मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 57 ☆ नक्षत्रांचे देणे ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक समसामयिक एवं भावप्रवण कविता  “नक्षत्रांचे देणे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 57 ☆

☆ नक्षत्रांचे देणे ☆

 

ऋतू फळांचा होता, झाड लगडले होते

खडा मारला तरिही, झाड न चिडले होते

 

नवी पालवी फुटली, नटले झाड नव्याने

बघून हिरवा नखरा, खग फडफडले होते

 

नक्षत्रांचे देणे, लतिके तुझ्याच साठी

फुले न या वेलीला, हिरेच जडले होते

 

अमावास्या तरीही, चंद्र कसा हा दिसला

मला पाहुनी बहुधा, तंत्र बिघडले होते

 

युद्ध वादळी होते, सवाल अस्तित्वाचा

अवयव हे झाडाचे, मिळून भिडले होते

 

फळे पक्व ही होता सारी गळून गेली

देठासोबत येथे, मुळही रडले होते

 

पूर्वेच्या किरणांची, वाट मोकळी केली

स्वागतास मी त्यांच्या, दार उघडले होते

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ उत्सव कवितेचा # 12 – रात्र ☆ श्रीमति उज्ज्वला केळकर

श्रीमति उज्ज्वला केळकर

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपके कई साहित्य का हिन्दी अनुवाद भी हुआ है। इसके अतिरिक्त आपने कुछ हिंदी साहित्य का मराठी अनुवाद भी किया है। आप कई पुरस्कारों/अलंकारणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी अब तक 60 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें बाल वाङ्गमय -30 से अधिक, कथा संग्रह – 4, कविता संग्रह-2, संकीर्ण -2 ( मराठी )।  इनके अतिरिक्त  हिंदी से अनुवादित कथा संग्रह – 16, उपन्यास – 6,  लघुकथा संग्रह – 6, तत्वज्ञान पर – 6 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  हम श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी के हृदय से आभारी हैं कि उन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – उत्सव कवितेचा के माध्यम से अपनी रचनाएँ साझा करने की सहमति प्रदान की है। आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता  रात्र 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – उत्सव कवितेचा – # 12 ☆ 

☆ रात्र

 

रात्र

लडिवाळ

गोष्टीवेल्हाळ

आजीच्या मांडीवर

जोजावणारी

जादूच्या चटईवरून

साता समुद्रापार नेणारी

यक्ष … चेटकीणीचे

गारुड

दाखवता दाखवता

त्यातच विरघळून जाणारी

रात्र

 

© श्रीमति उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री ‘ प्लॉट नं12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ , सांगली 416416 मो.-  9403310170

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 8 ☆ वृद्धा:श्रम ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

(कवी राज शास्त्री जी (महंत कवी मुकुंदराज शास्त्री जी) का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आप मराठी साहित्य की आलेख/निबंध एवं कविता विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। मराठी साहित्य, संस्कृत शास्त्री एवं वास्तुशास्त्र में विधिवत शिक्षण प्राप्त करने के उपरांत आप महानुभाव पंथ से विधिवत सन्यास ग्रहण कर आध्यात्मिक एवं समाज सेवा में समर्पित हैं। विगत दिनों आपका मराठी काव्य संग्रह “हे शब्द अंतरीचे” प्रकाशित हुआ है। ई-अभिव्यक्ति इसी शीर्षक से आपकी रचनाओं का साप्ताहिक स्तम्भ आज से प्रारम्भ कर रहा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “वृद्धा:श्रम”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 8 ☆ 

☆ वृद्धा:श्रम ☆

 

ती आणि तो

तिला तो आवडला

त्याला ती आवडली

दोघेपण एकमेकांच्या

जवळ आले एकमेकांना ओळखू लागले असेच काही दिवस गेले

दोघे ही एकमेकांच्या प्रेमात पडले लग्न झाले, संसार सुखाचा सुरू झाला.

