीवादी व्यक्तिगत स्वार्थ की बीमारी वैशिक समाज अभिन्न अंग बन चुकी है। भारतीय सामज भी इसी बीमारी का शिकार हुआ, जिसका लेखा झोखा यह उपन्यास करता है.
उपन्यास की शुरुआत ही एक ऐसे सामन्ती और तानाशाही प्रवृति को रेखांकित करता है. जिसे अपने अलावा किसी और व्यक्ति का अस्तित्व स्वीकार नहीं है. ऐसे लोग सीधे तौर पर सामने वाले व्यक्ति के अस्तित्व को नकार तो नहीं सकते लेकिन उनके सम्भोधन से आप भली भाति परिचित हो सकते है- “अधिकारी अधिनिस्थो को न केवल उनके नाम से ही बुलाते है ,बल्कि ऐसा करते हुए उसे अपनी क्षमता अनुसार थोडा बहुत बिगाड़ भी देते हैं. इसके पीछे यह सोच काम करती की इससे अधिनिस्थों को अपनी औकात के अधीन स्थित रहने में मदद मिलती है.”
इस प्रकार की मानसिकता अधिकतर उन लोगों में पायी जाती है जिन्हें किसी मुकाम पर पहुचने का भ्रम हुआ हो। यह प्रवृति खासकर अपने अधिनिस्थ सहयोगी, साहित्यकारों में भी देखी जा सकती है। जहाँ कुछ लोग अपने सहयोगियों, अपने संगी-साथी को उसके मूल नाम से, जो उसकी पहचान, जिस नाम के कारण वह इस दुनिया में पहचाना जाता है। वह नाम व्यक्तिगत या सार्वजनिक रूप में नहीं लेते बल्कि उसका गलत नाम लेते है और उसके अस्तित्व को किसी न किसी बहाने बहिष्कृत करते है। बिना गाली पुकारे जाने वाले ये नाम अपमान के सिवा कुछ नहीं। यह हमारे नये दौर की सच्चाई है। जिसे मनोविज्ञानक रूप में ही नहीं बल्कि उसके आर्थिक आधार को भी लेखक ने बहुत बारीकी से रेखांकित किया है।
उपन्यास की कहानी बहुत सरल है लेकिन एक रेखीय नहीं। उसमे कई लेयर है जिसे पाठको की सामाजिक राजनीतिक चेतना से गुजरना है। कहानी एचआर और मह्नेद्र के संवादों से शुरू होती है कि कम्पनी का एक व्यक्ति बिना एचआर के प्रमोशन कैसे पा लिया? एचआर उसी का पता लगाने के लिए अपने अधीनस्थ महेंद्र को लगाया जाता है। और महेंद्र प्रमोशन पाए संतोष से पूरी बात उगलवाने में लग जाता है। और पूरी कहानी बेकग्राउण्ड में चलती रहती है। संतोष अपनी प्रमोशन की कहानी सुनाता है, असल में यह कहानी प्रमोशन की नहीं बल्कि संतोष द्वारा अपनी नौकरी बचाने की कहानी साबित होती है। इस बीच में जो छोटी-छोटी समानंतर कहानियां चलती है। जो उपन्यास को गति प्रदान करती है.
संतोष का प्रमोशन कैसे हुआ इस बात को जानने के लिए बॉस एक आफ साईट मीटिंग शहर से बहार करता है, वही महेंद्र ने संतोष से बात उगलवानी शुरू की। संतोष उस सोमवार की घटना से अपनी बात शुरू करता है, जो किसी के लिए भी सामान्य सोमवार नहीं होता। यहाँ से लेखक मुखर व्यंग्यकार के रूप में सामने आता है। यहाँ लेखक सोमवार पर ही पूरा विश्लेषणात्मक व्याख्यात्मक शैली अपनाता है- “अगर रविवार को रामरस की तरह सोम रस पी लिया ,तो कबीर की तरह ‘पिबत सोमरस चढ़ी खुमारी’ वाला हाल होना लाजमी है.”
आज कोई ऐसी बड़ी कम्पनी नहीं जो हर तरह के सच, अपने कर्मचारियों को नहीं बताती, बल्कि यहाँ तक बताई जाती है कि कैसे अपने ख़राब प्रोडक्ट को ही बेहतर प्रोडक्ट बताया जाये। उसके लिए चाहे कोई भी नियम कानून दाव पर लगाना पड़े। आज बाजार ने हर चीज को माल के रूप में बदल दिया है। सिर्फ प्रोडक्ट ही माल नहीं है बल्कि उसे बेचने की तरकीबे और नैतिक-अनैतिक मोटिवेशनल किताबी ज्ञान भी आज बिकाऊ माल बन गया है। बॉस कांफ्रेंस के जरिये पूरे स्टाफ से कहता है- “हमारी कम्पनी पर अनैतिक व्यवसायिक प्रथाएं अपनाने का आरोप है, हम बाजार पर कब्ज़ा ज़माने और प्रतिस्पर्धा में आगे निकलने के लिए, पुराने माल को नया माल बनाकर भारी छूट पर बेच रहे हैं । यह सच है लेकिन हम इसे स्वीकार नहीं कर सकते। जबकि पिछली बार नेताओं के साथ मिलीभगत कर आयात नियमों का दोहन करने का आरोप लगा था। वे कल कहेंगे कि हम अंतर्राष्ट्रीय एजेंट है। घरेलू अर्थव्यवस्था को चौपट करने लगे है।”
यदि कम्पनी को किसी दवाब के कारण कार्यवाही करनी भी पड़ी, ऐसी स्थिति में भी कम्पनी को ज्यादा फायदा होता है। इस बहाने कम्पनी कुछ लोगों को नौकरी से निकाल देती है और दूसरे कर्मचारियों को आगाह कर देती है यदि किसी को नौकरी नहीं गवानी तो कोई ऐसा तरीका निकालों ताकि कम्पनी की प्रगति हो सके। यहीं से कर्मचारी अपनी नौकरी बचाने के लिए वह सभी कार्य करते हैं जो उसके लिए जरुरी नहीं होता। उपन्यास बेरोजगार होने के भय को दिखाता है कि कैसे कर्मचारी अपनी नौकरी बचाने के लिए क्या से क्या नहीं करता।
बेरोजगारी का भय सिर्फ नौकरी करते हुए ही नहीं दिखाया जाता बल्कि यह नौकरी पर रखने से पहले भी कम्पनी के लिए प्रगति प्रोजेक्ट माँगा जाता है कि आप कम्पनी की प्रगति में अपनी उपयोगिता कैसे सिद्द करेंगे?
मतलब भर्ती-छंटनी, त्याग, नेतिक-अनेतिक सब कुछ कार्पोरेट सेक्टर और उनके मुनाफे का एक अभिन्न अंग है जिससे कोई भी बच नहीं सकता। कम्पनी में इन सब का एक ही कार्य है कि कम्पनी का लाभांश कैसे बढेगा? जो इस योजना में फिट है वही आदमी कम्पनी के लिए हिट है।
संतोष जैसा मध्यम वर्गीय आदमी जो चालीस हजार का फ़ोन रखता है. वह भी अपनी नौकरी को बचाने के लिए क्या नहीं करता. मतलब, मरता क्या न करता।
यही वो समय या जगह है जब लेखक के वैचारिक पक्ष और रचना के लेयर को समझा जा सकता है। लेकिन जो जो यह नहीं समझ पाएंगे. वैचारिक कम बेचारिक नजर आयेंगे। मोदीखाना इस उपन्यास की धड़कन है। जिसे वैचारिक रूप से व्यंग्यात्मक, उलटबासी विश्लेषणात्मक शैली में कलात्मक तरीके से प्रयोग किया है।
एक मध्यम वर्गीय आदमी के लिए बेरोजगारी का डर क्या होता है? इस उपन्यास के माध्यम से समझा जा सकता है। कम्पनी कैसे इस डर को बरकरार रखती है? पाठक को यह भी समझ में आ जायेगा कि कम्पनी डर पर रिसर्च करती है। ताकि डर का रचनातमक प्रयोग कर सके. उपन्यास यह समझने में भी पाठक की मदद करता है कि कम्पनी आदमी की संवेदनाओ को कैसे और क्यों खत्म करती है? उसका एक ही जवाब है- मुनाफा।
जब संतोष अपनी नौकरी बचाने के लिए एक स्मार्ट फोन लांच करने की योजना अपने बॉस को बताई तब बॉस उसके प्रोजेक्ट को मास्टर स्ट्रोक मानकर उस पर काम करने के लिए कहता है। यहाँ तक यह समझ में आने लगता है कि कैसे बॉस अपने अधीनस्थ कर्मचारी के प्रोजेक्ट का प्रयोग अपने हित में करता है। कैसे विदेशी टूर को घरेलु टूर बना लेता है? कैसे दूसरे की मेहनत को अपने नाम कर लेता है? जब सारा काम हो गया तब, कैसे निर्लज्जता से अपने स्टाफ के सामने अपने अधीनस्थ को अपमानित करता है।
बॉस यह भी सबक सिखा देता है कि “कर्मचारी की ताकत उच्चाधिकारी की च्वाइस के साथ अपनी च्वाइस का मेल करने में ही होती है।” और तब संतोष को गीता का असली ज्ञान समझ आया जब बॉस कहता है- “कम्पनी अमूर्त सत्ता है, वह सबकी है, और किसी की भी नहीं या किसी की है सबकी नहीं.”