निसर्ग नियम, त्यांच्या संसार वेलीवर एक गोंडस फुल उमलले.

 

पाहता पाहता वेळ भरपूर निघून गेला

परिस्थिती बदलली, तिला फक्त तोच हवा वाटू लागला

सासू सासरे, नको वाटू लागले.

भांडण सुरू झाले, उपास तापास लटके ओरडणे गोंधळ उडाला.

त्याला काय करावं कळेनासे झाले

इकडे आड तिकडे विहीर अशी त्याची गत झाली.

आई, वडील, की पत्नी…?

कोणाची निवड करावी…. त्याचीच त्याच्या सोबत प्रश्न मंजुषा सुरू झाली.

आणि एके दिवशी नको तेच झालं, तिनं स्वतःला खोटं खोटं, पेटवून घेतलं…

 

तो आला तिला सावरलं मात्र ती त्याला काही बोललीच  नाही, प्रतिसाद सुद्धा दिला नाही. ओळख असून अनोळखी असल्यासारखे वर्तन ती करू लागली, तिला पाहिजे ते त्याने करावे हेच तिचे आग्रहाचे आणि शेवटचे ठाम मत तिने तिच्या कर्मातून त्याला निदर्शनास आणुन दिले…

 

शेवटी निर्णय झाला आई,वडील वृद्धाश्रमात दाखल झाले…….

 

एकच प्रश्न मी इथे उपस्थित

करतो… प्रेम होणे गुन्हा आहे, का लग्न झाले तो गुन्हा होता.

ज्या मुलाला लहानाचा मोठा

केला त्यानेच आपल्या आई,बापाला घरातून बाहेर

काढून वृद्धाश्रम दाखवला.

 

मग अशाने कसे होईल, कुठे गेली ती,

“मातृ देवो भव: पितृ देवो भव:”

म्हणणारी पवित्र भारतीय संस्कृती….

कुणाच्याच आयुष्यात असे नको व्हायला…

 

नको तो तुरुंगवास…

नको नरक यातनांनी भरलेलं ते जीवन.

 

शेवटी समारोप करतांना मला हेच म्हणावे वाटतं आहे की…

 

जपा संस्कृती,

वारसा तो आपला

आई, वडिलांनी जन्म दिला

सोहळा त्यामुळेच साजरा झाला.

 

फक्त नांदा सौख्यभरे…

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन,

वर्धा रोड नागपूर,(440005)

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या # 19 ☆ राणी ☆ श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

ई-अभिव्यक्ति में श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या को प्रस्तुत करते हुए हमें अपार हर्ष है। आप मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। वेस्टर्न  कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड, चंद्रपुर क्षेत्र से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। अब तक आपकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें दो काव्य संग्रह एवं एक आलेख संग्रह (अनुभव कथन) प्रकाशित हो चुके हैं। एक विनोदपूर्ण एकांकी प्रकाशनाधीन हैं । कई पुरस्कारों /सम्मानों से पुरस्कृत / सम्मानित हो चुके हैं। आपके समय-समय पर आकाशवाणी से काव्य पाठ तथा वार्ताएं प्रसारित होती रहती हैं। प्रदेश में विभिन्न कवि सम्मेलनों में आपको निमंत्रित कवि के रूप में सम्मान प्राप्त है।  इसके अतिरिक्त आप विदर्भ क्षेत्र की प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के विभिन्न पदों पर अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। अभी हाल ही में आपका एक काव्य संग्रह – स्वप्नपाकळ्या, संवेदना प्रकाशन, पुणे से प्रकाशित हुआ है, जिसे अपेक्षा से अधिक प्रतिसाद मिल रहा है। इस साप्ताहिक स्तम्भ का शीर्षक इस काव्य संग्रह  “स्वप्नपाकळ्या” से प्रेरित है ।आज प्रस्तुत है  उनका एक श्रृंगारिक रचना  “राणी“.) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – स्वप्नपाकळ्या # 19 ☆