उपन्यास यहाँ एक नवीन सूत्र को समझने में पाठको की मदद करता है कि आज के दौर में तमाम कर्मचारियों को जो गीता, रामायण के उपदेश दिए जाते है. वह मानव बनाने के लिए नहीं बल्कि कम्पनी का मुनाफा कमाने के लिए दिए जाते है। आज सिर्फ विदेशी मोटिवेशनल किताबे ही नहीं बल्कि भारत के धार्मिक पुस्तके भी सिर्फ और सिर्फ मुनाफा कमाने के लिए पुनः डिजाइन की जा रही है। जैसे महाभारत के मेनेजमेंट मन्त्र, गीता, राम या चाणक्य के सफलता पाने वाले मन्त्र इत्यादि। ये सब धार्मिक पुस्तके मुनाफाखोर कम्पनियों के लिए सहायक हो गयी है. बेचारा कर्मचारी भय के मारे सुनने के अलावा कुछ नहीं कर सकता. बल्कि संतोष का बॉस कम्पनी प्रगति के लिए गीता ज्ञान पेलने के बाद, आपना सारा काम संतोष के हवाले कर देता है.
संतोष ने सर्फ अपना ही काम नहीं किया बल्कि आपने बॉस के लिए एक बढ़िया पीपीटी तैयार की। वह सब कुछ किया जिसे संतोष को नैतिक रूप से मंजूर नहीं था. लेकिन बदले में उसे क्या मिला? जब फ़ाइनल मीटिंग हुई तब बॉस अपने काम को महान बना देता है. बेचारा संतोष देखता ही रह गया।
उपन्यास ने एक जगह खुलासा किया और बेस्ट सेलर जैसा आधुनिक महानतम शब्द का मुखोटा उतर गया. पाठक अचम्भित होता है जब संतोष का बॉस उससे कहता है – “अब आने वाले तीन साल का बिक्री आनुमान लगाकर लाओं।” जो अभी बिका नहीं, उसका अनुमान कैसा? संतोष परेशान लेकिन ऐसे समय पर संतोष के एक मित्र ने उसे टिप्स दिए- “तुम किसी बेस्ट सेलर वाली कम्पनी का डाटा कॉपी करो और अपने बॉस को दे मारो.” उसने भी यही किया।
उपन्यास आंकड़ो के मायाजाल से पाठक को सचेत करने में सफल हुआ है. कैसे आंकड़े बनाये जाते है. कैसे रिवव्यू तैयार किये जाते है? कैसे फर्जी तरीके से बढ़ा-चढाकर प्रोडक्ट बेचे जाते है? कैसे कम्पनी ग्राहकों का डाटा अपने मुनाफे बढ़ने के लिए चोरी करते है? कैसे प्रोडक्ट को बेचने के लिए उसके ऐसे फीचर को हाईलाईट करे जाते है जो होते ही नहीं या जिनकी ग्राहकों को जरूरत नहीं होती बल्कि उनको ऐसे फीचर बताये जाते है जो आदमी दिखावे और स्टेटस के लिए बहुत जरुरी हो।
यदि ग्राहकों ने कम्पनी के खिलाफ शिकायत दर्ज भी की तब भी, बड़ा अधिकारी ऐसा चक्रव्यूह रचता है ताकि ग्राहकों पर ठीकरा फोड़ा जा सके। आपने देखा होगा कि अभी कुछ साल पहले मोबाईल कंपनियों में ऐसा ही संघर्ष हुआ था। मामला कोर्ट तक भी पहुंचा ग्राहकों ने कम्पनी पर ब्लेम किया और कम्पनी ने नेटवर्क कम्पनी को दोषी ठहरा दिया। “जब बची सो..” उपन्यास मल्टीनेशनल कम्पनियों द्वारा ग्राहकों को बेवकूफ़ बनाने वाली तमाम साज़िशों का पर्दाफाश करता है. उपन्यास पूरी तरह से कार्पोरेट जगत के अंदर होने वाली ऐसी घटनाएँ दर्शाता है जो आज स्वभाविक नजर आती है। उनकी चालाकी, तीन तिकड़म सब कुछ, बॉस या उसके अधीनस्थ कर्मचारियो के बीच की घटनाये नजर आती है. चाहे अपने निजी काम से छुट्टी पर जाना हो या जब बॉस को आपने अधीनस्थ का टारगेट सेट करना हो. टारगेट के सेट करते समय बॉस कितना चालाक धूर्त हो सकता इसका अंदाजा इस उपन्यास में देखने को मिला. बॉस ने संतोष को १०० प्रतिशत की जगह 200 प्रतिशत टारगेट दिया। और फिर एक मोटिवेशनल स्पीच से कर्मचारी को अनुत्तरित कर दिया- “चेलेंजिंग काम ही तुम्हारा बेस्ट निकलवा सकता है। अपनी ताकत और अपनी क्षमता को पहचानो।”
संतोष ने टारगेट अचीव किया लेकिन बॉस फिर आपनी धूर्तता प्रकट करता है – “तुमने औसत कार्य किया है क्योंकि तुमने मेरे द्वारा दिये गये टारगेट को ही पूरा किया है। हाँ के सिवा संतोष के पास कुछ भी नहीं था.”
हाँ या बॉस से सहमति पर सुरेश कान्त का इतिहास बोध गहरा व्यंग्य करता है- “कार्पोरेट सेक्टर में पूंछ हिलाना वफ़ादारी का सबूत है- ज्यादा काम लेने से पूंछ लुप्त हो गयी। इसलिए आदमी की समझदारी और वफ़ादारी का प्रदर्शन गर्दन हिलाकर करता है।”
बॉस कितना धूर्त हो सकता है इसका अंदाजा उसकी घृणात्मक कार्यवाहियों से भी लगाया जा सकता है. ये सब एक बड़ा अधिकारी किस लिए करता है. क्योंकि कम्पनी के कर्मचारी संतुष्ट नहीं हैं, क्योंकि उनका कोई पैसा नहीं बढ़ा। और बॉस एक समिति बनवाकर कर अज्ञात कर्मचारी संतुष्टि सर्वेक्षण अधिकारी नियुक्त करता ताकि तरह तरह के प्रोग्राम इन्वेंट या फार्म भरवाकर कर्मचारयों के बारे में जानकारी जुटाता रहे। कितनी घिनोनी चाले मल्टीनेशनल कम्पनियों चलती है, यह आम पाठक को शायद नहीं पता। शायद उन लोगो को भी नहीं पता जो वहां पर काम करते है। इसलिए लेखक कहता है – “प्यार, युद्ध और कंपनियों में सब कुछ जायज है।”
आप देखेंगे कि उपन्यास इस मामले में सफल रहा है कि कार्पोरेट सेक्टर कैसे जनता की आँखों में ही धूल नहीं झोकता बल्कि अपने कर्मचारियों को भी तरह-तरह से मूर्ख बना कर उनका चारा बनाती है। जनता के मनोविज्ञान का प्रयोग भी कम्पनिया अपने मुनाफे के लिए करती है।
बॉस बदल जाने से भी छोटे कर्मचारयों को कोई सुकून नहीं मिलता बल्कि संतोष जैसे आदमी के लिए नया बॉस भी जालिम है। नये बॉस कर्मचारियों को जल्दी बुलाने और देर से छोड़ने के, न जाने कितने रास्ते अपनाता है। मल्टीनेशनल कम्पनियों के बॉस शादी के लिए भी छुट्टी तक मंजूर नहीं करता बल्कि शादी की रात भी किसी न किसी बहाने काम की याद दिलाता रहता है। एक समय ऐसा भी आया जब संतोष की जाब पर बन आयी लेकिन उसको प्रमोशन दे दिया गया। ताकि- “योग्य उमीदवार इस दिलासा में काम करता रहे कि जब अयोग्य को मिल सकता है तो हमे भी मिला सकता है।”
लेकिन कब तक?
मल्टीनेशनल कम्पनियों के इस तरह के घिनोने चेहरे को बेनकाब करने का काम इस उपन्यास ने किया है. लेखक मल्टीनेशनल कम्पनियों के इस बदरंग चेहरों को पाठकों के सामने लाने के लिए किसी भी प्रकार का समझोता नहीं किया. बल्कि अपनी विशेष व्यंग्यात्मक-विश्लेषणात्मक शैली में जम कर प्रहार करता है.
इस उपन्यास का असली हीरों न तो संतोष है, न ही बास, न ही कोई और अन्य पात्र। सिर्फ और सिर्फ लेखक ही इसके मुख्य पात्र है। जो व्यंग्य का तड़का लगाकर गाड़ी को पहाड़ी पर भी चढाने में सफल हुए है।
चूँकि मैंने पहले ही कहा था कि यह उपन्यास सिर्फ और सिर्फ सुरेश कान्त के व्यंग्य उपन्यास की मान्यताओं पर ही समझने की कोशिश की गयी है कि व्यंग्य-उपन्यास सौ प्रतिशत होना चाहिए. मैं इस उपन्यास को उनके ही माप दंड के अनुसार शत प्रतिशत व्यंग्य उपन्यास मानता हूँ।
यह उपन्यास उन लेखकों के लिए जरुरी है जो समझना चाहते है कि एक व्यंग्य उपन्यास में कितने तरीकों और माध्यमों से व्यंग्य उकेरा जा सकता है। उपन्यास की सबसे बड़ी ताकत है लेखक का बार-बार नेरेशन की भूमिका में आना है। यह शिल्प इस उपन्यास के शिल्प का अभिन्न अंग है। मेरे लिए यह बात भी महत्पूर्ण नहीं लगती क्योंकि नेरेशन के माध्यम से ही उपन्यास की व्यंग्यात्मक गति को रुकने नहीं देता। एक नया मुहावरा , लोकोक्तियों का प्रयोग, मीर, ग़ालिब, कबीर , दुष्यंत और न जाने कितने लोगो की रचनाओं का प्रयोग न जाने कितने तरीके से लेखक ने किया. जिन्होने न सिर्फ पात्र के चरित्र को गढ़ा है बल्कि अपने कथानक को मजबूत बनाया है। यह काम पात्र दर पात्र, कहानी दर कहानी और शब्द दर शब्द इस प्रकार चलता है जैसे नसों में खून चल रहा हो।
समीक्षक –एम. एम. चंद्रा (सम्पादक, आलोचक, व्यंग्यकार एवं उपन्यासकार)
मूल्य – 400 रू हार्ड बाउंड संस्करण, पृष्ठ संख्या 256
फोन- 8700774571,७०००३७५७९८
समीक्षक – डॉ. कामिनी खरे,भोपाल
कृति चर्चा .. मिली भगत – (हास्य व्यंग्य का वैश्विक संकलन)
तार सप्तक संपादित संयुक्त संकलन साहित्य जगत में बहुचर्चित रहा है. सहयोगी अनेक संकलन अनेक विधाओ में आये हैं, किन्तु मिली भगत इस दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है कि इसमें संपादक श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव के वैश्विक संबंधो के चलते सारी दुनिया के अनेक देशो से व्यंग्यकारो ने हिस्सेदारी की है. संपादकीय में वे लिखते हैं कि “व्यंग्य विसंगतियो पर भाषाई प्रहार से समाज को सही राह पर चलाये रखने के लिये शब्दो के जरिये वर्षो से किये जा रहे प्रयास की एक सुस्थापित विधा है. “यद्यपि व्यंग्य अभिव्यक्ति की शाश्वत विधा है, संस्कृत में भी व्यंग्य मिलता है, प्राचीन कवियो में कबीर की प्रायः रचनाओ में व्यंग्य है, यह कटाक्ष किसी का मजाक उड़ाने या उपहास करने के लिए नहीं, बल्कि उसे सही मार्ग दिखाने के लिए ही होता है. कबीर का व्यंग्य करुणा से उपजा है, अक्खड़ता उसकी ढाल है. हास्य और व्यंग्य में एक सूक्ष्म अंतर है, जहां हास्य लोगो को गुदगुदाकर छोड़ देता है वहीं व्यंग्य हमें सोचने पर विवश करता है. व्यंग्य के कटाक्ष पाठक को तिलमिलाकर रख देते हैं. व्यंग्य लेखक के संवेदनशील और करुण हृदय के असंतोष की प्रतिक्रिया के रूप में उत्पन्न होता है. शायद व्यंग्य, उन्ही तानों और कटाक्ष का साहित्यिक रचना स्वरूप है, जिसके प्रयोग से सदियो से सासें नई बहू को अपने घर परिवार के संस्कार और नियम कायदे सिखाती आई हैं और नई नवेली बहू को अपने परिवार में स्थाई रूप से घुलमिल जाने के हित चिंतन के लिये तात्कालिक रूप से बहू की नजरो में स्वयं बुरी कहलाने के लिये भी तैयार रहती हैं. कालेज में होने वाले सकारात्मक मिलन समारोह जिनमें नये छात्रो का पुराने छात्रो द्वारा परिचय लिया जाता है, भी कुछ कुछ व्यंग्य, छींटाकशी, हास्य के पुट से जन्मी मिली जुली भावना से नये छात्रो की झिझक मिटाने की परिपाटी रही है और जिसका विकृत रूप अब रेगिंग बन गया है.
प्रायः अनेक समसामयिक विषयो पर लिखे गये व्यंग्य लेख अल्पजीवी होते हैं, क्योकि किसी घटना पर त्वरित प्रतिक्रिया के रूप में लिखा गया व्यंग्य, अखबार में फटाफट छपता है, पाठक को प्रभावित करता है, गुदगुदाता है, थोड़ा हंसाता है, कुछ सोचने पर विवश करता है, जिस पर व्यंग्य किया जाता है वह थोड़ा कसमसाता है पर अपने बचाव के लिये वह कोई अच्छा सा बहाना या किसी भारी भरकम शब्द का घूंघट गढ़ ही लेता है, जैसे प्रायः नेता जी आत्मा की आवाज से किया गया कार्य या व्यापक जन कल्याण में लिया गया निर्णय बताकर अपने काले को सफेद बताने के यत्न करते दिखते हैं.. अखबार के साथ ही व्यंग्य भी रद्दी में बदल जाता है. उस पर पुरानेपन की छाप लग जाती है. किन्तु पुस्तक के रूप में व्यंग्य संग्रह के लिये अनिवार्यता यह होती है कि विषय ऐसे हों जिनका महत्व शाश्वत न भी हो तो अपेक्षाकृत दीर्घकालिक हो. मिली भगत ऐसे ही विषयो पर दुनिया भर से अनेक व्यंग्यकारो की करिश्माई कलम का कमाल है.
संग्रह में अकारादि क्रम में लेखको को पिरोया गया है. कुल ४३ लेखकों के व्यंग्य शामिल हैं.