☆ राणी

 

अगं नाव काय तुझं ये राणी

तुझा बिल्लोर चांदणीवाणी

तुझ्या नखऱ्यावरी,

वाहिन दुनिया सारी

चंद्र पुनवेचा देईन निशाणी।।

 

राग आलाय राणीला लटका

नको मारु गं  मानेला झटका

कर झटका दुरी,

हास गं पळभरी

तुझ्या हास्यात मी,पाणी पाणी।।

 

झोके कमरेला देऊ नको नाना

होई कलिजाचा खजिना रिकामा

पाहुनी सिंहकटी,

माझी फिरली मती

तुझ्या कमरेत,जादू दिवाणी।।

 

तुझ्या गजऱ्यात मन माझं अडलं

तुझ्या पिरमात  मन  माझं  पडलं

तुझ्या मनावरी,

तुझ्या तनावरी

राज्य करीन,मी राजावाणी।।

 

©  प्रभाकर महादेवराव धोपटे

मंगलप्रभू,समाधी वार्ड, चंद्रपूर,  पिन कोड 442402 ( महाराष्ट्र ) मो +919822721981

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मराठी साहित्य – कविता ☆ दीनानाथा ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता  “दीनानाथा।)

☆ दीनानाथा ☆

 

नाही झाली भेट तुझी

नाही वाचली मी गीता

माय बापाच्या चरणी

फक्त ठेवला मी माथा

 

तेथे भेट तुझी झाली

गाली हसला तू होता

माझ्या हाताला लागली

जणू तुकयाची गाथा

 

नाही व्हायचे वाल्मिकी

राम नाम गाता गाता

होवो श्रावणा सारखी

माझ्या आयुष्याची कथा

 

माझ्या भाग्याची थोरवी

कीर्ति आई यश पिता

हात त्यांचे डोईवरी

काय मागू दीनानाथा

 

माया मोहाची पायरी

नको घराला रे दाता

लालसेचा घडा मनी

त्याला घाततो पालथा

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य – वेदना दिगंत ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। कुछ रचनाये सदैव समसामयिक होती हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी  एक भावप्रवण रचना “वेदना दिगंत )

☆ विजय साहित्य – वेदना दिगंत ☆

 

पिकवतो मोती |माझा बळीराजा ||

ढळे घाम ताजा | वावरात |

 

राब राबूनीया | खंतावला राजा ||

वाजलाय बाजा | संसाराचा.  |

 

पोर दूरदेशी  |  शिकावया गेली||

सावकारे केली | लुटालूट   |

 

ऋण काढूनीया  |  करतोया सण ||

पावसात मन | गुंतलेले   |

 

काळी माय त्याला  | देते दोन घास  ||

जगण्याची  आस  | दुणावली  |

 

माझा  बळीराजा  | जोजवितो  आसू     ||

खेळवितो हासू | लटकेच   |

 

कविराजा मनी |  सतावते खंत  ||

वेदना दिगंत   | बळीराजा   |

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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मराठी साहित्य – कविता ☆ सुजित साहित्य – सांगावा ☆ सुजित शिवाजी कदम

सुजित शिवाजी कदम

(सुजित शिवाजी कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजित जी की कलम का जादू ही तो है! आज प्रस्तुत है उनकी एक भावप्रवण कविता  “सांगावा ”। आप प्रत्येक गुरुवार को श्री सुजित कदम जी की रचनाएँ आत्मसात कर सकते हैं। ) 

☆  सुजित साहित्य  –  सांगावा ☆ 

 

मोठा  अभंग

 

किती खोलवर             जीवनाचा  वार

संकटांचा भार              काळजात .. . . !

 

शब्दांनीच सुरू              शब्दांनी शेवट

चालू वटवट                  दिनरात.. . . . !

 

चार शब्द कधी              देतात आधार

वास्तवाचा वार              होऊनीया.. . . !