अभिमन्यु जैन की रचना ‘बारात के बहाने’ मजेदार तंज है. उनकी दूसरी रचना अभिनंदन में उन्होने साहित्य जगत में इन दिनो चल रहे स्वसम्मान पर गहरा कटाक्ष किया है. अनिल अयान श्रीवास्तव नये लेखक हैं, देश भक्ति का सीजन और खुदे शहरों में “खुदा“ को याद करें लेख उनकी हास्य का पुट लिये हुई शैली को प्रदर्शित करती है. अलंकार रस्तोगी बड़ा स्थापित नाम है. उन्हें हम जगह-जगह पढ़ते रहते हैं. ‘साहित्य उत्त्थान का शर्तिया इलाज’ तथा ‘एक मुठभेड़ विसंगति से’ में रस्तोगी जी ने हर वाक्य में गहरे पंच किये हैं. अरुण अर्णव खरे वरिष्ठ व्यंग्यकार हैं, वे स्वयं भी संपादन का कार्य कर चुके हैं, उनकी कई किताबें प्रकाशित हैं. बच्चों की गलती, थानेदार और जीवन राम तथा बुजुर्ग वेलेंटाईन, उनकी दोनो ही रचनायें गंभीर व्यंग्य हैं. इंजी अवधेश कुमार ’अवध’ पेशे से इंजीनियर हैं ‘पप्पू-गप्पू वर्सेस संता-बंता’ एवं ‘सफाई अभिनय’ समसामयिक प्रभावी कटाक्ष हैं. डॉ अमृता शुक्ला के व्यंग्य ‘कार की वापसी’ व ‘बिन पानी सब सून’ पठनीय हैं. बसंत कुमार शर्मा रेल्वे के अधिकारी हैं ‘वजन नही है’ और ‘नालियाँ’ व्यंग्य उनके अपने परिवेश को अवलोकन कर लिखने की कला के साक्षी हैं. ब्रजेश कानूनगो वरिष्ठ सुस्थापित व्यंग्यकार हैं. उनके दोनो ही लेख उपन्यास लिख रहे हैं वे तथा वैकल्पिक व्यवस्था मंजे हुये लेखन के प्रमाण हैं, जिन्हें पढ़ना गुनना मजेदार तो है ही साथ ही व्यंग्य की क्षमता का परिचायक है. छाया सक्सेना ‘प्रभु’ के लेख फ्री में एवलेबल रहते हैं पर फ्री नहीं रहते और ध्यानचंद्र बनाम ज्ञानचंद्र बढ़िया हैं. प्रवासी भारतीय धर्मपाल महेंद्र जैन एक तरफा ही सही और गड्ढ़े गड्ढ़े का नाम लेखो के माध्यम से कुछ हास्य कुछ व्यंग्य के नजारे दिखाते हैं. वरिष्ठ लेखक जय प्रकाश पाण्डे ने ‘नाम गुम जाएगा’ व ‘उल्लू की उलाहना’ लेखो के माध्यम से कम में अधिक कह डाला है. किशोर श्रीवास्तव के सावधान, यह दुर्घटना प्रभावित क्षेत्र है और घटे वही जो राशिफल बताये लेखो के जरिये स्मित हास्य पैदा किया है. कृष्णकुमार ‘आशु’ ने पुलिसिया मातृभाषा में पुलिस वालो की बोलचाल के तौर तरीको पर कलम चलाकर कटाक्ष किया है उनका दूसरा लेख फलित होना एक ‘श्राप का’ भी जबरदस्त है. मंजरी शुक्ला के दो लेख क्रमशः जब पडोसी को सिलेंडर दिया एवं बिना मेक अप वाली सेल्फी, मजेदार हैं व पाठक को बांधते हैं.
मनोज श्रीवास्तव के लेख अथ श्री गधा पुराण व यमलोक शीर्षक से ही कंटेंट की सूचना देते हैं. महेश बारमाटे ‘माही’ बिल्कुल नवोदित लेखक हैं किन्तु उनके व्यंग्य धारदार हैं बेलन, बीवी और दर्द व सब्जी क्या बने एक राष्ट्रीय समस्या पर उन्होने लिखा है, वे पेशे से इंजीनियर हैं, ओम वर्मा के लेख अनिवार्य मतदान के अचूक नुस्ख़े व ‘दो टूक’ शानदार हैं. ओमवीर कर्ण के लेख प्रेम कहानी के बहाने तथा पालिटीशियन और पब्लिक की सरल ताने भरी भाषा पैनी है. डा. प्रदीप उपाध्याय सुस्थापित नाम है, उनकी कई पुस्तकें लोगो ने पसंद की हैं. यह संपादक का ही कमाल है कि वे इस किताब में ढ़ाढ़ी और अलजाइमर का रिश्ता और उनको रोकने से क्या हासिल लेखों के माध्यम से शामिल हैं. रमाकान्त ताम्रकार परसाई की नगरी के व्यंग्यकार हैं.
उनके लेख दो रुपैया दो भैया जी व जरा खिसकना अनुभवजन्य हैं. रमेश सैनी व्यंग्य जगत में अच्छा काम कर रहे हैं, वे व्यंग्यम संस्था के संयोजक भी हैं. उनकी पुस्तकें छप चुकी हें. ए.टी.एम. में प्रेम व बैगन का भर्ता के जरिये उनकी किताब में उपस्थिति महत्वपूर्ण है. राजशेखर भट्ट ने निराधार आधार और वेलेंटाईन-डे की हार्दिक शुभकामनायें लिखी हैं. राजशेखर चौबे रायपुर में बड़े शासकीय पद पर कार्यरत हैं, किन्तु स्थापित संपादक व व्यंग्यकार की उनकी पहचान को उनके लेख ज्योतिष की कुंजी और डागी फिटनेस ट्रेकर मुखरित करते हैं. राजेश सेन को हर व्यंग्य में रुचि रखने वाले पाठक बखूबी जानते हैं. अपने प्रसिद्ध नाम के अनुरूप ही उनके लेख डार्विन, विकास-क्रम और हम एवं बतकही के शोले और ग्लोबल-वार्मिंग किताब में चार चांद लगा रहे हैं. अबूधाबी की प्रसिद्ध लेखिका समीक्षा तैलंग की हाल ही में चर्चित किताब जीभ अनशन पर है आई है, वे विषय की पिच पर जाकर बेहतरीन लिखती हैं. किताब में उनके दो लेख विदेश वही जो अफसर मन भावे तथा धुंआधार धुंआ पटाखा या पैसा लिये गये हैं. मेरठ के सुप्रसिद्ध साहित्यिक सांध्यकालीन अखबार विजय दर्पण टाईम्स के संपादक – संतराम पाण्डेय की लेखनी बहुप्रशंसित है. उनके लेख लेने को थैली भली और बिना जुगाड़ ना उद्धार पढ़ेंगे तो निश्चित ही आनंद आवेगा. दिव्य नर्मदा ब्लाग के संजीव सलिल ने हाय! हम न रूबी राय हुए व दही हांडी की मटकी और सर्वोच्च न्यायालय जैसे समाज की समकालीन घटनाओ को इंगित करते लेख लिखे हें. इंजी संजय अग्निहोत्री प्रवासी भारतीय और इंजीनियर हैं, यह विवेक जी का ही संपर्क जाल है कि उनके लेख यथार्थपरक साहित्य व अदभुत लेखकों को किताब में संजोया गया है. मुम्बई के सुप्रसिद्ध लेखक संजीव निगम के व्यंग्य लौट के उद्धव मथुरा आये और शिक्षा बिक्री केन्द्र जबरदस्त प्रहार करने में सफल हुये हैं. ब्लाग जगत के चर्चित व्यक्तित्व केनेडा के समीर लाल उड़नतश्तरी के लेखों किताब का मेला या मेले की किताब और रिंग टोनः खोलती है राज आपके व्यक्तित्व का ने किताब को पूरे अर्थो में वैश्विक स्वरूप दे दिया है. शशांक मिश्र भारती का पूंछ की सिधाई व अथ नेता चरित्रम् व्यंग्य को एक मुकाम देते लेख हैं. बहुप्रकाशित लेखक प्रो.शरद नारायण खरे ने ख़ुदा करे आपका पड़ोसी दुखी रहे एवं छोड़ें नेतागिरी बढ़िया व्यंग्य प्रस्तुत किये हैं.
सशक्त व्यंग्य हस्ताक्षर शशिकांत सिंह ‘शशि’ जिनकी स्वयं कई किताबें छप चुकी हैं, तथा विभिन्न पत्रिकाओ में हम उन्हें पढ़ते रहते हैं के गैंडाराज और सुअर पुराण जैसे लेख शामिल कर विवेक जी ने किताब को मनोरंजक बनाने में सफलता प्राप्त की है. शिखरचंद जैन व्यंग्य में नया नाम है, किन्तु उनके व्यंग्य लेख पढ़ने से लगता है कि वे सिद्धहस्त व्यंग्यकार हैं उनके लेख आलराउंडर मंत्री और मुलाकात पार्षद से पुस्तक का हिस्सा है. सुधीर ओखदे आकाशवाणी के कार्यक्रम प्रोड्यूसर हैं, उनके व्यंग्य-संग्रह बहुचर्चित हैं. विमला की शादी एवं गणतंत्र सिसक रहा है व्यंग्यो के जरिये उनकी उपस्थिति दर्ज की जा सकती है. विक्रम आदित्य सिंह ने देश के बाबा व ताजा खबर लिखे हैं. विनोद साव का एक ही लेख है दूध का हिसाब पर, इसमें ही उन्होने दूध का दूध और पानी का पानी कर दिखाया है. युवा संपादक, समीक्षक, व्यंग्यकार विनोद कुमार विक्की की व्यंग्य की भेलपुरी साल की चर्चित किताब है. पत्नी, पाकिस्तान और पेट्रोल तथा व्यथित लेखक उत्साहित संपादक के द्वारा उनके लेख किताब में महत्वपूर्ण हिस्सेदारी करते हैं. विजयानंद विजय ने आइए, देश देश खेलते हैं एवं हम तो बंदर ही भले है व्यंग्यों के जरिये अपनी कलम का कमाल बता दिया है. स्वयं विवेक रंजन श्रीवास्तव के भी दो लेख सीबीआई का सीबीआई के द्वारा सीबीआई के लिये और आम से खास बनने की पहचान थी लाल बत्ती पुस्तक को महत्वपूर्ण व पठनीय बनाते हैं. अमन चक्र के लेख कुत्ता व मस्तराम पठनीय हैं. रमेश मनोहरा उल्लुओ का चिंतन करते हैं. दिलीप मेहरा के लेख कलयुग के भगवान, तथा विदाई समारोह और शंकर की उलझन गुदगुदाते हैं.
मिली भगत के सभी लेख एक से बढ़कर एक हैं. इन उत्तम, प्रायः दीर्घ कालिक महत्व के विषयो पर लिखे गये मनोरंजक लेखो के चयन हेतु संपादक विवेक रंजन श्रीवास्तव बधाई के पात्र हैं. सभी लेख ऐसे हैं कि एक बार पाठक पढ़ना शुरू करे तोलेख पूरा किये बिना रुक नही पाता. निश्श्चित ही मिली भगत को व्यंग्य जगत लंबे समय तक याद रखेगा व संदर्भ में इसका उपयोग होगा. कुल मिलाकर किताब पैसा वसूल मनोरंजन, विचार और परिहास देती है. खरीद कर पढ़िये, जिससे ऐसी सार्थक किताबो को प्रकाशित करने में प्रकाशकों को गुरेज न हो. किताब हार्ड बाउंड है, अच्छे कागज पर डिमाई साईज में लाईब्रेरी एडिशन की तरह पूरे गैटअप में संग्रहणीय लगी.
किसलय मन अनुराग (दोहा कृति) – डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’
पुरोवाक्:
(प्रस्तुत है “किसलय मन अनुराग – (दोहा कृति)” पर डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’ जी का आत्मकथ्य। पुस्तकांश के रूप में हिन्दी साहित्य – कविता/दोहा कृति के अंतर्गत प्रस्तुत है एक सामयिक दोहा कृति “आतंकवाद” )
धर्म, संस्कृति एवं साहित्य का ककहरा मुझे अपने पूज्य पिताजी श्री सूरज प्रसाद तिवारी जी से सीखने मिला। उनके अनुभवों तथा विस्तृत ज्ञान का लाभ ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते मुझे बहुत प्राप्त हुआ। कबीर और तुलसी के काव्य जैसे मुझे घूँटी में पिलाए गये। मुझे भली-भाँति याद है कि कक्षा चौथी अर्थात 9-10 वर्ष की आयु में मेरा दोहा लेखन प्रारंभ हुआ। कक्षा आठवीं अर्थात सन 1971-72 से मैं नियमित काव्य लेखन कर रहा हूँ। दोहों की लय, प्रवाह एवं मात्राएँ जैसे रग-रग में बस गई हैं। दोहे पढ़ते और सुनते ही उनकी मानकता का पता लग जाता है। मैंने दोहों का बहुविध सृजन किया है, परंतु इस संग्रह हेतु केवल 508 दोहे चयनित किए गये हैं। इस संग्रह में गणेश, दुर्गा, गाय, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, वसंत, सावन, होली, गाँव, भ्रूणहत्या, नारी, हरियाली, माता-पिता, प्रकृति, विरह, धर्म राजनीति, श्रृंगार, आतंकवाद के साथ सर्वाधिक दोहे सद्वाणी पर मिलेंगे। अन्यान्य विषयों पर भी कुछ दोहे सम्मिलित किये गए हैं। इस तरह कहा जा सकता है कि इस संग्रह में सद्वाणी को प्रमुखता देते हुए इर्दगिर्द के विषयों पर भी लिखे दोहे मिलेंगे। मेरा प्रयास रहा है कि पाठकों को दोहों के माध्यम से रुचिकर, लाभदायक एवं दिशाबोधी संदेश पढ़ने को मिलें। जहाँ तक भाषाशैली एवं शाब्दिक प्रांजलता की बात है तो वह कवि की निष्ठा, लगन एवं अर्जित ज्ञान पर निर्भर करता है। यहाँ पर मैं यह अवश्य बताना चाहूँगा कि विश्व का कोई भी साहित्य लोक, संस्कृति, एवं अपनी माटी की गंध के साथ साथ वहाँ के प्राचीन ग्रंथों, परंपराओं, महापुरुषों एवं विद्वानों की दिशाबोधी बातों का संवाहक होता है। साहित्य सृजन में गहनता, विविधता एवं सकारात्मकता भी निहित होना आवश्यक है। पौराणिक ग्रंथों, प्राचीन साहित्य, अनेकानेक काव्यों के अध्ययन के साथ-साथ मेरा लेखन भी जारी है। मेरा सदैव प्रयास रहा है कि दिव्यग्रंथों, पुराणों के सार्वभौमिक सूक्त तथा विद्वान ऋषि-मुनियों के प्रासंगिक तथ्यों को समाज के समक्ष प्रस्तुत कर सकूँ। इसमें मुझे कितनी सफलता मिली है, यह तो पाठक ही बतायेंगे। मेरा दोहा सृजन मात्र इस लिए भी है कि यदि गिनती के कुछ लोग भी मेरे दोहे पढ़कर सकारात्मकता की ओर प्रेरित होते हैं तो मैं अपने लेखन को सार्थक समझूँगा।
भारतीय जीवनशैली एवं संस्कृति इतनी विस्तृत है कि एक ही कथानक पर असंख्य वृत्तांत एवं विचार पढ़ने-सुनने को मिल जायेंगे। एक ही विषय पर विरोधाभास एवं पुनरावृति तो आम बात है। सनातन संस्कृति एवं परंपराओं में रचा बसा होने के कारण निश्चित रूप से मेरे लेखन में इनकी स्पष्ट छवि देखी जा सकती है। अंतर केवल इतना है कि मेरे द्वारा उन्हें अपनी शैली में प्रस्तुत किया गया है। मैं तो इन परंपराओं एवं संस्कृति का मात्र संवाहक हूँ। स्वयं को एक आम साहित्यकार के रूप में ज्यादा सहज पाता हूँ।
दोहा संग्रह ‘किसलय के दोहे’ के प्रकाशन पर मैं यदि अपनी सहधर्मिणी आत्मीया श्रीमती सुमन तिवारी का उल्लेख न करूँ तो मेरे समग्र लेखन की बात सदैव अधूरी ही रहेगी, क्योंकि वे ही मेरी पहली श्रोता, पाठक एवं प्रेरणा हैं। वे मेरे लेखन को आदर्श की कसौटी पर कसती हैं। यथोचित परिवर्तन हेतु भी बेबाकी से अपनी बात रखती हैं। मेरे इकलौते पुत्र प्रिय सुविल के कारण मुझे कभी समयाभाव का कष्ट नहीं उठाना पड़ता। हर परेशानी एवं बाधाओं के निराकरण की जिम्मेदारी बेटे सुविल ने ही ले रखी है। पुत्रवधू मेघा का उल्लेख मेरे परिवार को पूर्णता प्रदान करता है।
समस्त पाठकों के समक्ष मैं यह नूतन दोहा संग्रह ‘किसलय के दोहे’ प्रस्तुत करते हुए स्वयं को भाग्यशाली अनुभव रहा हूँ। आपकी समीक्षाएँ एवं टिप्पणियाँ मेरे लेखन की यथार्थ कसौटी साबित होंगी। सृजन एवं प्रकाशन में आद्यन्त प्रोत्साहन हेतु स्वजनों, आत्मीयों, मित्रों एवं सहयोगियों को आभार ज्ञापित करना भला मैं कैसे भूल सकता हूँ।
डॉ. विजय तिवारी ‘किसलय’