 

प्रेमामधे होई                 संवाद हा सुरू

अनुभव गुरू                 जीवनाचा.

 

नात्यांमधे शब्द              पावसाळी मेघ

नशिबाने रेघ                  मारलेली. . . . . !

 

एखादी कविता               मावेना शब्दात

सांगावा काव्यात             सांगवेना . . . !

 

© सुजित शिवाजी कदम

दिनांक  5/3/2019

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 57 – भूपतीवैभव वृत्त ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  एक आध्यात्मिक  एवं दार्शनिक कविता भूपतीवैभव वृत्त । सुश्री प्रभा जी की यह रचना वास्तव में  जन्म और पुनर्जन्म के मध्य विचरण करते ह्रदय की व्यथा कथा है।  पंढरपुर जाना कब संभव होगा यह तो उनके ही हाथों है किन्तु, विट्ठल की कृपा इस जीवन में सदैव बनी रहे यही अपेक्षा है। सुश्री प्रभा जी द्वारा रचित  इस भावप्रवण रचना के लिए उनकी लेखनी को सादर नमन।  

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 57 ☆

☆ भूपतीवैभव वृत्त  ☆

 

पाहिले कधी ना स्वप्न वेगळे काही

चौकटी  घराच्या  मुळी मोडल्या नाही

वाटले असे की एक सारिका व्हावे

पिंज-यात  राघूसंगे रुणझुण गावे

 

पण क्षणात ठिणगी चेतवून मज गेली

जगण्याला माझ्या नवी झळाळी आली

अवचितसे  आले  वाटेवरती कोणी

अन आयुष्याची झाली मंजुळ गाणी

 

नव्हताच कोणता सोस मला नटण्याचा

मी स्वतः स्वतःचा मार्ग एक जगण्याचा

मज कळले होते  नाते काय स्वतःशी

साक्षात काव्य ते होते हृदया पाशी

 

मी येथे आले या धरणीवर केव्हा

गत जन्माची मज ओळख पटली तेव्हा

ही तहान आहे युगायुगांची माझी

प्रत्येक जन्म हा एक कहाणी ताजी

 

अरे विठ्ठला  कसे यायचे पंढरपूरा

नको वाटते जिणेच सारे या घटकेला

तुझ्या कृपेची छाया राहो आयुष्यावर

नको कोणते आरोप झुटे दिन ढळल्यावर

 

पापभिरू मी सदा ईश्वरा तुलाच भ्याले

आणि विरागी वस्त्रच भगवे की पांघरले

कोणी माझे नव्हते येथे मी एकाकी

संकटकाळी तुला प्रार्थिले असेतसेही

 

अशी जराशी झुळूक आली आनंदाची

आणि वाटले जन्मभरीची हीच कमाई

भ्रमनिरास  होता व्यर्थच की सारे काही

दूर  पंढरी दूर दूर तो विठ्ठल राही

 

निष्क्रिय वाटे,नसे उत्साह का जगताना

विठुराया तुज शल्य कळेना माझे आता

भेटीस तुझ्या आतुरले मन येई नाथा

अस्तिकतेचा भरलेला घट माझा त्राता

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मीनाक्षी साहित्य – मी सरपंच झाले – ☆ सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई

सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई जी मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। कई पुरस्कारों/अलंकारों से पुरस्कृत/अलंकृत सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई जी का जीवन परिचय उनके ही शब्दों में – “नियतकालिके, मासिके यामध्ये कथा, ललित, कविता, बालसाहित्य  प्रकाशित. आकाशवाणीमध्ये कथाकथन, नभोनाट्ये , बालनाट्ये सादर. मराठी प्रकाशित साहित्य – कथा संग्रह — ५, ललित — ७, कादंबरी – २. बालसाहित्य – कथा संग्रह – १६,  नाटिका – २, कादंबरी – ३, कविता संग्रह – २, अनुवाद- हिंदी चार पुस्तकांचे मराठी अनुवाद. पुरस्कार/सन्मान – राज्यपुरस्कारासह एकूण अकरा पुरस्कार.)