2419 विसुलोक, मधुवन कॉलोनी, विद्युत उपकेन्द्र के आगे, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर (म.प्र.) 482002
भूमंडलीकरण व आर्थिक उदारीकरण ने हिन्दुस्तानी गाँवों और गाँव की संस्कृति व सम्बन्धों पर व्यापक प्रभाव डाला है इन प्रभावों को किसानी जीवन से जोड़कर सकारात्मक नकारात्मक सन्तुलित नजरिए से देखने वाले तमाम उपन्यास हिन्दी में प्रकाशित हुए है । राजकुमार राकेश , अनन्त कुमार सिंह , रणेन्द्र , रुपसिंह चन्देल ने इस विषय पर क्रमशः धर्मक्षेत्र , ताकि बची रहे हरियाली , ग्लोबल गाँव का देवता , पाथरटीला , जैसे शानदार उपन्यास लिखे । इसी क्रम में हम यह गाँव बिकाऊ है रख सकते हैं
“यह गाँव बिकाऊ है” ग्राम्य जीवन व समाज की गतिशील आत्मकथा है । कथा गाँव की है एक ऐसा गाँव जो बदले हुए मिजाज़ का है जहाँ कोई भी घटना व्यक्ति उसकी पहचान स्वायत्त नही है सब परस्पर एक दूसरे से संग्रथित हैं । वर्तमान परिदृष्य में गाँव की असलियत बताता हुआ उपन्यास है जिसमें लेखक ने गाँव को केन्द्रिकता प्रदत्त करते हुए राजनीति थोथे वादे , लोकतान्त्रिक अवमूल्यन , अपराध हिंसा , जनान्दोलनों , संठगनों की भूमिका व इन संगठनों के भीतर पनप रहे वर्चस्ववाद पर गाँव की भाषा और जीवन्त संस्कृति पर सेंध लगाकर रचनात्मक विवेचन किया है ।
“यह गाँव बिकाऊ है” बाजारवादी दौर का उपन्यास है जहाँ गाँव की समूचीं राजनैतिक संस्कृति व सामाजिक सरंचना पर काबिज बुर्जुवा शक्तियों को परखने हेतु व्यापक फलक पर बहस की गयी है यथार्थ वास्तविक है चरित्र जीवन्त है संवाद स्वाभाविक है घटनात्मक व्यौरों व वस्तु विन्यास में कहीं भी काल्पनिकता अतिरंजना मनगढन्तता का कोई स्पेस नही है ।
“यह गाँव बिकाऊ है” नंगला गाँव की व्यथा कथा है। जो पूर्णतः उदारीकृत भूमंडलीकृत व लम्पटीकृत गाँव है । गाँव बसता है उजड़ता है । गाँव शहर पलायन करता है । मजदूरी करता है । मन्दी की मार से उत्पादन इकाई टूटती है । गाँव बेरोजगार होता है वह फिर लौटता है ।वह पाता है यहाँ से वह विस्थापित है नये सत्ता समीकरण बन गये , नये समाजिक समीकरण बन गये विकास के छद्म नारे तन्त्र में काबिज कुछ लोगों के हाथ मजबूत कर रहे है।गाँव जूझता है । संगठित होता है ।लड़ता है ।
“यह गाँव बिकाऊ है” बदलाव और संघर्ष का उत्तरदायित्व फतह या रामू काका जैसे बुजुर्गों को नही देता । नव शिक्षित अघोष , सलीम राजेश जैसे युवाओं को देता है तथा आखिरी विकल्प व प्रस्तावित विकल्प संगठन बद्ध , चरणबद्ध सक्रिय संघर्ष ही है जो निष्कलुष और अपने आवेग मेँ तमाम चीजों को बहाकर ले जाने का साहस रखता है ।
“यह गाँव बिकाऊ है” हमारी पीढ़ी के युवा कथाकार द्वारा लिखा गया शानदार उपन्यास है इसके लेखक साथी एम.एम. चन्द्रा को बधाई …
आत्मकथ्य: जिंदगी रंग-बिरंगी है ये हमे हर मोड़ पर अलग-अलग रसों का अनुभव करवाती है । इस पुस्तक में भी कुछ पन्नो की 27 कहनियाँ है नौ रसों में से हर एक रस की 3 कहानियाँ, पहली 9 कहानियाँ एक-एक रस की नौ रसों तक फिर कहानी नंबर 10 से 18 तक फिर उसी क्रम में नौ रसों की एक-एक कहानी ऐसे ही 19 से 27 तक फिर उसी क्रम में नौ रसों की एक-एक कहानी। कुछ कहानियों में सब को आसानी से पता चल जाएगा की वो किस रस की है । कुछ में उन्हें थोड़ा सोचना पड़ेगा इसलिए हर एक कहानी के बाद मैंने लिख दिया है की उस कहानी में कौन सा रस प्रधान है पुस्तक की कहानियों में रसो का क्रम श्रृंगार, हास्य, अद्भुत, शांत, रौद्र, वीर, करुण, भयानक एवं वीभत्स हैं।
अर्थात पहली कहानी श्रृंगार रस दूसरी हास्य ऐसे ही नौवीं कहानी वीभत्स रस की है इसी क्रम में दसवीं कहनी फिर श्रृंगार रस, ग्यारहवी कहानी फिर हास्य रस की है और ऐसे ही उन्नीसवीं कहानी फिर से श्रृंगार रस आदि आदि ….. सत्ताईसवीं कहनी वीभत्स रस की है ।
मैंने इस पुस्तक में सामान्य बोलचाल की हिंदी का प्रयोग किया है जिससे सब आसानी से कहानियों के भावों को समझ सके जहाँ पर कोई वार्तालाप है वहाँ मैने उसे उसी तरह लिखा है जैसे वो हुआ था हिंदी और अंग्रजी दोनों में। कुछ स्थानों पर मैने समान्य बोलचाल से हट कर कहानी के हिसाब से हिन्दी शब्द प्रयोग किये है जिनका अर्थ मैने उन्हीं शब्दों के आगे ( ) के अन्दर अङ्ग्रेज़ी में समझा दिया है।
पुस्तकांश :
छोले चावल
सितम्बर 2005 से लेकर फरवरी 2006 तक मैने दिल्ली से C-DAC का कोर्स किया था जिसमे उच्च (advanced) कप्म्यूटर की तकनीक पढ़ाई जाती है। हमारा केंद्र दिल्ली के लाजपत नगर 4 में अमर कॉलोनी में था। हमारे अध्ययन केंद्र से मेरे किराये का कमरा बस 150-200 मीटर दूर था। हमारे केन्द्र में सुबह 8 से रात्रि 6 बजे तक क्लास और लैब होती थी। उन दिनों हम रात में लगभग 2-3 बजे तक जाग कर पढ़ाई करते थे। हमारा अध्ययन केन्द्र और मेरा किराये का कमरा बीच बाज़ार में थे।
मेरे साथ मेरे तीन दोस्त और रहते थे। क्योंकि हमारा कमरा बीच बाज़ार में था तो वहाँ खाने और पीने की चीजों की दुकानों और होटलों की कोई कमी न थी। जिस इमारत में तीसरी मंजिल पर हमारा कमरा था उसी मंजिल में भूतल (ground floor) पर एक चाय वाले की दुकान थी चाय वाले का नाम राजेंद्र था उसके साथ एक और लड़का भी काम करता था जिसका नाम राजू था। उस पूरे क्षेत्र में केवल वो ही एक चाय की दुकान थी तो राजेंद्र चाय वाले के यहाँ सुबह 7 से लेकर रात 11 बजे तक काफी भीड़ रहती थी। राजेंद्र की चाय औसत ही थी इसलिए कभी-कभी हम थोड़ा दूर जा कर भी किसी और टपरी पर चाय पी लिया करते थे और अगर कभी देर रात को चाय पीनी हो तब भी हम टहलते-टहलते दूर कहीं चाय पीने चले जाते थे ।
धीरे-धीरे समय के साथ राजेंद्र की दुकान पर भीड़ बढ़ने लगी। उसकी दुकान पर हमेशा लोगो का ताँता लगा रहता था। राजेंद्र की दुकान पर सभी तरह के लोग आते थे। कुछ वो भी जो लोगो को डराने धमकाने का काम करते थे। कुछ हमारे जैसे पढ़ने वाले छात्र एवं कुछ पुलिस वाले भी । धीरे-धीरे राजेंद्र की चाय की गुणवत्ता घटने लगी। मैं और मेरे मित्र चाय के लिए कोई और विकल्प ढूंढ़ने लगे। हम राजेंद्र की चाय से ऊब गए थे। अचानक एक दिन जब मैं अपने केन्द्र पर जा रहा था मैने देखा की राजेंद्र की चाय की दुकान की बायीं ओर की सड़क पर एक 23-24 साल का लड़का कुछ सामान लगा रहा था वो लड़का देखने में बहुत सुन्दर और हट्टा-कट्टा था एवं बहुत अच्छे घर का लग रहा था। शाम को जब मैं अपने अध्ययन केन्द्र से वापस आ रहा था तो मैने देखा की राजेंद्र की दुकान के बायीं ओर सुबह जहाँ एक लड़का कुछ सामान लगा रहा था वहाँ पर एक नयी चाय की दुकान खुल चुकी थी। उस चाय की दुकान को देख कर मेरी ख़ुशी का ठिकाना ना रहा। उस चाय की दुकान पर कोई भी ग्राहक ना था। जैसे ही मैने चाय वाले की तरफ देखा उस चाय वाले के मुस्कुराते हुए चेहरे ने मेरी तरफ देख कर बोला ‘भईया चाय पियोगे?’
मैं थका हुआ था मैने कुछ देर सोचा उसकी तरफ देखा और बोला ‘हाँ भईया एक स्पेशल चाय बना दो केवल दूध की’ पांच मिनट के अंदर उसने चाय का गिलास मेरी तरफ बढ़ाया। चाय काफी अच्छी बनी थी मैने चाय पीते-पीते कहा ‘भईया चाय अच्छी बनी है’। उसने कहा ‘धन्यवाद सर’ फिर मैने पूछा की उसका नाम क्या है और वो कहाँ का रहनेवाला है? तो उसने अपना नाम चींकल बताया और वो पंजाब के किसी छोटे से शहर का था। धीरे-धीरे मैने और मेरे तीन साथियो ने राजेंद्र की जगह चींकल की टपरी से चाय पीना शुरू कर दिया। चींकल केवल 1 कप चाय या 1 ऑमलेट भी तीसरी मंजिल तक ऊपर आ कर दे देता था। वह बहुत ही जिन्दादिल लड़का था बड़ा हसमुख सब को खुश रखने वाला। धीरे-धीरे चींकल, चाय वाले से ज्यादा हमारा दोस्त बन गया था। 1 महीने के अंदर ही अंदर राजेंद्र चाय वाले के ग्राहक कम होने लगे और चींकल के बढ़ने लगे।
क्योकि हम लोगो को काफी पढ़ाई करनी होती थी तो हम चींकल की दुकान पर कम ही जाते थे और जो कुछ चाहिए होता था वो तीसरी मंजिल के छज्जे से आवाज़ लगा कर बोल देते थे और चींकल ले आता था। कई बार मैने उससे पूछने की कोशिश की कि वो तो अच्छे घर का लगता है फिर ये चाय बेचने का काम क्यों करता है? पर वो हर बार टाल जाता था। एक दिन जब करीब सुबह के 11 बजे मैं अपने केंद्र जा रहा था तो चींकल ने आवाज़ लगायी और बोला ‘भईया मेरी बीवी ने आज छोले चावल बनाये है आ जाओ थोड़े-थोड़े खा लेते है’ मैने काफी मना किया पर वो नहीं माना और टिफिन के ढक्कन में मेरे लिए भी थोड़े से छोले चावल कर दिए। मैने खा लिए। छोले चावल बहुत ही स्वादिष्ट बने थे।
उस दिन मैं बहुत थक गया था हमारे कंप्यूटर केंद्र में मैं नयी तकनीक में प्रोग्रामिंग सीख रहा था जो मेरी समझ में नहीं आ रहा थी, तो शाम के करीब 6 बजे जब मैं निराश और थक कर कमरे पर वापस जा रहा था तो मैंने देखा की चींकल की दुकान के पास कुछ लोग खड़े है। तीन चार लोग उसे पीटते जा रहे थे और दो लड़के उसकी चाय की टपरी का सामान तोड़ रहे थे। पास ही में राजेंद्र चाय वाला खड़ा हुआ हंस रहा था। मैं समझ गया कि ये सब राजेंद्र चाय वाला ही करवा रहा था। मैं कुछ बोलने वाला ही था कि राजेंद्र चाय वाले ने मेरी तरफ घूर कर देखा और मैं डर गया। चींकल ने मुझे आवाज़ भी लगायी ‘आशीष भईया’ पर मैं अनसुना कर के आगे निकल गया और अपने कमरे में जाने के लिए इमारत में घुस गया। पता नहीं क्यों मैं डरपोक बन गया था। अगली सुबह वहाँ जहाँ पर चींकल की चाय की दुकान हुआ करती थी उसके कुछ अवशेष पड़े थे मेरी आँखों से आँसू बह रहे थे। चींकल द्वारा खिलाये हुए घर के बने छोले चावल शायद मैं आज भी नहीं पचा पाया हूँ ।
आत्मकथ्य – यह उपन्यासिका मेरी पहली कहानी ‘चुभता हुआ सत्य’ पर आधारित है। यह कहानी दैनिक नवीन दुनिया, जबलपुर की साप्ताहिक पत्रिका ‘तरंग’ के प्रवेशांक में 19 जुलाई 1982 को डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ जी के साहित्य सम्पादन में प्रकाशित हुई थी।
इस उपन्यासिका का कथानक एवं कालखंड अस्सी-नब्बे के दशक का है।अतः इसके प्रत्येक पात्र को विगत 36 वर्ष से हृदय में जीवित रखा। जब भी समय मिला तभी इस कथानक के पात्रों को अपनी कलम से उसी प्रकार से तराशने का प्रयत्न किया, जिस प्रकार कोई शिल्पकार अपने औजारों से किसी शिलाखण्ड को वर्षों तराश-तराश कर जीवन्त नर-नारियों की मूर्तियों का आकार देता है, मानों वे अब बोल ही पड़ेंगी।
सबसे कठिन कार्य था, एक स्त्री पात्र को लेकर आत्मकथात्मक शैली में उपन्यासिका लिखना। संभवतः किसी लेखिका को भी एक पुरुष पात्र को लेकर आत्मकथात्मक शैली में लिखना इतना ही कठिन होता होगा। इन पात्रों की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझते हुए पिछले 36 वर्ष तक अपने हृदय में सहेजने के पश्चात अब उन्हें उपन्यासिका का रूप दे कर संतुष्टि का अनुभव कर रहा हूँ। यह उपन्यासिका वर्तमान परिपेक्ष्य में कितनी सार्थक है, इसका निर्णय मैं अपने पाठकों पर छोड़ता हूँ।
अमेज़न पर यह ईबुक 27 दिसंबर मध्यरात्रि तक प्री-लॉंच ऑफर पर उपलब्ध है एवं 28 दिसंबर 2018 प्रातःकाल से विक्रय के लिए उपलब्ध रहेगी।
पुस्तक समीक्षा – चुभता हुआ सत्य – डॉ विजय कुमार तिवारी ‘किसलय’
लेखन की सार्थकता दिशाबोधी उद्देश्य की सफलता पर निर्भर करता है। लेखन सुगठित, सुग्राह्य, चिंतनपरक एवं उद्देश्य की कसौटी पर जितना खरा उतरेगा उतना व्यापक पठनीय, श्रवणीय तथा देखने योग्य होगा। सृजक की साधना, अभिव्यक्ति-चातुर्य तथा अनुभव ही सृजन को महानता और सार्थकता प्रदान करते हैं। अध्ययन एवं सांसारिक चिंतन-मनन उपरांत लिखा गया साहित्य निश्चित रूप से जनहितैषी एवं मार्गदर्शक होता है। हिन्दी में साहित्य लेखन का प्रारंभ ही धर्म, नीति, सद्भाव तथा मानवता से हुआ है। आज समय के दीर्घ अंतराल पश्चात लेखन बदला है, विषय बदले हैं और सबसे बड़ा बदलाव हुआ है तो वह है मानवीय दृष्टिकोण का। निःसंदेह तकनीकी प्रगति में अकल्पनीय वृद्धि हुई है परंतु वांछित मानवीय गुणों में निरंतर गिरावट हो रही है। आज बदलते परिवेश में शांति, सद्भाव, प्रेम, सहयोग एवं उदार भावों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने का उत्तरदायित्व साहित्यकारों के ऊपर पुनः आ गया है। आज उत्कृष्ट साहित्य के प्रचार प्रसार एवं अनुकरण हेतु प्रबुद्ध वर्ग का आगे आना अनिवार्य हो गया है। आज जब हर शख्सियत ‘अपनी ढपली अपना राग’ अलापने में लगी है, तब समाज को सही दिशा देने का परंपरागत कार्य साहित्यकार को ही करना पड़ेगा। आज समाज में स्वार्थ, वैमनस्य, असमानता तथा घमंड जैसी बहुसंख्य समस्याएँ एवं विद्रूपताएँ व्याप्त हैं। ‘मैं’ को ‘हम’ में बदलने का कार्य कलमकार ही कर सकता है।