अब आप सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई जी के साप्ताहिक स्तम्भ – मीनाक्षी साहित्य को प्रत्येक बुधवार आत्मसात कर सकेंगे । आज प्रस्तुत है आपकी एक  सार्थक कविता  मी सरपंच झाले .

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मीनाक्षी साहित्य – मी सरपंच झाले – ☆

 

डोईवर  पदर,

खाली  नदर,

सही  भाद्दर,

अशी  मी  निवडून आले,

राखीव कोट्यातून सरपंच झाले.

 

तू हुबा रहायचं

हात  जोडायच,

जादा न्हाई बोलाय,

असं मला धनी म्हनाले,

अन्  मी सरपंच झाले. ।।

 

आम्ही करतो परचार ,

अजब कारभार,

तुला न्हाई  जमनार,

मालकांचे  बोल  मी आयकले

नि गुमान हुबी मी रहायले  ।।

 

खुर्चीवर मी,

शोभेची रानी,

मागे घरधनी,

हुकूम झेलत रहायले।

नि नावाची सरपंच झाले।

 

चुलीतली अक्कल,

लडवुन शक्कल,

देऊन  टक्कर,

डावपेच शिकुन घेतले

नि शेराला सव्वाशेर ठरले ।।

 

पर एके  दिवशी,

फुडल्याच वर्षी,

करून  सरशी

रावांना मागे मी सारले

नि सोताच कामाला लागले।

 

आता मी शानी ,

हुकमाची  रानी,

गावाची वयनी,

गावाला नंबरात आनले

नि आदर्श सरपंच  झाले  ।।

 

© मीनाक्षी सरदेसाई

‘अनुबंध’, कृष्णा हास्पिटलजवळ, पत्रकार नगर, सांगली.४१६४१६.

मोबाईल  नंबर   9561582372, 8806955070

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 56 ☆ गुलामगिरी ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक समसामयिक एवं भावप्रवण कविता  “गुलामगिरी।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 56 ☆

☆ गुलामगिरी ☆

 

वस्तीच्या ठिकाणी पोट भरत नाही म्हटल्यावर

पंखातील बळ एकवटून

लांबवर अन्न पाण्यासाठी भटकण्याची आम्हा पाखरांची सवयं

स्वतःच पोटभरून

पिल्लांसाठीचा चारा देखील हाती लागतो.

फक्त उडण्याची जिद्द हवी.

ज्यानं चोच दिली तो चारा देणारच

हा विश्वास हवा.

 

असेच एके दिवशी उडत असतांना

जवळच उष्टावलेल्या पत्रावळ्या, नजरेस पडल्या

उष्ट्या पत्रावळ्यांवर ताव मारून

तृप्त मनाने, लवकरच रानात पोहोचलो त्या दिवसापासून आमचे कष्ट संपले…

गाव सधन होतं

रोजच कुठे ना कुठे

भोजनाचे सोहळे होत होते

आम्ही उष्ट्या पत्रावळ्यांवर ताव मारत होतो

जीवन खूप मजेत चाललं होतं…

 

पण एकेवर्षी दुष्काळ पडला

अन्ना पाण्यासाठी लोक

गाव सोडून जाऊ लागले

आता आमचीही उपासमार सुरू झाली

आता पहिल्या सारखी दूरवर उडण्याची ताकद

पंखांत राहिली नव्हती

उष्ट्या पत्रावळीसाठी स्विकारलेली गुलामगिरी

आता जीवघेणी ठरत होती

आळसावलेले पंख

आकाश तोलू शकतील का ?

या शंकेनेच जीव फडफडत होता

जिद्द सोडून चालणार नाही

मेहनती पंखांत पुन्हा विश्वासाचं वारं भरावं लागेल…

आणि आकाशात उडावंच लागेल…!

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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