तुलसी और कबीर से लेकर आज तक साहित्यमनीषियों के प्रेरक प्रसंग तथा लेखन ने इस समाज को परस्पर बाँधे रखा है। आज भी ऐसे साहित्यकारों की कमी नहीं है जो निरंतर दिशाबोधी तथा सकारात्मक सृजन में संलग्न हैं। ऐसे ही एक साहित्यकार हैं श्री हेमंत बावनकर, जिनके साहित्य पर मैंने चिंतन-मनन तो किया ही है उन्हें निकट से जाना भी है। साधारण सहज एवं आत्मीय श्री हेमंत जी एक ओर जहाँ मितभाषी एवं सहयोगी प्रकृति के हैं, वहीं अपने लेखन के प्रति सदैव सजग तथा गंभीर भी रहते हैं। आपका काव्य हो, कहानियाँ हों अथवा उपन्यास। हर विधा में इन्हें निष्णात माना जा सकता है। भाषा-शैली, भाव-गाम्भीर्य, परिदृश्य-चित्रांकन के साथ ही अंतस तक प्रभावी संवाद आपके लेखन की विशेषताएँ हैं।
उपन्यासिका ‘चुभता हुआ सत्य’ भी एक ऐसी ही कृति है जिसमें मानवीय भावनाओं को प्रमुखता से उभारा गया है। पूरी उपन्यासिका को परिस्थितियों एवं परिवेश के अनुरूप दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। एक भाग में नायिका सुनीता के विवाह पूर्व का लेखा-जोखा है, वहीं दूसरे भाग में विवाहोपरांत उन संवेदनाओं का उल्लेख है जो मानवीय मूल्यों को कहीं न कहीं ठेस पहुँचाते हैं। उपन्यासिका में नायक सुनीता विद्यार्थी जीवन से ही बुद्धिमान, सत्य के प्रति निर्भीक तथा चिंतक प्रवृत्ति की लड़की रहती है। दहेज एवं लड़की वालों की बातों से वह काफी विचलित होती है। तभी एक पत्रकार रवि परिचर्चा हेतु साक्षात्कार के लिए उसके घर आता है। सुनीता उसके विचारों से प्रभावित होती है। मुलाकातें वैवाहिक प्रस्ताव तक पहुँचती हैं। नौकरी लगने पर रवि से उसका अंतरजातीय विवाह हो जाता है। इस भाग में मध्यम वर्गीय परिवारों, रैगिंग जैसी कुरीतियों, दहेज प्रथा, बेरोजगारी, ननद-भाभी के पवित्र रिश्ते एवं आचार-व्यवहार के ताने-बाने से मध्यम वर्गीय परिदृश्य पाठकों के जेहन में उभरकर स्थायित्व प्राप्त करता है। मीना भाभी माँ का आदर्श चित्रण भी लेखक की अपनी शैली का उदाहरण है।
विवाह के उपरांत लखनऊ यूनिट में रवि एम. ए. इंग्लिश पढ़ी सुनीता के साथ बड़े उत्साह और गर्व के साथ सैन्यजीवन आगे बढ़ाता है। यहाँ पर पढ़ी-लिखी सुनीता अफ़सर और सिपाहियों के भेद तथा अफसरों की पत्नियों द्वारा अफ़सरों जैसे व्यवहार से क्षुब्ध रहती है। एक बार महिला कल्याण समिति की अध्यक्ष और रवि के बॉस की पत्नी मिसेज शर्मा से बहस होने पर रवि को सिपाही से अर्दली बनने का खामियाजा भुगतना पड़ता है। इससे सुनीता मानसिक रूप से बेहद परेशान रहती है लेकिन रवि के समझाने पर उसका मन हल्का हो जाता है। इन प्रसंगों के चलते पूरी उपन्यासिका में सुनीता की वैचारिक उथल-पुथल चलती रहती है। सामाजिक बंधनों की बात, रवि के साथ आकर्षण की बात, बिटिया मधु की भावनाओं की बात, सैन्य जीवन में अफसर सिपाही के भेद की बात अथवा अफसर-सिपाहियों की पत्नियों के बीच भी उच्च एवं निम्न के भेद की बात सुनीता के मन को कचोटती है और एक दिन जब उसके सब्र का बाँध टूट पड़ता है तब पाठकों को भी एहसास होता है कि स्वाभिमान पर ठेस लगना साधारण नहीं होता। पति-पत्नी के आदर्श रिश्ते की सफलता का वर्णन भी इस उपन्यासिका में बखूबी किया गया है।
सुनीता के जीवन में ऐसे अनेक चुभते हुए सत्य सामने आते हैं और वह हर बार तिलमिला उठती है। शादी हेतु बार बार प्रस्तुत होना। अकेले जन्मे हैं अकेले ही मरेंगे। सैनिक से अधिक अर्दली की पत्नी हूँ। देशभक्ति में नैतिकता बहुत निचले स्तर तक पहुँच गई है। अमर शहीदों का जीवन कुछ धन या सिलाई मशीन से तौला जा सकता है? ऐसे और भी चुभते सत्य इस उपन्यासिका में हैं, जिनके माध्यम से जनचेतना लाने का प्रयास साहित्यकार श्री हेमन्त जी द्वारा किया गया है। अंत में राष्ट्रप्रेम का भाव रवि को सुनीता के दृष्टि में और ऊँचाई पर पहुँचा देता है। इसके साथ ही अब सुनीता के पास ऐसा कोई भी चुभता हुआ सत्य नहीं बचता जो उसके हृदय में गहराई तक चुभ सके।
इस तरह हम कह सकते हैं कि उपन्याससिका ‘चुभता हुआ सत्य’ आज समाज में व्याप्त विसंगतियों, कुरीतियों, दहेज, द्वेष आदि के उदाहरण प्रस्तुत करती ऐसी कृति है जिसे पढ़ने के पश्चात पाठक भी उद्वेलित होकर चिंतन-मनन हेतु निश्चित रूप से बाध्य होगा। उपन्यासिका में महाविद्यालयीन, पारिवारिक, वैवाहिक, युवक-युवती आकर्षण, ममता, वात्सल्य, सैन्य जीवन, निर्भीकता, सत्यता जैसे भावों का समावेश होना लेखक का व्यापक अध्ययन और ज्ञान का नतीजा ही कहा जाएगा। यह कृति समाज को नई दिशा दे। श्री हेमन्त जी का सृजन अबाध चलता रहे। उपन्यासिका ‘चुभता हुआ सत्य’ के प्रकाशन पर हमारी अंतस से अनंत बधाईयाँ।
– विजय तिवारी ‘किसलय’
विसुलोक, 2419 मधुवन कॉलोनी, विद्युत उपकेन्द्र के आगे, उखरी रोड, जबलपुर (मध्य प्रदेश) 482002.